फ्लाइट

फ्लाइट

जीवन में हम कितनी उड़ाने भरते हैं | सारी मेहनत दौड़ इन उड़ानों के लिए हैं | पर एक उड़ान निश्चित है …पर उस उड़ान का ख्याल हम कहाँ करते हैं | आइए पढ़ें वरिष्ठ लेखिका आशा  सिंह की समय के पीछे भागते एक माँ -बेटे की मार्मिक लघु कथा … फ्लाइट  मां,मेरी सुबह सात बजे थी फ्लाइट है-आशुतोष ने सूचना दी। इतनी जल्दी- अंजलि हैरान हो गई। मैं तो आपका पचहत्तरवां जन्मदिन मनाने आया था, साथ साथ लालकिले पर झंडा रोहण भी देख लिया।शाम को आपके साथ केक काट लिया।काम भी तोजरूरी है- पैंकिंग में लग गया। अंजलि ने गहरी सांस ली कहना चाहती थी, अभी तो जी भरकर तुम्हें देखा भी नहीं, पसंद का खाना भी नहीं खिला सकी,पर कंठ अवरुद्ध हो गया।बेटे को उच्चशिक्षा दी,और वह विदेश उड़ गया।अपना घर संसार भी बसा लिया।बेटे केआग्रह पर जाती,पर वहां तो अकेलापन और हावी हो जाता।सब अपने में व्यस्त,किसी के पास समय नहीं था।कुछ देर के लिए कोई पास बैठ जाता, रेगिस्तान में फूल खिल जाते।इतने बड़े बंगले से तो अपना मुम्बई का छोटा फ्लैटही अच्छा।सामने पार्क में कुछ वरिष्ठ लोग मिलते, बातें होती। घर आकर कामवाली बाई से चोंच लड़ती।एकाकी होने के कारण थोड़ी चिड़चिड़ी हो गई थी। काश, यह रात कभी ख़तम न हो।कल सुबह आशु चला जायेगा, पुनः एकाकीपन का अंधेरा डसने लगेगा। चुपचाप बालकनी में कुर्सी पर बैठ गई। सुबह आशु मां से विदा लेने आया, फ्लाइट पकड़नी थी,पर मां की फ्लाइट तो उड़ चुकी थी। आशा सिंह यह भी पढ़ें …. ठकुराइन का बेटा जेल के पन्नों से -नन्हा अपराधी अहसास दीपक शर्मा की कहानी -चिराग़-गुल आपको कहानी “फ्लाइट” कैसी लगी ? हमें अपने विचारों से अवश्य अवगत कराए | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |

ठकुराइन का बेटा

ठकुराइन का बेटा

क्या प्रेम व्यक्ति को बदल देता है ? व्यक्ति के संस्कार में उसके आस -पास के लोगों का व्यवहार भी शामिल होता है | ठकुराइन का बेटा एक ऐसे ही व्यक्ति की कहानी है जो अपने कर्म के संस्कारों से को छोड़कर एक सच्चा इंसान बनता है | आइए पढ़ें वरिष्ठ लेखिका “आशा सिंह” जी की कहानी …. ठकुराइन का बेटा   पुलिस के डर के मारे वह भागा जा रहा था ।सड़क पर सन्नाटा छाया था।एकबड़ी कोठी की चारदीवारी फाँद कर अंदर कूद गया ।कोठी के पीछे सहायकों केलिए कमरे बने हुए थे,सबसे किनारे वाले कमरे का दरवाज़ा उढ़का था।अंदरपहुँचते ही आवाज़ आई -“ आ गया बेटा।” पता नहीं कैसे मुँह से निकल गया-“हाँ,अम्मा ।” महिला ने संभवत नींद में ही कहा -‘ चुपचाप सो जा ।’ वह नंगे फ़र्श पर लेट गया,पहली बार इतनी मीठी नींद आई । सुबह की रोशनी चेहरे पर पड़ी,देखा चालीस साल की ममतामयी प्रौढ़ा उसे देखरही है।’उठ गया बिरजू। उधर नल है,संडास है।फ़ारिग हो कर रोटी खा लेना।मैं कोठी पर जा रही हूँ ।’   जीवन के ऐसा बदलाव आयेगा,सोचा न था,छोटू से बिरजू बन गया ।सोचते हुएनल पर चला गया,कुछ महिलायें कपड़े धो रही थी । ‘आ गया ठकुराइन अम्मा का बेटा ।अब माँ को छोड़कर मत जाना ।बेचारी नेबड़े कष्ट भोगे है ।’उसने चुपचाप सिर हिला दिया ।   कोठरी में आकर देखा,दो रोटियाँ ढंकी रखी थी ।कितने दिनों बाद चैन की रोटी नसीब हुई ।पड़ोसी की बिटिया गिलास में चाय लेकर आई,बताया कि अम्माअब दोपहर में आयेगी।कोठी पर खाना बनाती है ।   चाय पीकर वह सफ़ाई में जुट गया ।सारे कपड़े तह किये,झाड़ पोंछ की।किनारेएक टीन का बक्सा था,पर उसे खोला नहीं ।अम्मा की साड़ी धोकर अलगनी परफैला दी ।पड़ोसिनो को प्रसन्नता हुई कि अम्मा का बेटा सुधर गया ।   उन्नाव के किसी गाँव में अम्मा का घर था।पति के गुजर जाने के बाद किसीप्रकार अपने एकमात्र पुत्र के संग जी रही थी।देवर ने बेटे को न तो पढ़ने लिखनेदिया,और बिगाड़ दिया ।इससे भी संतोष न हुआ,तो जायदाद के लिए हत्या काविचार किया ।अम्मा को ख़बर मिल गयी,और वह बेटे को लेकर भाग निकली। रास्ते में बेटा जाने कहाँ उतर गया ।वह व्याकुल भटकने लगी,उसे  कनोडिया परिवार की बड़ी सेठानी मिल गई ।समझा बुझाकर अपने साथ ले आई ।अस्सीवर्षीय माता का पूरे घर पर हुकुम चलता था। पुत्र गिरधारीलाल,पौत्र राधे लाल,उनकी बहुयें के लिए माता की आज्ञा सर्वोपरि थी।अब तो नये युग के राघव भी बड़े हो गए थे,दादा के आदेश से आफिस जानेलगे।ये माता की चौथी पीढ़ी के हैं ।   ठकुराइन को रहने के लिए कोठरी मिल गई ।खाना बनाने का कौशल था,सो रसोई संभाल ली।माता को हाथ की चक्की का पिसा आटा चाहिए था,सो माताके लिए गेहूं पीस कर रोटी बनातीं।बहुओं को ठकुराइन के कारण बहुत आराम हो गया ।ठकुराइन अम्मा कही जाने लगी ।सेठानी ज़बरदस्ती पगार देतीं,जिसेवह टीन के बक्से में रख देती,पर अपना खाना स्वंय बनाती। गिरधारीलाल को पता चला कि ठकुराइन का बेटा आ गया है ।उन्होंने विरोध किया,पता नहीं कौन है,चोर चकार न हो।पर माता के सामने कुछ कह नहीं सके।संशय का कीड़ा कुलबुलाता रहा। रात को अम्मा ने रोटी बनाई,खाकर अम्मा लेट गई।वह अम्मा के मना करने परभी पैर दबाने लगा।-‘ अम्मा मैं बिरजू नहीं हूँ ‘ ‘मुझे पता है,तुझे घर चाहिए था,मुझे बेटा ।अब तू बिरजू है,ब्रजेन्द्र सिंह ।   अम्मा मैं पासी हूँ ।छोटे नाम है ।छोट जात का हूँ । ‘तू चाहे कुछ भी रहा,अब मेरा बिरजू है ।   बिरजू चुपचाप पैर दबाता रहा-‘अम्मा अगर बिरजू आ गया तो।’   ‘तो क्या,मैं कह दूँगी कि तू उसका कुंभ मेले का बिछड़ा भाई है।’ हर सवाल का जवाब अम्मा के पास था।   ‘ एक सवाल और पूछ ।दरवाज़ा क्यों खुला था। ‘एक उम्मीद थी कि खुले दरवाज़े से किसी दिन बिरजू आयेगा,और आ गया।’अम्मा गहरी नींद में सो गई।   छोटू उर्फ़ बिरजू ने यहीं रहने का निश्चय कर लिया,ममता की छाँह छोड़ कर कहाँ जाता ।   कोठरी के पीछे काफ़ी जमीन खाली पड़ी थी।अम्मा ने बड़ी सेठानी से आज्ञा लेली ।बिरजू ज़मीन को समतल करने में जुट गया ।क्यारियाँ बना कर सब्ज़ियाँ बो दी।किनारे पर कुछ गेंदा के पौधे लगाए ।बगिया लहक उठी।अब सारे पड़ोसी वहीं से सब्ज़ी लेते ।   कोठी पर फूल देने वाली नहीं आई ।हंगामा मच गया कि माता पूजा कैसे करेंगी।बाहर इतना बड़ा लान था,पर फूल नहीं थे। उर्मिला जो पड़ोसी थी,बोली’चलिये मालकिन अम्मा की बगिया से फूल ले आयें। बड़ी मालकिन कोठी के पीछे आई ।इधर कोई आता नहीं था।बगीचा देख ख़ुशहो गयीं।बिरजू ने फूलों से डलिया भर दी।बेल से एक लौकी तोड़ पेश की । अब मालकिन अपने पति गिरधारीलाल जी से बिरजू को आफिस में लगवाने को कहने लगी।   गिरधारीलाल बिरजू से चिढ़ते थे-पता नहीं कहाँ से चोट्टा पकड़ लाई है ।बेटा बना लिया ।   मालकिन-जब से अम्मा ने रसोई संभाली है,एक चम्मच भी ग़ायब नहीं हुई ।मसालदान में इलायची भरी रहती है । अपनी माता और पत्नी के सामने गिरधारीलाल ने हथियार डाल दिए ।पोते राघवके कक्ष का चपरासी नियुक्त किया । ड्राइवर राम सिंह ने वर्दी दिलवा दी,समझाया कि बड़े सेठ समय के पाबंद हैं ।छोटे सेठ थोड़ा लेटलतीफ़ है ।सबसे जूनियर राघव सेठ बड़ी मुश्किल से आते हैं।तुम्हें उनके कमरे की देखभाल करनी है,बाक़ी समय बाहर स्टूल पर बैठ करघंटी बजते अंदर जाना ।   बिरजू दस बजे से पहले आफिस पहुँच जाता,कमरा झाडपोछ कर चमका देता ।राघव मस्त मौला युवक थे।एकदम लापरवाह,अभी तो पिता और दादा व्यापार संभाल रहे हैं,सो बेफ़िक्री से सीटी बजाते दो ढाई बजे आते ,जल्द ही निकल जाते ।जब से सगाई हुई है,शाम को अक्सर होने वाली संगिनी के साथ घूमनेनिकल जाते।   जब भी आते,बिरजू को मुस्तैद पाते ।हंस कर -तू पूरे समय डटा रहता है ।वेलापरवाह हो सकते थे,पर बिरजू को अपनी अम्मा का ख़्याल था।   सुबह जब वह झाड़ू लगा रहा था,कोई चीज़ कूड़े में चमकती नज़र आई ।उठाकर देखा,हीरे की अंगूठी थीं।बड़ा हीरा जगमगा रहा था ।लाख दो लाख की तो होगी।अंदर बैठा चोर ललकारने लगा,निकल ले,बहुत दिनों की ऐश है।किसी कोक्या पता लगेगा कि अंगूठी मुझे मिली।वह अंगूठी कपड़े से पोंछता जा रहा था ।   बड़े सेठ के कमरे … Read more

क्या हम मुताह कर लें?

मुताह

  मुस्लिम धर्म में मुताह निकाह की परंपरा है | ये एक तरह से कान्ट्रैक्ट मैरिज है | ये कॉन्ट्रैक्ट एक दिन का भी हो सकता है, कुछ महीनों का और कुछ घंटों का भी | इसमें मेहर पहले ही दे दी जाती  है | किसी समय ये एक स्त्री को संरक्षण देने के लिए था पर आज इसका स्वरूप सही नहीं कहा जयाया सकता | क्योंकि वेश्यावृत्ति की इजाजत नहीं है इसलिए ये उस पर एक मोहर लगाने की तरह है | निकाह से पहले ही बता दिया जाता है कि ये मुताह निकाह है | इसलिए कॉन्ट्रैक्ट खत्म होते ही दोनों अलग हो जाते हैं | इस निकाह से उत्पन्न बच्चों के कानूनी अधिकार नहीं होते |  पुरुष कितने भी मुताह कर सकते हैं पर स्त्री को एक मुताह के बाद दूसरे की इजात तभी है जब वो इददत की अवधि पूरी कर ले | ये चार महीने दस दिन का मर्द की छाया से बचकर  ऐकांतवास का समय होता है | ये तो रही मुताह निकाह की बात |पर आज हम वरिष्ठ लेखिका आशा सिंह जी की सच्चे किस्सों पर आधारित शृंखला “जेल के पन्नों से” से एक ऐसी कहानी ले कर आए हैंजो .. | सवाल ये उठता है कि आखिर वो ऐसा क्यों करती है ? हमने वाल्मीकि की कथा पढ़ी है | जहाँ उनके गुनाह में परिवार का कोई सदस्य शामिल नहीं होता | फिर भी सब वाल्मीकि नहीं होते |गुनाह की तरफ भागते हैं | पैसा , प्रतिष्ठा, बच्चों की परवरिश , परिवार की जरूरतें | वाल्मीकि होने के लिए जरूरी है समय रहते गुनाह का अहसास |   क्या हम मुताह कर लें?     जेल में सबसे भयानक दिन,जब किसी को फांसी दी जाती है। यद्यपि    जघन्य अपराध के लिए ही फांसी की सजा सुनाई जाती है। न्यायाधीश भी सजा सुनाकर कलम तोड़ देते हैं। उस दिन जेल में अजीब सन्नाटा छा जाता है।जब जब घंटा बजता,कलेजा मुंहको आ जाता,बस ज़िन्दगी को इतना   समय शेष है।उस समय उसके जुर्म  को भूलकर बस पल पल खींचती मौत की बात होती। कैदी की अंतिम इच्छा पूछी जाती। शमशाद को हत्यायों और डकैती के मामले में फांसी  की सजा मिली थी। उसने अपनी पत्नी शबनम से मिलना चाहा | मुलाकात के समय जेलर उपस्थित थे।सींखचे दोनों के बीच में,बीबी बराबर सुबकती जा रही थी। मन बार बार चीत्कार कर रहा था |काश, जो सब वो देख रही है वो बस एक सपना होता| कितनी बार  कहा  था “हराम का पैसा घर मत लाओ |रूखी -सूखी में भी जन्नत है |” पर शमशाद समझा ही  नहीं | शौहर से खोने से कहीं ज्यादा दुख उसे इस बात का था कि बच्चे एक हत्यारे के बच्चे के ठप्पे के साथ कैसे पलेंगे | पर ऊपर से कुछ कहा नहीं | शमशाद भी अपने परिवार से बहुत प्यार करता था |उसे भी खौफ था कि से  बाद उसके बच्चे कैसे पलेंगे |इसीलिए तो हर तरीके से कमाया था धन उसने | न डकैती को गलत समझा, न हत्या को  और नया ही दारू में उड़ाने को | सिसकियाँ सुन कर उसका दिल भर आया | अंतिम समय बच्चों के प्रति खुद को आश्वस्त करने के लिए समझाने लगा – रोओ नहीं, कुछ माल अम्मा की चारपाई के नीचे गड़ा है, थोड़ा भैंस की नाद के नीचे। कुछ पै सा लाला के पास जमा है, हर महीने खर्च को लेती रहना बच्चों की परवरिश अच्छे ढंग से करना। खूब पढ़ाना लिखाना। हमारी तरह  गलत सोहबत में न पड़ें।पूछें तो कहना कि अब्बा दुबई कमाने गये है। सिसकियां तेज हो गई।कैसा मिलन जो हमेशा बिछुड़ने के लिए था। शमशाद तसल्ली देते हुए बोला – अब ज्यादा वक्त नहीं बचा है।बैरक में लौटने ही वाला था,बीबी ने कहा- एक बात पूछूं ? हां हां बोलो- शमशाद ने कहा। ‘क्या हम मुताह कर लें ?‘ शमशाद के चेहरे  का बल्ब फ्यूज हो गया।अपने बीबी बच्चों से बेइंतहा प्यार करने वाला फांसी से पहले टूट कर मर गया। ‘कर लेना, और भारी कदमों से बैरक की ओर चल दिया। कुछ अभागे   ऐसे भी होते हैं जिन्हें मर कर भी चैन  नहीं मिलता। जेलर जो बड़ी मुश्किल से अपने गुस्से को दबाये थे,बम्ब की तरह फट   पड़े-बेवकूफ औरत,वह तो कुछ देर बाद दुनिया छोड़ कर जाने वाला था।कम  से कम उसे सुकून से जाने देती।तूने तो पहले ही उसकी जान लें ली।मरने के  बाद कुछ भी करती, क्या वह देखने आता। एक निराश, अजीब सी नजर से उसने  उसने जेलर की ओर देखा | फिर, पैसा..  डकैती,हत्या ,मुताह .. बड़बड़ाते हुए शबनम डबडबाई आँखों के साथ जेल से बाहर निकलने लगी | आशा सिंह इस प्रथा पर डिटेल जानकारी के लिए पढ़ें –मुताह जेल के पन्नों से -नन्हा अपराधी जेल के पन्नों से – अंतिम इच्छा जेल के पन्नों से–हत्यारिन माँ जेल के पन्नों से आप को ये कहानी “क्या हम मुताह कर लें ?” कैसी लगी |हमें अपने विचारों से अवश्य अवगत कराये | अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज को लाइक करें |

जेल के पन्नों से -नन्हा अपराधी

नन्हा अपराधी

  एक नन्हा  मासूम सा  बच्चा जेल के अंदर आया माँ को पुकार रहा था .. माँ को नहीं | कहन से आया क्यों आया वो मासूम जेल में |पढिए वरिष्ठ लेखिका आशा सिंह के धरावहिक जेल के पन्नों से की अगली कड़ी में नन्हा अपराधी जेल शहर से बाहर स्थित थी। मुख्य राजमार्ग से अंदर की ओर सड़क जेल कीओर जाती है,जिसके दोनों ओर कर्मचारियों के आवास थे।शाम को महिलाएंगपशप करती, बच्चे सामने पार्क में खेलते। एक सांय छोटेलाल ने बताया-‘ साहब,जेल में एक छोटा बच्चा आया है, बहुत हीसुन्दर है।‘ ‘मॉ के साथ आया होगा।‘ किसी ने कहा। ‘नहीं साहब,मां तो उसकी भाग गई। स्टेशन पर किसी सेठ का थैला लेकर भागा था,पर लोगों ने पकड़ लिया।जब से आया है बराबर आया मां कहकर रोते जारहा है।यही छै सात बरस का होगा। ‘छोटे बच्चे तो स्कूल जाते हैं,जेल में क्यों लाया गया ‘एक बच्चे ने पूछा। मैंने कहा-‘बेटे इसीलिए कभी चोरी मत करना। बच्चों के साथ महिलाओं कीउत्सुकता बढ़ती जा रही थी।जेलर साहब से निवेदन किया गया कि बच्चे कोदेखना है। छोटे लाल को डांट पड़ी कि जेल की बात बताने के लिए। पर हम लोगों का आग्रह देख एक सिपाही के साथ गेट पर लाया गया। वास्तव मेंबच्चा बेहद खूबसूरत और मासूम था।हाथ पैरों में बेड़ियां पड़ी थी। कपिल देव सिपाही ने बताया- यह बहुत तेज भागता है, इसलिए बेड़ी डाली गईहै।बराबर मां के लिए रो रहा है। उसको देख कर कान्हा की याद आ गई।उसे तो मां यशोदा शरारत करने पररस्सी से बांध देती थीं। हम लोगों ने पूछा-थैला क्यों उठाया। बहुत ही मासूम उत्तर-आया मां ने कहा था। हम सब यही बातें कर रहे थे कि बच्चा अच्छे परिवार का लग रहा है।उसकाआया मां कहना भी खटक रहा था। इस केस पर काम कर रहे इंस्पेक्टर साहब से पूछा। उन्होंने कहा-लगता है किबच्चा चोरों की टोली का है। कुछ घरों से बच्चा चुरा लाते हैं।उनसे भीख मंगवातेहैं,चोरी करवाते हैं।बच्चा धीरे से सामान  पार कर देता है, किसी को शक नहींहोता है। कभी कभी रोशनदान से अंदर कुदा देते हैं,बच्चा दरवाजा खोल देता है, गिरोह लूटपाट करता है। ‘यह आया मां क्यों कह रहा है। उन्होंने कहा-शक सही है।बच्चा अच्छे परिवार का है,इसकी मां ने देखभाल करनेके लिए आया रखी होगी।अपने बच्चे के लिए समय नहीं था,सो बच्चा आया सेज्यादा हिल गया था।मौका पाकर बच्चे के साथ गिरोह में शामिल हो गयी।पहलेविश्वास अर्जित किया फिर धोखा दिया। अब देखिए बच्चा भी मां के बजायआया मां कह रहा है।हर तरह से पूछताछ जारी है, पर बच्चे को अपने घर मां-बाप का स्मरण नहीं है।वह औरत उल्टी दिशा में भाग गई, इसलिए पकड़ी नहींजा सकी। प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि वह चालीस वर्षीय ,गहरा रंग और गठेशरीर की थी।हम पूरी कोशिश कर रहे हैं, पर गिरोह बहुत चालाक होता है, होसकता है कि डेराडंडा उठा कर दूसरे शहर चला गया हो। ‘बेचारी मां, अपने बच्चे के लिए कितना तड़पती होगी। इंस्पेक्टर नाराजगी से बोले -कैसी मां जो अपने बच्चे को आया के हवाले कर क्लब पार्टी में मशगूल रही। किसी महिला ने कहा -शायद मजबूरी रही हो,वह नौकरी करती हो। हो सकता है। ऐसे में अपने परिवार पर विश्वास करना चाहिए।अपनी कीमती चीजें तो संभाल कर रखती हैं। बच्चे तो अनमोल होते हैं। बाद में सूचना मिली कि बच्चे को बाल सुधार केन्द्र भेज दिया गया। कपिल देव बोले -अब वह पक्का अपराधी बन कर बाहर आयेगा। आशा सिंह यह भी पढ़ें ॥ जेल के पन्नों से – अंतिम इच्छा जेल के पन्नों से–हत्यारिन माँ जेल के पन्नों से आपको धरवाहिक जेल के पन्नों से की ये कड़ी “नन्हा अपराधी” कैसी लगी ?अपनी प्रतिक्रिया से हमें अवश्य अवगत कराए |अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |

जेल के पन्नों से

जेल के पन्नों से

जेल .. ये शब्द सुनते ही मन पर एक खौफ सा तारी हो जाता है | शहर की भीड़ -भाड़ से दूर,अपनों से अलग, एक छोटा सा कमरा,अंधेरा सीलन भरा | जेल जाने का डर इंसान को अपराध करने से रोकता है |फिर भी अपराध होते हैं | लोग जेल जाते हैं |क्या सब वाकई खूंखार होते हैं ?या कुछ परिस्थितिजन्य  अपराधी होते हैं और क्षणिक आवेश में किये गए अपराध की सजा भुगतते हैं | आइए मिलते हैं ऐसे ही जेल के कैदियों से और जानते हैं उनकी सच्ची कहानी वरिष्ठ लेखिका आशा सिंह जी की कलम की जुबानी .. जेल के पन्नों से  जेल का नाम ही मन में भय उत्पन्न कर देता है ।एक बार जेल में ही पतिदेव की पोस्टिंग हुई,सो जेल और क़ैदियों से मिलने का अवसर मिला । गीता का ज्ञान देने वाले भगवान श्री कृष्ण का जन्म जेल में हुआ था ।जेल के परिसर में कृष्ण जन्माष्टमी बहुत धूमधाम से मनाई जाती है ।जन्माष्टमी पर झाँकी देखने जेल परिसर में गयी।बड़े ही सुंदर ढंग से सजाया गया था कागज की पट्टियों को काटकर मंदिर बनाया गया था ।एक्स-रे प्लेट पर बालकृष्ण की छवि जो लाइट पड़ते जगमगा उठती।किसी पंखे के चक्र पर किनारे गोपियाँ और बीच में बाँसुरी बजाते कृष्ण ।बुरादे को अलग अलग रंगों में रंग कर रास्ते,उसपर प्रभु के नन्हे चरण,जो नंदवाल के झूले तक जा रहे थे । मैं तन्मयता से झांकी को देख रही थी।कुछ क़ैदी भजन कीर्तन कर रहे थे।एक क़ैदी से पूछा -‘बहुत सुंदर सजाया है।‘उसने बताया कि उमर का कमाल है। मैंने उमर को बधाई देनी चाही,एक दुबला पतला सांवले रंग का युवक मेरे सामने लाया गया मैंने उसकी कला की बहुत तारीफ की। उसने झुक कर शुक्रिया कहा। उसके चेहरे पर इतनी मासूमियत भरी थी कि मैं सोच में पड़ गई कि इससे अपराध हुआ होगा। डाक्टर सिंह ने बताया कि इस पर तीन कत्ल का जुर्म है। फांसी की सजा हुई थी,पर महात्मा गांधी के सौ वर्ष पूरे होने के कारण उम्रकैद में तब्दील हो गई। ‘पर यह कितना मासूम दिखता है,शरीफ लगता है।इसने खून किया, विश्वास नहीं होता।‘ ‘अच्छा ,आप खुद ही पूछ लेना ।‘जेलर साहब ने मेरी जिज्ञासा शान्त करने के लिए उसे मेरे बंगले पर भेज दिया। हथकड़ी बेड़ी में जकड़ा उमर सिपाही के संग लाया गया।उसको देखकर मस्तिष्क में ववंडर चलने लगा। इतनी कम उम्र में जेल में आ गया।जब तक छूटेगा एकदम कृशकाय वृद्ध हो चुका होगा। शायद उसे खुले आसमान के नीचे अच्छा लगा। मैंने चाय मंगवायी तो उसने अपने तसले में ली। ‘अरे तुम लोग अपना तसला साथ लेकर चलते हो।‘ ‘अरे मालकिन, छोड़ कर आता तो चोरी हो जाता।ससुरे चोर डकैत तो भरे हुए हैं।‘चाय में बिस्कुट डुबो कर खाते हुए बोले। देखो हम बैठे है, मैडम जो पूछे बता देना। बड़ी मुश्किल से वह मोंढे पर बैठा। ज्यादा समय नहीं था,सो मैंने बात शुरू की-‘तुम तो शरीफ खानदान के लगते हो। यहां कैसे आ गये।‘ उसने सिर झुकाए कहा-‘मैडम इश्क के कारण। मैंने किया नहीं पर हो गया। लखनऊ में अब्बा हुजूर की फोटो फ्रेम करने की छोटी सी दुकान थी,साथ में बुक बाईंडिग का भी काम करते थे। मैं इकलौता बेटा, मां बाप की आंखों का नूर था।दो मकान भी थे। किराया अच्छा खासा आ जाता। जिन्दगी मजे से बीत रही थी। अचानक तूफान आ गया।कश्ती डगमगाने लगी। दुपहर को अब्बा खाना खाने घर जाते,उस समय मैं कालेज से लौटकर दुकान पर बैठता। मैं एक फ्रेम सही कर रहा था कि दुकान रोशन हो गई। निहायत खूबसूरत हसीना मेरे सामने खड़ी थी।उनके गोरे रंग की वजह से पूरी जगह जगमगा उठी। मैंने पूछा‘जी बताइए।‘ उन्होंने एक बेहद पुरानी तस्वीर जो पानी में भीग कर खराब हो गई थी। जगह जगह से फट गई थी,कई जगह बदरंग हो गई थी,‘यह मेरी दादी जान की तस्वीर है। पता नहीं कैसे पानी में भीग गई। अब्बा हुजूर को बहुत ही प्यारी है। अम्मी ने कहा कि किसी तरह ठीक कराओ,अब्बू को पता नहीं लगे। मैने तस्वीर ली-‘कोशिश करता हूं।‘ ‘कोशिश नहीं,आपको करना ही है।आपकी दुकान का नाम सुनकर ही आई हूं।‘ मैने फोटो देखी।वे भी अपने जमाने की हूर की परी होंगी। एकाएक दिमाग में बिजली कौंधी,ये तो अपनी दादी पर पड़ी है। पुराने जमाने के ढेरों जेवरात पहिने गोया खुद से शरमा रही हो। पता नहीं कैसे फोटो खींचने की इजाजत दी होगी। विचारों के समन्दर से बाहर आया। धीरे धीरे फोटो फ्रेम से अलग की। बाबा आदम के जमाने की तस्वीर,किस मुसीबत में फंसा गई। मैं पेन्टिग कर ही लेता था। आहिस्ता आहिस्ता खराब जगहों को भरने लगा। एक एक जेवर को संवारा। बालों पर, कपड़े सब पर कहीं ब्रश कहीं पेन्सिल चली।अब्बा मुझे व्यस्त देख बहुत खुश हुए। तीसरे दिन वे आ धमकी। अपने मोतियों जैसे दांतों की नुमाइश करती हुई-‘हो गया।‘ मैंने धीरे से पेपर में लिपटी हुई फोटो उन्हें दी। ‘माशा अल्लाह।कमाल कर दिया।जी चाहता है कि ऊंगलियां चूम लूं।‘अपनी बात पर खुद ही शर्मा गई। बटुआ खोल कर मेहनताना देना चाहा, मैंने मना कर दिया। ‘आपने इतनी तारीफ कर दी, मेहनताना वसूल। वे शुक्रिया अदा कर चली गई। अगले दिन वे पेन्टिग का ढेरों सामान लेकर हाजिर हो गई।ब्रश बहुत नफीस और महंगे थे। मैं हतप्रभ-‘ नहीं बहुत महंगे हैं।‘ मैं चाहती हूं कि तुम बहुत बड़े आर्टिस्ट बनो। खूब नाम कमाओ। ‘अरे नहीं साहब‘मैने कहना चाहा। ‘क्यो मकबूल फिदा हुसैन साहब हैं ना। तुम क्यों नहीं उनकी तरह मशहूर हो सकते।‘ मन में सपने जगाकर चली गई। हुसैन तो नहीं बन पाया, कैदी नंबर २२१ बन गया। मैं ने तसल्ली दी। मैंने कैनवस पर शायरी शुरू कर दी।वे आतीं,पेन्टिग को सराहती।मेरा हौसला अफजाई करतीं।‘बहुत सारी बना डालो।मै आर्ट गैलरी में नुमाइश लगवा दूंगी‘ मेरी उड़ान को पंख देती। अब्बू की अनुभवी आंखों ने ताड़ लिया-‘बेटा हम छोटे लोग हैं।वे बड़े बिजनेसमैन मिर्जा साहब की बेटी हैं।‘ ‘नहीं अब्बू,वे बस हौसला अफजाई करतीं हैं।‘ हौसला अफजाई कब मुहब्बत में तब्दील हो गई, पता नहीं चला। हम अक्सर पार्क में मिलते।वे अपनी शानदार कार से आतीं, मैं अपनी खटारा सायकिल से। ‘जब तुम्हारा नाम हो जाए, मुझे भूल न जाना।‘ ‘सवाल ही नहीं है,आप हमेशा मेरे साथ रहेंगी‘ पर हमारे फैसले … Read more

ढोंगी

आशा सिंह

श्राद्ध पक्ष के दिन चल रहे हैं |हम सब अपने अपने हिसाब से अपने पित्रों के प्रति सम्मान व्यक्त कर रहे है | लेकिन अगर श्रद्धा न हो तो सब कुछ मात्र ढोंग रह जाता है | पढिए आशा सिंह दी की लघु कथा ढोंग ढोंग    आज पितृपक्ष की मातृनवमी है। मैं छत पर मां की पसंद का भोजन लिए कोओं की प्रतीक्षा कर रहा हूं। कोए भी मेरे ढोंग पहचानते हैं, आ नहीं रहे हैं। उस दिन आफिस में जैसे ही टिफिन खोला, मन व्याकुल हो उठा। लगा कोई पुकार रहा है। टिफिन चपरासी की ओर बढ़ा दिया, बोला ‘खाने के बाद टिफिन घर पर पहुंचा देना ‘सब पूछते रह गये कि क्या बात हो गई। बिना किसी से कुछ कहे मैं तेजी से कार भगाता हुआ घर पहुंचा। टी वी चल रहा था, बच्चे शोर मचा रहे थे। मुझे बेवख्त आया देख पत्नी चौंक गयी-‘क्या हुआ?’ मां कहां है? अपने कमरे में सो रही होंगी। मां के कमरे में देखा, उसकी सांसें उखड़ रही थी। मुझे देख कर मुस्कराई,-‘तू आ गया बेटा। मैं याद कर रही थी कि तुझको बिना देखे न चली जाऊं।‘ नहीं,आप कहीं नहीं जा रहीं। मैं अभी हस्पताल लेकर चलता हूं। उसने हाथ हिलाकर मना कर दिया-‘बस बेटा वक्त आ गया है।‘ मैंने मां के ठंडे पड़ते हाथ को थाम लिया-‘मां कुछ बोलो, कुछ चाहिए।‘ हल्की सी मुस्कान उसके चेहरे पर आई- मेरी प्लेट लगा ला। जब कभी हम पार्टियों में जाते थे, मां को बुफे सिस्टम से बड़ी चिढ़ थी। बफैलो सिस्टम कहती थी। मुझसे कहती-मेरी प्लेट लगा कर ले आ।‘ प्लेट में बस एक रोटी, एक ही सब्जी, दही बड़ा और पापड़। पार्टी में तरह तरह के व्यंजनों की भरमार होती, पर मां का एक ही अंदाज था। कभी पूछा तो रटा-रटाया जवाब-‘उतना ही लो थाली में, बहे न अन्न नाली में। कभी कभी मैं कह देता हजार रूपए प्लेट थी। मां हंस देती- हम उनके कार्य क्रम में आये है, प्लेट का पैसा नहीं देखने। मैं रसोई में आया, फटाफट रोटी बनाने लगा।सहम कर पत्नी और बेटी भी मदद के लिए आ गई। कल दहीबड़े बने थे, प्लेट में लगाओ। हां पापड़ भी।बेटी पापड़ भूनने चली, मैने कहा- दादी को तले पापड़ पसंद है। जल्दी से प्लेट लगा कर मां के पास गया,पर वह जा चुकी थी। मैं प्लेट लिए खड़ा रह गया। इस समय भी छत पर खड़ा हूं। लग रहा है कि कोऐ भी कह रहे हैं- ढोंगी। आशा सिंह श्राद्ध पक्ष : उस पार जाने वालों के लिए श्रद्धा व्यक्त करने का समय जीवित माता -पिता की अनदेखी और मरने के बाद श्राद्ध : चन्द्र प्रभा सूद श्राद्ध की पूड़ी आपको लघु कथा “ढोंगी कैसी लगी | अटूट बंधन का फेसबूक पेज लाइक करें और साइट को सबस्क्राइब करें |ताकि अटूट बंधन की रचनाएँ सीधे आप तक पहुँच सकें |

बोलती का नाम गाड़ी

गाड़ी

इस कोरोनाकाल में लॉकडाउन से हम इंसान तो परेशान हैं   ही  हमारी गाड़ियां  भी खड़े खड़े उकता गईं हैं | उन्ही गाड़ियों  की व्यथा कथा को व्यक्त करती एक रोचक कहानी .. बोलती का नाम गाड़ी लाक आऊट के लंबे दिन और रातें सन्नाटे में घिरी। दिल्ली का शानदार मोहल्ला,आदमी कम, कारें ज्यादा। ससुरजी की गाड़ी,सासु जी की, बेटेकी और बहू की अलग अलग। सुबह पिता आफिस चले जाते। बेटा साथ नहीं जा सकता,देर तक सोने की आदत। पिता बड़बड़ाते हुए ड्राइवर के साथ चले जाते। मां बेटे का पक्ष लेती। जवान बेटा है,देर तक सोने दो। बेटा जी देर से उठते, जब तक नाश्ता करते, फैक्ट्री का लंच टाइम हो जाता। माता जी सत्संग में जाती। बहू के पास सैकड़ों काम-पार्लर, जिम जाना और शाम को किटी पार्टी। लाक डाऊन के कारण बाहर निकलना बंद हो गया। दिन भर बरतन, झाड़ू पोंछा। बर्तनों के खड़कने के साथ साथ सास बहू कड़ कड़ करतीं। सारी कारें आड़ी तिरछी खड़ी हैं। पार्किंग को लेकर अक्सर महाभारत होता रहता है। आजकल सारी गतिविधियों पर विराम लगा है,सो सारी कारें मीटिंग कर रही हैं। टेरेनो कांख कर बोली-‘हम तो सुस्ता सुस्ता कर थक गए।‘ स्कार्पियो बोली-‘खडे खड़े कितनी धूल जम गयी है।‘ बोलेनो ने कहा-‘हाय,मुझसे तो बदबू आ रही है‘ सबने मुंह सिकोड़ा और स्वीकार किया कि कई दिनों से न नहाने की वजह से ऐसा हुआ। इगनिस ने अपना दुखड़ा रोया-‘कितना अच्छा लगता था,जब मैं नहा धो चमकती हुई मैडम का इंतजार करती थी। मैडम नीचे उतरकर मुझे स्टार्ट करती। मैं भी बिना आवाज किए चल पड़ती। कितने मुलायम हाथों से स्टीरिंग घुमाती।आह। अब तो कालेज बंद है। वे तो आनलाइन पढ़ा रही है,पर मैं तो खड़ी हूँ।        ‘तभी तुझे परदे के पीछे छिपा दिया गया।सारी गाडियां खी खी करने लगी। टोयोटा, इनोवा ने अपना ज्ञान बघारा-‘सब मोदिया ने किया है, पेट्रोल बचाने के लिए।‘ ‘नही, स्विफ्ट ने बात काटी-‘केजरीवाल ने किया है। प्रदूषण के कारण उसकी खांसी रुक नहीं रही थी। अपनी खांसी के कारण हम पर ज़ुल्म किया।‘ वार्ता दिल्ली में चल रही थी, इसलिए सबके पास राजनीतिक ज्ञान का भंडार था। लाल रंग की पजेरो अपने को दादा समझती थी,को गुस्सा आ गया। वैसे भी लाल रंग गुस्से का प्रतीक है। दहाड़ कर बोली -‘चुप करो तुम सब,जो मन में आया,बक देती हो। अच्छा,तुम्हीं बताओ, सर्वज्ञान वाली। मेरे मालिक गाड़ी में न्युज सुनते हैं,तभी समझ में आया। पड़ोस का मुल्क चीन है। वहीं बीमारी का वायरस भेजा है। फोर्ड फियस्टा बोली-‘कोई बीमारी भेजता है। फूल या मिठाई भेजते हैं। इसके कारण हम सबको खड़ी कर दिया गया।‘ सबने हाँ में हाँ मिलाई। हुंडई बोली-‘खडे खड़े बदन पिरा गया।‘ वैगन आर ने कहा-‘मेरे तो टायर ही बैठ गए।‘ बैटरी डाऊन होने की बात सबने स्वीकारी। लाक आऊट खुलने पर सब हस्पताल जाओगी। मतलब मैकेनिक के पास। यह महामारी छूत से फैलती है। इसीलिए सबको बाहर निकलने से मनाही है। पजेरो ने समझाया। मारुति अर्टिगा ने कहा-हां,एक लड़का फरारी में जा रहा था, पुलिस ने पकड़ कर उठक बैठक करवाई।‘ ‘हाय,बिचारी फरारी,उसकी तो नाक ही कट गई’ मारुति ८०० बोली। ‘अब सरकार की बात नहीं मानोगे तो यही होगा। कहावत है कि ‘सटेला तो मरेला‘ अरे यह तो हम गाड़ियों के लिए है। तनिक दूरी बनाये रखें नहीं तो भिड़न्त हो जायेगी। सबने एक स्वर में कहा। ‘अब यही बात मनुष्यों के लिए है’ पजेरो ने बात खत्म की। सुबह जब चौकीदार आया, उसे घोर आश्चर्य हुआ, सारी गाड़ियां कतार में एक मीटर के फासले से खड़ी थीं।   आशा सिंह Attachments area ReplyForward

नीम का पेड़‘

दो घरों के बीच अपनी शाखाएं फैला कर खड़ा हुआ नीम का पेड़ उन के बीच विवादों की जड़ था | शाखें भी छटवाई गयीं पर वो फिर किसी शैतान बच्चे की तरह अपनी नन्ही -नहीं टाँगे बढ़ता हुआ दो घरों के बीच की एल .ओ .सी पार कर शान से मुस्कुराने लगता | इस नीम के पेड़ की वजह से ना जाने क्या -क्या सितम हुए पर आखिरी वार इतना मारक था की …जानिये आशा सिंह जी की कहानी से  नीम का पेड़  पिता जी को उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाना पड़ा, लिहाजा बाबा हम लोगों को बनारस ले आये। सरकारी बंगले में रहने वाले हम बच्चों के लिए कोठी अजूबा थी।तिमंजला भवन जिसके आगे पीछे के दरवाजे दो गलियों में खुलते थे। बनारस की गलियां चमत्कारी है, कौन सी गली कहां खुलेगी, बनारस वाले ही जाने।कहते हैं कि चौसठ योगिनियां भी गलियों के जाल में फंस गई।लार्ड हेस्टिंग्स की सेना गलियों से बाहर नहीं निकल सकी। पीछे का दरवाजे से बेनियाबाग पहुंच जाते थे सामने वाला बेहद मजबूत दरवाजा था।उसे सदर दरवाजा कहा जाता था।चोरी के भय से दादी अपने सामने बंद करवाती।बीच में बड़ा आंगन, जिसमें कथा और शादी का मंडप लगता। चारों तरफ कमरे थे। प्रथम तल पर भी इसी प्रकार कमरे बने हुए थे।तीनो ओर कमरे थे,जो स्थान खाली रखा गया था,उसे धूल कहते थे। यहां पापड़ बड़ी और अचार सुखाये जाते।धूल पर नीम के पेड़ की शाखाएं आती थीं,जो दादी को नागवार गुजरती। पेड़ पड़ोसी डा.पन्ना लाल के आंगन में लगा हुआ था।अब पेड़ को अपनी हद में कहां रहना आता है।पशु पक्षी और वृक्ष प्रकृति की उन्मुक्त रचना है। मनुष्य ही जगह जगह सीमा रेखा बनाता है। पेड़ है तो पात झड़ेंगे, पंछी बीट करेंगे। सुबह सुबह दादी का प्रवचन प्रारंभ हो जाता।महरी झाड़ू लगाते हुए हां में हां मिलाती। बाबा चुपचाप पेपर पढ़ने लगते।हम बच्चों को बहुत आनंद आता।पर महाराजिन की डांट सुनकर खाना खाकर स्कूल के लिए तैयार होना पड़ता। कभी कभी दादी के गले में लाउडस्पीकर लग जाता, उधर डाक्टराईन चाची की जबाबी कारवाही शुरू हो जाती।पर सिर फुटौव्वल नहीं हुआ।हम बच्चों को एक दाई आकर स्कूल ले जाती।यह गरीब महिला थी,जिसे कुछ मेहनताना घरों से मिल जाता।हम लड़कियों पर पुलिस कप्तान की तरह रौब गांठती।मजाल है,कोई कन्या इधर उधर ताका झांकी कर ले।डा.पन्नालाल की बेटी सावित्री हमारे साथ जाती थी।मेरी अच्छी दोस्ती हो गई।यह बंधन केवल कन्याओं के लिए था। लड़के ठाठ से स्कूल जाते।शाम को मैदान में खेलने निकल जाते। सुबह के वाक्युद्ध के कारण लौटते समय मैं और सावित्री दूरी बनाए रखते। घर पहुंच कर देखा,सारी महिलाएं गलचौरा कर रही है।उनमे दादी चाची बुआ सब शामिल है।हंसी ठठ्ठा चल रहा था। दादी अक्सर पिताजी के विवाह का किस्सा सुनाया करती। इसी बहाने एक तीर से दो को घायल करतीं।डा.पन्नालाल के पिता बटुक सिंह मेरे पिता जी की बारात में शामिल हुए थे।जेवनार के समय आम का गुरम्मा(मुरब्बा)परसा गया। मुरब्बे का कालाजाम समझ कर गप से मुंह में भर लिया। बहुत गर्म था, मुंह से मय नकली बत्तीसी के बाहर आ गया।गांव की महिलाओं को बड़ा आनंद आया, गीतों में इस बात को पिरोकर गीत गाती रहीं। दादी एक तीर से दो शिकार करतीं,पन्ना चाची और मेरी मम्मी चुटियल हो जाते। दादी कमर पर हाथ रख हमारे ननिहाल वालो पर छींटाकशी करती -अरे वे लोग क्या मिठाई खिलाना जाने। मिठाई तो बस बनारस की।बात सही थी,पर चोट गलत। खुद तो बेहद गरीब परिवार से थीं। बाबा की दूसरी पत्नी थीं। पिता जी की मां की मृत्यु के बाद विधुर बाबा जी से ब्याह हुआ था। एक दिन दादी और पन्ना चाची में भयंकर वाक्युद्ध हुआ। युद्ध का केन्द्र बिन्दु वही नीम का पेड़।इस बार गंभीर समस्या थी घर में चोरी हो गई थी। इतनी सफाई से चोर सामान लेकर निकल गए,किसी को भी पता नहीं चला।वह तो सबेरे बिखरे सामान को देख कर हल्ला मचा। नीचे के दरवाजेपर मजबूत ताले लगाकर सुरक्षित समझ लिया जाता।अब चोर महोदय आकाश मार्ग से आया,इसका अनुमान नहीं था।महाराजिन ने गूढ़ रहस्य बताया कि चोर मसान की राख छिड़क देते हैं,तभी घरवाले मुर्दयी(गहरी)नींद में सो जाते हैं।वरना बाबा उनको छोड़ते।बंदूक है, पिस्तौल है।येशंकर ही लठिया देता।शंकर सेवक थे,अपने बाहुबल पर घमंड था।महाराजजिन के कारण सब पुरुषों की जान में जान आई। मैंने डरते डरते पूछा-‘वे राख कहां से लाते हैं।‘ ‘लो बच्चा।काशी में राख की कमी।लोग दूर दूर से यहां मरने आते हैं, क्योंकि यहां मरने पर स्वर्ग मिलता है। मणिकर्णिका घाट हरिश्चंद्र घाट से लाते हैं।मुझ पर ज्ञान की बौछार कर दादी के साथ अन्वेषण मे लग गई। दादी पुलिस कप्तान की तरह निरीक्षण कर रही थी, पीछे तीनों बुआ सिपाही की तरह मार्च कर रहीं थीं। आखिर दादी का प्यारा रेडियो भी अन्य चोरी हुए सामान में शामिल था। खोज के बाद निष्कर्ष निकाला कि-‘सब डाक्टरिन का किया धरा है।नीम को छांटने नहीं देती।डंगाल हमारे छत पर आती है।उसी पर चढ़ कर चोर छत पर कूदा। आराम से चोरी करके पीछे वाले दरवाजे से बेनियाबाग निकल गया।‘शरलाक होम को भी मात कर दिया।सब लोगों ने सहमति जताई। अब दादी हाथ नचा नचा घर पन्ना की दुल्हन को कोसने लगीं।अब पन्ना चाची ने भी मोर्चा संभाला। दोनों ओर से जबरदस्त मुंहा चाई होने लगी।हम बच्चों को बार बार अंदर धकेला जाता, इस आनंद को कोई छोड़ नहीं रहा था।दादी गरजी-‘हम पेड़ कटा देब।‘ प्रत्युत्तर आया-‘हाथ लगाकर तो देख‘बस वाक्युद्ध ही चला, क्योंकि दादीजी ऊपरी तल पर थीं,चाची नीचे से गला फाड़ रही थी।अब पुरुष वर्ग मैदान में उतरा समझौता कराया गया। वृक्ष की शाखाएं काटी गई।पर जड़ गहरी थी, पुनः हरिया गया।   कुछ दिनो से सावित्री उदास रहने लगी।बताया कि अम्मा की तबियत ठीक नहीं है। घर का काम भी उसी पर पड़ गया। तभी वाक्युद्ध नहीं हो रहा।मैने दादी को बताया। सारे मतभेद भुलाकर वे देखने जाने लगीं। सावित्री का स्कूल आना कम हो गया।बड़े भाई महेंद्र पिता के औषधालय में दवा कूटने लगे।कई डाक्टरों को दिखाया गया,पर लाभ नहीं हुआ।चाची ने संसार से विदा ली।दादी ने आंसू बहाये-भागों वाली थी,पति के कंधे पर चढ़ कर चली गई।‘ मैं अपनी मां से सट गई, कैसे रहेंगे मां के बिना। छोटा भाई डेढ़ बरस का था। मां ने समझाया … Read more

डॉ. सिताबो बाई -मुक्त हुई इतिहास के पन्नों स्त्री संघर्ष की दास्तान

डॉ.सिताबो बाई  जन्म – १९२५ विक्रमी संवत  पिता -बाबू राम प्रसाद सिंह  विवाह -मौजा कादीपुर जिला बनारसछात्रवृत्ति के सहारे शिक्षा  आगरा मडिकल कॉलेज से डॉक्टरी  की शिक्षा  पहले जबलपुर फिर उदयपुर फिर बनारस में सेवाएं दी |  BHU के निर्माण में दस हज़ार का चंदा दिया  विधवा आश्रम, आनाथ आश्रम , वृद्ध आश्रम खोले  अपनी सारी  जायदाद समाज के लिए दान कर दी |                        डॉ. सिताबो बाई का इतना परिचय जान कर आप अंदाजा लगा चुके हिन्ज कि आप किसी महान विभूति के बारे में पढने जारहे हैं | साथ में ये प्रश्न भी उठा होगा कि उस  ज़माने की डॉक्टर, समाजसेवी महिला के बारे में आपको आखिर पता क्यों नहीं है ? यही तो है नारी जीवन की त्रासदी |  आइये जाने स्त्री संघर्षों की एक ऐसी दास्तान के बारे में जिसे उसकी मृत्यु के बाद इतिहास में भी जगह नहीं मिली …. डॉ. सिताबो बाई -मुक्त हुई इतिहास के पन्नों स्त्री संघर्ष की दास्तान  ‘डॉ. सिताबो बाई’ उपन्यास पर कुछ लिखने से पहले मैं इसकी लेखिका आशा सिंह जी को बधाई देना चाहती हूँ कि वो अतीत की खुदाई कर ऐसे जीवंत चरित्र को ले कर आई हैं जिसने  बेदर्द  ज़माने द्वारा दिए गए हर दर्द को न सिर्फ सहा बल्कि उससे क्षत-विक्षत अपने तन और मन  के साथ उसे ही संघर्ष की सीढ़ी बनाया | दर्द और सितम बढ़ते गए, सीढ़िया बढती गयीं , अपनी अदम्य इच्छा शक्ति व् सेवा भावना के कारण निजी जीवन में दुखी बहुत दुखी होते हुए भी कर्म क्षेत्र में और सामाजिक जीवन में बहुत सफलताएं हासिल की | जी हाँ ! डॉ. सिताबो बाई वो सशक्त स्त्री रही हैं जिनके संघर्ष , श्रम और जनसेवा भावना को इतिहास के पन्नों में बड़ी बेदर्दी से दबा दिया गया | इस उपन्यास को पढ़कर मुझे लगा कि प्रेम अपराधिनी अनारकली को दीवारों में जिन्दा चुनवा दिया गया इसके बारे में हम सब जानते हैं | परन्तु कितने सशक्त स्त्री चरित्रों को इतिहास के पन्नों में चुनवा दिया गया इसकी खबर किसी को नहीं है | ऐसा ही एक चरित्र मल्लिका के साथ में मनीषा कुलश्रेष्ठ जी ने न्याय किया तो आशा जी ने डॉ. सिताबो के साथ | निश्चित रूप से ऐसे बहुत से चरित्र होंगे जहाँ हमें कलम से  खुदाई कर के पहुँचना है और उनके संघर्षों को उचित सम्मान दिलवाना है | ऐसे चरित्रों पर लिखना आसान नहीं होता जहाँ आपके पास साक्ष्य नहीं होते | गूगल भी कोई मदद नहीं करता | ऐसे में किसी अँधेरी सुरंग के पार कुछ उड़ती-उड़ती सी  रौशनी दिखती है उसे ही कलम के सहारे पकड़ना होता है | ऐसा ही काम किया है आशा जी ने | उन्होंने साक्ष्य जुटाने का बहुत प्रयास किया परन्तु पंडित मदन मोहन मालवीय जी के पत्र, सेविंग अकाउंट, हॉस्टल के बिल से ज्यादा कुछ प्राप्त ना कर सकीं , यहाँ तक की उनकी तस्वीर भी नहीं | ऐसे में लिखने में संघर्ष बढ़ जाता है | जितना लिखा जाता उससे कहीं ज्यादा लिख कर मिटाया जाता | कितना समय तो सूत्र तलाशने में निकल जाता | पर आशा जी संकल्प की धनी रहीं और आखिर कार उनका ये दृण  निश्चय हज़ार बाधाओं  को पार करते हुए उपन्यास के रूप में हमारे सामने आ गया | इस काम में बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी ( B.H.U) से उन्हें थोड़ी बहुत मदद मिली पर उनके परिवार वालों से बिलकुल भी नहीं, कारण था अपने परिश्रम से अर्जित किये हुए समस्त धन को डॉ.सिताबो बाई  विधवा आश्रमों, बालिका ग्रहों और अनाथालयों के लिए दान कर गयीं थी | परिवार वालों को उनसे  आपत्ति थी ..घोर आपत्ति थी पर उनके धन से तो नहीं थी | फिर वो इतना बड़ा निर्णय कैसे ले गयी | पितृसत्ता की जड़े काटना इतना आसन नहीं होता | रोती-तडपती अबलाओं की कहानियाँ आगे बढ़ती हैं और सशक्त स्त्री चरित्र दबा दिए जाते हैं | कहीं दूसरी औरतों को उनकी हवा ना लग जाए |   एक सीता को तो हम सब जानते ही हैं …प्रेम और त्याग की प्रतिमूर्ति सीता, जिन्होंने  पत्नी धर्म निभाने के लिए राज सुख का त्याग किया, उनके साथ जंगल –जंगल भटकीं और बदले में उन्हें मिली अग्नि परीक्षा द्वारा खुद को निष्कलंक सिद्ध कर देने की सजा और उस पर भी शांति ना मिलने पर गर्भावस्था में त्याग  दिए जाने का फरमान | सीता सबकी आदर्श रहीं हैं क्योंकि वो आदर्श पत्नी, बहु और बेटी हैं | वो तर्क नहीं करती हैं, प्रेम करती हैं प्रेम के साथ कर्तव्य निभाती हैं | पूरी पितृसत्ता अपनी पत्नी बहु, बेटी में सीता को देखना चाहती है | सीता का यही रूप जनमानस में छाया रहा | बेटियों के नाम ‘सीता’ रखे जाने लगे | आखिर हमें बेटियों से त्याग और प्रेम के अतिरिक्त और चाहिए ही क्या था, इसी से तो कुल की इज्ज़त थी |  ये अलग बात है कि प्रेम और त्याग की प्रतिमूर्ति सीता ने जो संघर्ष किया , अपने पुत्रों को अस्त्र-शास्त्र की शिक्षा दी | इसे भी कालांतर में कलम की खुदाई से ही निकाला गया | खैर सीतायें जन्म लेतीं रहीं और ना जाने कितनी सीतायें …माता सीता की तरह धरा की गोद में समाती रहीं | ऐसी ही एक सीता थी जिसने  संवत 1925 में वाराणसी के पियरी कला मुहल्ला में बाबू राम प्रसाद के यहाँ जन्म लिया | भाग्य या दुर्भाग्य अपनी हमनाम की तरह इस नन्ही बच्ची की भी प्रतीक्षा कर रहा था | पर उस नन्हीं बालिका ने कदम –कदम पर संघर्ष का सहारा लिया और धरा की गोद में समाने की जगह सीता से डॉ.सिताबो बाई का सफ़र तय किया | महिलाओं के लिए एक मिसाल बनी डॉ. सिताबो बाई की जीवन गाथा समस्त स्त्रियों के लिए प्रेरणा दायक है |     डॉ .सिताबो बाई की लेखिका  आशा सिंह गौरवर्णा, आकर्षक नैन–नक्श वाली बालिका सीता पढने में भी तेज थी | उस समय लड़कियों की शिक्षित करना अच्छा नहीं समझा जाता था | चिंता यही रहती थी कि अगर लड़की शिक्षित हो गयी तो उसके योग्य वर कैसे मिलेगा | कोई भी पुरुष अपनी पत्नी को अपने से योग्य देख नहीं सकता, … Read more