जिन्दगी ढोवत हैं

शाम ढल जाना चाहती थी…,सूरज, सफेद से लाल हो चला था…एक बूढा भिश्ती अपनी पीठ पर दो पानी के मश्क लादे धीमी गति से कहीं चला जा रहा था….. रास्ते में एक शानदार हवेली पड़ती थी…उस आलीशान ईमारत के सामने एक लगभग पचास बरस का शख्स अपने पन्द्रह बरस के बच्चे के साथ खड़ा हुआ था… बाप बेटे में कुछ बातचीत चल रही थी कि उसी वक़्त हवेली के अंदर से बच्चे का चचा बाहर निकला और दोनों भाइयों में किसी अहम मामले को लेकर गुफ्तगू होने लगी… इस दौरान छोटा लड़का बाहर रास्ते पर लोगों को आते जाते देखने लगा…उस की नज़र सामने से पीठ पर पानी की दो मश्क लादे जा रहे एक भिश्ती पर पड़ी…बच्चे ने रौबीले से अंदाज़ ओ लहजे में बूढ़े से पूछा- ये क्या ढोकर ले जाते हो? “जिन्दगी ढोवत हैं मियां साहब….” इतना भर कह वो बूढा आगे बढ़ गया…. बच्चे का चचा अब वापस जा चुका था…. वो फ़ौरन भागा भागा अपने बाप के पास गया और पुछा- “अब्बा, ये सामने देखें.. जो बूढा जा रहा है ये कौन है? हाँ बेटा,ये भिश्ती होते हैं, और ये क्या सामान ढोते हैं? ये पानी पहुंचाते हैं सब जगह…अभी भी अपनी पीठ पर लदी मशक में ये पानी ढोकर ले जा रहा है फिर उसने मुझसे ये क्यों कहा की वो ज़िन्दगी ढोता है? इस सवाल ने बाप के चेहरे की मुस्कराहट खत्म कर दी थी…..लहजे में नरमी को खत्म करके और बिना सख्ती लाये उसने बेटे को जवाब दिया… “बेटा…पानी को ज़िन्दगी इसलिए कहा जाता है क्योंकि उसके बिना हम ज़िंदा नही रह सकते….इसीलिए उसने तुमसे कह दिया कि वो ज़िन्दगी यानी पानी ढोता है….चलो अब मगरिब का वक़्त हो चला है अज़ान होने वाली है, तुम अंदर जाओ और नमाज़ की तयारी करो…मैं भी आता हूँ.. बच्चा जिज्ञासू था….. उसने फिर पूछा- लेकिन अब्बा वो सीधे सीधे यह भी तो कह सकता था की वो पानी ले जा रहा है…उसने ज़िन्दगी ही क्यों कहा? बच्चे मन की जिज्ञासा तो अभी बाकी थी  लेकिन बाप के सब्र का बाँध टूट चुका था….बेटे को झिड़क कर अंदर भेज दिया… लेकिन भिश्ती के पानी ढोने और ज़िन्दगी ढोने के दरमियान का फर्क और उसके जवाब के पीछे का दर्द उस बाप में कहीं मौजूद इंसान के अंदर अंदर अजीब सी शर्मिंदगी पैदा करने लगा था… उस बूढ़े की मुस्कुराती आँखों और सौम्य जवाब की वजह से उसके बेटे के बालमन में जागा सवालों और जज़्बातों का तूफ़ान और उन सवालों के पूछते वक़्त बेटे की आँखों में उस बूढ़े के लिए अजब सी मुहब्बत और अब्बा के जवाबों का कौतुहल और फिर आखिर में उसका अपने बेटे को झिड़क कर अंदर भगा देना और इस झिड़कने से बेटे की आँख से गिरी आंसू की बूँद……..!!! ये सब मिलकर उसके ज़ेहन में एक अजीब सी हलचल पैदा करने लगे थे….ये हलचल किसी तूफान में बदलती उसके पहले ही अज़ान की आवाज़ आ गई,बच्चा वज़ू बनाये नमाज़ के लिए तैयार बाहर आ चुका था, उसकी आँखों में बूढ़े की तैरती शक्ल, बाप की डांट का खौफ और अंतर्मन की बाकी रह गयी जिज्ञासा और बेजवाब रह गए सवालों का मिला जुला भाव (जिसके लिए आप जो मुनासिब समझें लफ्ज़ चुन लें,अभी मेरे पास वो लफ्ज़ नही हैं,जब आएगा तो बता दूंगा…) अभी भी मौजूद था…… बाप ने बेटे की आँखों में देखना चाहा तो ज़रूर , लेकिन आँख न मिला  पा रहा था… बहरहाल….दोनों ने मस्जिद का रुख किया….लेकिन पता नही क्यों बार बार वो शख्स मुड़कर अपनी हवेली के फाटक की तरफ देखता…..इधर अज़ान अपने आखिरी चरण में पहुँच चुकी थी…, अपने ज़ेहन के ख्यालों के बवंडर को उसने एक मर्तबा झटक के बाहर फेंकने की कामयाब या नाकाम सी कोशिश की और क़दमों में तेज़ी लाते हुए मस्जिद की जानिब बढ़ चला…. दरअसल….. उसे अपने घर की आलिशान दीवारों से खून टपकता नज़र आने लगा था…. ~इमरान~ जौनपुर उप्र emranrizvi@gmail यह भी पढ़ें … काफी इंसानियत कलयुगी संतान बदचलन आपको    “जिन्दगी ढोवत हैं “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

धर्म , मजहब , रिलिजन नहीं स्वाभाविक संवेदना से आती है सही सोंच

कभी किसी खाली वक़्त में गौर से अपने आस पास के मज़हबी लोगों को देखिएगा….अजब हैरान परेशान से आत्मसंतोष का ढोंग करते ये लोग आपको एक अलग ही दुनिया की अनुभूति देंगे….मौत के बाद किसी संभावित काल्पनिक ज़िन्दगी की आस में अपना जीवन बर्बाद करते हुए ऐसे लोग आपको हर जगह दिख जायेंगे….महज़ धर्म की बिना पर किसी से प्रेम या नफरत करना ऐसे लोगों का प्रधान गुण होता है…. कोई व्यक्ति कितना ही बुरा क्यों न हो , यदि वो इनकी जाती और इनके धर्म का अनुयायी है और वो किसी ऐसे नेक और शरीफ आदमी से भिड़ गया है जो किसी दूसरे धर्म को मानता है तो यह लोग अपने धर्म/मज़हब वाले व्यक्ति की लाख गलती के बावजूद भी उसी अपने सहधर्मी का ही साथ देंगे ….. इस तरह की अंध पक्षपातपूर्ण धार्मिकता सबसे पहले व्यक्ति की न्याय क्षमता और इस प्रकार उसके सही गलत की समझ और सच के साथ खड़े होने की सलाहियत को ख़त्म कर देती है…..और फिर जो इंसान सही के साथ खड़े होने की काबिलियत नही रखता उससे आप क्या उम्मीद कर सकते हैं की वो अपने जीवन में कुछ कर सकेगा? अच्छा इंसान बन कर समाज के लिए कुछ करने की बात तो छोड़ ही दीजिए,ऐसे लोग खुद अपनी अंतर्मन की आवाज़ को मार के अपने आप को ही धीरे धीरे समाप्त कर देते हैं…. . सही सोंच मजहब से नहीं स्वाभाविक संवेदना से  सही और गलत की पहचान हर इंसान के अंदर स्वाभाविक रूप से होती है…इसके पीछे कोई धर्म नही बल्कि उसकी स्वाभाविक संवेदना होती है जो उसे सही और गलत की समझ प्रदान करती है….कुछ लोगों का कहना है कि इस सही और बुरे के भेद को स्पष्ट करने वाली भावना व्यक्ति में धर्म से आती है…. लेकिन ऐसा नही है….अक्सर लोग धार्मिक होते हुए भी अपने धर्म की बहुत सारी बातें नही मानते,या मानते भी हैं तो उसको कभी व्यव्हार में नही लाते….क्योंकि उनका अंतर्मन और उनकी सही को सही और गलत को गलत समझने की स्वाभाविक मानवीय तार्किकता उन्हें ऐसा करने से रोकती है |जैसे इस्लाम में चार शादियों की अनुमति है लेकिन बहुसंख्यक मुस्लिम इसे सही मानते हुए भी व्यवहार में 4 शादियां नहीं करते , ऐसा वो क्यों करते हैं?क्योंकि उन्हें कहीं न कहीं मन में इस बात का अहसास होता है कि ऐसा करना गलत होगा|यह अन्याय होगा अपनी जीवन संगिनी से जो उसके लिए अपना घर परिवार छोड़ उसके प्रेम में खुद को समर्पित किये हुए उसके साथ रह रही है |जो उसके सुख दुःख की साथी रही है | यह भाव मनुष्य को धर्म नही बल्कि उसका अंतर्मन कहें या उसकी मानसिक तार्किकता कहें,या धर्म से इतर जो भी कह लें ,उसी से मिलता है |अक्सर धार्मिक जन यह दावा करते हैं की नैतिकता का मूल स्त्रोत धर्म है |क्या ऐसा वास्तविकता में है? यदि हम इसकी गहराई में जाएंगे तो पता चलेगा की वास्तविकता में यह सत्य के एकदम नज़्दीक से होकर गुज़रता एक ऐसा मिथ्या विचार है जो सत्य की तरह दिखने के कारण सत्य प्रतीत होता है..वास्तव में नैतिकता तो मनुष्य के अंतर्मन में ही वास करती है |उसका कहीं बाहर से आना संभव ही नही है |.इसका कारण और इसके पीछे का तर्क भी वही है जो उपर लिखा जा चूका है |नैतिकता तो सही को सही और गलत को गलत कहने की सलाहियत का नाम है….वो गलत चाहे धर्म के नाम पर हो रहा हो या किसी वाद के नाम पर….और सही को सही कहना और उसके साथ खड़ा रहना भी नैतिकता है |चाहे वो सही बात करने वाला व्यक्ति आपका कितना ही बड़ा प्रतिद्वंदी क्यों न हो | धर्म , मजहब , रिलिजन से नहीं करें मानवता से प्यार  एक बात इस विषय में और लिखूंगा….कभी मन से इसको सोचिये और आज़मा कर अवश्य देखिएगा….एक पल को अपने मन से धर्म,जाती,देश मज़हब और वाद की समस्त भावनाओं को अपने मन से एकदम समाप्त करके उनका एकदम से विसर्जन करके फिर अपने आस पास मौजूद इंसानों को देखिएगा….फिर देखिएगा आपके मन में मानवता के लिए कितना प्रेम उमड़ता है….सब लोग आपको आपके अपने लगने लगेंगे….बिलकुल सगे रिश्तेदार जैसे और यह सच भी है की दुनिया के सब इंसानों के बीच आपस में खून का रिश्ता है…. यह तो धर्म/वाद/सीमायें हैं जो उन्हें एक दूसरे में भेद करना और अलगाव पैदा करना सिखाती हैं….यह सब विकार है हमारे पैदा किये हुए  जो इंसान को इंसान से अलग करते हैं…. ज्यादातर धर्म /मजहब  शुरूआती दौर में  सामजिक आन्दोलन रहे हैं  हो सकता है कोई धर्म अपने समय की व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन रहा हो…लेकिन आज के दौर के लिहाज़ से वो आंदोलन परिमार्जित हो चुके हैं….कोई भी आंदोलन…कोई विद्रोह या कोई सुधार समय के साथ ही कालातीत हो जाता है और एक समय ऐसा आता है कि जब परिस्थितयों के चलते वो आंदोलन या सुधार वर्तमान हालातों में लागू किये जाने के लिहाज़ से सुधार के बजाये बिगाड़ बन जाता है…. हो सकता है कोई विचार किसी समय के लिहाज़ से वरदान रहा हो,लेकिन वक़्त के साथ साथ वो वरदान अभिश्राप भी बन जाता है यह भी सत्य है….क्योंकि सृष्टि सदैव परिवर्तनशील है…. मनुष्य की आवश्यकताएं…समाज में व्याप्त दोषों के आधार पर उसमें सुधार के लिए आवश्यक ज़रूरतें और उन सुधारों के मापदंड सदैव परिवर्तित होते रहते हैं स्थितियों के साथ साथ….जिस काल में जिस समाज में जैसे हालात होंगे उनमें उन्हीं हालातों और स्थितियों के अनुरूप सुधार किया जाएगा…. हज़ार हज़ार साल पुराने फार्मूले हमेशा लागू नही किये जा सकते उनपर….ऐसा करेंगे तो सुधार की बजाये बिगाड़ होना निश्चित ही है | संवेदनाओं से युक्त मानवता है असली धर्म  लेकिन धर्म को तो ज़िद है कि उसे बदलना नही है…धर्म को ज़िद है की बदलना तो समाज को ही है….एक मिसाल देता हूँ…..आप कोई कपडा बनवाते हैं,समय के साथ शरीर का माप बदलने के साथ वो कपड़ा आप हमेशा नही पहन सकते ,उसे बदलना होता ही है, लेकिन कपडा अगर ज़िद थाम ले की आपको तो मुझे ही पहनना है,तो आप क्या करेंगे…ज़ाहिर है उसे फेंक देंगे…. यह मानव स्वभाव है कि जो इसके अनुसार नही चल सकता उसकी वर्तमान परिस्थितियों के लिहाज से … Read more

सवाल का जवाब

जेब में पड़ा आखिरी दस का नोट निकाल उसे बड़े गौर से निहार रहा था, ये सोचते हुए की अभी कुछ देर में जब यह भी खत्म हो जायेगा,फिर क्या होगा, पान वाले की दूकान से बीडी ख़रीदी और चिल्लर जेब में रखते हुए वापस अपना रिक्शा लेकर सिटी स्टेशन की जानिब बढ़ चला… सुबह के सात बजने आ रहे थे,इस वक़्त स्टेशन पर पक्का सवारी मिल जाएगी…शाम तक दो चार सौ की जुगाड़ कर लेगा तो खाना वगैरह कर के कुछ पैसे बचा लेगा….टीन के छोटे डिब्बे के ढक्कन को काट कर बनाई गोलक में डालने के लिए, वो पैसे बचा तो रहा था लेकिन बेमकसद सा….अक्सर सोचता , की इन बचाए हुए पैसों का वो करेगा क्या…घर में उसके और पत्नी के अलावा था ही कौन….यहाँ कोई नातेदार रिश्तेदार था नहीं…. जिस ईश्वर  की वो रोज़ उपासना करता था,और जिस कथित परमपिता सृष्टि के पालक पर उसका अटूट विश्वास था,उसने कोई सन्तान भी न दी थी…. ना ही इतना पैसा दिया था जिससे कि वोह अपना या अपनी पत्नी का इलाज करवा सकता…उसे यह भी नहीं मालूम था की कमी किस में थी,उसमे या उसकी पत्नी में,यार दोस्त अक्सर सलाह देते…..दूसरी कर लो, लेकिन वो हंस के अनसुनी कर जाता….उसको अपनी पत्नी से अगाध प्रेम था,  गरीबी में जीवन यापन करने वालों के पास सम्पदा के नाम पर प्रेम और विश्वास की अकूत दौलत होती है…उसे भी नाज़ था अपनी इस दौलत पर….जिसे उसने हमेशा से अपने रिश्ते में संजो कर रखा था…अक्सर वो अपनी पत्नी को घर के कामों में मसरूफ बड़े गौर से देखता….पसीने में भीगती हुई,तीन तरफ से मिटटी और एक तरफ से बांस लगा कर भूस और छप्पर से बनाई हुई उसकी झोपडी जिसे वो बड़े इत्मिनान और प्यार से “घर” कहते थे… उस घर की मालकिन यानि उसकी पत्नी बड़े जतन से उसके घर को सहेजा करती थी…वो कैसे इस औरत को छोड़ कर दूसरी कर ले…उससे ये पाप ना होगा…. रोज़ाना गुल्लक में पैसे डालते समय वो गुल्लक का वज़न भी देखता जाता…और फिर ख़ुशी और इत्मिनान के साथ चिंता और गहन विचार के भाव एक के बाद एक उसके चेहरे पर आते और फिर अगले ही क्षण चले भी जाते थे, हाँ अक्सर ये सवाल वो खुद से पूछता, उसने ये गुल्लक क्यों रखी थी…अंतर्मन से जो जवाब आता वो अस्पष्ट होता…. एक दिलासा जैसे” वक़्त ज़रूरत पर काम आएगा”… और वो फिर निश्चिंत होकर गली में पलंग डाल उस पर पड़ जाता,दोनों पति पत्नी की ज़िन्दगी इसी तरह गुज़र रही थी…एक दिन स्टेशन की सवारी उतार कर वापस घर आते वक़्त मोड़ पर ही एक आवाज़ सुनाई पड़ी….. “सुनो” उसने मुड़ कर नही देखा,वो बहुत थक चूका था…अब और सवारी नहीं बैठाना चाहता था…सवारी को मना करने पर लोग अक्सर भड़क जाते हैं और गुस्सा करते हैं,वो कई बार सवारियों को सीधे मना करने पर “सभ्य संभ्रांत” लोगों के हाथ मार खा चूका था….मुंह पर पड़ते तमाचे के साथ ज़ोरदार गाली भी“साले चलेगा कैसे नहीं ! ये रिक्शा क्या घुमने के लिए लेकर निकला है” उसकी आंख भर आती …कुछ नहीं कर पाता वो इन “बड़े लोगों” का…लिहाज़ा मार खाने या गाली सुनने के डर से सवारी न बिठाने का मन होने पर वो रिक्शा लेकर चुपचाप आगे बढ़ता चला जाता…..लेकिन उस दिन ऐसा नहीं हुआ….चार पेडल और मारने के बाद उसे फिर वही आवाज़ सुनाई दी“अरे भैय्या ज़रा रुको ना” आवाज़ किसी महिला की थी….उसने ब्रेक लगाया…..जनानी सवारियां बहस नहीं करतीं..मार पीट भी नहीं…इस वक़्त रात के ग्यारह बजे के करीब यहाँ कौन औरत हो सकती है…उसके मन में मदद का भाव जाग गया था…. कहीं सुन रखा था जो दूसरों की मदद करते हैं भगवन उनकी मदद करेगा…उसको भगवान् से कोई ख़ास उम्मीद नहीं थी…लेकिन दूसरों की मदद करने पर उसे एक अजीब सा सुकून ज़रूर अनुभव होता था, इसी सुकून की लालच में वो उस दिन रुक गया था….उसने देखा.. एक महिला गोद में एक छोटा बच्चा लिए थी…“सदर अस्पताल चलो जल्दी”  वो समझ गया की मामला क्या है…बिना देर किए उसने रिक्शा घुमाया और सरकारी अस्पताल की जानिब मोड़ दिया….रस्ते में उसने सोचा की महिला से पूछे…थोड़ी हिम्मत जुटा कर पूछ ही लिया…बहन क्या बच्चा ज्यादा बीमार है.?चिंतित स्वर में जवाब मिला“हाँ , इसको निमोनिया हो गया है” वो तेज़ी से पेडल मारता जा रहा था और मन में सोचता जा रहा था…सरकारी अस्पताल में क्या इलाज होगा…..देखा था उसने, किस तरह इसी निमोनिया में उसके पडोसी श्याम की बिटिया ने दम तोडा था…उसी सरकारी अस्पताल में भर्ती करवाया था उसको भी….इलाज नाम मात्र को….लापरवाही हद से ज्यादा…नतीजा बच्ची की मौत….उसने समझाना चाहा-, “बहनजी वहां इलाज सही नहीं होगा,बड़े लापरवाह लोग हैं आप बच्चे को किसी दूसरी जगह दिखा लो” “कहाँ?”“जितिन डाकसाब हैं उधर रस्ते में,बच्चों के डॉक्टर हैं,उनके अस्पताल में अच्छा इलाज होता है” महिला जो अकेली थी और बेहद परेशां भी..एक मिनट तक सोचने के बाद उसने हामी भर दी…”ठीक है भैया वहीँ चलो…”रिक्शा अब एक निजी अस्पताल की जानिब चल पड़ा….अस्पताल पहुचते ही डॉक्टर ने फ़ौरन बच्चे को देखा और एडमिट कराने को कह दिया…. अस्पताल की रौशनी में महिला को देख बसंत ने समझ लिया की यह भी उसी की तरह कोई नसीब की मारी गरीब इन्सान है…. मैले पुराने कपडे…बिखरे बाल पीला रंग फटी फटी आँखें…..काउंटर से परचा बनवाने गयी तो वहां बैठे आदमी ने फ़ौरन तीन हज़ार जमा करवाने को कहा…महिला शायद इसके लिए तैयार थी लेकिन पूरी तरह नहीं…उसने अपने साथ लाये पुराने मैले से कपडे के पर्स से दो हज़ार गिनती के निकाल कर उसके हवाले किए और कहा “भैया अभी इतने पैसे ही ला सकी हूँ,बाकी के कल जमा करा दूंगी” काउंटर बॉय ने पैसे गल्ले के हवाले करते हुए कहा “देखिये कल तक आप पूरे पैसे जमा करा दीजिएगा,बच्चे की हालत नाज़ुक है और उसको गहरे इलाज की सख्त ज़रूरत है,वरना कुछ भी हो सकता है” “कुछ भी” ……..? एक पल को महिला कांप उठी…. बसंत वहीँ खडा देख रहा था…जो शायद अब तक अपने मेहनताने के लिए रुक हुआ था,पर यह सब देख कर वो अपनी मजदूरी भूल गया…..महिला ने उसकी ओर क्षमायाचक दृष्टि से देखा और नज़रें झुका लीं…बसंत को खुद शर्मिंदगी का एहसास हुआ और … Read more