उपन्यास अंश: हेति -सुकन्या एक अकथ कथा

उपन्यास अंश: हेति -सुकन्या एक अकथ कथा

  एक स्वाभिमानी, कर्मठ, स्त्री थी सुकन्या, जिसे इतिहास च्यवन ऋषि की पथअनुगामिनी भार्या के रूप में जानता है l इससे सुकन्या के व्यक्तित्व पर समुचित प्रकाश नहीं पड़ता l राजपुत्री सुकन्या के स्वाभिमान, प्रेम, करुणाद्र हृदय, वनस्पतियों से सहज लगाव और उनका औषधि के रूप में प्रयोग की कथा अकथ ही रह जाती है l “हेति’ के माध्यम से सिनीवाली इतिहास के धुँधलके में कल्पना और तथ्यों के सहारे प्रवेश करते हुए तार्किक ढंग से सुकन्या के साथ न्याय करते हुए उसे इतिहास से वर्तमान में लाकर खड़ा कर देती हैं l उपन्यास के ब्लर्ब से कहानी संग्रह “हंस अकेला रोया” और “गुलाबी नदी की मछलियाँ” की अपार सफलता के बाद सबकी प्रिय लेखिका सिनीवाली कई वर्षों के परिश्रम के बाद ला रहीं हैं कथ्य, भाव, भाषा की दृष्टि से एक बेहद सशक्त उपन्यास “हेति -सुकन्या एक अकथ कथा” l अपनी कलम से पाठकों को बाँध लेने की क्षमता रखने वाली सिनीवाली का यह उपन्यास भी पाठकों की अपेक्षा पर खरा उतरेगा | इस विश्वास और शुभकामनाओं के साथ आइए कर्टन रेजर के तौर पर पढे इस उपन्यास का अंश उपन्यास का ये अंश मासूम कोमल राजपुत्री सुकन्या की च्यवन ऋषि से विवाह के बाद विदाई का है l ये सिर्फ पुत्री की विदा नहीं है…. उपन्यास पर आधारित रील यहाँ देखें उपन्यास अंश: हेति -सुकन्या एक अकथ कथा   जिस मंगलकारी, हर्षवर्षा करने वाले दिवस की मुझ सहित सभी को चिरप्रतीक्षा थी वो वही दिवस था। मेरे विवाहोत्सव में तो अत्यधिक हर्षोल्लास, मंगलगीत, आडम्बर के संग नगरवासी सम्मिलित होते। नगर तथा हर्म्य की शोभा का वर्णन ही क्या होता! पिताश्री महाराज कोष का द्वार खोल देते। जिसकी जो इच्छा होती, जितनी इच्छा होती उसे उतना दिया जाता। माता आनंदित हो ईश्वर का आभार प्रकट करतीं। भ्राता गर्व से कुमार को विवाह मंडप में लाते परंतु…! अब…! मैं परिणय सूत्र में बँधूंगी एवं सभी शोकग्रस्त होंगे। अपनी कल्पनाओं की चिता पर अश्रुपूरित नेत्र लिए मैं सुकन्या विवाह के लिए प्रस्तुत थी। परंतु इसे विवाह कैसे कह सकते हैं? वो तो समिधा के लिए लायी गई सुकन्या को विवाह मंडप में भस्म किया जा रहा था तथा अपने अहं एवं क्षुधा की तुष्टि करनेवाले तपस्वी का कार्य सिद्ध हो रहा था! वैवाहिक जीवन सम्बन्धी जितनी भी कोमल कल्पनाएँ थीं वे सभी विवाह वेदी की अग्नि में भस्म हो रही थीं। पुरोहितगण मंगलाष्टक का सस्वर पाठ कर आशीर्वचन दे रहे थे। उस वेदी से लौह की ऐसी बेड़ी निर्मित हो रही थी जो मंत्रोच्चार के घन के प्रहार से सशक्त होती जा रही थी। मुझे विवाह रूपी उस पाश में जकड़ा जा रहा था। मंडप में वर के रूप में ऋषि को देखकर एक वृद्धा ने कहा, “प्रतीत होता है रुद्र, गौरी को ब्याहने आए हैं।” पार्वती ने तप करके शिव को स्वयं पति रूप में वरण किया था। माता गौरी के समान सौभाग्य मुझे भी प्राप्त होता ! किंतु मेरा दारकर्म तो भय दिखाकर किया जा रहा था। इसे विवाह नहीं बलात् अधिकार स्थापित करना कहिए, जिसे धर्म के माध्यम से मेरे धर्मपति प्रजाजनों एवं स्वजनों के समक्ष कर रहे थे। हमारा युग्म देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था, ज्यों सर्प के मुख में शशक! प्रेतो मुञ्चामि नामुतः सुबद्धाममुतस्करम्। (ऋग्वेद) यहाँ (पितृकुल) से तुझे मुक्त करता हूँ, वहाँ (पतिकुल) से नहीं। वहाँ से तुझे अच्छी तरह बाँधता हूँ। मैं राजकुमारी सुकन्या से ऋषिपत्नी सुकन्या में परिणत हो गई। परिवर्तन जीवन का शाश्वत नियम है परंतु ऐसा परिवर्तन…! विवाह के पश्चात बासरगृह… प्रेम की दैहिक यात्रा! प्रेम में एकरूप हो जाना! इस यामिनी की कल्पना करके उर्वी ने मुझे कई बार सताया था। मिलनकक्ष की सज्जा की बातें मेरे लोभी मन को लुभा जातीं, आँखें झुक जातीं परंतु कर्ण अपनी पूरी शक्ति लगाकर श्रवण करते। जब दो हृतल का प्रथम मिलन होगा तो बासरगृह की सज्जा भी हृदयहारी होनी चाहिए। उर्वी कभी पुष्प से कक्ष सज्जित करने के लिए उतावली होती तो कभी मणि – माणिक्य से। कभी मयूरचंद्रिका एवं मौतिक्य से। इतनी कल्पनाओं के मध्य वो स्वयं ही उलझ जाती। मुझसे पूछने लगती, “कुँवर, कौन सी सज्जा प्रथम रयन के योग्य होगी ?” “उवीं, ये तो तुम्हारा कार्य क्षेत्र है मैं भला क्या उत्तर दूँ?” “हाँ सखी, प्रथम रयन केलिगृह में जाते हुए आपकी जो दशा होगी उस क्षण मैं भी कोई सहायता नहीं कर सकूँगी।” सुकंठ भी कभी-कभी, सुनते सुनते बोल पड़ता, सखी मणिमुक्ता की सज्जा, पुष्प की शय्या ! चिरप्रतीक्षित स्वप्न जिन नयनों ने संजोया था, अश्रु की अविरल धारा उसे अपने संग प्रवाहित कर ले गई। उर्वी भी व्यथित थी परंतु वो अपना कष्ट प्रकट कर मेरी पीड़ा में वृद्धि करना नहीं चाहती थी। मेरे लिए अब कोई कष्ट, दुखदायी नहीं क्योंकि इससे अधिक प्रलंयकारी और क्या होगा ? क्या अतीव कष्ट भी भय से मुक्त कर देता है ? उर्वी दुविधा में थी प्रथम निशि के लिए मेरा श्रृंगार किस भाँति करे जो मेरे धर्मपति के अनुरूप हो। मुझे पट्टमहिषी, राजरानी, पटरानी बनाने का स्वप्न देखने वाली अब मुझे ऋषिपत्नी का रूप देते हुए काँप रही थी। “उर्वी, श्रृंगार की क्या आवश्यकता, इस रयन के लिए जब सौभाग्य का आगमन हुआ ही नहीं ?” मैंने उसकी दुविधा समाप्त कर दी। * * * विदाई की बेला आ गई। अयुत स्वस्थ दुग्ध देने वाली गौ, सहस्र स्वस्थ सुडौल वायु से गति मिलाने वाले स्वर्ण आभरण से युक्त अश्व, शतम चंदनचर्चित स्वर्णमंडित गज, महावत सहित, इंद्रनील, महानील, वैदूर्यमणि, पीतमणि, स्वर्ण एवं रजत मुद्राएँ, कौशेय, क्षौम वस्त्र, पाट साड़ी, भाँति-भाँति के नगवलित अवतंस, कतारबद्ध दास-दासियाँ, मेरे प्रिय रथों पर मेरे प्रिय वाद्ययंत्र, मेरे पोषित मयूर, शुक, कपोत, राजहंस, मृग आदि राजप्रासाद के प्रांगण, द्वार एवं राजपथ पर मेरे संग जाने हेतु सज्जित थे। पिता का वात्सल्य पुत्री के लिए! वह मेरे संग इतना यौतुक भेजना चाहते थे कि मैं जहाँ भी रहूँ वहाँ राजभवन का सुख एवं एश्वर्य प्राप्त हो। परंतु क्या ये वस्तुएँ मुझे सुख प्रदान करेंगी ? अब मेरे लिए इनका क्या प्रयोजन ? यदि पिता श्री वन में महल का निर्माण करा भी दें तो मैं वहाँ पत्नी के रूप में स्वाभिमान के साथ जीवन कैसे व्यतीत करूँगी ? मैं ध्यानपूर्वक अपने संग जाने वाले यौतुक देख रही थी। महाराज मेरे कक्ष में कांतिहीन मुख, … Read more

गुजरे हुए लम्हे (परिशिष्ट)-अध्याय 15

गुज़रे हुए लम्हे

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 11 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 12 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -14 अब आगे ….   गुजरे हुए लम्हे (परिशिष्ट)अध्याय 15 2019 से आज तक एक ख़ुशी और दुख अनेक  (कोरोना- काल) ‘गुजरे हुए लम्हे’ के अंत में मैंने लिखा था यह जीवन यात्रा है… जब तक यात्रा समाप्त नहीं होती इसमें पन्ने जुड़ते रहेंगे। अंतिम अध्याय में मैंने महत्वपूर्ण यात्राओं का वर्णन किया था। अब हम 2019 में आ जाते हैं। मैं इस वर्ष आगरा गई थी जहाँ की कवि गोष्ठी का मैंने विवरण पहले दिया था। इसी साल हमारी शादी की पचासवीं वर्ष  गाँठ होने वाली थी।  नेहा ने मुझसे पूछा कि हम कहीं घूमने जाना चाहेंगे या एक पार्टी करें। इन्हें तो किसी भी अवसर पर कोई जश्न मनाना इतना पसंद नहीं है इसलिये उसने मुझसे ही पूछा। घूमने जाने के लिये उस समय कमर का दर्द इजाजत नहीं दे रहा था अतः पार्टी करने का ही सोचा । वैन्यू और बाकी चीज़ों पर विचार करने के लिये बहुत समय था पर आगरा में मैंने पूनम के साथ मिल कर मेहमानों की विदाई में देने वाले उपहार की योजना बना ली।  मुझे हमेशा से ही ख़रीदकर देने की बजाय हाथ की बनाई या ख़ुद से डिज़ाइन की हुई चीज़ें देना  पसंद है।  हमने एक कलैंडर बनाया जिसमें अलग अलग फूलों पर मेरे लिखे हुए दोहे और उसी फूल के चित्र थे। 12 दोहे 12 फूलों के चित्र 12 महीनों में। जैसी कि उम्मीद थी पहले तो ये  थोड़ा नाराज़ हुए  कि ये सब करने की क्या ज़रूरत है फिर थोड़ा समझाने पर मान गये और कहा कि पार्टी सादगी से हो। मुझे भी सादगी ही पसंद है। दोबारा शादी की रस्में पूरी करने की नौटंकी तो मुझे भी पसंद नहीं है। बस एक बार मित्रों और परिवार को इकट्ठा करने का बहाना चाहिये होता है। पार्टी में बस केक काटा जायेगा और कुछ खास नहीं होगा यह निश्चित हो गया। पहले सोचा था अपूर्व की सोसायटी के कम्यूनिटी हॉल को बुक कर दें पर वह कई जगह से बहुत दूर पड़ता, इसलिये CSOI में ही करवा दिया वहाँ मेरी पहली किताब  ‘मैं सागर ने एक बूंद सही’ का अनावरण भी हुआ था।  स्थान चयन कर लेने के बाद तारीख़ तय करके बुकिंग कराना भी ज़रूरी था 12 दिसंबर की जगह हमने 15 दिसंबर की तारीख़ तय की क्योंकि रविवार को अधिकतर लोगों को आने में सुविधा होती है। बीबी को तो सर्दियों में आना ही था उनको पहले से ही सूचित कर दिया तो उन्होंने उसके ही अनुसार आने का कार्यक्रम बनाया। उनके साथ नीरू को भी आना था। सब से पहले इन्हीं तीनों के आने की पुष्टि हुई। बाकी लोगों का तो अंतिम क्षण तक ही हाँ और न  चलता रहा।लोगों को कहाँ ठहराना है इसका इंतज़ाम तो तब होता जब पता होता कि कौन कौन आ  रहा है। बीबी को तो घर में ही ठहरना था उनकी तारीख़ भी पक्की थी। अंत में हमें बगल वाले और एक ऊपर वाले फ्लैट की चाबी मिल गई वे लोग दिल्ली से बाहर गये  हुए थे। अत: सब के रहने की व्यवस्था अच्छी हो गई। आगरा से सभी  आये थे लखनऊ से आशा भाभी और अनुज आये बड़ौदा से चारू सुखदेव भी आये यद्यपि वो शाम को चले गये। पार्टी में शिरकत नहीं कर सके बस सब से मिल लिये। इनके परिवार से नीता और स्वीटी शामिल हुए। दिनेश भैया और उमा दीदी तो यहीं थे। जयश्री की कमी खली वह लंदन गई थी। शशि बीबी के परिवार से कोई नहीं आया, लोकेश भाई साहब भी नहीं आ पाये थे। बीबी की ससुराल के लोग और नेहा के मायके के लोग भी शामिल हुए। पार्टी में क़रीब 50 लोग थे और घर में 20 के लगभग रिश्तेदार ठहरे थे। काफ़ी अच्छा माहौल रहा सब ने मज़े किये। पार्टी में कुछ लोगों ने पुरानी यादें ताज़ा की , कोई पार्टी गेम नहीं रखा था बस एक लकी डिप था। रात को जब हम लौट रहे थे तभी पता चला था कि  CCA, NRC के विरोध में दिल्ली में कुछ थे हिंसक घटनायें हुई है। धीरे धीरे ये हिंसक विरोध देश भर में उग्र होते चले गये। दिल्ली में शाहीनबाग़ में महिलाओं ने सड़क को घेर लिया और दिल्ली में काफ़ी बड़े स्तर पर दंगे हुए। देश की शांति व्यवस्था बुरे दौर में थी। देश की राजनीति के साथ पारिवारिक स्तर पर और पड़ौस के स्तर पर भी 2019 में 15 दिसंबर के बाद बुरा वक्त चल रहा था। बीबी वापिस चली गईं थी पर उनके वापिस पहुँचने के दो दिन बाद ही सूचना मिली कि उनका  बड़ा पुत्र जो केवल 62 साल का था अचानक चल बसा। उसकी तो मामूली सी बीमारी की भी कभी ख़बर नहीं आई थी। रिटायरमैट लेने के बाद वह अपनी पत्नी के साथ पर्यटन पर ही रहता था चाहें देश हो या विदेश।  बीबी की  रोती  हुई सूरत  देख कर गले लगाने का मन होता था पर….. मजबूर थे। मेरा अशोक से बचपन का नाता था… मेरे से सिर्फ 9 साल छोटा  था बचपन में उसके हाथ बहुत खेली थी। यहाँ घर में मातम छा गया था। बीबी भाई साहब के दुख का हम अंदाज भी नहीं लगा सकते, परन्तु दोनों ने ही अपने दुख के साथ जीना सीख लिया और ख़ुद को सामान्य जिंदगी … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -14

यात्रा वृत्त

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 11 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 12 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13 अब आगे ….     गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 14 –यात्रा वृत्त (2011 के बाद) मैं छोटी थी तो मेरी यात्रायें जब बुलंदशहर सिकंद्राबाद और ज्यादा से ज्यादा दिल्ली तक होती थीं, जिनका उद्देश्य भी कभी पर्यटन नहीं होता था। पर्यटन के लिये विवाह से पूर्व एक नैनीताल यात्रा की थी और दूसरी काश्मीर की थी। ये इतनी पुरानी बातें है कि उनकी हल्की झलक ही दिमाग़ में है, इनका जिक्र मैं अध्याय 2 और 3 में कर चुकी हूँ।   शादी के बाद ही एक तरह से मैं उत्तर प्रदेश के बाहर निकली थी। मुंबई, केरल और गोवा भी तनु के इलाज के सिलसिले में गये तो वहाँ के प्रमुख आकर्षण देख लिये थे। सिकंद्राबाद हैदराबाद भी घूमा। शोलापुर से आते आते  पंढरपुर, शिरडी,बीजापुर और महाबलेश्वर भी गये थे। इन सब यात्राओं का जिक्र समय समय पर यादों पर ज़ोर डालकर मैंने किया है।   दिल्ली आने के बाद हरिद्वार, ऋषिकेश, शिमला, देहरादून  और मसूरी गये थे।।शिमला तो तीन बार जाना हुआ था, वहाँ रेलवे के रैस्टहाउस में रुके थे। ये तो हर बार ड्यूटी पर ही थे, रेलकार से जब चाहें जहाँ रुके निरीक्षण किया  और आगे बढ़ गये। कुफरी और शिमला का भव्य राषट्रपति निवास देखा जो कि अब उच्च शिक्षा का केंद्र है। अद्भुत इमारत है जिसका एक हिस्सा पर्यटकों के लिये खुला रहता है। यहाँ का लॉन और उद्यान भी बहुत सुंदर है।   जब से लिखना शुरू किया है हर यात्रा की स्मृतियों से कभी कविता सजाई है तो कभी लेख लिखा है और कभी गद्य और पद्य दोनों रूपों में यात्रा वृत्त लिखे हैं। ये स्मृतियाँ मेरे जीवन का अंग हैं, इसलिये इनको इस अध्याय में प्रस्तुत करूँगी। ये सभी यात्रा संस्मरण किसी न किसी पत्रिका या वैब साइट पर आ चुके हैं परन्तु  इनका कॉपी राइट मेरा ही है, यह मैं पहले स्वानुभूति में भी बता चुकी हूँ।  इस अध्याय में मैं दार्जिलिंग, गैंगटॉक यात्रा(2011), केरल यात्रा(2013) और उत्तराखंड यात्रा(2016) और ग्वालियर यात्रा(2019) के संस्मरण ही प्रस्तुत करूँगी। शिमला और हरिद्वार ऋषिकेश यात्राओं पर जो कवितायें लिखी थीं वे पेश करूँगी,तो पहले कवितायें-     शिमला से.. खिड़की खोली, दर्शन किये प्रभात के, सूर्य की किरणें पड़ी जब, हिम शिखर पर, विस्तार ज्योति पुंज का, मेरे द्वार पे।   ये नोकील पेड़ देवदार के, प्रहरी बने खड़े हैं, पर्यावरण के बहार के।     एक सौ तीन सुरंगें, पार करती घूमती चढ़ती हुई, रेल की ये पटरियां, दौड़ती हैं जिन पर सुन्दर, सजीली गाड़ियां। अति सुखद है यात्रा, शिवालिक पहाड़ की।   ऊंचे नीचे, टेढे-मेढे, रास्ते पहाड़ के, रेंगते हैं इन पर वाहन प्रवाह से ऊंचे शिखर, नीची वादी, सौन्दर्य रचनाकार के।   जीवित हूँ या स्वर्ग में, भ्रम मुझे होने लगा है, मुग्ध मुदित मन मेरा, होने लगा है। चारों ओर फैला है, बादलों का एक घेरा, छू लिया है बादलों को, मुट्ठी में बन्द किया है, पागल आशिकों को।   शाम ढली पुलकित हुई मैं, ठंडी बयार से, तन मन शीतल हो रहा है रात्रि के प्रहार से।   तारों भरा आसमां नीचे कैसे हो गया, आकाश ऊपर भी नीचे भी, फिर मुझे कुछ भ्रम हो गया। स्वप्न है या यथार्थ, यथार्थ कबसे इतना सुखद हो गया !   ऊपर निगाह डाली तो बादलों के घेर थे, बूँदें गिरी मौसम ज़रा नम हो गया यह सुख फिर कहीं खो गया।   सूखी चट्टानें, कटे पेड़, देखकर मन विचलित हो गया। सीढियों पर उगती फ़सल देखकर, फिर मन ख़ुश हो गया।   धरती के इस स्वर्ग को बचायेंगे, ये पेड़ देवदार के।   हरिद्वार और ऋषिकेश   उत्तराखण्ड का द्वार हरिद्वार, यहाँ आई गंगा पहाड़ों के पार। पहाड़ों के पार शहर ये सुन्दर। सुन्दर शहर उत्तराखण्ड का मान। मंसादेवी, चंडीदेवी के मन्दिर सुन्दर, मंदिर का रास्ता बन गया है सुगम, केबल कार की यात्रा अति मनोरम। हर की पौड़ी शहर का मान, गंगा की आरती, गंगा की भक्ति, ऊपरी गंगा नहर और गंगा, हरिद्वार का बनी है अभिमान। तैरते हैं यहां प्रज्वलित दीप हर शाम। आयुर्वेद्यशाला पंतजलि संस्थान, गुरुकुल कांगड़ी यहां विद्यमान। हरिद्वार के निकट ही शहर ऋषिकेश, आश्रमों में साधुओं का होता है प्रवेश। विशाल झूला सा पुल झूला लक्ष्मण, राम के नाम का भी झूला विलक्षण। युवा पर्यटकों का भी मन मोहे  ऋषिकेश, डेरों में रहते थे युवा नदी के तट पर, डेरे तो उठ गये प्रदूषण से बचाव को, फिर भी नदी में है राफ़्टिग जारी ।   यहां से ही शुरू होती है शुभ यात्रा, उत्तराखण्ड की चार धाम यात्रा। गंगोत्री, जमनोत्री, केदारनाथ, और बद्रीनाथ की तीर्थयात्रा। (अब राफ्टिंग पूरी तरह बंद हो चुकी है)     दार्जिलिंग और गैंगटॉक यात्रा (2011)   अपूर्व की शादी के बाद ये हमारी पहली पर्यटन यात्रा थी, जिसमें परिवार की नयी सदस्य नेहा भी हमारे साथ थी।  हम दिल्ली से विमान द्वारा बागडोगरा हवाई अड्डे पर पहुँचकर सामान की प्रतीक्षा कर रहे थे। मौसम साफ़ था। अचानक नेहा कभी नीचे ज़मीन पर देख रही थी कभी ऊपर और कहने लगी ये पानी कहाँ से आ रहा है। नीचे कुछ गीला था। कुछ देर में पता चाला कि पानी की बोतल जो कि ठीक से बंद नहीं की गई थी, नेहा के बैग में थी उसी से पानी टपक रहा था।इस ज़रा सी लापरवाही की भेंट उसका मोबाइल हो गया जो बहुत कोशिशों के बाद … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13 -कभी ख़ुशी कभी ग़म

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 11 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 12 अब आगे …. गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 13 –कभी ख़ुशी कभी ग़म (दिल्ली 2006- अब तक) साहित्यिक गतिविधियों के बाद अब पुनः पारिवारिक कथा-क्रम से जुड़ने का समय आ गया है। अपूर्व  अपनी नौकरी में अभ्यस्त हो गया था और तनु घर में 11 वीं और 12 वीं कक्षा के बच्चों को अर्थशास्त्र पढ़ाने में व्यस्त हो गई थी। सेवानिवृत्त होने के बाद दोबारा काम करने का  इनका मन कभी बना ही नहीं। काफ़ी दबाव के बाद एक काम लिया था, पर बहुत जल्दी छोड़ दिया। दोनों समय घूमने जाना बाज़ार के काम करना, घर के कामों में मेरी मदद कर देना और आराम करना ही इनकी दिनचर्या रही, जिससे इन्हें कभी कोई शिकायत नहीं हुई।   2007 जुलाई में एक छोटी सी दुर्घटना हो गई थी।मैं वाशरूम साफ़ करते समय फिसल गई दर्द बहुत ज़्यादा था, पर मैं ख़ुद उठकर खड़ी हो सकी थी, इसलिये मैंने सोचा कि कोई गंभीर बात नहीं है। थोड़ी देर आराम करके, दर्द की गोली खा कर अपने रोज़ के कामों में लग गई थी।सिंकाई  की, दर्द की गोली खाली, क़रीब 10 दिन तक ऐसे ही चला, परन्तु दर्द कम नहीं हो रहा था।   इसी समय गुड़गाँव में शशि बीबी के बेटे के नये फ्लैट का गृह प्रवेश था , जहाँ हम सब को भी जाना था। कार में भी ढाई तीन घंटे बैठना फिर वहाँ हवन, खाने पीने में पूरा दिन ही लगना था इसलिये मैं नहीं गई। ये और दोनों बच्चे ही गये, पर घर में अकेले मैंने आराम भी नहीं किया, सफ़ाई में लग गई, सारी चादरें और कुशन कवर वगैरह बदले, मशीन में कपड़े धोये और सुखाये। शायद शारीरिक कष्ट सहने की अधिक क्षमता के कारण मैं अपनी चोट की गंभीरता को समझ ही नहीं पाई थी। शाम के समय पास के बाज़ार भी चली गई। बहुत दर्द महसूस हुआ तो वापिस आने के लिये रिक्शा कर  ली। रिक्शा में इतने दचके लगे कि रही सही कसर भी पूरी हो गई। रात भर असहनीय दर्द होता रहा तब अगले दिन ऐक्स रे करवाया और हड्डियों के डाक्टर को दिखाया। रीढ़ की हड्डी में दो जगह फ़्रैक्चर थे, डाक्टर ने 6 सप्ताह के लिये बिस्तर पर सीधे लेटे रहने का निर्देश दे दिया था।   ये छः सप्ताह और उसके बाद का लम्बा समय मेरे लिये और पूरे परिवार के लिये बहुत कष्ट का समय था। 6 सप्ताह तक करवट लेने पर भी प्रतिबंध था। शारीरिक कष्ट के अलावा सामने की दीवार को देखते देखते ऊब गई थी। मैं ऐसी जगह पर लेटी थी जो बाथरूम से निम्नतम दूरी पर थी। यहाँ से दूसरे कमरे में रखा टी वी दरवाज़े से देखा जा सकता था परंतु मुझे सुनाई भी दे इसके लिये वॉल्यूम बहुत तेज रखना पड़ता था जिससे वहाँ बैठकर देखने वालों को कुछ परेशानी अवश्य होती होगी।   सारे काम मिल जुल कर ये तीनों कर रहे थे ।दाल चावल सब्जी मुझ से पूछ पूछ कर किसी तरह बना रहे थे पर रोटी पराँठा बनाना उसके लिये आटा गुँधना मुश्किल था। कभी कभी ब्रैड से काम चला लेते थे। अपूर्व का ऑफिस उन दिनों पास ही में था तो वह लंच के समय आ जाता था क्योंकि घर पर जो भी बना हो वह खा लेता था। सुबह सुबह खाना पैक कर के देना मुमकिन नहीं था। ऐसे में हमारी एक पड़ौसन ने खाना बनाने के लिये एक नौकरानी का प्रबंध किया जो रात का खाना बनाने लगी थी। नयी नौकरानी वह भी खाना बनाने के लिये…………….. जिसे मैं कमरे में बुलाकर ही सब निर्देश देती थी, धीरे धीरे वह हमारी पसंद का भोजन बनाना सीख गई थी। 6 सप्ताह बीतने के बाद, जब मैं खड़ी हुई तो दर्द और भी बढ़ गया था। दर्द निवारक गोलियाँ तो महीनों खाईं। दर्द कम होने में क़रीब दो साल लगे पर ठीक तो आज तक नहीं हुआ है। एम्स और स्पाइन इंजरी संस्थान दोनों जगह  दिखाया परन्तु सर्जरी कर के भी दर्द से मुक्ति मिलने की संभावना डॉक्टरों को नज़र नहीं आई थी और फिज़ियोथैरपी की ही बात हुई थी।  साथ ही सही  तरह से आराम, काम और व्यायाम के बीच समन्वय बनाने की सलाह मिली थी। जब कभी दर्द बढ़ा तो फिज़ियोथैरैपी करवाई, सिंकाई की, बहुत ज़रूरी हुआ तो दर्द की गोली खाली । ये दर्द अब जीवन का अंग है, ये सत्य स्वीकार कर लिया है।   अब तक अपूर्व  को नौकरी  करते  हुए  क़रीब दो ढाई साल हो चुके थे। अपूर्व  की दोस्ती हमेशा लड़कियों  से भी रही है इसलिये  हमें लगता था किसी दिन वह आकर कहेगा कि “मुझे फलां लड़की से शादी करनी है” परन्तु अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ था ,पूछने पर भी उसने हमेशा यही कहा कि  ऐसा कुछ नहीं है। मुझे लगा था कि अब लड़की ढूँढने की जिम्मेदारी  हमें ही निभाना होगी। अतः मैंने अख़बार  में विज्ञापन  देखना शुरू किया और कुछ चुने हुए परिवारों को मेल भेजीं।  मैंने सजातीय कॉलम ही देखे,  ऐसा नहीं है कि मुझे अंतरजातीय  विवाह से एतराज है,  सजातीय लड़की ढूँढने  के पीछे दो कारण थे पहला तो यह कि रविवार को विवाह विज्ञापन  इतने होते हैं कि सब  को नहीं देखा जा सकता किसी न किसी आधार पर सीमा  रेखा बनानी होती है,  दूसरा कारण यह था कि सजातीय परिवारों के बारे में मालूम … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय -10

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9 अब आगे ….     अध्याय 10-लेखन की शुरुआत (दिल्ली 1997 से 2000) 1997 में अपूर्व ने 10 वीं कक्षा पास कर ली थी। हिंदी तो दसवीं तक ही पढ़ी थी उस समय का एक संस्मरण उद्धरित करके इस अध्याय का आरंभ करती हूँ।–   मैं और मेरा बेटा (संस्मरण 9 )   आज कुछ पुरानी बाते याद आ रहीं हैं, अपूर्व मेरा बेटा जब दसवीं कक्षा में था तो  मैं उसे हिन्दी पढ़ाया करती थी विशेषकर कविता। कविता में उसे बिल्कुल रुचि नहीं थी पर परीक्षा देनी थी इसलिये पढ़ना तो था ही। शब्दों का अर्थ समझाने के बाद भावार्थ समझाना बहुत कठिन हो जाता था क्योंकि उसके पाठ्यक्रम की कविताओं में जो विषय लिये गये थे, वो या तो दार्शनिक से थे या फिर उस आयु के लिये बेहद नीरस। अंत में यही होता कि ‘’मां मैं रट लूँगा परीक्षा से 2-3 दिन पहले लिख कर रख दो।  ‘’आखिर मैं कितना लिखूँ और वह कितना रटे!   कवियों का जीवन परिचय और साहित्यिक परिचय भी परीक्षा में अवश्य ही आता था, जब कवि की एक रचना समझना कठिन है तो साहित्यिक परिचय कैसे लिखें!  8-9 कवि और उतने ही लेखक तो होंगे पाठ्यक्रम में।   अपूर्व ने ही सुझाव दिया कि ‘’मां एक चार्ट बना दो उस में सब कवियों और लेखकों के नाम फिर जन्म तिथि जन्म स्थान और हर एक की दो दो किताबों के नाम लिख दो बाकी सब  की कविताओं की तारीफ में कुछ कुछ लिख दूँगा नम्बर लेने के लिये कुछ तारीफ करना ज़रूरी है, बुराई तो कर नहीं सकते।‘’   मैंने चार्ट बना दिया सुपुत्र जी ने देखा फिर अपने अंदाज में बोले ‘’ये बर्थ डे क्यों याद करनी पड़ती है?अब कवियों को फोन कर के हैप्पी बर्थ डे कहना है क्या !   मैं निरुत्तर…   फिर उनके जन्म स्थान ‘’अरे माँ ये सब कहाँ कहाँ जाकर पैदा हुए इन छोटे छोटे गाँवों के नाम कैसे याद होंगे दिल्ली मुंबई में कवि और लेखकों जन्म क्यों नहीं लेते ? यहाँ भी हमसे दुश्मनी !’’ ‘’ माँ आप कहाँ पैदा हुईं थी?’’ अचानक मुझ पर सवाल दाग दिया ।   ‘’बेटा, बुलन्दशहर’’ मैंने बताया।   ‘’तभी कविता लिखने का शौक है’’ उसने निराशा के साथ कहा।‘’   उस समय मेरी कवितायें और लेख पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे।   अपूर्व एकदम बोल पड़ा ‘’लिखना है तो कविता लिखो पर छपवाना बन्द करो।‘’   मैंने पूछा ‘’क्यों ?’’   ‘’अगर किसी NCERT वाले को पसंद आ गईं आपकी कवितायें और कोर्स की किताब में डाल दी गईं तो बच्चे बहुत कोसेंगे। मेरी माँ को कोई बुरा भला कहे मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। ‘’उसने मासूम सा, भावुक सा जवाब दिया ।   समस्त कवि गण इसे चेतावनी समझ सकते हैं ! कृपया ध्यान दें! पाठ्यक्रम निर्धारित करने वाले भी विचार करें।   संस्मरण का सिलसिला शुरू हुआ है तो एक के बाद एक दो संस्मरण और-     नाम गुम जायेगा..   (संस्मरण 10 )   हमारे पति श्री अरुण भटनागर रेलवे में  उच्च अधिकारी रहे हैं, उस समय उनकी आयु 55 के क़रीब होगी। अपने सारे काम पूरी निष्ठा से करते रहे हैं। बुद्धिमान हैं, अपने कार्यालय में अच्छी छवि है। याददाश्त इतनी अच्छी है कि क्रिकेट में कब क्या हुआ या कोई ऐतिहासिक घटना हो तुरन्त बता देते हैं। कभी कभी मैं उनसे कहती  थी कि उन्हें तो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में जाना चाहिये। जब भी यह कार्यक्रम देखते हैं फटाफट उत्तर देते जाते हैं, कोशिश करके एक बार वहाँ पहुंच जायें तो कम से कम 50 लाख तो जीत ही सकते हैं।   याददाश्त इतनी अच्छी होते हुए भी इनके लिये मेरा और बच्चों का जन्मदिन याद रखना मुश्किल होता है, पर बच्चे और मैं इन अवसरों के आने से पहले ही इतने उत्साहित रहते हैं कि उन्हें याद आ जाता है। कभी बच्चे पहले आकर कह देते हैं ‘’मम्मी पापा शादी की साल गिरह मुबारक हो’’ तो उन्हें भी याद आ जाता है कि पत्नी को मुबारकबाद दे दें।   इनकी सबसे बड़ी परेशानी है कि वे लोगों के और कभी कभी स्थानों के नाम भी भूल जाते हैं। कभी किसी पार्टी में कोई बहुत दिन बाद मिलता और उत्साहित होकर पूछता ‘’कैसे हैं भटनागर साहब, पहचाना नहीं क्या ?’’ ‘’अरे, कैसी बात कर रहे हैं पहचानूँगा क्यों नहीं।‘’ कहने को तो ये कह देते, वे उन महाशय को पहचान भी रहे होते, बस नाम दिमाग़ से फिसल जाता। ऐसे में वहाँ से खिसक लेने मे ही भलाई समझते कि कहीं बात बढ़े और पोल खुल जाये।   इनका अपना परिवार काफ़ी बड़ा है। अपने भाई बहनों के नाम तो याद रहते हैं पर उनके बच्चों के नाम कभी कभी भूल जाते है। मेरे परिवार में बहुत लोगों के दो नाम हैं, घर का एक नाम और असली नाम कुछ बिल्कुल अलग!, वहाँ तो उनकी मुश्किल दोगुनी हो जाती है। इन्हें अकसर सरकारी काम से शहर से बाहर जाना पड़ता है। एक बार ये नई दिल्ली से लखनऊ मेल में सवार हुए। रात का समय था ट्रेन चल चुकी थी वे आराम से सोने की तैयारी में थे, कंडक्टर ने आकर भारतीय रेल का पास देखा, जैसे ही वह जाने को हुआ तो इन्होंने कहा ‘’मुझे हरिद्वार मेये जगा देना।‘’   कंडक्टर ने कहा ‘’सर, ये ट्रेन हरिद्वार नहीं जाती।‘’   ‘’अरे, कैसे नहीं जाती लखनऊ मेल ही है न। ‘’   … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9

ग्वालियर का छूटना

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8 अब आगे …. गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 9:ग्वालियर छोड़ना (दिल्ली 1992 से 96)   इस समय तक ग्वालियर में सिर्फ चाचा जी चाची जी रह गये थे। शशि बीबी का बेटा जो दसवीं के बाद से ग्वालियर में ही पढ़ा था, इंजीनीयरिंग करके दिल्ली में नौकरी करने लगा था। शशि बीबी (बड़ी ननद) के पति रवि भाई साहब सेवानिवृत्तहो कर सिंदरी (बिहार) से लखनऊ आ चुके थे। तनु कॉलिजके अंतिम वर्ष में थी।   इसी साल होली से कुछ पहले परिवार को एक बहुत बड़ा झटका लगा जिसने सब को हिला दिया। आधी रात को पता चला कि सड़क दुर्घटना में नीता के पति की मृत्यु हो गई थी । वह होली मनाने अपने घर रायपुर जा रहे थे। सिर की चोट ने वहीं प्राण ले लिये, नीता के हाथ में ज़रा सी खरोंचे आईं, बच्ची और नीता के देवर को कोई चोट नहीं लगी। उनकी जीप एक खड़े हुए ट्रक से टकराती हुई निकली तो उनके सिर को आघात लगा था। नीता की शादी को केवल आठ साल हुए थे और ढाई साल की बेटी थी। नीता के पति के निधन की सूचना सबसे पहले हमें ही मिली। ग्वालियर में केवल दुर्घटना की सूचना दी गई थी,उनके निधन की नहीं।   उन दिनों दिनेश भैया गुरु तेग बहादुर अस्पताल से सऱदर जंग अस्पताल में आ गये थे और लक्ष्मी बाई नगर में रह रहे थे परन्तु जयश्री की नौकरी अभी भी पूर्वी दिल्ली में थी, बच्चे भी वहीं पढ़ रहे थे इसलिये वह अपने माता पिता के साथ रह रही थी। दक्षिण दिल्ली तबादले की कोशिश थी और अगले सत्र में बच्चों को भी द.दिल्ली के स्कूल में दाखिला करवाना था। ये सब यहाँ बताना ज़रूरी है क्योंकि आगे आने वाले घटनाक्रम में ये बातें महत्वपूर्ण होंगी।   मृत्यु  की सूचना पाते ही हम दिनेश भैया के यहाँ गये,  जो होना था हो चुका था,  अब क्या करना है यह विचार करना था। उमा दीदी भी वहाँ जाना चाहती थीं। नागपुर से कुछ घंटे की सड़क यात्रा करनी थी। इन्होंने अपना दिनेश भैया और उमा दी का रेल आरक्षण  करवा लिया था, उसी ट्रेन से मैं और उमा दी के पति ब्रजेश भाई  साहब भी चले, पर हम ग्वालियर उतर गये, चाचा जी और चाची जी को संभालने के लिये । अभी तक उनको मृत्यु की सूचना नहीं दी गई थी।  जयश्री हमारे और अपने बच्चों की देखभाल करने हमारे घर आ गई थी ।   ग्वालियर पहुँचकर मैंने जो नज़ारा देखा उसकी सपने में भी कल्पना नहीं की थी। दुख से ज़्यादा चाची जी को क्रोध था जिसमें उन्होंने शब्दों की सभ्य सीमा को पार करके अपने दोनों बेटों को कोसना शुरू कर दिया था, जो मेरे लिये तो असह्य थापरंतु मौका ऐसा था कि मेरे लिये चुप रहना ही सही था। अड़ौसी पड़ौसी रिश्तेदारों की संवेदनायें स्वाभाविक था, कि उन  ही के साथ थीं। मुझमें सुनने का साहस नहीं रहा तो मैंने दूसरे कमरे में जाकर शरण ली।   उनका निशाना उनके दोनों लायक बेटे थे जो उस समय दुनिया के सबसे बुरे बेटे बने हुए थे। उनको सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि दोनों उन्हें लेकर नहीं गये, दूसरी शिकायत थी कि पैसे बचानेके लिये ट्रेन से गये, हवाई जहाज़ से जाना चाहिये था। उनकी दोनों ही शिकायत वाजिब नहीं थी। उन दोनों का स्वास्थ्य सफ़र के लायक नहीं था, यदि उन दोनों को ले जाते तो इतनी जल्दी नहीं पहुँच सकते थे।   जहाँ तक हवाई जहाज़ से जाने का सवाल था उन दिनों ए.टी.ऐम.  क्रैडिट कार्ड डैबिट कार्ड नहीं होते थे। एयरलाइंस की बुकिंग के लिये पैसे निकालने के लिये सुबह बैंक खुलने की प्रतीक्षा करनी पड़ती।इंटरनैट नहीं था, ट्रैवल एजैंसी बहुत कम होती थी और हमें उनके बारे में कुछ मालूम नहीं था। रेलवे में होने के कारण सुबह की ट्रेन का आरक्षण तुरंत मिल गया, संबंधित अधिकारी को पैसे बाद में भिजवा दिये गये। जहाँ वे रहते थे वहाँ के लिये नागपुर स्थित सहकर्मियों ने कैब का भी प्रबंध पहले ही कर दियाथा। आख़िरी बात शिकायत में विरोधाभासथा!यदि उन्हें ग्वालियर से लेना ही था तो हवाई जहाज़ से कैसे जाते!  अतः उनकी किसी भी शिकायत में दम नहीं था, गहरा दुख था पर यह दुख उनके बेटों ने नहीं दिया था, प्रभु इच्छा थी, जिसके आगे किसी की नहीं चलती, पता नहीं कौन सी कुंठाये और शिकायतें मौक़ा पाकर लावा की तरह ज्वालामुखी से फूट रही थीं।   अभी तक मैं अवसाद और व्याकुलता (depression& anxiety) से पूरी तरह उभरी नहीं थी,यहाँ के वातावरण ने मुझे फिर अँधेरों में ढकेल दिया था। मैंने सबसे अलक थलक अपने को एक कमरे में बंद कर लिया था, तीन चार दिन सिर्फ चाय और पार्ले जी बिस्किट पर रही थी। जब दोनों भाई वहाँ से लौटे तो बिना समय गँवाये उसी समय ये मुझे लेकर  पहली उपलब्ध ट्रेन से दिल्ली आ गये।  यहाँ मेरा इलाज चल ही रहा था।जितने दिन मैं ग्वालियर रही दिनेश भैया के एक डाक्टर मित्र ने मेरा बहुत ध्यान रखा, दवाॉइयों का प्रबंध किया औरनींद काइंजैक्शन भी लगाना पड़ा था। ये वही मित्र थे जिन्होने तनु के पैदा होने के समय भी मेरा बहुत ख़याल रखा था।   कुछ दिनों से यह बात चल रही थी कि चाचा  जी और चाची जी का अब ग्वालियर में रहना मुश्किल है और अब वह दिल्ली आकर रहेंगे। वे दोनों निश्चय कर चुके थे कि उन्हें दिनेश भैया और जयश्री के साथ रहना हैं … Read more

गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8

गुजरे हुए लम्हे

  आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 अब आगे ….     गुजरे हुए लम्हे-अध्याय 8: बच्चे बड़े हो रहे थे (दिल्ली 1987 से 91 तक)   तनु ने 87 में दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी और स्वेच्छा से कॉमर्स स्ट्रीम को चुना था। अपूर्व कक्षा 1 में आ गया था।  उस समय ट्यूशन या कोचिंग का चलन शुरू हो चुका था पर अधिकतर विज्ञान के छात्र दाख़िले की प्रतियोगी परीक्षाओं के लिये कोचिंग में जाते थे। कॉमर्स वाले भी मैथ्स और ऐकाउंट्स के लिये जाने लगे थे पर तनु ने कभी कोचिंग नहीं ली थी।   जब तनु 12 वीं कक्षा में थी तभी इनका तबादला पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे के अलीपुरद्वार( प. बंगाल) में हो गया। दिल्ली में किसी तरह 10- 11 साल निकाल चुके थे। कभी रेलवे बोर्ड में तो कभी उत्तर रेलवे में पर अब रुकना मुश्किल था। पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे में जाने से दो लाभ थे पहला तो ये कि दिल्ली में सरकारी मकान रख सकते थे दूसरा यह कि 2-3 साल वहाँ काम करने के बाद अपनी मनचाही जगह नहीं सकते थे, वापिस तबादला माँग सकते थे। हम तनु को नेवल स्कूल से स्कूल के आख़िरी साल में हटा नहीं सकते थे,  इसलिये मुझे बच्चों के साथ दिल्ली में ही रहना था, जो कि आसान तो नहीं था। जाने से पहले रेलवे बोर्ड के उच्चाधिकारियों को इन्होंने अपनी समस्या बताई तो इन्हें आश्वासन दिया गया कि जैसे ही कोई जगह खाली होगी इन्हें वापिस बुला लिया जायेगा। जगह खाली भी हुईं और भरती भी गईं पर हमें दिया हुआ आश्वासन आश्वासन ही रहा। दिल्ली आने के लिये लोग राजनैतिक दबाव के अलावा और भी तरीके अपनाते हैं।  किसी की सच्ची बड़ी समस्या लोगों को नहीं दिखती और कभी बिना समस्या के समस्या गढ़ ली जाती है और तरह तरह के दबाव डालकर तबादले हो जाते हैं। बार बार की नाउम्मीदी असह्य होने लगी थी, बहुत से काम थे जो करने में मैं दिक्कतें महसूस कर रही थी। इसके अलावा पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे में बोडो आंदोलन हिंसक हो रहा था। इन सब मिली जुली बातों का मेरे मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ रहा था जो पड़ौसियों और मित्रों को दिखने लगा था। इसी बीच में शशी बीबी की बेटी दिव्या का विवाह ग्वालियर से हुआ बारात इंदौर से आई थी। इस शादी में ये गुवाहाटी से आये ज़रूर थे परंतु ग्वालियर बहुत कम समय के लिये ही जा पाये थे। अगली पीढ़ी की यह पहली शादी थी।   इस समय मुझे लगा कि मेरा ड्राइविंग सीखना बहुत ज़रूरी है। मैंने पास के ही ड्राइविंग स्कूल से सीखने का प्रबंध कर लिया। पहले दिन ही एक मज़ेदार वाकया हो  गया जो बाद में मैंने संस्मरण के रूप में लिखा था। वह प्रस्तुत है। –   एकाग्रता (संस्मरण- 5) मेरी एकाग्रता हमेशा से बहुत अच्छी है। यदि कोई काम ज़रूरी हो और उसमें रुचि भी हो तो मेरा ध्यान इधर उधर नहीं भटकता। अभी भी मैं जब कुछ लिखती पढ़ती हूँ तो आस पास से कौन निकल गया, पता ही नहीं चलता।   पहले दिन मैं बहुत उत्साह के साथ ड्राइविंग सीखने निकली। ड्राइविंग स्कूल की गाड़ियों में दोहरे नियंत्रण होते हैं, इसलिये प्रशिक्षक मुझे पहले ही दिन भीड़ वाली जगह ले गया। क्लच ब्रेक सब  का प्रयोग पहले ही सिखा दिया था। एक जगह जाकर उसने कहा कि” मैंम आप उस बस के पीछे जाकर कार को ब्रेक लगाकर रोकियेगा” मैंने कहा “ठीक है।” अब मुझे बस बस दिखाई दे रही थी जिसको पीछे मुझे कार रोकनी थी।  बीच में प्रशिक्षक ने झटके से ब्रेक लगाया और कहा “मैंम देखकर चलाइये” मैंने जवाब दिया” देखकर ही चला रही हूँ उस बस के पीछे ही गाड़ी रोकना है न” वह बोला “तो बीच में जो भी आयेगा उसे उड़ा देंगी ! ”   खैर धीरे धीरे कार चलाना अच्छी तरह सीख लिया और यह भी समझ लिया कि इसमें निशाना लगाने वाली एकाग्रता नहीं चाहिये बल्कि आगे पीछे ही नहीं दायें बायें कौन चल रहा है इस पर भी नज़र रखना ज़रूरी है।कार चलाना सीख लेने से कुछ तो सुविधा हो गई थी परंतु अभी आसपास के इलाकों में ही चलाती थी। रास्ते भी ज्यादा पता नहीं थे।हमारे दो तीन पड़ौसी जो कि इनके सहकर्मी थे वे और उनकी पत्नियाँ बहुत ध्यान रखते थे,पर मेरी लाख कोशिशों के बावजूद अवसाद और व्याकुलता(depression & anxiety ) बढ़ रहे थे। हर काम को करने में दो गुना प्रयत्न लगता था। घबराहट रहती थी,लगता था कि कुछ बुरा या ग़लत होने वाला है। मैं स्वयं ही डॉक्टर के पास चली गई उन्होंने हल्की ऐंटी डिप्रैसैंट और ऐंटी ऐंग्ज़ायटी दवाइयाँ दे दी थी। कोई सैडेटिव नहीं दी थी क्योंकि घर में कोई और बड़ा व्यक्ति नहीं था और मुझे गाड़ी भी चलानी होती थी। दवाइयाँ लेने से कुछ सुधार हुआ, मैं घर ठीक से चला रही थी ,नकारात्मक विचार कम हो गये थे।   तनु को मैथ्स पढ़ाने के लिये कुछ दिन आशू पूनम आकर रह गये थे। उनके एक बेटा भी हो चुका था जो उस समय कुछ uउपन्यास महीने का था। 1989 में तुनु ने 12 वीं पास कर ली। इसी साल सुरेन भैया की तीसरी बेटी चारु की शादी दयालबाग से  गर्मी में ही होनी थी। पूनम ने हमारे ठहरने का प्रबंध अपनी ताई जी के यहाँ कर दिया था । वहाँ तो शादियाँ बहुत सादगी से होती हैं। हमारी मारुति 800 की यह इकलौती शहर से बाहर की यात्रा थी जबकि वह  86 से 03 … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7

महानगरीय जीवन का आरंभ

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 अब आगे ….   गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7 –महानगरीय जीवन का आरंभ (दिल्ली1978 से 86 तक) हम लोग ज्यादातर सामान शोलापुर में पैक करके रख आये थे ओर काफ़ी कुछ बेच भी दिया था। बस सूटकेस में कपड़े लेकर दिनेश भैया के यहाँ चले आयेथे।मकान मिलने में कुछ समय लगना था। बाकी लोग रमा दी, चाची जी वगैरह वहाँ से जा चुके थे। दिनेश भै़या को भी सूरत मैडिकल कालेज में नौकरी मिल गईथी तो वह भी चले गयेथे, जयश्री दिल्ली में ही रही, कभी कभी सूरत चली जाती थी। यह मकान कुछ दिन रख तो सकते ही थे। जयश्री भी ज्यादातर अपने माता पिता के पास रहने लगी थी, इसलिये मकान उनका होते हुए भी घर हम ही चला रहेथे। जैसे जैसे दिन बीत रहे थे,सरकारी मकान मिलने और तनु का स्कूल में दाख़िलाकरवाने कीचिंता मन पर बहुत हावी हो रहीं थी।   हम दोनों ही महानगरों में अभी तक नहीं रहे थे। छोटे शहरों और महानगरों की जीवन शैली में बहुत अंतर होता है। इनकी पोस्टिंग रेलवे बोर्ड में हुई थी। जुलाई आते आते सरोजनी नगर के रेलवे बोर्ड के ट्राँज़िट फ्लैट में हमें घर मिल गया था। घर छोटा था परंतु बहुत सुविधाजनक था। आउट हाउस और छोटा सा लॉन भी था। सरोजनी नगर का बाज़ार बहुत पास था। अब तो इसबाज़ार की गिनती दिल्ली के मुख्य बड़े बाज़ारों में होती है।   घर के सामने रिंग रेलवे की लाइन थी और उसके पार कुछ दूर पर ही नेवल पब्लिक स्कूल था।  तनु का दाख़िला वहीं करवाना था। प्रधानाचार्य से जाकर पहले ही बात कर ली थी। हालाँकि उन्होंने बहुत सहृदयता दिखाई और बिना कोई परीक्षा लिये दाख़िला देने को तैयार हो गईं परंतु  दूसरी कक्षा में लिया, क्योंकि उनके अनुसार तीसरी कक्षा में जगह नहीं थी। तनु शोलापुर से दूसरी कक्षा उत्तीर्ण करके आई थी। हमने ये भी स्वीकार कर लिया क्योंकि हमारे पास कोई और विकल्प था ही नहीं। किसी दूर के स्कूल में दाख़िल करवाते तो और बहुत सी कठिनाइयाँ सामने आती।   आउट हाउस वाली नौकरानी इसे स्कूल में कक्षा तक पहुँचा कर आती थी और वापिस भी लाती थी। मैं ब्रेक में नाश्ता लेकर जाती थी और देख लेती थी कि कोई और ज़रूरत तो नहीं है। दो तीन महीने बीतने के बाद इसकी कक्षा अध्यापिका श्रीमती मित्तल ने कहा कि इसको तो सब आता है, समझाने से पहले ही काम पूरा कर देती है। मैंने उन्हें बताया कि इसे तीसरी कक्षा में होना चाहिये था। श्रीमती मित्तल ने प्रधानाचार्य  से बात की और इसे तुरंत तीसरी कक्षा में भेज दिया गया था। इस प्रकार बेवजह एक साल बर्बाद होने से बच गया। नेवल स्कूल पास था यह सुविधा थी ही ,स्कूल में पढ़ाई भी अच्छी थी और सभी अध्यापिकायें तनु का ध्यान रखती थीं। अध्यापिकायें स्कूल के बाहर भी पिकनिक पर और अन्य दर्शनीय स्थानों पर बस में पूरी ज़िम्मेदारी से ले जाती थीं। प्रिंसपल ने कई साल तक इसके क्लास को भूतल पर ही रखा था।   इस समय हम तीनों के अलावा जयश्री भी हमारे साथ रह रही थी। मोती बाग़ में उसके माता पिता रहते थे ,वहाँ आती जाती रहती थी। सूरत से दिनेश भैया दूसरे तीसरे महीने आ जाते थे , उनकी गृहस्थी एक जगह जम नहीं पा रही थी। जयश्री का तनु पर बहुत लाड़ था। तनु भी चाची से, उसके पहनावे से, पर्स व सैंडिल इत्यादि से बेहद  प्रभावित रहती थी। वह घर से बाहर जाती थी तो सलीके से साड़ी पहनती थी जबकि मैं तो घर में रहती थी,  इतना व्यवस्थित नहीं रहती थी। जयश्री जब कोई नयी सी या बढ़िया साड़ी पहनकर तैयार होती तो तनु समझ जाती थी कि आज चाची डिसपैंसरी से सीधी घर नहीं आयेगी। दिनेश भैया का आना भी इसे अखरता था क्योंकि चाची पर एकाधिकार जो नहीं रहता था।  हम हमेशा की तरह दीवाली पर तो ग्वालियर जाते ही थे, साल में एक बार लखनऊ भी चले जाते थे। अधिकतर सुरेन भैया और उनके परिवार से भी वहीं मिलना हो जाता था। ग्वालियर में नीता मैडिकल कालेज में पढ़ रही थी।   सरोजनी नगर के इस छोटे से घर में मेहमानों का आना जाना बहुत रहता था।  उस समय तक लोग रिश्तेदारों के यहाँ बेखटके रहने आ जाते थे।  आजकल लोग अपने काम से आते हैं तो होटल में रुकते हैं, उस समय रिश्तेदारों का रुकना, बिना कहे आना सब सामान्य था।  शोलापुर से आकर ये सब हमें अच्छा लग रहा था। शोलापुर तो कम ही लोग पहुँचते थे। हमारे सरोजिनी नगर के घर से सुरेन भैया की बड़ी बेटी अपर्णा की सगाई का एक शुभ  कार्य भी संपन्न हुआ। दरअसल यह रिश्ता हमने हीतय करवाया था। वर उमा दी की ननद का बेटा अशोक था। लड़के वाले उमा दी के घर ठहरे थे, लड़की वाले हमारे यहाँ।  एक प्रकार से रिश्ता भाई बहन की ससुराल के परिवारों के बीच हुआ था।हमारे यहाँ आकर लड़की लड़के को देखने की औपचारिकताओं के बाद दोनों तरफ़ से ‘हाँ’ हो गई और अगले दिन ही सगाई हो गई। सब कुछ घर में ही हो गया। यहाँ तक कि खाना भी घर में ही बना दोनों तरफ़ केपरिवारके लोग ही थे। अन्य रिश्तेदारों या मित्रों को नहीं बुलाया था। अपर्णा की शादी भी 80 की मई में लखनऊ से भैया के घर से संपन्न हुई।   इस समय तक हमारे पास स्कूटर ही था। कभी कभी उमा दी के घर हम तीनों स्कूटर पर ही चले जाते थे । ये … Read more

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6

    आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 अब आगे ….       गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6 मुश्किल वक़्त में धैर्य (काज़ीपेट, शोलापुर, सिकंद्राबाद 1972 से 1978)     मुझे लेने ये ओबरा आये और थे ,ग्वालियर  तीन चार दिन रुककर हम काज़ीपेट पहुँच गये थे। इस बीच कोरे गाँव से इनका तबादला काज़ीपेट (आंध्र प्रदेश) हो चुका था, ये सामान सहित वहाँ पहुँच गये थे। काज़ीपेट दरअसल शहर था ही नहीं, रेलवे के महत्व के अलावा,रेलवे के स्टाफ के अलावा, वहाँ कुछ था ही नहीं, पास में वारंगल शहर था। धीरे धीरे गृहस्थी का सामान जुड़ रहा था। वहाँ कोई सरकारी बड़ा मकान खाली नहीं था तो हमें दो कमरों के दो क्वाटरबराबर बराबरलगे हुए मिल गये जिनको एक कमरे से जोड़ दिया गया था। जगह की कमी नहीं थी पर अजीब  लगता था। एक लाइन में चार कमरे दो आँगन दो रसोई। काज़ीपेट में मुझे और तनु दोनों को चिकन पाक्स निकली थी। जब मुझे चिकन पॉक्स हुई तो इनके एक सहकर्मी मित्र और उनकी पत्नी तनु को अपने घर ले गये फिर भी बचाव नहीं हुआ। मैं वहाँ काफ़ी बीमार हुई। इन्होंने तनु को बहुत संभाला था। सिकंद्राबाद( आंध्र)  जाकर चैक-अप और इलाज हुआ। मैं धीरे धीरे ठीक हो गई। काज़ीपेट हम कुछ महीने ही रहे होंगे वह भी बीमारियों में घिरे रहे, साल भर से पहले ही पदोन्नति पर इनकातबादला शोलापुरहो गया। शोलापुर महाराष्ट्र का चौथा या पाँचवाँ बड़ा शहर हैमुंबई, पुने,  नागपुर और कोल्हापुर के बाद,  उस समय ये दक्षिण मध्य रेलवे में था। मुंबई से सिकंद्राबाद या अन्य दक्षिण के शहरों को जाने वाली लाइन पर शोलापुर शहर स्थित है। यहाँ के बैडकवर बहुत मशहूर हैं और बहुत सी कपड़ा मिलें भी वहाँ थी। ।यहाँ हमें पुराना मगर काफ़ी बड़ा बंगला मिल गया था। हम ख़ुश थे और धीरे धीरे गृहस्थी का सामान जोड़ रहे थे।   शोलापुर आने के बाद जून 1972 में हमें एक ऐसा झटका लगा जिसको सोचना भी अब नहीं चाहते। हमारी प्यारी बेटी तनु को अकस्मात बुखार आया और दोनों पैरो में पोलियो हो गया। यद्यपि उस समय पोलियो की बूँदें पिलाई जाने लगी थीं पर कुछ ने कहा था कि साल अंदर पिला दो।  काज़ीपेट में सुविधा थी नहीं और शोलापुर आठ महीने की आयु में ये हो ही गया था, जिस समय बच्चा पकड़कर चलना शुरू करता है,यह वही आयु थी। वहाँ रेलवे के अस्पताल में भर्ती रखा फिर मुंबई भी दो तीन बार गये पर कुछ फर्क नहीं पड़ा। मैं तो विक्षिप्त  सी हो गई थी, परंतु इन्होंने कभी डाँटकर ,कभी समझाकर मुझे इस विकट परिस्थिति  का सामना करने के लिये तैयार किया। धीरे धीरे बदली हुई परिस्थिति  के लिये हम अपने को तैयार कर रहे थे, फिर भी व्याकुलता अपनी चरम सीमा पर थी। कोई कुछ भी कहता हम मान लेते थे। सत्य साईं बाबा के आश्रम पुट्टपर्थी गये,  किसी ने कोई डाक्टर गोवा में बताया, वहाँ भी गये। केरल का आयुर्वेदिक इलाज भी किया। अब तक हम झटके के बाद मजबूत हो चुके थे, इसलिये जहाँ भी इलाज के लिये जाते कोई उम्मीद लेकर नहीं जाते थे। इलाज के बाद कुछ पर्यटन भी हो जाता था। इसको लेकर हमने गोवा और केरल के काफ़ी स्थान देख लिये ।   जब परेशानी में होते है तो हर एक की बात मान लेते हैं। हम पुट्टापर्थी सत्य सांई बाबा के आश्रम में भी गये पर कोई श्रद्धा नहीं उभरी वे एक जादूगर से ज्यादा नहीं लगे। हमारे घर में राधास्वामी सत्संग का माहौल था, मैंने कोशिश की पर मन ज़रा भी नहीं लगा।  लखनऊ के एक वैद्य ने भी कानपुर में पोलियो से ग्रस्त बच्चों के लिये शिविर लगाया था, तब तक भैया भी लखनऊ नहीं आये थे मैं उस शिविर में 15 दिन रही थी। बाद तक भी उन वैद्य का इलाज किया था। मुंबई में एक ज्योतिषी ने त या ट से नाम रखने की सलाह दी थी तो इसका नाम तनुजा रख दिया। जिन चीज़ों पर विश्वास न हो वह भी हम कर लेते हैं किसी करिश्मे की उम्मीद में!   केरल में पालघाट ज़िले  में इनके एक सहयोगी का घर था, उन्होंने वहीं पर आयुर्वेदिक इलाज का प्रबंध करवा दिया था। वहाँ से हम मलमपुज़ाडैम गये जहाँ बहुत खूबसूरत गार्डन था पता नहीं क्यों वह आजकल केरल के पर्यटन स्थलों की सूची में नहीं है। गुरुवयूर  मंदिर देखा। त्रिवेंद्रम में भी इनके सहयोगी मित्र के माता पिता के आतिथ्य में रहे। कन्याकुमारी उस समय बहुत सुंदर था। इतने होटल दुकानें नहीं थे। एक स्थान पर खड़े रहकर महसूस होता था कि एक तरफ बंगाल की खाड़ी है और दूसरी तरफ़ अरब सागर।  एक ही स्थान से सूर्योदय और सूर्यास्त समुद्र में देखने के अनूठा अनुभव था। केरल से हम बंगलौर आये वहाँ स्थानीय भ्रमण करने के बाद मैसूर गये। मैसूर के वृंदावन गार्डन दिन में और रात में देखे और कश्मीर की तरह यहाँ भी ऐसा लगा कि कई फिल्मों के गीतों का छायांकन वहाँ हुआ था।मैसूर का महल भी देखा था।   हम गोवा भी गये थे ट्रेन का अंतिम स्टेशन वास्को था ,पूना से वास्को तो पहुँच  गये परन्तु वास्को से पणजी पहुँचना आसान नहीं था, रास्ते में एक नदी फैरी से पार करनी पड़ती थी, दूसरी ओरजहाँफैरी ने उतारा वह बड़ी सुनसान जगह थी। अंतिम बस पकड़ कर पणजी पहुँचे थे। बस स्टैंड पर टैक्सी औटो मिलने मेंमुश्किल हुई, फिर एक सहयोगी मित्र को फोन किया, तब उन्होंने वहाँ से सर्किट हाउस पहुँचाने के लिये प्रबंध किया, जहाँ हमारे लिये कमरा आरक्षित था। काम हो जाने के … Read more

गुज़रे हुए लम्हे – अध्याय -5

गुज़रे हुए लम्हे

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे | गुज़रे हुए लम्हे -परिचय गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3 गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5 अब आगे ….     अध्याय 5 विवाह के बाद (ग्वालियर, ओबरा, कोरेगाँव दिसम्बर 1969 से 71)   विदाई के बाद ओबरा से बनारस तक टैक्सी से ही जाना था।  बनारस से ट्रेन लेनी थी फिर मानिकपुर और उसके बाद झाँसी पर बदलनी थी।  बारात की कोच पूर्ण रूप से आरक्षित थी जो अलग अलग ट्रेनों में कटकर लगनी थी, पर हम दोनों के लिये अलग प्रथम श्रेणी में आरक्षण था।  यहाँ से हमारी जान पहचान होनी शुरू हुई थी। सबसे पहले तो वह दुल्हन वाली पोशाक बदलकर दूसरे कपड़े पहने, ज़ेवर उतार कर रखे ।ट्रेन कुछ लेट थी, मानिकपुर पर दूसरी ट्रेन छूटने का डर था तो अरुण बहुत तेज़ी से पुल की तरफ चले बिना ये सोचे कि कोई और भी साथ है। कुली भी दौड़ा और मुझे भी दौड़ना पड़ा पर हमने ट्रेन पकड़ ली। बारात की कोच उस ट्रेन में लग नहीं पाई कुछ घंटों बाद किसी दूसरी ट्रेन में लगी थी। हम बारात से 5,6 घंटे पहले ग्वालियर पहुँच गये। मोबाइल क्या उस समय घरों में भी फोन होना बड़ी बात होती थी। स्टेशन मास्टर के कमरे से जाकर अरुण……….. नहीं अब मैं ‘इन्होंने’ कहूँगी क्योंकि उस समय पति का नाम लेने का रिवाज नहीं था न इसकी इजाजत थी !अब ये अब आदत बन चुकी है।वहाँ घर पर भी फोन नहीं था किसी पड़ौसी के यहाँ से संदेश भेजा कि हम पहुँच गये हैं अब क्या करें। कुछ समय में इनकी बहने  वहाँ स्टेशन आ गईं और वहाँ वेटिंग रूम में ही मैं वापिस दुल्हन के जोड़े में तैयार हुई और हम बहनों के साथ चले दिये । जहाँ हम पहुँचे थे वह पड़ौसी का घर था, ये मुझे कुछ देर बाद पता चला। मेरी सास जिन्हें सब चाची जी कहते हैं ,उन्होंने आदेश दिया था कि जब बारात वापिस आ जायेगी तभी बहू प्रवेश करेगी, हमें वहाँ शायद पाँच छ: घंटे तक तो रुकना पड़ा था, तब जाकर गृह प्रवेश हुआ।  हमारे यहाँ कोई पैर से चावल गिराने या रंगीन पानी में पैर रखकर गृह प्रवेश की प्रथा नहीं है, ये प्रथा पता नहीं कहाँ की है जो टीवी धारावाहिकों ने लोकप्रिय बनाई है। चाची जी ने आरती की मुंह मीठा कराया और प्रवेश हो गया।   हम दोनों की जान पहचान तो ट्रेन में ही हो गई थी ,अब दोस्ती की शुरुआत होनी थी, लेकिन उससे पहले बहुत सी रस्में निभानी थीं और परिवार के तौर तरीके समझने थे। वहाँ का वातावरण हमारे घर से बहुत अलग था, चाची जी(सास जी) कुछ मामलों में बहुत अलग थीं। वह घूँघट पल्ला वगैरह पर ध्यान देती थीं, टोकती थीं, तो बड़ी नंद भी कम नहीं थी,  बड़ों के बराबर नहीं बल्कि नीचे पीढ़े  पर बैठना चाहिये यह इशारा बार बार आता था, जो मुझे बहुत बुरा लगता था। कभी इशारा न समझ के मैं साथ में बैठ ही जाती थी। ऐसी परम्परायें हमारे भारतीय परिवारों में होती ही थी, लेकिन और कोई बात परेशानी वाली नहीं थी। हलवा  बनाने क रस्म भी प्रतीकात्मक ही थी, बस हाथ लगवा दिया न हलवा बना न नेग मिला।   पहले तो इन्होंने सोचा था कि ये मुझे अपने साथ छुट्टी खतम होने पर विजयवाड़ा ले जायेंगे परंतु  लम्बी छुट्टी लेते ही विजयवाड़ा से तबादला कोरेगाँव हो गया।  कोरेगाँव सतारा जिले का महाराष्ट्र में एक गाँव था।  छोटी लाइन से बड़ी लाइन का निर्माण चल रहा था, वहाँ एक डेढ़ साल काम चलना था और कोई सुविधा नहीं थी इस लिये मुझे लेकर नहीं जा सकते थे। वैसे भी एक बार ओबरा जाना ही था। आम तौर पर पहली बार ससुराल से लेने छोटे भाई जाते हैं पर मेरा कोई छोटा भाई नहीं था, भैया ही लेने आये।  मैं शायद एक डेढ़ महीने ओबरा  रही थी। कोरेगाँव जाना तो था ही ओबरा या ग्वालियर में बहुत समय तक तो नहीं रह सकती थी। ये ओबरा लेने आये फिर ग्वालियर कुछ दिन रुककर हम कोरेगाँव पहुँच गये।   उन दिनों हनीमून का तो रिवाज था नहीं ,यही हनीमून था।नई लाइन के लिये स्टेशन मास्टर के लिये जो घर बनाया गया था वह फिलहाल हमारा घर था।दो छोटे छोटे कमरे, न बिजली न पानी की व्यवस्था।काम करने के लिये दो तीन आदमी थे । सामने स्टेशन की बिल्डिंग में छोटा सा दफ्तर एक दो क्लर्क एक जीप और ड्राइवर थे। दफ्तर सामने था पर ये लगभग रोज़ ही लाइन का दौरा करने जाते थे । पास में नदी से पानी आता था। कपड़े एक आदमी नदी पर ही धोकर ले आता था।  दो लालटेन थीं, बाद में पैट्रोमैक्स भी आ गई थी, मौसम वहाँ हमेशा सुहावना रहता था इसलिये गर्मी कभी नहीं लगी, पंखे की कमी महसूस नहीं हुई।  बिजली नहीं थी पर फ़ोन था, बिना डायल वाला,जिसमें नम्बर बताने पर सामने वाला जुड़ता था।पानी नदी से आता था पर रसोई गैस थी, जिसका सिलेंडरसतारा से आता था। हमारी गृहस्थी की शुरुआत ख़ूबसूरत सी थी।  ये ज्यादा बात नहीं करते थे, शुरुआत मुझे ही करनी पड़ती थी। कभी सतारा जाकर पिक्चर देख आते थे। कभी कभीपूना जाते तो वहाँ भी कोई पिक्चर देख लेते थे। शाम के समय रमी खेलते या फिर ट्राँजिस्टर पर गाने सुनते थे। उन दिनों बिनाका गीत मालाऔर रेडियो सीलोन से और बी.बी सी. से समाचार सुनते थे।   कोरेगाँव के प्रवास में हमने करीब डेढ़ साल में तीन घर बदले। ज़िंदगी से ज़्यादा  उम्मीद नहीं की थी इसलिये सब अच्छा लग रहा था। एक दूसरे को समझने की कोशिश कर रहे थे। इनका स्वभाव शांत सा था,  कुछ ज़्यादा … Read more