चुनाव -2019-नए वोटर

आपने वोट डाला की नहीं ? चुनाव शुरू हो गए हैं …इस महायज्ञ में एक दूसरे को उत्साहित करने वाले वाक्य अक्सर सुनाई देते रहेंगे, | सही भी है वोट डालना हमारा हक भी है और कर्तव्य भी | ज्यादातर लोग कर्तव्य समझ कर वोट डालते तो हैं पर किसी पार्टी के प्रति उनमें ख़ास लगाव या उत्साह नहीं रहता | एक उम्र आते -आते हमें नेताओं और उनके वादों पर विश्वास नहीं रह जाता , लेकिन जो पहली बार वोट डालने जाते हैं उनमें खासा उत्साह रहता है |और क्यों न हो दुनिया में हर पहली चीज ख़ास ही होती है , पहली बारिश , पहला साल , पहला स्कूल , पहला प्यार और …. पहली बार वोट डालना भी | नए -नए वोटर  जब आप ये पढ़ रहे होंगे तो जरूर आप को भी वो दिन याद आ गया होगा जब आपने पहली बार वोट डाला होगा और हाथों में नीली स्याही के निशान को दिन में कई बार गर्व से देखा होगा, कितना खास होता है ये अहसास …देश का एक नागरिक होने का अहसास , अपने हक़ का अहसास , कर्तव्य  का अहसास और साथ ही साथ इस बात का गर्व भी कि आप भी अपने सपनों के भारत के निर्माता बनने में योगदान कर सकते हैं | पहली बार वोट डालना उम्र का वो दौर होता है जब यूँ भी जिन्दगी में बहुत परिवर्तन हो रहे होते हैं | अभी कुछ साल पहले तक ही तो  फ्रॉक और बेतरतीब बालों में घूमती  लडकियाँ आइना देखना शुरू करती हैं और लड़के अपनी मूंछो की रेखा पर इतराना ….उस पर ये नयी जिम्मेदारी …बड़ा होना  कितना सुखद लगता है | उनका उत्साह  देखकर मुझे उस समय की याद आ जाती है जब हमारे बड़े भैया को पहली बार वोट डालने जाना था | महीनों पहले से वो हद से ज्यादा उत्साहित थे | क्योंकि हम लोगों की उम्र में अंतर ज्यादा था , ऊपर से उनका बात -बात में चिढाने का स्वाभाव ,अक्सर हम लोगों को चिढ़ाया करते , ” हम इस देश के नागरिक हैं , हम सरकार बदल सकते हैं … और तुम लोग … तुम लोग तो अभी छोटे हो , जो सरकार होगी वो झेलनी ही पड़ेगी | यूँ तो भाई -बहन में नोक -झोंक होती ही रहती है पर इस मामले में तो ये सीधा एक तरफ़ा थी | कभी -कभी तो वो इतना चिढाते कि हम बहनों में बहुत हीन भावना आ जाती , लगता बड़े भैया ही सब कुछ है , क्योंकि वो बड़े हैं , इसलिए घर में भी उन्हीं की चलती है और अब तो देश में भी उन्हीं की चलेगी ….हम लोग तो कुछ हैं ही नहीं | कई बार रोते हुए माँ के पास पहुँचते , और माँ , अपना झगडा खुद ही सुलझाओ कह कर डांट कर भगा देतीं | और हम दोनों बहनें अपनी इज्जत का टोकरा उठा कर मुँह लटकाए हुए वापस भैया द्वारा चिढाये जाने को विवश हो जाते | वोट डालने के दो दिन पहले से तो उनका उत्साह उनके सर चढ़ कर बोलने लगा | नियत दिन सुबह जल्दी उठे , थोडा रुतबा जताने के लिए हम लोगों को भी तकिया खींच -खींच कर उठा दिया | हम अलसाई आँखों से देश के इस महान नागरिक को वोट देने जाते हुए देख रहे थे | भैया नहा – धोकर तैयार हुए , उन्होंने बालों में अच्छा खासा तेल लगाया , आखिरकार देश के संभ्रांत नागरिक की जुल्फे उडनी नहीं चाहिए , हमेशा सेंट से परहेज  करने वाले भैया ने थोडा सा से सेंट  भी लगाया , हम अधिकारविहीन लोग मुँह में रात के खाने की गंध भरे उनके इस रूप  से अभिभूत हो रहे थे |  सुबह से ही वो कई बार घडी देख कर बेचैन हो रहे थे |  एक एक पल बरसों का लग रहा था , शायद इतना इंतज़ार तो किसी प्रेमी ने अपनी प्रेमिका से मिलने का भी न किया हो | वो तो अल सुबह ही निकल जाते पर पिताजी        बार -बार रोक  रहे थे , अरे वोटिंग शुरू तो होने दो तब जाना | घर में  तो पिताजी की ही सरकार थी इसलिए उन्हें मानने की मजबूरी थी  |  फिर भी वो माँ -पिताजी के साथ ना जाकर सबसे पहले ही डालने गए | उस समय सभी पार्टी के कार्यकर्ता अपनी -अपनी टेबल लगा कर पर्ची काट कर देते थे , जिसमें टी एल सी नंबर होता था ताकि लोगों को वोट देने में आसानी हो |  अंदाजा ये लगाया जाता था कि जो जिस पार्टी से पर्ची कटवाएगा वो उसी को वोट देगा …. इसी आधार पर एग्जिट पोल का सर्वे रिपोर्ट आती थी | वो कोंग्रेस का समय था … ज्यादातर लोग उसे को वोट देते थे | भैया को भी वोट तो कोंग्रेस को ही देना था पर अपना दिमाग लगते हुए उन्होंने बीजेपी की टेबल से पर्ची कटवाई | ताकि किसी को पता ना चले कि वो वोट किसको दे रहे हैं | आपका का मत गुप्त रहना चाहिए ना ? उस समय छोटी सी लाइन थी , जल्दी नंबर  आ गया | पर ये क्या ? उनका वोट तो कोई पहले ही डाल गया था | उन्होंने बार -बार चेक करवाया पर वोट तो डल ही चुका था | भैया की मायूसी  देख कर वहां मुहल्ले के एक बुजुर्ग ने सलाह दी , तुम दुखी  ना हो, चलो तुम किसी और के नाम का वोट डाल दो  , मैं बात कर लूँगा | फिर थोडा रुक कर बोले ,” पर्ची तो तुमने बीजेपी से ही कटवाई है पर वोट तुम कोंग्रेस को ही देना … पूरा मुहल्ला दे रहा है |” भैया ने तुरंत मना  कर दिया ,” नहीं , फिर जैसे मैं दुखी हो रहा हूँ कोई और भी दुखी होगा … और क्या पता वो किसी और पार्टी को वोट देना चाहता हो | कोई बात नहीं मैं अगली बार मताधिकार का प्रयोग कर लूँगा पर देश के द्वारा दिए गए इस अधिकार का  दुरप्रयोग  नहीं करूँगा |” वो बुजुर्ग उनकी बात कर हंस कर बोले , ” नए -नए वोटर हो ना … Read more

वन फॉर सॉरो ,टू फॉर जॉय

उससे  मेरा पहला परिचय कब हुआ , पता नहीं | शायद बचपन में तब जब मैंने हर काली चिड़िया को कौआ – कौआ कहते हुए उसके और कौवे के बीच में फर्क जाना होगा |  रंग जरूर उसका कौए की तरह था पर उसकी पीली आँखे व् चोंच उसे अलग ही रूप प्रदान करती | उससे भी बढ़कर थी उसकी आवाज़ जो एक मीठा सा अहसास मन में भर देती | बाद में जाना उसका नाम मैना है | पर उसका विशेष परिचय स्कूल जाने की उम्र में हुआ | यहाँ पर मैं तोता और मैना की कहानी की बात नहीं कर रही हूँ … क्योंकि ये कहानी तो पुरानी हो गयी है | उस दिन हम लोग स्कूल से  छुट्टी के बाद  स्कूल  के बाहर रिक्शे में बैठे थे | जब तक सारी  लडकियाँ  न आ जाए रिक्शेवाला रिक्शा  चलाता नहीं था |  हमारा डिब्बाबंद रिक्शा था |  तभी एक बच्ची जोर से बोली  ,ओह , वन फॉर सॉरो ” |  वन फॉर सॉरो ,टू फॉर जॉय  मैंने कौतुहल में पूंछा , क्या मतलब ? उसने उत्तर में एक गीत सुना दिया ….. वन फॉर सॉरो  टू  फॉर जॉय  थ्री फॉर सिल्वर  फोर फॉर गोल्ड                                 फिर अंगुली का इशारा कर के बोली , ” वो देखो एक मैना , जो एक मैना देखता है उसका दिन बहुत ख़राब बीतता है , दो बहुत शुभ होती हैं | देखना आज का दिन ख़राब जाएगा | उसी दिन जब रिक्शा ढलान से उतर रहा था , पलट गया | सभी  बच्चों के बहुत चोट आई | किसी तरह से दो -दो  बच्चे घर भेजे गए | चोटों का दर्द तो माँ के लाड़ -दुलार से ठीक हो गया पर दिमाग में एक बात बैठ गयी वन फॉर सॉरो , टू  फॉर जॉय , सिल्वर और गोल्ड की परवाह नहीं थी | हालांकि उम्र थोड़ा बढ़ी तो बाद की दो पक्तियां बदली हुई सुनाई दी , शायद आप लोग इससे परिचित हों … थ्री फॉर लैटर  फोर फॉर बॉय                    थोडा बड़ा होने पर  समझ के साथ समझ आ गयी थी कि चिड़ियों के देखने से कुछ अच्छा बुरा नहीं होता पर एक चिड़िया दिखती तो आँखे अनायास ही दो चिड़ियों को तलाशने लगती | कभी मिलतीं , कभी नहीं मिलती उनके मिलने न मिलने से दिन के अच्छे बुरे होने का कोई सम्बन्ध भी नहीं रहा | फिर भी दो चिड़ियों को साथ देखकर एक मुस्कान की लम्बी रेखा चेहरे पर खिंच जाती | वैसे ये अंग्रेजों का बनाया हुआ अंधविश्वास  है , फिर भी ये बात गर्व करने लायक तो नहीं है कि अन्धविश्वास बनाने के मामले में हम अकेले नहीं हैं | खैर तभी एक दिन की बात है मैं चावल के दाने चिड़िया के कटोरे में डाल रही थी कि एक मैना आकर बैठ गयी | पहले तो दिल धक् से बैठ गया … दिमाग में वन फॉर सॉरो , वन फॉर सॉरो का टेप रिकार्डर बजने लगा , फिर ध्यान उसकी आँखों पर गया ,उसकी मासूम सी आँखे इंतज़ार कर रहीं थी कि मैं जाऊं तो वो  दाने खाए | नकारात्मक विचार थोड़े थमे बल्कि  इतने पास से उसको देखकर स्नेह उमड़ आया | दाने डाल के हट गयी उसने पलट कर मुझे देखा , जैसे पूछ रही हो , “अब खा लूँ ?”और अधीर बच्चे की तरह बिना उत्तर की प्रतीक्षा में खाने लगी | उसको चट-चट खाते देखने में जो स्नेह उमड़ा उसमें ” वन फॉर सॉरो ” का फलसफा पूरी तरह बह गया |  आज इतने दिनों बाद ये वाकया इसलिए याद आया क्योंकि आज एक छोटा बच्चा जो अपनी माँ के साथ जा रहा था एक मैना देख कर चिल्लाया , ” माँ वन फॉर सॉरो ” |  इससे पहले की वो भी दो चिड़ियाँ तलाशने लगे मैंने प्यार उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा , ” चिड़िया तो इतनी प्यारी होती है ,कि एक भी दिख जाए तो जॉय ही है … सॉरो बिलकुल नहीं | बच्चा खुश हो कर ताली बजाने लगा | ऐसे ही बचपन की कच्ची मिटटी पर न जाने कितने अन्धविश्वास रोप दिए जाते हैं | जिनके डर तले विकसित होता पौधा अपना उन ऊँचाइयों को नहीं पा पाता जो उसके लिए बनीं थीं |  बाँधों न इस कदर बेड़ियों से इसे  उड़ने दो आज़ाद मन के परिंदे  को जरा … यह भी पढ़ें …  खुद को अतिव्यस्त दिखाना का मनोरोग क्यों लुभाते हैं फेसबुक पर बने रिश्ते                         आंटी अंकल की पार्टी और महिला दिवस                                      गोलगप्पा संस्कृति आपको  लेख “ वन फॉर सॉरो ,टू फॉर जॉय “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under- superstitions, bird, one for sorrow two for joy

मैं मेहनत के पैसे लेता हूँ , मदद के नहीं

अमीर लोगों का दिल कई बार बहुत छोटा होता है और गरीबों का बहुत बड़ा | ऐसे नज़ारे देखने को अक्सर मिल ही जाते हैं | परन्तु  कभी  -कभी कोई बहुत छोटी सी बात हमें बहुत देर तक खुश कर देती है और जीवन का एक सूत्र भी दे देती है | मैं मेहनत के पैसे लेता हूँ , मदद के नहीं किस्सा आज का ही है | यूँ तो दिल्ली में बंदर बहुत है | पर किस दिन किस मुहल्ले पर धावा बोलेंगे यह कहा नहीं जा सकता | जब ये आते हैं तो ये झुंड के झुंड आते हैं | ऐसे में सामान लाना मुश्किल होता है | क्योंकि ये हाथ के पैकेट छीन लेते हैं | पैकेट बचाने की जुगत में काट भी लेते हैं |  आज शाम को जब मैं पास की बाज़ार से सामान लेने गयी तब बन्दर नहीं थे | अपनी कालोनी में घुसते ही बहुत से बंदर दिखाई दिए | मेरे दोनों हाथों में बहुत सारे पैकेट थे , उसमें कई सारे खाने -पीने के सामान से भरे हुए थे | मैं घर के बिलकुल पास थी पर मेरे लिए आगे बढ़ना मुश्किल था | उपाय यही था कि मैं वापस लौट जाऊं और आधा एक घंटा इंतज़ार करूँ जब बन्दर इधर -उधर हो जाए तब घर जाऊं |  तभी एक रिक्शेवाला जो मेरी उलझन देख रहा था बोला , ” लाइए आपको छोड़ दूँ | उसने मेरा सामान रिक्शे में रख दिया , मैं बैठ गयी | मुश्किल से पाँच -सात मिनट का रास्ता था पर मेरी बहुत मदद हो गयी थी इसलिए मैं घर पहुँच कर रिक्शेवाले को धन्यवाद देते हुए २० रुपये का नोट देने लगी |  रिक्शेवाले ने नोट लेने से इनकार करते हुए कहा ,  ” ये मत दीजिये , मैं मेहनत के पैसे लेता हूँ , मदद के नहीं “|  रिक्शेवाला तो चला गया पर उसका वाक्य मेरे दिमाग में अभी भी बज रहा है … शायद मैं उस वाक्य को जिंदगी भर ना भूल पाऊं | आदमी छोटा बड़ा नहीं होता … दिल छोटे बड़े होते हैं | कुछ खुशियों को पैसे में नहीं तोला जा सकता | वो सबके लिए सुलभ हैं फिर भी मैं , मेरा मुझसे में हम क्या -क्या खोते जा रहे हैं |आज बरबस ही राजकपूर जी पर फिल्माया गीत गुनगुनाने का जी कर रहा है …. किसी को हो न हो हमें है ऐतबार , जीना इसी का नाम है ….. वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें … भाग्य में रुपये चोंगे को निमंत्रण चार साधुओं का प्रवचन किसान और शिवजी का वरदान आपको    “ मैं मेहनत के पैसे लेता हूँ , मदद के नहीं  “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: short stories, short stories in Hindi, motivational stories,Help

झाड़ू वाले की नकली बीबी और मेरे 500 रुपये

इतिहास गवाह है कि कालिदास हो, अल्वा एडिसन या आइन्स्टाइन सबने  शुरुआत में बहुत मूर्खताएं की हैं, मने मेरी मुर्खताको  बुद्धिमानी की और बढ़ता कदम ही समझना चाहिए |  यूँ तो लोगों के दर्द भरे किस्से सुन कर मूर्ख बनने की मूर्खताएं मैंने कई बार की हैं पर जो किस्सा मैं शेयर करने जा रही हूँ वो गर्म कड़ाही से उतरी जलेबी की तरह बिलकुल ताज़ा और घूमा हुआ है | बात पिछली एक मार्च की है, सुबह का समय था, तभी किसी ने मेरा दरवाज़ा खटखटाया |  झाड़ू वाले की नकली बीबी और 500 रुपये  दरवाज़ा खोलते ही एक औरत रोते हुए दिखी| मुझे देखकर बोली ,”कल रात  मेरा आदमी मर गया, यही आप के मुहल्ले की सड़क पर झाड़ू लगाता था “| ओह, वो सफाई वाला, अभी परसों तो देखा था,अच्छा भला था |  मेरा दिल धक् से रह गया| मन में ख्याल आने लगे  इंसान का क्या भरोसा ,आज है , कल नहीं है |  मुझे द्रवित देख वो बोली,” कफ़न के पैसे भी नहीं है, कुछ मदद कर दीजिये | बचपन से पढ़े पाठ दिमाग में कौंध गए, पैसा क्या है हाथ का मैल है | मैंने,  200 का नोट दिया |पैसे देख कर उसका रुदन गेय हो गया, ,” इत्ते में क्या होगा, लाश घर पर पड़ी है … हाय माईईई , मैंने  उसे दोबारा अपने हाथों की तरफ देखा, अब इतना मैल तो मेरे हाथ में भी नहीं था, इसलिए अलमारी से निकाल 300 और दिए |  वो रोती हुई चली गयी और मैं पूरा दिन शमशान वैराग्य में डूबी बिस्तर पर पड़ी रही, तारीख गवाह है कि उस दिन मैंने fb भी नहीं खोली |  ठीक दो दिन बाद, चार मार्च की सुबह फिर दरवाजा  खटका| खोलने पर सामने सडक पर झाड़ू लगाने वाला खड़ा था| मुझे देख कर दांत दिखाते हुए बोला ,” होली की त्यौहारी | मुझे माजरा समझते देर न लगी , कोई अजनबी औरत इसकी पत्नी बन  मुझे मूर्ख  बना गयी थी |  पछतावा तो बहुत हुआ पर मैं उस झाड़ू वाले से ये तो नहीं कह सकती थी कि ,” अभी तो तुम्हारे कफ़न के पैसे दिए हैं , त्यौहारी  किस मुँह से मांग रहे हो ?  उसे पैसे दे , सोफे पर पसर ,सोंचने लगी … सच  , आदमी का कोई भरोसा नहीं, आज है , कल नहीं है … परसों फिर है   वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें .. इतना प्रैक्टिकल होना भी सही नहीं जिंदगी का चौराहा आंटी अंकल की पार्टी और महिला दिवस गोलगप्पा संस्कृति आपको  लेख “  झाड़ू वाले की नकली  बीबी और मेरे 500 रुपये  .. “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under-kissa, idiot, memoirs, (ये रचना प्रभात खबर में प्रकाशित है ) 

गोलगप्पा संस्कृति

उम्मीद है कि अगर आप महिला है तो शीर्षक पढ़ते ही आप के मुंह में पानी आ गया होगा | हमारे देश में शायद ही कोई लड़की हो जो गोलगप्पे की दीवानी न हों | इसका तेज खट्टा तेज तीखा स्वाद जो एक बार जुबान पर चढ़ गया तो ताउम्र बना रहता है | हाँ जो ज्यादा तीखा नहीं खा सकते उनके लिए मीठे का भी बंदोबस्त रहता है | यूँ गोलगप्पे के अलग -अलग नाम हैं कोई उसे पानी पूरी कहता है कोई पानी के बताशे तो कोई फुचका | जब मामला स्वाद का हो तो नाम से कुछ फर्क नहीं पड़ता | गोलगप्पा संस्कृति कम उम्र लडकियां , प्रौढ़ महिलाएं और नयी -नईं बुजुर्ग कौन होगी जिसकी अनमोल की यादों में गोलगप्पे न जुड़े हों मैं भी अपने बचपन को याद करूँ तो लगता है कि गोलगप्पे के बिना उसका कोई स्वाद ही नहीं होता | उसका जितना खट्टा और तीखापन है वह सब गोलगप्पों की ही देन है | लड़कियों की गोलगप्पे के प्रति दीवानगी देख कर लड़कियों के स्कूल व् कॉलेज के आगे गोलगप्पे के कई ठेले खड़े रहते | उस समय हम लोग गोलगप्पों की खुश्बू से ऐसे ठेले की तरफ भागते जैसे आजकल के विज्ञापनों के मुताबिक़ लडकियां डीयो के खुशबू के पीछे भागती हैं | उस लड़की के ज्ञान के आगे हम सब नतमस्तक रहते जिसे पता होता कि किस के ठेले के गोलगप्पे ज्यादा टेस्टी हैं | हमारी शर्तों में गोलगप्पे खिलाने प्रमुखत: से रहता | कई बार हमारा नन्हा सा पॉकेट मनी गोलगप्पे वाले की भेंट चढ़ जाता | यकीन मानिए उस समय बीच महीने में लडकियां पिता के आगे हाथ फैलाती तो भी सिर्फ गोलगप्पों के लिए | उस पर बोनस के तौर पर कभी माँ या बहन , भाभी के के साथ बाज़ार जाना हो और गोलगप्पे न खाए जाए ऐसा तो ही नहीं सकता | हालांकि मुझे माँ के साथ गोलगप्पे खाना सबसे ज्यादा पसंद था क्योंकि वो एक दो गोलगप्पे खा कर अपने हिस्से के भी मुझे ही दे देतीं | | इस मामले में उदारता दिखाने का मेरा मन नहीं करता | जब गोलगप्पों के लिए व्रत तोडा गोलगप्पों के विषय में सबसे अच्छा किस्सा जो मुझे याद है वो है हरिद्वार यात्रा का | उस समय मेरी उम्र कोई १२ -१३ साल रही होगी | हम लोग बड़ी बुआ के परिवार के साथ हरिद्वार गए थे | अगले दिन हमें चंडी देवी के दर्शन करने जाना था | पिताजी को अचानक किसी जरूरी काम से देहरादून जाना पड़ा | उन की अनुपस्थिति में बड़े फूफाजी जो बहुत धार्मिक थे ने ऐलान कर दिया कि कल सब व्रत करेंगे और दर्शन करने के बाद वापस होटल आ कर व्रत खोलेंगे | उनके अनुसार ऐसा करने से ज्यादा पुन्य मिलेता है | हम सब ६ , ७ बच्चे ये फरमान सुन कर थोडा बेचैन हुए क्योंकि खेलने कूदने की उम्र में यूँ भी भूंख ज्यादा लगती है, पर फूफाजी से बहस करने की हिम्मत किसी में नहीं थी | हम सब चढ़ाई करके ऊपर मंदिर तक पहुंचे | यूँ तो चढ़ाई में बहुत मज़ा आया | भूख के मारे पेट में चूहे कूद रहे थे | वहीँ पर एक गोलगप्पे वाला टोकरी में रख कर गोलगप्पे बेंच रहा था | मन हुआ जल्दी से खा लें , पर फूफाजी की डांट का डर था | फूफाजी ने सब बच्चों को मंदिर में बुला लिया और खुद आँख बंद कर के पूजा करने लगे | हमने धीरे से आँख खोली , आँखों ही आँखों में ईशारा हुआ , देखा फूफाजी तो ईश्वर की आराधना में लींन हैं क्यों न मौके का फायदा उठाया जाए | हम बच्चे एक दूसरे को ईशारा करके धीरे -धीरे उठ कर देवी माँ की शरण से गोलगप्पे वाले की शरण में पहुंचे , और लगे दनादन गोलगप्पे खाने | जी भर के खा भी न पाए थे कि बुआ जी की डांटने की आवाज़ सुनाई दी | ये लो , ” ये सब लगे हैं गोलगप्पे खाने में , क्या कहा गया था तुम लोगों से व्रत रखना है , ज्यादा पुन्य मिलेगा | हम सब बुआ की चिरौरी करने लगे , ” बुआ जी , खा लेने दीजिये , बहुत भूख लगी है | बुआ जी थोडा नम्र पड़ीं | ठीक है , ठीक है , खा लो पर जो फूफाजी आ गए तो , फिर हम तो नहीं बचा पायेंगे | नहीं बुआ जी फूफाजी आंखे बंद किये बैठे हैं वो एक घंटा से पहले नहीं उठेंगे | ये सुन बुआ जी जो थोड़ी तनावग्रस्त लग रहीं थीं , के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गयी | बड़े लाड़ से बोली , ” चलो हटो हमें ( माँ व् बुआ जी ) खाने दो “| पर बुआ जी पुन्य का क्या होगा , हम सब एक स्वर में चिल्लाये | “ अरे तुम्हारे फूफाजी कर तो रहे हैं न पूजा | आधा तो हमारा वैसे ही हो जाएगा, कह कर बुआ जी भी हम बच्चों को परस्त करते हुए गोलगप्पे खाने लगीं | गोलगप्पा संस्कृति बरक़रार है अब समय बदल गया है | ये मैगी , पिज़ा , पास्ता मोमोज का ज़माना है | पर इन सब को खाने वाले बच्चे गोलगप्पों भी शौक से खाते हैं | हाँ तरीका अलग है अब हल्दीराम के पैकेट बंद गोलगप्पे आते हैं या फिर होटल से कॉल करके , घर में भी बना कर भी | घर में बनाने के लिए यू ट्यूब पर सैंकड़ों वीडियो मौजूद हैं | कभी -कभी सोचती हूँ की नयी -पीढ़ी से पुरानी पीढ़ी की अनेकों बातों में टकराहट भले ही क्यों न हों पर गोलगप्पा संस्कृति अभी भी बरकरार है | वंदना बाजपेयी इतना प्रैक्टिकल होना भी सही नहीं रानी पद्मावती और बचपन की यादें हे ईश्वर क्या वो तुम थे निर्णय लो दीदी आपको  लेख “  गोलगप्पा संस्कृति .. “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under-golgppe, golgppa

गुड़िया जायेगी ससुराल लेकिन …

नेहा की चार साल की दो जुड़वां बेटियाँ हैं … फूल सी प्यारी | कल दोनों ने पीले  रंग की एक सी फ्रॉक पहनी थी , जिसमें नन्हें -नन्हे  फूल  बने हुए थे | सारा समय वो इधर -उधर शरारत करती रहीं | फिर नेहा के कहने पर उन्होंने डांस दिखाना शुरू किया | दोनों एक साथ एक लय ताल पर नृत्य कर रहीं थी | नृत्य की हर लय  पर उनकी फ्रॉक ढेर सारे फूल खिलखिला रहे थे |  वो साथ -साथ गा भी रहीं थीं ” “गुडिया जायेगी ससुराल लेकिन रो -रो कर”| इस गुडिया को   ससुर , जेठ , देवर जो भी बुलाता है वो  ससुराल नहीं जाती है | बाद  पति बुलाते हैं तो हँसते – हँसते जाती है |  ऐसा ही एक गीत हमारे समय में गाया जाता था भरी दुपहरी मैं न जाऊं रे डोला पिछवाड़े रख दो | जिसे चांदनी फिल्म में ” मैं  ससुराल नहीं जाउंगी ‘शब्दों  के साथ श्रीदेवी पर बहुत खूबसूरती से फिल्माया गया था | तब से लेकर अब तक हर गीत के बोल थोड़े बहुत अलग भले ही हों पर भाव वही है …. गुडिया जानती है की ससुराल में उसे प्यार करने वाला सिर्फ पति ही है | या यूँ कहें कि पति नहीं पूंछता तो ससुराल में कोई नहीं पूंछता,  लेकिन बहुत सी गुड़ियाएं ऐसी भी हैं जिनका पति भी प्यार नहीं करता , उन्हें हर हाल  में रो के जाना है और रो के  जीना हैं |  मेरा ध्यान एक और  गुडिया पर चला गया ,  जिसका पति उसे बहुत मारता रहा  है … और मारने के बाद उससे पत्नी धर्म निभाने की फरमाइश भी करता रहा है | उसकी नज़र में ये गलत नहीं … आखिर वो अपनी पत्नी से प्यार करता है | तन और मन से टूटी गुड़िया  ने आखिरकार बच्चों के साथ अलग रहने का फैसला किया , ससुराल में सभी ने किनारा कर लिया | गुड़िया  तीन साल से एक कमरे के किराए के मकान में अपने बच्चों के साथ रह कर उन्हें पढ़ा रही है |  खर्चे के लिए उसने छोटी नौकरी कर ली  | तीन साल में पति ने एक पैसा भी नहीं दिया | एक दिन भाई ने  भावुक हो कर उसे परिवार का वास्ता दे कर पति के पास जाने को कहा | भाई के आँसुओं  का असर हुआ या समाज का डर  , गुड़िया  वापस पति के पास चली गयी |  अभी कुछ दिन पहले  ही पता चला गुड़िया हॉस्पिटल में है | वहाँ  जा कर देखा कि गुडिया के शरीर पर चोटों के अनगिनत निशान हैं , जबकि गुडिया ने बयान दिया  वो गिर गयी थी | अकसर गुड़ियाएं सीढ़ी से गिरती रही हैं | गुडिया की माँ का रुदन जारी  था | वो दामाद को कोस रही थी , ” अरे मर जाए तो कम से कम हम अपनी लड़की को रख तो लेंगे ,नहीं तो समाज कहेगा लड़की में ही कोई दोष था तभी आदमी को छोड़ मायके में पड़ी है | कैसा है ये समाज , जो दूसरों की बेटियों को घुट -घुट कर जीने को विवश करता है | ये समाज हब सब से मिलकर बना है | कहीं न कहीं हम सब दोषी हो जाते हैं जब हमारी आपसी बात इस प्रश्न के साथ शुरू होती है , ” फ़लाने  की गुडिया की तो शादी हो गयी थी , वो मायके में क्या कर रही है ?                                                तभी मेरी तन्द्रा टूटी जब वो दोनों बच्चियां मेरा हाथ पकड़ कर खींच रही थी , ” आंटी  डांस कैसा लगा ?” उनके खिले हुए चेहरे और फ्रॉक के मुस्कुराते फूलों को देख कर मैंने कहा , ” तुम्हारा डांस तो बहुत अच्छा था पर मेरी बच्चियों इस गाने के बोल बदलने होंगे , ” गुडिया रो-रो के ससुराल नहीं और  रो , रो के तो वहां बिलकुल नहीं रहेगी | मेरी बात का अर्थ न समझते हुए वो खिलखिला उठीं | मैं मन ही मन सोचने लगी , ” गुडिया , तुम्हारी इस हंसी को बरकरार रखने की जिम्मेदारी , हमारी है , पूरे समाज की है | वंदना बाजपेयी इतना प्रैक्टिकल होना भी सही नहीं रानी पद्मावती और बचपन की यादें हे ईश्वर क्या वो तुम थे निर्णय लो दीदी आपको  लेख “  गुड़िया  जायेगी ससुराल लेकिन … “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under- women empowerment, domestic violence

सीख

         यूँ तो हम सब का जीवन एक कहानी है पर हम पढना दूसरे की चाहते हैं | लेकिन आज मैं अपनी ही जिंदगी की एक ऐसी कहानी साझा कर रही हूँ जो बेहद दर्दनाक है पर उस घटना से मुझे जिंदगी भर की सीख मिली | जब एक दुखद घटना से मिली जिंदगी की बड़ी सीख बात तब की है जब मैं स्कूल में पढ़ती थी | स्कूल जाने के रास्ते में एक रेलवे गेट पड़ता था| दरअसल रेलवे गेट के दूसरी तरफ तीन स्कूल थे | तीनों का टाइम सुबह 8 बजे था| अक्सर  7:40 पर गेट बंद हो जाता था | हम तीनों स्कूल के बच्चे कोशिश करते थे कि 7 : 40 से पहले ही रेलवे लाइन क्रॉस कर लें , क्योंकि अगर एक बार गेट बंद हो गया तो वो ८ बजे ही खुलता | उस गेट से स्कूल की दूरी करीब 5-7 मिनट थी पर  फिर भी हमें लेट मान लिया जाता | हमारे स्कूल की प्रिंसिपल  बच्चों को गेट के अन्दर तो घुसने देतीं पर दो पीरियड क्लास में पढने को नहीं मिलता | लेट होने पर हम बच्चे स्कूल के प्ले ग्राउंड में किताब ले कर बैठ जाते व् खुद ही पढ़ते | कॉन्वेंट स्कूल होने के कारण बच्चों पर कोई टीचर हाथ नहीं उठती थी |  रेलवे गेट और रूपा से दोस्ती  वहीँ दूसरे स्कूल में सख्ती कम थी वहाँ  बच्चों को डांट  खा कर अन्दर जाने मिलता था | हम लोगों को सख्त हिदायत थी कि रेलवे लाइन क्रॉस न करों, इसलिए कभी लेट हो जाने पर हमें इंतजार करने और स्कूल में सजा पाने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था | बच्चे तो बच्चे ही होते हैं , २० मिनट शांति से बैठना मुश्किल था | तीन स्कूल के कई बच्चे इकट्ठे हो जाते, कुछ पैदल जाने वाले बच्चे भी रुक जाते | बच्चों की बातचीत व् खेल शुरू हो जाते | ऐसे में हमारी दोस्ती दूसरे रिक्शे में जाने वाली नेहा व् रूपा से हो गयी | कभी जब हम साथ –साथ लेट होते तो आपस में बाते करते , कभी लंच का आदान –प्रदान भी हो जाता | रूपा से मेरी कुछ ज्यादा ही बनती थी| तब  फोन घर-घर नहीं थे , हमारा स्कूल भी एक नहीं था , इसलिए जितनी दोस्ती थी उतनी ही देर की थी|   बहुत देर तक रेलवे गेट का बंद रहना  मैं  क्लास 4 थी ,उसी  समय नेहा और रूपा की क्लास में बहुत सख्त क्लास टीचर आयीं , वो लेट आने वाले बच्चों को सारा दिन क्लास के बाहर खड़ा रखती | अनुशासन की दृष्टि से ये अच्छा प्रयास था पर बच्चे लेट होने  से डरने लगे | कई बार बच्चे रिक्शे से उतर कर तब रेलवे लाइन क्रॉस कर लेते जब ट्रेन दूर होती| बच्चे ही क्यों बड़े भी रेलवे लाइन पार कर लेते | ऐसे ही एक दिन रेलवे गेट बंद था| नेहा रूपा और हम सब गेट खुलने का इंतज़ार कर रहे थे | 7:55 हो गया था | ट्रेन अभी तक नहीं आई थी| लेट होना तय था | कुछ बच्चे रेलवे लाइन पार कर स्कूल पहुँच चुके थे | कुछ बच्चे डांट खाने के भय से वापस लौट गए थे | हमारी उलझन बढ़ रही थी |  तभी नेहा ने रूपा  से कहा ,” चलो , रेलवे लाइन क्रॉस करते हैं , वर्ना मैंम  बहुत  डांटेंगी |  ट्रेन आने का समय हो चुका था | रूपा रेलवे लाइन क्रॉस नहीं करना चाहती थी | उसने कहा , छोड़ो , अब क्या फायदा ? नेहा जोर देते हुए बोली ,” अभी ट्रेन आ रही हैं फिर पाँच मिनट तक ट्रेन पास होगी , फिर जब गेट खुलेगा तो भीड़ बढ़ जाएगी हम पक्का लेट हो जायेंगे | रूपा ने स्वीकृति में सर हिलाया | नेहा आगे बढ़ गयी और लाइन तक पहुँच गयी | रूपा भी अधूरे मन से उसके पीछे -पीछे पहुँच गयी | ट्रेन आती हुई दिख रही थी | लोग बोले हटो बच्चों ,ट्रेन आ रही है, पर सवाल पाँच मिनट देरी का था | रूपा ने कहा रहने दो , नेहा बोली जल्दी से भाग कर पार कर लेंगें , मैं तो जा रही हूँ | नेहा पार हो गयी | हम लोगों को एक दर्दनाक चीख सुनाई दी |  ट्रेन के गुज़रते ही नेहा रोती हुई दिखाई दी , रूपा का कहीं पता नहीं था | हम कुछ समझ पाते तब तक रिक्शे वाले ने रिक्शा आगे बढ़ा दिया |घबराए से हम स्कूल पहुंचे |  वो दर्दनाक खबर  स्कूल पहुँचते ही खबर आ गयी कि दूसरे स्कूल की एक बच्ची ट्रेन से कट गयी है | ट्रेन उसे २०० मीटर तक आगे घसीटते हुए ले गयी है | ओह रूपा … क्या अब वो हमें दुबारा नहीं दिखेगी | हम सब लेट हुए बच्चे जो स्कूल ग्राउंड में थे रूपा को याद कर रोने लगे | थोड़ी देर में कन्डोलेंस मीटिंग हुई , इस हृदयविदारक घटना  के कारण  रूपा  को श्रद्धांजलि देते हुए स्कूल की छुट्टी  कर दी गयी | अपनी स्पीच में प्रिंसिपल सिस्टर करेसिया ने कहा कि ये घटना बहुत दुखद है पर ट्रेन के इतना करीब आने पर रेलवे लाइन क्रॉस करना उस बच्ची की गलती थी | आप सब लोग थोडा पहले घर से निकलिए पर रेलवे लाइन तब तक क्रॉस ना करिए जब तक ट्रेन न निकल जाए |   मेरे अनुत्तरित प्रश्न  मेरे आँसू थम नहीं रहे थे | दुःख की इस घडी में बाल मन में एक अजीब सा प्रश्न उठ गया, नेहा जाना चाहती थी , रूपा  नहीं जाना चाहती थी , वो तो गलत काम नहीं कर रही थी , फिर ईश्वर ने उसे अपने पास क्यों बुला लिया | अगर दोनों गलत थे तो भी दोनों को पास बुलाते सिर्फ रूपा का क्यों ? मैंने ये बात अपनी क्लास टीचर को बतायी | उन्होंने मुझे चुप कराते हुए कहा ,” बेटा ये ईश्वर की मर्जी होती है , कब किसको बुलाना है , किसको बचाना है वो जानता है | तो क्या ईश्वर अन्याय करता है ? मैंने पश्न किया , वो बोलीं , ” सब पहले से लिखा होता है | … Read more

आंटी -अंकल की पार्टी और महिला दिवस

कल अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर एक लेख लिखने की सोंच रही थी, लेकिन शाम को मुहल्ले की एक शादी में जाना था लिहाज़ा लेख को रात को लिखने की सोंच हम शादी में पहुंचे | वहां पहुँचते ही आंटी अंकल ने अपने पास बुला लिया | हम वहाँ उनके पास जा  कर बैठ गए |  थोड़ी बातों के बाद खाने –पीने का सिलसिला शुरू हुआ | अंकल 80 +हैं और उनके कई परहेज चल रहे हैं |  पापा की वो डांट या  जिन्दगी की परीक्षा में पास होने का मंत्र  जैसे ही अंकल कुछ लेने आगे बढे आंटी ने जोर से आवाज़ लगाईं रुकिए चाट खानी है आपको, चाट, एसिडिटी नहीं हो जायेगी | अंकल रुक गए, फिर खुद ही उनका मन देख कर चाट बनवा लायीं और बोली ,” देखिये मैंने खट्टा कम डलवाया है , ये खा लीजिये | “ थोड़ी देर बाद अरे ये पनीर मत लीजिये हैवी करेगा | अरे वो मत लीजिये , हाँ ये ले लीजिये ये ठीक रहेगा , आंटी की फ़िक्र साफ़ दिखाई दे रही थी ,और अंकल किसी छोटे बच्चे की तरह ख़ुशी –ख़ुशी उनकी बात मान रहे थे | आंटी हम लोगों से कहने लगीं ,समझते ही नहीं , बीमार पड़ जायेंगें , इतना स्वादिष्ट खाने के लिए मचलते हैं , सुनते ही नहीं , देखना पड़ता है मुझे ही , पतिदेव मुस्कुरा दिए |  तभी अंकल कॉफ़ी ले कर आ गए | आंटी बोली ,” अब काफी क्यों ले आये आप , फिर आइसक्रीम मत खाइएगा , गर्म के बाद ठंडा मत लीजियेगा गला ख़राब हो जाएगा | पर अंकल कहाँ मानने वाले थे थोड़ी देर बाद कुल्फी की जिद करने लगे ,अरे एक ले लेता हूँ कुछ नहीं होता | काफी मना  करने के बाद आंटी पसीजी , ठीक हैं , ले लीजिये घर चल के चाय बना दूँगी |  जिंदगी का चौराहा पतिदेव मेरी तरफ मुखातिब हो कर बोले , “ देखो तुम भी ऐसे ही करना बुढापे में , और मैं जो रात रात में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर लिखने की सोंच रही थी वो घर आकर इस बात पर सर्च करने लगी की पुरुषों को बुढापे में कैसे डांटे J  कम या ज्यादा ये हाल लगभग हर बुजुर्ग दम्पत्ति का है |जो पुरुष जवानी में पत्नी को बोलने का अधिकार भी नहीं देता वह बुढापे में उसकी डांट खाना चाहता है … क्यों ? क्योंकि शरीर अस्वस्थ होने पर वो बच्चा बन जाता है , बिलकुल मासूम सा बच्चा , जिसकी जिम्मेदारी उसकी माँ पर होती है .. और पत्नी  अपने पति की माँ बन कर अपने मातृत्व पर फिर से इतरा उठती है | कितना अत्याचार है ये पुरुषों का महिलाओं पर 🙂 या इसी का नाम है परिवार  नीलम गुप्ता  यह भी पढ़ें … इतना प्रैक्टिकल होना भी सही नहीं रानी पद्मावती और बचपन की यादें हे ईश्वर क्या वो तुम थे निर्णय लो दीदी आपको आपको  लेख “  आंटी -अंकल की पार्टी और महिला दिवस  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | 

पापा की वो डांट: जिन्दगी की परीक्षा में पास होने का मंत्र

                                      जीवन में जो सबसे कीमती चीज हमें माता -पिता देते हैं वो है जीवन मूल्य | आज अपने पिता की पुण्यतिथि पर उन्हें याद करते हुए एक ऐसी ही घटना   दिमाग में बार – बार घूम रही है , जिसे मैं आप सबके साथ शेयर करना चाहती हूँ | उन दिनों गाँव से शहर आ कर बसे परिवार गाँव तो छोड़ आये थे पर अन्धविश्वास अपने साथ लेकर आये थे | आखिरी रोटी बड़ी होनी चाहिए उससे परिवार बढ़ता है , रात को सिल और बटना पास – पास नहीं रखना चाहिए नहीं तो लड़के दूर रहते हैं , घर से निकलते समय टोंकते नहीं हैं या दूध , हल्दी आदि का नाम नहीं लेते हैं और भी न जाने क्या -क्या ? पर उन सब लोगों के विपरीत पापा जो खुद गाँव से आकर बसे थे , इन सारे  अंधविश्वासों के खिलाफ थे और उन्होंने हमें बचपन इन बातों  को पता भी नहीं चलने दिया | जाहिर सी बात है हम इन सब से दूर थे | हालांकि बड़े होने पर मुझे पता चला कि अंधविश्वास  केवल वही नहीं होते जो पीढ़ियों से चले आ रहे हैं कई बार हम अपने कुछ नए अन्धविश्वास स्वयं गढ़ लेते हैं | अपनी जीवन में घटने वाली घटनाओं के कारण शुभ -अशुभ  अच्छा बुरा का हमारा एक निजी घेरा भी न चाहते हुए बनने  लगता है, हम जिसकी कैद में आने लगते हैं | इससे निकलने के लिए आत्मबल की जरूरत होती है | जब पापा की डांट बनी   जिन्दगी की परीक्षा में पास होने का मंत्र                                               बात उन दिनों की है जब मैं B.Sc पार्ट वन में पढ़ती थी |  हमारे एग्जाम चल रहे थे | उस दिन केमिस्ट्री का फर्स्ट पेपर था|  जब मैं कॉलेज पहुंची तो सब सहेलियाँ पढने में लगी थी , मैं भी अपनी किताब खोल कर पढने लगी| तभी मेरी एक सहेली स्वाति  आई | ( आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि स्वाति हमारे कलास  की वो लड़की थी जो सबके हाथ देख कर भविष्य बताती थी , कुंडली देखने का भी उसको ज्ञान था और सिक्का खिसका कर भूतों से बात करने का भी, स्वाति लड़कियों से घिरी रहती, मेरी उससे कोई खास दोस्ती नहीं थी , फिर भी हम क्लास मेट थे तो बात तो होती ही थी ) स्वाति मेरे पास आ कर  मुझसे बोली ,  ” यार , वंदना आज का तुम्हारा पेपर बहुत अच्छा होगा|  इससे पहले की मैं कुछ कह पाती , सभी सहेलियां कहने लगीं हाँ, इसने बहुत पढाई की है |  स्वाति बोली , पढाई तो की ही होगी, पर आज इसने जो येलो कलर का सूट पहना है वो इसके लिए बहुत लकी है | मैंने आश्चर्य से उसकी तरह देखा | उसने मुस्करा कर अपनी बात सिद्ध करते हुए कहा , ” देखो तूने ये सूट साइंस क्विज में पहना था , तो हमारे कॉलेज को फर्स्ट प्राइज़  मिला | फिर तुमने केमिस्ट्री प्रैक्टिकल में ये सूट पहना था , क्या वायवा गया था तुम्हारा | और तब भी जब हम सब लोग क्लास में शोर मचा रहे थे तो दिव्या मैम की डांट तुम्हें छोड़ कर हम सब को पड़ी , मानो न मानो तुम्हें दिव्या मैम की  डांट से इस सूट ने बचाया |”                             मैं उसकी बात पर हँस कर बोली , ” क्या फ़ालतू सोंचती रहती है , इतने ध्यान से सबके सूट मत देखा करो |” | उस दिन का मेरा पेपर बहुत अच्छा गया | कॉलेज से निकलते समय स्वाति बोली , ” देखा मैंने कहा था ना ‘|  अन्धविश्वास का एक बीज उसने मेरे मन की माटी  में रोप दिया था|                          अगले पेपर  ओरगेनिक केमिस्ट्री का था | तीन दिन का गैप था|  मैंने अच्छी तैयारी  की थी | पर पता नहीं क्यों कुछ कमी से लग  रही थी | लग रहा था कि पेपर देखते ही बेंजीन रिंग्स आपस में रिंगा-रिंगा रोजेज खेलते हुए मिक्स न हो जाएँ | खैर मैं पेपर देने जाने के लिए तैयार होने लगी | कपड़ों की अलमारी खोलते ही वो पीला सूट दिख गया | एक ख्याल आया ट्राई करने में हर्ज ही क्या है , चलो इसे ही पहन लेते हैं | इस बार जानबूझ कर पीला सूट पहना | स्वाति द्वारा रोप गए बीज में अंकुर फूटने लगे थे |                   अपनी आदत के अनुसार पापा मुझे एग्जाम के दिनों में खुद कॉलेज छोड़ने जाते थे |  उन्होंने गाडी निकाल ली थी , मैं जा कर बैठ गयी | पापा ने गाडी स्टार्ट की और हमेशा की तरह मेरी प्रेपरेशन के बारे में बात करने लगे | बातों  ही बातों में मैंने उन्हें कह दिया ,  ” पापा आप जानते हैं आज मैंने वही सूट पहना है जो फर्स्ट पेपर में पहना था , वो अच्छा गया , तो ये भी अच्छा ही जाएगा |”                            इतना सुनते ही पापा ने गाडी में ब्रेक लागाया और बैक कर घर की ओर जाने लगे | पापा का कठोर  चेहरा देख कर मेरी उनसे पूंछने की हिम्मत नहीं पड़ी | मुझे लगा पापा शायद गाडी के पेपर घर में भूल आये हैं | मन ही मन बुदबुदा रही थी , ‘ओह पापा , एग्जाम में ही आपको गाडी के पेपर भूलने थे ?”       घर आकर पापा ने गाडी रोक दी | फिर बहुत गंभीर आवाज़ में मुझसे कहा , ” जाओ सूट बदल के आओ “|पापा की आवाज़ इतनी सख्त थी कि मेरी उनसे प्रश्न करने की हिम्मत ही नहीं हुई | मैं चुपचाप घर के अंदर  जा कर सूट बदल कर आ गयी | पापा ने मुझे कॉलेज छोड़ दिया … Read more

रानी पद्मावती और बचपन की यादें

आज पद्मावत फिल्म के  रिलीज होने की तिथि पास आती जा रही है| चारों तरफ पद्मावत और  रानी पद्मावती की चर्चा हैं | ऐसे में मुझे रानी पद्मावती के नाम से जुदा अपने बचपन का एक वाकया  याद आ रहा है|  बात उस समय की है जब मैं क्लास 5 th में थी | हमारे स्कूल में पांच मिनट के एक्शन के साथ झांकी कॉम्पटीशन था | हमारी  क्लास ने भगत सिंह द्वारा असेम्बली में बम फेंकने का एक्ट लिया था | हमारी क्लास के ही दूसरे सेक्शन ने रानी पद्मावती के जौहर व्रत की झाँकी का | जिस दिन कॉम्पटीशन होना था | हम सब तैयार हो कर पहुँच गए | क्योंकि हम लोगों को कोर्ट में बैठना था | हमारे कपडे नार्मल थे व् पडोसी क्लास की लडकियाँ ढेर सारे गहने ,लहंगा –चुन्नी में लकदक करते इतरा रही थी |  बाल सुलभ हंसी मज़ाक चल रहा था | जहाँ हम लोग कह कह रहे थे … तुम्हारा एक्ट बढ़िया है,  कितना सज के आये हो तुम लोग, हमें तो कितने सिंपल कपड़े  पहनने पड़  रहे हैं,  और वो खिलखिलाते हुए  बच्चे हम लोगों को जौहर के लिए बनाये गए कुंड में कुदा  रहे थे , साथ में कहते जा रहे थे, ” तुम भी कूद जाओ, तुम भी कूद जाओ| माहौल बहुत हंसी मज़ाक भरा था | अपने सेक्शन का एक्ट खत्म होने के बाद हम प्रिंसिपल व् टीचर्स की टीम के साथ उस सेक्शन का एक्ट देखने पहुँच गए | क्योंकि उस एक्ट के चर्चे बहुत थे| एक्ट शुरू हुआ| रानी पद्मिनी ने स्त्री स्वाभिमान के लिए प्राणों का बलिदान करने की बात की, एक-एक कर के लडकियां उसमें कूदने लगीं | एक्ट खत्म हो गाया| तालियों की जगह एक सन्नाटा पसर गया, जैसे दिल में कुछ गड़ सा गया| हम सब रो रहे थे |  एक्ट के बाद थोड़ी देर पहले खिलखिलाती हुई अपनी ड्रेस पर इतराती रानियाँ बनी लड़कियाँ  बेतहाशा रो रही थी | पद्मिनी बनी लड़की तो कुछ पल के लिए बेहोश हो गयी | प्रिंसिपल , टीचर्स सब रो रहे थे | हमारी वाइस प्रिंसिपल जो विदेशी मूल की थीं | उन्होंने आँखों में आँसू भर कर सैल्यूट किया |  थोड़ी देर पहले हँसते खिलखिलाते बच्चे रो रहे थे | किसी को उस समय भारतीय सवाभिमान , विदेशी आक्रांता व् स्त्री अस्मिता जैसे शब्द नहीं पता थे | हम सब को मन में था तो एक सम्मान ऐसी स्त्रियों के लिए जिन्होंने अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए अपने प्राण उत्सर्ग कर दिए| निश्चय ही रानी पद्मावती हमारे देश का गौरव हैं, और हर भारतीय को उन पर गर्व हैं|    वंदना दुबे   यह भी पढ़ें … इतना प्रैक्टिकल होना भी सही नहीं 13 फरवरी 2006 बीस पैसा हे ईश्वर क्या वो तुम थे निर्णय लो दीदी आपको आपको  लेख “ रानी पद्मावती और बचपन की यादें  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |                  फोटो क्रेडिट –wikimedia commons