बदलते हुए गाँव

गाँव यानि अपनी मिटटी , अपनी संस्कृति और अपनी जडें , परन्तु विकास की आंधी इन गाँवों को लीलती जा रही है | शहरीकरण की तेज रफ़्तार में गाँव बदल कर शहर होते जा रहे हैं | क्या सभ्यता के नक़्शे में गाँव  सिर्फ अतीत का हिस्सा बन कर रह जायेंगे |  हिंदी कविता – बदलते हुए गाँव  गाँव की चौपालें बदलने लगी हैं  राजनीती का जहर असर कर रहा है अब फसक हो रहे हैं सह और मात के तोड़ने और जोड़ने के सीमेंट के रास्तों से पट चुके है गाँव दूब सिकुड़ती जा रही है  टूटते जा रहे हैं  घर बनती जा रही हैं  दीवारें  हो रहा विकास बढ़ रही प्यास पैसों की सूखे की चपेट में हैं रिश्ते  अकाल है भावों का  बहुत बदल गया है गाँव शहर को देखकर  बाजार को घर ले आया है गाँव  खुद बिकने को तैयार बैठा है हर हाल में  हरी घास भी  खरीद लाये हैं  शहर वाले अब सन्नाटा है चौपालों में अब दहाड़ रही है राजनीति  घर घर चूल्हों में आग नहीं है  हाँ मुँह उगल रहे हैं आग सिक  रहा भोला भाला गाँव बाँट दिए हैं  छाँट दिए हैं मेलों में मिलना होता है  वोटों को बाँटने और काटने के लिए  छद्म वेशों में  घुस चुके हैं गाँव के हर घर में जन जन तक और मनों को कुत्सित कर चुकी है आज की कुत्सित राजनीती यों ही चलता रहा तो  मिट जायेगा गाँव और गाँव का वजूद  फिर ढूँढने जायेंगे किसी गाँव को शहर को गलियों में डॉ गिरीश प्रतीक पिथौरागढ़ उत्तराखंड                    यह भी पढ़ें … काव्य जगत में पढ़े – एक से बढ़कर एक कवितायें रूचि भल्ला की कवितायें वीरू सोनकर की कवितायेँ आभा दुबे की कवितायें बातूनी लड़की आपको  कविता  “.बदलते हुए गाँव.“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

अटूट बंधन पत्रिका पर डॉ गिरीश चन्द्र पाण्डेय ‘प्रतीक ‘की समीक्षा

                                                                                                                    “अटूट बंधन “पत्रिका पर हमें देश भर से प्रतिक्रियायें प्राप्त हो रही हैं ।किसी नयी पत्रिका को भारी संख्या  में  पाठकों के पत्रों का मिलना हमारे लिए हर्ष का विषय है वही यह हमारे उत्तरदायित्व को भी बढ़ता है कि हम आगे भी और अच्छा काम करे ।  जैसा कि हमारा स्लोगनहै “बदलें विचार बदलें दुनियाँ” हमारा पूरा प्रयास है की हम पत्रिका के माध्यम से लोगों में  सकारात्मक चिंतन विकसित करे ,उनका व्यक्तित्व विकास हो…. भारी संख्या में  सहयोगियों का पत्रिका से जुड़ना हमारे मनोबल को बढाता है और हमें यह अहसास कराता है हम सही दिशा में जा रहे हैं। आगे हमारी यह योजना है कि देश के हर जिले में अटूटबंधन लेखक-पाठक क्लब बने…. जहाँ साहित्य पर सकारात्मक चिंतन व्यक्तित्व विकास पर विस्तार से चर्चा की जा सके| यह अपनी तरह काअनूठा प्रयोग है और ख़ुशी की बात है की बहुतसे लोगोंने इसयोजना का स्वागत किया है व जुड़ने की ईक्षा जताई  है| उम्मीद है हमारी इस योजना को भी सभी का स्नेह व् सहयोग मिलेगा । गिरीश  चन्द्र पाण्डेय  प्रतीक जी जैसे साहित्य सेवी व् कर्मठ युवा रचनाकार एवं समीक्षक   की पत्रिका पर की गयी समीक्षा के लिए हम ह्रदय से आभार व्यक्त करते हैं । उनके द्वारा दिए गए सुझावों को हम अमल में लाने का प्रयास करेंगे   कल अटूट बंधन पत्रिका प्राप्त हुई।पढ़ने बैठा तो पढता ही चला गया ।पत्रिका को पढ़कर ऐसा लगा जैसे जादू का पिटारा हो।सकारात्मकता से लवरेज।प्रेरक लेखो आलेखों का पुंज।यह अंक बहुत सुन्दर और संग्रहणीय बन पड़ा है।चिठ्ठी पत्री स्तम्भ यह बताता है की पत्रिका को लेकर पाठक चौकन्ना ही नहीं आशान्वित भी है।जहाँ वंदना जी के संपादकीय की सराहना सुरेश जी पटना द्वारा।और वहीँ एक पाठक की राय पत्रिका के पेज बढ़ाये जाएँ हरीश जी देहरादून द्वारा यह बताना की पत्रिका निष्पक्ष अपने लक्ष्यों की ओर अग्रसर है । प्रधान  संपादक ओमकार मणि त्रिपाठी जी का “दिल की “की बात संपादकीय को समृद्ध करता हुआ दीखता है।इनके लेख में जीवन में सकारात्मकता की पड़ताल जो जरूरी भी है। वंदना दी की कलम हमेशा की तरह इस अंक में भी युवा जोश को आगाह करती दिखी कविता से शुरू किया गया संपादकीय “वो दुनिया कुछ और ही होती होगी……..”पूरा संपादकीय इसी कविता में समेट लिया है।पुरानी पीढ़ी को भी इंगित करना नहीं भूली हैं।यह संपादकीय पूर्णतः मनोवैज्ञानिक सोच पर आधारित है जो प्रेरित भी करता है और आगाह भी।प्राची शुक्ला जी ने रंगो को अपने रंग से रंगने की भरपूर कोशिस की है।जीवन में रंगों का महत्व बताता यह लेख ।त्रिपाठी जी का बॉलीबुड में तांक झांक वाला सलमान की जेल और बेल का खेल एक करारा व्यंग्य ।डॉ परवीन केरल से शब्द और उसकी शक्ति की पड़ताल संग्रहणीय लेख।सतीश चंद्र शर्मा पंजाब का लेख घर का कबाड़ बढ़ाता अवसाद ।घर में पडी अवांछित चीजें हमें अवसाद की ओर धकेलती हैं यह लेख घर को अव्यवस्थित न होने दें और उसे सुव्यवस्थित होना चाहिए इसकी वकालत करता है।और यह सही भी है।वंदना जी की आवरण कथा खुद लिखें अपनी तकदीर पढी रोचकता से भरपूर है और युवाओं को प्रेरित करती है यह आवरण कथा है| ।प्रेमचंद जी मुम्बई के द्वारा व्यक्तित्व विकास पर आधारित लेख (जीतें मन की बाधा)सराहनीय है।पाठक को रिझाता है लेख ।सुरेन्द्र शुक्ल दिल्ली का रिश्ते नातों की पड़ताल पर लेख “रिश्तों में नोक झोंक”एक ऐसा लेख आपको लगेगा जैसे आपके लिए ही यह लिखा गया है।अशोक के.परूथी जी का व्यंग्य” पार्टी बनाम हम “राजनीती और लोकतंत्र के गड़बड़ झाले की पोल खोलता हुआ और रोचक है।काव्य जगत स्तम्भ तो इस अंक का लाजबाब है।कल्पना मिश्र बाजपेयी की (कविता माँ की चुप्पी)माँ चुप क्यों हो एक मार्मिक कविता है।शिखा श्याम जी की “स्त्री होना”यह लिखती हैं मुझे गर्व् है मैं स्त्री हूँ यह कविता स्त्री जागरूक हो रही है यह बताती है।मेरे परम मित्र और बड़े भाई चिंतामणि जोशी जी पिथौरागढ़ उत्तराखण्ड की कविता “खड़ी हैं स्त्रियां”एक सार गर्भित कृति है जिस कविता को आजकल साहित्यिक गलियारों में खूब सराहा जा रहा है।यह कविता लोक जीवन की जीती जागती मूर्ति बन पडी है पहाड़ की स्त्री को जानना है तो इसे पढ़िए। सेनगुप्ता की कविता “लज्जा”अम्बरीष की सच को मैंने अब जाना है कंचन आरजू इलाहाबाद की “माँ “कविताएँ रोचक और सोचने को विवश करती दिखीं।नवीन त्रिपाठी जी की कहानी “प्रायश्चित्त”सराहनीय है।डॉ सन्ध्या जी की लघु कथा “सदाबहार “अच्छी लगी।बात जो दिल को छू गयी बहुत अच्छा प्रयास है।स्वास्थ्य स्तम्भ हमेशा की तरह लभकारी है सबको गर्मी से बचने के उपाय बताता हुआ ।डॉ आराधना जी का बाल मन में (बेकार न जाने दें बच्चों की छुट्टिया)अभिभावको के लिए प्रेरक लेख है।उपासना सियाग अबोहर का स्त्री विमर्श पर (महिलाओं में कर्कशता क्यों)सोचने को विवस करता आलेख ।नाम व भाग्य का सम्बन्ध लेख में त्रिपाठी जी की विवेचना सराहनीय है। अंत में यही कह सकता हूँ अटूट केवल एक पत्रिका नहीं अन्तर्मन् की पुकार है हर वर्ग को समेटने का प्रयास किया गया है।हर समस्या को छूने का प्रयास किया गया है।बच्चों से लेकर बुजुर्गो तक सब इसको खुले मन से पढ़ सकते हैं।इसे आप अपनी मेज पर रखने में शर्म महसूस नहीं करेंगे।अपने बच्चों से इस पर आप खुलकर चर्चा कर सकते हैं।अपनी सकारात्मकता को बनाये रखने के लिए इसे जरूर पढ़ें। अटूट जिसका अंग मैं भी हूँ एक सलाह सम्पादक मंडल के लिए पत्रिका के कवर पेज को शास्त्रीय आवरण देंगे तो और रोचक बनेगा पेज संख्या बढ़नी चाहिए।कहानी और व्यंग को और ज्यादा स्थान दें एक कॉलम पुस्तक समीक्षा का जरूर रखें।अटूट परिवार के बिचार संपादक को छोड़कर पिछले पृष्ठों में हों।कुल मिलाकर अटूट एक सम्पूर्ण वैचारिक,पारिवारिक,सकारात्मकता का गुलदस्ता है इसे अपने पुस्तकालय में सजाएँ।अटूट परिवार बधाई का पात्र है। एक समीक्षा “प्रतीक”डॉ गिरीश पाण्डेय उत्तराखंड atoot bandhan ………… हमारा फेस बुक पेज 

गिरीश चन्द्र पाण्डेय “प्रतीक” की कवितायें

अब रेखाएं नहीं अब तो सत्ता तक पहुचने का कुमार्ग बन चुकी हैं हर पाँच साल बाद फिर रँग दिया जाता है इन रेखाओं को अपने-अपने तरीके से अपनी सहूलियत के रँग में कभी दो गज इधर कभी दो गज उधर बनी रहती है रेखा जस की तस गिरीश चन्द्र पाण्डेय जी की कवितायें मैं तक सीमित नहीं हैं उनकी  कवितायों में सामाजिक भेद भाव के प्रति गहरी संवेदनाएं हैं ….. कवि मन कई अनसुलझे   सवालों के उत्तर चाहता है …. कहीं निराश होता है कहीं आशा का दामन थामता है…. आज के सन्दर्भ में स्त्री मुक्ति आन्दोलन है उसे वो भ्रमित करने वाला बताते हैं ….भ्रम में दोनों हैं स्त्री भी ,पुरुष भी  ………. कही बुजुर्ग माता -पिता की विवशता दिखाती हैं …. कुल मिला कर गिरीश जी की कवितायें अनेकों प्रश्न उठाती हैं और  हमारी संवेदनाओं को झकझोरती हैं  गिरीश चन्द्र पाण्डेय “प्रतीक” की कवितायें                           ●●असमान रेखाएँ●● एक रेखा खींची है हमने अपने मनोमस्तिष्क में नाप लिया है हमने इंच दर इंच अपने पैमाने से क्या नापा और कैसे नापा हमने ये बताना मुश्किल है अगम ही नहीं अगोचर भी है वो रेखा जो खिंच चुकी है हजारों वर्ष पहले उसको मिटाने की जद्दो जहद आज कल खूब चल रही है बड़े बड़े लोग उनकी बड़ी बड़ी बातें पर काम वही छोटे सोच वही संकीर्णता के दल-दल में फँसी और धँसी हुई रेखा जस की तस और गहरी और विभत्स होती हुई और लम्बाई लेते हुए दीवार को गिराना आसान है पर दिलों में पड़ी दरार को पाटना बहुत मुश्किल जातियों वर्गों के बीच की काली रेखाएं अब रेखाएं नहीं अब तो सत्ता तक पहुचने का कुमार्ग बन चुकी हैं हर पाँच साल बाद फिर रँग दिया जाता है इन रेखाओं को अपने-अपने तरीके से अपनी सहूलियत के रँग में कभी दो गज इधर कभी दो गज उधर बनी रहती है रेखा जस की तस अपनी जगह पर हाँ कुछ वर्षौ से एक छटपटाहट देखी गयी है रेखा के आर-पार मिटाने की कवायद जारी है वर्षौ से खिंची रेखा को मिटाने लगेंगे वर्षौ ये कोई गणित के अध्यापक की रेखागणित नहीं जिसे जब चाहो वर्ग बनालो जब चाहो आयत बना लो जब कब चाओ त्रिभुज बनालो जब चाहो वृत बनालो ये तो अदृश्य है समाज के इस छोर से उस छोर तक अविकसित से विकसित तक हर जगह व्याप्ति है इसकी ये रेखाएं जल,जमीन,जंगल सब जगह इसको मिटाना ही होगा हम सबको अपने दिलों से दिमाग से समाज से आओ सब मिल संकल्प लें इस नये वर्ष में दूरियाँ कुछ कम करें                                              ●गत को भूल स्वागत है तेरा● मुश्किल है समेटना हर पल विपल को और उस बीते हुए कल को घड़ी की सुई ही दे सकती है हिसाब और परिभाषित कर सकती है हर क्षण को मुझमें तो क्षमता है नहीं कि में लिख सकूँ उन अँधेरी रातों की आहट जिन्दगी की छटपटाहट ख्वाबों से लड़ता नौजवान इंसान को काटता इन्सान कैसे लिखूँ उस विभीषिका को जिसने लूट लिया उस विश्वास को जो था उस परम आत्मा पर उस इन्सान को इन्सान कह पाना मुश्किल है जिसने हैवानियत की हद पार कर दी हो कैसे बांचा जा सकता है सत्ता के गलियारों का स्याह पहलु कौन उकेर पायेगा उस माँ का दर्द जिसने खो दिया हो अपने लाल को और अपने सुहाग को कैसे पिघलेगा मोम सा दिल जब रौंद दिया गया हो दिल के हर कोने को बना दिया गया हो नम आंखों को सूखा रेगिस्तान कैसे होगा संगम दिलों का,सीमाओं का,जातियों का उन भावों को जो सरस्वती सी लुप्त हो चुकी नदि से हैं बहुत कुछ चीख रहा है उन पाहनों के नीचे दबा कुचला बचपन सिसक रही हैं आत्माएं अनगिनत दुराचारों की काल कोठरियों में कैसे कहूँ की में शिक्षित हो गया हूँ अभी भी अशिक्ष असंख्य मस्तिष्क हैं यहाँ डिग्रियां छप रहीं है होटलों के कमरों में बिक रहा है ईमान कौड़ी के मोल कैसे परिभाषित करूँ खुद को एक पुरुष के रूप में एक मानव के चोले में बहुत कुछ लुट चूका है वजूद भाग रहा हूँ पैसों की अंधी दौड़ में न जाने क्या पा जाऊंगा और कितनी देर के लिए कुछ पता नहीं है कुर्सी महंगी ही नहीं मौत का आसन भी है फिर भी दौड़ रहा हूँ खाई की तरफ दौड़ रहा हूँ मरुस्थल की ओर जानता हु ये मृगमरीचिका है फिर भी दौड़ रहा हूँ बुला रहा हूँ सामने खडी मौत को कैसे लिखूं उस सुबह को जिसने मुझे जगाने का प्रयास किया उस हर किरण को जिसने तमस को दूर किया उस उर्जा के पुंज को जिसने एक नव ऊर्जा का संचार किया ओह उस भविष्य को पकड नहीं सकता जो मेरे कदम से एक कदम आगे है बस उसके पीछे चल रहा हूँ रास्ते के हर मोड़ को जीते हुए जरा सम्हाल कर जरा सम्हल कर चलना है इंतजार है उस सुबह का जो एक नए उत्साह को लायेगी जिसके सहारे वक्त को जी पाऊंगा वक्त पर जो थोडा मुश्किल होगा पर ना मुमकिन नहीं                                                  ●नदी से भाव● बह रही थी नदीपाहनों से टकराते हुए,छलकते हुएकुछ ऐसे ही थे मेरे भावजो टकरा रहे थेउन बिडंबनाओं सेउन रुढियों सेजो मुझे मानव होने से रोकती हैंदेखता हूँ इस नदी की गतीजो बह रही हैअपनी चाल परपर कुछ किनारे बदल रहे थेउसकी ढालमजबूर कर रहे थेरास्ता बदलने कोजैसे मुझसे कोई कह देतेरा रास्ता तू नहींकोई और बनाएगानदी चली जा रही है।बिना किसी की परवाह करेअगले पड़ाव को पार करने की होड़हर जल बिंदु मचल रही हो जैसेसागर में समा जाने को।उस सागर मेंजहां उसका अस्तित्व ,ना के बराबर होगा।फिर भी चाहिए उसे मंजिलअपने को समर्पित कर देनाआसान नहीं हैमेरे लिए तो बिल्कुल नहींनदी का वेग बढ़ता चला गयाज्यो ज्यों घाटी नजदीक आने लगीकुछ यों ही मेरे भाव भी उतावले थेउस समतल को पाने के लिएजहाँ सब समान होंजहाँ कोई … Read more