श्राद्ध पक्ष – क्या वास्तव में आते हैं पितर 

श्राद्ध पक्ष - क्या वास्तव में आते हैं पितर

    चाहें ना धन-संपदा, ना चाहें पकवान l पितरों को बस चाहिए, श्रद्धा और सम्मान ll    आश्विन के शुक्लपक्ष की पूर्णिमा से लेकर आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के काल को श्राद्ध पक्ष या पितृ पक्ष कहा जाता हैl यह वो समय है, जिसमें हम अपने उन पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और सम्मान व्यक्त करते हैं l  पितरों को पिंड व् जल अर्पित करते हैं | मान्यताओं के अनुसार पितृ पक्ष में यमराज सभी सूक्ष्म शरीरों को मुक्त कर देते हैं, जिससे वे अपने परिवार से मिल आये व् उनके द्वरा श्रद्धा से अर्पित जल और पिंड ग्रहण कर सके l  श्राद्ध पक्ष की अमावस्या को महालया  भी कहा जाता है| इसका बहुत महत्व है| ये दिन इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जिन्हें अपने पितरों की पुन्य तिथि का ज्ञान नहीं होता वो भी इस दिन श्रद्धांजलि या पिंडदान करते हैं |   क्या बदल रही है श्राद्ध पक्ष के प्रति धारणा    कहते हैं श्राद्ध में सबसे अधिक महत्व श्रद्धा का होता है | परन्तु क्या आज हम उसे उसी भाव से देखते हैं? कल यूँहीं कुछ परिचितों से मिलना हुआ |उनमें से एक  ने श्राद्ध पक्ष की अमावस्या के लिए अपने पति के साथ सभी पितरों का आह्वान करके श्राद्ध करने की बात शुरू कर दी | बातों ही बातों में खर्चे की बात करने लगी | फिर बोलीं की क्या किया जाये महंगाई चाहे जितनी हो खर्च तो करना ही पड़ेगा, पता नहीं कौन सा पितर नाराज़ बैठा हो, और भी रुष्ट हो जाए | उनको भय था की पितरों के रुष्ट हो जाने से उनके इहलोक के सारे काम बिगड़ने लगेंगे | उनके द्वारा किया गया  श्राद्ध कर्म में श्रद्धा से ज्यादा भय था | किसी अनजाने अहित का भय | वहीँ दूसरे परिचित ने कहा कि  श्राद्ध पक्ष में अपनी सासू माँ की श्राद्ध पर वे किसी अनाथ आश्रम में जा कर खाना व् कपडे बाँट देती हैं, व् पितरों का आह्वान कर जल अर्पित कर देती है | ऐसा करने से उसको संतोष मिलता है | उसका कहना है की जो चले गए वो तो अब वापस नहीं आ सकते पर उनके नाम का स्मरण कर चाहे ब्राह्मणों को खिलाओ या अनाथ बच्चों को, या कौओ को …. क्या फर्क पड़ता है | तीसरे परिचित ने बात काटते हुए कहा, “ये सब पुराने ज़माने की बातें है | आज की भाग दौड़ भरी जिन्दगी में न किसी के पास इतना समय है न पैसा की श्राद्ध के नाम पर बर्बाद करे | और कौन सा वो देखने आ रहे हैं ? आज के वैज्ञानिक युग में ये बातें पुरानी हो गयी हैं हम तो कुछ नहीं करते | ये दिन भी आम दिनों की तरह हैं | वैसे भी छोटी सी जिंदगी है खाओ, पियो ऐश करो | क्या रखा है श्राद्ध व्राद्ध करने में | तीनों परिचितों की सोच, श्राद्ध करने का कारण व् श्रद्धा अलग – अलग है |प्रश्न ये है की जहाँ श्रद्धा नहीं है केवल भय का भाव है क्या वो असली श्राद्ध हो सकता है? प्रश्न ये भी है कि जीते जी हम सौ दुःख सह कर भी अपने बच्चों की आँखों में आँसू नहीं देखना कहते हैं तो परलोक गमन के बाद हमारे माता –पिता या पूर्वज बेगानों की तरह हमें श्राप क्यों देने लगेंगें? जिनकी वसीयत तो हमने ले ली पर साल में एक दिन भी उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करने में हम “खाओ, पियो, ऐश करो की संस्कृति में कहीं अपने और आगामी संतानों को अकेलेपन से जूझती कृतघ्न पीढ़ी की ओर तो नहीं धकेल रहे l   श्राद्ध के बारे में भिन्न भिन्न हैं पंडितों के मत    भाव बिना सब आदर झूठा, झूठा है सम्मान  शास्त्रों के ज्ञाता पंडितों की भी इस बारे में अलग – अलग राय है ……….. उज्जैन में संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रमुख ‘संतोष पंड्या’ के अनुसार, श्राद्ध में भय का कोई स्थान नहीं है। कुछ लोग जरूर भय रखते होंगे जो सोचते हैं कि हमारे पितृ नाराज न हो जाएं, लेकिन ऐसा नहीं होता। जिन लोगों के साथ हमने जीवन के इतने वर्ष बिताएं हैं, वे हमसे नाखुश कैसे हो सकते हैं। उन आत्माओं से भय कैसा? वहीं इलाहाबाद से ‘पं. रामनरेश त्रिपाठी’ भी मानते हैं कि श्राद्ध भय की उपज नहीं है। इसके पीछे एक मात्र उद्देश्य शांति है। श्राद्ध में हम प्याज-लहसून का त्याग करते हैं, खान-पान, रहन-सहन, सबकुछ संयमित होता है। इस तरह श्राद्ध जीवन को संयमित करता है, ना कि भयभीत l जो कुछ भी हम अपने पितरों के लिए करते हैं, वो शांति देता है। क्या वास्तव में आते हैं पितर  जब मानते हैं व्यापी जल भूमि में अनल में तारा  शशांक में भी आकाश में अनल में फिर क्यों ये हाथ है प्यारे, मंदिर में वह नहीं है ये शब्द जो नहीं है, उसके लिए नहीं है प्रतिमा ही देखकर के क्यों भाल  में है रेखा निर्मित किया किसी ने, इसको यही है देखा हर एक पत्थरों में यह मूर्ति ही छिपी है शिल्पी ने स्वच्छ करके दिखला दिया यही है l जयशंकर प्रसाद   पितर वास्तव में धरती पर आते हैं इस बात पर तर्क करने से पहले हमें हिन्दू धर्म की मान्यताओं को समझना पड़ेगा, सगुण उपासना पद्धति को समझना होगा l सगुण उपासना उस विराट ईश्वर को मानव रूप में मान कर उसके साथ एक ही धरातल पर पारिवारिक संबंध बनाने के ऊपर आधारित है l इसी मान्यता के अनुसार सावन में शिव जी धरती पर आते हैं l गणेश चतुर्थी से अनंत चौदस तक गणेश जी आते हैं l नवरात्रि में नौ देवियाँ आती है और देवउठनी एकादशी में भगवान विष्णु योग निद्रा  से उठकर अपना कार्यभार संभालते हैं l तो इसी क्रम में अगर मान्यता है कि अपने वंशजों से मिलने पितर धरती पर आते हैं, तो इसमें तकर्क रहित क्या है ? सगुणोंपासना ईश्वर के मूर्त रूप से, प्राणी मात्र में, फिर अमूर्त और फिर कण-कण में व्याप्त ईश्वर के दर्शन की भी यात्रा हैं l और जब मूर्ति से वास्तविक प्रेम होता है तो यह यात्रा स्वतः ही होने लगती है l कबीर दास जी कहते हैं कि- एक राम दशरथ का बेटा , एक … Read more

बुद्ध पूर्णिमा – भगवान् बुद्ध ने दिया समता का सन्देश

आज से 2500 वर्ष पूर्व निपट भौतिकता बढ़ जाने के कारण मानव के मन में हिंसा का वेग काफी बढ़ गया था। इस कारण से मानव का जीवन दुःखी होता चला जा रहा था, तब परमात्मा ने मनुष्यों पर दया करके और उन्हें अहिंसक विचार का व्यक्ति बनाकर उनके दुखों को दूर करने के लिए भगवान बुद्ध को धरती पर भेजा। बुद्ध पूर्णिमा – भगवान् बुद्ध ने प्रदान किया  समता का सन्देश  बुद्ध जयन्ती/बुद्ध पूर्णिमा बौद्ध धर्म में आस्था रखने वालों का एक प्रमुख त्यौहार है। बुद्ध जयन्ती वैशाख पूर्णिमा को मनाया जाता हैं। पूर्णिमा के दिन ही गौतम बुद्ध का स्वर्गारोहण समारोह भी मनाया जाता है। इस पूर्णिमा के दिन ही 483 ई.पू. में 80 वर्ष की आयु में, देवरिया जिले के कुशीनगर में निर्वाण प्राप्त किया था। भगवान बुद्ध का जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण ये तीनों एक ही दिन अर्थात वैशाख पूर्णिमा के दिन ही हुए थे। इसी दिन भगवान बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। आज बौद्ध धर्म को मानने वाले विश्व में करोड़ों लोग इस दिन को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। हिन्दू धर्मावलंबियों के लिए बुद्ध विष्णु के नौवें अवतार हैं। अतः हिन्दुओं के लिए भी यह दिन पवित्र माना जाता है। यह त्यौहार भारत, नेपाल, सिंगापुर, वियतनाम, थाइलैंड, कंबोडिया, मलेशिया, श्रीलंका, म्यांमार, इंडोनेशिया तथा पाकिस्तान में मनाया जाता है। (2) बुद्ध के मन में बचपन से ही द्वन्द्व शुरू हो गया था:-  गौतम बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु राज्य के लुंबिनी (जो इस समय नेपाल में है) में हुआ था। उनके पिता राजा शुद्धोदन व माता का नाम महामाया था। आपके बचपन का नाम सिद्धार्थ गौतम था। सिद्धार्थ का हृदय बचपन से करूणा, अहिंसा एवं दया से लबालब था। बचपन से ही उनके अंदर अनेक मानवीय एवं सामाजिक प्रश्नों का द्वन्द्व शुरू हो गया था। जैसे – एक आदमी दूसरे का शोषण करें तो क्या इसे ठीक कहा जाएगा?, एक आदमी का दूसरे आदमी को मारना कैसे एक क्षत्रिय का धर्म हो सकता है? पूजा के समय सुनाई जाने वाली गणेश जी की चार कहानियाँ वह एक घायल पक्षी के प्राणों की रक्षा के लिए मामले को राज न्यायालय तक ले गये। न्यायालय ने सिद्धार्थ के इस तर्क को माना कि मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है। सिद्धार्थ एक बीमार, एक वृद्ध तथा एक शव यात्रा को देखकर अत्यन्त व्याकुल हो गये। सिद्धार्थ युद्ध के सर्वथा विरूद्ध थे। सिद्धार्थ का मत था कि युद्ध कभी किसी समस्या का हल नहीं होता, परस्पर एक दूसरे का नाश करने में बुद्धिमानी नहीं है। (3) ‘बुद्ध’ ने बचपन में ही प्रभु की इच्छा और आज्ञा को पहचान लिया था:- बुद्ध ने बचपन में ही ईश्वरीय सत्ता को पहचान लिया और मानवता की मुक्ति तथा ईश्वरीय प्रकाश ;क्पअपदम म्दसपहीजमदउमदजद्ध का मार्ग ढूंढ़ने के लिए उन्होंने राजसी भोगविलास त्याग दिया और अनेक प्रकार के शारीरिक कष्ट झेले। अंगुलिमाल जैसे दुष्टों ने अनेक तरह से उन्हें यातनायें पहुँचाई किन्तु धरती और आकाश की कोई भी शक्ति उन्हें दिव्य मार्ग की ओर चलने से रोक नहीं पायी। परमात्मा ने पवित्र पुस्तक त्रिपिटक की शिक्षाओं के द्वारा बुद्ध के माध्यम से समता का सन्देश सारी मानव जाति को दिया। त्रिपटक प्रेरणा देती है कि समता ईश्वरीय आज्ञा है, छोटी-बड़ी जाति-पाति पर आधारित वर्ण व्यवस्था मनुष्य के बीच में भेदभाव पैदा करती है। इसलिए वर्ण व्यवस्था ईश्वरीय आज्ञा नहीं है।  अतः हमें भी बुद्ध की तरह अपनी इच्छा नहीं वरन् प्रभु की इच्छा और प्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए प्रभु का कार्य करना चाहिए। (4) वैर से वैर कभी कभी नहीं मिटता अवैर (मैत्री) से ही वैर मिटता है:- जो मनुष्य बुद्ध की, धर्म की और संघ की शरण में आता है, वह सम्यक् ज्ञान से चार आर्य सत्यों को जानकर निर्वाण की परम स्थिति को पाने में सफल होता है। ये चार आर्य सत्य हैं – पहला दुःख, दूसरा दुःख का हेतु, तीसरा दुःख से मुक्ति और चैथा दुःख से मुक्ति की ओर ले जाने वाला अष्टांगिक मार्ग। इसी मार्ग की शरण लेने से मनुष्य का कल्याण होता है तथा वह सभी दुःखों से छुटकारा पा जाता है। निर्वाण के मायने है तृष्णाओं तथा वासनाओं का शान्त हो जाना। साथ ही दुखों से सर्वथा छुटकारे का नाम है- निर्वाण। बुद्ध का मानना था कि अति किसी बात की अच्छी नहीं होती है। मध्यम मार्ग ही ठीक होता है। बुद्ध ने कहा है – वैर से वैर कभी नहीं मिटता। अवैर (मैत्री) से ही वैर मिटता है – यही सनातन नियम है। (5) पवित्र त्रिपिटक बौद्ध धर्म की पवित्र पुस्तक है:-  भगवान बुद्ध ने सीधी-सरल लोकभाषा ‘पाली’ में धर्म का प्रचार किया। बुद्ध के सरल, सच्चे तथा सीधे उपदेश जनमानस के हृदय को गहराई तक स्पर्श करते थे। भगवान बुद्ध के उपदेशों को उनके शिष्यों ने कठस्थ करके लिख लिया। वे उन उपदेशों को पेटियों में रखते थे। इसी से इनका नाम पिटक पड़ा। पिटक तीन प्रकार के होते हैं – पहला विनय पिटक, दूसरा सुत्त पिटक और तीसरा अभिधम्म पिटक। इन्हें पवित्र त्रिपिटक कहा जाता है। हिन्दू धर्म में चार वेदों का जो पवित्र स्थान है वही स्थान बौद्ध धर्म में पिटकों का है। सूर्योपासना का महापर्व छठ  बौद्ध धर्म को समझने के लिए धम्मपद का ज्ञान मनुष्य को अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने के लिए प्रज्जवलित दीपक के समान है। संसार में पवित्र गीता, कुरान, बाइबिल, गुरू ग्रन्थ साहब का जो श्रद्धापूर्ण स्थान है, बौद्ध धर्म में वही स्थान धम्मपद का है। त्रिपटक का संदेश एक लाइन में यह है कि वर्ण (जाति) व्यवस्था ईश्वरीय आज्ञा नहीं है वरन् समता ईश्वरीय आज्ञा है। जाति के नाम से छोटे-बड़े का भेदभाव करना पाप है।  (6) सभी धर्मों के हृदय से मानव मात्र की एकता का सन्देश प्रवाहित हो रहा है:-    मानव के विकास तथा उन्नति में धर्म का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। वास्तव में धर्म मानव जीवन की आधारशिला है। भिन्न-भिन्न धर्मों के पूजा-उपासना की अलग-अलग पद्धतियों, पूजा स्थलों तथा ऊपरी आचार-विचार में हमें अन्तर दिखाई पड़ता है, पर हम उनकी गहराई में जाकर देखे तो हमें ज्ञान होगा कि सभी धर्मों के हृदय से मानव मात्र की एकता का सन्देश प्रवाहित हो रहा है। भगवान बुद्ध का आदर्श जीवन एवं सन्देश युगों-युगों … Read more

सीता के पक्ष में हमें खड़ा करने वाले भी राम ही है

                                राम , हमारे आराध्य श्री राम , मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम | राम का चरित इतना ऊंचा , इतना विशाल है की वो इतिहास के पन्नों से निकल कर मानव के मन में बस गया |  जनश्रुति और महाकाव्यों के माध्यम से राम अपने उत्तम चरित्र के कारण युगों युगों तक मर्यादित आचरण की शिक्षा देते आये हैं |                                                     राम – दो अक्षर का प्यारा सा नाम जो पतित पावनी गंगा की तरह मनुष्य के मन के सब पापों को हरता है | अगर प्रभु राम को ईश्वर रूप में न भी देखे तो भी उन चरित्र इतना ऊंचा है की की उन्हें महा मानव की संज्ञा दी जा सकती है |  बाल राम , ताड़का  का वध करने वाले राम , शिव जी धनुष तोड़ने वाले राम , पिता की आज्ञा  मान कर वन  जाने वाले राम , केवट के राम ,सिया के विरह में वन – वन आंसूं बहाते राम  अहिल्या का उद्धार करने वाले राम , शवरी के जूठे बेरों को प्रेम से स्वीकार करने वाले राम , रावण का वध करने वाले राम | राम के इन सारे रूपों में एक रूप ऐसा है जो की राम   के  लोक लुभावन रूप  पर प्रश्नचिन्ह लगाता है | वो है सीता को धोबी के कहने पर गर्भावस्था  में निष्काषित कर वन में भेज देना  देना | राम के लिए भी आसन नहीं होगा सीता को वन में भेजने का निर्णय                                                                             राम के लिए भी ये निर्णय आसान नहीं रहा होगा | कितनी जद्दो- जहद बाद उन्होंने ये निर्णय  लिया होगा | कितने आँसू बहाए होंगे | प्रजा पालक राम , राजा राम , मर्यादा पुरुषोत्तम राम … सबके के राम , अपने निजी जीवन में कितने अकेले कितने एकाकी रहे होंगे | कितनी बार सीता के विरह पर छुप छुप  कर आँसू बहाए होंगे , हर – सुख में हर दुःख में सीता को याद किया होगा , इसका आकलन करना मुश्किल है | आज हम सहज ही राम के इस निर्णय  के खिलाफ सीता के पक्ष में खड़े हो जाते हैं | बहस करते , वाद – विवाद करते हम भूल जाते हैं की राम के लिए भी ये कितना कष्टप्रद रहा होगा | हमें सीता के पक्ष में खड़े करने वाले भी राम ही है                                                  कोई भी घटना देश और काल के अनुसार ही देखी  जाती है | अगर तात्कालिक परिस्तिथियों पर गौर करें तो जब धोबी द्वारा सीता के चरित्र पर आरोप लगाने के बाद अयोध्या में सीता के विरुद्ध स्वर उठने लगे थे | तो राम क्या कर सकते थे | 1 … वो प्रजा से कह देते की वो अग्नि परीक्षा ले चुके हैं उन्हें सीता की पवित्रता पर विश्वास है | अत : सीता कहीं नहीं जायेंगी | यहीं उनके साथ रहेंगी |                                                अगर ऐसा होता तो लोग दवाब में ये फैसला स्वीकार कर लेते पर सीता के विरुद्ध चोरी – छिपे ही सही आरोप लगाते रहते  | जब भगवान् राम ने सिखाया कार्पोरेट जगत का महत्वपूर्ण पाठ २ …. राम सीता को निष्काषित कर ये कहते की वो भी राज गद्दी छोड़ सीता के साथ जा रहे हैं | इससे भी वो सीता को वो सम्मान व् दर्जा नहीं दिला पाते जिसकी वो अधिकारी थीं | इसके अतरिक्त युगों – युगों तक एक ऐसे राजा के रूप में याद किये जाते जो निजी हितों को प्रजा से ऊपर रखता है | राजा का कर्तव्य बहुत बड़ा होता है | उसे निजी सुख प्रजा के सुख के कारण त्यागने पड़ते हैं | ३ … राम ने निजी सुख त्यागने  का निर्णय लिया | उन्होंने सीता को निष्काषित कर कर स्वयं भी एक पत्नी के अपने वचन पर कायम रहने के कारण अकेलेपन का दर्द झेला | राम के शब्द शायद सीता की पवित्रता को सिद्ध न कर पाते परन्तु उनके अकेलेपन के दर्द ने हर पल प्रजा को यह अहसास कराया की वो सिया के साथ हैं | क्योंकि उन्हें उन पर विश्वास है |राम ये जानते थे की आज के ये दुःख – दर्द भविष्य में सीता  की गरिमा मर्यादा व् उत्तम चरित्र को स्थापित करने में सहयक होंगे |                                     राम होना आसान  नहीं है | राम होने का अर्थ उन आरोपों के साथ अकेले जीना है जो मन खुद पर लगाता है ,जिसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं है |                                            जय सिया राम वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … दशहरा असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक आज का रावन सिया के राम प्रभु के सेवक कभी छुट्टी नहीं लेते आपको  लेख “सीता के पक्ष में हमें खड़ा  करने वाले भी राम ही है“ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें  filed under-Ram, prabhu Ram , Ram Navami , Sita-Ram

सूर्योपासना का महापर्व छठ – धार्मिक वैज्ञानिक व् सामाजिक महत्व

  सूर्योपासना का महापर्व छठ कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मनाया जाने वाला हिन्दुओं का एक प्रमुख पर्व है |षष्ठी को मनाये जाने के कारण इसे छठ कहते हैं | हालांकि ये पर्व  चार दिन चतुर्थी से ले कर सप्तमी तक चलता है | परन्तु इसका मुख्य दिन षष्ठी ही होता है | छठ पर्व साल में दो बार मनाया जाता है | पहली बार चैत्र व् दूसरी बार कार्तिक में | कार्तिक में मनाये जाने वाले छठ को कार्तिकी  छठ  भी कहते हैं | वैसे मूलत : यह बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में मनाया जाता है | परन्तु धीरे – धीरे अपनी सरहदों से निकलकर यह पूरे भारत व् विश्व के कई देशों में मनाया जाने लगा हैं |    लोक आस्था के महापर्व छठ को स्त्री पुरुष सामान रूप से करते हैं | व्रत करते हैं और ढलते व्  उगते सूर्य को पानी में खड़े होकर अर्घ्य देते हैं | इस पर्व में बिहार उत्तर प्रदेश व् देश के अन्य शहरों में नदी तालाब पोखरों के घाटों की विशेष सफाई की जाती है | ताकि छठ पूजा के व्रती सुविधापूर्वक उपासना कर सके व् सूर्य को अर्घ्य दे सके | हर घाट पर व्रती हाथ में सूप व् सूर्यदेव को अर्पित किये जाने वाले सामान लेकर उत्साह के साथ दिखाई पड़ते हैं | छठ मैया के मनभावन भक्ति पूर्ण गीतों से सारा वातावरण गुंजायमान हो जाता है | मान्यता है आज के दिन छठ मैया से जो भी मांगों वो मिल जाता है |घाट  में उपस्थित  हर व्यक्ति अपने ह्रदय में आस्था लेकर छठ मैया से अपनी मनोकामना को पूर्ण करने की प्रार्थना करता है |   सूर्योपासना का महापर्व छठ    छठ मुख्यत : सूर्य उपासना का पर्व है | सूर्य हिन्दुओं के प्रमुख देवता है | सूर्य ही वो देवता हैं जिनका हम साक्षात दर्शन कर सकते हैं | सूर्य की उपासना सभ्यता के विकास के साथ ही शुरू हो गयी थी | सूर्य पूजा का उल्लेख पहली बार ऋग्वेद में मिलता है | उपनिषद व् हिन्दुओं के अन्य धर्म ग्रंथों में भी सूर्य को आदि देव मान कर उनकी उपासना का वर्णन हैं | धीरे – धीरे सूर्य की कल्पना मानवाकार के रूपमें होने लगी | पुराणों  के समय में सूर्य की मूर्ति की पूजा होने लगी | व् देश के अनेकों भागों में सूर्य मंदिर बने |  पौराणिक काल में सूर्य की किरणों के आरोग्यकारी गुणों की खोज हुई | पाया गया की कुछ खास दिनों में सूर्य की ये आरोग्यकारी किरणे  प्रचुर मात्र में निकलती हैं | संभवत : वो षष्ठी रही हो और तभी से  छठ एक पर्व के रूप में मनाया जाने लगा हो | छठ के साथ एक ख़ास बात और है इसमें सूर्य के साथ – साथ उसकी शक्ति की भी अराधना होती है | कहा जाता है सूर्य की शक्ति उसकी पत्नियों उषा व् प्रत्युषा में निहित है | छठ में सूर्य के साथ – साथ उसकी दोनों शक्तियों की भी संयुक्त रूपसे उपासना होती है | प्रात: काल में सूर्य की पहली पत्नी ऊषा व् सांय काल में सूर्य की दूसरी पत्नी प्रत्युषा  को अर्घ्य दे कर नमन किया जाता है | किस प्रकार मनाया जाता है छठ              छठ चार दिन का पर्व है | यह कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से शुरू हो कर कार्तिक शुक्ल सप्तमी तक चलता है | इस दौरान व्रती ३६ घंटे का व्रत रखते हैं | चतुर्थी (नहाय खाय )                   ये छठ पूजा का पहला दिन है | इस दिन घर की साफ़ सफाई कर के उसे पवित्र बनाया जाता है | फिर व्रती स्नान करके शुद्ध शाकाहारी ढंग से बनाया हुआ भोजन ग्रहण करते हैं | इसमें सेंधा  नमक से बनी हुई कद्दू की सब्जी व् अरवा चावल होते हैं | घर के अन्य लोग व्रती के बाद ही भोजन करते हैं | पंचमी ( लोखंडा और खरना )  इस दिन पूरे दिन का उपवास होता है | शाम को  प्रसाद लगाया जाता है | जिसमें घी चुपड़ी रोटी , गन्ने के रस में बनी हुई चावल की खीर का भोग लगाया जाता हैं | प्रसाद  लेने के लिए आस – पास के लोगों को भी बुलाया जाता है |  व्रती एक बार भोजन ग्रहण करते हैं | षष्ठी (संध्या अर्घ्य )                कार्तिक शुक्ल षष्ठी को संध्या अर्घ्य देने का विधान है | इस दिन प्रसाद बनाया जाता है | प्रसाद में ठेकुये व् चावल के आते के लड्डू बनाए जाते हैं | इसके आलावा छठ मैया को अर्पित करने के लिए मौसमी फल व् सांचा भी लिया जाता है | सभी सामन को बांस की बनी एक टोकरी में सूप में रखा जाता है | व्रती के साथ – साथ उसके परिवार के लोग भी जाते हैं | सूर्य देव को दूध  व् जल का अर्घ्य दिया जाता है | अर्घ्य सामूहिक रूप से दिया जाता है | जो अप्रतिम दृश्य उत्पन्न करता है | सूप की सामग्री  छठ मैया को समर्पित की जाती है | सप्तमी (परना , ऊषा अर्घ्य )               सप्तमी को ऊषा अर्घ्य या उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है | यह सुबह के समय बिलकुल संध्या अर्घ्य की तरह होता है | व्रती वहीँ अर्घ्य देते हैं जहाँ उन्होंने एक दिन पहले अर्घ्य दिया होता है |वहीँ प्रसाद वितरण होता है | व्रती व्रत  खोलते हैं जिसे परना या पारण भी कहा जाता है | क्यों विशेष है सूर्योपासना का महापर्व छठ  छठ व्रत की कुछ विशेषताएं निम्नलिखित है … यह एक कठिन व्रत है | जिसे पुरुष व् महिलाएं दोनों  कर सकते  हैं | पर मुख्यत : महिलाएं हीं इस व्रत को करती हैं | व्रत में साफ़ – सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है | जिस घर में कोई व्रती है वहां मांस , लहसुन , प्याज़ नहीं पक  सकता | व्रत के दौरान सात्विक आचरण ही करना पड़ता है | व्रती को बिस्तर का त्याग करना पड़ता है | फर्श पर कम्बल या चादर के सहारे ही रात बितानी पड़ती है | अर्घ्य देते समय नए कपडे पहनने होते हैं | कपडे सिले नहीं होने चाहिए | इसलिए महिलाएं  साड़ी व् पुरुष धोती पहनते हैं | एक बार संकल्प लेने के बाद यह व्रत तब तक करना होता है जब तक अगली पीढ़ी की कोई विवाहित महिला इस व्रत … Read more

शरद पूर्णिमा : 16 कलाओं से युक्त चाँद जो बरसाता है प्रेम व् आरोग्यता

शरद पूर्णिमा की रात यानी एक ऐसी रात जब चाँद और उसका अहसास कुछ ख़ास होता है | सोलह कलाओ से युक्त चाँद और  धरती पर फैली चाँद की चांदनी रहस्य , रोमांच और प्रेम का अद्भुत ताना बाना बुनती हैं | इस ताने बाने के पीछे एक सुखद संयोग है जब वृद्ध हो चुकी वर्षा ऋतु बाल सुलभ चंचलता लिए हुए शरद ऋतु के चाँद से मिलती है | दोनों का ये अटूट बंधन कुछ अनुपम ही छटा बिखेरता है | क्या है शरद पूर्णिमा के चाँद की सोलह कलाएं  शरद पूर्णिमा का चाँद सोलह कलाओ से युक्त होता है | आम भाषा में कहें तो सोलह कलाओ का अर्थ है पूर्ण ईश्वर | पुराणों  के अनुसार  प्रभु राम 12 कलाओ से युक्त व् श्रीकृष्ण 16 कलाओ से युक्त थे | शरद पूर्णिमा का चाँद भी 16  कलाओं से युक्त होता है | अर्थात शरद पूर्णिमा के दिन चन्द्र दर्शन का विशेष महत्व  है | अमृत , मनदा , पुष्प , पुष्टि , तुष्टि ,घ्रुती , शशिनी , चन्द्रिका  काँटी ज्योत्स्ना , श्री , प्रीती , अंगदा , पूर्ण और पुर्नामृत | ये चंद्रमा की 16  अवस्थाएं होती हैं | चन्द्र की इन 16 अवस्थाओ से 16 कलाओ का जन्म हुआ | आध्यात्म और 16 कलाएं  आध्यात्म के अनुसार मन को चंद्रमा के सामान माना गया है | उसका अपना एक प्रकाश होता है | हम मानव जीवन की तीन अवस्थाएं जानते हैं | इन अवस्थाओ से इतर जब मनुष्य सोलह कलाओं से युक्त हो जाता है तब उसमें ईश्वरीय गुण आ जाते हैं | मन पूर्ण रूप से प्रकाशित हो जाता है |यानी मन और बुद्धि के परे स्वयं का बोध हो जाता है | अमावस्या पूर्ण अज्ञान की व् पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान की अवस्था है | शरद पूर्णिमा के चाँद से झरता है अमृत शरद पूर्णिमा को कौमुदी पूर्णिमा व् कोजागिरी पूर्णिमा भी कहते हैं |मान्यता है की प्रभु श्री कृष्ण ने इसी दिन महा रास रचाया था | कहते हैं इस दिन चंद्रमा की किरणों से अमृत झरता है | यह अमृत आध्यात्मिक महत्व वाला तो हैं ही मनष्य के लौकिक जीवन के दो स्तम्भ स्वास्थ्य व् रिश्तों पर विशेष प्रभावशाली है |जो जोड़े इस दिन चंद्रमा की चाँदनी का स्नान करते है वो “ अटूट बंधन “ में बंध  जाते हैं | इसके अतरिक्त चंद्रमा की चांदनी में रखी हुई खीर सुबह खाने पर अनेकों रोगों का नाश होता है | उत्तर भारत में इस दिन खीर बना कर चांदनी में रखने की परंपरा है | जिसे सुबह प्रसाद के रूप में खाया जाता है | शरद पूर्णिमा का धार्मिक महत्व *मान्यता है की शरद पूर्णिमा के दिन माता लक्ष्मी का जन्म हुआ था | इस कारण उनका विशेष पूजन अर्चन किया जाता है | इस दिन खरीदारी करने की भी परंपरा रही है | *कहते हैं की द्वापर युग में जब प्रभु श्री कृष्ण ने अवतार लिया था | तब माँ लक्ष्मी ने राधा के रूप में अवतार लिया था | इसी दिन दोनों ने महारास रचाया था और अपने अटूट बंधन को पहचाना था | *मान्यता है की शिव पार्वती के पुत्र कुमार कार्तिकेय कास जन्म इसी दिन हुआ था | शैव भक्त इसे कुमार पूर्णिमा भी कहते हैं | * पश्चिमी बंगाल में कन्याएं आज के दिन सुबह नहा धो कर सूर्य चन्द्र का पूजन करती हैं | व् सुयोग्य वर की प्रार्थना करती हैं | * मान्यता ये भी है की शरद पूर्णिमा का व्रत पूजन करने से संतान निरोगी व् दीर्घायु होती है | * कहते है रावण भी शरद पूर्णिमा के दिन अपनी नाभि में चांदनी ग्रहण करता था | जिसके कारण उसे अमर तत्व प्राप्त था | शरद पूर्णिमा का वैज्ञानिक महत्व विज्ञान के अनुसार शरद पूर्णिमा की चांदनी में वनस्पतियों व् औषधियों  की स्पंदन क्षमता बढ़ जाती है | इसकी किरने भी विशेष आरोग्य दायक होती है | अत : व्यक्ति को कम कपडे पहन कर चन्द्र स्नान अवश्य करना चाहिए | शरद पूर्णिमा में क्यों खीर बनती है अमृत               शरद पूर्णिमा में खीर  खाने का विशेष महत्व हैं |कहते हैं की इस दिन खीर अमृत बन जाती है | उसे रात्रि  10 से बारह बजे के बीच चांदनी में अवश्य रखना चाहिए | दरसल दूध के लैक्टिक एसिड में चांदनी को ग्रह करने की क्षमता होती है | व् चांदी  के पात्र में रखने के कारण इसके कीटाणु भी मर जाते हैं |   इसे खाना इसलिए भी जरूरी समझा गया क्योंकि ये खीर एक प्रतीक है की अब मौसम बदल रहा है ठंडी चीजें छोड़ कर गर्म चीजें खानी हैं | इसका एक कारण और भी है | शरद ऋतु  और वर्षा ऋतु के संधिकाल में पित्त कुपित होता  है | ठंडी  खीर पित्त को शांत करती है व् मौसमी रोगों से बचाती भी हैं | शरद पूर्णिमा की पौराणिक व्रत कथा शरद पूर्णिमा की व्रत कथा के अनुसार एक साहूकार था | उसके दो बेटियाँ थी | दोनों बेटियों के  बड़ी होने पर उसने दोनों का विवाह कर दिया | विवाह के समय ही उसने दोनों बेटियों को समझाया की शरद पूर्णिमा का व्रत लिया करो | दोनों बेटियों ने पिता की बात मानते हुए व्रत करना शुरू कर दिया | जहाँ बड़ी बेटी पूरी श्रद्धा के साथ व्रत करती | छोटी व्रत शुरू तो करती पर आधा ही छोड़ देती | समय बीतने लगा दोनों बेटियों के बच्चे हुए | बड़ी बेटी का परिवार तो हंसी ख़ुशी से भर गया | पर छोटी बेटी के संतान होते ही मर जाती | वो दुखी रहने लगी | पिताजी को भी दुःख हुआ | वो बेटी की कुंडली पुरोहित को दिखाने ले गए | पुरोहित ने कहा कि आपकी बेटी व्रत आधा छोड़ देती है इस कारण संतान जन्म लेते ही मर जाती है | उन्होंने बेटी को पूरा व्रत करने को कहा | उस साल की शरद पूर्णिमा पर छोटी बेटी ने व्रत रखा | व् पूरा पूजन कर के व्रत खोला | कुछ दिन बाद उसके बेटा हुआ | पर वो भी जन्म लेते ही मर गया | छोटी बेटी बड़ी दुखी हुई | उसने बच्चे की देह को कपडे से … Read more

नवरात्रि पर ले बेटी बचाओ , बेटी पढाओ का संकल्प

किरण सिंह  हिन्दू धर्म में व्रत तीज त्योहार और अनुष्ठान का विशेष महत्व है। हर वर्ष चलने वाले इन उत्सवों और धार्मिक अनुष्ठानों को हिन्दू धर्म का प्राण माना जाता है  इसीलिये अधिकांश लोग इन व्रत और त्योहारों को बेहद श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाते हैं।व्रत उपवास का धार्मिक रूप से क्या फल मिलता है यह तो अलग बात है लेकिन इतना तो प्रमाणित है कि व्रत उपवास हमें संतुलित और संयमित जीवन जीने के लिए मन को सशक्त तो करते ही हैं साथ ही सही मायने में मानवता का पाठ भी पढ़ाते हैं! वैसे तो सभी व्रत और त्योहारों के अलग अलग महत्व हैं किन्तु इस समय नवरात्रि चल रहा है तो नवरात्रि की विशिष्टता पर ही कुछ प्रकाश डालना चाहूंगी! नवरात्रि विशेष रूप से शक्ति अर्जन का पर्व है जहाँ माँ दुर्गा के नौ रूपों की पूजा की जाती है!  शैलपुत्री – इसका अर्थ- पहाड़ों की पुत्री होता है। ब्रह्मचारिणी – इसका अर्थ- ब्रह्मचारीणी।चंद्रघंटा – इसका अर्थ- चाँद की तरह चमकने वाली।कूष्माण्डा – इसका अर्थ- पूरा जगत उनके पैर में है।स्कंदमाता – इसका अर्थ- कार्तिक स्वामी की माता।कात्यायनी – इसका अर्थ- कात्यायन आश्रम में जन्मि।कालरात्रि – इसका अर्थ- काल का नाश करने वली।महागौरी – इसका अर्थ- सफेद रंग वाली मां।सिद्धिदात्री – इसका अर्थ- सर्व सिद्धि देने वाली। माँ दुर्गा के नौ रूपों से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि एक स्त्री समय समय पर अपना अलग अलग रूप धारण कर सकती है ! वह सहज है तो कठोर भी है, सुन्दर है तो कुरूप भी है, कमजोर है तो सशक्त भी है……तभी तो महिसासुर जैसे राक्षस जिससे कि सभी देवता भी त्रस्त थे उसका वध एक देवी  के द्वारा ही हो सका.! .  इसीलिए कन्या पूजन का विधान बनाया गया है ताकि स्त्रियों के प्रति सम्मान का भाव उत्पन्न हो सके !  शक्ति की उपासना का पर्व शारदीय नवरात्र का अनुष्ठान सर्वप्रथम श्रीरामचंद्रजी ने  समुद्र तट पर किया था और उसके बाद दसवें दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान किया और विजय भी प्राप्त की। तब से असत्य, अधर्म पर सत्य, धर्म की जीत का पर्व दशहरा विजय पर्व के रूप में मनाया जाने लगा। जिस भारत वर्ष की संस्कृति और सभ्यता इतनी समृद्ध हो वहाँ पर स्त्रियों की यह दुर्दशा देखकर बहुत दुख होता है जिसके लिए स्त्री स्वयं भी दोषी हैं ! ठीक है त्याग, ममता, शील, सौन्दर्य उनका बहुमूल्य निधि है किन्तु अत्याचार होने पर सहने के बजाय काली का रूप धारण करना न भूलें ! आज की सबसे बड़ी समस्या है कन्या भ्रुण हत्या जिसे रोका जाना अति आवश्यक है! आज हरेक क्षेत्र में बेटियाँ बेटों से भी आगे निकल रही हैं तो क्यों न इस महापर्व में हम बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का मन से दृढ़ संकल्प लें!  यह भी पढ़ें … फेसबुक – क्या आप दूसरों की निजता का सम्मान करते हैं ? अतिथि देवो भव – तब और अब Attachments area काश जाति परिवर्तन का मंत्र होता अस्पताल में वैलेंटाइन डे

देवी को पूजने वालों देवी को जन्म तो लेने दो

संजीत शुक्ला नवरात्रों के दिन चल रहे हैं | हर तरफ श्रद्धालु अपनी मांगों की लम्बी कतार लिए देवी के दर्शन के लिए घंटों कतार में लगे रहते हैं | हर तरफ जय माता दी के नारे गूँज रहे हैं , भंडारे हो रहे हैं , कन्या पूजन हो रहा है | और क्यों न हो जब माँ सिर्फ माँ न हो कर शक्ति की प्रतीक हैं |परंपरा बनाने वालों ने सोचा होगा की शायद इस बहाने आम स्त्री को कुछ सम्मान मिले , उसके प्रति मर्यादित दृष्टिकोण हो | कन्या को पूजने वाले अपने घर की कन्याओं पर हो रहे अत्याचारों पर रोक लगाए | पर दुर्भाग्य ,” कथनी और करनी में बहुत अंतर है | आज भी आम स्त्री आम स्त्री ही है | ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मेरे हाथ में अखबार है | और उसमें छपी खबर मुझे विचलित कर रही है | खबर है … दूसरी बार कन्या पड़ा करने के जुर्म में एक स्त्री को उसके ससुराल वालों ने इतना मारा की उसकी मृत्यु हो गयी | अभी ये खबर ज्यादा पुरानी नहीं हुई है जब दिल्ली में रहने वाली मधुमति दो लड़कियों की माँ बनने के बाद जब तीसरी बार गर्भवती हुई तो उसने भ्रूण परीक्षण कराया. ये पता लगने पर कि उसके भ्रूण में फिर एक कन्या पल रही है उसने गर्भपात करा लिया|भ्रूण हत्या की यह प्रक्रिया उसने इस उम्मीद के साथ आठ बार दोहराई कि वो एक बेटे की माँ बन सके.एक अनुमान के अनुसार भारत में पिछले दस वर्षों में क़रीब डेढ़ करोड़ लड़कियों को जन्म से पहले ही मार डाला गया या फिर पैदाइश के बाद 6 वर्षों के अंदर ही उनको मौत के मुँह में धकेल दिया गया | कितना विरोधाभास है | एक तरफ हम कन्याओं की पूजा करते हैं दूसरी तरफ कन्याओं को अवांछित  मान कर गर्भ में ही उनका समापन किया जा रहा है | बिगड़ते हुए लिंगानुपात चीक -चीख कर इस बात की गवाही दे रहे हैं | भले ही आज सरकार की तरफ से लिंग परिक्षण पर रोक हो | परन्तु चोरी छुपे यह व्यवसाय बहुत फल -फूल रहा है | और क्यों न हो ,जब समस्या सामाजिक हो तो सरकारी प्रयास नाकाफी होते हैं |आश्चर्य की बात है की जितने विकसित राज्य है वहां लिगानुपात भयंकर तरीके से बिगड़ा हुआ है | एक सामाजिक संस्था इसके खिलाफ चेताते हुए कहती है की अगर यह अनुपात इसी तरह से घटता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब “विवाह के लिए कन्या का अपहरण किया जाएगा, उसकी इज़्ज़त पर हमले होंगे, उसे ज़बरदस्ती एक से अधिक पुरूषों की पत्नी बनने पर मजबूर भी किया जा सकता है.”अरब जातियों में लड़कियों को ज़िंदा दफ़न करने की प्रथा असभ्य काल में प्रचलित थी लेकिन भारत में कन्या भ्रूण हत्या की प्रथा उन क्षेत्रों में उभरी है जहाँ शिक्षा, ख़ासकर महिलाओं की शिक्षा काफी उच्च दर पर है और लोगों का आर्थिक स्तर भी अच्छा है| अखिल भारतीय जनवादी महिला संगठन का कहना है , कि पिछले साल से मौजूदा साल में भ्रूण हत्या अधिक हो रही है । इस बढ़ती भ्रूण हत्या के लिए केवल पुरुष को दोषी ठहराना ठीक नहीं होगा । आजकल तो पढ़ी- लिखी महिलाएँ स्वयं भी क्लिनिक में जाकर लिंग टेस्ट करवाती हैं । अगर पहले बेटी है और दूसरी आने वाली संतान भी कन्या है, तब खुद ही डाक्टर से कहती है , हमें इसे खतम कराना है । फ़िर डाक्टर को भारी भरकम पैसे का लोभ देकर कन्या भ्रूण हत्या करवाती है । ये सच है की हमारे देश में कन्या भ्रूण हत्या के पीछे सामाजिक सोंच है | चाहे वो बेटी को परायी मानने व् तर्पंण की अधिकारी न होने की हो , दहेज हो या बेटी को पालने में उसकी सुरक्षा का ज्यादा ध्यान रखना हो | कारण कुछ भी गिनाये जा सकते हैं | उन को धीरे -धीरे दूर करने का प्रयास किया जा सकता है | सरकार अपनी तरफ से बेटी वाले घरों को कुछ विशेष सहूलियतें भी दे रही है | पर जरूरट सोच बदलने की , मानसिकता बदलने और ये समझने समझाने की …  ” देवी को पूजने वालों देवी को जन्म तो लेने दो ”  यह भी पढ़ें … सेंध गुडिया माटी और देवी आप की अपनी माँ देवी माँ का ही प्रतिबिम्ब हैं दोगलापन

पूजा के समय सुनाई जाने वाली गणेश जी की चार कहानियाँ

गणेश चतुर्थी पर विशेष  प्रथम पूज्य गणेश जी की पूजा के बाद ही किसी दूसरे देवी देवता की पूजा होती है | अत : हर पूजा में गणेश जी की पूजा अनिवार्य है | पूजा के साथ गणेश जी की कहानियाँ  भी सुनाई जाती हैं | आज हम आके लिए वो चार कहानियाँ लाये हैं जो पूजा के समय सुनाई जाती हैं |  कविता बिंदल  जब राजा का महल टेढ़ा हो गया                               एक बुढिया थी | वह गणेश जी की बहुत पूजा किया करती थी | उसने घर में एक मंदिर में गणेश जी की छोटी सी प्रतिमा स्थापित कर रखी थी | बुढिया की बहू उसकी पूजा पथ से बहुत चिढती थी | एक दिन उसने मौका देख कर गणेश जी किप्रतिमा  कुंएं में फेंक दी | जब बुढिया वापस मंदिर में गयी तो प्रतिमा न पाकर जोर – जोर से रोने लगी | वह अर्द्ध विक्षिप्त सी शहर की ओर निकल पड़ी और हर आते – जाते व्यक्ति से कहने लगी ,” कोई मेरे गणेश जी की प्रतिमा बना दो | ” पर कौन बना पाता ? तभी उसे एक कारीगर मिला जो राजा का महल तैयार कर रहा था | बुढिया ने उससे भी वही बात कही | कारीगर ने उसे डांटते हुए कहा ,” अरे जितनी देर में मैं तेरे गणेश बनाऊंगा कोई दूसरा काम न कर लूँ जो मुझे पैसा मिले | बुढिया रोते हुए आगे बढ़ गयी | तभी कारीगर के पास खबर आई की राजा का महल तिरछा हो गया है व् राजा बहुत गुस्से में है | कारीगर को माजरा समझते देर न लगी | वो तुरंत बुढिया के पास गया और बोला ,” अम्मा ला मैं न तेरे गणेश बनाऊंगा बल्कि उनका मंदिर भी बनाऊंगा | कारीगर ने मंदिर बनाना शुरू किया | जैसे ही मंदिर में मूर्ति की स्थापना हुई राजा का महल सीधा हो गया |  जैसे गणेश भगवान् ने राजा व् बुढिया पर दया की सब पर अपनी कृपा बनाए रखें |  बोलो गणेश जी की जय  ————————————– बुढिया की खीर                       एक बार गणेश जी एक बालक का रूप धर कर थोड़े से चावल व् चुल्लू भर दूध ले कर गाँव में घूमने निकले | वह हर किसी से प्रार्थना करते की मेरी खीर बना दो | सब उन पर हँसते ,” आते इत्ते से चावल व् दूध से क्या खीर बनेगी | तभी वो एक गरीब बुढिया के पास गए व् उससे भी खीर बनाने का आग्रह किया | बुढिया बच्चे का मन देख कर राजी हो गयी | उसने घर पहुँच कर दूध को कटोरी में डाला तो कटोरी भर गयी , फिर उसे भगौने में पलता तो वो भी भर गया | फिर बुढिया ने उसे घर के सबसे बड़े बर्तन में दूध पलता तो वो भी भर गया |बुढिया ये देख कर सकते में आ गयी वो गाँव की सबसे बड़ी देगची ले कर आई उसमें दूध पलटने पर वो भी भर गयी | बुढिया ने उसे चूल्हे पर चढ़ा कर खीर पकानी शुरू की | खीर की खुशबूं पूरे घर में फैलने लगी | बुढिया ने अपनी बहू से कहा ,मैं उस बच्चे को बुलाने जा रही हूँ तू खीर का ध्यान रखना | बुढिया के जाते ही बहू खुद को रोक न पायी उसने कटोरी में खीर निकाली व् एक चम्मच गणेश जी के नाम से दरवाजे के पीछे डाल कर खा ली | बुढिया ने उस बच्चे को ढूंढ कर उससे खीर खाने को कहा तो बच्चा बोला ,” अम्मा तुम्हारी बहू ने तो पहले ही मुझे भोग लगा दिया है | मेरा पेट भर गया | अब यह खीर गाँव भर में बाँट दो | बुढिया ने बच्चे की बात मान कर गाँव भर में खीर बाँट दी | सबने पेट भर के खायी |                                         जिस बुढिया के घर में खाने को नहीं था गणेश जी की कृपा से उसका घर धन धान्य से भर गया | ऐसे ही गणेश जी हर भक्त पर दया  करें |                                  बोलो गणेश जी की जय  ————————————————– जब गणेश जी को अपना वचन पूरा करना पड़ा                                 एक बुढिया थी | वह अंधी थी व् अपने बेटे बहू के पास रहती थी | वह रात – दिन गणेश जीकी पूजा किया करती थी | एक दिन गणेश जी ने उससे पर प्रसन्न हो कर कहा , माई मैं तेरी पूजा से खुश हूँ तो जो चाहे मांग ले |  अब बुढिया ने कहा ,” प्रभु मेरे पास तो सब कुछ है मैं क्या मांगूं |  गणेश जी बोले ,” ठीक है तू अपने बेटे बहू से पूँछ कर मांग ले | बुढिया  ने बेटे बहू से पूंछा  बेटे ने कहा , ” अम्मा करोंड़ों रूपये मांग ले  बहू ने कहा ,” अम्मा पोता मांग ले  बुढिया असमंजस में पड़ गयी उसने पड़ोसी से पूंछा तो उन्होंने कहा , ” रुपया पैसा तेरे किस काम का अम्मा तू आँखों की रोशिनी मांग ले |  रात भर बुढिया सोंचती रही | सुबह गणेश भगवान् फिर प्रगट हुए | बुढिया पहले से तैयार थी | वो बोली प्रभु आप मुझे ये वरदान दें की मैं करोंड़ों रूपये के महल में , मांग सिदुर टीका लगाए हुए , अपने पोते को गोद में बिठा कर उसे किताब पढ़ाते हुए मरुँ | गणेश जी मुस्कुरा कर बोले अम्मा तुमने तो सब कुछ मांग लिया | पर मैंने वादा किया है इसलिए तुम्हे सब कुछ मिलेगा | तथास्तु कह कर गणेश जी अंतर्ध्यान हो गए |  तो , जो भी गणेश जी की पूजा सच्चे ह्रदय से करता है उसे सब कुछ मिलता है | बोलो गणेश भगवान् की जय  ………………………………………………….. माता – पिता में ही हैं ईश्वर                  … Read more

देवशयनी एकादशी -जब श्रीहरी विष्णु होंगे योगनिद्रा में लीन

                                    नीलम गुप्ता दोस्तों ,  आज देवशयनी एकादशी है | हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार आज ही के दिन श्री हरी विष्णु योग निद्रा में लीन हो जायेंगे व् चार मॉस बाद  पुन : उठ कर अपना कार्यभार  समभालेंगें | क्योंकि विष्णु भगवान् धरती को सुचारू रूप से चलाने का काम करते हैं | इसके लिए उनके पास देवताओं की एक पूरी टीम होती है | पर   उनके सोते ही देवता भी सो जाते हैं | सही भी है जब प्रधान सो जाएगा तो सेवक भी सो ही जायेंगे | जैसे क्लास टीचर अगर एक झपकी मार ले तो बच्चे शरारत पर उतर ही आते हैं | ठीक वैसे ही  इस शयन काल में पाप बढ़ जाने का भी रहता है | क्योंकि मानव के अंदर छुपा शरारती बच्चा शरारतों अथार्त पापों की और आसक्त होने लगता है | इसी  कारण भक्तों के लिए ये जरूरी हो जाता है की वो चार मॉस तक सचेत रहे | पूजा पाठ  में ध्यान लगायें | जिससे पाप का प्रतिशत बढ़ने न पाए | यानी की ये देवशयनी एकादशी भक्तों के लिए ” वार्निंग “है … की भाई हम तो अब सो रहे हैं धरती को पापों से बचाना तुम्हारा काम है | यानी देवताओं के सोने का समय भक्तों के जागने का समय है | जानिये कब सोते – कब उठते हैं देवता                                    हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार आसाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवशयनी एकादशी कहते हैं | इस दिन देवता शयन करते हैं | इसे पद्मनाभा भी कहते हैं | यह दिन सूर्य के मिथुन राशि में आने के बाद आता है | फिर चार  महीने सोने के बाद सूर्य के तुला राशि में आने के बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को उन्हें उठाया जाता है | उस दिन को देवउठानी एकादशी कहते हैं | इस चार महीने के समय को चातुर्मास कहा गया है | क्यों सोते हैं देवता                           जब प्रथ्वी पर जीवन उत्पन्न करने का ख्याल ईश्वर  के मन में आया | तो उन्होंने इसके तीन भाग बना दिए | जन्म , जीवन काल और मरण | तीनों का समुचित सञ्चालन करने के लिए तीनों देवों ने अपना – अपना कार्यभार बाँट लिया | अब तीनों देवता एक साथ तो सो नहीं सकते | इसलिए उन्होंने न शयन काल भी बाँट लिया | यानी तीनों देव बारी – बारी से चार महीने के लिए सोते हैं | देवशयनी एकादशी से देव उत्थानी तक विष्णु , देवुत्थानी से महाशिवरात्रि तक शिव व् महाशिवरात्रि से देवशयनी तक ब्रह्मा |  ये सब चार – चार महीने की नींद लेते हैं | 24 घंटे का दिन प्रथ्वी पर होता है | हो सकता है देव लोक का दिन एक वर्ष का होता हो | उस आधार पर भी ये गड़ना सही प्रतीत होती है | क्या है धर्मिक कारण                                    हिन्दू धर्म  की मान्यता के अनुसार जब श्री हरी प्रभु ने वामन रूप रख कर राजा बलि से दक्षिणा में तीन पाँव धरती मांगी तो उन्होंने एक पाँव से धरती आकाश ढक लिया , दूसरे  में स्वर्ग लोक और तीसरे के लिए राजा बलि ने खुद को प्रभु चरणों में समर्पित  कर दिया |प्रभु उसकी भक्ति से प्रसन्न हुए | बलि ने  श्री हरी से उनके लोक में ही रहने का वरदान मांग लिया | अब लक्ष्मी जी चिंतित हुई | उन्होंने बलि को भाई बना लिया व् उनसे वादा ले लिया की श्री हरी केवल चार महीने उसके लोक में रहेंगे | यही समय चातुर्मास कहलाया | देवशयनी एकादशी  विज्ञान के अनुसार                                              हमारी धर्मिक मान्यताओं का कोई न कोई वैज्ञानिक कारण तो होता ही है | अब देवशयनि एकादशी को ही लें | हरी शब्द के कई अर्थ होते हैं | यह देवताओं , विष्णु के अतिरिक्त सूर्य चंद्रमा के लिए भी प्रयुक्त होता है | जैसा की आप जानते हैं की ये चातुर्मास बारिश का मौसम भी है |बारिश यानी बादल , सूर्य और चंद्रमा का तेज कम हो जाना , वर्षा और कीचड | यानी ये मौसम है बीमारियों का मौसम | वैज्ञानिकों  के अनुसार भी बारिश के मौसम में  आद्रता व् गर्मी का खतरनाक संयोंग होता है | जो कीटाणुओं के बढ़ने के लिए   बहुत मुफीद समय है | अब इस मौसम में  कीटाणु बहुतायत से पनपते हैं इस लिए सावधान रहने की जरूरत है | नहीं तो बीमार पड़ने की पूरी सम्भावना है | इसी कारण  यज्ञ मांगलिक कार्य आदि   सब प्रतिबंधित कर दिए  | जिससे उसमें व्यवधान न आये | वहीं शादी ब्याह , कामकाज इन अन्न जल दूषित हो कर एक बड़े समूह के रोग या मृत्यु का कारण न बने | व्रत विधि                      एक रात्रि पहले से ही बरह्मचर्य व्रत का पालन करें , स्न्नंदी करे व् गीता पाठ करें , ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र का पाठ करें | भगवान् के सामने प्रण करें की सभी नेम – नियमों का पालन करूँगा | व्रत में फलाहार लें | अगले दिन सुबह व्रत का पारण करें | जानिये व्रत कथा  एक बार देवऋषि नारदजी ने ब्रह्माजी से इस एकादशी के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की, तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया- सतयुग में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। किंतु भविष्य में क्या हो जाए, यह कोई नहीं जानता। अतः वे भी इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके राज्य में शीघ्र ही भयंकर अकाल पड़ने वाला है। उनके राज्य में पूरे तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। इस दुर्भिक्ष (अकाल) से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। धर्म … Read more

क्या आप जानते हैं शिवलिंग की असली व्याख्या – जानिये आइन्स्टीन के सिद्धांतानुसार

शिवलिंग की व्याख्या अलग -अलग लोग अलग अलग तरीके से देते हैं |कामदेव को जीतने वाले प्रभु शिव के ज्योतिर्लिंग की कुछ व्याख्याएं तो शिव भक्तों के गले से नीचे नहीं उतरती हैं | परन्तु जानकारी का आभाव तर्क को काट नहीं पाता | आज हम आप को शिवलिंग की शास्त्रोक्त व्याख्या बताते हैं ………. शिवलिंग वातावरण सहित घूमती धरती तथा सारे अनन्त ब्रह्माण्ड (क्योंकि, ब्रह्माण्ड गतिमान है) का अक्स/धुरी (axis) ही लिंग है। दरअसल ये गलतफहमी भाषा के रूपांतरण और, हमारे पुरातन धर्म ग्रंथों को नष्ट कर दिए जाने तथा, अंग्रेजों द्वारा इसकी व्याख्या से उत्पन्न हुआ हो सकता है! खैरजैसा कि हम सभी जानते है कि एक ही शब्द के विभिन्न भाषाओँ में अलग-अलग अर्थ निकलते हैं! उदाहरण के लिए यदि हम हिंदी के एक शब्द “सूत्र” को ही ले लें तो सूत्र मतलब डोरी/ धागागणितीय सूत्र कोई भाष्य अथवा लेखन भी हो सकता है जैसे कि नासदीय सूत्रब्रह्म सूत्र इत्यादि! उसी प्रकार “अर्थ” शब्द का भावार्थ: सम्पति भी हो सकता है और मतलब भी! ठीक बिल्कुल उसी प्रकार शिवलिंग के सन्दर्भ में लिंग शब्द से अभिप्राय चिह्न, निशानी, गुण, व्यवहार या प्रतीक है। ध्यान देने योग्य बात है कि “लिंग” एक संस्कृत का शब्द है जिसके निम्न अर्थ है : 1.) त आकाशे न विधन्ते -वै०। अ ० २ । आ ० १ । सू ० ५ अर्थात रूप, रस, गंध और स्पर्श ये लक्षण आकाश में नही है किन्तु शब्द ही आकाश का गुण है । 2.) निष्क्रमणम् प्रवेशनमित्याकश स्य लिंगम् -वै०। अ ० २ । आ ० १ । सू ० २० अर्थात जिसमे प्रवेश करना व् निकलना होता है वह आकाश का लिंग है अर्थात ये आकाश के गुण है । 3.) अपरस्मिन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि । -वै०। अ ० २। आ ० २ । सू ० ६ अर्थात जिसमे अपर, पर, (युगपत) एक वर, (चिरम) विलम्ब, क्षिप्रम शीघ्र इत्यादि प्रयोग होते है, इसे काल कहते है, और ये काल के लिंग है । 4.) इत इदमिति यतस्यद्दिश्यं लिंगम । -वै०। अ ० २ । आ ० २ । सू ० १ ० अर्थात जिसमे पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर व् नीचे का व्यवहार होता है उसी को दिशा कहते है मतलब किये सभी दिशा के लिंग है । 5.) इच्छाद्वेषप्रयत ्नसुखदुःखज्ञाना न्यात्मनो लिंगमिति – न्याय० अ ० १ । आ ० १ । सू ० १ ०अर्थात जिसमे (इच्छा) राग, (द्वेष) वैर, (प्रयत्न) पुरुषार्थ, सुख, दुःख, (ज्ञान) जानना आदि गुण हो, वो जीवात्मा है और, ये सभी जीवात्मा के लिंग अर्थात कर्म व् गुण है । इसीलिए शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने के कारन इसे लिंग कहा गया है। स्कन्दपुराण में स्पष्ट कहा है कि आकाश स्वयं लिंग है एवं, धरती उसका पीठ या आधार है और, ब्रह्माण्ड का हर चीज अनन्त शून्य से पैदा होकर अंततः उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा है| यही कारण है कि इसे कई अन्य नामो से भी संबोधित किया गया है जैसे कि: प्रकाश स्तंभ/लिंग, अग्नि स्तंभ/लिंग, उर्जा स्तंभ/लिंग, ब्रह्माण्डीय स्तंभ/लिंग इत्यादि! यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि इस ब्रह्माण्ड में दो ही चीजे है| ऊर्जा और प्रदार्थ! इसमें से हमारा शरीर प्रदार्थ से निर्मित है जबकि आत्मा एक ऊर्जा है| ठीक इसी प्रकार शिव पदार्थ और शक्ति ऊर्जा का प्रतीक बन कर शिवलिंग कहलाते हैं| वैज्ञानिक दृष्टिकोण क्योंकि ब्रह्मांड में उपस्थित समस्त ठोस तथा उर्जा शिवलिंग में निहित है! अगर इसे धार्मिक अथवा आध्यात्म की दृष्टि से बोलने की जगह शुद्ध वैज्ञानिक भाषा में बोला जाए तो हम कह सकते हैं कि शिवलिंग और कुछ नहीं बल्कि हमारे ब्रह्मांड की आकृति है और अगर इसे धार्मिक अथवा आध्यात्म की भाषा में बोला जाए तो शिवलिंग भगवान शिव और देवी शक्ति (पार्वती) का आदि-अनादि एकल रूप है तथा पुरुष और प्रकृति की समानता का प्रतीक है! अर्थात शिवलिंग हमें बताता है कि इस संसार में न केवल पुरुष का और न ही केवल प्रकृति (स्त्री) का वर्चस्व है बल्कि, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और दोनों ही समान हैं|शिवलिंग की पूजा को ठीक से समझने के लिए आप जरा आईसटीन का वो सूत्र याद करें जिसके आधार पर उसने परमाणु बम बनाया था! क्योंकि उस सूत्र ने ही परमाणु के अन्दर छिपी अनंत ऊर्जा की एक झलक दिखाई जो कितनी विध्वंसक थी ये सर्वविदित है| और परमाणु बम का वो सूत्र था e / c = m c {e=mc^2} अब ध्यान दें कि ये सूत्र एक सिद्धांत है जिसके अनुसार पदार्थ को पूर्णतया ऊर्जा में बदला जा सकता है अर्थात, अर्थात पदार्थ और उर्जा दो अलग-अलग चीज नहीं बल्कि, एक ही चीज हैं परन्तु वे दो अलग-अलग चीज बनकर ही सृष्टि का निर्माण करते हैं! जिस बात को आईसटीन ने अभी बताया उस रहस्य को हमारे ऋषियो ने हजारो-लाखों साल पहले ही ख़ोज लिया था| यह सर्वविदित है कि हमारे संतों/ऋषियों ने हमें वेदों और उपनिषदों का ज्ञान लिखित रूप में प्रदान किया है, परन्तु, उन्होंने कभी यह दावा नहीं किया कि यह उनका काम है बल्कि, उन्होंने हर काम के अंत में स्वीकार किया कि वे हमें वही बता रहे हैं ज उन्हें अपने पूर्वजों द्वारा कहा गया है| लगभग १३७ खरब वर्ष पुराना सार्वभौमिक ज्ञान हमें तमिल और संस्कृत जैसी महान भाषाओँ में उपलब्ध होता है और भावार्थ बदल जाने के कारण इसे किसी अन्य भाषा में पूर्णतया अनुवाद नही किया जा सकता| कम से कम अंग्रेजी जैसी कमजोर भाषा में तो बिलकुल नही। इसके लिए एक बहुत ही छोटा सा उदाहरण देना ही पर्याप्त होगा कि आज “गूगल ट्रांसलेटर” में लगभग सभी भाषाओँ का समावेश है परन्तु संस्कृत का नही क्योंकि संस्कृत का व्याकरण विशाल तथा दुर्लभ है! कुछ समय पहले जब नासा के वैज्ञानिकों नें अपने उपग्रह आकाश में भेजे और उनसे रेडार के द्वारा इंग्लिश में संपर्क करने की कोशिश की, जो वाक्य उन्होंने पृथ्वी से आकाश में भेजे उपग्रह के प्रोग्राम में वो सब उल्टा हो गया और उन सबका उच्चारण ही बदल गया| इसी तरह वैज्ञानिक नै १०० से ज्यादा भाषाओँ का प्रयोग किया लेकिन सभी में यही परेशानी हुई कि वाक्यों का अर्थ ही बदल जा रहा था| बाद में वैज्ञानिकों नें संस्कृत भाषा का उपयोग किया … Read more