चुने सही रिश्ते

जब आप सब्जी लेती है तो एक -एक आलू या भिन्डी घंटो चुनती/चुनते  है , ठीक नहीं लगती तो अगली दुकान पर जाती हैं | कपड़े खरीदने जाती हैं तो ना जाने कितनी दुकाने पूरी तरह पलटवा देती /देते हैं तब जा कर कोई एक कपड़ा पसंद आता है | और क्यों ना करें आपके सेहत और खूबसूरती का राज भी यही है | लेकिन जब बात रिश्तों में चयन की आती है जो आपके मानसिक स्वास्थ्य , ख़ुशी , और सेहत न केवल शरीर की बल्कि आत्मा की भी … से जुड़ा होता है , तब … तब क्या आप उतने ही सतर्क रहते हैं ? चुने सही रिश्ते  बहुत पहले एक कॉमेडी फिल्म देखी थी ‘भागमभाग’, उसमें हर कोई एक दूसरे के पीछे भाग रहा है | फिल्म तो कॉमेडी की थी पर  उसमें जिन्दगी की हकीकत छिपी हुई थी … असली जीवन में भी हर कोई किसी ना किसी के पीछे भाग रहा है | किसी के पीछे हम भाग रहे हैं और कोई हमारे पीछे भाग रहा है ,या यूँ कहे कि किसी के पीछे भागने के चक्कर में हम उन लोगों पर ध्यान ही नहीं देते जो हमारे पीछे भाग रहे हैं | बहुत पहले बिहारी जी भी कह् गए हैं … बसे बुराई जासु तन, ताहि को सम्मान भलो भलो कह टालिए, छोटे ग्रह जप दान                     रिश्ते नातों में, मित्रों में , कार्यालय के सहकर्मियों में , जान पहचान के लोगों में लोग अक्सर उन लोगों के पीछे भागते रहते हैं यानि खुश करने में लगे रहते हैं जो अक्खड़ , बदमिजाज , गुस्सैल हैं …लगता है वो खुश हो जायेंगे तो बाकी तो हमारे अपने ही हैं | लेकिन ऐसा होता नहीं है , ये वो लोग होते हैं जिनकी उम्मीदें  बढती जाती हैं, इस रेस की कोई ‘फिनिश लाइन” नहीं होती | आप लगे रहिये …लगे रहिये और भावनात्मक रूप से पूरी तरह से निचुड़ जाइए …फिर उनकी एक अगली फरमाइश आएगी | ध्यान दीजियेगा ये लोग आपके प्रियजनों का एक प्रतिशत से भी कम होते हैं , लेकिन ये बाकी 99 प्रतिशत लोगों का समय खा जाते हैं | जो लोग आपके पीछे भाग रहे हैं यानि जो रिश्ते बेहतर हैं सींचना उन्हें भी पड़ता है | एक समय बाद वो सूख जाते हैं , जब आप वापस लौटते हैं तो वहां वो बात नहीं रहती | चचा ग़ालिब कह गए हैं … आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक कौन जीता है तेरे जुल्फ के सर होने तक                       यहाँ पर इसे रिश्तों में वो अहसास खत्म होने तक लें | इसलिए जरूरी है कि सही उम्र में ये बात समझ आ जाए | लेकिन अगर किसी कारण वश नहीं आई है तो जब समझ में आ जाए रिश्तों के चयन पर ध्यान  देना शुरू कर दीजिये | आजकल “ toxic people” पर बहुत बात हो रही है | जितनी जल्दी हो इन्हें पहचानिए और अपने से दूर करिए | ·             यूँ तो भावनाएं और लोगों को हर रचनाकार बारीकी से निरिक्षण करता है ताकि वो रचनाओं में उनके मानसिक व् भावनात्मक धरातल पर उतर कर लिख सके | परन्तु पिछले कई सालों से “इस शहर में हर शख्स परेशां सा क्यूँ है “ मेरे मन में उथल –पुथल मचा रहे हैं …ये कुछ सुझाव उसे शोध का नतीजा हैं |    आप भी अपने  सुझाव साझा करें |     वृद्ध होते बच्चों पर तानाकशी से बचे माता पिता अरे ! चलेंगे नहीं तो जिंदगी कैसे चलेगी बदलाव किस हद तक अहसासों का स्वाद आपको  लेख    “रिश्तों में करें चयन  “ कैसा लगा    | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under:TOXIC PEOPLE, RELATION, COMFORT IN RELATIONSHIPS, PEACE OF MIND, EMOTIONAL MATURITY

जनरेशन गैप -वृद्ध होते बच्चों पर तानाकशी से बचे माता -पिता

अभी हाल में एक फिल्म आई थी “१०२ नॉट आउट ” | जिसमें एक बुजुर्ग पुत्र व् उसके बुजुर्ग पिता के रिश्ते को दर्शाया गया है | फिल्म का विषय अलग था , पर यहाँ मैं बात कर रही हूँ उस घर की जहाँ दो बुजुर्ग रहते हैं | एक बेटा जो वृद्धावस्था की शुरुआत पर खड़ा है व् उसके माता -पिता जो अति वृद्ध हैं | भारतीय संस्कार कहते हैं किब्च्चों को माता -पिता की सेवा करनी चाहिए | माता -पिता की सेवा ना कर पाने वाले बच्चे एक नैतिक दवाब में रहते हैं | पर जब बच्चे खुद वृद्ध वस्था में हों और माता -पिता व् समाज उनसे युवा बच्चों के सामान सेवा की मांग करें जनरेशन गैप -वृद्ध होते बच्चों पर तानाकशी से बचे माता -पिता इस विषय पर लेख लिखने का एक विशेष कारण है | दरअसल अभी कुछ दिन पहले हॉस्पिटल में जाना हुआ | वहाँ एक बुजुर्ग दंपत्ति (८० के आसपास ) भी अपने बेटे के साथ आये हुए थे | उनका रूटीन चेक -अप होना था | डॉक्टर ने यूँही पूछ लिया ,” माताजी इस बार काफी दिन बाद आयीं | ” वो कुछ बोलतीं इससे पहले उनके पति बोलने लगे ,” क्या करें आजकल के लड़कों के पास समय कहाँ है हम बुजुर्गों के लिए , बस अपने काम और बीबी बच्चों से मतलब है , इस उम्र में हालत बिगड़ते देर थोड़ी ही ना लगती है , पर बच्चों का क्या है ? अब हमारी जरूरत कहाँ है ? खैर पति -पत्नी का रेगुलर चेक अप करने के बाद माँ ने बेटे से कहा , ” तुम भी बी पी नपवा लो | बेटे ने कहा नहीं मैं बिलकुल ठीक हूँ | डॉक्टर बोला , ” नपवा लीजिये आप भी तो पचास पार कर चुके हैं | डॉक्टर ने नापना शुरू किया बीपी 160/240को पार कर रहा था | डॉक्टर ने कहा , ” अरे इन्हें तुरंत एडमिट करो , इ.सी जी लो , फिर माता -पिटा से बोले , ” अच्छा है चेक करा लिया वर्ना कुछ भी हो सकता था | अक्सर ४० -से ६० के बीच में जब बीमारियाँ दबे पाँव दस्तक देतीं हैं, तब पारिवारिक दायित्वों के बीच में लोग अरे हम तो ठीक हैं कह कर अपने स्वास्थ्य को अनदेखा करते हैं | अचानक से मामला बिगड़ता है और कई बार जान भी चली जाती है | सबको रूटीन चेक अप कराते रहना चाहिए ताकि बिमारी शुरू में ही पकड़ में आ सके | साथ ही उनके पिता द्वारा शुरू में बोली गयी बात ( जोकि आम घरों में कही जाने वाली बात है)में मुझे बीनू भटनागर दी के लेख समकालीन साहित्य कुछ विसंगतियाँ की याद आ गयी | लेख का अंश यथावत दे रही हूँ … “जिस समय माता पता की उम्र८० के आस पास होगी तो उनकी संतान की आयु भी पचास के लगभग होगी इस समय वह इंसान घर दफ्तर और परिवार की इतनी जिम्मेदारियों में घिरा होगा कि वह माता पिता को पर्याप्त समय नहीं दे पायेगा। अब हमारे साहित्यकार माता पिता के अहसान गिनायेंगे कि तुम्हे उन्होने उंगली पकड़ कर चलना सिखाया वगैरह….. अब उनका वक़्त है……….।हर बेटे या बेटी को अपने माता पिता की सुख सुविधा चिकित्सा के साधन जुटाने चाहिये ,अपनी समर्थ्य के अनुसार चाहें माता पिता के पास पैसा हो या न हो।बुजुर्गों को भी पहले से ही बढ़ती उम्र के लिये ख़ुद को तैयार करना चाहिये। वह अपने बुढ़ापे में अकेलेपन से कैसे निपटेंगे क्योंकि बच्चों को और जवान होते हुए पोते पोती को उनके पास बैठने की फुर्सत नहीं होगी। यह सच्चाई यदि बुज़ुर्ग स्वीकार लें तो उन्हे किसी से कोई शिकायत नहीं होगी।” इसी विषय पर कहानी मक्कर लिखी थी | जिसमें बुजुर्ग माता -पिता द्वारा बहु की कमजोरी को बीमारी ना मान कर मक्कर ( बिमारी का नाटक) समझा जाता है | अपने जीवन में कितने केस मैंने ऐसे देखे हैं जहाँ वृद्ध माता -पिता ताने मार -मार कर ऐसा माहौल बना देते हैं जहाँ बच्चों का डॉक्टर को खुद को दिखने का मन भी खत्म हो जाता हैं | ऐसे में कई बार बीमारियाँ अपने उग्र रूप में सामने आती हैं | तन मजबूरन वृद्ध लोगों को भी सेवा की मात्रा से समझौता करना पड़ता है | मेरा भी विचार है कि बुजुर्गों को भी समझना चाहिए कि वृद्धावस्था की शुरुआत में पहुंचे हुए बच्चे उनकी वैसी सेवा नहीं कर सकते जैसी युवा बच्चे कर सकते हैं | इसलिए व्यर्थ में ताने मार -मार कर खुद का और परिवार का तनाव नहीं बढ़ाना चाहिये | क्योंकि परिवार में सब स्वस्थ रहे खुश रहे यही तो हम चाहते हैं | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें …. प्रेम की ओवर डोज अरे ! चलेंगे नहीं तो जिंदगी कैसे चलेगी बदलाव किस हद तक अहसासों का स्वाद आपको  कहानी   “जनरेशन गैप -वृद्ध होते बच्चों पर तानाकशी से बचे माता -पिता “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under:generation gap, health issues, criticism

जरूरी है की बचपन जीवित रहे न की बचपना

वंदना बाजपेयी हमारे जीवन का सबसे खूबसूरत हिस्सा  बचपन होता है | पर बचपन की खासियत जब तक समझ में आती है तब तक वो हथेली पर ओस की बूँद की तरह उड़ जाता है | जीवन की आपा धापी  मासूमियत को निगल लेती है | किशोरावस्था और नवयुवावस्था  में हमारा इस ओर ध्यान ही नहीं जाता |उम्र थोड़ी बढ़ने पर फिर से बचपन को सहेजने की इच्छा होती है | आजकल ऐसी कई किताबें भी आ रही हैं जो कहती हैं सारी  ख़ुशी बचपन में है अगर हमारे अन्दर का बच्चा  जिन्दा रहे तो एज केवल एक नंबर है | इन किताबों को आधा – अधूरा समझ कर जारी हो जाती है बचपन को पकड़ने  की दौड़ | ” दिल तो बच्चा है जी ” की तर्ज पर लोग बचपन नहीं बचपने को जीवित कर लेते हैं | व्यस्क देह में बच्चों जैसी ऊल जलूल हरकतें कर के अपनी  उम्र को भूलने का प्रयास करते हैं | थोड़ी ख़ुशी मिलती भी है पर वो स्थिर नहीं रहती | क्या आपने सोंचा है की इसका क्या कारण है ? दरसल हम बचपन को नहीं बचपने को जीवित कर लेते हैं | कई बार ऐसी हास्यास्पद स्तिथि भी होती है | जब बच्चे तो शांत बैठे होते हैं | वहीँ माँ – पिता बच्चों की तरह उचल -कूद  कर रहे होते हैं | यहाँ ये अंदाज लगाना मुश्किल हो जाता है की इनमें से छोटा कौन है | दरसल बचपन और  बचपने में अंतर है |  अगर इस बचपने का उद्देश्य लोगों का ध्यान खींचना या थोड़ी देर की मस्ती है तब तो ठीक है | परन्तु ये अपने अन्दर का बच्चा जीवित रखना नहीं है | क्योंकि इस उछल कूद के बाद भी हम वही रहते हैं जो अन्दर से हैं |  अपने अन्दर का बच्चा जीवित रखने का अभिप्राय यह है की जिज्ञासा जीवित रहे , कौतुहल जीवित रहे , किसी की गलती को भूलने की क्षमता जीवित रहे , अपने प्रतिद्वंदी के काम की दिल खोलकर प्रशंसा करने की भावना जीवित रहे |पर क्या बच्चों की तरह हरकतें करने से  ये जीवित रहता है | बच्चा होना यानी सहज होना |पर हम अर्थ पर नहीं शब्द पर ध्यान देते हैं | जरूरी है की बचपन जीवित रहे न की बचपना  यह भी पढ़ें ………. यात्रा दर्द से कहीं ज्यादा दर्द की सोंच दर्दनाक होती है सुने अपनी अंत : प्रेरणा की आवाज़  कोई तो हो जो सुन ले

दर्द से कहीं ज्यादा दर्द की सोंच दर्दनाक होती है

दर्द की कल्पना उसकी तकलीफ को दोगना कर देती है | क्यों न हम खुशियों की कल्पना कर उसे दोगुना करें – रॉबिन हौब               एक क्लिनिक का दृश्य डॉक्टर ने बच्चे से कहा कि उसे बिमारी ठीक करने के लिए  इंजेक्शन लगेगा और वो बच्चा जोर – जोर से रोने लगा |नर्स मरीजों को इंजेक्शन लगा रही थी |  उसकी बारी आने में अभी समय था | बच्चे का रोना बदस्तूर जारी था | उसके माता – पिता उसे बहुत समझाने की कोशिश कर रहे थे की बस एक मिनट को सुई चुभेगी और तुम्हे पता भी नहीं चलेगा | फिर तुम्हारी बीमारी ठीक हो जायेगी | पर बच्चा सुई और उसकी कल्पना करने में उलझा रहा | वो लगातार सुई से चुभने वाले दर्द की कल्पना कर दर्द महसूस कर रोता रहा | जब उसकी बारी आई तो नर्स को हाथ में इंजेक्शन लिए देख उसने पूरी तरह प्रतिरोध करना शुरू किया |  नर्स समझदार थी | मुस्कुरा कर बोली ,” ठीक है मैं इंजेक्शन नहीं लगाउंगी | पर क्या तुमने हमारे हॉस्पिटल की नीले पंखों वाली सबसे बेहतर चिड़िया देखी  है | वो देखो ! जैसे ही बच्चा चिड़िया देखने लगा | नर्स ने इंजेक्शन लगा दिया | बच्चा हतप्रभ था | सुई तो एक सेकंड चुभ कर निकल गयी थी | वही सुई जिसके चुभने के भय से वो घंटा  भर पहले से रो रहा था |                 वो बच्चा था पर क्या हम सब भी ऐसे ही बच्चे नहीं हैं | क्या हम सब आने वाले कल में होने वाली घटनाओं के बारे में सोंच – सोंच कर इतने भयभीत नहीं रहते की अपने आज को नष्ट किये रहते हैं | वास्तव में देखा जाए तो जीवन में जितनी भी समस्याएं हैं | उनमें से कुछ एक को छोड़कर कल्पना में ज्यादा डरावनी होती हैं | हम बुरे से बुरे की कल्पना करते हैं और भयभीत हो जाते हैं | बुरे से बुरा सोंचने के कारण  एक नकारात्मक्ता  का  का वातावरण बनता है | यह नकारात्मकता गुस्से झुन्झुलाह्ट या चिडचिडेपन के रूप में नज़र आती हैं | जो न केवल हमारे वर्तमान को प्रभावित करती है बल्कि हमारे रिश्तों को भी ख़राब कर देती है |कभी आपने महसूस किया है की हम अपने अनेक रिश्ते केवल इस कारण खो देते हैं क्योंकि हम उनकी छोटी से छोटी बात का आकलन करते हैं | और उन्के बारे में बुरे से बुरी राय बनाते हैं |फलानी चाची अपनी परेशानी से जूझ रही है | हमारे घर जाते ही उन्होंने वेलकम स्माइल नहीं दिया | हमने उनसे उनकी समस्या पूंछने के बाजे मन ही मन धारणा बना ली की वो तो हमारी नयी गाडी , साडी या पर्स देखर जल – भुन गयीं | इस कारण हमें देख कर मुस्कुराई भी नहीं | अगली बार बदला लेने की बारी हमारी | वो हमारे घर आयेंगी तो हम भी नहीं मुस्कुराएंगे |  इस तरह बात साफ़ करने के स्थान पर  उस राय के कारण हम खुद ही एक दूरी बढाने लगते हैं |  जिसका दूरगामी प्रभाव पड़ता है |रिश्ता कच्चे धागे सा टूट जाता है | रिश्तों की भीड़ में हम अकेले होते जा रहे हैं | पर इसका दोष क्या हमारे सर नहीं है | बात केवल किसी के घर जाने की नहीं है | बच्चा पढ़ेगा कैसे , लड़की देर से आई कहीं बिगड़ न गयी हो , हेल्थ प्रोग्राम देख कर बार बार सोंचना की कहीं यह बिमारी हमें तो नहीं है या हमें न हो जाए | सब मिलकर एक नकारात्मक वातावरण बनाते हैं | हो सकता है ऐसा कुछ न हो पर हम सोंच में उन विपरीत परिस्तिथियों को साक्षात महसूस करने लगते हैं | भय और नकारात्मकता का वातावरण बना लेते हैं |  क्यों नहीं हम हर  बात में कोई अच्छाई  ढूंढें या कम से कम संदेह  का लाभ दे दें | देखा जाए तो  भविष्य की कल्पना एक ऐसा हथियार है ,जो ईश्वर प्रदत्त वरदान है |  जिससे हम आने वाले खतरे के प्रति सचेत होकर अपनी तैयारी कर सके न की बुरे से बुरा सोंच कर वास्तविक परिस्तिथियों से कहीं ज्यादा तकलीफ भोग सकें|  अब जैसा की  श्री देसाई का तरीका है |उनके सीने के पास एक गाँठ महसूस हुई | जब डॉक्टर को दिखाने गए तो  डॉक्टर ने उसको बायोप्सी करने को कहा | उसकी पत्नी चिंतित हो गयी | बुरे से बुरे की कल्पना कर वो रोने लगीं |श्री देसाई ने  हँसकर  अपनी पत्नी से कहा | अभी क्यों चिंता कर रही हो | अभी कैंसर निकला तो नहीं | हो सकता है गाँठ बिनाइन हो और कैंसर निकले ही ना | फिर ये सारे  आँसूं बेकार हो जायेंगें |अभी  का पल तो मत खोओ  |  कल  जो होना है वो होना है | तो क्यों न हम अच्छी से अच्छी कल्पना करके अपने वर्तमान को दोगुनी खुशियों से भर दें |                        फैसला आप पर है !!!  वंदना बाजपेयी  प्रेम की ओवर डोज अरे ! चलेंगे नहीं तो जिंदगी कैसे चलेगी बदलाव किस हद तक अहसासों का स्वाद

अरे ! , चलेंगे नहीं तो जिंदगी कैसे चलेगी |

हजारों किलोमीटर की यात्रा  की शुरुआत बस एक कदम से होती है मुहल्ले के अंकल जी वॉकर ले कर ८० की उम्र दोबारा चलना सीख रहे थे | अभी कुछ दिन पहले गिरने से उनके पैर की हड्डी टूट गयी थी | प्लास्टर खुलने  के बाद भी मांस पेशियाँ अकड गयी थी , जिन्होंने चलने तो क्या खड़े होने में मदद देने से इनकार कर दिया था | इक इंसान जो जिंदगी भर चलता हैं , भागता है दौड़ता है | किसी दुर्घटना के बाद डेढ़ – दो महीने में ही चलना भूल जाता है | एक – एक कदम अजनबी सा लगता है | हिम्मत जबाब दे जाती है | लगता है नहीं चला जाएगा | फिर एक अंत : प्रेरणा जागती है ,अरे ! , चलेंगे नहीं तो जिंदगी कैसे चलेगी |तब जरूरत  होती है अपनों के प्यार की , वाकर के सहारे की और द्रण इच्छा शक्ति की |  और शुरू हो जाती है कोशिश फिर से सीखने की |चल पड़ते हैं कदम | बदलाव किस हद तक                                                 क्या हम सब जिंदगी के अनेकों मोड़ों पर किसी ऐसी दुर्घटनाओं के शिकार नहीं होते जहाँ लगता है जिंदगी रुक सी गयी है | मांस पेशियाँ अकड गयी हैं | नहीं अब बिलकुल नहीं चला जाएगा | जब कोई अपना बिछड़ जाता है , जब कोई काम बिगड़ जाता है या जब कोई राह भटक जाता है तो अकसर हिम्मत टूट जाती है | अगर चलने  की कोशिश भी करों तो आंसुओं से पथ धुंधला हो जाता है | रास्ता दिखता ही नहीं | तब अंदर से एक आवाज़ आती है , चलों , चलोगे नहीं तो जिंदगी चलेगी कैसे ?और डगमगाते कदम निकला पड़ते हैं अनजानी राह पर |  अह्सासों का स्वाद  अक्सर ऐसे समय में अपनों का साथ नहीं मिलता , वाकर का सहारा भी नहीं | क्योंकि बहुधा लोग तन की तकलीफों में तो साथ खड़े हो जाते हैं पर मन की तकलीफों में नहीं | वो दिखाई जो नहीं देती | ऐसे समय में बहुत जरूरी है हम अपने दोनों हाथों से कानों को बंद कर लें | जिससे बाहर  की कोई आवाज़ न सुनाई न दे | वो आवाजें जो रोकती  हैं , वो आवाजे जो हिम्मत तोडती हैं , वो आवाजे जो घसीट – घसीट कर अतीत में ले जाना चाहती हैं | तब सुनाई देती है वो आवाज़ जो अंदर से आ रही हैं |जोर – जोर से बहुत जोर से , हर चीज से टकरा – टकरा कर प्रतिध्वनि उत्पन्न करती हैं ,अरे ! चलेंगे  नहीं तो जिंदगी कैसे चलेगी …….. और जिंदगी चल पड़ती है |  वंदना बाजपेयी 

अर्थ डे और कविता

 अर्थ डे  और मैं कविता लिखने की नाकामयाब कोशिश में लगी हूँ  | मीडिया पर धरती को बचाने  का शोर है  | मैं मन की धरती को बचाने में प्रयासरत | धरती पर पानी की कमी बढती जा रही है और मन में आद्रता की | सूख रही है धरती और सूख रही है कविता | हाँ  कविता ! जो  जीवन के प्रात: काल में उगते सूर्य के साथ लबालब भरे मन के सरोवर पर किसी कमल के फूल सी खिल उठती  है | कितनी कोमल , कितनी मनोहर |  भ्रमर  गीत गाती सी खिलाती है पत्ती – पत्ती माँ , बहन व् अन्य रिश्तों को सितार के तार सा  छेड़ते हुए आ जाती है प्रेम के पायदान पर और  फैलाने  लगती है सुगंध | पर जीवन सिर्फ प्रेम और वसंत ही तो नहीं | की जब बढ़ चलता है उम्र का सूर्य , खिल जाती है धूप तो नज़र आने लगती हैं जीवन की  विद्रूपताएं |सूख ही जाता है थोडा सा सरोवर , तभी … शायद तभी परिवार और प्रेम की सीमाएं लांघ कर नज़र आने लगती है , गरीबी , बेचारगी , लाचारी , समस्याएं बहुत साधती है , बहुत संभालती है पर जीवन के मरुस्थल में आगे बढ़ते हुए  इतनी कम आद्रता में, हाँफने  लगती है कविता | लय  सुर छन्द न जाने कब गायब हो जाते हैं और बेचारी गद्य ( ठोस ) हो जाती है | और हम हो जाने देते हैं | हमें आद्रता की फ़िक्र नहीं , हमें कविता की फ़िक्र नहीं , हमें धरती की फ़िक्र नहीं | हमें बस भागना है एक ऐसी दौड़ में जो हमें लील रही है | पर हमारे पास सोंचने का समय नहीं | अगर हम रुक कर सोंचेंगे तो कहीं अगला हमसे आगे न चला जाए | चाहे हम सब हार जाएँ | काश की इस आत्मघाती दौड़ में हम समझ पाते की दौड़ को कायम रखने के लिए भी जरूरी है की आद्रता बची रहे , कविता बची रहे , धरती बची रहे |  वंदना बाजपेयी 

जैमिनी रॉय – भावों को दृश्यों में उकेरता चित्रकार

आइये जानते हैं विश्व प्रसिद्ध चित्रकार  जैमिनी रॉय के बारे में | आज गूगल डूडल के जरिए जिन की जयंती मना रहा है | जैमिनी रॉय का जन्म पश्चिमी बंगाल के एक छोटे से गाँव में 11 अप्रैल १८८७ में हुआ था | उन्होंने कोलकाता के सरकारी कला स्कूल से  शिक्षा प्राप्त की |उस पर उस समय ब्रिटिश कला का प्रभाव साफ़ दिखाई देता था |  पहले वो उसी प्रकार के चित्र बनाते थे जैसे उन्होंने स्कूल में सीखे थे |  फिर धीरे – धीरे उन्होंने कला के क्षेत्र  में नए –नए प्रयोग करने शुरू कर दिए | वस्तुत : अब उन्होंने उन विषयो पर अपनी तूलिका चलायी जो उनके ह्रदय के करीब थे | सच्चा कलाकार इसी को तो कहते हैं |उन्होंने उस समय भारत व् विश्व की आर्थिक , सामाजिक , राजनैतिक परिस्तिथियों को रंगों के माध्यम से व्यक्त किया |  इसके लिए उन्‍होंने विभिन्‍न प्रकार के स्रोतों जैसे पूर्व एशियाई लेखन शैली, पक्‍की मिट्टी से बने मंदिरों की कला वल्‍लरियों, लोक कलाओं की वस्‍तुओं और शिल्‍प परम्‍पराओं आदि से प्रेरणा ली | उन्होंने यूरोप के महान  चित्रकारों के चित्रों की अनुक्रतियाँ भी बनायी |  पर मुख्य रूप उनके चित्रों में उनके ग्राम्य जीएवन की मासूमियत की झलक साफ़ दिखाई पड़ती है |  कला में उनके इसी योगदान को देखते हुए 1955 में भारत सरकार ने उन्हें पदम भूषण सम्मान से सम्मानित किया |   1972 में इस विश्व प्रसिद्ध चित्रकार का देहांत हो गया | गूगल भी डूडल बना कर जिस महान कलाकार को सम्मानित कर रहा है , उस भारतीय चित्रकार व् उसकी अप्रतिम कला को हमारा भी सलाम | 

पौधे की फ़रियाद

नन्हा सा था | तभी से तो इस घर में है | श्रीमती जुनेजा ने कितने प्यार से पाला था उसे , उसने भी तो माँ से कम नहीं समझा था उन्हें |उनका जरा सा स्पर्श पा कर कैसे ख़ुशी से झूम उठता था वह | पर अपने अंदर उठ रहे प्यार को इससे बेहतर तरीके से वो व्यक्त नहीं कर पाता  था | उसकी भी कुछ विवशताएँ थी | शारीरिक ही सही | पर प्यार तो प्यार होता है न | जिसकी अपनी ही भाषा होती है | जिसे बिना बोले बिना कहे लेने वाला व् देने वाला दोनों ही समझ लेते हैं |  पर इस बार ऐसा क्या हुआ ? न जाने क्यों श्रीमती . जुनेजा को छुट्टियों में मसूरी जाते समय उसका बिलकुल ख्याल नहीं आया | जरूरी है असहमतियों में सहमत होना                                     यह भी नहीं सोंचा बंद घर में कितनी तकलीफ होगी उसे | यूँ तो अकेलापन झेलने के लिए वो अभिशप्त है पर इतना दम घोंटू अकेलापन वो भी गर्मी के महीने में धूप में खड़े – खड़े | कितना रोया था , कितना चिल्लाया था वह | पर सुनता कौन |सब उसकी भाषा कहाँ समझ पाते हैं | तपती धूप  में सूरज जब उसकी रगों से जीवन की एक – एक बूँद खींच रहा था , तो कितनी देर तक वो पानी – पानी चिल्लाता रहा | पर सुनता कौन , कोई हो तो सुने न | प्यास के मारे कलेजा मुँह को आ रहा था | बस एक ही आस थी शायद दरवाजा खुल जाए और उसे भरपेट पानी पीने को मिले | पर भाग्य ने उसका साथ नहीं दिया और उसने  तडप – तड़प कर प्यासे ही दम तोड़ दिया | मृत्यु : शरीर नश्वर है पर विचार शाश्वत                                  श्रीमती जुनेजा जब घूम – घाम कर ढेर सारी  शॉपिंग कर के लौटी , तब तक उसके प्रान पखेरू उड़ चुके थे | घबराकर श्रीमती जुनेजा ने ढेर भर पानी से उसे जैसे नहला दिया , परन्तु उसमें पुन: प्राण  न फूंक सकीं | हां ! सूखी मृत देह से ये आवाज़ जरूर आ रही थी की जब आप लोग हमें रोपते हो , प्रेम से सींचते हो तो छुट्टियों पर जाते समय क्यों नहीं हमारी देखभाल की जिम्मेदारी पड़ोसियों पर छोड़ जाते हो | जिससे आप भी आराम से छुट्टियां मनाओ और हम भी तड़प – तड़प कर न मरें | “अपने पौधों का ख्याल रखिये ,  क्योंकि हर हत्या दिखाई नहीं देती |” वंदना बाजपेयी 

जरूरी है असहमतियों से सहमत होना

कभी – कभी प्रेम उन बातों को नज़रंदाज़ करना भी है जो आपको पसंद नहीं हैं | दो लोगों के मध्य रिश्ता चाहें कोई भी क्यों न हो परन्तु वह रिश्ता बरक़रार तभी रहेगा जब वह असहमतियों से सहमत होना सीख जायेंगे | दो लोग बिलकुल एक जैसा नहीं सोंच सकते | यह भिन्नता ही नए – नए विचारों को जन्म देती है | नए विचार नयी संभावनाओं को | किसी भी मुद्दे पर जब हम अपनी कोई बात रखते हैं तो अवश्य हमें वही बात ठीक लग रही होती है | मनोवैज्ञानिकों की सुने तो जैसे ही हम किसी मुद्दे पर अपना कोई विचार बना लेते हैं तो हमें उस विचार से भावनात्मक लगाव हो जाता है | जिसको छोड़ना थोडा मुश्किल होता है | कुछ हद तक हमें लगने लगता है की जिनसे हम बात करें वो हमारे विचार मानें | खासकर की जो लोग हमारे करीब होते हैं कहीं न कहीं हम उनपर विचार थोपने लगते हैं | जैसे पति – पत्नी  पर व् माँ बच्चों पर | दोस्त आपस में एक दूसरे पर | कई बार ये इस हद तक हो जाता है की हम दूसरे को नीचा दिखने से भी बाज़  नहीं आते |  परन्तु दूसरे पर अपने विचार थोपना उसकी  स्वतंत्रता छीनने के जैसा है | स्वाभाविक है उस व्यक्ति से प्रेम करना मुश्किल है जो हमारा आकलन कर रहा हो | हम खुद चाहते हैं की लोग हमें पूर्ण रूप से स्वीकार करे पर दूसरों को नकारते हैं | प्रेम का अभाव , ये द्वंद ये कोलाहल तब तक चलता रहेगा जब तक हम असहमतियों से सहमत होना नहीं सीख जायेंगे | मैं हूँ , तुम हो …. इसीलिये तो हम हैं वंदना बाजपेयी 

मृत्यु – शरीर नश्वर है पर विचार शाश्वत

  मृत्यु जीवन से कहीं ज्यादा व्यापक है , क्योंकि हर किसी की मृत्यु होती है , पर हर कोई जीता नहीं है -जॉन मेसन                                             मृत्यु …एक ऐसे पहेली जिसका हल दूंढ निकालने में सारी  विज्ञान लगी हुई है , लिक्विड नाईटरोजन में शव रखे जा रहे हैं | मृत्यु … जिसका हल खोजने में सारा आध्यात्म लगा हुआ है | नचिकेता से ले कर आज तक आत्मा और परमात्मा का रहस्य खोजा जा रहा है | मृत्यु जिसका हल खोजने में सारा ज्योतिष लगा हुआ है | राहू – केतु , शनि मंगल  की गड्नायें  जारी हैं | फिर भी मृत्यु है | उससे भयभीत पर उससे बेखबर हम भी | युधिष्ठर के उत्तर से यक्ष भले ही संतुष्ट हो गए हों | पर हम आज भी उसी भ्रम में हैं | हम शव यात्राओ में जाते है | माटी बनी देह की अंतिम क्रिया में भाग लेते हैं | मृतक के परिवार जनों को सांत्वना देते हैं | थोडा भयभीत थोडा घबराए हुए अपने घर लौट कर इस भ्रम के साथ अपने घर के दरवाजे बंद कर लेते हैं की मेरे घर में ये कभी नहीं होगा |                                      विडम्बना है की हम मृत्यु को  स्वीकारते हुए भी नकारते हैं | मृत्यु पर एक बोधि कथा है | कहते हैं एक बार एक स्त्री के युवा पुत्र की मृत्यु हो गयी | वो इसे स्वीकार नहीं कर पा रही थी | उसी समय महत्मा बुद्ध उस शहर  में आये | लोगों ने उस स्त्री से कहा की मातम बुद्ध बहुत बड़े योगी हैं | वो बड़े – बड़े चमत्कार कर सकते हैं | तुम उनसे अपने पुत्र को पुन : जीवित करने की प्रार्थना करो | अगर कुछ कर सकते हैं तो वो ही कर सकते हैं | वह स्त्री तुरंत अपने पुत्र का शव लेकर महात्मा बुद्ध के दरबार में पहुंची और उनसे अपने पुत्र को पुनर्जीवित करने की फ़रियाद करने लगी | | महात्मा बुद्ध असमंजस में पड़ गए | वो एक माँ की पीड़ा को समझते हुए उसे निराश नहीं करना चाहते थे | थोड़ी देर सोंचने के उपरान्त वो बोले की ,” मैं मंत्र पढ़ के तुम्हारे पुत्र को पुनर्जीवित कर देता हूँ | बस तुम्हें किसी ऐसे घर से चूल्हे की राख लानी पड़ेगी | जहाँ कभी किसी की मृत्यु न हुई हो | आँसू पोछ कर वो स्त्री शहर की तरफ गयी | उसने हर द्वार खटखटाया | परन्तु उसे कहीं कोई ऐसा घर नहीं मिला जहाँ कभी किसी की मृत्यु न हुई हो | निराश ,हताश हो कर वो वापस महात्मा बुद्ध के पास लौट आई | उनके चरणों में गिर कर बोली ,” प्रभु मुझे समझ आ गया है की मृत्यु अवश्यसंभावी है , मैं ही पुत्र मोह में उसे नकार बैठी थी |                          जीवन के इस पार से उस पार गए पथिक पता नहीं वहाँ  से हमें देख पाते हैं की नहीं | अगर देख पाते तो जानते की इस पार छूटे हुए परिवार के सदस्यों , मित्रों हितैषियों का जीवन भी  उस मुकाम पर रुक जाता है | मानसिक रूप से उस पार विचरण करने वाले  परिजनों के लिए न जाने कितने दिनों तक कलैंडर की तारीखे बेमानी हो जाती हैं , घडी की सुइयां बेमानी हो जाती हैं , सोना जागना बेमानी हो जाता है | क्योंकि वो भी थोडा सा मर चुके होते हैं | अंदर ही अंदर मन के किसी कोने में , जहाँ ये अहसास गहरा होता है की जीवन अब कभी भी पहले जैसा नहीं होगा | यहाँ तक की वो खुद भी पहले जैसे नहीं रहेंगे | जहाँ उन्हें फिर से चलना सीखना होगा ,  संभलना सीखना होगा , यहाँ तक की जीना सीखना होगा |ऐसे समय में कोई संबल बनता है तो उस व्यक्ति के द्वारा कही गयी बातें | उसके विचार | जैसे – जैसे हम वेदना  का पर्दा हटा कर उस व्यक्ति का जीवन खंगालते हैं तो समझ में आती हैं उसके द्वारा कही गयी बातें उसका जीवन दर्शन | कितने लोग कहते हैं की मेरे पिता जी / माता जी अदि – आदि ऐसे कहा करते थे | अब उनके जाने के बाद मुझे ये मर्म समझ में आया है | अब मैं भी यही करूँगा / करुँगी | विचारों के माध्यम से व्यक्ति कहीं न कहीं जीवित रहता है |                                     व्यक्ति का दायरा जितना बड़ा होता है | उसके विचार जितने सर्वग्राही या व्यापक दृष्टिकोण वाले होते हैं | उसके विचारों को ग्रहण करने वाले उतने ही लोग होते हैं |  हम सब को दिशा दिखाने वाली भगवत भी प्रभु श्री कृष्ण के श्रीमुख से व्यक्त किये गए विचार ही थे | परन्तु उससे युगों – युगों तक समाज का भला होने वाला था इसलिए उसे लिखने की तैयारी पहले ही कर ली गयी थी | कबीर दास ने तो ‘मसि कागद छुओ नहीं ‘कलम गहि नहीं हाथ ” परन्तु उनके विचार इतने महान थे की की उनके शिष्यों ने  उनका संकलन किया | जिससे हम आज भी लाभान्वित हो रहे है | पुनर्जन्म है की नहीं इस पर विवाद हो सकता है | परन्तु स्वामी विवेकानंद  के अनुसार  पॉजिटिव एनर्जी और नेगेटिव एनर्जी के दो बादल होते हैं | हम जैसे विचार रखते हैं | जैसे काम करते हैं | अंत में उन्ही बादलों के द्वारा हमारी आत्मा को खींच लिया जाता है | वही हमारे अगले जन्म को भी निर्धारित करता है |                                   विज्ञानं द्वारा भी सिद्ध हो गया है की विचार उर्जा का ही दूसरा रूप है | और उर्जा कभी नष्ट नहीं होती | चूँकि विचार शास्वत है और शरीर नश्वर ,इसलिए हमें अपने शरीर को स्वस्थ रखने … Read more