भगवान शिव और भस्मासुर की कथा नए संदर्भ में

हमारी पौराणिक कथाओं को जब नए संदर्भ में समझने की कोशिश करती हूँ तो कई बार इतने नए अर्थ खुलते हैं जो समसामयिक होते हैं l अब भस्मासुर की कथा को ही ले लीजिए l क्या थी भस्मासुर की कथा  कथा कुछ इस प्रकार की है कि भस्मासुर (असली नाम वृकासुर )नाम का एक असुर दैत्य था l क्योंकि असुर अपनी शक्तियां बढ़ाने के लिए भोलेनाथ भगवान शिव की पूजा करते थे l तो भस्मासुर ने भी एक वरदान की कह में शिव जी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की l आखिरकार शिव प्रसन्न हुए l शिव जी उससे वरदान मांगने के लिए कहते हैं l तो वो अमर्त्य का वरदान माँगता है l भगवान शिव उससे कहते हैं कि ये तो नहीं मिल सकता क्योंकि ये प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है l तुम कोई और वरदान मांग लो l ऐसे में भस्मासुर काफी सोच-विचार के बाद उनसे ये वरदान माँगता है कि मैं जिस के भी सर पर हाथ रखूँ  वो तुरंत भस्म हो जाए l भगवान शिव  तथास्तु कह कर उसे ये वरदान दे देते हैं l अब शिवजी ने तो उसकी तपस्या के कारण वरदान दिया था पर भस्मासुर उन्हें ही भस्म करने उनके पीछे भागने लगता है l अब दृश्य कुछ ऐसा हो जाता है कि भगवान भोले शंकर जान बचाने के लिए आगे-आगे भागे जा रहे हैं और भस्मासुर पीछे -पीछे l इसके ऊपर एक बहुत बहुत ही सुंदर लोक गीत है, “भागे-भागे भोला फिरते जान बचाए , काँख तले मृगछाल दबाये भागत जाए जाएँ भोला लट बिखराये, लट बिखराये पाँव लंबे बढ़ाए रे, भागत जाएँ … अब जब विष्णु भगवान ने भस्मासुर की ये व्यथा- कथा देखी l तो तुरंत एक सूदर स्त्री का मोहिनी रूप रख कर भस्मासुर के सामने आ गए l भस्मासुर उन्हें देख उस मोहिनी पर मग्ध हो गया और उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रख दिया l मोहिनी  ने तुरंत माँ लिया पर उसने कहा कि तुम्हें मेरे साथ नृत्य करना होगा l भस्मासुर ने हामी भर दी l उसने कहा कि नृत्य तो मुझे नहीं आता पर जैसे-जैसे तुम करती जाओगी मैं पीछे-पीछे करता जाऊँगा l नृत्य शुरू हुआ l जैसे- जैसे मोहिनी नृत्य करती जाती भस्मासुर भी नृत्य करता जाता l नृत्य की एक मुद्रा में मोहिनी अपना हाथ अपने सिर पर रखती है तो उसका अनुसरण करते हुए भस्मासुर भी अपना हाथ अपने सिर पर रखता है l ऐसा करते ही भस्मासुर भस्म हो जाता है l तब जा के शिव जी की जान में जान आती है l   भगवान शिव और भस्मासुर की कथा नए संदर्भ में असुर और देव को हमारी प्रवृत्तियाँ हैं l अब भस्मासुर को एक प्रवृत्ति की तरह ले कर देखिए l तो यदि एक गुण/विकार को लें तब मुझे मुझे तारीफ में ये अदा नजर आती है l एक योग्य व्यक्ति कि आप तारीफ कर दीजिए तो भी वो संतुष्ट नहीं होगा l उसको अपनी कमजोरियाँ नजर आएंगी और वो खुद उन पर काम कर के उन्हें दूर करना चाहेगा l कई बार तारीफ करने वाले से भी प्रश्न पूछ- पूछ कर बुराई निकलवा लेगा और उनको दूर करने का उपाय भी जानना चाहेगा l कहने का तात्पर्य ये है कि वो तारीफ या प्रोत्साहन से तुष्ट तो होते हैं पर संतुष्ट नहीं l   परंतु अयोग्य व्यक्ति तुरंत तारीफ करने वाले को अपने से कमतर मान लेता है l उसके अहंकार का गुब्बारा पल भर में बढ़ जाता है l अब ये बात अलग है कि  तारीफ करने वाला भी शिव की तरह भस्म नहीं होता क्योंकि उसे उसकी मोहिनी यानि की कला, योग्यता बचा ही लेती है l   अलबत्ता भस्मासुर के बारे में पक्का नहीं कहा जा सकता l वो भस्म भी हो सकते हैं या कुछ समय बाद उनकी चेतना जागृत भी हो सकती है lऔर वो अपना परिमार्जन भी कर सकते हैं l वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें …. यह भी गुज़र जाएगा ( motivational story in Hindi ) भविष्य का पुरुष जब राहुल पर लेबल लगा छिपा हुआ आम आपको लेख “भगवान शिव और भस्मासुर की कथा नए संदर्भ में “कैसा लगा ? अपनी राय से हमें अवश्य अवगत कराएँ l अगर आपको अटूट बंधन में प्रकाशित रचनाएँ और हमारा प्रयास पसंद आता है तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबुक पेज को लाइक करें ताकि हमेंऔर अच्छा काम करने की प्रेरणा मिल सके l

दो पौधे

दो पौधे

बोध कथाओं में जीवन की जल्तिल बातों को सच्चे सरल ढंग से सुनाने का प्रचलन रहा है | अब जीवन की जटिलता बढ़ी है और नयी बोध कथाओं की भी | दो पौधे एक ऐसी ही कथा है | दो पौधे  या कहानी है दो बच्चों सोहन और मोहन की जो पड़ोस में रहते थे |  दोनों के घर एक गुरूजी आया करते थे | एक बार गुरूजी ने दो छोटे -छोटे गमले दोनों बच्चों को दिए | और उनके शयन कक्ष की खिड़की के बाहर रखवा दिए | गुरूजी ने कहा कि रोज सुबह जो पौधा पसंद हो उस पर पानी दो और जो ना पसंद हो उसे छोड़ दो, ताकि व्ही पौधा बढे जो तुम्हे पसंद हो | पर खिड़की से ही पानी डालना है | दोनों बच्चों ने हाँ में सर हिला दिया | मोहन ने ध्यान से पौधों के देखा और पसंद के पौधे पर रोज पानी डालने लगा | सोहन को ये काम बेकार सा लगा उसने सोचा कोई भी पौधा बढे है तो पौधा ही क्या  फर्क पड़ता है | वो रोज अनजाने में अंदाज से ही पानी दाल देता | एक रात जब वो सो रहा था तो उसके हाथ में बहुत तेजी से कुछ चुभा | उसने लाईट जला कर देखा नागफनी का पौधा खिड़की से निकल कर उसके कमरे में आ गया था | उसने काँटा निकाल कर दवाई लगा ली | दूसरे दिन जब वो मोहन को रात की घटना बताने गया तो देखा मोहन की खिड़की पर सूरज मुखी का फूल लहलहा  रहा है | और मिओहन उसे बहुत प्रेम से देख रहा है | सोहन का मन उदास हो गया | उसे लगा अगर गुरूजी उसे पहले ही बता देते तो वो भी सूरजमुखी के पौधे को पानी देता और उसे  चोट भी नहीं लगती | अगली बार जब गुरूजी आये तौसने यही बात गुरूजी से कही |गुरूजी ने कहा की जाओ मोहन को भी बुला लाओ तब बताता हूँ | सोहन दौड़ कर मोहन को बुला लाया | गुरूजी ने मोहन से कहा कि तुम्हे भी मैंने एक पौधा नागफनी का दिया था और एक सूरज मुखी का फिर तुम्हारा नागफनी का पौधा क्यों नहीं उगा | मोहन ने उत्तर दिया कि जब पौधे थोड़े थोड़े बड़े हो रहे थे तभी मैंने देख लिया और उसे पानी देना  छोड़  दिया | सोहन ने सर झुका कर कहा, ” मैं बिना देखे ही पानी देता रहा” | गुरूजी ने कहा कि ये पौधों में पानी देना तो मैंने एक गंभीर बात समझाने के लिए किया था | जिस तरह बिना देखे गलत पौधा बढ़ जाता है उसी तरह हमारा जीअवन भी गलत दिशा में बढ़ सकता है | नागफनी के पौधे की तरह चुभ सकता है | “वो कैसे?” दोनों बच्चों ने पूछा | अगर हम गलत विचारों भावनाओं को पानी देते चले जायेंगे तो वैसे ही लोग हमारे चरों और इकट्ठे होते जायेंगे | दुश्मनी के विचारों को पानी देने पर दुश्मन इकट्ठे होंगे | प्रेम के विचारों को पानी देने पर दोस्त आस पास इकट्ठे होंगे | “पर विचारों को पानी कैसे दिया जाता है गुरूजी ?” बच्चों ने पूछा | उनके बारे में निरंतर सोच कर, उन पर फोकस कर के | २४ घंटे जो ज्यादा सोचते हो जीवन वैसा ही होता चला जाएगा | मेहनत पर फोकस करोगे और म्हणत करने के अवसर सामने आयेंगे और आलस पर तो हाथ का काम भी छिन जाएगा | दोस्त पर फोकस करोगे तो दोस्त बढ़ेंगे और दुश्मनों पर फोकस करोगे तो दुश्मन |घन पर फोकस करोगे तो धन आएगा और निर्धनता पर ( यानी ककी धन खो जाने के भय से ग्रस्त ) फोकास करोगे तो निर्धनता आएगी | बच्चों को बात समझ में आने लगी कि केवल सही पौधे को पानी ही नहीं देना है ….सही विचारों को भी पानी देना है | ( यथा दृष्टि तथा सृष्टि के आधार पर ) आपको प्रेरक कथा “दो पौधे” कैसी लगी ? अपने विचारों से हमें अवगत कराये | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती है तो साइट को सबस्क्राइब करें और हमारा फेसबुक पेज लाइक करें ताकि रचनाएँ सीधे आपको मिल सकें | filed under- motivational stories, friends, focus, thought, thought of life  

सच्चा कलाकार

बात 2015 की है मुझे दिल्ली के लवली पब्लिक स्कूल के वार्षिकोत्सव में मुख्य अतिथि के तौर पर बच्चों और उनके पेरेंट्स को संबोधित करना था । अपनी बात में मैने बच्चों को एक प्रेरणादायक कहानी सुनाई । जिसे बाद में अध्यापिकाओं ने होमवर्क के तौर पर लिख कर लाने को कहा। कहानी इस प्रकार है..   एक समय की बात है,चार श्रेष्ठ गायक थे । दूर दूर तक उनकी ख्याति थी। लोग उन्हें अपने शहरों में बुलाया करते थे । वो भी जाते और मन से गायन करते । एक बार उन्हें एक जगह से गायन का मौका मिला। उन्होंने सहर्ष अनुमति दे दी । भाग्य की बात उस दिन बहुत तेज आंधी तूफान आया,ओले पड़े । आसपास के पेड़ उखड़ गए । कार्यक्रम का समय हो गया और केवल चार श्रोता आये । अब जब चारों प्रस्तुति देने मंच पर गए तो केवल चार लोगों को देख कर निराश हुए ।उनमें से तीन ने यह कह कर प्रस्तुति देने से मना कर दिया कि इन चार लोगों के लिए हम अपना गला क्यों दुखाएं लेकिन चौथे का दृष्टिकोण सकारात्मक था । उसने कहा कि जो चार व्यक्ति इतने आंधी तूफान के बावजूद मुझे सुनने आये हैं वो कितने बड़े कला प्रेमी होंगे । में कला के प्रति उनके प्रेम का सम्मान करता हूँ और में उनका हृदय नहीं तोड़ सकता । उसने मंच की प्रस्तुति दी । झूम झूम कर वैसे ही गाया जैसे हॉल भरा होने पर गाता । कर्यक्रम समाप्त हुआ । अगले दिन वो जाने की तैयारी कर रहे थे कि एक व्यक्ति चिट्ठी ले कर आया । उसने मंच पर प्रस्तुति देने वाले व्यक्ति को ढेर सारे उपहार देते हुए चिट्ठी दी कि आप को राजा ने अपने दरबार में प्रस्तुति के लिए बुलाया है । दरसल कल हमारे राजा भेष बदल कर आपका गायन सुनने आये थे। यह बात बच्चों से से इसलिये कही की जब हम अपना काम पूरी श्रद्धा व ईमानदारी से कर रहे होते हैं तो कभी न कभी कोई ना कोई पारखी मिल ही जाता है । वंदना बाजपेयी 

कड़वा सच

कहने वाले कहते हैं कि जब शेक्सपीयर ने लिखा था कि नाम में क्या रखा है तो उसने इस पंक्ति के नीचे अपना नाम लिख दिया था | वैसे नाम नें कुछ रखा हो या ना रखा हो नाम हमारे व्यक्तित्व का बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है | इतना की कि इसके आधार पर नाम ज्योतिष नामक ज्योतिष की की शाखा भी है | कई माता -पिता कुंडली से अक्षर विचारवा कर ही बच्चे का नाम रखते हैं | लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो फैशन के चलन का नाम रख देते हैं तो कुछ लीक से अलग रखने की | ऐसा ही एक नाम मैंने एक बार सुना था ‘विधुत’ सुन कर अजीब सा लगा था | खैर नाम रखना अलग बात है और नाम का अर्थ जानकार नाम  रखना अलग बात |  इस विषय पर काका हाथरसी की कविता नाम -रूपक भेद की कुछ कुछ पंक्तियाँ  पढने के बाद ही पढ़िए , नाम के बारे में एक कडवा सच … मुंशी चंदालाल का तारकोल सा रूप  श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप  जैसे खिलती धूप , सजे बुशर्ट पैंट में  ज्ञानचंद छ: बार फेल हो गए टेंथ में  कह काका ज्वालाप्रसाद जी बिलकुल ठंडे  पंडित शान्तिरूप चलाते देखे डंडे  कड़वा सच  शुक्रवार ,1 नवम्बर 2019  को अपने कार्य से मैं एस बी आई बैंक के मैनेजर से जब मिली,उस समय एक नौजवान , जिसकी उम्र मेरे अनुमान से करीब चौबीस वर्ष के आस – पास रही होगी ,मैनेजर से कह रहा था कि उसै बैंक के लिए आवास बनाने हैं ,अतः उसे लोन चाहिए। मैनेजर उसे उस आॅफीसर का पता एवं फोन नम्बर बता रहीं थीं जिनके द्बारा उसे लोन मिल सकता था। इसी संदर्भ में उन्होने उससे उसका नाम पूछा।उसने अपना नाम मीनाशुं बताया। जब मैनेजर ने उससे उसके नाम का अर्थ जानना चाहा तो उसका उत्तर सुनकर मैं चौंक गई । उसने कहा उसे इस नाम का अर्थ नहीं मालूम। उसे इतना पता है कि उसके नाम का सम्बन्ध उसकी माँ से है ।यह सुनकर मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उससे पूँछ ही लिया ‘तुम्हारी माँ का क्या नाम है?’ उसने कहा ,’मीना।’ मैंने कहा मीना + अंशु = मीनांशु । अंशु मायने सूर्य होता है। यानी तुम अपनी माँ के लिए सूर्य के समान हो। फिर मैंने उससे कहा कि हम हिन्दुस्तानी हैं , हिन्दी भाषी हैं ,हमें अपने नाम का अर्थ तो पता होना ही चाहिए । अब किसी से यह मत कहना कि तुम्हे अपने नाम का अर्थ नहीं मालूम? वह मुस्करा दिया।                         किन्तु इस घटना ने मुझे कितना कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया। हमारे यहाँ ऐसे भी नौजवान हैं ,जिन्हे अपने नाम का अर्थ नहीं मालूम?यह मेरे लिए किसी अचरज से कम नहीं था । कभी घर के लोगों ने या कभी किसी शिक्षक ने भी नहीं पूछा ? निश्चय ही नहीं। हमें याद आया हमारी शिक्षिकाओं ने भी तो कभी हमसे हमारे नाम का अर्थ नहीं पूछा। सब यह मान कर ही चलते होगें कि यह तो बच्चे जानते ही होगें या फिर इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया।और तो और मैनेजर साहिबा ने भी इस बात पर कोई आश्चर्य व्यक्त नहीं किया। उन्हे इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ा ,जब कि कुछ दिनों पहले ही हिन्दी दिवस मनाया गया है। शायद उन्हे भी इसका अर्थ मालूम न हो अथवा यह उनके कार्य का हिस्सा नहीं।         मुझे अभिभावकों से  यह कहना है कि वह ही बच्चे का नाम रखते हैं ,अतः उनकी जिम्मेदारी बनती है कि वह जानें कि बच्चे को उसके नाम का अर्थ मालूम है कि नहीं ? शिक्षकों से भी मैं कहना चाहूँगी कि वह इस बात पर गौर करें। उषा अवस्थी                                                                           यह भी पढ़ें … बचपन की छुट्टियाँ और नानी का घर अपने पापा की गुडिया वो 22 दिन इतना प्रैक्टिकल होना भी ठीक नहीं आपको  संस्मरण  “ कड़वा सच    “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under-Name, memoirs, what is the meaning of name, advice

डूबते को तिनके का सहारा

कहते हैं ‘डूबते को तिनके का सहारा होता है |” कई बार हमारी छोटी सी मदद, छोटी सी बात , या छोटा सा सहयोग किसी दूसरे की जिन्दगी बदल सकता है | ये ऐसे होता है कि हमें पता भी नहीं चलता | संभावना इस बात की भी नहीं होती कि अनजाने हमने जिसकी मदद कर दी है वो कभी हमें मिलेगा भी | फिर भी कुछ किस्से ऐसे होते हैं जो दूसरों की मदद कर उनकी जिन्दगी संवारने के हमारे विश्वास को दृण कर देते हैं |  डूबते को तिनके का सहारा  कभी-कभी कुछ अप्रत्याशित घटनाएं आपकी सोच को एक दिशा देती हैं | कल भी एक ऐसी ही घटना घटी | घटना का जिक्र करने के लिए दो साल  पीछे जाना पड़ेगा |  मैं अपनी बेटी के साथ डॉक्टर के यहाँ ब्लड टेस्ट के लिए गयी हुई थी | वहाँ  अन्य महिलाएं भी अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहीं थी | उन्हीं में से वो महिला भी थी | जो अपनी फर्स्ट प्रेगनेंसी के लिए अल्ट्रासाउंड कराने आई थी | वो महिला बहुत खूबसूरत और साधारण परिवार से थी | महिला रंग गहरा साँवला या काला कहा जाए तो ज्यादा उचित होगा, था | बगल में बैठा उसका पति जो काफी गोरा चिट्टा था, लगभग हर गोरी महिला को घूर रहा था | ये घूरना इतना स्पष्ट था की उसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता था | बीच –बीच में वो उपेक्षा से अपनी पत्नी से कुछ कह देता जो हम लोग सुन नहीं पा रहे थे पर समझ रहे थे | हालाँकि वो हौले –हौले मुस्कुरा रही थी | क्योंकि हम सब को समय काटना था | तो कोई किताब पढने लगा कोई बातों में व्यस्त हो गया | मेरी बेटी एक कागज़ पर स्केचिंग करने लगी | कुछ फूल पत्ती बनाने के बाद उसने उस महिला का स्केच बनाया | हमारी बारी पहले आई और हम जाने लगे तो बेटी ने वो स्केच उसे देते हुए कहा, “आप बहुत ही खूबसूरत हैं, इसलिए मैं ये स्केच बनाने से खुद को रोक नहीं पायी | आप अपनी स्माइल को हमेशा बनाए रखियेगा |”  उसके चेहरे पर आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी के भाव छोड़कर हम घर आ गए | अभी कल वो अचानक से मिल गयी | दूर से देख कर जोर से हाथ हिलाया | मुझे पहचानने में थोड़ा वक्त लगा, उतने में वो मेरे पास आ कर बोली, “नमस्ते आंटी बेटी कैसी है आपकी ? मेरे भी बेटी हुई है |” मैंने उसे बधाई दी | वो फिर मुस्कुराते हुए बोली, “उस दिन आप की बेटी ने मेरा स्केच बनाया था | उसको धन्यवाद भी नहीं दे पायी | रंग की वजह से मैं अपने को काफी बदसूरत समझती थी | मेरे पति और परिवार वाले भी यही समझते थे |कई बार ताने मिलते थे | मेरा आत्मसम्मान और आत्मविश्वास बहुत लडखडाया हुआ था | उस दिन पहली बार महसूस हुआ कि मैं भी सुंदर लग सकती हूँ | ऐसा ही शायद मेरे पति को भी लगा | उनके ताने कम होने लगे | आज भी वो स्केच मेरे पास है | जब कभी आत्मविश्वास डिगता है तो उसे देख लेती हूँ और “अपने चहेरे पर ये स्माइल बनाए रखियेगा” ये शब्द याद कर लेती हूँ | मेरी तरफ से उसे धन्यवाद दे दीजियेगा |” कई बार हमारा आत्मविश्वास हमारे अपने तोड़ते हैं | ऐसे में किसी के शब्द बहुत हिम्मत दे जाते हैं | कल से महसूस हुआ कि जब भी जहाँ भी मौका लगे ये तिनका बननेकी कोशिश करनी चाहिए |  जीना इसी का नाम है … वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें … माँ के सपनों की पिटारी भागो लड़कियों अपने सपनों के पीछे भागो  वो 22 दिन इतना प्रैक्टिकल होना भी ठीक नहीं आपको संस्मरण   “डूबते को तिनके का सहारा  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें  keywords:help people, help someone, helping hand, healing, confidence, self worth

श्राद्ध की पूड़ी

श्राद्ध  पक्ष यानी अपने परिवार के बुजुर्गों के प्रति सम्मान प्रगट करने का समय | ये सम्मान जरूरी भी है और करना भी चाहिए | पर इसमें कई बार श्रद्धा के स्थान पर कई बार भय हावी हो जाता है | भय तब होता है जब जीवित माता -पिता की सेवा नहीं की हो | श्राद्ध पक्ष में श्रद्धा के साथ -साथ जो भय रहता है ये कहानी उसी पर है | श्राद्ध की पूड़ी  निराश-हताश बशेसरी  ने आसमान की ओर देखा | बादल आसमान में मढ़े  हुए थे | बरस नहीं रहे थे बस घुमड़ रहे थे | उसके मन के आसमान में भी तो ऐसे ही बादलों के बादल घुमड़ रहे थे , पर बरस नहीं रहे थे | विचारों को परे हटाकर उसने हमेशा की तरह लेटे -लेटे पहले धरती मैया के पैर छू कर,”घर -द्वार, परिवार  सबहीं की रक्षा करियो धरती मैया ” कहते हुए  दाहिना पैर जमीन पर रखा | अम्मा ने ऐसा ही सिखाया था उसको | एक आदत सी बना ली है | पाँच -छ : बरस की रही होगी तब से धरती मैया के पाँव छू कर ही बिस्तरा छोड़ती है | पर आज उठते समय चिंता की लकीरे उसके माथे पर साफ़ -साफ़ दिखाई दे रहीं थी | आज तो हनाय कर  ही रसोई चढ़ेगी | रामनाथ के बाबूजी का श्राद्ध जो है | पाँच  बरस हो गए उन्हें परलोक गए हुए |  पर एक खालीपन का अहसास आज भी रहता है | श्राद्ध पक्ष  लगते ही जैसे सुई से एक हुक सी  कलेजे में पिरो देता है | पिछले साल तक तो सारा परिवार मिल कर ही श्राद्ध करता था | पर अब तो बड़ी बहु अलग्ग रहने लगी है | कितना कोहराम मचा था तब | मझले गोविन्द से अपनी  बहन के ब्याह की जिद ठाने है | अब गोविन्द भी कोई नन्हा लला है जो उसकी हर कही माने | रहता भी कौन सा उसके नगीच है | सीमापुरी में रहता है | वहीँ डिराइवरी का काम मिला है | रोज तो मिलना होता नहीं | मेट्रो से आने -जाने में ही साठ रुपैया खर्चा हो जाता है | दिन भर की भाग -दौड़ सो अलग | ऐसे में कैसे समझाए | फिर आज -कल्ल के लरिका-बच्चा मानत हैं क्या बुजर्गन की | अब उसकी राजी नहीं है तो वो बुढ़िया क्या करे ? पर बहु को तो उसी में दोष नज़र आता है | जब जी आये सुना देती है | सात पुरखें तार देती है | यूँ तो सास -बहु की बोलचाल बंद ही रहती है पर मामला श्राद्ध का है | मालिक की आत्मा को तकलीफ ना होवे ई कारण कल ही तो उसके द्वारे जा कर कह आई थी कि,  “कल रामनाथ के बाबूजी का श्राद्ध है , घरे आ जइयो, दो पूड़ी तुम भी डाल दियो तेल में | रामनाथ तो करिए ही पर रामधुन  बड़का है , श्राद्ध  कोई न्यारे -न्यारे थोड़ी ही करत है | आखिर बाबूजी कौरा तो सबको खिलाये रहे | पर बहु ने ना सुनी तो ना सुनी | घर आई सास को पानी को भी ना पूछा | मुँह लटका के बशेसरी अपने घर चली आई | बशेसरी ने स्नान कर रसोई बनाना शुरू किया | खीर,  पूड़ी , दो तरह की तरकारी, पापड़ …जब से वो और रामनाथ दुई जने रह गए हैं तब से कुछ ठीक से बना ही नहीं | एक टेम का बना कर दोनों टेम  का चला लेती है | हाँ रामनाथ की चढ़ती उम्र के कारण कभी चटपटा खाने का जी करता है तो ठेले पर खा लेता है | उसका तो खाने से जैसे जी ही रूसा गया है | खैर  विधि-विधान से रामनाथ के हाथों श्रद्ध कराया | पंडित को भी जिमाया | सुबह से दो बार रामधुन की बहु को भी टेर आई | पर वो नहीं आई | इंतज़ार करते -करते भोर से साँझ हो आई | पोते-पोती के लिए मन में पीर उठने लगी | बाबा को कितना लाड़ करते थे | अब महतारी के आगे जुबान ना खोल पा रहे होंगे | बहुत देर उहापोह में रहने के बाद उसने फैसला कर लिया कि वो खुद ही दे आएगी  उनके घर | न्यारे हो गए तो क्या ? हैं तो इसी घर का हिस्सा |  बड़े-बड़े डोंगों में तरकारी और खीर भर ली | एक बड़े से थैले में पूरियाँ भर ली | खुद के लिए भी नहीं बचायी | रामनाथ तो सुबह खा ही चुका  था | लरिका -बच्चा खायेंगे | इसी में घर की नेमत है | दिन भर की प्रतीक्षारत आँखें बरस ही पड़ीं आखिरकार | जाते -जाते सोचती जा रही थी कि कि बच्चों के हाथ में दस -दस रूपये भी धर देगी | खुश हो जायेंगे | दादी -दादी कह कर चिपट पड़ेंगे | जाकर दरवाजे के बाहर से ही आवाज लगायी, ” रामधुन, लला , तनिक सुनो तो …” रामधुन ने तो ना सुनी | बहु चंडी का रूप धर कर अवतरित हो गयी | “काहे-काहे चिल्ला रही हो |” ” वो श्राद्ध की पूड़ी देने आये हैं |” ” ले जाओ, हम ना खइबे | लरिका-बच्चा भी न खइबे | बहु तो मानी  नहीं हमें | तभी तो हमारी बहिनी से गोविन्द का ब्याह नहीं कराय रही हो | अब जब तक हमरी  बहिनी ई घर में ना आ जाए हमहूँ कुछ ना खइबे तुम्हार घर का | ना श्राद्ध, न प्रशाद | कह कर दरवाजे के दोनों कपाट भेड़ लिए | बंद होते कपाटों से पहले उसने कोने में खड़े दोनों बच्चे देख लिए थे | महतारी के डर से आये नहीं | बुढ़िया की आँखें भर आयीं | पल्लू में सारी  लानते -मलालते समेटते हुए घर आ आई | बहुत देर तक नींद ने उससे दूरी बनाये रखी | पुराने दिनों  की यादें सताती रहीं | क्या दिन थे वो जब मालिक का हुकुम चलता था | मजाल है कि बहु पलट कर कुछ कह सके | आज मालिक होते तो बहु की हिम्मत ना होती इतना  कहने की | सोचते -सोचते पलकें झपकी ही थीं कि किसी  द्वार खटखटाने की आवाज़ आने लगी | … Read more

एक छोटी सी कोशिश

हमारे देश में बड़ी -बड़ी बातों को  लोक कथाओं के माध्यम  से समझाया गया है | आज ऐसी ही एक लोक कथा पर नज़र पड़ी | जो एक बहुत खूबसूरत सन्देश दे रही थी | तो आज ये  छोटी सी लोक कथा आप सब के लिए … एक छोटी सी कोशिश  एक नन्हीं चिड़िया थी | वो जंगल में रहती थी | रोज सुबह वो दाना ढूँढने निकलती | उसके रास्ते में एक ऋषि का आश्रम पड़ता था | वहां पेड़ पर बैठ वो थोड़ी देर सुस्ताती | इसी बीच ऋषि के प्रवचन उसके कान में पड़ जाते |धीरे –धीरे उसको उन प्रवचनों में आनंद आना लगा और वो ध्यान से सुनने लगी | जिससे उसके व्यवहार में परिवर्तन आने लगा | एक दिन जंगल में आग लग गयी | सभी जानवर इधर उधर भागने लगे | किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करा जाए | तब वो नन्हीं चिड़िया उस जंगल के सरोवर से अपनी चोंच में पानी भरभर के लाने लगीऔर आग पर डालने लगी | उसे देखकर अन्य चिड़ियों ने उसे समझाया, “ यहाँ क्यों समय बर्बाद कर रही हो | उड़ जाओ, शायद तुम्हारा जीवन बच जाए | वैसे भी तुम्हारे इन प्रयासों से ये आग तो बुझेगी नहीं | तब चिड़िया ने कहा,  “ आप ठीक कहती हैं पर मैं चाहती हूँ कि जब इतिहास लिखा जाए तो मेरा नाम मदद करने वालों में लिखा जाए तमाशा देखने वालों में नहीं |” यूँ तो ये कहानी बहुत छोटी सी है पर बात बहुत गहरी है | जब भी कोई विपत्ति या समस्या आती है, तो हमें लगता है, हमारी क्षमता तो बहुत कम है | हम तो अकेले हैं | ऐसे में हम क्या मदद कर सकते हैं | कई बार किसी एक्सीडेंट के होने पर  हम सब भीड़ में खड़े होकर शोर तो मचाते हैं पर सोचते हैं मदद के लिए शायद कोई दूसरा हाथ आगे आये | कई बार अपनी क्षमता पर संदेह भी होता है कि क्या हम कर पायेंगे | साइकोलॉजी की भाषा में इसे bystander effect कहते हैं | जब किसी घटना या दुर्घटना में बहुत सारी भीड़ इकट्ठी हो जाती है पर हर किसी को लगता है कि वो अकेले कोई क्या कर पायेगा, मदद कोई दूसरा करे | ऐसे में जितनी ज्यादा भीड़ होती है, ये भावना उतनी ही प्रबल होती है | कई बार इस कारण जरूरतमंद को मदद मिल ही नहीं पाती | लेकिन हर एक व्यक्ति की अपनी जिम्मेदारी होती है …. 1)      पर्यावरण बिगड़ रहा है पर एक मेरे पौधा ना लगाने से क्या  होगा ? 2)      खाली मैं पॉलीथीन बैग ले भी जाऊ तो क्या होगा ? 3)      आखिर मेरे कार रोज धो लेने से कितना पानी खर्च होगा ? 4)      सड़क पर सिर्फ मेरे कूड़ा फेंक देने से पूरी सड़क थोड़ी ही न गन्दी हो जायेगी ? 5)      अगर मैं दुर्घटना के समय वीडियो बना रहा था तो क्या हुआ , दूसरे तो थे मदद करने को ? 6)      अगर मैंने आज कश्मीर की लड़कियों का मजाक बना दिया तो क्या हुआ इतने लोग तो है जो उन्हें इज्जत दे रहे हैं ? 7)      धारा 370 हटने पर मैं बहुत खुश हूँ पर ये सिर्फ मेरी जिम्मेदारी नहीं है कि कश्मीरियों का दिल जीतने या उनके साथ अच्छे रिश्ते बनाने की पहल करूँ ? किसी बात, नियम व्यवस्था पर खुश होना और जिम्मेदार होना दो अलग बातें हैं हमें तय करना होगा कि हम क्या चाहते हैं जब इतिहास  लिखा जाए तो हमारा नाम तमाशा देखने वालों में दर्ज हो या मदद करने वालों में ? हमें भीड़ के bystander effect को समझना होगा | भीड़ में हमारी ही तरह बहुत से लोग अपने को छोटा और कमजोर समझ कर पहल नहीं करते | पर भीड़ का हिस्सा होते हुए भी हम सब का अलग –अलग बहुत महत्व है | जरूरत है बस अपने हिस्से भर की छोटी सी कोशिश करने की …     यह भी पढ़ें … मेरा पैशन क्या है ? माँ के सपनों की पिटारी भागो लड़कियों अपने सपनों के पीछे भागो  भविष्य का पुरुष आपको  लेख “ एक छोटी सी कोशिश “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें  keywords:bystander effect, personal role, effort, effect of cumulative efforts

भागो लड़कियों अपने सपनों के पीछे भागो

अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश के विधायक की पुत्री साक्षी के भागकर अजितेश से विवाह करने की बात मीडिया में छाई हुई है | भागना एक ऐसा शब्द है जो लड़कियों के लिए ही इस्तेमाल होता है | जब लड्का अपने मन से विवाह करता है तो भागना शब्द इस्तेमाल नहीं होता है | लेकिन इस प्रकरण ने स्त्री जीवन के कई मुद्दों को फिर से सामने कर दिया है | मुद्दा ये भी उठ रहा है कि लड़कियों को विवाह की अपेक्षा अपना कैरियर बनाने के लिए भागना चाहिए |  आदरणीय मैत्रेयी पुष्पा  जी कहती हैं कि, ” जब लड़की भागती है तो उसका उद्देश्य विवाह ही होता है अपने सपनों के लिए तो लड़की अकेले ही घर से निकल पड़ती है |”  तो .. भागो लड़कियों अपने सपनों के पीछे भागो  सपनों के पीछे भागती लडकियाँ मुझे बहुत अच्छी लगती हैं | ऐसी ही एक लड़की है राखी,  जो मेरी घरेलु सहायिका आरती  की बेटी है | रक्षा बंधन के दिन पैदा होने के कारण उसका नाम राखी रख दिया गया | राखी का कहना है कि मैं घर में सबसे बड़ी हूँ इसलिए सबकी रक्षा मुझे ही तो करनी है | बच्ची का ऐसा सोचना आशा से मन को भरता है | समाज में स्त्री पुरुष का असली संतुलन तो यहीं से आएगा |  राखी की माँ आरती निरक्षर है, लेकिन राखी सरकारी स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ती हैं | अभी तक हमेशा प्रथम आती रही है, जिसके लिए उसे स्कूल से ईनाम भी मिलता है | कभी –कभी मेरे पास पढ़ने  आती है, तो उसकी कुशाग्र बुद्धि देख कर ख़ुशी होती है | आसान नहीं होता गरीबी से जूझते ऐसे घर मे सपने देखने की हिम्मत करना | जब कि हम उम्र सहेलियां दूसरों के घर में सफाई बर्तन कर धन कमाने लगीं हो और उनके पास उसे खर्च करने की क्षमता भी हो | तब तमाम प्रलोभनों से मन मार कर पढाई में मन लगाना |  फिर भी राखी की आँखों में सपना है | उसका कहना है कि  बारहवीं तक की पढाई अच्छे नंबरों से कर के एक साल ब्यूटीशियन का कोर्स करके अपने इलाके में  एक पार्लर खोलेगी | पार्लर ही क्यों ? पूछने पर कहती है कि , “पार्लर   तो घर में भी खोला जा सकता है, महिलाएं ही आएँगी, माँ कहीं भी शादी कर देगीं तो इस काम के लिए कोई इनकार नहीं करेगा |” बात सही या गलत की नहीं है उसकी स्पष्ट सोच व् अपने सपने को पूरा करने की ललक है |  मैंने अपनी सहायिका  को सुकन्या व् अन्य  सरकारी, गैर सरकारी  योजनाओं के बारे में बताया है | कई बार साथ भी गयी हूँ |आरती को मैं अक्सर ताकीद देती रहती हूँ उसकी पढ़ाई  छुडवाना नहीं | वो भी अब शिक्षा के महत्व को समझने लगी है | कई बार जरूरी कागजात बनवाने के लिए वो छुट्टी भी ले लेती है , जिससे बर्तनों की सफाई का काम मेरे सर आ जाता है, पर उस दिन वो मुझे जरा भी नहीं अखरता | एक बच्ची के सपने पूरे होते हुए देखने का सुख बहुत बड़ा है |  खूब पढ़ो, मेहनत करो राखी तुम्हारे सपने पूरे हों | #भागो_लड़कियों_अपने_सपने_के_पीछे_भागो  नोट – भागना एक ऐसा शब्द है जो लड़कियों के ही साथ जुड़ा है , वैसे भी इसके सारे दुष्परिणाम लड़कियों के ही हिस्से आते हैं | मामला बड़े लोगों का हो या छोटे लोगों का, मायके के साथ संबंध तुरंत टूट जाते हैं | भागते समय अबोध मन को यह समझ नहीं होती कि कोई भी रिश्ता दूसरे रिश्ते की जगह नहीं ले सकता | फिल्मे चाहे कुछ भी कहें पर वो रिश्ते बहुत उलझन भरे हो जाते हैं जहाँ एक व्यक्ति पर सारे रिश्ते निभाने का भार हो | माता -पिता भाई बहन के रिश्ते खोने की कसक जिन्दगी भर रहती है | जिसके साथ गयीं हैं उसके परिवार वाले कितना अपनाएंगे कितना नहीं इसकी गारंटी नहीं होती | जिसको जीवनसाथी के तौर पर चुना है उसके ना बदल जाने की गारंटी भी नहीं होती | ऐसे में अधूरी शिक्षा के साथ अगर लड़की ऐसा कोई कदम भावावेश में उठा लेती है और परिस्थितियाँ आगे साथ नहीं देतीं तो उसके आगे सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं | लड़कियों के लिए बेहतर तो यही होगा पहले आत्मनिर्भर हों , अपना वजूद बनाएं फिर अपनी पसंद के जीवन साथी के बारे में सोचें | ऐसे में ज्यादातर माता -पिता की स्वीकृति मिल ही जाती है और अगर नहीं मिलती तो भी भागना जैसा शब्द नाम के आगे कभी नहीं जुड़ता | एक कैद से आज़ाद होने के ख्याल से दूसरी कैद में मत जाओ | #भागो_लड़कियों_अपने_सपने_के_पीछे_भागो  वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें …. मेरा पैशन क्या है ? माँ के सपनों की पिटारी जब राहुल पर लेबिल लगा भविष्य का पुरुष आपको  लेख “ भागो लड़कियों अपने सपनों के पीछे भागो “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें  keywords:key to success , girls, dreams, sakshi mishra, motivation

मेरा पैशन क्या है ?

                                           मेरा पैशन क्या है    पैशन यानि वो काम जिसे हम अपने दिल की ख़ुशी के लिए करते हैं | लेकिन जब हम उस काम को करते हैं तो कई बार महत्वाकांक्षाओं के कारण या अतिशय परिश्रम और दवाब के कारण हम उसके प्रति आकर्षण खो देते हैं | ऐसे में फिर एक नया पैशन खोजा जाता है फिर नया …और फिर  और नया | ये समस्या आज के बच्चों में बहुत ज्यादा है | यही उनके भटकाव का कारण भी है | आखिर कैसे समझ में आये कि हमारा पैशन क्या है और कैसे हम उस पर टिके रहे | प्रस्तुत है ‘अगला कदम’ में नुपुर की असली कहानी जो शायद आपको और आपके बच्चों को भी अपना पैशन जानने में मदद करे |      मेरा पैशन क्या है ?   धा-धिन-तिन-ता /ता धिन तिन ता  धा-धिन-तिन-ता /ता धिन तिन ता                                                 मैं अपना बैग लेकर दरवाजे के  बाहर निकल रही हूँ , पर ये आवाजें मेरा पीछा कर रही हैं | ये आवाजें जिनमें कभी मेरी जान बसती थी , आज मैं इन्हें बहुत पीछे छोड़ कर भाग जाना चाहती हूँ | फिर कभी ना आने के लिए |                                              मेरी स्मृतियाँ मुझे पांच साल की उम्र में खींच कर ले जा रही हैं |    नुपुर …बेटा नुपुर , मास्टरजी आ गए | और मैं अपनीगुड़ियाछोड़कर संगीत कक्ष में पहुँच जाती और   मास्टर जी मुझे नृत्य और संगीत की शिक्षा देना शुरू कर देते | अक्सर मास्टर जी माँ सेकहा करते, “बहुत जुनूनी है आप की बिटिया , साक्षात सरस्वती का अवतार | इसे तो नाट्य एकादमी भेजिएगा फिर देखना कहाँ से कहाँ पहुँच जायेगी |” माँ का चेहरा गर्व से भर जाता | रात को माँ खाने की मेज पर यह बात उतने ही गर्व से पिताजी को बतातीं | हर आने -जाने वालों को मेरी उपलब्द्धियों के बारे में बताया जाता | कभी -कभी उनके सामने नृत्य कर के और गा कर दिखाने को कहा जाता | सबकी तारीफ़ सुन -सुन कर मुझे बहुत ख़ुशी मिलती और मैं दुगुने उत्साह से अपनी सपने को पूरा करने में लग जाती | कितनी बार रिश्तेदारों की बातें मेरे कान से टकरातीं , ” बहुत जुनूनी है तभी तो स्कूल, ट्यूशन होमवर्क सब करके भी इतनी देर तक अभ्यास कर लेती हैं | कोई साधारण बच्चा नहीं कर सकता | धीरे -धीरे मुझे भी अहसास होने लगा कि ईश्वर ने मुझे कुछ ख़ास बना कर भेजा है | यही वो दौर था जब मैं एक अच्छी शिष्य की तरह माँ सरस्वती की आराधिका भी बन गयी | पिताजी के क्लब स्कूल, इंटर स्कूल , राज्य स्तर के जाने जाने कितनि प्रतियोगिताएं मैंने जीती | मेरे घर का शो केस मेरे द्वारा जीती हुई ट्रोफियों से भर गया | १८ साल की होते -होते संगीत और नृत्य मेरा जीवन बन गया और २० वर्ष की होते -होते मैंने एक बड़ा संगीत ग्रुप ज्वाइन कर लिया | ये मेरे सपनों का एक पड़ाव था , जहाँ से मुझे आगे बहुत आगे जाना था | परन्तु … “नुपुर  रात दस बजे तक ये नृत्य ातैयार हो जाना  चाहिए | “ ” नुपुर १२ बज गए दोपहर के और अभी तक तुमने इस स्टेप पर काम नहीं किया |” ” नुपुर ये नृत्य तुम नहीं श्रद्धा करेगी |”  ” नुपुर श्रद्धा बीमार है आज रात भर प्रक्टिस करके कल तुम्हें परफॉर्म करना है |” “नुपुर , आखिर तुम्हें हो क्या गया है ? तुम्हारी परफोर्मेंस बिगड़ क्यों रही है ?” “ओफ् ओ ! तुमसे तो इतना भी नहीं हो रहा |” ” नुपुर मुझे नहीं लगता तुम कुछ कर पाओगी |” और उस रात तंग आकर मैंने अपने पिता को फोन कर ही दिया , ” पापा , मुझसे नहीं हो हो रहा है | यहाँ आ कर मुझे समझ में आया कि नृत्य मेरा पैशन नहीं है | मैं सबसे आगे निकलना चाहती हूँ | सबसे बेहतर करना चाहती हूँ | लें मैं पिछड़ रही हूँ | “ ” अरे नहीं बेटा, तुम्हें तो बहुत शौक था नृत्यु का , बचपन में तुम कितनी  मेहनत करती थी | तुम्हें बहुत आगे जाना है |मेरा बच्चा ऐसे अपने जूनून को बीच रास्ते में नहीं छोड़ सकता |” पिताजी ने मुझे समझाने की कोशिश करी | मैंने भी समझने की कोशिश करी पर अब व्यर्थ | मुझे लगा कि मैं दूसरों से पिछड़ रहीं हूँ | मैं उनसे कमतर हूँ | मैं उन्हें बीट नहीं कर सकती | ऐसा इसलिए है कि म्यूजिक मेरा पैशन नहीं है | और मैं ऐसी जिन्दगी को नहीं ओढ़ सकती जो मेरा पैशन ना हो | मैंने अपना अंतिम निर्णय पिताजी को सुना दिया | वो भी मुझे समझा -समझा कर हार गए थे | उन्होंने मुझे लौट आने की स्वीकृति दे दी | घर आ कर मैंने हर उस चीज को स्टोर में बंद कर दिया जो मुझे याद दिलाती थी कि मैं नृत्य कर लेती हूँ | मैंने अपनी पढाई पर फोकस किया  और बी .ऐड करने के बाद मैं एक स्कूल में पढ़ाने लगी | मैं खुश थी मैंने अपना जूनून पा लिया था | समय तेजी से आगे बढ़ने लगा | ————————————– इस घटना को हुए पाँच वर्ष बीत गए | एक दिन टी. वी पर नृत्य का कार्यक्रम देखते हुए मुझे नृत्यांगना के स्टेप में कुछ गलती महसूस हुई | मैंने स्टोर से जाकर उस स्टेप को करके देखा …एक बार , दो बार , दस बार | आखिरकार मुझे समझ आ गया कि सही स्टेप क्या होगा | मुझे ऐसा करके बहुत अच्छा लगा | अगले दिन मैं फिर स्टोर में गयी और अपनी पुरानी डायरी निकाल लायी | उसमें एक नृत्य को कत्थक और कुचिपुड़ी के फ्यूजन के तौर पर स्टेप लिखने की कोशिश की थी | … Read more

वंदना कटोच – 60 % लाने पर अपने बेटे को बधाई देने वाली माँ की पोस्ट हुई वायरल

फोटो -पंजाब केसरी से साभार फेसबुक पर एक माँ ने अपने बेटे को 60 % मार्क्स लाने पर बधाई दी , तब उन्हें नहीं पता था कि उनकी यह पोस्ट लाखों लोगों की जुबान बन जायेगी | उनकी यह पोस्ट वायरल हुई है | इस पोस्ट के 7000 से ऊपर शेयर , एक हज़ार से ज्यादा कमेन्ट व दस हज़ार से ज्यादा लैक आ चुके हैं | दरअसल बहुत  से लोग ऐस कहना चाहते हैं पर कह नहीं पाते क्योंकि बच्चों पर अच्छे नंबर लाने का सामाजिक दवाब हमीं ने बनाया है और अब हम और हमारे बच्चे ही इसका शिकार हो रहे हैं | ऐसे में बहुत जरूरत है ऐसी माँओं  के आगे आने की जो कम प्रतिशत लाने वाले अपने बच्चों के साथ खड़ी हो सकें |  वंदना कटोच –  60 % लाने पर अपने बेटे को बधाई देने वाली माँ की पोस्ट हुई वायरल  वंदना कटोच ने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा है कि .. मैं ओने बेटे पर गर्व महसूस कर रही हूँ | जिसने दसवीं की बोर्ड की परीक्षा में 60 % मार्क्स हासिल किये हैं | ये 90 % मार्क्स नहीं हैं , लेकिन मेरी भावनाएं नहीं बदली हैं |  मैंने अपने बेटे का संघर्ष देखा है , जहाँ वो कुछ विषयों को छोड़ने की स्थिति में था |जिसके बाद पढाई को लेकर उसने काफी संघर्ष किया | बेटा आमेर जैसे मछलियों से पेड़ पर चढ़ने की उम्मीद की जाती है ,  लेकिन ठीक इससे उल्ट तुम अपने दायरे के भीतर ही एक बड़ी उपलब्द्धि हासिल करो | तुम मछली की तरह पेड़ पर नहीं चढ़ सकते लेकिन बड़े समुद्र को अपना लक्ष्य बना सकते हो| मेरा प्यार तुम्हारे लिए | अपने भीतर अच्छे जिज्ञासा और ज्ञान को हमेशा जीवित रखो ,  और हाँ ! अपना अटपटा सेंसोफ़ ह्यूमर भी |” इस पोस्ट के बाद बहुत से लोगों ने उनके साहस और प्रेरणादायक पोस्ट के लिए उन्हें बधाई दी है | वंदना कहतीं हैं कि मैंने ९७ -९८ प्रतिशत लाने वाले बच्चों के माता -पिता को भी रोते हुए देखा है | बच्चे रोते हैं तब तो समझ में आता है पर माता -पिता क्यों रोते हैं ? उन्होंने अपनी खुशियाँ बच्चों के नंबरों से जोड़  रखी हैं | ये एक बहुत ही खतरनाक परंपरा  हो गयी है | बच्चे पर दवाब डालने के लिए माता -पिता के आँसू ही काफी हैं … और ये आँसू ही कई बार बच्चे के उस अंतिम खत का कारण बनते हैं ,” ये मेरा आखिरी खत है , मुझे दुःख है कि मैं आप की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर सका |” बहुत से लोगों ने उनकी पोस्ट पर यह भी लिखा कि की इतने कम नंबर लाने वाले बच्चे भविष्य में क्या कर पायेंगे |  इसके जवाब में उन्होंने कहा कि रिजल्ट आते ही कम प्रतिशत लाने वाले बच्चों के प्रति दया दिखाते लोग कहने लगते हैं कि ये बच्चा कैसे सर्वाइव करेगा …ऐसा लगता है कि बच्चे के जीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण उसके मार्क्स हो गए हैं | और फिर हर बच्चा कुछ ना कुछ तो कर ही लेगा | पर नंबरों का दवाब उसे उस काम को करने से भी रोक देता है जिसमें वो अच्छा है | बहुत से लोग फोटोग्राफी में जाते हैं , नृत्य -कला के क्षेत्र मे जाते हैं वहां विज्ञानं और गणित के नंबरों की जरूरत नहीं होती | उनका बेटा इन्हीं विषयों में कमजोर रहा है , अब वो अपने मन के विषय चुनेगा और उसमें निश्चित तौर पर अच्छा करेगा |  कुछ लोगों ने ये भी भी सवाल उठाया कि जब एक -डेढ़ महीने पढने से ये रिजल्ट रहा तो सारा साल पढने से बेहतर होता  इस के उत्तर में वंदना कहतीं हैं कि लोगों को लगता है कि जो बच्चे अच्छे नंबर नहीं लायें हैं उन्होंने साल भर ऐय्याशी की हैं | जबकि ऐसा नहीं है | कुछ बच्चों का कुछ और इंटरेस्ट होता है वो उसे करते हैं या फिर कुछ उन विषयों में जूझने में अपनी ज्यादा ऊर्जा जाया करते हैं जो उन्हें रुचिकर नहीं लगते | उनके बेटे को मैथ्स व् साइंस में मुश्किल होती थी | उसने बहुत मेहनत की पर रिजल्ट अनुकूल नहीं रहा | वो अवसाद से घिर गया | हमारे लिए भी वो बहुत मुश्किल वक्त था | फिर हमने हिम्मत की सब्जेक्ट को छोटे -छोटे टुकड़ों में बांटा और उस को तैयार करवाया | एक समय ऐसा था जब उनके बेटे आमेर ने इन सब्जेक्ट्स की परीक्षा ना देने का मन बनाया पर एक -डेढ़ महीने पहले उसने हिम्मत कर सभी विषयों की परीक्षा देने का मन बनाया और हमने उसका साथ दिया | हर बच्चा जो नंबर कम ला रहा है वो पढ़ा नहीं हो , ऐसनाहीं है |  नंबर और रूचि किसी विषय को समझने की क्ष्त्मा में अंतर जीवन में उसके सफल या असफल होने की गारंटी नहीं हैं | कुछ लोगों ने पूछा जब वो 90 % वाले बच्चों को देखतीं है तो अपने बच्चे को कहाँ पाती हैं ? इसके जवाब में वंदना कहती हैं कि वो बच्चों की तुलना नहीं करती | हर बच्चा खास है | जिन्होंने ज्यादा नंबर पाए हैं वो भी खास हैं और उनका बेटा आमेर भी | दोनों की तुलना नहीं हो सकती | आज जब कम प्रतिशत लाने वाले बच्चे समाज की नज़रों में खुद को कमतर , नाकारा , बेकार सिद्ध किये जाने से अवसाद में आ रहे हैं तब वंदना जैसी माँओं की बहुत जरूरत है जो डटकर अपने बच्चे के साथ खड़ी हो |  अटूट बंधन  यह भी पढ़ें … खराब रिजल्ट आने पर बच्चों को कैसे रखे पॉजिटिव   बच्चों के मन से परीक्षा का डर कैसे दूर करें बस्तों के बोझ तले दबता बचपन क्या हम  बच्चों में रचनात्मकता विकसित कर रहे हैं  बच्चों में बढती हिंसक प्रवत्ति आपको  लेख “वंदना कटोच –  60 % लाने पर अपने बेटे को बधाई देने वाली माँ की पोस्ट हुई वायरल “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  … Read more