माँ के सपनों की पिटारी

सूती धोती उस पर तेल -हल्दी के दाग , माथे पर पसीना और मन में सबकी चिंता -फ़िक्र | माँ तो व्रत भी कभी अपने लिए नहीं करती | हम ऐसी ही माँ की कल्पना करते हैं , उसका गुणगान करते हैं …पर क्या वो इंसान नहीं होती या माँ का किरदार निभाते -निभाते वो कुछ और रह ही नहीं जाती , ना रह जाते हैं माँ के सपने  माँ के सपनों की पिटारी  कल मदर्स डे था और सब अपने माँ के प्यार व् त्याग को याद कर रहे थे | करना भी चाहिए ….आखिर माँ होती ही ऐसी हैं | मैंने भी माँ को ऐसे ही देखा | घर के हज़ारों कामों में डूबी, कभी रसोई , कभी कपड़े कभी बर्तनों से जूझती, कभी हम लोगों के बुखार बिमारी में रात –रात भर सर पर पट्टी रखती, आने जाने वालों की तीमारदारी करती | मैंने माँ को कहीं अकेले जाते देखा ही नहीं , पिताजी के साथ जाना सामान खरीदना , और घर आ कर फिर काम में लग जाना |अपने लिए उनकी कोई फरमाइश नहीं , हमने माँ को ऐसी ही देखा था …बिलकुल संतुलित, ना जरा सा भी दायें, ना जरा सा भी बायें |  उम्र का एक हिस्सा निकल गया | हम बड़े होने लगे थे | ऐसे ही किसी समय में माँ मेरे व् दीदी के साथ बाज़ार जाने लगीं | मुझे सब्जी –तरकारी के लिए खुद मोल –भाव करती माँ बहुत अच्छी लगतीं | कभी –कभी कुछ छोटा-मोटा सामान घर –गृहस्थी से सम्बंधित खुद के लिए भी खरीद लेती , और बड़ी ख़ुशी से दिखातीं | उस समय उनकी आँखों की चमक देखते ही बनती थी | मुझे अभी भी याद है कि हम कानपुर में शास्त्री नगर बाज़ार में सब्जियां लेने गए थे , वहाँ  एक ठेले पर कुछ मिटटी के खिलौने मिल रहे थे | माँ उन्हें देखने लगीं | मैं थोड़ा पीछे हट गयी | बड़े मोल –तोल से उन्होंने दो छोटे –छोटे मिटटी के हाथी खरीदे और मुझे देख कर चहक कर पूछा ,” क्यों अच्छे हैं ना ?” मेरी आँखें नम हो गयीं |  घर आने के बाद पिताजी व् बड़े भैया बहुत हँसे कि , “ तुम तो बच्चा बन गयीं , ये क्या खरीद लायी, फ़ालतू के पैसे खर्च कर दिए | माँ का मुँह उतर गया | मैंने माँ का हाथ पकड़ कर सब से कहा, “ माँ ने पहली बार कुछ खरीदा है , ऐसा जो उन्हें अच्छा लगा , इस बात की परवाह किये बिना कि कोई क्या कहेगा,ये बहुत ख़ुशी का समय है कि वो एक माँ की तरह नहीं थोड़ा सा इंसान की तरह जी हैं |”  लेकिन जब मैं खुद माँ बनी , तो बच्चों के प्रेम और स्नेह में भूल ही गयी कि माँ के अतिरिक्त मैं कुछ और हूँ | हालांकि मैं पूरी तरह से अपनी माँ की तरह नहीं थी , पर अपने लिए कुछ करना बहुत अजीब लगता था | एक अपराध बोध सा महसूस होता |  तब मेरे बच्चों ने मुझे अपने लिए जीना सिखाया | अपराधबोध कुछ कम हुआ | कभी -कभी लगता है मैं आज जो कुछ भी कर पा रही हूँ , ये वही छोटे-छोटे मिटटी के हाथी है ,जो माँ के सपनों से निकलकर मेरे हाथ आ गए हैं |   ये सच है कि बच्चे जब बहुत छोटे होते हैं तब उन्हें २४ घंटे माँ की जरूरत होती है , लेकिन एक बार माँ बनने के बाद स्त्री उसी में कैद हो जाती है , किशोर होते बच्चों की डांट खाती है, युवा बच्चे उसको झिडकते, बहुत कुछ छिपाने लगते हैं ,और विवाह के बाद अक्सर माँ खलनायिका भी नज़र आने लगती है | तमाम बातें सुनती है , मन को दिलासा देती है ,  पर वो माँ की भूमिका से निकल कर एक स्त्री , इक इंसान बन ही नहीं पाती | क्या ये सोचने की जरूरत नहीं कि माँ के लिए दुनिया इतनी छोटी किसने कर दी है ?   माँ के त्याग और स्नेह का कोई मुकाबला नहीं हो सकता, लेकिन जब बच्चे बड़े हो जाए तो उनका भी फर्ज है कि खूबसूरत शब्दों , कार्ड्स , गिफ्ट की जगह उन्हें , उनके लिए जीवन जीना भी सिखाये | घर की हथेली पर बूँद भर ही सही पर उसके भी कुछ सपने हैं , या किसी ख़ास तरह से जीने की इच्छा ,बस थोडा सा दरवाजा खोल देना है , खुद ही वाष्पीकृत हो कर अपना रास्ता खोज लेंगे |  मेरी नानी ने एक पिटारी दी थी मेरी माँ को, उसमें बहुत ही मामूली चीजें थी , कुछ कपड़ों की कतरने , कुछ मालाएं , कुछ सीप , जिसे खोल कर अक्सर माँ रो लिया करती | सदियों से औरतें अपनी बेटियों को ऐसी ही पिटारी सौंपती आयीं है, जो उन्होंने खोली ही नहीं होती है …उनके सपनों की पिटारी | कोशिश बस इतनी होनी चाहिए कि कोई भी माँ ये पिटारी बच्चों को ना सौंप कर अपने जीवन काल में ही खोल सके | मदर्स डे का इससे खूबसूरत तोहफा और क्या हो सकता है | क्या आप अपनी माँ को ये तोहफा नहीं देना चाहेंगे |  यह भी पढ़ें … महिला सशक्तिकरण –नव सन्दर्भ , नव चुनौतियाँ विवाहेतर रिश्तों में सिर्फ पुरुष ही दोषी क्यों ? पुलवामा हमला -शर्मनाक है सोशल मीडिया का गैर जिम्मेदाराना व्यव्हार बदलाव किस हद तक अहसासों का स्वाद आपको लेख    “माँ के सपनों की पिटारी  “  कैसा लगा    | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | keywords-mother’s day, mother, mother-child, daughter

माँ की माला

नेहा नाहटा,जैन दिल्ली माला फेरकर जैसी ही प्रेरणा ने आँखे खोली,सामने खड़ी बेटी और पतिदेव ठहाके मारने लगे । मान्या तो पेट पकड़ पकड़ कर हंसी से दोहरी हुयी जा रही थी । प्रेरणा आँखे फाडे अचंभे से उन्हें देखते हुए बोली,”अरे क्या हुआ,ऐसे क्यों हँस् रहे हो तुम दोनों “ पर दोनों की हंसी तो रुकने का नाम ही नही ले रही थी। प्रेरणा ने निखिल का मुँह अपने हाथ से टाइट दबाकर उनकी हंसी रोकते हुए बेटी से पूछा, ” बाबू प्लीज़ बताना ,क्या हुआ ऐसा,जो तुम हँस रहे हो, क्या मेरे चेहरे पर कुछ लगा हुआ है ।” बमुश्किल हंसी रोकते हुए मान्या बोली,”मम्मा आप क्या कर रहे थे “ मैं ,मैं ,नही तो, कुछ भी नही,बस माला ही तो फेर रही थी,प्रेरणा मासूमियत से बोली।” अरे मम्मा , मैं  जब स्कूल के लिए रेड्डी हो रही थी, तब बालकनी में अपने बाल बनाने आई तो मुझे मम्मी,मम्मी,मम्मी…  की आवाज आई ,तो मैं धीरे से आपके पास आकर सुनने लगी, मैंने चुपचाप पापा को इशारे से बुलाया और  तब से दोनों बड़ी मुश्किल से हंसी रोककर बैठे है.. “आप मम्मी,मम्मी की माला फेर रही थी ।”(मतलब नानिमा की माला?) नवकार मंत्र, ॐ भिक्षु की या राम ,कृष्ण ,साईबाबा की माला तो सभी फेरते है… “यह मम्मी कोनसी देवता आ गयी” और जैसे ही प्रेरणा ने निखिल के मुँह पर से हाथ हटाया तो दोनों फिर से ठहाके लगाने लगे… “चल भाग यहां से,स्कूल को देर हो जायेगी,खिसियाते हुए  प्रेरणा चिल्लाई।” पति और बेटी के बस स्टॉप पर जाने के बाद  प्रेरणा सोचने लगी कि राम ,कृष्ण, महावीर या भिक्षु भी तो इंसान ही थे,अपने कर्म से वो भगवान बने ।और आज सब उन्हें पूजते है ।  माँ ने भी तो यह सुन्दर जीवन दिया ,जीवन की हर ख़ुशी दी ,जो माँगा वही मिला,हमारा भविष्य संवारा ….. तो माँ कहीँ भगवान से कम है क्या, उनकी माला तो सबसे पहले फेरनी चाहिए । वो किसी भी देवता से कम नहीं… यादों में माँ  के आते ही प्रेरणा की आँखे अब तक नम हो चुकी थी ।

मातृ दिवस पर- एक माँ के अपने बच्चों ( बेटे और बेटी ) के नाम पत्र

                                      आज इन दो पत्रों को पढ़ते हुए फिल्म कभी ख़ुशी कभी गम का एक डायलाग याद आ गया | पिता भले ही अपने स्नेह को व्यक्त करे न करे  बच्चों के साथ खुल कर बात करे न करें पर माँ कहती रहती है , कहती  रहती है , भले ही बच्चा सुने न सुने | पर ये कहना सिर्फ कहना नहीं होता इसमें माँ का स्नेह होता है आशीर्वाद होता है और विभिन्न परिस्तिथियों में अपने बच्चे को समन्वय करा सकने की कला का उपदेश भी | पर जब बच्चे दूर चले जाते हैं तब भी फोन कॉल्स या पत्र के माद्यम से माँ अपने बच्चे का संरक्षण करती रहती है | वैसे तो आजकल लड़का , लड़की की परवरिश में में कोई भेद नहीं पर एक माँ ही जानती है की दोनों को थोड़ी सी शिक्षा अलग – अलग देनी है | जहाँ बेटी को पराये घर में रमने के गुर सिखाने हैं वहीँ बेटे के मन में स्त्रियों के प्रति सम्मान की भावना भरनी है | ऐसे ही एक माँ ( डॉ >  भारती वर्मा ) के अपने बच्चों ( बेटे व् बेटी ) के लिए लिए गए भाव भरे खत हम अपने पाठकों के लिए लाये है | ये खत भले ही ही निजी हों पर उसमें दी गयी शिक्षा हर बच्चे के लिए है | पढ़िए और लाभ उठाइये ……… मातृ दिवस पर …बेटी के नाम पत्र —————————————— प्यारी बेटी उर्वशी          आज तुमसे बहुत सारी बातें करने का मन है। हो भी क्यों न….माँ-बेटी का रिश्ता है ही ऐसा…जहाँ कितना भी कहो, कितना भी सुनो…फिर भी बहुत कुछ अनकहा-अनसुना रह जाता है।            मैं अपने जीवन के उस स्वर्णिम पल को सर्वश्रेष्ठ मानती हूँ जब तुम्हें जन्म देकर मैंने तुम्हारी माँ होने का गौरवपूर्ण पद प्राप्त किया। जन्म से लेकर तुम्हें बड़ा करने तक, शिक्षा-दीक्षा, विवाह से लेकर विदाई तक के हर उस सुख-दुख, त्याग का अनुभव किया जिसे मेरी माँ ने मेरे साथ अनुभव किया होगा। हर माँ की तरह मैंने भी तुम्हारे बचपन के साथ अपना बचपन जिया। तुम्हारे सपनों में अपने सपने मिला कर तुम्हारे सपनों को जिया। मैं जो नहीं कर सकी वो तुमने किया। इसमें छिपी माँ की प्रसन्नता शब्दों में तो वर्णित नहीं ही हो सकती, केवल अनुभव की जा सकती है।               मैंने अपने जीवन में वही किया जो मुझे सही लगा। अपने लिए किसी भी निर्णय पर कभी पश्चाताप नही हुआ। मेरे आत्मविश्वास ने ऐसा करने में मेरी सहायता की। यह आत्मविश्वास अपने माता-पिता से मिले संस्कारों पर चलते हुए तथा जीवन में मिलने वाले कड़वे-मीठे अनुभवों से मिला। समयानुसार उसमें कुछ नया जोड़ते हुए हमने तुम्हारा लालन-पालन किया और प्रयत्न किया कि तुम वो आत्मविश्वास प्राप्त कर सको जो जीवन में आने वाली कठिनाइयों के समय सही निर्णय लेने में सहायक बने। हम अपने प्रयत्न में कहाँ तक सफल हुए हैं….यह तो आने वाला समय ही बताएगा।               सही पर अडिग रहना और गलत होने पर क्षमा माँगना… ये दो बातें जीवन में बहुत महत्वपूर्ण हैं। जीवन में ऐसा समय भी आएगा जब तुम्हें कठिन फैसले लेने पड़ेंगे। तब अपना आत्मविश्वास बनाए रखना। अच्छी और बुरी दोनों स्तिथियों में अपने को संभालते हुए अपनों को संभाल कर रखना।           जीवन में सदा अपने मन का नहीं होता। हमें सबके मनों को समझ कर , उनका ध्यान रखते हुए चलना होता है। ऐसा करते हुए जो आत्मसंतुष्टि, सुख और प्रसन्नता मिलती है…उसे तुमने स्वयं भी अनुभव किया होगा।                जीवन का एक ही मूल मंत्र है….जो सही लगे वही करो, अपनी राह स्वयं चुनो, अपने सपने स्वयं बुनो, पर उस राह पर अपने सपनों को पूरा करने के लिए अपनों को साथ लेकर चलो। अपनों का साथ सपनों को पूरा करने की यात्रा में आशीर्वाद बन कर साथ चलता है।               जीवन में कोई भी परफ़ेक्ट नहीं होता। एक-दूसरे की कमियों को स्वीकार करते हुए अपने जीवनसाथी के साथ अपने लक्ष्य, सपनों को पूरा करने के लिए सकारात्मक सोच रखते हुए ईमानदारी के साथ जीवन जीना। अपने नाना की तरह कठिन परिश्रम को जीवन का अंग बनाना। तब देखना जीवन कितना सुंदर, सुंदरतम होता जाएगा और कितने इंद्रधनुष खुशियों के चमकते हुए दिखाई देंगे।           तुम्हारा आत्मविश्वास और समझदारी देख कर मेरा विश्वास मजबूत हो चला है कि तुम सही राह पर चलते हुए सही निर्णय लेने में समर्थ बनोगी और सबकी आँख का तारा रहोगी।            मुझे गर्व है कि तुम मेरी बेटी हो और मैं तुम्हारी माँ हूँ।                   तुम्हारी मम्मी                      भारती ——————————————— डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई, देहरादून,(उत्तराखंड) —————————————————— मातृ दिवस पर….. बेटे के नाम पत्र —————————————— प्रिय अभिषेक                       बहुत सी बातें हैं जिन्हें एक लंबे अरसे से कहना चाह रही थी, पर अपने-अपने कामों की व्यस्तता के चलते कहने का समय नहीं मिल पाया। जीवन का क्या…..आज है कल नहीं। तो क्यों न जो कहना है आज ही कह दिया जाए।             तुम वो कड़ी हो जिसने हमारे जीवन में जुड़ कर हमारे परिवार को संपूर्णता प्रदान की। बहन को भाई मिला। हम सौभाग्यशाली हैं बेटी-बेटे की माँ बनने के साथ जामाता ओर पुत्रवधु के रिश्तों को भी जीने का भरपूर सुख प्राप्त होगा।          पुरुष प्रधान समाज होते हुए भी हमने बेटी-बेटे में कोई भेदभाव न करते हुए तुम दोनों को एक समान परिस्थितियों में एक जैसी सुख-सुविधाएँ देते हुए बड़ा किया। हमारे अनुसार बच्चों के लिए स्वतंत्रता का अर्थ था….हमारे बच्चे अपनी रुचियों के अनुसार अपना लक्ष्य निर्धारित करें, अपने सपने स्वयं देखें और जिएं। अपनी इच्छाओं का दबाव बच्चों पर डालना कभी हमारे परिवार की परंपरा नहीं रही । जो स्वतंत्रता … Read more

मदर्स डे : माँ और बेटी को पत्र

मेरी प्यारी बेटीकैसी हो?कितने दिन हो गए तुम्हें अपने गले से लगाए हुए। कहाँ तो एक दिन भी तुम्हें याद किए बिना बीतता नहीं था मेरा। पर अब कितनी विवश हूँ मैं। याद रोज़ करती हूँ, रोज़ अपनी अश्रुपूर्ण आँखों से तुम्हारे पापा के साथ उन रूपों के बीच निहारती हूँ तुम्हें, जिनमेँ जब-तब हमें याद कर आँसू बहाते हुए ढूँढती हो तुम। पर मैं तुम्हारे आँसू पोंछ नहीं सकती, तुम्हें सांत्वना नहीं दे दे सकती, तुम्हें अपनी छाती से लगा कर चुप नहीं करा सकती, क्योंकि अब मैं तुम्हारे पापा के साथ उस संसार में हूँ जहाँ से , लोग कहते हैं कोई लौट कर नहीं आता। बस दूर से अपनों को देख सकता है। अब यही हमारे बस में है बेटी ।जब तुम्हारा जन्म हुआ था तब कितने धनवान हो गए थे हम। उस मजनूँ को, जो हमारे यहाँ काम करने आया करता था, को तो तुम जानती हो न, के साथ तुम्हारे पापा ने पूरी कॉलोनी में लड्डू बाँटे थे। तुम्हें पाकर फूले नहीं समाते थे हम। सब कुछ भूल हम दोनों तुम्हीं में खोए रहते थे। एक बार तुम बीमार पड़ी तो हमारे हाथ-पाँव फूल गए थे। टाइफाइड का बुखार चढ़ता, उतरता, पर ठीक होने में नहीं आ रहा था। हम तो जैसे सोना ही भूल गए थे। बस चारपाई पर लेती हुई तुम्हें देखते रहते। हर समय एक डर मन में बना रहता कि कहीं तुम हमें छोड़ कर न चली जाओ। ईश्वर की कृपा हुई और एक नए डॉक्टर हमें मिले, जिनकी दवाई से तुम ठीक होती गई। हमारे सपने फिर खिलने लगे और तुम उनमें नए रंग भरने लगी। धीरे-धीरे तुम बड़ी हुई, स्कूल जाने लगी।अरे! एक बात बताऊँ तुम्हें। तुम्हें छोटे बच्चे बहुत अच्छे लगते थे। बहुत दिनों तक तुम्हारा कोई भाई-बहिन नहीं हुए तो तुम पड़ोसियों के छोटे बच्चों को गोद में लिए उन्हें खिलाया करती थी। बाद में जब तुम्हारे अपने दो भाई घर आए तो तुमने पड़ोसियों के बच्चों को गोद में भी लेना छोड़ दिया था। कोई तुम्हें बुलाता तो तुम तपाक से कहती- अब तो मेरे भाई है न ,मैं क्यों आऊं? ऐसी थी तुम नटखट, शैतान की नानी।कब मेरी बेटी इतनी बड़ी हो गई थी कि स्कूल से कॉलेज और पढाई पूरी कर, अध्यापिका बन एक दूसरे प्रांत में नौकरी भी करने चली गई , पता ही नहीं चला। तुम्हारे जाने के बाद मैं बहुत रोई थी क्योंकि मैं अकेली जो रह गयी थी। हर काम हम मिल कर किया करते थे। कहीं जाना हो हो, शॉपिंग करनी हो, फ़िल्म देखनी हो, घर में काम हो, सब मिल कर ही तो करते थे हम और तुम्हारे जाने से मेरी सहेली जैसे दूर हो गई थी।जानती हो, जब तुम चली गई थी तो पड़ोसियों, रिश्तेदारों, जान-पहचान वालों….सभी ने मुझसे कहा था कि कैसी और कितनी पत्थरदिल हो तुम! तुम्हारी एक ही बेटी और उसे भी तुमने इतनी दूर भेज दिया! तो मैंने कहा था था कि हां, मैं तो ऐसी ही पत्थर दिल हूँ। पर बेटी मेरा सोचना था कि अपने बच्चों को सपने देखने के लिए खुला आसमान देना चाहिए और उन सपनों को पूरा करने की उड़ान भरने में माता-पिता को बाधक नहीं सहायक होना चाहिए और मैंने यही किया।इन वर्षों में कितना कुछ घटा। तुम्हारा और तुम्हारे भाइयों का विवाह हुआ, तुम तीनों बहिन-भाई माता-पिता बने और हम नाना-नानी और दादा-दादी बने। हमारा परिवार पूर्ण हुआ । इस बीच दो-तीन बार तुम्हारे पापा इतने बीमार भी पड़े कि ऐसा लगने लगता था कहीं हमें छोड़ कर न चले जाएँ। तब तुम्हारा बार बार छुट्टियाँ लेकर आना, रह कर हमें मजबूती देना और अपने पापा की सेवा करना, मुझे ढाँढस बँधाना, घर के सारे काम करना, क्या मैं कभी भूल सकती हूँ?दिन बदले, समय बदला, पर मेरा-तुम्हारा सहेलियों वाला रिश्ता नहीं बदला। थोड़े-बहुत उतार-चढाव आये जरूर, पर रिश्तों की सुंदरता और गर्माहट वैसी ही बनी रही। उम्र बढ़ने के साथ शक्ति कम होने से मैं तुम पर और भी अधिक निर्भर होने लगी थी। फोन पर लंबी-लंबी बातें किए बिना हमें तो जैसे चैन ही नहीं आता था। तुम्हारे पापा भी कहते थे कि तुम दोनों माँ-बेटी द्रौपदी के चीर की तरह इतनी देर तक क्या बतियाती रहती हो। तभी तो जब तुम अपनी नौकरी से स्वैच्छिक सेवनिवृत्ति लेकर आई तो सबसे ज्यादा खुश मैं और तुम्हारे पापा ही थे , क्योंकि हम तुम्हारे आने से अपने को मजबूत समझने लगे थे। हमारा अकेलापन कम हो गया था।लिखने की तो मेरी बेटी इतनी बातें हैं मेरे पास कि अगर उन सब बातों को लिखना शुरू करूँ तो ये पत्र कभी खत्म ही न हो।हमारी खुशियाँ लौट आईं थी की पहले तुम्हारे पापा बीमार हुए, वे संभले तो मैंने बिस्तर पकड़ लिया। उस समय तुम और तुम्हारे पूरे परिवार ने जिस तरह हमें संभाला, उसके लिए हमें तुम पर गर्व है। बेटियाँ किस तरह अपने माता-पिता का शक्ति स्तंभ बिना कहे बन जाती हैं ये तुम्हें देख कर ही मैंने जाना। मुझे एक ही दुःख सालता है कि मैं चलते समय तुम्हें कुछ कह नहीं सकी। मैंने तुम्हारा इंतज़ार नहीं किया। मैं तुम्हारे पापा और तुम्हारी आँखों में अपने खोने का डर रोज़ देख रही रही थी। मैं चाहती थी कि मैं ख़ुशी बन कर तुम दोनों की यादों में जीऊँ, डर बन कर नहीं, बस इसीलिए बिना कुछ कहे, तुम दोनों का इंतज़ार किए बिना चली गई। इंतज़ार करती तो तुम दोनों क्या मुझे जाने देते। ये बात अलग है कि मेरे जाते ही तुम्हारे पापा भी तुम्हें छोड़ कर मेरे पास आ गए। हमारे बिना तुम कितनी अकेली हो, कितनी दुखी हो, बस इसी से हम बहुत दुखी हैं। पर मैं जानती हूँ कि मेरी साहसी बेटी हमे अपनी स्मृति में बसाए हुए हमारे अधूरे और अपने पूरे सपनों को अवश्य पूरा करेगी।पुनर्जन्म में हमें पूरा विश्वास है और तुमने हमारे लिए एक कविता लिखी थी न, उसकी कुछ पंक्तियाँ मुझे याद आ रही हैं…..पुनर्जन्म जब भी हो तुम्हाराफिर से जीवन साथी बननाऔर जब माता-पिता बनो तुम मुझको ही अपनी बेटी चुनना।इसलिए हम तो अब इसी प्रतीक्षा में हैं अपने इसी विश्वास को लिए हुए कि हमारा पुनर्जन्म अवश्य होगा, हम फिर जीवन … Read more

मदर्स डे : कौन है बेहतर माँ या मॉम

कहते है हर चीज परिवर्तनशील है समय बदलता है तो सब कुछ बदल जाता है | पर सृष्टि का पहला रिश्ता माँ और संतानं का आज भी यथावत है………. आज भी माँ का अपनी संतान के प्रति वही स्नेह है वही कोमल भावनाएं हैं |फिर भी समय के साथ माँ की सोंच में उसके दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ है | अगर एक एक पीढ़ी पहले तक कि माँ की बात करे तो माँ की धुरी केवल बच्चे हुआ करते थे | उसका पूरा समय बच्चो में जाया करता था |उसके ईतर वो अपने लिए कुछ भी नहीं सोचती थी |बच्चे बड़े होते थे …. अपने अपने घर बसाते थे और माँ एकाकी महसूस करती थी,अपने को छला हुआ महसूस करती थी | वहीं आज माओं में परिवर्तन आया है |माँ और बच्चे का ममता का रिश्ता यथावत है पर वो अपने बारे में भी सोंचती है ,कुछ समय अपने लिए भी निकालती है,उसके कुछ शौक हैं जिन्हें वो पूरा करना चाहती है कुछ सपने है जिन्हें वो पाना चाहती है ऐसे में कई बार वो अपने बच्चो को उतना समय नहीं दे पाती जितना वो चाहते हैं ,पर जीवन के विविध पहलुओ पर राय ज्यादा बेहतर दे पाती है |तो फिर बेहतर कौन है “माँ या मॉम “अटूट बंधन टीम नें इस विषय पर विचार आमंत्रित किये …… यह एक बहुत रोचक प्रयोग रहा हर आयु वर्ग के लोगों ने बढ़ –चढ़ कर हिस्सा लिया | उनमें से कुछ के विचार हम यहाँ आप सब के लिए लाये हैं | नो डाउट मॉम बेहतर है मेरे विचार से मॉम बेहतर है | एक माँ का अपने बारे में कुछ सोचना कैसे गलत हो सकता है पहले कई पीढ़ियों में माँ पढ़ी –लिखी नहीं थी | उसकी धुरी बच्चों के अलावा कुछ और बन ही नहीं सकता था |पहले बच्चों को पालती –पोसती थी |और उनके बड़े हो जाने पर ,अपनी दुनियाँ बसाने पर कहीं न कहीं खुद को छला महूस करती थी |आज की मॉम ने उस पीढ़ी को देखा है वो पढ़ी –लिखी है ,अपना निर्णय कर सकती है इसलिए इसलिए उसने अपने बारे में सोचना शुरू किया है जिससे वो बाद में एकाकी न हो |मेरे विचार से यह बच्चों के लिए भी बेहतर है |जानवर अपने बच्चों को एक सर्टेन ऐज तक पाल कर छोड़ देते है , तभी उनमें खुद से लड़ने कि ,खुद से सीखने कि क्षमता डीवैलप होती है |अगर माँ चौबीसों घंटे अपने बच्चों में व्यस्त रहती है |कहीं न कहीं उसके बच्चे ओवरडिपेंडेंट होते हैं ,जब वो बाद में दूसरे शहरों में नौकरी के लिए जाते हैं तो उन्हें परिस्तिथियों से एडजस्ट करने में बहुत तकलीफ होती है | जिन बच्चों ने पहले से ही यह सीखा होता है वह जल्दी एडजस्ट कर लेते हैं |…….. सरिता जैन (गृहणी ,दिल्ली ) माँ है कहाँ अब तो सब मॉम ही हैं – किस जमाने कि बात कर रहे हैं ,आज तो जहाँ देखो वहा मॉम ही हैं माँ है कहाँ ? कितनी औरते है जिन्होंने अपने सपनों को पकड़ने कि अंधी दौड़ में अपनी ममता को ही मार दिया है |सुबह नौकरी का काम पर जाने वाली माताओ का अपने बच्चों को क्रेच में छोड़ना एक अलग ही संस्कृति को जन्म दे रहा है| आज आप ओल्ड ऐज होम्स को दोष देते हैं ,पर मेरे विचार से जितने क्रेच बनेगे उसके दुगने ओल्ड ऐज होम्स बनेगे |जब बच्चों ने जाना ही नहीं कि परिवार को समय कैसे दिया जाता है तो वो केवल यही जानते हैं कि समय देने कि जरूरत है ही नहीं केवल सुविधायें देने कि जरूरत है वो तो ओल्ड ऐज होम्स में मिल ही जाती है | स्त्री का स्वप्न देखना गलत नहीं है पर महत्वाकांक्षा कब अति मव्त्वाकांक्षा में बदल जाती है स्वयं माँ को ही नहीं पता चलता |पहले समाज में बराबर वर्गीकरण था पुरुष घर के बाहर रहते थे और औरतें घर में |तभी बच्चों कि सही परवरिश हो सकती थी |अब दोनों जब अपने –अपने काम का बोझ ले कर घर लौटते हैं तो बस बुल फाइटिंग होती है ,आरोप –प्रत्यारोप होते हैं कि “बच्चों कि जिम्मेदारी तेरी है ,बच्चों कि जिम्मेदारी तेरी है ,और बच्चे कोने में दुबक कर अपने नसीब को रोते हैं “हे भगवन मुझे क्यों जन्म दिया |जहाँ तक मैं समझता हूँ स्त्री किसी परिवार का दिल है और इस दिल को हमेशा धड़कते रहने के लिए उसका सिर्फ मां होना काफी है, उसे मॉम बनने की कोशिश करने की जरूरत नहीं। संजीत शुक्ला ( व्यवसायी ) समय प्रबंधन मॉम को बेहतर बनाता है –माँ और बच्चे का रिश्ता हर युग में वैसा ही रहा है वैसा ही रहेगा |पर मेरे विचार से अगर माँ अपने बच्चे को ठीक ढंग से पाल रही है उस की शिक्षा और जरूरतों को पूरा कर रही है और फिर अपने लिए भी थोड़ा सा आकाश चाह रही है तो इसमें गलत क्या है|आज जब की संयुक्त परिवार घट गए हैं|हर घर में एक या दो बच्चे हैं तो माँ दिन भर घर में बच्चों के चारों ओर घूम कर क्या करे ?जाहिर सी बात है वो अपना समय फालतू की गॉसिप में टी वी बरबाद करेगी | ऐसे में अगर माँ अपने बारे में कुछ सोचती है तो ,अपने सपनों का आकाश पाना चाहती है ,तो बच्चों पर कोई गलत असर नहीं पडेगा |कई बार माँ घर में ही रहती है ,अपने बारे में कुछ नहीं भी सोचती है फिर भी रिश्तों –नातों और घर के कामों में इतना उलझी रहती है कि बच्चों को पूरा समय नहीं दे पाती है …. फिर उसकी जिंदगी कि धुरी में बच्चे रहने से भी क्या फायदा ?एक कहावत है “अगर आप चाहते हैं कि कोई काम समय पर पूरा हो जाए तो उसे दुनियाँ के सबसे व्यस्त व्यक्ति को दे दो “ |क्योंकि व्यस्त व्यक्ति को समय प्रबंधन आता है ,इसलिए वो काम कर ले जाएगा | यही बात मॉमपर लागू होती है |मॉम को समय प्रबंधन आता है |वो अपने लिए व् बच्चों के लिए समय इस तरह से बांटती है कि सब सुचारू रूप से चले न बच्चों को असुविधा झेलनी पड़े न उसके … Read more

मदर्स डे : माँ को समर्पित सात स्त्री स्वर

                                 वो माँ भी है और बेटी भी |इस अनमोल रिश्ते में अनमोल प्रेम तो है ही पर जहाँ एक और उसके ह्रदय में अपनी माँ के प्रति कृतज्ञता का भाव है वहीँ अपने बच्चों के प्रति कर्तव्य  का बोध | कैसे संभाल पाती है एक स्त्री  स्नेह के इन दो सागरों को एक साथ | तभी तो छलक जाती हैं बार बार आँखें , और लोग कहतें हैं की औरतें रोती बहुत हैं | आज मदर्स डे के अवसर पर हम लाये हैं एक साथ सात स्त्री स्वर , देखिये कहीं आप की आँखें भी न छलक पड़ें | इसमें आप पढेंगें वंदना गुप्ता , संगीता सिंह ” भावना “, डॉ . किरण मिश्रा , आभा खरे , सरस दरबारी , डॉ . रमा द्विवेदी और अलका रानी की कवितायें  कब आओगी तुम  माँ कहाँ हो तुम ? जाने से पहले यूँ भी न सोचा तुम्हारे बाद मेरा क्या होगा? कौन मुझे चाहेगा? कौन मुझे दुलारेगा ? मेरे होठों की हँसी के लिए कौन तड़प -तड़प जाएगा मेरी इक आह पर कौन सिसक- सिसक जाएगा पिता ने तो अपनी नई दुनिया बसा ली है अब तो नई माँ की हर बात उन्होंने मान ली है तुम ही बताओ अब कहाँ जाऊँ मैं किसे माँ कहकर पुकारूँ मैं यहाँ पग-पग पर ठोकर और गाली है तुम्हारी लाडली के लिए अब कोई जगह न खाली है माँ , कहाँ हो तुम ? क्या मेरे दर्द को नही जानती क्या अब तुम्हें दर्द नही होता अपनी बेटी की पीड़ा से क्या अब तुम्हारा दिल नही रोता क्यूँ चली गई जहान छोड़कर मुझे भरी दुनिया में अकेला छोड़कर किससे अपने सुख दुःख बाटूँ कैसे मन के गुबार निकालूं? कौन है जो मेरा है ? ये कैसा रैन-बसेरा है ? जहाँ कोई नही मेरा है अब तो घुट-घुट कर जीती हूँ और खून के आंसू पीती हूँ जिस लाडली के कदम जमीं पर न पड़े कभी वो उसी जमीं पर सोती है और तुम्हारी बाट जोहती है इक बार तो आओगी तुम मुझे अपने गले लगाओगी तुम मुझे हर दुःख की छाया से कभी तो मुक्त कराओगी तुम बोलो न माँ कब आओगी तुम ? कब आओगी तुम? वंदना गुप्ता अनुपम कृति है …..’माँ ‘ मैं भी लिखना चाहती हूँ माँ पर कविता , माँ यशोदा की तरह प्यारी न्यारि …… लिखती हूँ जब कागज के पन्नों पर , एक स्नेहिल छवि उभरती है शायद…….संसार की सबसे अनुपम कृति है …..’माँ ‘ जब भी सोचती हूँ माँ को , हर बार या यूं कहें बार-बार माँ के गोद की सुकून भरी रात और साथ ही ,,,,,, नरमी और ममता का आंचल और भी बहुत कुछ प्यार की झिड़की ,तो संग ही दुवाओं का अंबार ऐसा होता है माँ का प्यार ……. हर शब्द से छलक़ता ,,,,, प्यार ही प्यार … सच तो यह है कि, माँ की ममता का नेह और समर्पण , ही पहचान है ,उसकी अपनी तभी तो इस जगत में, ”माँ” महान है …….!!! संगीता सिंह ”भावना” माँ का सबक  जब उड़ने लगती है सड़क पर धूल और नीद के आगोश में होता है फुटपाथ तब बीते पलों के साथ मैं आ बैठती हूँ बालकनी में , अपने बीत चुके वैभव को ,अभाव में तौलती अपनी आँखों की नमी को बढाती पीड़ाओं को गले लगाती । तभी न जाने कहां से आ कर माँ पीड़ाओं को परे हटा हँस कर , मेरी पनीली आँखों को मोड़ देती है फुटपाथ की तरफ और बिन कहे सिखा देती है अभाव में भाव का फ़लसफा । मेरे होठों पर , सजा के संतुष्टि की मुस्कान मुझे ले कर चल पडती है पीड़ाओं के जंगल में जहाँ बिखरी पडी हैं तमाम पीड़ायें मजबूर स्त्रियां मजदूर बचपन मरता किसान इनकी पीड़ा दिखा सहज ही बता जाती हैं मेरे जीवन के मकसद को अब मैं अपनी पीड़ा को बना के जुगनू खोज खोज के उन सबकी पीड़ाओं से बदल रही हूँ माँ की दी हुई मुस्कान और सार्थक कर रही हूँ माँ के दिए हुए इस जीवन को। डॉ किरण मिश्रा माँ को समर्पित  बढ़ती उम्र के साथ अब मै माँ तुम जैसी लगने लगी हूँ.. इतराती हूँ और ख़ुद को तुम जैसी ख़ूबसूरत कहने लगी हूँ.. तेरी बिंदिया और पायल पहन मैं और भी सजने संवरने लगी हूँ… चुराकर तेरी मुस्कान की खुश्बू हरसिंगार सी महकने लगी हूँ .. मेरे हाथों में हो तेरे हांथों का हुनर ईश्वर से ये दुआ मांगने लगी हूँ… उतरा है यूँ तेरा नूर मुझपर तेरी तरह बच्चों के नखरे सहने लगी हूँ… दूर होकर भी तू होती है पास मेरे जबसे सितारों से दोस्ती करने लगी हूँ…!!! आभा खरे तूने मुझे शर्मसार किया  ‘पुत्रवती भव’ रोम रोम हर्षित हुआ था – जब घर के बड़ों ने – मुझ नव-वधु को यह आशीष दिया था – कोख में आते ही – तेरी ही कल्पनाओं में सराबोर! बड़ी बेसब्री से काटे थे वह नौ महीने … तू कैसा होगा रे- तुझे सोच सोच भरमाती सुबह शाम! बस आजा तू यही मनाती दिन रात …… गोद में लेते ही तुझे- रोम रोम पुलक उठा था – लगा ईश्वर ने मेरी झोली को आकंठ भर दिया था !! ————- आज….. तूने …मेरी झोली भर दी ! शर्म से… उन गालियों से- जो हर गली हर मोड़ पर बिछ रही हैं … उस धिक्कार से – जो हर आत्मा से निकल रही है … उस व्यथा से – जो हर पीडिता के दिल से टपक रही है … उन बददुआओंसे – जो मेरी कोख पर बरस रही हैं ….! मैंने तो इक इंसान जना था – फिर – यह वहशी ! कब ,क्यूँ , कैसे हो गया तू … आज मेरी झोली में नफरत है – घृणा है – गालियाँ हैं – तिरस्कार है – जो लोगों से मिला – ग्लानि है – रोष है – तड़प है- पछतावा है- जो तूने दिया !!! जिसे माँगा था इतनी दुआओंसे – वही बददुआ बन गया ! तूने सिर्फ मुझे नहीं – ‘ माँ’ – शब्द को शर्मसार किया … सरस दरबारी माँ के आंचल को मैं तरसती रही… मेरी सांसों … Read more

मदर्स डे : माँ को समर्पित कुछ भाव पुष्प ~रंगनाथ द्विवेदी

जहाँ एक तरफ माँ का प्यार अनमोल है वही हर संतान अपनी माँ के प्रति भावनाओं का समुद्र सीने में छुपाये रखती है | हमने एक आदत सी बना रखी है ” माँ से कुछ न कहने की ” खासकर पुरुष एक उम्र के बाद ” माँ मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ ” कह ही नहीं पाते | मदर्स डे उन भावनाओं को अभिव्यक्त करने का अवसर देता है | इसी अवसर का लाभ उठाते हुए रंगनाथ द्विवेदी जी ने माँ के प्रति कुछ भाव पुष्प अर्पित किये हैं | जिनकी सुगंध हर माँ और बच्चे को सुवासित कर देगी | माँ की दुआ आती है मै घंटो बतियाता हूं माँ की कब्र से, मुझे एैसा लगता है कि जैसे——- इस कब्र से भी मेरी माँ की दुआ आती है। नही करती मेरी सरिके हयात भी ये यकिने मोहब्बत, कि इस बेटे से मोहब्बत के लिये, कब्र से बाहर निकल———- मेरे माँ की रुह यहां आती है। जब कभी थकन भरे ये सर मै रखता हू, कुछ पल को आ जाती है नींद, किसी को क्या पता?———– कि मेरी माँ की कब्र से जन्नत की हवा आती है। एै,रंग—-ये महज एक कब्र भर नही मेरी माँ है, जिससे इस बेटे के लिये अब भी दुआ आती है। ठंड मे माँ———– जिस जगह गीला था वहाँ सोयी थी।ठंड-दर-ठंड———तू कितना बडा हो गया बेटे,कि तू हफ्तो नही आता अपनी माँ के पास।देख आज भी गीला है———माँ का वे बीस्तर!बस फर्क है इतना कि पहले तू भीगोता था,अब इसलिये भीगा है रंग———-कि माँ रात भर रोयी थी।ठंड मे माँ—————जिस जगह गीला था वहाँ सोयी थी। माँ पर लघु कवितायें १——-मै घंटो बतियाता हूँ माँ की कब्र से,ऐ,रंग—-ऐसा मुझे लगता है कि!जैसे इस कब्र से भी—————मेरे माँ की दुआ आती है। २————–भूखी माँ सुबह तलक—-भूख से बिलबिलाती बेटी के लिये,लोरी गाती रही।पड़ोसीयो ने कहा बेटी मर गई,ऐ,रंग—-वे इस सबसे बे-खबर!कहके चाँद को रोटी गाती रही। ३———–माँ—————मै आज ढ़ेरो खाता हूँ,पर तेरी चुपड़ी रोटी की भूख रह जाती है।आज सब कुछ है———–स्लिपवेल के गद्दे,एसी कमरे,पर नींद घंटो नही आती है।ऐ,रंग—-यादो मे!माँ की गोद और लोरी रह जाती। ४———–बचपन होता बचपन की चोरियाँ होती,माँ मै चैन से सोता————–इस पत्थर के शहर में,गर तू होती और तेरी लोरीयाँ होती। रंगनाथ दुबे

मदर्स डे पर विशेष- प्रिय बेटे सौरभ

एक माँ का पत्र बेटे के नाम               प्रिय बेटे सौरभ ,                              आज तुम पूरे एक साल के हो गए | मन भावुक है याद आता है आज ही का दिन जब ईश्वर ने तुम्हे मेरी गोद में डाला था तब मैं तो जैसे पूर्ण हो गयी थी | जिसे पूरे नौ महीने अपने अन्दर छुपा कर रखा , पल –पल जिसका इंतज़ार किया उसे देखना छूना कितना सुखद है | हाँ  महसूस तो मैं तुम्हे पहले से ही कर रही थी अपने गर्भ  के अन्दर | जब लगता था किसी कली  को अपने अन्दर कैद कर लिया है | जो पल –पल खिल रही है | मेरी जिंदगी अब तुम्हारे चारों और घूमती है , सुबह से रात तक | जानती हो तुम्हारी नानी हँसती  हैं , कहती है ,” ये कल की बिटिया मम्मी बनते ही बदल गयी | और क्यों न बदलूँ  , तुम हो ही इतने प्यारे | जब तुम खेलते –खेलते आकर मुझे देख जाते हो , मुझे देखते ही किसी की गोदी से उतर कर मेरे पास आने की जिद करते हो या मुझे किसी दूसरे बच्चे को गोद में उठाता हुआ देखकर रोने लगते हो , तो अपने वजूद पर अभिमान हो उठता है | मेरे नन्हे से फ़रिश्ते ईश्वर तुम्हे खूब लंबी  आयु  व् जीवन की हर ख़ुशी दें | अले ले ले … का तुमने तो रोना शुरू कर दिया … अब पत्र लिखना बंद , मेरा बेटू  बुलाएगा तो मम्मी सबसे पहले उसके पास जायेगी | ************************************************************************** प्रिय बेटे सौरभ            आज तुम पूरे ५ साल के हो गए | तुम्हारा स्कूल का पहला दिन | जब तुम्हे तुम्हारी टीचर मुझसे दूर कर के क्लास में ले जा रही थी और तुम बेतरह मुझे देख कर मम्मी , मम्मी चीख रहे थे | उफ़ ! जैसे मेरा कालेज कटा  जा रहा था | फिर भी उपर –ऊपर से तुम्हे मोटिवेट कर रही थी ,” अरे पढ़ेगा नहीं तो ,  तो कमाएगा कैसे ? फिर  अपनी मम्मी के लिए सुंदर  साड़ी   कैसे लाएगा , क्या मैं हमेशा पापा की लायी साड़ी  ही पहनती रहूंगी , बेटे की दी  नहीं | इतना सुनते ही तुम जैसे जिम्मेदारी  के अहसास से भर गए | थोडा सुबकते ही सही पर आँसू पोंछ कर चुपचाप क्लास में चले गए | और मैं पूरा दिन घर में बेचैनी से तुम्हारा इंतज़ार करती रही | कितना बुरा लग रहा था आज करीने से सजा घर | हर चीज जहाँ की तहां | न बात – बात पर रोने चीखने की आवाज़े न खिलखिलाकर हंसने की | ये भी कोई घर है | पर शुक्र है भगवान् का तुम्हारे  आते ही सब कुछ पहले जैसा हो गया |  हाँ  इतना फर्क जरूर आया है की अब तुम समझदार होने लगे हो ,” तभी तो मेरे पिछले बर्थ डे पर छुप –छुप  कर मेरे लिए कार्ड बनाते रहे और सुबह मेरे उठते ही , “ हैप्पी  बर्थडे टू यू  मम्मी कह कर गले  से लग गए | कार्ड क्या . कुछ आड़ी  तिरछी  रेखाए , पर ये कार्ड मेरे जीवन का सबसे अनमोल तोहफा है | और उससे भी अनमोल तोहफा है बात बात पर तुम्हारा कहना ,” मम्मी आप दुनिया की सबसे अच्छी मम्मी हो | |मेरी बगिया  के फूल जीते रहो मेरे लाल | ************************************************************************* प्रिय बेटे सौरभ              आज तुम पूरे १४ साल के हो गए | मन में अपने पौधे  को बढ़ते हुए देखने की ख़ुशी तो है पर ये क्या … क्या हो गया मेरे लाल , क्यों  तुम मुझसे दूर जा रहे हो |  मैं तो वही हूँ , फिर क्यों तुम्हे मेरी हर बात गलत दिखाई देती है | मैं तो पहले की ही तरह खाने –पीने सोने हर बात में तुम्हारा ध्यान रखती हूँ | पर अब तुम्हे वो ध्यान नहीं टोंका टोंकी लगने लागा है | “ माय लाइफ , माय  रूल्स “ का जुमला जो तुम बार – बार उछालते हो तो सुन लो बेटा मैं ऐसे कैसे तुम्हे अपनी मर्जी चलने दूं | आखिरकार तुम मुझसे पृथक तो नहीं हो | तुम मेरे अंश हो | और वो क्या जो तुम दोस्तों से कहते फिरते हो ,” मम्मी चैनल “ जो दिन भर नॉन स्टॉप चलता रहता है |  अपने बच्चे का ध्यान रखना गलत है क्या ? पर किससे कहूँ  तुम्हे तो मेरी हर बात से शिकायत है , मेरा बनाया खाना अच्छा नहीं लगता … दोस्त की मम्मी अच्छा बनाती है , मैं ठीक से कपडे प्रेस नहीं करती , सलवट रह जाती है | दोस्त की मम्मी ने साइंस  पढ़ा दी  इसलिए उसके नंबर अच्छे आ गए … और फिर उलाहना में कहना ,” मैं कहाँ से अच्छे नम्बर लाऊं तुम्हे तो साइंस भी नहीं आती | बेटा क्या साइंस न आना किसी माँ का इतना बड़ा दोष होता है | उस दिन जो तुम कहते –कहते रूक गए , “ हिटलर माँ टोंका –टांकी  न करो ,” आप तो दुनिया की सबसे बुरी … “ | तुमने तो कह दिया पर मैं घंटों तकिये में मुँह छिपाए रोती  रही | तुम्हारे पापा कह रहे थे इस उम्र में होता है , सब ठीक हो जाएगा | हे प्रभु सब ठीक हो जाए ,मेरा जीवन तुम्हारे इर्द –गिर्द घूमता है | तुम मुझे गलत समझो … सहन नहीं होता … सहन नहीं होता | खूब तरक्की करो मेरे लाल | ************************************************************************** प्रिय बेटे सौरभ                 प्रतियोगी परीक्षाओं में तुम्हारा चयन इतने अच्छे कॉलेज में हो गया | मन बहुत खुश है | सभी पड़ोसनें मुझे बहुत भाग्यशाली बता रही हैं | सच में हूँ तो मैं भाग्यशाली जो तुम्हारे जैसा बेटा पाया है | पर तुम्हे घर से दूर  भेजने में बहुत बेचैनी है | कौन तुम्हारा ध्यान रखेगा | कौन कमरा साफ़ करेगा , कौन कपडे धोएगा , और तुम तो हो ही लापरवाह .. खाने पीने की सुध तो रहती नहीं | यहाँ भी तो खाना सामने पड़ा –पड़ा ठंडा होता रहता है | जब तक मैं याद न दिलाऊ , तुम खाते ही नहीं | अब वहाँ क्या खाओगे | सोंच –सोंच कर कलेजे में हूक सी उठ रही है … Read more

जाने क्यूँ मुझको मेरी माँ मेरी बेटी लगती है !

उषा लाल                              जाने क्यूँ मुझको मेरी माँ                            मेरी बेटी लगती है ! घड़ी घड़ी जिज्ञासित हो करबहुत प्रश्न वह करती है भर कौतूहल आँखों मेंहर नई वस्तु को तकती है ! बात बात पर घूम घूम फिरवही सवाल उठाती हैउत्तर पा कर , याददाश्त कोवह दोषी ठहराती है ! जोश वही है उनका अब भीचाहे पौरुष साथ न देसब कुछ करने को आतुर वहघर में जो भी काम दिखे ! निद्रामग्न रहें जब बेसुधशिशु समान वह दिखतीहैवयस तिरासी बिता चुकी हैलेकिन दो ही लगती है ! बचपन में मुझको अम्माँ , इकआटे की चिड़िया दे करचौके में बैठा लेती थीखेल कूद में उलझा कर! जी करता है मैं भी उनकोकुछ वैसे ही बहलाऊँछोटे छोटे बर्तन ला करचूल्हा – चौका करवाऊँ ! ईश्वर दया दिखाना इतनीउन्हें सुरक्षित तुम रखनाहाथ -पाँव सब स्वस्थ रहेंबस बोझ किसी पर मत करना! बिना दाँत का भोला मुखड़ाकितनी प्यारी दिखती हैजाने क्यूँ मुझको मेरी माँ मुझको मेरी बेटी लगती है  indianvoice से साभार

मदर्स डे पर माँ को समर्पित भावनाओ का गुलदस्ता

                                                                                                                                 माँ एक ऐसा शब्द है जो अपने आप में पूरे ब्रह्माण्ड को समेटे हुए है ।माँ कहते ही भावनाओं का एक सागर उमड़ता है,स्नेह का अभूतपूर्व अहसास होता है ,………और क्यों न हो ये रिश्ता तो जन्म से पहले जुड़ जाता है  निश्छल और निस्वार्थ प्रेम का साकार रूप है  ….   मदर्स डे पर कुछ लिखने से पहले मैं अपनी माँ को और संसार की समस्त माताओ को सादर नमन करती हूँ। ……….  हे माँ  अपने चरणों में  स्वीकार करो  नमन मेरा । धन वैभव इन सबसे बढ़कर,है अनमोल आशीष तेरा ॥  ,                                                                    कहते हैं  माँ के ऋण से कोई उऋण नहीं हो सकता । सच ही है उस निर्मल निस्वार्थ ,त्यागमयी प्रेम की कहीं से किसी से  भी तुलना नहीं हो सकती ।   कोई लेखक हो या न हो , कवि हो या न हो शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसने कभी न कभी अपनी  माँ के प्रति भावनाओं को शब्दों में पिरोने की कोशिश न की हो ।पर शायद   ही संसार की कोई ऐसी कविता हो , लेख हो ,कहानी हो जो माँ के प्रति हमारी भावनाओं को पूरी पूरी तरह से व्यक्त कर सकती हो । शब्द बौने पड  जाते हैं । भावनाएं शब्दातीत हो जाती है । माँ पर मैंने अनेकों कविताएं लिखी है पर जब आज” मदर्स डे ” जब कुछ शब्दों पुष्पों  के द्वारा  माँ के प्रति अपने स्नेह को व्यक्त करने का प्रयास किया…तो बस इतना ही लिख पायी  .    माँ ,क्या तुमको मैं आज दूं । तुमसे निर्मित ही तो मैं हूँ ॥ कुछ दिया नहीं बस पाया है । आज भी कुछ मांगती हूँ ॥ जाने -अनजाने अपराधों की । बस क्षमा मांगती हूँ तुमसे । बस क्षमा मांगती हूँ तुमसे  ॥                           माँ का भारतीय संस्कृति में सदा से सबसे ऊंचा स्थान रहा है । यह सच है की माँ के लिए अपनी भावनाएं व्यक्त करने के लिए समस्त जीवन ही कम है । पर ये दिन शायद इसी लिए बनाये जाते हैं की कि उस दिन हम सामूहिक रूप से भावनाओं का प्रदर्शन करें  ।  …………भाई बहन का त्यौहार रक्षा बंधन , पति के लिए करवाचौथ ,या संतान के लिए अहोई अष्टमी इसका उदाहरण है। “अटूट बंधन ” परिवार ने पूरा सप्ताह माँ को समर्पित करा है । जिसमें आप सब ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया । उसके लिए हम आप सब का धन्यवाद करते हैं । आज मदर्स डे  पर “माँ कोई तुझ जैसा कहाँ ” श्रृंखला की  सातवी व् अंतिम कड़ी के रूप में हम  आप के लिए माँ पर लिखी हुई कवितायेँ लाये हैं ।  वास्तव में यह कविताएं नहीं हैं भावनाओं का गुलदस्ता है। जिसमें अलग -अलग रंगों के फूल हैं । जो त्याग और ,निश्वार्थ प्रेम की देवी  ,घर में ईश्वर का साकार रूप माँ के चरणों में समर्पित हैं                                     वंदना बाजपेयी  मैं भी लिखना चाहती हूँ  माँ पर कविता , माँ यशोदा की तरह प्यारी न्यारि …… लिखती हूँ जब कागज के पन्नों पर , एक स्नेहिल छवि उभरती है                                         शायद…….संसार की सबसे अनुपम कृति है …..’माँ ‘ जब भी सोचती हूँ माँ को , हर बार या यूं कहें बार-बार माँ के गोद की सुकून भरी रात और साथ ही ,,,,,, नरमी और ममता का आंचल और भी बहुत कुछ प्यार की झिड़की ,तो संग ही दुवाओं का अंबार ऐसा होता है माँ का प्यार ……. हर शब्द से छलक़ता ,,,,, प्यार ही प्यार … सच तो यह है कि, माँ की ममता का नेह और समर्पण , ही पहचान है ,उसकी अपनी तभी तो इस जगत में, ”माँ” महान है …….!!!          संगीता सिंह ”भावना”   माँ आज समझ सकती हू माँ तेरा वो भीगी पलकों में तेरा मुस्कुराना हसकर सब सहते हुए भी अपने सारे दर्द छुपाना न बताना किसी को कुछ अपनों से भी अपने ज़ख्म छुपाना जब दे कर जोर पूछती मैं तो यही होता हरदम तुम्हारा जवाब न बताना किसी को दुःख अपने यह दुनिया है बड़ी ख़राब यह सब सामने तो सुनती पर पीठ पीछे हसती है न बता सकते हम दुःख माँ बाप को क्योंकि बेटियो में उनकी जान बसती है वो भी दुखी होते है बेटियो के साथ न देख पाते है बेटियो के टूटे ख्वाब न कर पायेगे वो फिर इज़्ज़त दामाद की देखेगे जब उनको तो याद आएगी बेटी के टूटे हुए अरमानो की पर इतना याद रखना मेरी बच्ची तुम भी एक औरत हो कल तुम्हे भी ब्याह कर किसी के घर जाना है जो न करवा पाती अपने पति कि इज़्ज़त उनकी भी इज़्ज़त कहा करता यह ज़माना है ! दर्द हो जो भी उसे अपने अंदर समेट के रखना लेकिन हद से ज्यादा ज्यादतियां भी कभी न तुम बर्दाश्त करना थोड़ी बहुत कहासुनी हर घर में होती है कभी न उसे झगड़े का रूप तुम देना !!! गर्व होता अब मुझे खुद पर मैं भी तुम्हारी तरह हो गई हूँ माँ तुम्हारी ही तरह झूठी जिंदगी जीना मैं भी अब सीख गई हूँ माँ भीगी पलकों से अब मैं भी मुस्कुराती हू किसी को न अपना दर्द सुनाती हू गर हो गई कभी इंतेहा दर्द की तो आँखे बंद कर सपनो में मैं तुम्हारी गोद में सो जाती हू मन ही मन बता देती हू तुम्हे सारे दर्द अपने सर पर तुम्हारे हाथो का प्यार भरा स्पर्श तब पाती हू आ जाती है एक नयी … Read more