अभिशाप

    “कम आन मम्मा!कब तक यूं ही डर के साथ जीती रहोगी। अब साइंस ने बहुत प्रोग्रेस कर ली है ;फिर आप तो एजुकेटेड है।” साक्षी ने मचलते हुए रंजीता से फरमाइश की “अब मुझे वो तीखे वाले पकोड़े खिलाओ और मेरे लिए आचार की सारी वेराइटीज पैक कर दो, आकाश मुझे लेने आता ही होगा।” आदर्श माँ की तरह रंजीता साक्षी की इच्छा पूरी करने के लिए किचन में घुस गई। बेटी उसी शहर में ब्याही हो तो माँ उसके सारे लाड-चाव पहले कि तरह ही कर सकती है, तिस पर अभी -अभी साक्षी ने कन्सीव किया है। तीखा खाने का मन तो होगा ही। पर वो डर अब रंजीता के दिल -दिमाग के साथ -साथ जैसे उसके हर रोयें में आ बसा है ।                                            पचास पार कर चुकी  रंजीता जब पांच वर्ष की थी तब से वो माहौल उसके अस्तित्व के साथ चिपक -सा गया था।  आकाश व साक्षी के जाने के बाद उसने चीनू को पकोड़े खिलाये; मुँह साफ किया और व्हील चेयर पर उसे गार्डन में घुमाने ले गई। डॉक्टर साहब क्लीनिक से देर से ही आते है अतः वह फुर्सत में थी। रोजाना की ही तरह 28 वर्षीय चीनू  गार्डन में बैठा फूल ,पत्ती, तितली का ड्राइंग बनाता और माँ की शाबासी पाने की अपेक्षा से उसे देखता। रंजीता के मुस्कराते ही हो -हो करके हँसता और ताली बजाता। रंजीता उसके मुँह से गिरती लार को बार -बार पोंछती। नाती के आने की ख़ुशी तो उसने अब तक नहीँ मनाई थी उल्टे बार -बार दुश्चिंता के बादलों में घिरती जाती थी कि कहीँ साक्षी भी अपनी माँ और नानी की तरह वो खानदानी अभिशाप झेलेगी। न वो अपने जने को छोड़ पायेगी और न उसको दीर्घायु होने की दुआ दे पायेगी। उसका जीवन भी एक कैद बनकर रह जायेगा।                     अतीत की घटनाओं की परत दर परत खुलने लगी थी। उसने अपने पांचवें वर्ष से शुरू किया। माँ ने बताया कि जब वो दो वर्ष की थी तब गोविन्द का जन्म हुआ। दादी ने चाव से कुँआ पुजवाया, बड़ा भोज किया,बहू को ढेरों आशीर्वाद दिये। पर तीन वर्ष का होने पर भी जब गोविन्द ने न चलना सीखा न ही एक अक्षर बोलना तो दादी ने उस नन्ही जान का बहिष्कार -सा कर दिया। माँ पर तानों की बरसात होने लगी। “अपने मायके के देवताओं का दोष लेकर आई है इसीलिए ऐसा पागल जना है। खबरदार जो इस जड़भरत की तीमारदारी में घर के काम का अनदेखा किया तो। आया सावन पूजा न्हावन ; कोई पहाड़ नहीँ गिरा है और जन लेना बेटे।” गोविन्द पर मक्खियां भिनकती रहती, मल-मूत्र में लिपटा रहता, भूख-प्यास का होश नहीँ। माँ की आत्मा किलकती, आँखे आंसू बहाती पर बीस लोगो के संयुक्त परिवार के काम में  लगी रहती।           रंजीता ने चीनू को जन्म तो 22वें वर्ष में दिया पर गोविन्द की माँ तो वह 5-6 वर्ष की थी तभी बन गई।  माँ चुपचाप उसे गोविन्द के लिए खाना देती,साफ कपड़े देती। नन्ही रंजीता ने भाई को खिलाना -नहलाना, दुलारना- सम्भालना सब सीख लिया। उसके एक मामा का भी यही हाल था पर नानी शायद खुशकिस्मत थी कि वो बच्चा सिर्फ आठ साल ही जिया। पर गोविन्द ने पूरे चालीस वर्ष इस संसार में सांस ली। दादी उसे कोसते- कोसते खुद संसार त्याग गई पर गोविन्द को तो उतना ही जीना था जितनी साँसे भगवान ने गिनकर उसके निमित्त रखी थी। छः भाई -बहनोँ में रंजीता सबसे सुंदर और होनहार थी। भाई की देखभाल करते-करते ही उसने बी एस सी की। 21वर्षीया वो नवयुवती विवाह योग्य हो गई थी। दान-दहेज के लिए ज्यादा पैसा पिताजी के पास नहीँ था अतः वह अपने स्तर का ही वर ढूंढ रहे थे।                                      तभी एक दिन श्रीवास्तव परिवार उनके यहाँ चाय पर आया। श्रीमती श्रीवास्तव तो रंजीता की सुघड़ता, कर्मठता और सौंदर्य पर ऐसी रीझी कि हाथों-हाथ अपने डॉक्टर बेटे यतीश का रिश्ता पक्का कर गई। बाद में उसे पता चला कि उसे कॉलेज आते -जाते देखकर यतीश ने खुद अपने माता-पिता को रिश्ता लेकर भेजा था। माँ तो ये कहते न थकती कि इसने बचपन से भाई की जो निःस्वार्थ सेवा की है उसी का इतना अच्छा फल भगवान ने दिया है।अब तो बेटी राजरानी बनकर रहेगी। विदाई के समय गोविन्द को दुलारकर रंजीता खूब रोई। उसे ससुराल में बहुत प्यार मिला। दो वर्षो के अंदर चीनू गोद में आ गया। डॉ यतीश की नजरों से ये छिपा न रहा कि चीनू भी गोविन्द की तरह मानसिक विकृति का शिकार है। बस उस दिन से आज तक चीनू को कभी उनकी प्यारभरी दृष्टि तक न मिली। रंजीता की सास ने उसकी दादी वाली भूमिका बखूबी निभाई । उसकी कोख में खानदानी विकृति बताई , देवताओँ का दोष बताया , यहाँ तक कि तलाक की धमकी भी दे डाली।  उसके सुख का साम्राज्य दो वर्ष में ही उजड़ गया।  घर के सब नोकरों की छुट्टी कर दी गई। सारा दिन घर का काम करते हुए वो अकेली ही चीनू को सम्भालती। डॉक्टर साहब की बेरुखी उसे तिल-तिल जलाती थी। जब साक्षी गर्भ में आई तो नो महीने तक उसके प्राण नखों में समाये रहे “कहीँ ये बच्चा भी चीनू जैसा…|” पिछले पच्चीस वर्षों से साक्षी ही यतीश की दुनिया है। उसे भरपूर दुलार, उच्च शिक्षा और सारी सुविधाएं दी यतीश ने। रंजीता से एक हद तक पतिधर्म निभा रहे है पर चीनू के लिए उनके जीवन में एक कतरा-भर भी जगह नहीँ है।                          गोविन्द इस दुनिया से जा चुका है।चीनू के हर जन्मदिन पर वह पूजा रखवाती है। उसे ढेरों आशीर्वाद देती है। यतीश की अनुपस्थिति चीनू के लिए कोई महत्व नही रखती। उसकी दुनिया का आदि और अंत माँ ही है पर रंजीता…। क्या विधान है ईश्वर का -एक बेर के आकार का अंश स्त्री के शरीर में कैसे धीरे -धीरे विकसित होता है। नो महीने तक रोज एक नई अनुभूति। कैसे एक पूर्ण शरीर; माँ के शरीर के भीतर से निकलकर सांस लेता है, उसे सृष्टा होने का मान देता है; उसके स्त्रीत्व को परिपूर्ण करता है। क्यों नहीँ उसे डॉ साहब जैसा मजबूत मन मिला  जो अपनी ही सृष्टि को इतनी बेदर्दी … Read more

नई बहू (लघुकथा )

   सेठानी के गुस्से की कोई सीमा ही नहीं थी। वह बड़बड़ाये जा रही थी “अब कंगले भिखरियों की भी इतनी औकात हो गई कि हमारे राजकुमार का रिश्ता ठुकरा दे। बेटी कॉलेज क्या पढ़ गई , इतने भाव बढ़ गए। ”  सेठजी गरजे “तुम्हारा राजकुमार क्या दूध का धुला है। न पढ़ने में रूचि न धंधे का शऊर ; सारा दिन आवारागर्दी करता फिरता है, तिस पर रंग भी काला।”  सेठानी के तन-बदन में आग लग गई। तुरंत नौकर को दौड़ाया कि संजोग मैरिज ब्यूरो वाले कमल बिहारी को बुला लाये। पचास हजार की गड्डी बिहारी के आगे रखकर बोली “ये पेशगी है। इस कार्तिक मास तक मुझे घर में गौरवर्णी बहू चाहिए ,जात चाहे जो हो। आगे जो मांगोगे मिलेगा। ” कमल बिहारी ने झुककर नमस्कार किया। चार लाख में बात तय रही। क्या ठाठ से राजकुमार की बारात सजी। सबकी आँखे दुल्हन के सुंदर चेहरे पर टिकी थी। शादी के आठवें दिन मेहमानों को विदा करके सेठानी ने नई बहू को हलवा बनाने को कहा। पहली बार बहू ससुराल में खाना बनाएगी सो नेग में देने को हीरे की अंगूठी तिजोरी से निकाली। दो घंटे बीत गए खाने का अता -पता नहीं। महराजिन ने बताया बहूजी तो कमरे में टी वी देख रही है।सेठानी ने बहू से कड़ककर पूछा कि कभी हलवा नहीं बनाया।  बहू ने रूखा -सा नकारात्मक उत्तर दिया “हलवा कौन बड़ी बात रही। त्यौहार पर दस -बीस घर मेंढोल बजाव हमार अम्मा ढेरों मिठाई यूं ही ले आवत रही। “  हीरे की अंगूठी पर सेठानी की मुठ्ठी कस गई। रचना व्यास  एम  ए (अंग्रेजी साहित्य  एवं  दर्शनशास्त्र),  एल एल बी ,  एम बी ए यह भी पढ़ें … अंतर – आठ अति लघु कथाएँ सम्मान बाल मनोविज्ञान पर आधारित पांच लघुकथाएं लाली  आपको    “नई बहू (लघुकथा )“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  keywords: short story,  newly wed, bride, marriage bureau

शादी – ब्याह :बढ़ता दिखावा घटता अपनापन

                                                                  आज कल शादी ब्याह ,दिखावेबाजी के अड्डे बन गए हैं | मुख्य चर्चा का विषय दूल्हा – दुल्हन व् उनके लिए शुभकामना के स्थान पर कितने की सजावट , खाने में कितने आइटम व् कितने के कपडे कितनी की ज्वेलरी हो गए हैं | ये दिखावेबाजी क्या घटते अपनेपन के कारण है | इसी विषय की पड़ताल करता रचना व्यास जी का उम्दा लेख  शादी – ब्याह :क्यों बढ़ रहा है दिखावा  हम समाज में रहते हैं साहचर्य के लिए ,अपनत्व के लिए और भावनात्मक संतुलन के लिए पर मुझे तो आजकल बयार उल्टी दिशा में बहती नजर आ रही है। अब बयार है प्रतियोगिता की, प्रदर्शन की ,एक दूसरे को नीचा दिखाने की। आजकल व्यक्तित्व, शिक्षा का स्तर व समझदारी से नहीं पहचाना जाता बल्कि कपड़े गहने ,जूते और गाड़ी से श्रेष्ठ बनता है।                                                                 एक स्त्री होने के नाते मैं गौरवान्वित हूँ  और इस प्रगतिशील युग में जन्मी होने के कारण विशेष रूप से धन्य हूँ।  हमने सभी मोर्चो पर खुद को उत्कृष्ट साबित कर दिया है। पर भीतर ये गहरी पीड़ा है कि हममेंसे ज्यादातर ऊपर बताई गई उस प्रतियोगिता की अग्रणी सदस्या है।  हम अपने बजट का ज्यादातर हिस्सा कॉस्मेटिक्स ,कपड़ों और मैचिंग ज्वैलरी पर खर्च करते हैं। संस्कृत साहित्य के महान नाटककार कालिदास का कथन है  “किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम्।”  अर्थात मधुर आकृतियों के विषय में प्रत्येक वस्तु अलंकार बन जाती है। यदि व्यक्तित्व में ओज हैं ,सात्विकता है तो साधारण श्रृंगार भी विशिष्ट प्रतीत होगा।  आज जब हम किसी पारिवारिक या सामाजिक  आयोजन में जाते है तो स्पष्ट महसूस कर सकते है कि मेजबान का पूरा ध्यान कार्यक्रम को भव्य बनाने पर रहता है। शादी ब्याह : गायब हो रहा है अपनापन  चाहे बजट बढ़ जाये पर सजावट में ,व्यंजनों की संख्या में ,मेहमानों की सुविधा में कोई कमी नहीं होनी चाहिए। वहीं मेहमान का पूरा ध्यान स्वयं को ज्यादा प्रतिष्ठित व सुंदर दिखाने पर होता है। इस बीच में बड़ो के लिए सम्मान ,छोटों के लिए आशीर्वाद और हमउम्र के लिए आत्मीयता बिलकुल गायब रहती है। मुझे आत्मिक पीड़ा ये है कि इस सबके लिए हम स्त्रियाँ ज्यादा उत्तरदायी है।  आज से पंद्रह वर्ष पूर्व तक अपने करीबी की शादी में हम हफ्ते भर रुकते थे। सारा शुभ काम उनके निवासस्थान पर ही होता। सारी स्त्रियाँ हँसते -हँसते हाथों से काम करती। गिने चुने सहायक काम के लिए होते जिन्हें गलती से भी नौकर नहीं समझा जाता था। असुविधा होने पर भी शिकायत नहीं होती थी। ख़ुशी -ख़ुशी जब वापस अपने घर लौटते तो थकान का कोई नामो -निशान भी नहीं होता। आज होटल में मेहमानों के सेपरेट रूम होते हैं। सर्वेन्ट्स की फौज होती है। पानी तक उठकर नहीं पीना पड़ता पर दो दिन बाद जब घर आते हैं तो बहुत थके होते है। क्या हमारा स्टेमिना इतना कम हो गया। दरअसल हमारे बीच का अपनत्व कम हो गया ,एक दूसरे के लिए शुभ भावना विलीन हो गई इसलिए हमें भावनात्मक ऊर्जा पूरी नहीं मिलती ,हृदय के आशीर्वाद नहीं मिलते।      अब हमें मात्र औपचारिकता निभानी होती है। दो दिन तक गुड़िया की तरह सज लो ,दिखावे को हँस लो और एक भार -सा सिर पर लादकर आ जाओ कि इनने इतना खर्च किया अब दो -तीन साल बाद मेरी बारी  है। रिसेप्शन शानदार होना चाहिए भले ही हमने अपने बेटे व बेटी को ऐसी सहिष्णुता नहीं सिखाई कि उसकी शादी सफल हो।  पहले कुछ रूपये शादी में लगते थे और हमारे दादा -दादी गोल्डन व प्लेटिनम जुबली मनाते थे। उससे आगे हजारों लगने लगे पर तलाक की नौबत कभी नही आती थी। आज लाखों -करोड़ों शादी में लगाते है और उससे भी ज्यादा तलाक के समय देना होता है।  इस सर्द दुनिया में रिश्तों की गर्माहट जरूरी है।तभी रिश्ते सजीव और चिरयुवा रहेंगे। एक अंधी दौड़ हम स्त्रियों ने ही शुरू की है क्यों न हम ही इसे खत्म कर दे। अबकी बार किसी आयोजन में जाए तो अपनी गरिमामय पोशाक में जाये। किसी के कपड़ो की समीक्षा मन में भी न करें। खाना कैसा भी बना हो उसे तारीफ करके ,बगैर झूठा छोड़े खाएं।  सब पर खुले मन से स्नेह और आशीष लुटाए ;बदले में प्रेम की ऊष्मा व ऊर्जा लेकर घर आयें। संतोष व सादगी की प्रतिमूर्ति बनकर ही हम स्त्रीत्व को सार्थक कर सकती है और समाज को एक खुला व खुशनुमा माहौल दे सकती हैं।यही नवविवाहित दम्पत्ति  को दिया गया हमारा ससे खुबसूरत तोहफा होगा | तो अगली बार कहीं शादी में जायें तो आप भी विचार करें की दिखावा कम और अपनापन ज्यादा हो |  द्वारा रचना  व्यास  एम  ए (अंग्रेजी साहित्य  एवं  दर्शनशास्त्र),   एल एल बी ,  एम बी ए यह भी पढ़ें …  फेसबुक और महिला लेखन दोहरी जिंदगी की मार झेलती कामकाजी स्त्रियाँ सपने जीने की कोई उम्र नहीं होती करवाचौथ के बहाने एक विमर्श आपको आपको  लेख “शादी – ब्याह :बढ़ता दिखावा घटता अपनापन  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |    

भूमिका

रचना व्यास  चातुर्मास में साध्वियों  का दल पास ही के भवन में ठहरा था।  महिमा नित्य अपनी सास के साथ प्रवचन सुनने जाती थी। समाज में ये संचेती परिवार बड़े सम्मान की दृष्टी से देखा जाता था। अर्थलाभ हो या धर्मलाभ -सबमें अग्रणी।  प्रेक्षा -ध्यान के नियमित प्रयोग ने महिमा को एकाग्रता ,तुष्टि व समता रुपी उपहार दिए।  व्याख्यान के दौरान उसका ध्यान एक 16 -17  वर्षीय साध्वी पर अनायास ही खिंच  जाता।  साध्वी सुमतिप्रभा – यही नाम था उनका। ऐसी व्यग्रता  और चंचलता अमूमन साध्वियों के व्यवहार में नहीं  होती।गोचरी के लिए आती तो प्रतीत होता कि वयोवृद्ध साध्वी उन्हें आचरण सीखा रही है।  शायद नई नई  दीक्षित है।  महिमा सोचती कि  क्या वजह रही कि संसार छूटा नहीं  फिर भी वो साधना पथ पर आ गई। फिर स्वयं पर ही हँस पड़ी कि उसके लिए तो संसार में कुछ बचा ही नहीं  फिर भी प्रतिष्ठित संचेती परिवार की आदर्श बहू की भूमिका बखूबी निभा रही है।  यही तो नियति के निराले खेल है कि पात्र की पात्रता के विरुद्ध भूमिका मिलती है। अगले दिन सुबह के व्याख्यान में सुमतिप्रभा जी नदारद थी।  बाहर लान  में कहीं  खोई -सी फूलों  को टकटकी लगाकर देख रही थी।  गरीबी और अभाव ने अल्हड़ शोभा को साध्वी सुमतिप्रभा बना दिया।  जल्दबाजी में महिमा अभिवादन न कर सकी।  उसे hsg के लिए जाना था  पता होते हुए भी कि  वह फिट है। जिस दिन परिवार के सम्मान रक्षार्थ युवती महिमा ने अपनी पसंद त्यागकर संचेती परिवार के कुलदीपक के साथ फेरे लिए वो सदा के लिए बेआस  हो गई। दीक्षा लेने की अनुमति मांगकर हार गई वो। नहीं हारी  तो उसकी सास -मणिका ,जो डॉक्टर तांत्रिक ,ओझाओं  की शरण में जाती पर कभी बेटे को अपना चेकअप करवाने को मजबूर न कर सकी।   हॉल में नमोकार मन्त्र का जाप  चल रहा था।  मणिका अपना बैग लाने बाहर आई।  सबसे बेखबर साध्वी सुमतिप्रभा बाहर खुली फैशनेबुल सैंडल  व चप्पलों  को बारी -बारी  से रीझकर पहन रही थी।  मणिका के अंतस में महिमा का अनदेखा किया दर्द कसमसाने लगा। यह भी पढ़ें …. गुमनाम नया नियम अनावृत्त

वक़्त की रफ़्तार

रचना व्यास हालाँकि  वह  उच्चशिक्षिता  थी  पर  आशंकित  हो  उठी  जब  पति  के  साथ दिल्ली  में  शिफ्ट  हुई ।   आँखे  भर  आई  अपना  छोटा  क़स्बा  छोड़ते हुए जहाँ  उसे  व  उसकी  तीन  वर्षीया   बच्ची  को  भरपूर   दुलार व सुरक्षा  मिली ।   अख़बार  पढ़कर  वह  त्रस्त   हो  जाती ।  मन ही मन देवता  मनाती।  सोसाइटी  में  अब  उसे  सहेलियाँ   मिल  गई  थी ।  बातों–बातों   में  उसने  अपना  भय  बताया  तो  सभी  स्नेह  से  फटकारने  लगी कि   उसने  अब  तक  उसे  समझाया  नहीं ।    शाम  को  बेटी  को  गोद  में लेकर  वह  कहने  लगी “बेटा  अगर  कोई  अंकल  या  भैया  तुझे  दबोचे  तो जोर  से  चीखना ;  कोई  आपको  पकड़े  तो  चिल्लाना , बाहर  हमेशा मम्मा–पापा  का  हाथ  पकड़े  रहना और  किसी  से  टॉफी  भी  नहीं  लेना । “ नन्ही  ने  पाठ   रटने  की  तरह  सारी  बातें  दोहरा  दी ।  तभी  वह  बोली“मम्मा  आप  रो  क्यों  रही  हो ?”  उसे  आश्चर्य  था  वक़्त की  रफ़्तार पर  क्योंकि   उसे  ये  सीख  सोलहवें  साल  में  मिली  थी ।    यह भी पढ़ें ……. सेंध   सुकून   बुढ़ापा मीना पाण्डेय की लघुकथाएं

रक्षा बंधन स्पेशल – फॉरवर्ड लोग

  आज सजल बहुत खुश था। पूरे आठ साल बाद आज रक्षाबंधन के दिन मीनल दीदी उसकी कलाई पर राखी बांधेगी। वो जब दसवीं कक्षा में था, मीनल दीदी ने कॉलेज की पढ़ाई के साथ पार्टटाइम जॉब शुरू कर दी थी। पापा -मम्मी ने रोक था कि जॉब के साथ वह पढ़ाई उतनी तन्मयता से नहीं कर पायेगी। पर मीनल को शुरू से ही ढेर सारे कपड़े, घड़ियाँ व महंगे मोबाइल्स का शौक था। उसने जल्दी ही इन्स्टालमेन्ट पर स्कूटी भी ले ली थी। पढाई पूरी होने पर जब उसके लिए विवाह प्रस्ताव आने लगे तो उसने घोषणा कर दी कि वह अपने बॉस से शादी करेगी। उसी दिन घर के दरवाजे उसके लिए बंद हो गए। इसी साल जॉब लगने की ख़ुशी में सजल ने पापा -मम्मी को मनाया था कि उसकी पहली कमाई में दीदी का भी हक़ है अतः वह राखी बंधवाने दीदी के घर जायेगा। मीनल का बड़ा  घर देखकर सजल बहुत खुश हुआ। मीनल ने उसे अपना पूरा वैभव दिखाया। बीते आठ साल की बातें की। पापा -मम्मी को याद कर उसकी आँखे नम हो गई। उसने प्यार से सजल की कलाई पर चंडी की बेशकीमती राखी बांधी। सजल को पांच सौ का नोट थाली में रखते कुछ सकुचाहट हुई। तभी उसके जीजाजी आ गए। सबने ख़ुशी -ख़ुशी साथ खाना खाया। बातों -बातों में जीजाजी ने बताया कि कितनी मेहनत से उन्होंने ये समृद्धि प्राप्त की है। सजल बहुत प्रभावित हुआ। रात्रि होने पर सजल ने विदा मांगी तो जीजाजी बोले “ऐसा कैसे हो सकता है साले साहब। पहली बार घर आये हो ,हमें पूरा स्वागत तो करने दो। ” उनके इशारे पर मीनल पैग बनाने लगी। सजल ने कभी शराब चखी भी न थी। मीनल को पीते देखकर उसका मुँह आश्चर्य से खुला रह गया। मीनल जान गई कि यह अभी मध्यमवर्गीय मानसिकता से बाहर नही आया है।           वह बोली “सजल , हाई सोसाइटी में उठते बैठते हैं तो साथ देने के लिए पीना पड़ता है। अब पैसा होगा तो आदतें भी वैसी ही होगी नहीं तो लोग हमें बैकवर्ड समझने लगेंगे। तुम भी धीरे -धीरे सीख जाओगे भाई। ” सजल ने निःशब्द ही वहाँ से विदा ली। घर की डोरबेल बजाई। उसे कलाई पर बंधी राखी से शराब की गंध आ रही थी पर चाहकर भी फेंक नही पाया। माँ के दरवाजा खोलने से पहले उसने राखी उतार कर जेब में रख ली। रचना व्यास  अटूट बंधन

आधी आबादी :कितनी कैद कितनी आज़ाद (रचना व्यास )

कोई पैमाना नहीं है अर्धांगिनी नारी तुम जीवन की आधी परिभाषा।’  कितना सच और सुखद लगता है सुनने में पर जब भी किसी को बुर्के में या परदे में लिपटा देखती हूँ तो अर्धनारीश्वर की धारणा असत्य लगती है। कैद किसी को भी मिले चाहे स्त्री हो, पुरुष हो, युवा हो, वृद्ध हो या बच्चा हो- व्यक्तित्व को कुंठित कर देती है। सृष्टिकर्ता ने सबको स्वतन्त्र उत्पन्न किया है चाहे वो मनुष्य हो, पशु- पक्षी हो या वनस्पति इत्यादि। वहीँ भारत का संविधान सबको समानता व स्वतन्त्रता का मूल अधिकार देता है अब कोई व्यक्ति कैसे किसी को कैद कर सकता है।                                          कैद का अर्थ केवल शारीरिक  रूप से बन्धन में रखना ही नहीँ है। यह किसी की सोच को प्रभावित करना है, उसे भावनात्मक रूप से दबाना है, उसे आर्थिक रूप से वंचित बना देना है। वहीँ आजादी का अर्थ सिर्फ घर से बाहर घूमते रहना नहीँ है। आजादी का अर्थ है संकुचित सोच से ऊपर उठकर उदार दृष्टि से स्थितियों का अवलोकन,  एक निर्द्वन्द सोच। आजादी का अर्थ है भावनाओ का सन्तुलन व सम्मान तथा साथ ही आर्थिक आत्मनिर्भरता। जैसे  स्वतन्त्रता व स्वछंदता में बाल के बराबर अंतर है वैसे ही आर्थिक आजादी का अर्थ  फिजूलखर्ची कदापि न लिया जावे। वैसे व्यक्ति अपनी सोच से स्वयं अपनी आजादी खण्डित करता है। एक उदाहरण से स्पष्ट करना चाहूंगी।                                  दुनिया की इस आधी आबादी -स्त्री शक्ति ने कोई क्षेत्र अछूता नहीँ छोड़ा है। वह सर्वत्र स्वयं को बेहतर साबित कर रही है पर वो भीतर से कितनी आजाद है; मैं अक्सर यह पढ़ने का प्रयास करती हूँ। मेरी एक सहेली जॉब करती है- पति के आर्थिक रूप से सक्षम होने और मना करने पर भी। शाम को ऑफिस से दोनों लौटते है। चाय बनाने से लेकर बच्चों को सँभालने तक का सारा काम सहेली को ही करना होता है।उसके पति किसी भी काम में उसकी मदद नहीँ करते। उसे बीमार होने पर खुद ही डॉक्टर के जाना होता है। पति का सपाट जवाब होता है कि जब वो जॉब के लिए बाहर जा सकती है तो इलाज के लिए भी जाये और पैसा भी खुद का ही खर्च करे। मैंने उसे मित्रवत् सलाह दी कि दो मोर्चों पर अकेले लड़ने से बेहतर है पति की इच्छानुसार जॉब छोड़कर घर में ही कुछ रचनात्मक कर लो। उसका दो टूक जवाब था कि उसे खुद को पति के बराबर साबित करना है। अब पाठक बतायें कि यहाँ किसने किसको कैद किया है। स्पष्टत: वह अपनी सोच की कैदी है। एक होड़ की कैदी है। उसके पति आजाद है भीतर से इसलिए चाय तक नहीँ बनाते।                                      जिन स्त्रियों पर फिजूल के पहरे है, उनकी प्रतिभा का दमन किया जा रहा है उनके साथ मेरी भरपूर सहानुभूति व सहयोग है । उन्हें अच्छी पुस्तकें उपलब्ध करवाना , उनकी व्यथा सुनना भी मैं  अपने लिए एक पुण्यकार्य मानती हूँ पर तकलीफ वहाँ होती है जब मैं उन्हें आत्मविश्वास से विहीन देखती हूँ। छोटी-छोटी बातों पर दिखाया गया आत्मविश्वास भी बड़ी सफलता का मार्ग प्रशस्त करता है। वहीँ पर इसे खो देना – मानो सामने वाले को आमन्त्रित करना है कि आओ हमेँ कैद कर लो -भले ही वो व्यक्ति पारिवारिक सदस्य हो, कार्यस्थल का कोई व्यक्ति हो या हमारा अपना हृदय।  जिस दिन कोई स्त्री आत्मविश्वास से लबरेज होती है, कुछ कर गुजरने की इच्छा उसके भीतर जड़े जमा लेती है, भले ही काम कितना ही छोटा हो। राह में आने वाली तमाम बाधाओं को वो अनदेखा कर देती है- उसका हृदय अनायास गा उठता है- काँटों से खींचकर ये आँचल…। ये महज गीत की पंक्तियाँ नहीँ हैं, ये आजादी के सच्चे उदगार हैं। वही सच्ची कर्मयोगिनी है और आजाद भी। वहीँ दूसरी ओर कोई  उच्चशिक्षिता स्त्री  लाखों के पैकेज के लिए अपनी वास्तविक खुशियों को अनदेखा कर, उन्नत करियर के लिए मातृत्व सुख तक नकार देती है ; मेरी दृष्टि में उससे ज्यादा कैद कोई नहीँ हैं।                             अतः हमें कैद और आजादी का न तो कोई पैमाना निर्धारित करना है, न ही उसे आकड़ों में बाँटना है। ये नितांत निजी अनुभव है, आंतरिक सम्वेदना है।  – द्वारा  नाम :         रचना  व्यास शिक्षा :         एम  ए (अंग्रेजी साहित्य  एवं  दर्शनशास्त्र),  एल एल बी ,  एम बी ए अटूट बंधन

ममता

ममता यूँ  तो  शीतल  को  अपने  ससुराल  में  सभी  भले  लगे  लेकिन  उसकी  बुआ सास की  लड़की  हर्षदा  न  जाने  क्यों  बहुत  अपनी-सी  लगती  थी|  हर्षदा उम्र  में  उससे  कम  थी पर  अत्यंत  परिपक्व  व  शालीन  थी |  साल दर साल  गुजरते  गए  पर  शीतल  को  माँ  बनने   का सौभाग्य  न  मिला |  मिले  तो  बस  सवाल  ही  सवाल-  ससुराल  में  भी , मायके  में  भी|  हर्षदा उससे  सखी  का  सा  बर्ताव  करती |  शीतल  उसके  पास   रोकर  अपना  दाह शांत  कर  लेती |  शादी  कि  दसवीं  वर्षगाठ  पर  उसे  बहुत  बधाइयाँ मिली  पर  जब  उसने  अपनी  बहनों  से , ननदों  से  एक  बच्चा  उसकी  गोद में  डाल  देने  का  आग्रह  किया  तो  सबने  अपने  कारण  गिना  दिए |सास-ससुर  को  परिवार  से  बाहर  का  शिशु  गवारा  न  था |  उसके  आसुओं के  सागर   में  हर्षदा ने  यह  कहकर  एक  आशा  नौका  डाल  दी  कि भविष्य  में  वह  अपना  बच्चा  शीतल  को  देगी |        विधि  का  विधान- जल्दी  ही  हर्षदा  के  विवाह  की  तारीख  पक्की हो  गई |  शीतल  ने  जब  उसे  उसका  वचन  याद   दिलाया  तो  हर्षदा  ने स्पष्ट  किया  कि  उसके  मंगेतर  नवीन  से  उसने  बात  की  है  और  उन दोनों  ने  फैसला  लिया  है  कि  वे  अपना  दूसरा  बच्चा  शीतल  को देंगे |   पहला  बच्चा  वे  स्वयं  रखेंगे |  समय  पंख  लगाकर  उड़ा | तमाम इलाज  व  पूजा -पाठ  के  बाद  भी  शीतल  नाउम्मीद  ही  रही |  उधर हर्षदा   के  गर्भ  में  शीतल  की  उम्मीदें  पलने  लगी |  हर्षदा सोचती  यदि  प्रथमतः  पुत्री  हुई , फिर  दुबारा  लड़का  हुआ  तो  वह भाभी  का  होगा  पर  क्या  उसके  सास-ससुर  पोते  का  मोह  छोड़  देंगे | फिर  उसे  तो  अपने  लिए  बेटी  ही  चाहिए  थी |  शिशु  चाहे  बेटा  हो या  बेटी  पर  स्वस्थ ,सुंदर  व  तेजस्वी  हो |  उसके  चिंतन  का  तो अंत  ही  नहीं  था  पर  पूरे  नौ  महीने  उसने  शांतचित्त  हो ,प्रसन्नतापूर्वक  धार्मिक  ग्रंथो  का  अध्ययन  किया , सकारात्मक  भावो का  पोषण  किया | लेबर रूम  में  वह  आश्चर्यचकित  रह  गई  जब  अत्यंत  पीड़ा की  अवस्था में,  तंद्रा  में  उसे  समाचार  मिला  कि  उसने  जुड़वाँ  पुत्रों  को जन्म  दिया  है |   यह  किसी  चमत्कार  से  कम  न  था ।  जब  नवीन उन्हें  देखने  आये  तो  उसने  संयत  स्वर  में  कहा  कि  भगवान  ने  एक बच्चा  भाभी  के  लिए  ही  भेजा  है |  हम  दोनों  को  ठीक-से   संभल भी नहीं  पायेंगे |  नवीन  ने  अपनी  माँ  की  झिझक  के  बावजूद  भी स्वीकृति  दे  दी |  उसने  स्वयं  शीतल  को  फोन  किया |  जब  डॉक्टर बच्चो  का  चेक-अप  करके  बाहर  निकले  तो  हर्षदा  ने  नवीन  को  वार्ड में  बुलाया  और  गुरूजी  द्वारा  प्रदत्त  धागा  एक  बच्चे  की  कलाई पर बांधा   और  बोली “ये  हमारा  अर्जुन  है  और  वो  रहा  शीतल  भाभी  का बेटा |” शीतल  के  तो  मानो  पैर  ही  जमीं  पर  नहीं  पड़  रहे  थे | गाजे-बाजे   के  साथ  वो  बेटे  को  घर  ले  गई |   अभी  तो  उसे जन्मोत्सव  मनाकर  अपने  ढेरों  अरमान  पूरे  करने  थे |  हर्षदा  पर  तो मानो  उसने  आशीर्वाद  व  शुभकामना  की  झड़ी  ही  लगा  दी |                                                                 शीतल के  पास  तो  अब  कोई  बात  ही  नहीं  होती  थी सिवा  उसके  बेटे  वासु के  कार्यकलापों  के |  अब  वो  बैठना  सीख  गया , उसने  कब  पहली  बार माँ  कहा – वो  बस  चहकती  ही  रहती |  हर्षदा  की  विशेष  देखभाल  व इलाज  करवाने  के  बाद  भी  अर्जुन  ठीक  से  चल  नहीं  पाता  था हालाँकि  मानसिक  रूप  से  वह  पूर्ण  परिपक्व  था |  नवीन  ने  इसे नियति  माना  कि वासु  भाभी  की  गोद  में  है |  पर  हर्षदा  हार  मानने वाली  नहीं  थी |  उसने  अर्जुन  को  पूर्ण  शिक्षा  दिलवाने  के  साथ साथ  उसके  रूचि  के  क्षेत्र  को  विकसित  किया |  उसने  जान  लिया  कि  व्हील  चेयर  पर  निर्भर  होने  के  बावजूद  भी  अर्जुन  की  रूचि निशानेबाजी  में  है |  उसने  अपनी  जमापूंजी  से  घर  में  ही  शूटिंग रूम  बनवाया |  सुयोग्य  कोच  की  सेवायें  ली |  वो  निरंतर अर्जुन  को प्रोत्साहित  करती|  उसे  लक्ष्य  के  प्रति  एकाग्र  होना  सिखाती | माँ -बेटे की  मेहनत  रंग  लाई  जब  छोटी  उम्र  में  ही  पेराओलम्पिक में  अर्जुन  ने  शूटिंग  में  स्वर्ण  पदक  जीतकर  देश  का  मान  बढ़ाया |  गौरवान्वित  माता -पिता  एयरपोर्ट  के  रास्ते  में  थे , अपने विजेता  पुत्र  की  अगवानी के  लिए |  नवीन  ने  सहज  ही  पूछ  लिया हर्षदा, वासु  का पूर्ण  विकास  देखकर  कभी  तुम्हें  नियति  पर  क्षोभ नहीं  हुआ ? ” हर्षदा ने  आत्मविश्वास  के  साथ  जवाब  दिया “क्षोभ  कैसा? ये  मेरा  अपना  फैसला  था |  मैंने  आजतक  किसी  को  नहीं  बताया | डॉक्टर  ने  चेक -अप  बताया  कि  अर्जुन  शारीरिक  रूप से  कुछ  कमतर होगा  तभी  तो  गुरूजी  का  दिया  धागा  मैंने  उसे  बांधा  उसकी विशिष्ट  पहचान  के  लिए ।” नवीन  ने  प्रतिप्रश्न  किया “शीतल  भाभी  से  तुम्हें  इतना  स्नेह  था  पर  उन  पर  विश्वास  नहीं  था  कि  वोअर्जुन  को  उसकी  कमजोरी  की  वजह  से  पूर्ण  ममता  नहीं  देगी ?”हर्षदा गम्भीरतापूर्वक  मुस्कराई “शीतल  भाभी दयावश  ममता  तो  पूरी लुटाती  पर  मुझे  डर  था  कि कहीं  वो  उसे  भावनात्मक  व  मानसिक धरातल पर कमजोर  बना  देती |  उसकी प्रतिभा  को  निखार  नहीं  पाती।  मेरी  तरह  कठोर  नहीं  हो  पाती | “              हर्षदा के  इस  रहस्योद्घाटन  पर  नवीन  अवाक्  था  पर  साथ  ही  नतमस्तक  था  अपनी  अर्धांगिनी  की  इस  दृढ़ता  पर , त्याग और समझदारी  पर | रचना व्यास  शिक्षा :         एम  ए (अंग्रेजी साहित्य  एवं  दर्शनशास्त्र),  एल एल बी ,  एम बी ए मेरी  प्रेरणा : जब  भीतर  का  द्र्ष्टापन  सधता  है  तो  लेखनी  स्वतः प्रेरित  करती  है| अटूट बंधन