द कश्मीर फाइल्स-फिल्म समीक्षा

द कश्मीर फाइल्स-फिल्म समीक्षा

  लगभग दो साल से लोग घरों में कैद रहें और सिनेमा हाल बंद प्राय रहें, फिर एक हिन्दी मूवी रिलीज होती है “द कश्मीर फाइल्स”। इसने रिलीज के साथ ही पहले ही शो से टिकट खिड़की पर आग लगा दी। कम बजट की इस फिल्म पर वितरकों को जरा भी विश्वास नहीं था तभी तो शुक्रवार को पूरे देश में सिर्फ 500 स्क्रीन पर लाया गया। अन्य बड़ी मूवीज की तरह न ही इसका कोई खास प्रचार हुआ और न शुरुआत में कोई चर्चा। कुछ लोगो ने महज मौखिक रूप से सोशल मीडिया पर इसकी चर्चा की, पर करोड़ों खर्च कर भी जो सफलता नहीं हासिल होती है इस फिल्म ने सिर्फ मौखिक और जबरदस्त कंटेन्ट की वजह से झंडे गाड़ दिए। एक मामूली बजट और लो स्टारकास्ट मूवी का बॉक्स ऑफिस, निश्चित ही ट्रेंड सर्किल को हैरान करने वाला माना जाएगा। रिलीज के चौथे दिन 4 गुना से ज्यादा शोज बढ़ने का उदाहरण इससे पहले कभी नहीं देखा। ‘द कश्मीर फाइल्स’ एक केस स्टडी हो सकती है, क्योंकि आज के समय 3 दिनों की कमाई पर निर्माता फ़ोकस करते हैं, यानी ज्यादा से ज्यादा स्क्रीन पर (4000+) स्क्रीन पर फ़िल्म रिलीज किया जाए। धुआंधार प्रचार से दर्शकों को खींचते हैं, फिर सोमवार से शोज कम हो जाते हैं। इस फ़िल्म में ठीक इसका उल्टा हुआ, यानी शुक्रवार से 4 गुना शोज सोमवार को हो गए।   नब्बे की दशक की शुरुआत में हुई भीषण नर संहार की खबर को महज एक पलायन के रूप में खबरों में स्थान मिली थी। कश्मीर के आधे-अधूरे उस वक़्त की प्रसारित की गई सच – झूठ की सच्चाई को निर्माता विवेक अग्निहोत्री ने पूरी बेबाकी से उधेड़ कर रख दिया है इस फिल्म के जरिए। सच हमेशा कड़वा ही होता है। ये मूवी वाकई एक दस्तावेज है जो कश्मीरी पंडितो के दुखद नरसंहार (सिर्फ पलायन नहीं) की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करती है। ये फिल्म कई परतों में एक साथ चलती है। आज जब अनुच्छेद 370 हट चुका है की चर्चा के साथ साथ 1990 की घटनाओं का बेहतरीन वर्णन है। मुझे तो सबसे बढ़िया फिल्म का वो हिस्सा लगा जिसमें कैसे कश्मीर सदियों से अखंड भारत का हिस्सा रहा है का जिक्र है।   एक प्रशासनिक अफसर, एक पत्रकार, एक डॉक्टर और एक आम जन – को बिम्ब की तरह प्रस्तुत किया गया है दोस्तों के रूप में, जिन्होंने प्रतिनिधित्व किया उस वक़्त के इन चारों की भूमिका और असहायता को दर्शाने हेतु। एक आज का brainwashed युवा भी है और है JNU भी। बहुत गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास है, कई राज खुलते हैं तो कई फ़ेक न्यूज़ और चलते आ रहे प्रोपैगैंडा की धज्जियाँ उड़ती है। बहुत जरूरी है इस तरह की फिल्मों का भी बनना जो परिपक्व और गंभीर दर्शक मांगते हैं। ये एक Eye opener और बेबाक मूवी है जिसकी सभी घटनाओं को सत्य बताया गया है। तत्कालीन सरकारों की उदासीनता दिल को ठेस पहुँचाती है। टीवी पर अफगानिस्तान और यूक्रेन से बेघर होते लोगो को देख आँसू बहाने वालों को शायद मालूम ही नहीं कि अपने ही देश में लाखों लोग बेहद जिल्लत और तकलीफों के साथ शरणार्थी बनने को मजबूर किये गए थें, जिस पर यदा-कदा ही चर्चा हुई। लेखिका रीता गुप्ता  कई लोग सवाल उठा रहें हैं कि 32 वर्षों के बाद इस वीभत्स घटना पर से पर्दा उठाना अनावश्यक है। तो वहीं कुछ लोग इस की गांभीर्य कथ्य में मनोरंजन के अभाव के कारण विचलित हो रहे हैं। फिर ऐसे लोगो की भी कमी नहीं है जो इस मूवी को राजनीति से जोड़ रहें हैं। कुछ लोग इसे डार्क व अवसादपूर्ण बता रहें। उन लोगो को भारी निराशा हुई होगी जो इसे एकपक्षीय मान दंगा और दुर्भावना की आशंका कर रहे थे। किसी समस्या का निदान उसे छिपाने, नज़रंदाज़ करने या उस पर चुप्पी साधने यानि शुतुरमर्ग बन जाने से नहीं होता। पहले हम स्वीकार करें कि समस्या है, तभी उसका हल भी निकलेगा। बिगाड़ के डर से ईमान की बात ना करके अब यह समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है। इस फ़िल्म में भी कई कमियां होंगी मगर इस फ़िल्म की सबसे बड़ी सफलता इस बात में है कि इसने कश्मीरी हिंदुओं के विस्थापन पर जो सालों से रुकी बहस, चर्चा थी उसे पूरे विश्व में आरंभ कर दिया है।       दुनिया भर में इस तरह की हिंसा पर काफी फ़िल्में बनी हैं। रवांडा में हुए नरसंहार पर ‘100 Days (2001)’ से लेकर ’94 Terror (2018)’ तक एक दर्जन फ़िल्में बनीं। हिटलर द्वारा यहूदियों के नरसंहार पर तो ‘The Pianist (2002)’ और ‘Schindler’s List’ (1993) जैसी दर्जनों फ़िल्में बन चुकी हैं। कंबोडिया के वामपंथी खमेर साम्राज्य पर The Killing Fields (1984) तो ऑटोमोन साम्राज्य द्वारा अर्मेनिया में कत्लेआम पर Ararat (2002) और ‘The Cut (2014)’ जैसी फ़िल्में दुनिया को मिलीं। holocaust Holocaust (1978) एक अमेरिकन सीरीज है जो जर्मनी के द्वारा यहूदियों की नर संहार की कहानी है।   बहरहाल “द कश्मीर फाइल्स” फिल्म की सफलता इस बात का द्योतक है कि बॉलीवुड फिल्मों के शौकीन सिर्फ नाच-गाना और कॉमेडी से इतर मुद्दों पर आधारित गंभीर कथानक भी पसंद करते हैं। सिनेमा एक सशक्त माध्यम है जनमानस तक पहुँचने का और ये फिल्म इसमें पूरी तरह सफल होती दिख रही है। इस फिल्म की सफलता भविष्य में भी गंभीर मुद्दों पर फिल्मांकन की राह प्रशस्त करती है। रीता गुप्ता Rita204b@gmail.com ये लेख प्रभात खबर की पत्रिका सुरभि में भी प्रकाशित है |   यह भी पढ़ें … राजी -“आखिर युद्ध क्यों होते है “सवाल उठाती बेहतरीन फिल्म फिल्म ड्रीम गर्ल के बहाने -एक तिलिस्म है पूजा फ्रोजन -एक बेहतरीन एनिमेटेड फिल्म कारवाँ -हँसी के माध्यम से जीवन के सन्देश देती सार्थक फिल्म आपको “द कश्मीर फाइल्स-फिल्म समीक्ष” लेख कैसा लगा ? अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराए | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबू पेज को लाइक करें |  

हमसाया

हमसाया

अंधेरी रात, सुनसान सड़क और एक अकेली लड़की .. ये पंक्तियाँ पढ़ते ही जब मन में एक भय तारी हो जाता है तो क्या बीतती होगी उस लड़की पर जो वास्तव में इन परिस्थितियों से गुजर रही हो ? क्या होता होगा जब ऐसे में कोई हमसाया बन उसका पीछा कर रहा हो | धड़कते दिल से मन -मन भर भारी हो चुके पैरों को आगे घसीटते हुए ना जाने कितने अखबारों की खौफनाक पंक्तियाँ याद आती होंगी |ऐसी ही मनोदशा से गुजरती एक लड़की की कहानी हमसाया       कुछ ही दिन हुए थे उस नए शहर में मुझे नौकरी ज्वाइन किये। हर दिन लगभग पांच-छः बजे मैं अपने ठिकाने यानि वर्किंग गर्ल्स हॉस्टल पहुँच जाती थी। उस दिन कुछ जरुरी काम निपटाते मुझे देर हो गयी। माँ की सीख याद आई कि रात के वक़्त रिज़र्व ऑटो में अकेले न जाना, सो शेयर्ड ऑटो ले मैं हॉस्टल की तरफ चल पड़ी। वह मुझे सड़क पर उतार आगे बढ़ गया, रात घिर आई थी, कोई नौ -साढ़े नौ होने को था। पक्की सड़क से हमारा हॉस्टल कोई आधा किलोमीटर अंदर गली में था।    अचानक गली के सूनेपन का दैत्य अपने पंजे गड़ाने लगा मानस पर। इक्के दुक्के लैंप पोस्ट नज़र आ रहें थें पर उनकी रौशनी मानो बीरबल की खिचड़ी ही पका रहीं थी। सामने पान वाले की गुमटी पर अलबत्ता कुछ रौशनी जरुर थी पर वहां कुछ लड़कों की मौजूदगी सिहरा रही थी जो जोर जोर से हंसते हुए माहौल को डरावना ही बना रहे थें। मैं सड़क पर गुमटी के विपरीत दिशा से नज़रें झुका जल्दी जल्दी पार होने लगी, “काश मैं अदृश्य हो जाऊं, कोई मुझे न देख पाए”,     कुछ ऐसे ही ख्याल मुझे आ रहें थें कि उनके समवेत ठहाकों ने मेरे होश उड़ा दिए। अचानक मैं मुड़ी तो देखा कि एक साया बिलकुल मेरे पीछे ही है। लम्बें -चौड़े डील डौल वाले उस शख्स को अपने इतने पास देख मेरे होश फाक्ता हो गएँ। घबरा कर मैंने पर्स को सीने से चिपका लिया और दौड़ने लगी। अब वह भी लम्बें डग भरता मेरे समांतर चलने लगा। अनिष्ट की आशंका से मन पानी-पानी होने लगा। “छोरियों को क्या जरुरत बाहर जा कर दूसरे शहर में नौकरी करने की”, दादी की चेतावनी अब याद आ रही थी। “दादी, सारी लडकियां आज कल पढ़-लिख कर पहले कुछ काम करतीं हैं तभी शादी करती हैं…”, इस दंभ की हवा निकल रही थी।  तभी एक कार बिलकुल मेरे पास आ कर धीमी हो गयी, जिसमें तेज म्यूजिक बज रहा था. दो लड़के शीशा नीचे कर कुछ अश्लील आमंत्रण से मेरे कान में पिघला शीशा डाल ही रहें थें कि उस हमसाये ने टार्च की रौशनी उनके चेहरे पर टिका दिया। शीशा ऊपर कर कार आगे बढ़ गयी। वह अब भी मेरे पीछे था, उसके टार्च की रौशनी मुझे राह दिखा रही थी पर उसके इरादे को सोच मैं पत्ते की तरह कांप रही थी।  “क्या देख रहा वह पीछे से रौशनी मार मुझ पर, शायद कार वाले इसके साथी होंगे और लौट कर आ ही रहे होगें ?”,  मैं अनिष्ट का अनुमान लगा ही रही थी कि तभी माँ का फ़ोन आ गया। “माँ, मैं बस पहुँचने वाली हूँ हॉस्टल, मुझे अब रौशनी दिखने लगी है….”, एक तरह से खुद को ही ढाढ़स बढाती मैं माँ से बातें करती कैंपस में प्रवेश कर गयी। तेजी से हाँफते मैं पहली मंजिल पर अपने रूम की तरफ दौड़ी। लगभग अर्ध बेहोशी हालत में बिस्तर पर गिर पड़ी। मेरी रूम मेट ने मुझे पानी पिलाया और एक साँस में मैं उस हमसाये की बात बता गयी जो मेरा पीछा करते गेट तक आ गया था. अब चौंकने की बारी मेरी थी,    “लगभग तीन महीने पहले इसी वर्किंग हॉस्टल के बगल घर में रजनी रहती थी। एक रात वह लौटी नहीं, अगले दिन सुबह गली की नुक्कड़ पर उसका क्षत-विक्षत लाश पाई गयी थी। ये उसके ही भाई हैं जो तब से हर रात गली में आने वाली हर अकेली लड़की को उसके ठिकाने तक पहुंचाते हैं”, सुनीला बोल रही थी और मैं रो रही थी. उठ कर खिड़की से देखा मेरा वह भला हमसाया दूर गली के अंधियारे में पीठ किये गुम हुए जा रहा था शायद किसी और लड़की को उसके ठिकाने तक सुरक्षित पहुँचाने. रीता गुप्ता   यह भी पढ़ें .. ढिगली:( कहानी) आशा पाण्डेय ओझा कहानी -कडवाहट पागल औरत (कहानी ) आपको कहानी हमसाया कैसी लगी ? अपने विचारों से हमें अवगत कराए | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबूक पेज को लाइक करें |

आजादी से निखरती बेटियाँ  

  कुछ दिन पहले एक मौल में शौपिंग कर रही थी कि पांच वर्ष से नौ दस वर्ष की तीन बहनों को देखा जो अपने पिता के पीछे पीछे चल रहीं थी. रैक पर सजे सामानों को छूती और ललचाई निगाहों से पिता की ओर देखती और झट से उसे छोड़ दूसरे चीजों को निहारने लगतीं. इतनी कम उम्र में हिजाब संभालती इन बच्चियों को देख साफ़ पता चल रहा था कि इन्हें यहाँ बहुत कुछ लेने की इच्छा है पर खरीदा वही जायेगा जो पिता चाहेंगें. दिखने में धनाड्य पिता धीर-गंभीर बना अपनी धुन में सामान उठा ट्राली में रख रहा था. वहीँ बच्चियों की माँ पीछे घसीटती हुई गोद के बच्चे को संभालती चल रही थी, जो कुछ भी छूने के पहले अपने पति का मुख देखती थी. अगल-बगल कई और परिवार भी घूम रहें थें, जहाँ बेटियाँ अपनी माँ को सुझाव दे रही थी या पिता पूछ रहें थें कि कुछ और लेनी है. उन बच्चियों को हसरत भरी निगाहों से स्मार्ट कपड़ों में घूमती उन दूसरी आत्मविश्वासी लड़कियों को निहारते देख, मेरे मन में आ रहा था कि जाने वे क्या सोच रही होंगी. उनकी कातरता बड़ी देर तक मन को कचोटते रही. इसी तरह देखती हूँ कि घरों में भाई अक्सर ज्यादा अच्छे होतें हैं पढने में कि वे डॉक्टर, अभियंता या कुछ और बढ़िया सी पढ़ाई कर बड़ी सी नौकरी करते हैं और उसी घर की लडकियां बेहद साधारण सी होती हैं पढ़ने में और अन्तोगत्वा साधारण पढ़ाई कर उनकी शादी हो जाती है. ऐसा कैसे होता कि लडकियां ही कमजोर निकलती हैं उनके भाई नहीं? कारण है भेदभाव जो आज भी अलिखित रूप से हमारे समाज में मौजूद है. बेटियों को ऊँचा सोचने के लिए आसमान ही नहीं मिलता है, बोलने को हिम्मत ही नहीं होती है, पाने को वो मौका ही नहीं मिलता है जो उनके पंख पसार उड़ने में सहायक बने. एक आम सी धारणा है कि बेटियों को दूसरे घर जाना है सो दबा के रखनी चाहिए. उनके मन की हर बात मान उन्हें बहकाना नहीं चाहिए क्यूंकि कल को जब वे ससुराल जाएँगी तो उन्हें तकलीफ होगा. इतनी टोका-टोकी और पाबंदियां बचपन से ही लगा दी जाती है कि बच्चियों का आत्मविश्वास कभी पनप ही नहीं पाता है. आज के युग में भी उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे वही काम करें वैसे ही करें जो उनकी माँ, दादी या बुआ कर चुकी हैं. बच्चियों को हर क्षण मानों एहसास दिलाया जाता है कि तुम लड़की हो और तुम इन अधिकारों की हकदार नहीं हो. तुम अकेले कहीं जा नहीं सकती हो, तुम अपनी पसंद के कपडे नहीं पहन सकती, तुम को अपने पिता-भाई की हर बात को माननी ही होगी. स्पोर्ट्स और पसंद के विषय चुनना तो दूर की बात है. ऐसा नहीं है कि समाज में बदलाव नहीं आया है. आया है और बेहद जोरदार तेजी से आया है. उच्च वर्ग और निम्न वर्ग तो सदैव पाबंदियों और वर्जनाओं से दूर रहा है. सारा प्रपंच तो मद्ध्य्म वर्ग के सर पर है. मद्ध्यम वर्ग में भी शहरी लोगो की सोच में बहुत बदलाव आ चुका है जो अपनी बेटियों को भी ज्यादा-कम आजादी दे रहें हैं. पूरी आजादी तो शायद अभी देश में किसी तबके और जगह की लड़कियों को नहीं मिली होगी. ‘आजादी’ देने का मतलब छोटे कपड़े पहनने, शराब पीना या देर रात बाहर घूमने से कतई नहीं होता है, ये तो बेटे या बेटी किसी के लिए भी अवारागार्दियों की छूट कहलाएगी. आजादी से मतलब है बेटी को ऐसे अधिकारों से लैस करना कि वह घर-बाहर कहीं भी खुल कर अपनी बात रख सके. उसका ऐसा बौद्धिक विकास हो सके कि वह अपने जीवन के निर्णयों के लिए पिता-भाई या पति पर आश्रित नहीं रहे. शिक्षा सिर्फ शादी के मकसद से न हो, सिर्फ धार्मिक पुस्तकों  तक ही सीमित न हो बल्कि बेटियों को इतना योग्य बनाना चाहिए ताकि वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो सके. बच्चियों के स्वाभाविक गुण व् रुझान की पहचान कर उसके विकास में सहयोग करना हर पालक का धर्म है. पालन ऐसा हो कि एक बेटी ‘अपने लिए भी जिया जाता है’, बचपन से सीख सके. वरना यहाँ मानों ‘ससुराल’ और सास’ के लिए ही किसी बेटी का लालन-पालन किया जाता है. अगर यही सोच सानिया मिर्जा, सायना नेहवाल, पी वी सिन्धु या गीता फोगाट के माता-पिता जी का होता तो देश कितनी प्रतिभाओं से के परिचय से भी वंचित रह जाता. बेटे-बेटियों के लालन-पालन का अन्तर अब टूटता दिख रहा है. उन्हें परवरिश के दौरान ही इतनी छूट दी जा रही है कि वह भी अपने भाई की तरह अपनी इच्छाओं को व्यक्त करने लगी है. ‘पराये घर जाना है’ या ‘ससुराल जा कर अपनी मन की करना’ बीते ज़माने के डायलाग होते जा रहें हैं. शादी की उम्र भी अब खींचती दिख रही है, पहले जैसे किसी लड़के के कमाने लायक होने के बाद ही शादी होती थी. आज लोग अपनी बेटियों के लिए भी यही सोच रखने लगें हैं. इस का असर समाज में दिखने लगा है, चंदा कोचर, इंदु जैन, इंदिरा नूई, किरण मजुमदार शॉ आज लड़कियों की रोल मॉडल बन चुकी हैं. परवरिश की सोच के बदलावों से बेटियों की प्रतिभाएं भी सामने आने लगी है. मानव संसाधन देश का सबसे बहुमूल्य संसाधन हैं. उनका विकास ही देश को विकसित बनता है. यदि आधी आबादी पिछड़ी हुई है तो देश का विकास भी असंभव है. जरुरत है प्रतिभाओं का विकास, उनको सही दिशा देना. फिर चाहे वह लड़का हो या लड़की, प्रतिभा को खोज उन्हें सामने लाना ही चाहिए. आजादी से निखरती ये बेटियाँ घर-परिवार-समाज के साथ साथ स्व और देश को भी विकसित कर रहीं हैं. बस जरुरत है कि हर कोई ‘आजादी और स्वछंदता’ के अंतर के भान का ज्ञान रखे. रीता गुप्ता RANCHI, Jharkhand-834008. email id koylavihar@gmail.com

इश्क के रंग हज़ार -उलझते सुलझते रिश्तों पर सशक्त कहानियाँ

जीवन में खुश रहने के लिए मूलभूत आवश्यकताओं  ( रोटी कपड़ा और मकान ) के बाद हमारे जीवन में सबसे ज्यादा जरूरी  क्या है ? उत्तर है रिश्ते |  आज जब हर इंसान पैसे और सफलता के पीछे भाग रहा है तो ख़ुशी के ऊपर किये गए एक अमेरिकन सर्वे की रिपोर्ट  चौकाने वाली थी | सर्वे करने वाले ग्रुप को विश्वास था कि जो लोग अपनी जिन्दगी में बहुत सफल हैं या जिन्होंने बहुत पैसे कमाए होंगे वो ज्यादा खुश होने परन्तु परिणाम आशा के विपरीत निकले | वो लोग अपनी जिन्दगी में ज्यादा खुश थे जिनके रिश्ते अच्छे चल रहे थे भले ही उनके पास कम पैसे हो या सफलता उनकी तयशुदा मंजिल से बहुत पहले किसी पगडण्डी पर अटकी रह गयी हो | भले ही सफलता के  के नए गुरु कहते हों कि जिन्दगी एक रेस है …दौड़ों और ये सब पढ़ सुन कर हम बेसाख्ता दौड़ने लगे हों पर जिन्दगी एक बेलगाम दौड़ नहीं है | ये अगर कोई दौड़ है भी तो नींबू दौड़ है | याद है बचपन के वो दिन जब हम एक चम्मच में नीबू रखकर चम्मच को मुँह में दबा कर दौड़ते थे | अगर सबसे पहले लाल फीते तक पहुँच भी गए और नींबू चम्मच से गिर  गया तो भी हार ही होती थी | सफलता की दौड़ में ये नीम्बू हमारे रिश्ते हैं जिन्हें हर हाल में सँभालते हुए दौड़ना है | लेकिन तेज दौड़ते हुए इतना ध्यान कहाँ रह जाता है इसलिए आज हर कोई दौड़ने के खेल में हार रहा है | निराशा , अवसाद से घिर है | समाज में ऐसे नकारात्मक बदलाव क्यों हो रहे हैं ? , रिश्तों के समीकरण  क्यों बदल रहे हैं ? गाँव की पगडण्डीयाँ चौड़ी सड़कों में बदल गयी पर दिल संकुचित होते चले गए | क्या सारा दोष युवा पीढ़ी का है या बुजुर्गों की भी कुछ गलती है ? बहुत सारे  सवाल हैं और इन सारे सवालों के  प्रति सोचने पर विवश करने और समाधान खोजने के लिए प्रेरित करने  के लिए ‘रीता गुप्ता ‘ जी ले कर आयीं हैं “इश्क के रंग हज़ार “ इश्क के रंग हज़ार -उलझते सुलझते रिश्तों पर सशक्त कहानियाँ  ” इश्क के रंग हज़ार ‘ नाम पढ़ते ही पाठक को लगेगा कि इस संग्रह में प्रेम कहानियाँ होंगी | परन्तु आशा के विपरीत इस संग्रह की कहानियाँ  रिश्तों के ऊपर बहुत ही गंभीरता से अपनी बात करती हैं | पाठक कहीं भावुक होता है , कहीं उद्द्वेलित होता है तो कहीं निराश भी वहीँ कुछ कहानियों में रिश्तों की सुवास उसके मन वीणा के तार फिर से झंकृत कर देती हैं | कहानी संग्रह का नाम क्या हो ये लेखक का निजी फैसला है | ज्यादातर लेखक किसी एक कहानी के नाम पर ही शीर्षक रखते हैं | शीर्षक के नाम वाली कहानी बहुत मिठास का अहसास देती हैं पर जिस तरह से गंभीर कहानियाँ अंदर के पन्नों पर पढने को मिलती हैं तो मैं कहीं न कहीं ये सोचने पर विवश हो जाती हूँ कि संग्रह का शीर्षक कुछ और होता तो रिश्तों की उधेड़बुन से जूझते हर वर्ग के पाठकों को  ज्यादा आकर्षित कर  पाता | वैसे इस संग्रह की ज्यादातर कहानियाँ विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं  , फिर भी जिन्होंने नाम के कारण इस संग्रह पर ध्यान नहीं दिया है उनसे गुजारिश है कि इसे पढ़ें और फिर अपनी राय कायम करें | सबसे पहले मैं बात करना  चाहूँगी कहानी ‘आवारागर्दियों का सफ़र ‘की | ये कहानी ‘इद्र्प्रस्थ भारती’ में प्रकाशित हुई  थी | ये कहानी है 17 -18 साल के किशोर  अनु की , जो  ट्रक में खलासी का काम करता है | काम के कारण अनु को अलग -अलग  शहर में जाना पड़ता है | पिछले कई वर्षों में वो झारखंड व् आसपास के कई राज्यों में  जा चुका  है | हर जगह उसकी कोशिश यही होती है कि  उस शहर में रेलवे स्टेशन जरूर हो |  हर रेलवे स्टेशन के पास ही वो अपना डेरा बनाता है ताकि उसे खोजने में आसानी हो  | आप सोच रहे होंगे कि आखिर अनु क्या खोज रहा है ? इस खोज के पीछे एक बहुत दर्द भरी दास्ताँ है | नन्हा अनु अपने माता -पिता के साथ किसी रेलवे स्टेशन के पास ही रहता था , जब वो पिता की ऊँगली छुड़ा कर रेलगाड़ी में घुस गया था | उसके लिए महज एक खेल था , एक छोटी सी शरारत ….पर यही खेल उसके जीवन की सबसे कड़वी  सच्चाई बन गया | आज उसे कुछ भी याद नहीं है …याद है तो पिता की धुंधली सी आकृति , तुलसी  के चौरे पर घूंघट ओढ़े दिया जलाती माँ और स्टेशन के पास एक दो कमरों का एक छोटा सा मकान जिसकी दीवारे बाहर से नीली और अंदर से पीली पुती हुई थी पर दरवाजा सफ़ेद और पीछे कुएं के पास लगे आम और अमरुद के पेड़ | हर स्टेशन के आस -पास यही तो ढूँढता है वो …और हर बार बढती जातीं है उसके साथ पाठक की बेचैनियाँ | अब उसकी तलाश पूरी होती है या नहीं ये तो आपको कहानी पढ़ कर पता चलेगा पर अनु की बेचैनी को उजागर करती ये पंक्तियाँ अभी आप को भी बेचैन होने को विवश कर देंगी | “पक्षियों के झुण्ड दिन भर की आवारागर्दियों के बाद लौट रहे थे | अनु को उनके उड़ने में एक हडबडी , एक आतुरता महसूस हो रही थी | “घर ” वहाँ  इन सब का जरूर कोई ना कोई घर कोई ठिकाना होगा , वहाँ  कोई होगा जो इनका इंतजार कर रहा होगा | ‘परिवार ‘इन पंक्षियों का भी होता होगा क्या ? होता ही होगा , दुनिया में हर किसी का एक परिवार अवश्य ही होता है , सिवाय उसके , और अनु की आँखों से कुछ खारा पानी आज़ाद हो गया उसी क्षण | ‘ बाबा ब्लैक शीप ‘इस संग्रह की मेरी सबसे पसंदीदा कहानी है | ये कहानी दो पीढ़ियों के टकराव पर है | कहानी की शुरुआत अंकल सरीन की मृत्यु की खबर से होती  है , जिसे कभी उनके  पड़ोसी रहे व्यक्ति का बेटा पढता है | खबर में … Read more

मेरा शहर साफ़ हो इसमें सबका हाथ हो

मेरी एक रिश्तेदार की बीच शहर में ही बड़ी सी कोठी है. दिवाली के कोई दो दिनों के बाद मैं उनके घर मिलने गयी हुई थी. मैंने देखा कि एक सफाई कर्मी उनके घर काम कर रहा था. पहले तो उसने सारे शौचालयों की सफाई किया फिर उनके घर की नालियों की. जब वह बाथरूम में जाने को होता तो आवाज देता , “बीबी जी पर्दें खिसका लें ……” गृहस्वामिनी जल्दी से परदे खिसकाती, शौचालय जाने के मार्ग में पड़े सामानों को खिसकाती तब वह अंदर जा उनके टॉयलेट की सफाई करता. यानी उसे पूरे घर में किसी चीज को छूने का कोई अधिकार नहीं था. आखिर में वह नालियों की सफाई में जुट गया. गृहस्वामिनी उसे लगातार डांटें जा रही थी क्यूंकि वह दो दिनों से नहीं आया था. “पटाखों और फुलझड़ियों के जले-अधजले टुकड़ों से सारी नालियां भर गयीं हैं, कितना कचरा सभी जगह भरें पड़ें हैं, तुम्हे आना चाहिए था. कामचोर कहीं के…..”, वह उसे बोले जा रहीं थीं. “बीबी जी दिवाली जो थी, रमा बाई तो आ रही थी ना?”, सर खुजाते उसने पूछा. “अब रमा बाई टॉयलेट या नालियों की सफाई थोड़े न करेगी. वह तो भंगी ही न करेंगे”, मेरी रिश्तेदार ने कहा. आखिर में जब वह जाने लगा तो पॉलिथीन में बाँध कुछ बासी खाने की वस्तु उसके हाथ पर ऊपर से यूं टपकाया कि कहीं छू न जाये. जिसे खोल वह वहीँ नाली के पास बैठ कर खाने लगा. इस बीच रमा बाई उन सारे जगहों पर पोंछा लगा रही थी जहाँ से हो कर वह घर में गुजरा था.      कुछ देर वहां बैठ मैं वापस चली आई पर ‘भंगी’ शब्द बहुत देर तक जेहन पर हथोड़े बरसाता रहा. दो दिनों से उनकी नालिया बजबजा रहीं थी, टॉयलेट बास दे रहें थें पर ना तो उन्होंने खुद से साफ़ किया ना उनके यहाँ दूसरे काम करने वाली बाई ने. अन्य जातियां ऐसा क्यूँ सोच रखती हैं कि ये काम दलित या भंगी का ही है. गंदगी भले खुद का हो.    महात्मा गांधी ने इन्हें “हरिजन” नाम दिया. बाबा साहब आंबेडकर ने इनके उत्थान हेतु कितना  किया. पर क्या वास्तविकता में सोच बदली है इनके प्रति ? संविधान में इनकी भलाई के लिए कई बिंदु मौजूद हैं. पर जनमानस में इनकी छवि आज भी अछूत की ही हैं. दूसरों का मैला साफ़ करने वालों की नियति आज भी गन्दी बस्तियों में ही रहने की है.     कई कहानियाँ और तथ्य मौजूद हैं जो भंगी शब्द की उद्दभव गाथा का बखान करती हैं. हजारों वर्षों से मनु-सहिंता आधारित सामाजिक व्यवस्था का चलन रहा है. भारत वर्ण एवं जाति व्यवस्था पर आधारित एक विशाल और प्राचीन देश है, जहाँ ब्राहमण, क्षत्रिय, विषय और शूद्र, इन चार वर्णों के अन्तर्गत साढ़े छ हज़ार जातियां हैं , जो आपस में सपाट नहीं बल्कि सीढ़ीनुमा है. यहां ब्राह्मण को सर्वश्रेष्ठ एवं भंगी को सबसे अधम एवं नीच समझा जाता है पढ़ें -गीली मिटटी के कुम्भकार .          एक मान्यता के अनुसार इनका उद्दभव मुग़ल काल में होने का संकेत  भी मिलता है.  हिंदुओं की उन्‍नत सिंधू घाटी सभ्‍यता में रहने वाले कमरे से सटा शौचालय मिलता है, जबकि मुगल बादशाह के किसी भी महल में चले जाओ, आपको शौचालय नहीं मिलेगा.  अरब के रेगिस्‍तान से आए दिल्‍ली के सुल्‍तान और मुगल को शौचालय निर्माण तक का ज्ञान नहीं था। दिल्‍ली सल्‍तनत से लेकर मुगल बादशाह तक के समय तक सभी पात्र में शौच करते थे, जिन्‍हें उन लोगों से फिंकवाया जाता था, जिन्‍होंने मरना तो स्‍वीकार कर लिया था, लेकिन इस्‍लाम को अपनाना नहीं।  जिन लोगो ने मैला ढोने की प्रथा को स्‍वीकार करने के उपरांत अपने जनेऊ को तोड़ दिया, अर्थात उपनयन संस्‍कार को भंग कर दिया, वो भंगी कहलाए। और ‘मेहतर‘- इनके उपकारों के कारण तत्‍कालिन हिंदू समाज ने इनके मैला ढोने की नीच प्रथा को भी ‘महत्‍तर‘ अर्थात महान और बड़ा करार दिया था, जो अपभ्रंश रूप में ‘मेहतर‘  हो गया। वैसे इन बातों को एक कथा कहानी के तौर पर लेनी चाहिए.   सच्ची और अच्छी बात ये है कि वर्ण व्यवस्था अब चरमरा रहीं हैं. परन्तु ढहने में अभी और वक़्त लगेगा. कानून और संविधान के जरिये बदलाव का बड़ा दौर जो अंग्रेजी औपनेवेशिक काल में आरम्भ हुआ था आज तक जारी है. असल बदलाव तो तभी माना जायेगा जब सम-भाव की भावना लोगो की मानसिकता में भी आये.    मैं एक बहुमंजिला अपार्टमेंट के एक फ्लैट में रहती हूँ. अपना टॉयलेट हम खुद ही साफ़ कर लेतें हैं. बिल्डिंग में कुछ बुजुर्ग या लाचार लोग हैं जो अपनी टॉयलेट की सफाई के लिए अन्य लोगो की मदद लेतें हैं. हमारे बिल्डिंग की साफ़ सफाई का जिम्मा सफाई-कर्मियों के एक दल का है. जो घरों से कचरा बटोरतें हैं, नालियों और कॉमन स्पेस की साफ़ सफाई भी करतें हैं. सच पूछा जाये तो मुझे ये नहीं पता है कि ये किस जाति या वर्ण से हैं. सब साफ़ स्मार्ट कपडें और मोबाइल युक्त हैं. कईयों को मैंने बाइक से भी आते देखा है. बचपन में अमेरिका में रहने वाले अपने रिश्तेदारों के मुख से मैंने कुछ ऐसा ही वर्णन सुना था जो हो सकता है शाम को कैफेटेरिया में आपकी बगल के टेबल पर ही कॉफ़ी पी रहा हो, जिसने  सुबह आपके दफ्त्तर के टॉयलेट को साफ़ किया होगा. उस वक़्त देश में हमारे यहाँ एक विशेष नीली रंग की ड्रेस पहने जमादार आतें थें जिनका वेतन बेहद कम होता था और हाथ में झाड़ू और चेहरे पर बेचारगी ही उनकी पहचान होती थी और हम आश्चर्य से अमेरिकी भंगियों के विषय में सुनतें थें कि वो कितने स्मार्ट हैं.      अभी पिछले दिनों एक सरकारी कंपनी में सफाई-कर्मियों के पद के लिए सामान्य वर्ग के व्यक्तियों से आवेदन माँगा गया था. सच्चाई ये है कि जिनकी पीढियां ये कर्म करतीं आयीं हैं उनके बच्चें इन कामों को करने से इनकार कर रहें हैं. नतीजा सफाई कर्मियों की भारी मांग हो गयी है. अब जब इस काम में अच्छा पैसा मिलने लगा है तो हर वर्ण के लोग इसे करने लगें हैं. प्रतिशत अभी भी बेहद कम है पर रफ्त्तार अच्छी है. शहरों में माल्स, हवाई अड्डे, रेलवे स्टेशन, विभिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनी के दफ्त्तर यूं ही नहीं चमचमातें  दिखतें हैं.  मेरे बिल्डिंग में ही एक दिन एक सफाई कर्मी, … Read more

गीली मिटटी के कुम्भकार

मेरी सहेली रागिनी मेरे घर आई हुई थी. अभी कुछ ही देर हुए होंगे कि मेरी बेटी का फोन आ गया, मैं रागिनी को चाय पीने का इशारा कर बेटी के साथ तन्मयता से बातें करने लगी. हर दिन कि ही तरह बेटी ने अपने दफ्त्तर की बातें, दोस्तों की बातें बताते, घर जा कर क्या पकाएगी इसका मेन्यू और तरीका डिस्कस करते हुए मेरा, अपने पापा, नाना-नानी सहित सबका हाल-चाल लेती हुई फोन को रखा. जैसे ही मैंने फोन रखा कि रागिनी बोल पड़ी,“तुम तो बड़ी लकी हो, तुम्हारी बेटी तुमसे कितनी बातें करती है. मेरे बेटें तो आठ-दस दिनों तक फोन नहीं करते हैं. मैं करती हूँ तो हूँ-हाँ कर संछिप्त सा बतिया कर फोन ऑफ करने उत्सुक हो जाते  हैं. लड़की है ना, इसलिए इतना बातें करती है. मैंने छूटते कहा,“नहीं, ऐसी बात नहीं है. मेरा बेटा भी तो हॉस्टल में रह कर पढ़ रहा है. वह भी अपनी दिन भर की बातें, पढाई-लिखाई के अलावा अपने दोस्तों के विषय में और उसके कैंपस में होने वाली गतिविधियों  की भी जानकारी देता है. सच पूछो तो रागिनी मुझे या मेरे बच्चों को आपस में बातें करने के लिए टॉपिक नहीं तलाशने होते हैं”.                               मैं रागिनी के अकेलेपन और उदासी का कारण समझ रही थी. बच्चे तो उसके भी बाहर चले गए थे पर उसका अपने बच्चों के साथ सम्प्रेषण का स्तर बेहद बुरा था. उसे पता ही नहीं रहता कि उसके बच्चों के जीवन में क्या चल रहा है. बेटें उदास हैं या खुश उसे ये भी नहीं पता चल पता. कई बार तो वह, “बेटा खाना खाया, क्या खाया” से अधिक बातें कर ही नहीं पाती थी.             मैं रागिनी को बरसों से जानती हूँ, तबसे जब हमारे बच्चे छोटें थें. मैं जब भी रागिनी के घर जाती, देखती कि वह या तो किसी से फोन पर बातें कर रही है या कान में इयरफोन लगा अपना काम कर रही है. उसके घर दिन भर टी वी चलता रहता था. बच्चें लगातार घंटों कार्टून चैनल देखते रहते. रागिनी या उसके पति का भी पसंदीदा टाइम पास टी वी देखना ही था. अब जब बच्चों ने बचपन में दिन का अधिकाँश वक़्त माँ-पिता से बातें किये बगैर ही बिताया था तो अचानक से उन्हें सपना तो नहीं आएगा कि माँ-पापा से भी दिल की बातें की जा सकती हैं. माता -पिता हैं गीली मिटटी के कुम्भकार  वाकई ये माता-पिता के लिए एक बड़ी चुनौती है कि वो अपने बच्चों के वक़्त को – उनके बचपन को किस दिशा में खर्च कर रहें हैं.  “बच्चे तो गीली मिटटी की तरह होतें हैं. उस गीली मिटटी को अच्छे आचार-व्यवहार और समझदारी की मद्ध्यम आंच में पका कर ही एक इन्सान बनाया जाता है”. जन्म के पहले-दूसरे महीने से शिशु अपनी माँ की आवाज को पहचानने लगते हैं.  महाभारत में अभिमन्यु तो अपनी माँ के गर्भ से ही चक्रव्यूह  भेदने की कला सीख कर पैदा हुआ था. रिसर्च भी  ये बताते हैं कि बच्चा गर्भ से ही अपने माता-पिता की आवाज को सुनने समझने लगता है. इस लिए बच्चों के सामने हमेशा ही अच्छी- अच्छी बातें करें. अनगढ़ गीली मिटटी के बने बाल मानस को आप जैसे चाहें ढाल लें. इस पर बाल मनो चिकित्सक मौलिक्का शर्मा बताती हैं कि जो माता-पिता अपने बच्चों से शुरुआत से ही खूब बतियातें हैं, हँसतें हैं हंसाते हैं, अपनी रोजमर्रा की छोटी छोटी बातें भी शेयर करते हैं, उन के बच्चों को भी आदत हो जाती है अपने पेरेंट्स से सारी बातें शेयर करने की. और ये सिलसिला बाद की जिन्दगी में भी चलती रहती है. लाख व्यस्तताओं के बीच अन्य दूसरी जरूरी कामों के साथ बच्चे अपने माता-पिता से जरुर बतिया लेंगे. अपने बच्चों को दें क्वालिटी टाइम  संयुक्त परिवारों में बच्चों से बातें करने, उन्हें सुनने वाले कई लोग होते हैं माता पिता से इतर, इसके विपरीत एकल परिवारों में माँ-बाप दोनों अपने अपने काम से थके होने चलते बच्चों को क्वालिटी टाइम ही नहीं देते हैं बातचीत करनी तो दूर की बात है.  होली फॅमिली हॉस्पिटल , बांद्रा, मुंबई के चाइल्ड साइकोलोगिस्ट डॉक्टर अरमान का कहना है कि “अपने बच्चों के बचपन को सकारात्मक दिशा में खर्च करना पेरेंट्स का प्रथम कर्तव्य है”.  अक्सर घरों में बच्चों को टी वी के सामने बिठा दिया जाता है, खाना-पीना खाते हुए वे घंटों कार्टून देखते रहतें हैं. खुद मोबाइल, कंप्यूटर या किसी भी अन्य चीज में व्यस्त हो जातें हैं. इस दिनचर्या में एक बेहद औपचारिक बातों के अलावा पेरेंट्स बच्चों से बातें ही नहीं करतें हैं. बचपन से डालें बातचीत की आदत  बच्चे के सामने बातें करना मानो आईने के समक्ष बोलना. आपके बोलने की लय, स्वर, लहजा, भाषा वे सब सीखते हैं. बातचीत ही वो पल होतें हैं जब आप अपने अनुभव और विचारों से उन्हें अवगत करतें हैं. अपनी सोच उनमें रोपित करतें हैं. जैसा इंसान उसे बनाना चाहतें हैं वैसे भाव उसमे भरतें हैं. आप जब बूढ़े हो जाएँ और तब भी आपके बच्चें आपसे बातें करने को लालायित रहें इसके लिए आपको उसके गोद में रहने से ही शुरुआत करनी होगी. १- छोटे बच्चों को खिलाते पिलाते, मालिश करते, नहलाते यानि जब तक वह जगा रहे उसके साथ कुछ न कुछ बोलतें रहें. ऐसे बच्चे जल्दी बोलना भी शुरू करतें हैं. २- थोड़ा बड़ा होने पर गीत और कहानी सुनाने की आदत डालें. कथा-श्रवण की आदत उसे कुछ ही वर्षों में पठन के लिए उत्प्रेरित करेगी. रंग बिरंगे किताबों से उन्हें लुभाएँ और किताबों से दोस्ती कराने की भरसक कोशिश करें. 3- टीवी चलाने के घंटे और प्रोग्राम तय करें. अनवरत अनर्गल अनगिनत वक़्त तक टी वी आप भी ना देखे ना ही बच्चें को देखने दें. अपने मन को यदि आप थोड़ा साध लेतें हैं तो यकीन मानिये आप स्वअनुशासन का एक बेहतरीन पाठ अपने बच्चों को पढ़ा देंगें. ४- छोटे बच्चों में आप कई अच्छे संस्कार रोपित कर सकतें हैं अपने सम्प्रेषण के जरिये. जैसे देश प्रेम, स्वच्छता. सच बोलना, लड़की को इज्जत देना इत्यादि. आज का आपके द्वारा रोपित बीज रूपेण संस्कार के वट वृक्ष के … Read more