सुनो घर छोड़ कर भागी हुई लड़कियों

भागी हुई लड़कियाँ

मैं एक कहानी लिखने की कोशिश में हूँ l घरेलू सहायिका किचन में बर्तन साफ कर रही है l  मैं एक सशक्त नायिका गढ़ना चाहती हूँ पर घरेलू सहायिका के बर्तनों की टनटनाहट मेरे सोचने में बाधा डाल रही है l तभी घंटी बजती है l सहायिका की भाभी आई हैl जोर-जोर से बता रही है, “देखो करछी से कैसे मारा है, तुम्हारे भैया नेl” मेरी नायिका की-बोर्ड पर ठिठक कर खड़ी हो जाती है l सहायिका अपने भाई के लिए दो गालियां उछालती है हवा में, उसकी भाभी भी अनुसरण कर दो गालियां उछालती है | फिर दोनों हँस देती है l उनका हँसना मेरी नायिका की तरह अपनी किसी उपलबद्धि पर होने वाली प्रसन्नता नहीं है, ना ही नायक के प्रति प्रेम का कोई सूचक, ना ही जीवन के प्रति अनुराग l उसका हँसना चट्टान फाड़ पर निकले किसी नन्हें अंकुर की सी जिजीविषा है l जीवन के तमाम संघर्षों में उसने हँसने की आदत डाल रखी है…  आखिर कोई कितना रोए? पता नहीं क्यों मैं टोंकती हूँ उसे, “क्यों पिटती हो तुम लोग, क्यों नहीं करती विद्रोह?” जवाब में वो हँसती है, “हम लोगों में ऐसा ही होता है दीदीl मेरे घर से चार घर छोड़ कर रहती है सुनयना, पहला पति पीटता थाl  फिर उसने वो ले लिया… वही, क्या कहते हैं आप लोग…  हाँ! वही डिफोर्स l फिर दूसरी शादी कर ली, अब वो भी पीटता है| अब बताओ कितने लेगी डिफोर्स l मैं बताती हूँ उसे कि मेरी नायिका बढ़ चुकी है विद्रोह के लिए आगे l वो फिर हँसती है, “वो कर सकती है… क्योंकि आप उसके लौटने के दरवाजे खोल देती है l एक ठोस जमीन दिखती है उसे, पर हकीकत में… जो जहाँ जैसे फँस गया है उसे लौटने देते लोग… दूसरी बार तो बिलकुल भी नहीं l हाँ थोड़ा और और खिसक देते हैं पैरों के नीचे से जमीन l उसकी हकीकत और मेरी कल्पना के बीच थमी हुई हैं, की बोर्ड पर थिरकती मेरी अंगुलियाँ l मैं सोचती हूँ, बार- बार सोचती हूँ, फिर टाइप करती हूँ… “ये जमीन हमें ही तैयार करनी होगी हकीकत में” वंदना बाजपेयी   आपको ये राइट अप कैसा लगा हमें अपने विचारों से अवगत कराएँ l  अगर आप को हमारा काम पसंद आता है तो कृपया अटूट बंधन साइट सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन पेज लाइक करें l

जया आनंद की लघुकथा आम्ही सक्सेसफुल आहोत 

जया आनंद की लघुकथा आम्ही सक्सेसफुल आहोत 

  सफलता की परिभाषा क्या है ? वास्तव में सफलता को किसी एक परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता |  किसी के लिए सफलता का मानक पैसा है, किसी के लिए नाम और किसी के लिए काम की संतुष्टि | हर कोई सफलता के पीछे दौड़ रहा है पर ये तय करना जरूरी है की ये परिभाषा उसकी खुद की बनाई हुई है या किसी दूसरे की | शायद इसीलिए हर कोई मृगतृष्णा में फँसा हुआ है |कब ऐसा होता है की व्यक्ति खुद को सक्सेस फुल मानता है | आइए जानते हैं जया आनंद जी की  प्रारनाडेक लघुकथा  आम्ही सक्सेसफुल आहोत से …. आम्ही सक्सेसफुल आहोत    नीरजा प्रिंसिपल के केबिन से निकलकर बहुत तनावग्रस्त थी प्रिंसिपल की अपेक्षाओं पर खरा उतरना कितना मुश्किल है  ।कितनी जी-जान से कोशिश करती है वो, चाहे  विद्यार्थियों  को  पढ़ाना हो या कॉलेज  का कोई भी साँस्कृतिक  कार्यक्रम पर फिर भी आलोचना सुननी ही पड़ जाती।     घर गृहस्थी के झंझावातों से निकलकर अपनी पहचान बनाने की जद्दोजहद में नीरजा ने नासिक में  यह नौकरी की थी। उसकी डिग्री की तुलना में य़ह नौकरी उसके लिए छोटी थी पर कुछ नहीं से तो कुछ बेहतर यही सोचकर वह अपने मन को समझा लेती थी। कभी -कभी उसे लगता कि वह न तो घर गृहस्थी में पूरी तरह सफल है और न करियर में। उसके साथ  की सहेलियां डॉक्टर बन गयीं, इंजीनियर बन गयी और वह एक छोटे से कॉलेज में पढ़ा रही है…….और इस छोटे से कॉलेज में भी सुकून  नहीं। यह सब सोचते हुए हाथ में फाइल पकड़े उसके कदम स्टाफ रूम की ओर मुड़ गए। पास की कक्षा से दीपा ठाणेकर का  स्वर गूंजा।  दीपा आईटी की टीचर है,पढ़ाई में बहुत अच्छी ,छात्र बड़े ध्यान से सुनते हैं  उसे  । “स्टूडेंट्स आप आईटी विषय लेकर क्या करना चाहते हो  ? ” दीपा छात्रों से पूछ रही थी।  किसी ने उत्तर दिया “आईटी प्रोफेशनल” ,” बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी में काम करना चाहता हूं” ,” फॉरेन जाकर सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनना चाहता हूं”…. सब के अलग-अलग उत्तर आ रहे थे । “आप जो भी बनो उस काम को बहुत अच्छे से करने का ….चांगला काम  करनार पाहिजेत तभी आप सक्सेसफुल होंगे। मैं चाहती तो बड़ी आईटी कंपनी में नौकरी कर लाखों कमाती पर  मेरी सिचुएशन ऐसी नहीं थी ।मै  ये नौकरी  कर के खुश हूँ  ,मी मह्णते आम्ही सक्सेसफुल आहोत ” ।                          नीरजा के कानों में दीपा ठाणेकर कर का स्वर स्पष्ट सुनाई पड़ रहा था पर  नीरजा कुछ अनसुना  करते  हुए स्टाफ रूम में आकर  निढाल हो कर बैठ गयी । टेबुल  रखी पानी की बोतल से  एक  घूंट पानी पिया और मोबाइल देखने लगी। तभी मैसेंजर  पर  एक संदेश आया  । “हैलो  मैम मैं राजीव आपका पुराना विद्यार्थी ..” “राजीव …… !! ” नीरजा ने  उसकी फोटो को गौर से  देखा   “…..अच्छा-  अच्छा राजीव कश्यप …कैसे  हो?”      हाल- चाल लेने के बाद नीरजा ने राजीव से पूछा  ” हिन्दी पढ़ते हो या  नहीं ?” “हाँ  मैम !पढ़ता हूँ कभी- कभी और आपको याद भी करता हूँ….सच पूछिये तो मैम !आपने जो पढ़ाया वो कभी भूला ही नहीं और इस कॉलेज से पास होने वाला हर विद्यार्थी आपको याद करता है ,आपकी पहचान तो  हम  विद्यार्थियों के दिलों में है। “      नीरजा की आँखों से दो बूंद मोबाइल पर ही टपक गयीं और कानो में दीपा ठाणेकर की आवाज गुंजित होने लगी  ‘आप जो भी बनो उस काम को अच्छे से करने का…..मैं ये नौकरी कर  के खुश हूँ  आम्ही सक्सेसफुल आहोत ….’    नीरजा की आंखे राजीव के संदेश पर टिकी थीं और उसके मन की तरंगो पर  तरंगायित हो रहा था  आम्ही सक्सेसफुल आहोत….  हाँ मैं सफ़ल हूँ ‘          लेखिका  डॉ जया आनंद  परिचय जया आनंद  प्रवक्ता  स्वतंत्र लेखन    स्वतंत्र लेखन -विवध भारती, मुम्बई आकाशवाणी,दिल्ली आकाशवाणी, लखनऊ दूरदर्शन अहा जिंदगी, समावर्तन, पुरवाई,  अभिदेशक, रचना उत्सव , विश्वगाथा,अटूट  बंधन,अरुणोदय ,परिवर्तन, हस्ताक्षर,साहित्यिकडॉट कॉम ,matrubharti, प्रतिलिपि  ,हिंदुस्तान  टाइम्स  आदि में  रचनाओं  का प्रकाशन    अनुवाद -‘तथास्तु’ पुस्तक (गांधी पर आधारित) ,संस्थापक – विहंग एक साहित्यिक उड़ान (हिंदी मराठी भाषा  संवर्धनाय)। प्रकाशित कहानी संग्रह- पाती प्रेम की  प्रकाशित साझा उपन्यास–  हाशिये का हक   प्रकाशित  साझा  कहानी संग्रह– ऑरेंज  बार पिघलती रही  maipanchami@gmail.com  लघु कहानी — कब तक ? लघुकथा -कलियुगी संतान सुधीर द्विवेदी की लघुकथाएं लघुकथा – एक सच यह भी आपको “जया आनंद की लघुकथा आम्ही सक्सेसफुल आहोत”  कैसी लगी ? अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराएँ | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबूक पेज लाइक करें |

माँ से झूठ

माँ से झूठ

  माँ ही केवल अपने दुखों के बारे में झूठ नहीं बोलती, एक उम्र बाद बच्चे भी बोलने लगते है | झुर्रीदार चेहरे और पोपले मुँह वाली माँ की चिंता कहीं उनकी चिंता करने में और ना बढ़ जाए |इसलिए अक्सर बेटियाँ ही नहीं बेटे भी माँ से झूठ बोलते हैँ | मदर्स डे के अवसर पर एक ऐसी ही लघुकथा .. माँ से  झूठ  ट्रेन ठसाठस भरी हुई जा रही थी | हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था | जनरल डिब्बे में बैठना तो क्या, खड़ा रहना भी मुश्किल था | ऑफिस से बुलावा ना आ गया होता तो वो भी तयौहार के मौसम में यूँ बिना रिजर्वेशन जाने के मूड में नहीं था | पर नौकरी जो ना करवाए सो कम | पसीने से लथपथ किसी तरह से जगह बना कर खड़ा हुआ तब तभी मोबाइल की घंटी बजी | अपनी ही जेब से मोबाइल निकालने की मशक्कत करने के बाद देखा माँ का फोन था | फोन उठाते ही माँ बोलीं, “बेटा गाड़ी में जगह मिल गई?” “हाँ! माँ, मिल गई, उसने आवाज में उत्साह लाते हुए कहा | “तू ठीक से तो बैठ गया ना?” माँ तसल्ली कर लेना चाहती थी | हाँ, बिल्कुल, काफी जगह है आराम से बैठा हूँ| “ तुम चिंता मत करो | उसने इस बार अपनी आवाज का उत्साह थोड़ा और बढ़ाया | “ठीक है बेटा, भगवान का लाख-लाख शुक्र है कि तुम्हें जगह मिल गई, मैं तो डर रही थी |” माँ के स्वर में तसल्ली थी और उसके चेहरे पर इत्मीनान | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … लघुकथा -कलियुगी संतान झूठा –(लघुकथा ) तोहफा (लघुकथा) एक लघु कहानी —–सम्मान

रेगिस्तान में फूल

रेगिस्तान में फूल

जीवन के मौसम कब बदल जाएँ कहा नहीं जा सकता | कभी प्रेम की बारिशों से भीगता जीवन शुष्क रेगिस्तान में बदल जाए, पर कहीं ठहर जाना, मनुष्य की वृत्ति भले ही हो जीवन की नहीं | आइए पढ़ें बारिशों के बाद एक ऐसे ही रेगिस्तान में ठहरे जीवन की कहानी .. रेगिस्तान में फूल   वह मेरी तरफ हैरान सा होता हुआ देखता रहा | जैसे मैंने कोई बहुत बड़ी बात कह दी हो |अब इसमें मेरा क्या दोष था ? अब इसमें मेरा दोष क्या था ? मैंने उसे कोई ऐसा अवसर नहीं दिया था की वो समझने लगे की मुझे उससे प्यार है | मुझे तो अपने देश वापस जाना ही था | उसके इस एकतरफा प्यार की जिम्मेदारी लेने को मैं बिल्कुल तैयार नहीं थी | मुझे अहसास  था की पीटर एक सीधा -सादा सच्चा  इंसान है | पर मैं क्या करती मेरे दिमाग में तो यह कूट कूट कर भरा था की यहाँ के अंग्रेज लोग फरेबी, दिलफेंक और अस्थायी रूप से घर गृहस्थी पर ध्यान देते हैं |   अपने देश की बात ही कुछ अलग है |संस्कार कए भूत सर चढ़ कर बोल रहा था | वह अमरीकी एक ही कार्यालय में काम करता हुआ कब मुझसे प्यार कर बैठा, उस समय शायद उसे भी पता ना चला | चे की फुरसत पर वह मुझे निहारता मुझे कुछ कहने से सकुचाता |पर अब मुझे लगने लगा था कि  उसके मन में कोई और ही दवंद चल रहा है |   जब मैंने पीटर से इंडिया जाने की बात कही उसे विश्वास ही नहीं हुआ | उसकी हैरानगी चरम सीमा पर तब पहुंची जब मैंने उससे कहा कि, “मेरी शादी होने वाली है | और मैं नौकरी छोड़ कर हमेशा के लिए जा रही हूँ |” वह एकदम अवाक सा मेरी ओर देखता रह गया | उसकी नीली आँखों में मुझे समुद्र की गहराई नजर आने लगी |   अपनी नम हुई आँखों को तनिक छुपाते हुए वो एकदम से बोल उठा, “ हे (hey ) listen meera, please don’t go.I will miss you .”   “अरे यह क्या उसमें इतना साहस कैसे आ गया |मुझे उसकी बात पर अचानक हँसी आ गई | मुझे मुसकुराते देख वो अचानक से गंभीर हो गया |उसे गंभीरता से उसने मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए और बोल उठा, “please marry me meera.”   उसकी हालत देखकर मुझे लगा जैसे कोई बच्चा अपने खिलौने के लिए जिद कर रहा हो | मैं क्या जवाब देती ? चुपचाप अपने आप को समेटते हुए घर चली आई, और दो दिन बाद की फ्लाइट की तैयारी करने लगी |   दिन कैसे उड़े पता  नहीं चला | मेरी शादी एक फौजी अफसर से बड़ी धूमधाम से हुई |अपने सपनों की रंग भरी दुनिया में मैं खो गई |ना मुझे पीटर याद रहा और ना ही उसका शादी का प्रस्ताव |पर कहते हैं ना किस्मत कब पलट जाए किसी को पता ही नहीं चलता |   6 महीने भी ना बीते थे कि मेरी दुनिया जो खुशियों से सराबोर थी उजाड़ गई | मेरे पति मरणोंपरांत परमवीर चक्र मेरे हाथों में पकड़ा कर, मुझे रोता बिलखता छोड़ गए | शहादत की गरिमा, तालियों की गड़गड़ाहट मेरे लिए कोई मायने नहीं रखती |   दो साल बीत गए | जिंदगी थोड़ी बहुत पटरी पर चल निकली थी | अचानक एक दिन पीटर का फोन आया | मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ | इतने दिनों बाद मैं उसे कैसे याद आ गई , और मेरा नंबर उसे कहाँ से मिला ? मैं थोड़ा घबरा गई |उधर से आवाज आई, “क्या मैं मीरा जी से बात कर रहा हूँ ?”     एक क्षण को मई स्तबद्ध रह गई मैंने कहा “जी कहिए, क्या आप पीटर हैं ?” इतना सुनते ही वो भी खुश हो गया, “अरे वाह तुम मुझे भूली नहीं?” वह मुझसे  मिलना चाहता था |मैंने उसे अपने घर आने का निमंत्रण दे दिया | शाम होने से कुछ पहले ही वो मेरे घर पहुँच गया | उसने बताया कि वो किसी ऑफिसियल काम से इंडिया आया है | कुछ औपचारिक बातों के बाद उसने मेरे पति के बारे में पूछा | मेरा दुख सुन कर उसकी आँखें भर आईं | थोड़ी देर वो यूँ ही चुपचाप बैठा रहा और फिर भारी मन से फिर आने का वायदा कर वह चला गया |     आज मैं पीटर के साथ उसके देश जा रही हूँ, उसकी पत्नी बनकर | बीते दो साल के अंतराल में पीटर मुझे भुला नहीं पाए | मेरी बिखरी जिंदगी को अपने सशक्त हाथों में थामकर उन्होंने ये सिद्ध कर दिया कि आत्मीयता, संस्कार और भावनाओं का कोई देश जात पात  और मजहब नहीं होता | वह इन सबसे ऊपर है |   आज सब कुछ बदल चुका है | वो मेरी साथ वाली सीट पर मेरे हाथों को कसकर पकड़ कर बैठे हैं | जैसे कह रहे हों , “ मीरा  अब मैं तुम्हें अपने से दूर नहीं जाने दूंगा | स . सेन गुप्ता यह भी पढ़ें “वो फ़ोन कॉल” एक पाठकीय टिप्पणी कविता सिंह की कहानी अंतरद्वन्द इत्ती-सी खुशी  ठकुराइन का बेटा आपको कहानी “रेगिस्तान में फूल कैसी लगी ? अपने विचारोंसे हमें अवश्य अवगत कराए | अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |

फ्लाइट

फ्लाइट

जीवन में हम कितनी उड़ाने भरते हैं | सारी मेहनत दौड़ इन उड़ानों के लिए हैं | पर एक उड़ान निश्चित है …पर उस उड़ान का ख्याल हम कहाँ करते हैं | आइए पढ़ें वरिष्ठ लेखिका आशा  सिंह की समय के पीछे भागते एक माँ -बेटे की मार्मिक लघु कथा … फ्लाइट  मां,मेरी सुबह सात बजे थी फ्लाइट है-आशुतोष ने सूचना दी। इतनी जल्दी- अंजलि हैरान हो गई। मैं तो आपका पचहत्तरवां जन्मदिन मनाने आया था, साथ साथ लालकिले पर झंडा रोहण भी देख लिया।शाम को आपके साथ केक काट लिया।काम भी तोजरूरी है- पैंकिंग में लग गया। अंजलि ने गहरी सांस ली कहना चाहती थी, अभी तो जी भरकर तुम्हें देखा भी नहीं, पसंद का खाना भी नहीं खिला सकी,पर कंठ अवरुद्ध हो गया।बेटे को उच्चशिक्षा दी,और वह विदेश उड़ गया।अपना घर संसार भी बसा लिया।बेटे केआग्रह पर जाती,पर वहां तो अकेलापन और हावी हो जाता।सब अपने में व्यस्त,किसी के पास समय नहीं था।कुछ देर के लिए कोई पास बैठ जाता, रेगिस्तान में फूल खिल जाते।इतने बड़े बंगले से तो अपना मुम्बई का छोटा फ्लैटही अच्छा।सामने पार्क में कुछ वरिष्ठ लोग मिलते, बातें होती। घर आकर कामवाली बाई से चोंच लड़ती।एकाकी होने के कारण थोड़ी चिड़चिड़ी हो गई थी। काश, यह रात कभी ख़तम न हो।कल सुबह आशु चला जायेगा, पुनः एकाकीपन का अंधेरा डसने लगेगा। चुपचाप बालकनी में कुर्सी पर बैठ गई। सुबह आशु मां से विदा लेने आया, फ्लाइट पकड़नी थी,पर मां की फ्लाइट तो उड़ चुकी थी। आशा सिंह यह भी पढ़ें …. ठकुराइन का बेटा जेल के पन्नों से -नन्हा अपराधी अहसास दीपक शर्मा की कहानी -चिराग़-गुल आपको कहानी “फ्लाइट” कैसी लगी ? हमें अपने विचारों से अवश्य अवगत कराए | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |

मन बैरागी

मन बैरागी

प्रेम  की आधारशिला विश्वास है | विश्वासहींन  प्रेम भावनाओं को धीरे -धीरे वैसे ही खोखला करता जाता है जैसे दीमक घर की दीवारों को |कब मन से प्रेम का पक्षी उड़ जाता है और खाली पिजर वैरागी हो जाता है पता ही नहीं चलता | आइए पढ़ें कविता सिंह की लघुकथा .. मन बैरागी वही तो है, बिल्कुल वही। आज पाँच वर्षों के बाद उसे देखा मैंने हरिद्वार में पतितपावनी गंगा के किनारे। गेरुआ वस्त्र में लिपटी हुई, मुख पर असीम शांति लिए हुए चोटिल और बीमार पशुओं की सेवा करते करते हुए। एकबारगी मन हुआ दौड़ के उसके पास पहुँच जाऊँ और पूछूँ कि वो यहाँ इस रूप में क्या कर रही? पर अपने साथ के लोगों के सामने मैं ऐसा नहीं कर सकी। अगली सुबह मैं चुपके से अकेले उसी स्थान पर पहुँची जहाँ उसे कल देखा था। आज भी वो प्रातः ही अपने कल के कार्य में लीन दिखी। मैं धीरे से उसके सम्मुख जाकर खड़ी हो गई। उसने निगाहें उठाकर मेरी तरफ देखा उसकी आँखों में मुझे पहचानने की चमक साफ दिखाई दी। “सुधा! तुम सुधा ही हो ना?” मैंने पूछ ही लिया। वो कुछ देर चुपचाप अपने कार्य में लगी रही फिर वापस एक कुटिया की तरफ बढ़ गई। “बोलो सुधा! यहाँ इस रूप में क्यों और कैसे?” मैंने उसका पीछा नहीं छोड़ा। वो कुटिया के बाहर पेडों के झुरमुट बीच चैपाल पर मुझे बैठने का इशारा करते हुए बैठ गई। “इन चार वर्षों में आप पहली हो दी जो मुझे पहचानने वाली मिली हो। तुम्हें तो सब पता है, सुधा ना जाने किस भाव किस प्यास की तलाश में भटकती रही साल दर साल। ब्याह हुआ लगा तलाश पूरी हुई पर वहाँ तो वो बस देह थी, दासी थी। फिर मिला एक पुरुष प्रेम के सपने दिखाने वाला प्रेम रस में डूबी बातें करने वाला पर अपना बनाने के नाम पर बिदक गया। कुछ वर्ष ऐसे ही कट गए उसी वक्त तो आपसे मुलाकात हुई थी मेरी। मेरी जिंदगी में आई मेरी एकमात्र सखी, बहन जो भी कह लो।” कहते-कहते वो चुप हो गई। ये वही सुधा थी जिसकी आँखें बात बात पर भर जाया करती थी पर आज कितनी कठोरता पूर्वक वो अपने बारे में बता रही थी। “जिसके साथ सारा घर द्वार सारे रिश्ते नाते छोड़ कर निकली थी आपके बहुत समझाने के बाद भी, उसे पाकर लगा मेरी सारी तलाश मेरी इच्छाएं पूरी हो गईं। आरम्भ के छः महीने तो मेरे कदम जमीन पर थे ही नहीं। फिर वक्त ने ऐसी करवट ली कि मैं पत्थर की शिला बनती गयी। उसे मुझ पर सदा सन्देह रहा कहीं मैं पिछली जिंदगी तो याद नहीं करती उसकी अनुपस्थिति में उनसे बात तो नहीं करती। प्रेम अथाह था दी पर विश्वास चूक गया। किस घड़ी मन बैरागी हुआ और यहाँ आ पहुँची पता ही नहीं चला। यह असीम शांति है हृदय परिपूर्ण है इन अबोले जीवों के बीच।” कहते हुए वो उठी और फिर अपने कर्मपथ की ओर बढ़ गयी। कविता सिंह   यह भी पढ़ें ॥ जीवन-संध्या मन की गाँठ (कोरोना इफ़ेक्ट ) रिश्ते तो कपड़े हैं   आपको लघु कथा मन वैरागी कैसी लगी ? अपने प्रतिक्रिया से हमें अवश्य अवगत कराए |अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो अटूट बंधन साइट सबस्क्राइब करें व पेज लाइक करें |

खटास

लघुकथा -खटास

हमारे घर की रसोई केवल पेट भरने का काम ही नहीं करती | जीवन के कई महत्वपूर्ण सूत्र भी यहीं से निकलते हैं | रिश्तों में खटास आ जाना कोई नई बात नहीं है पर माँ जानती है इस खटास को दूर कैसे किया जाए | प्रस्तुत है अंजू खरबंदा जी की लघुकथा .. खटास  आज आरवी ऑफिस से सीधा माँ के यहाँ आ गई । कुछ देर की हल्की फुल्की बातचीत के बाद माँ  ने कहा- “बेटा! आरव को भी फोन कर दे, खाना यहीं खाना । तुम्हारी पसंद की मसाला भिंडी बना रही हूँ आज!” “हाँ कर दूंगी अभी !” फोन पर गेम खेलते हुए अनमने मन से आरवी ने जवाब दिया । माँ ने रसोई से फिर आवाज लगाई- “अच्छा सुन! फ्रिज में से दही निकाल कर ले आ तो जरा !” आरवी ने फ्रिज खोल दही निकाली, उसकी खुशबू से अंदाजा लगाते हुए कहा- “माँ ये तो खट्टी हो गई लगती है, अब ये खाई नहीं जाएंगी ।” माँ ने आटा गूँथते हुए बिना उसकी ओर देखे ही जवाब दिया – “अरे ताजी दही ही है! तुम इसे अच्छी तरह से मथ लो और इसमें थोड़ा-सा दूध और पकौड़ी डाल रायता बना लो, जो हल्की खटास हुई भी तो चली जाएगी ।” “क्या इतने से ही …. काश इतनी आसानी से रिश्तों की खटास भी निकाली जा सकती !” उसकी हल्की सी बुदबुदाहट माँ के कानों में पड़ी तो वह चौंक उठी! “सब ठीक तो है न आरवी !” माँ ने उसके करीब आकर पूछा तो इतने दिनों से दिल में दबी कसक आँखों से बह निकली – “माँ… बहुत दिनों से आपसे बात करना चाह रही थी पर…  कर नहीं पा रही थी । माँ चपल चंचल खंजन सी फुदकने वाली आरवी के माथे पर पड़ आए बलों को गौर से देखती रहीं । “माँ … एक्चुली हम दोनों के वर्किंग होने के कारण हम एक दूसरे को उतना समय नही दे पा रहे जितना देना चाहिए, इस वजह से मेरे और आरव के बीच … !” आरवी इससे आगे कुछ कह न पायी । “बेटा रिश्ते जताए नहीं निभाए जाते हैं! शुरु शुरु में ऐसी परेशानियाँ सभी के सामने आती हैं पर थोड़ी सी समझदारी से हल भी हो जाती हैं!” माँ की बात समझने की कोशिश करते हुए आरवी ने माँ की ओर देखा । वहाँ उसे आशाओं के दीप झिलमिलाते हुए दिखे । माँ ने मुस्कुराते हुए आरवी के सिर पर हाथ फेरा और दही के साथ मंथनी आरवी के आगे कर दी । अंजू खरबंदा दिल्ली अंजू खरबंदा यह भी पढ़ें ………. लघुकथा – एक सच यह भी लघुकथा -कलियुगी संतान साला फटीचर तीसरा कोण – संजय वर्मा की तीन लघुकथाएं आपको लघु कथा खटास कैसी लगी ? हमें अवश्य अवगत कराये | अटूट बंधन की रचनाएँ प्राप्त करने के लिए हमारा फेसबूक पेज लाइक करें और atootbandhann.com को सबस्क्राइब करें |

ढोंगी

आशा सिंह

श्राद्ध पक्ष के दिन चल रहे हैं |हम सब अपने अपने हिसाब से अपने पित्रों के प्रति सम्मान व्यक्त कर रहे है | लेकिन अगर श्रद्धा न हो तो सब कुछ मात्र ढोंग रह जाता है | पढिए आशा सिंह दी की लघु कथा ढोंग ढोंग    आज पितृपक्ष की मातृनवमी है। मैं छत पर मां की पसंद का भोजन लिए कोओं की प्रतीक्षा कर रहा हूं। कोए भी मेरे ढोंग पहचानते हैं, आ नहीं रहे हैं। उस दिन आफिस में जैसे ही टिफिन खोला, मन व्याकुल हो उठा। लगा कोई पुकार रहा है। टिफिन चपरासी की ओर बढ़ा दिया, बोला ‘खाने के बाद टिफिन घर पर पहुंचा देना ‘सब पूछते रह गये कि क्या बात हो गई। बिना किसी से कुछ कहे मैं तेजी से कार भगाता हुआ घर पहुंचा। टी वी चल रहा था, बच्चे शोर मचा रहे थे। मुझे बेवख्त आया देख पत्नी चौंक गयी-‘क्या हुआ?’ मां कहां है? अपने कमरे में सो रही होंगी। मां के कमरे में देखा, उसकी सांसें उखड़ रही थी। मुझे देख कर मुस्कराई,-‘तू आ गया बेटा। मैं याद कर रही थी कि तुझको बिना देखे न चली जाऊं।‘ नहीं,आप कहीं नहीं जा रहीं। मैं अभी हस्पताल लेकर चलता हूं। उसने हाथ हिलाकर मना कर दिया-‘बस बेटा वक्त आ गया है।‘ मैंने मां के ठंडे पड़ते हाथ को थाम लिया-‘मां कुछ बोलो, कुछ चाहिए।‘ हल्की सी मुस्कान उसके चेहरे पर आई- मेरी प्लेट लगा ला। जब कभी हम पार्टियों में जाते थे, मां को बुफे सिस्टम से बड़ी चिढ़ थी। बफैलो सिस्टम कहती थी। मुझसे कहती-मेरी प्लेट लगा कर ले आ।‘ प्लेट में बस एक रोटी, एक ही सब्जी, दही बड़ा और पापड़। पार्टी में तरह तरह के व्यंजनों की भरमार होती, पर मां का एक ही अंदाज था। कभी पूछा तो रटा-रटाया जवाब-‘उतना ही लो थाली में, बहे न अन्न नाली में। कभी कभी मैं कह देता हजार रूपए प्लेट थी। मां हंस देती- हम उनके कार्य क्रम में आये है, प्लेट का पैसा नहीं देखने। मैं रसोई में आया, फटाफट रोटी बनाने लगा।सहम कर पत्नी और बेटी भी मदद के लिए आ गई। कल दहीबड़े बने थे, प्लेट में लगाओ। हां पापड़ भी।बेटी पापड़ भूनने चली, मैने कहा- दादी को तले पापड़ पसंद है। जल्दी से प्लेट लगा कर मां के पास गया,पर वह जा चुकी थी। मैं प्लेट लिए खड़ा रह गया। इस समय भी छत पर खड़ा हूं। लग रहा है कि कोऐ भी कह रहे हैं- ढोंगी। आशा सिंह श्राद्ध पक्ष : उस पार जाने वालों के लिए श्रद्धा व्यक्त करने का समय जीवित माता -पिता की अनदेखी और मरने के बाद श्राद्ध : चन्द्र प्रभा सूद श्राद्ध की पूड़ी आपको लघु कथा “ढोंगी कैसी लगी | अटूट बंधन का फेसबूक पेज लाइक करें और साइट को सबस्क्राइब करें |ताकि अटूट बंधन की रचनाएँ सीधे आप तक पहुँच सकें |

सलीब

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सलीब पर  लटकना कितना  दर्दनाक होता है पर ये दर्द न जाने कौन कौन भोगता आया है चुपचाप |  सलीब यानी क्रूज यह कहानी कहानी है उन लड़कियों की जिन्होंने अपने फ़र्ज के आगे खुद को अकेलेपन के सलीब पर पाया। सलीब  रीटा मैडम office में काम करने वाली सीधी सादी औरत हाँ एक समय के बाद कोमर्य होते हुए भी क्या एक लड़की औरत ही तो कहलाती है या बन जाती है। टाइम से office आना टाइम से जाना घर से office और ऑफ़िस से घर का ज़रूर्री सामान समान लेते हुए घर जाना। बरसों से एक ही दिनचर्या एक ही घर एक ही रास्ता,पर आज खाने की टेबल पर अकेले नहीं एक चुलबुली राशी ने घेर ही लिया उनको। क्या आप अकेले खाना खाती हो ज़रूर पनीर लायी हो तभी चुपके चुपके , रीटा मैडम कुछ कह पाती तब तक तो राशी अपने पोहे का डब्बा लेकर उनके खाने पर आक्रमण बोल दिया। आप भी खाए , मैं तो जल्दी में बस पोहा ही बना पायी हूँ आपकी सब्ज़ी अच्छीहै । रीटा मैडम मुस्कुरा दी राशी की चंचलता पर ,फिर दोनो ओफ़िस के गार्डन में टहलने लगी। रीटा मेम एक बात बताए आप शादी कब कर रही हैं मुझे ना Christian wedding बहुत पसंद है,अभी तक बस मूवीज़ में ही देखा है, मैं आपकी बेस्ट गर्ल बन जाऊँगी dress की चिंता ना करें वो तो सिल जाएगी। राशी , मुझे नहीं लगता कोई लड़का मेरे साथ मेरे पेरेंट्सकी ज़िम्मेदारी भी लेगा। तो क्या आप सारी ज़िंदगी …….? पता नहीं शायद हाँ। लेकिन आपका भाई भी तो है उनके साथ मिलकर क्यों नहीं आप अपनी ज़िम्मेदारी बाँट लेती? उसका परिवार है बीबी ,बच्चे शायद वो उतना वक़्त ना दे पाए फिर माँ बाप तो मिलकर बच्चों को पालते हैं बाँटकर नहीं , फिर आज मैं अपना फ़र्ज़ कैसे बाँट लूँ? फिर जरुरी तो नहीं शादी के बाद मैं ख़ुश रहूँ। रीटा मेम क्या आपके पेरेंट्स नहीं चाहते? आपका घर बसे आप ख़ुश रहे। जब वो कहते थे तब कोई फ़िट बेठा नहीं अब वो कुछ कहने की हालत में नहीं हैं। चलो ब्रेक काफ़ी लम्बा हो गया मुझे काम जल्दी पूरा करके मेडिकल शाप जानाहै । अगले दिन गुड फ़्राइडे था ।यीशु को सलीब पर लटकाया गया था ,लोग नहीं जानते थे की वो क्या कर रहे हैं पर रीटा मेम ने में तो ख़ुशी ख़ुशी इस सलीब को चुना है सिर्फ़ अपने पेरेंट्स के लिये। रश्मि वर्मा आपको लघुकथा सलीब कैसी लगी ? अपने विचारों से हमें अवगत करायें | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ अच्छी लगती हैं तो साईट को सबस्क्राइब करें और हमारा फेसबुक पेज लाइक करें |

हौसला

यह लघुकथा एक आशा है उस दिन की जब कोरोना नहीं रहेगा | हम इस भय से निकल कर उन्मुक्त साँस ले सकेंगे | आएगा वह दिन …बस हौसला बना कर रखना है | लघुकथा -हौसला  राघव एक कारखाने में काम करके अपने मां बाप के साथ अपना पेट पालता था। भोला राघव के (पिताजी )को बूढ़ा समझकर कोई काम नहीं देता। जैसे तैसे एक जगह चौकीदार का काम मिला। कोरोनावायरस के डर से बिल्डिंग के लोगों ने चेहरे पर मास्क लगाकर आने को कहा और लाकर दिए।सभी से ६ फिट की दूरी से बात करने को कहा, बूढ़े बाबा ने हां तो करली नौकरी के लिए मगर,उसका दम घुटता था।इधर राघव के मालिक ने राघव को कोरोना बिमारी से होने वाले संक्रमण से बचने के उपाय बताए सेनेटाइजर लगा कर आने को कहा और बार बार हाथ धोने की समझाइश दी।राघव की मां(कचरी) भी चौका बर्तन करने जाती थी, लेकिन महामारी ( कोरोना) के डर से सभी घरों में काम करवाने से मना कर दिया।अब घर चलाने में राघव को दिक्कत आने लगी। महिनें भर बाद राघव को एक दिन गले में खराश हुई, दूसरे दिन बुखार से शरीर तप रहा था, उसने पास ही में रहने वाले अपने साथी को बुलाया और अस्पताल ले जाने का कहा। लेकिन कोरोना के डर से साथी ने जाने से इन्कार कर दिया,और फ़ोन पर डाक्टर को सूचित किया। थोड़ी देर में गाड़ी लेने आई कचरी ने पूछा कब तक घर वापस आएगा बेटा। मां____ बेटे ने करुण स्वर में कहा अच्छा होकर जल्द ही आऊंगा,और अगर कुछ हो जाए तो तुम वृद्धाश्रम में चले जाना पिताजी को लेकर। मैंने थोड़ी बहुत कमाई करके जो जमा किया वह वृद्धाश्रम में देदेना आपको रहने में सुविधा होगी।यह कहकर अपने कपड़े वगैरह लेकर गाड़ी में बैठ गया। बेचारे मां बाप रोते हुए अपने प्राणों से प्यारे बेटे को जाते हुए देखते रहे। आंसू बहते रहे। कितना दर्द होता है सीने में अपने दिल के टुकड़े को ज़िन्दगी से जंग लड़ते हुए देखना । कोरोना के इलाज में गरीबों को सरकार सहायता कर रही है लेकिन कहीं कहीं इलाज में सारी कमाई का कुछ हिस्सा महामारी की भेंट चढ़ जाता है। यही हुआ भी।आखिर एक दिन मां बाप से बगैर मिले राघव ने इस संसार से विदा ले ली ।घर पर संदेश आ गया ,दाह संस्कार भी हो गया।अब बूढ़े मां-बाप कहां जाएं किसको अपना दर्द बताए कि जवान बेटे को आंखों के सामने से जाता हुआ देखना कितना दुखदाई होता है।बड़ी मुश्किल में दिन काटने को मजबूर थे दोनों। एक दिन राघव के मां बाप को बिल्डिंग में जहां कचरी काम करती थी,वह मालकिन(सीता) बुलाकर ले गयी दोनों को ,और अपने साथ रहने को कहा नीचे  एक कमरा भी दे दिया ,खाने का सामान भी दिया सब कुछ ठीक हो गया।सारी जरूरतें पूरी हो गई। थोड़े दिन बाद राघव की मां ने कहा मालकिन आपने हमारी इतनी सहायता करके हम पर उपकार किया है अब इस उपकार को  कैसे चुकाएंगे?? मालकिन ने कहा मेरी बेटी भी गंभीर बिमारी से खत्म हुई है फिर मैं कभी मां नहीं बनीं शाय़द यह नेक काम करने से मेरी इच्छा पूरी हो जाए।राघव की मां ने सच्चे मन से दुआएं मांगी ईश्वर से ।दो माह बाद सीता गर्भवती हो गई।राघव की मां ने बहुत सेवा की वह अपना सारा कर्ज सेवा से चुकाना चाहती थी।समय आने पर एक बेटे को जन्म दिया सीता ने।राघव की मां को बच्चे में अपने बेटे की झलक दिख रही थी।कोरोना का डर अब भी था बच्चे के और मां के सभी टेस्ट नेगेटिव आने पर अस्पताल से छुट्टी मिल गई।घर खुशियों से भर गया। अब वहां कोरोना का नामोनिशान नहीं था।सब कुछ पहले जैसा हो गया।__ प्रेम टोंग्या, इन्दौर मध्यप्रदेश।