जीत भी हार भी

परिमल सिन्हा यूँ ही टेलीविजन का रिमोट पकडकर बैठे थे. कहीं से भी मतलब का कार्यक्रम नहीं आ रहा था. उकताकर वे उठने ही वाले थे कि छोटे पर्दे पर, कोईसुपरिचित सा चेहरा दिखाई पडा. न जाने क्यों इस अनजान युवक की झलक पाकर,उन्होंने फिर से टीवी पर नजर गडा ली. कोई रिएलिटी शो चल रहा था. नाम था – कड़वी सच्चाइयाँ. इस कार्यक्रम के तहत किसी लोकप्रिय हस्ती से वार्ता की जाती थी; उसके जीवन की कड़वी सच्चाइयों से रूबरू होने के लिए. साक्षात्कार, नामी एंकर सिद्धार्थ सलूजा को लेना था. परिमल जी जिज्ञासावश उस टॉक शो को देखने लगे. बातचीत शुरू करते हुए सिद्धार्थ ने कहा, “ रौनी जी, आप छोटे बजट की फिल्मों के उभरते हुए सितारे हैं. कम समय में ही आपने, ढेर सारे फैन बना लिए हैं. इसका राज?” “दिल के रिश्ते कुछ ऐसे ही होते हैं जनाब!” कहकर रौनी हंस दिया. सिन्हा जी को, झुरझुरी सी महसूस हुई. वो हंसी उनके मन के तारों को छेड गयी थी; कुछ इस तरह- मानों बरसों से उसहंसीकोजानते हों वे! सलूजा का अगला प्रश्न था, “फ़िल्मी दुनियां में आप, रौनी के नाम से मशहूर हैं पर आपका असली नाम क्या है?” “जी रोहन सिन्हा” युवक ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया. रोहन का नाम सुनकर परिमल बेतरह चौंक उठे. तो यही चेहरा था, जो इतना अपना सा लग रहा था. उनका अपना अंश, उनका बेटा! इतने सालों के बाद….!! आगे कुछ भी न सूझा. दिमाग की नसों में खून मानों जम सा गया था. जब रोहन उनसे अलग हुआ, सात या आठ साल का रहा होगा. अब तो वे उसे, एक नौजवान के रूप में देख रहे थे. स्मृतियों का चक्र घूमता, इसके पहले ही संचालक महोदय का अगला प्रश्न, उन्हें झकझोर गया, “ रोहन जी, आपके जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना क्या थी?” “जीवन का सबसे दुखद पहलू रहा- मेरे माता पिता का एक दूसरे से सम्बन्ध- विच्छेद. मैं तब बहुत छोटा था……पिता हमारे साथ नहीं रहते. उनसे जुडी कुछ धुंधली यादें जरूर हैं. एक ऐसा इंसान…. जो मां के साथ झगडता ही रहता.” सुनकर परिमल सिन्हा के दिल में शूल सा चुभा. लगा- जैसे कि बीच- बाजार,जूतों की मार पड़ रही हो! लेकिन बेटे के मन में, वे झांकना जरूर चाहते थे. दिलको थामकर, उन्हें आगे का वार्तालाप सुनना ही पड़ा | “हाँ तो रौनी.. कम आयु में हीआप, अपने जन्मदाता से अलग रहने लगे. क्या कभी उन्होंने आपकी खोज खबर लेने की कोशिश की?” “हाँ जी, कोशिश जरूर की थी. बेइंतिहा प्यार करते थेवो मुझे. शुरु शुरू में उनके ढेरों पत्र आते, जिसमें मेरे लिए कवितायेँ भी होतीं.” “और फोन वगैरा?” “एक दो बार कॉल किया था हमें. पर मां उनकी आवाज़ सुनते ही रिसीवर पटक देतीं….मुझसे बात ही न करने देतीं. स्कूल में एक दो बार, वे मुझे चोरी- छिपे मिलने भी आये; लेकिन नानाजी के रसूख के चलते, वह भी बंद हो गया.” “फिर …?” “फिर वे भी क्या करते. हारकर उन्होंने मुझसे संपर्क साधना ही छोड़ दिया…उनकी तो दूसरी शादी भी हो गयी” “ओह…!!” सिद्धार्थ सलूजा जैसा,मंजा हुआ सूत्रधार भी असमंजस में था कि अब क्या कहे, क्या पूछे. अफ़सोस जताते हुए सलूजा ने आगे कुछ प्रश्न किये; जिनसे खुलासा हुआ कि रोहन को अभी भी परिमल सिन्हा से भावनात्मक लगाव था! वह उन्हें आज भी छुपकर देखने जाता है….बस उनके सामने नहीं पड़ता!! बचपन में पापा ही, उसका बस्ता और किताबें जमाते. उसका होमवर्क करवाते. मां तो बड़े घर की बेटी थी. लिहाजा;ठीक वैसे लक्षणभी थेउनके! किटी पार्टी, मेकअप, शॉपिंग वगैरा से,उन्हें फुर्सत नहीं मिलती थी. एक पापा ही थे- जो अपने बच्चे की प्यार की भूख को, जानते –समझते थे. परिमल की आँखें गीली हो चली थीं. रौनी ने तो यहाँ तक कह डाला कि पति- पत्नी के दिल न मिलते हों तो किसी तीसरे को दुनियां में लाना, उनकी भूल बन जाती है. आगे वे नहीं सुन सके और स्विच ऑफ कर दिया. विचलित मनःस्थिति में परिमल, आरामकुर्सी में सर टिकाकर बैठ गए. तभी किसी ने पीछे से आकर गलबहियां डाल दीं. सिन्हा जी चौंक उठे. “डैड!” अरे यह तो नेहा थी! “बिटिया, तुम बोर्डिंग से कब आयीं?” बेटी को अचानक आया देखकर, वे अचम्भित हुए, “स्कूल में छुट्टी हो गयी क्या?” “नहीं डैड…आपको एक सरप्राइज़ देना था; इसलिए.” “क्या है वो सरप्राइज़? आखिर हम भी तो जाने!” परिमल जी अब कुछ हल्का महसूस कर रहे थे. “इतनी जल्दी भी क्या है! मम्मा हैज़ आलमोस्ट फिनिश्ड हर कुकिंग. उन्हें भी आने दीजिए….फिर बताऊंगी” “एज़ यू विश- माई स्वीट लिटिल प्रिंसेस” उन्होंने कहा और हंस दिए. “देट्स लाइक ए गुड डैड”नेहा ने कहा और फ्रेश होनेबाथरूम चली गयी. इधर परिमल विचारों में घिर गए. उनकी पहली पत्नी श्यामा गजब की सुन्दरी थी. दोनों लम्बे समय तक सहपाठी रहे. श्यामा उनकी अभूतपूर्व शैक्षणिक प्रतिभा पर मर मिटी. उसने अपने डैडी को, परिमल के घर भेज दिया; ताकि उन दोनों के रिश्ते की बात चलाई जा सके. श्यामा के डैडी सोमेशचन्द्र, उसकी हर मांग पूरी करते आये थे. उनकी दिवंगत पत्नी की इकलौती निशानी जो थी वह! पर परिमल को श्यामा सरीखी अकडू रईसजादियाँ भाती नहीं थीं. होनी फिर भी होके रही. उसके बाऊजी विश्वेश्वरनाथ, सोमेश जी के करोड़ों के कारोबार को देखकर ललचा गए. तीन तीन कुंवारी लड़कियों की बढती आयु, उनकी प्रतिष्ठा पर प्रश्नचिन्ह लगा रही थी. लड़के की शादी से जो दान दहेज मिलता, उससे तीनों को आराम से ‘निपटाया’ जा सकता था. नतीजा- विश्वेश्वर जी के इस बेटे को, जीवन का वह दांव; खेलना ही पड़ा. जिस सम्बंध की नींव ही खोखली हो, भला कितने दिन चलता! दोनों घरों के सामाजिक स्तर में, जमीन आसमान का अंतर था; पृथ्वी के विपरीत ध्रुवों जैसा! एक तरफ लक्ष्मी की विशेष अनुकम्पा तो दूसरी ओर संयुक्त परिवार की समझौतावादी सोच. तिस पर- खोखली नैतिकता की वकालत करने वाली पाबंदियां और बात बात पर पैसे का रोना. किसी आम मध्यमवर्गीय कुनबे की कहानी! उकताकर श्यामा ने, पति पर दबाव बनाया, “परू मेरा यहाँ दम घुटता है. किसी बात की आज़ादी नहीं! कैदी बनकर रह गयी हूँ. क्यों ना…हम डैडी के पास जाकर रहें. लेकिन परू को घरजंवाई बनना गवारा न हुआ. उसे अपना वजूद कायम रखना था. श्यामा ने भी कभी झुकना … Read more

अंधी खोहों के परे

सांझ की धुंध में, रात की स्याही घुलने लगी थी. सर्दहवाओं के खंजर, सन्नाटे में सांय- सांय करते…उनकी बर्फीली चुभन, बदन में उतरती हुई. बाहर ही क्यों, भीतर का मौसम भी सर्द था. मल्लिका को झुरझुरी सी हुई. गोपी की किताबेंसहेजते हुए, दृष्टि खिड़की पर जा टिकी. जागेश अंकल की अर्थी सजने लगी थी. ‘स्यापा’ करने वाली स्त्रियों के साथ, रीति आंटी भी आयीं और अंकल की देह पर, पछाड़ खा- खाकर गिरने लगीं. उनका विलाप तमाम ‘आरोह- अवरोह’ के साथ, मातम की बेसुरी धुन जैसा था. वह ‘नौटंकी’ देख- सुनकर, उसे जुगुप्सा होने लगी.रीति ने दोहाजू जागेश से ब्याह, इस आश्वासन पर किया था कि उनके बच्चों को, अपने बच्चों सा लाड़ देगी. लेकिन ब्याह के चंद दिनों में ही उसने, अपना असल रंग दिखा दिया. घर अस्त – व्यस्त हो गया. बच्चों की देखभाल तो दूर; वह खुद को भी संभाल न सकी… . जब देखो, पति की जेब पर, हाथ साफ़ कर देना… पुराने आशिक सेमिलते रहना-चोरी- छुपे! जागेश के दिल को गहरी ठेस पहुंची. दिल का मरीज़ आखिर कब तक चल पाता! अंकल की तेरह वर्षीय बेटी मंगला,अब तक बुत बनी खड़ी थी. गोद में उसका, नन्हा सा भाई था. अर्थी उठते ही, वह आंसुओं में डूब गयी. मंगला का आकुल रुदन, हवाओं को पिघला रहा था. वही ऊष्मा मानों वाष्पित हो, खिड़की पर ठहर गयी…कांच का पारदर्शीपट, भोथरा हो चला!!दृष्टिपथ धूमिल… क्या जाने कोहरा था या फिर…आँखों की नमी! अम्मा अभी तक, उधर से नहींलौटीं. शोक मनाना सहज नहीं होता. रिवाज़ कोई हो; निभाने के लिए, वक्त चाहिए. रीति का रोना- गाना,हद से बढ़ने लगा; उसके साथ, मल्लिका की हैरानी- परेशानी भी. अन्धेरा अब,दूसरा ही राग अलाप रहा था . अवचेतन पर छा गयी- धड़- धड़ करती हुई ट्रेन. भैया, भाभी के ऊपर झुके हुए…उनके छलकते हुए आंसू और बदहवास चीखें. सहसा परिदृश्य बदल जाता है. ट्रेन एक बार फिर, अँधेरी सुरंग में घुस जाती है. और तब…भैया की आंखें, कुछ और ही कहती हैं! कुछ वैसा ही रहस्यमय- जैसा कि इस समय, रीति के नयन बांच रहे हैं!!“अरी मल्ली, अभी तक बिस्तर नहीं लगाया”…”सोने का टैम हो गया”…”चल जल्दी कर; सुबह मुन्ने को स्कूल भेजना है”. अम्मा केशब्दवाण, विचार- समाधि तोड़ गये थे. मन- पखेरू के कोमल पंख, चोटिल हो सिमट आये… वह तंद्रा से जागी;मानोंउड़ान भरते- भरते, जमीन पर आ गिरी! मुन्ना उर्फ़ गोपी, उस दबंग आवाज़ से डरकर, पलंग में दुबक गया. मल्लिका यंत्रवत सी उठी और सब काम निपटाए. काम की थकान, देह पर हावी थी किन्तु अंतस में, हिलोर सी उमगती … नींद कोसों दूर… समग्र चेतना पुनः, अंधी सुरंग की तरफ, खिंचतीहुई…!!अतीत की अँधेरी खोहोंसे, निकलभीआये तो क्या! ऐसी कितनी अदृश्य अंधी खोहें, उसके चारों तरफ बिछी हैं. कुछ वैसा ही अन्धेरा, कॉलेज के महिला कक्ष में- खस के पर्दों से रचा गया अन्धेरा,“ सब चचेरी- ममेरी बहनों की ‘सादी’हो गयी… न जाने हमारीकब होगी!”“चल आज, ज्योतिष महराज से पूछते हैं.”“कितना लेते हैं?!”“पचास रूपये में सब बता देते हैं. कब तक ब्याह होगा, कहाँ होगा, पति कैसा होगा, उसकी नौकरी…ब्याह फलेगा कि नहीं…कितने बच्चे होंगे”“बस, बस इत्ता बहुत है…चल आज चलते हैं. बल्कि अभी ही”“फिर हिस्ट्री का पीरियड”“उसे मार गोली…तू बस चल, फौरन!” उन दो लड़कियों का प्रलाप सुनकर, वह वितृष्णा से मुस्करा उठी थी. इस कॉलेज का स्तर ही ऐसा था. चलताऊ पुस्तकालय, शिक्षक भी चलताऊ और विद्यार्थी तो और भी गये- गुजरे! बिल्डिंग ऐसी कि जगह जगह प्लास्टर उधड़ा हुआ. इतना जरूर था कि यहाँ फीस में कुछ रियायत मिल जाती थी; इसी से निम्न – मध्यम वर्ग के छात्रों की बहुतायत थी. उनकी जीवन शैली, उनके अभाव, उनकी कुंठाएं, माहौल में झलक उठतीं. बगल में, सरकारी आवास योजना वाले फ्लैट थे. ज्यादातर स्टूडेंट, उधर ही रहते थे.वहींमल्लिका का घर भी था; आर्थिक- स्थिति,उन आवासों के हीअनुरूप. जीवन की औसत आवश्कताएं कठिनाई से पूरी होतीं; फिर भी,कुछ कर दिखाने का जज्बा; जोर मारता रहता. उसका भाई महज एक टी. सी. और पिता रिटायर्ड सुरक्षा- गार्ड; भाई की नियुक्ति किसी दूसरी जगह थी. घर में मां- पिताजी व भतीजा गोपी, इतने ही लोग रहते. कॉलोनी के दूसरे लोगभी, बहुत समर्थ न थे. उसकी सहपाठी मीना के पिता, माध्यमिक विद्यालय के शिक्षक. दूसरी सहपाठी शिखा के पिता क्लर्क और शिखा के मामाजी, जो बाजूवाले फ्लैट में रहते थे- लाइब्रेरियन. रीमा उनके ग्रुप की, एक ही ऐसी लड़की थी, जिसके पापा ने ठेकेदारी से, ‘दो नम्बर’ का पैसा बनाया था; इसी से उसके ‘जलवे’ कुछ दूसरे थे.मीना और शिखा मन ही मन उससे जलतीं. यहाँ तक कि उसके चाल- चलन को लेकर,परपंच करतीं, “मल्ली तू रीमा के यहाँ मत जाया कर. उसके भाई का जो दोस्त है ना- अरे वही रविन्द्रन…मद्रासी छोरा! उसके साथ ही चक्कर चला रही है…” मल्लिका के होंठ कुछ कहने को खुले, किन्तु सप्रयास, उसने उन्हें भींच लिया. मूढ़मगज के साथ, भेजा कौनखपाए?? उसने अपनी आँखों से रविन्द्रन को, रीमा से अपनी कलाई पर राखी बंधवाते और स्नेह से उसके सर पर हाथ फेरते हुए देखा था. नहीं…ऐसा पवित्र प्रेम, छल कैसे हो सकता है?! मीना और शिखा के बचकाने आरोप- यह भी,अंधियारे कारूप थे और तम से घिरी, कंदराओं में रेंगना, जीवन की नियति!! भाभी मां के बाद वह भी, ऐसी ही कंदराओं में भटक रही है… जहाँ धड़ धड़ करती ट्रेन डोलती है; दम तोड़ती भाभी की फ़ैली हुई आँखें…उनका खुला मुख!! प्रेरक कहानियों का विशाल संग्रह बार बार अभिशप्त स्मृतियों से उबरना कठिन है. किसी भाँति उन्हें झटकती है; किन्तु अँधेरे और कलुष की दुरभिसंधि, अब भी नहीं टूटती. उसकी हमजोलियों को ही लो- शिखा के पिता ने, पैतृक सम्पत्ति बेचकर, किसी भाँति पैसा जमा किया. शिखा को ‘निपटाना’ जो था. रीमा का रिश्ता भी, एक बड़े घर में हो गया. मल्लिका तो ब्याह- शादी के झमेलों से उदासीन थी लेकिन मीना पर यह बहुत नागवार गुजरा. उसकी खीज बढ़ती गयी. एक दिन जब मल्लिका, उसके साथ ऑटो में थी; वह उससे सटकर बैठ गयी. एक लिजलिजा एहसास था – उस छुअन में! मीना- जो शादी के लिए उतावली थी; दान – दहेज़ के अभाव में, एकदम पगला ही गयी! शरीर में उफनते हार्मोन, दूसरा ‘विकल्प’ तलाश रहे थे!!अनब्याही रह जाना- यह मीना की नियति ही नहीं; दूसरी कई लड़कियों की नियति … Read more

फिर एक बार

फैक्ट्री कासालाना जलसा होना था. तीन ही सप्ताह बच रहे थे. कायापलट जरूरी हो गया;बाउंड्री और फर्श की मरम्मत और कहीं कहीं रंग- रोगन भी. आखिर मंत्री महोदय को आना था. दरोदीवार को मुनासिब निखार चाहिए.अधिकाँश कार्यक्रम, वहीं प्रेक्षागृह में होने थे. उधर का सूरतेहालभी दुरुस्त करना था. ए. सी. और माइक के पेंच कसे जाने थे. युद्धस्तर पर काम चलने लगा;ओवरसियर राघव को सांस तक लेने की फुर्सत नहीं. ऐसे में,नुक्कड़- नाटक वालों का कहर… लाउडस्पीकर पर कानफोडू, नाटकीय सम्वाद!! प्रवेश- द्वार पर आये दिन, उनका जमावड़ा रहता. अर्दली बोल रहा था- यह मजदूरों को भड़काने की साज़िश है. नुक्कड़- नाटिका के ज्यादातर विषय, समाजवाद के इर्द गिर्द घूमते.एक दिन तो हद हो गयी. कोई जनाना आवाज़ चीख चीखकर कह रही थी, “बोलो कितना और खटेंगे– रोटी के झमेले में??होम करेंगेसपने कब तक – बेगारी के चूल्हे में?! लाल क्रांति का समय आ गया…फिर एक बार!” वह डायलाग सुनकर, राघव को वाकई, किसी षड्यंत्र की बू आने लगी थी. उसने मन में सोच लिया, ‘ अब जो हो, इन बन्दों को धमकाकर, यहाँ से खदेड़ना होगा- किसी भी युक्ति से. चाहे अराजकता का आरोप लगाकर, याप्रवेश- क्षेत्र में, घुसपैठ का इलज़ाम देकर. जरूरत पड़ने पर पुलिस की मदद…’ उसके विचारों को लगाम लगी जब वह आवाज़, गाने में ढल गई.जाने ऐसाक्यों लगा कि वह उस आलाप, स्वरों के उस उतार- चढ़ाव से परिचित था. मिस्री सा रस घोलती,चिरपरिचित मीठी कसक! राघव बेसबर होकर बाहर को भागा. उसका असिस्टेंट भौंचक सा, उसे भागते हुए देखता रहा. वह भीनासमझ सा, पीछे पीछे दौड़ पड़ा. गायिका को देख, आंखें चौड़ी हो गईं, दिल धक से रह गया…निमिष भर को शून्यता छा गयी. प्रौढ़ावस्था में भी, मौली के तेवर वही थे. बस बालों में थोड़ी चांदी उतर आई थी और चेहरे पर कहीं कहीं, उम्र की लकीरें. भावप्रणव आँखें स्वयम बोल रही थीं;आकर्षकहाव- भाव, दर्शकों को सम्मोहन में बांधे थे. वह उसे देख, हकबका गयी और अपना तामझाम समेटकर चलने लगी.संगी- साथी अचरच में थे; वे भी यंत्रवत, उसके संग चल पड़े. राघव उलटे पैरों भीतर लौट आया.राघव के असिस्टेंट संजय ने पूछा, “क्या बात हैरघु साहब? कुछ गड़बड़ है क्या??!”“कुछ नहीं…तुम जाओ; और हाँ पुताई का काम, आज तुम ही देख लेना…मशीनों की ओवरहॉलिंग भी…मेरा सर थोड़ा दुःख रहा है”“जी ठीक है…आप आराम करें. चाय भिजवाऊं?”“नहीं…आई ऍम फाइन. थोड़ी देर तन्हाई में रहना चाहता हूँ”. उसे केबिन में अकेला छोड़, संजय काम में व्यस्त हो गया. उधर रघु के मनमें,हलचल मची थी. बीती हुई कहानियां, फिल्म की रील की तरह रिवाइंड हो रही थीं. वह सुनहरा समय- राघवऔर मौली, अपने शौक को परवान चढ़ाने, ‘सम्वाद’ थियेटर ग्रुप से जुड़े. दोनों वीकेंड पर मिलते रहते. वे पृथ्वी के विपरीत ध्रुवों की भाँति, नितांत भिन्न परिवेशों से आये थे. फिर भी अभिनय का सूत्र, उन्हें बांधे रखता. कितने ही ‘प्लेज़’ साथ किये थे उन्होंने. रघु को समय लगा; थियेटर की बारीकियाँ जानने- समझने में- अभिनय- कौशल, डायलाग- डिलीवरी, पटकथा- लेखन और भी बहुत कुछ.किन्तु मौली को यह सब ज्ञान घुट्टी में मिला था. उसके पिता लोककलाकार जो थे. घर में कलाकारों की आवाजाही रहती. इसी से बहुत कुछ सीख गयी थी. यहाँ तक कि तकनीकी बातें भी जानती थी. जैसेसाउंड व लाइट इफेक्ट्स, मेकअप, बैक स्टेज का संचालन; यही नहीं – दृश्य तथापर्दोंका निर्माण भी.संवादों पर उसकी अच्छी पकड़ थी. बौद्धिक अभिवृत्ति ऐसी कि डायलाग सुधार कर, उसे असरदार बना देती. सामाजिक समानता को मुखर करने वाले ‘शोज़’ उसे ज्यादा पसंद थे. इसी एक बिंदु पर उन दोनों के विचार टकराते. राघव मुंह सिकोड़ कर कहता, “कैसी नौटंकी है…’सो कॉल्ड’ मजबूरी और बेचारगी का काढ़ा! टसुओं का ओवरडोज़…दिसएंड देट…टोटल पकाऊ, टोटल रबिश!! दिस इस नॉट द वे टु सॉल्व प्रोब्लेम्स”“टेल मी द वे मिस्टर राघव” मौली उत्तेजना में प्रतिवाद कर बैठती, “आप क्या सोचते हैं कि आपके जैसे लक्ज़री में रहने वाले, समस्या को हल करसकेंगे… नहीं रघु बाबू…फॉरगेट इट !!” और बोलते बोलते उसके कान लाल हो जाते. जबड़ों की नसें तन जातीं. निम्नमध्यम वर्ग की त्रासदी, दंश मारने लगती…आँखों के डोरे सुर्ख हो उठते और चेहरे का ‘ज्योग्राफिया’ बदल जाता. ऐसे में राघव को, हथियार डालने ही पड़ते. छोटी छोटी तकरारें कब प्यार बन गयीं, पता ना चला. मौली के दिल में भी कसक होती पर वह जबरन उसे दबा लेती. उसने राघव से कहीं ज्यादा, ज़िन्दगी के उतार चढ़ाव देखे थे. वह जानती थी कि धरती और आकाश का मिलन, आभासी क्षितिज पर ही होता है.वास्तविक जीवन फंतासियों से कहीं दूर था. उसके पिता एक छोटी सी परचून की दूकान रखे थे; जबकि राघव जाने माने वकील का बेटा था. ऐसा जुगाड़ू वकील- जिसने नेताओं से लेकर, माफिया तक से हाथ मिला रखा था. स्याह को सफेद कर दिखाना, जिसका धंधा था. पैसा ही जिसका ईमान और जीने का मकसद था. इधर मौली– वह स्वयम डांस- क्लास चलाकर, अभावों के हवनकुंड में, आहुति दे रही थी. राघव अक्सर कहता, “ये भी कोई लाइफ है मौली?! करियर में आगे बढ़ना है तो कुछ बड़ा मुकाम हासिल करो…रेडियो, टी. वी. में ऑडिशन दे डालो. कहो तो मैं बायोडाटा तैयार करूं?? आफ्टर आल यू आर सो एक्सपीरियंस्ड…कितनेकैरेक्टर प्ले किये हैं तुमने और एक से बढ़कर एक परफॉरमेंस… सिंगिंगऔर डांस की भी मास्टर हो तुम…”“बस बस रघु बाबू!” उत्तेजना में मौली उसे ‘बाबू’ की पदवी दे डालती; स्वरमें व्यंग्य उतर आता और शब्दवाण, राघव को निशाने पर लेते, “बाबू साहेब, हम सीधे- सादे गरीब आदमी…इज्जत की रोटी खाने वाले. दंदफंद करके एप्रोच निकाल पाना, अपन के बस में नहीं! उस पर कास्टिंग काउच…सुना है ना??!” शुभचिंतकबनने का जतन, राघव को अदृश्य कटघरे में खड़ा कर देता. ऐसेमें वहां रहना असम्भव हो जाता. वह तमककर उधर से चल देता और मौली चाहकर भी उसे मना ना पाती!! यूँ ही खट्टी मीठी झड़पों में दिन बीतते रहे और एक दिन राघव को पता चला कि परिवारचलाने के लिए मौली ने रंगशाला को अलविदा कह दिया है और कोई‘फूहड़ टाइप’ ऑर्केस्ट्रा ग्रुप जॉइन कर लिया है.ग्रुप क्या- नौटंकी कम्पनी ही समझो. मेले- ठेले में या दारूबाज लोगों की नॉन- स्टैण्डर्ड पार्टियों में शिरकत करते थे कलाकार.राघव के दिलोदिमाग में,धमाका सा हुआ! वह दनदनाता हुआ उनके दफ्तर पंहुचा और बिना संदर्भ- प्रसंग, मौली पर बरस पड़ा, “ बहुत … Read more

दो चोर (कहानी -विनीता शुक्ला )

गीतांजलि एक्सप्रेस  धीरे धीरे पटरियों पर सरकने लगी थी।  देखते ही रंजन अपने फटीचर सूटकेस के संग दौड़ पड़ा। दौड़ते भागते किसी तरह वह अपने कम्पार्टमेंट में घुस ही गया। हावड़ा स्टेशन पर भीड़ का जमावड़ा इतना ज्यादा था कि इस काम के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ी उसे। पसीने पसीने होकर हांफता हुआ जब वह अपनी सीट तक पहुँचा तो सामने बैठे भद्र पुरुष ने अखबार से मुँह निकाला और एक प्रश्नवाचक  दृष्टि से उसे देखा। “जैसे तैसे ट्रेन पकड़ पाया हूँ।” अपने स्थान पर बैठते हुए उसने खिसियाहट भरे स्वर में उन सज्जन को बताया। “तो ये आपकी ही सीट है?” उन साहब ने उससे सहानुभूति जताने के बजाय फट से सवाल दाग दिया था। “जी?” उसने इस विचित्र प्रश्न  को सुनकर आश्चर्य से पूछा। “नहीं नहीं कुछ नहीं।” कहकर वे महानुभाव फिर से अखबार में गुम हो गये। “बहुत खूब रंजन मित्राॐ ” उसने अपनेआप से कहा“एक तो सेकेंड क्लास का घटिया सफर और उस पर इस खूसट आदमी का साथ।” सूटकेस को सिरहाने रखकर वह बर्थ पर पसर गया और यूँ ही कुछ गुनगुनाने लगा। इस बार श्रीमानजी ने कनखियों से उसे देखा था। उसे अपनी तरफ देखते पाकर वे झेंपे और फिर से दैनिक पत्र में मुँह छिपा लिया। मित्रा से रहा न गया। उनसे मुखातिब होकर बोला “भाईसाहब ज़रा सुनिए।” “कहिए” “ये ट्रेन बिलासपुर कब पहुँचेगी?” “पहुँचने का टाइम तो पाँच बजे के आसपास का हैै। देखिये कितने बजे तक पहुँचती है।” “चली तो राइट टाइम पर ही थी।” “हूँ” महाशय ने एक रूखी सी प््रातिक्रिया की और झोला लेकर ट्वायलेट की तरफ बढ़ चले। कहानी -काकी का करवाचौथ रंजन कटकर रह गया। उसके भाई प्रत्युष  के अनुसार रंजन के लिए सबसे बड़ी सज़ा थी– उसे ऐसी जगह पर बैठा देना जहाँ वो किसी से बोल–बतिया न सके। आज तो वाकई यही हाल था। ले–देकर एक सहयात्री मिला और वह भी नपी–तुली सी बात करने वाला। पिछले कुछ दिनों से उसके सितारे गर्दिश में चल रहे हैं। उसके साथ कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा। चाहकर भी ए. सी। का टिकट नहीं मिल सका। ट्रैफिक की वजह से ट्रेन भी छूटते छूटते बची। उस पर मुम्बई तक का ये लम्बा सफर वो भी गर्मी में,  उसने अपने ‘भिखारी मार्का’ सूटकेस पर एक नज़र डाली। मन ग्लानि से भर गया। पढ़ाई के चक्कर में उसका ध्यान कभी अपने सामान की साज–संभाल करने की तरफ गया ही नहीं। पर आज पहली बार उसे शिद्दत से इसकी जरूरत महसूस हो रही थी। मुम्बई पहुँचने पर सबसे पहले वो एक नया सूटकेस खरीदेगा। हो सके तो एक बढ़िया शर्ट और टाई भी।  आखिर नौकरी के लिए इंटरव्यू देना है। आजकल तो कैंडिडेट की क्वालिफिकेशन बाद में देखी जाती है और ‘गेटअप’ पहले। यह सब सोचते विचारते हुए अचानक उसकी नज़र सामने वाली बर्थ पर पड़े समाचार पत्र की तरफ चली गई। ‘गीतांजलि एक्सप््रोस में चोरी की वारदातें’ इस सुर्खी को देखकर वह दंग रह गया। जिज्ञासावश पास खड़ा होकर पढ़ने लगा ‘हावड़ा से मुम्बई जाने वाली गीतांजलि एक्सप््रोस में आए दिन चोरी और लूटपाट के समाचार मिले हैं। चोर बाकायदा टिकट कराके ट्रेन में चढ़ता है और रातबिरात यात्रियों का सामान लेकर चम्पत हो जाता है।’ उसे ध्यान आया कि जब वो रिजर्वेशन करा रहा था तो पड़ोसन भाभी ने भी उससे कहा था“देख रंजू जिस रूट से तू जा रहा है उस पर कई ‘केस’ं हो चुके हैं। संभलकर रहियो।” मित्रा का दिमाग इस बारे में और कुछ सोच पाता इसके पहले ही अखबार वाले भाईसाहब की ‘एंट्री’ हो गई। रंजन को अपनी सीट के पास देखकर उन्होंने कुछ अजीब सा मुँह बनाया और रुक्ष स्वर में पूछा “क्या हुआ?” “कुछ नहीं…” उनके हाव भाव देखकर वह सहम सा गया और वापस अपनी जगह पर जा बैठा। उन्होंने अपने टिफिन से कुछ निकाला और जुगाली करने लगे। यह देखकर रंजन के पेट में भी चूहे दौड़ने लगे। माँ अस्वस्थ थीं सो इस बार खाना बांधकर नहीं दे सकींं। सोचा था कि चलने के पहले किसी अच्छे होटल से कुछ पैक करवा लेगा। पर वो नौबत ही कहाँ आ पाई  ऐन समय पर देवी मन्दिर वाले उसके घर के सामने वाले रास्ते पर जुलूस निकालने लगा  मानों सड़क उनके बाप की मिल्कियत हो ।  इतना चौड़ा मार्ग पर इंच भर भी हिलने डुलने की गुंजाइश नहीं छोड़ी थी धर्म के उन ठेकेदारों ने फिर तो किसी तरह भागमभागी करके स्टेशन पहुँच पाने भर का समय ही बचा उसके पास। हताशा में थोड़ी देर यूँ ही वह आँखें मूंदे हुए बैठा रहा। कुछ समय बाद उसे जान पड़ा कि रेलगाड़ी की गति धीमी होती जा रही थी। वो निरुद्देश्य खिड़की से बाहर को ताकने लगा। लगता था कि कोई स्टेशन आने वाला था। ‘चलो पेट पूजा का जुगाड़ करते हैं ’ उसने खुद से कहा और उठ खड़ा हुआ। एक बार फिर सामने वाले भाईसाहब ने अपना झोलानुमा बैग उठाकर बगल में रख लिया और आने जाने वालों को घूरने लगे। प्लेटफार्म पर पहुँचकर उसने पूरी भाजी का दोना खरीदा और फिर आरक्षण तालिका पर एक नज़र डाली। अपना नाम रिजर्वेशन लिस्ट में पाकर वह आश्वस्त हुआ और खाने में जुट गया। बाद में कुछ छोटी मोटी खरीदारी भी की। कई यात्रियों और फेरीवालों को भीतर जाते देख उसके मन में खटका सा हुआ और तब उसने डब्बे के भीतर झांककर देखा। वो महाशय इस प््राकार झोले को सटाकर बैठे थे  मानों उसे कोई छीनने वाला था। उनसे निगाह मिलते ही उसे वितृष्णा सी होने लगी और मन में यह विचार उठने लगा कि यह आदमी कैसा अजब नमूना है। ट्वायलेट जाते समय भी बैग को नहीं छोड़ता। जरा देखूँ तो कि ये जनाब आख़िर हैं कौन। एक बार फिर रिजर्वेशन लिस्ट को जांचा तो पाया कि उसके सहयात्री का नाम शैलेश राय था और वह भी मुंबई तक ही जा रहा था। ‘क्यों न इन साहब के साथ हीे कुछ टाइम पास किया जाए’ ऐसा सोचकर वो कम्पार्टमेंट में घुस गया।  “बड़ी गर्मी है आज” अपना स्थान ग्रहण करते ही उसने फिर से शैलेश राय नाम के उस बंदे को कुरेद दिया। “हाँ सो तो है?” उदासीनता से भरा संक्षिप्त उत्तर मिला। ज़ाहिर था कि ‘राय साहब’ और … Read more