ये तिराहा हर औरत के सामने सदा से था है और रहेगा –

” तिराहा “एक ऐसा शब्द जो रहस्यमयी तो है ही  सहज ही आकर्षित भी करता है | हम सब अनेक बार अपने जीवन में इस तिराहे पर खुद को खड़ा पाते हैं | किसी भी मार्ग का चयन जीवन के परिणाम को ही बदल देता है | पर यहाँ  मैं बात कर रहीं हूँ वीणा वत्सल जी के उपन्यास “ तिराहा “की | जिसको मैंने अभी -अभी पढ़ा हैं | और पढने के बाद उस पर कुछ शब्द लिखने की गहरी इच्छा उत्पन्न हुई | “ तिराहा “   वीणा वत्सल सिंह जी का पहला उपन्यास है परन्तु कहीं से भी कमजोर नहीं पड़ता | कथा में सहज प्रवाह है व् लेखन में कसाव जिसके कारण पाठक उपन्यास  को पन्ने दर पन्ने पढता जाता है | आगे क्या हुआ जानने की इच्छा बनी रहती हैं |मेरा अपना मानना  है की किसी उपन्यास का सरल होना उसके लोकप्रिय होने की पहली शर्त है |                “ तिराहा “ की कहानी तीन महिला पत्रों के इर्द गिर्द घूमती है | जहाँ एक ओर मुख्य नायिका अमृता है जो डॉक्टर होने के साथ साथ सभ्य , शालीन महिला भी है | और बेहद संकोची भी | सिद्धार्थ का प्रेम उसकी छुपी हुई प्रतिभाओं को निखारने में सहायक होता है | वहीँ उसका  संकोच प्रेम की स्वीकारोक्ति नहीं कर पाता | पाठक नायक , नायिका का शीघ्र मिलन देखना चाहता है पर दोनों ही अपने मन की बात अस्वीकार किये जाने के भय से कह नहीं पाते हैं | अंत तक उनकी स्वीकारोक्ति का रोमांच बना रहता है | वहीँ दूसरी ओर झुनकी नाम की महिला है | जो मेहतर  टोले  में रहने वाली किसी सवर्ण की अवैध संतान है | पर वह स्वाभिमानी लड़की प्रेम में कोई आतुरता नहीं दिखाती बल्कि अपने सवर्ण प्रेमी को विवश करती है की वो मेहतर टोले के विकास के लिए कुछ करे | कहीं न कहीं झुनकी स्त्री के उस आत्मबल का प्रतीक है जो विपरीत परिस्तिथियों में टूटती नहीं अपितु  त्याग , सेवा व् आत्मसम्मान के चलते परिस्तिथियों को  बदल देती है |ये पात्र मुझे बहुत प्रभावित करता है |  तीसरा और सबसे जरूरी किरदार है सुधा का … जिसमें न स्वाभिमान है न संकोच जिसके पास है तो बस असंख्य स्वप्न बेलगाम हसरते जिनको पाने के लिए वो कुछ भी , कुछ भी कर सकती है और … करती भी है | उसका पतन और अंत  किसी भी कीमत पर अपनी प्रतिभा और योग्यता से ज्यादा पाने की दुखद गाथा  है |ऐसे अति महत्वकांक्षी स्त्रियों के उत्थान व् पतन को हम अपने समाज में अक्सर देखते हैं |                       वैसे तो कहानी के अन्य पात्र भी कम महत्वपूर्ण नहीं है | वस्तुत : उपन्यास को समाज के तीन स्तरों पर साधा गया है |उच्च वर्ग , माध्यम वर्ग व् निम्न वर्ग | सबकी अपनी जीवन शैली , अपनी समस्याएं व् अपने ही प्रकार की राजनीति और सब का एक कहानी के माध्यम से सुन्दर समन्वय  | पर कहीं न कहीं मुझे लगता है कि उपन्यास की लेखिका जो स्वयं एक स्त्री हैं इस बात को स्पष्ट रूप से रेखांकित करती हैं की हर स्त्री एक तिराहे पर  खडी है | वो स्त्री भले ही समाज के किसी वर्ग या जाति  से आती हो ये उसका चयन है वो किस रास्ते पर चलती है | उसी पर उसका जीवन निर्भर करता है |  हम ऐसी स्त्रियों को जानते हैं जो  पढ़ी लिखी हैं , स्वाबलंबी हैं पर संकोच की लक्ष्मण रेखा उन्हें ह्रदय की बात कहने से रोकती है | जो प्रेम तो करती है पर प्रेम को स्वीकार करने में झिझकती है … वो भाग्यशाली हो सकती है की उसे  अपना प्रेम पति रूप में मिले या कहीं तन और कहीं मन की चक्की में पिसते हुए जीवन काटने को विवश भी | दूसरी तरफ एक स्वाभिमानी स्त्री अपने आत्मबल व् स्पष्ट सोंच के चलते विपरीत परिस्तिथियों को अपनी  इच्छा के अनुरूप बदल सकती है | या तीसरी तरफ  वह अपनी हसरतों के आगे हथियार डाल  कर पतन के उस गहरे गर्त में गिर सकती है | अमृता , झुनकी और सुधा तो केवल प्रतीक हैं | ये तिराहा हर औरत के सामने सदा से था है और रहेगा | इस तिराहे में उसे कौन सी राह चुननी है इस का फैसला स्त्री को स्वयं करना होगा |  वीणा वत्सल जी को उनके पहले उपन्यास के लिए हार्दिक बधाई व् उनके लेखन के भविष्य के लिए शुभकामनाएं वंदना बाजपेयी  कार्यकारी संपादक  अटूट बंधन                                                    

पुदी उर्फ़ दीपू

                                              ‘तुम्हारा नाम क्या है दीपू ?’ – खेलते हुए बच्चे चिल्लाकर पूछते‘पू उ उ उ दि ‘— दीपू हो हो कर हँसते हुए बड़ी मुश्किल से बोल पाता उत्तरसुनकर खेलते – खेलते बच्चों का वह झुंड ताली बजा – बजाकर हंसने लगता.औरउन सबके साथ दीपू भी हो – हो कर हँसता जाता .बिना यह समझे कि वे सभी उसपर ही हँसे जा रहे हैं                                                  दीपू दस वर्ष का मानसिक – मंडित बच्चा था .अभी कुछ दिनों पूर्व हीएक छोटे से शहर से लखनऊ जैसे बड़े शहर में आया था .उस के माता – पितादोनों ही एक सरकारी विभाग में मुलाजिम थे और एक सरकारी कालोनी में रहतेथे .दीपू से किसी बच्चे ने दोस्ती नहीं की थी .वह तो अपने से दो वर्षबड़े भाई विभूति के साथ अक्सर आ जाता था खेलने . शहर में नया होने के कारण अपने नए मित्रों के दीपू के साथ के इस खेल का विभूति कभी विरोध नहीं कर पाता था .बस चुपचाप दीपू और अन्य बच्चों को हँसते हुए देखता रहताथा.बचपन से अपने छोटे भाई की इस त्रासदी को झेलने के कारण विभूति के मन मेंउस के  प्रति सहानुभूति की भावना धीरे – धीरे कम  होती जा रही थी .वह माँ के बहुत कहने पर ही दीपू को खेलने साथ लेकर आता थादीपू के जन्म पर पिता मुकुल सक्सेना ने एक पार्टी रखी थी .सभी नाते –रिश्तेदारों को बुलाला था .खूब धूम – धडाके हुए थे .पार्टी के बाद रिश्तेदारों और दीपू की माँ सुलोचना के आग्रह पर शहर के सबसे बड़े ज्योतिष को भी बुलाया था दीपू की जन्मकुंडली बनवाने के लिए   दीपू का भविष्य जानने की इच्छा से .दीपू की दादी ने उन ज्योतिष जी को ख़ास आग्रह कर कहा था – ‘पंडी जी जैसे हमारे बडके  पोता विभूति की कुण्डली आप ने मनसे बनाई है वैसे ही इन छोटके राजकुमार की भी बनाईये हम मुंहमांगा इनाम देंगे ‘और ,पंडीजी जो कुण्डली बना लाये  उस के मुताबिक़ दीपू का दिमाग बचपन से ही काफी तेज होना था तथा  बड़े होने पर उसे एक विश्व – प्रसिद्ध हस्ती भीबनना था .कुण्डली जोर – जोर से पढ़कर मुकुल  सक्सेना ने सबको सुनाया था.उस दिन एक बार फिर से घर में खुशी ऎसी छिटकी कि उत्सव सा माहौल हो गया ‘दादी ने दीपू की बलैया लेते हुए कहा – मैं न कहती थी यह मेरा पोता हजारों- लाखों में एक है .किसी बहुत बड़े आदमी की आत्मा है इसके अन्दर ‘दादी की बात सुन भला दादा कहाँ चुप रहने वाले थे ‘तुरत ही बोल पड़े–‘पहली बार तुम ने बिलकुल सही बात की है मुकु की अम्मा .यह मेरे कुल का नाम रोशन करेगा इसलिए इसका नाम दीपक रहेगा .’माता –पिता ,दादा –दादी सबके आकर्षण का केंद्र अपने छोटे भाई को बना देख तब दो साल का विभूति मुंह लटकाए चुपचाप एक और बैठा था .उसकी  बाल –बुद्धि ने जब उसे अपनी हीनता का बोध कराया तो वह अचानक जोर – जोर से रो पडा .दादी ने उसे अपने पास खींच प्यार से सर सहलाते हुए रोने  का कारण पूछा तो उस ने बड़ी मासूमियत से कहा – ‘आप सब लोग सिर्फ इस दीपू को प्याल करते हो मुझे तो कोई प्याल  नहीं करता                                                    ‘बच्चे की मासूमीयत पर रीझ दादी ने उसे  अपने से चिपका  माथा चूमते हुए कहा था –‘ अरे तू तो हमारा ही नहीं हमारे पुरे गाँव की विभूति बनेगा ‘ और दादी के प्यार से हँसता हुआ दो वर्ष का नन्हा विभूति दादी की गोद में लेट गया लेकिन ,जैसे –जैसे दीपू बड़ा होता गया सुलोचना और मुकुल के ह्रदय में चिंता घर करने लगी .वह अपने बड़े भाई से अलग था .जिस उम्र में विभूति अपने भावों को माँ को अपनी क्रियाओं से समझा देता था – दीपू ऐसा कुछ न कर पाता. एक साल  का होते – होते चाईल्ड – स्पेशलिस्ट ने भी यह बता दिया कि दीपू का मानसिक विकास एक सामान्य बच्चे की तरह नहीं हो रहा . माँ के गर्भ में ही किसी कारण उस का मस्तिष्क सामान्य रूप से विकसित  नही हो पाया था .सुनकर सुलोचना की आँखों से आंसुओं का सैलाब बह निकला था .मुकुल चाह कर भी कोई दिलासा नहीं दे पा रहा था .तीन  साल का विभूति माँ को चुपचाप पास खडा रोते देखता रहता कभी ,करीब जा अपनी नन्हीं हथेलियों से आँसू पोछ पूछता – ‘ममा क्या हुआ ?क्यों रो रही हो ?’जवाब में सुलोचना उसे अपने पास खींच सीने से चिपटा लेती . इस पूरी प्रक्रिया के दौरान दीपू निर्विकार बैठा रहता .लेकिन ,जब बड़े भाई को माँ से चिपका देखता तो जोर – जोर से रोने लगता .उस की रुलाई से सुलोचना का कलेजा मुंह को आने लगता और वह विभूति को छोड़ झट दीपू को गोद में उठा प्यार करने लगती .माँ के कलेजे से लग दीपू को चैन मिलता और वह तुरत चुप हो जाता .दिन – प्रतिदिन उस की जिद्द भी बढ़ती जा रही थी ‘जिस चीज को पकड़ने या लेने की बात करता अगर वह नहीं मिल पा रही हो तो जब तक उसे पा नहीं लेता लगातार रोता रहता .मानसिक कमजोरियों के बावजूद उस में मानवीय भावों को समझने की अद्भुत क्षमता थी .उसे प्यार करने वाले व्यक्ति के ह्रदय में उस के प्रति सच्चा प्यार पल रहा है या वह सिर्फ  दिखावा कर रहा है – यह बात उसकी समझ में तुरत आ जाती और वह इस अनुसार अपनी प्रतिक्रियाएं भी प्रगट कर देता .दीपू की दादी को जब दीपू के बारे में डॉक्टर की बातों का पता चला तो दादी ने पूरे घर में यह कहते हुए हंगामा खडा कर दिया कि ज्योतिष की कही बात कभी झूठी नहीं हो सकती .जरुर डॉक्टर ने ही गलत बताया है .अत: दीपू को किसी बड़े अस्पताल में ले जाकर बड़े डॉक्टर से दिखाना होगा .दादी की लगातार जिद्द से मुकुल और सुलोचना को भी लगने लगा कि हो न हो इस डॉक्टर से कोई गलती हो गई है .सो उन्हों ने उसे एम्स,नई दिल्ली में ले … Read more

कोबस -कोबस

महानगरों में रहने वालों की त्रासदी – कंक्रीट के जंगल में ,छोटे – छोटे फ्लैट्स में गुजर बसर करना .यह कहानी ऐसी ही एक महानगरीय सभ्यता को व्याख्यायित करती है .रोजमर्रा की भाग – दौड़ के बीच अपने और अपनों के लिए समय निकाल पाना महानगरों में रहने वाले हर व्यक्ति के लिए मुश्किलों से भरा काम होता है .पर ,बचपन के संस्कार और कुछ अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण आधुनिकता का चोला पहन उन रीति – रिवाजों के प्रति ये भी अत्यंत सचेत होते हैं जिनका औचित्य वे भले ही जानते – समझते न हों . अपने पूर्वजों के प्रति जुड़े रहने की गारंटी देने के लिए ऎसी ही एक परम्परा को निभाने की बात को लेकर एक मुहल्ले के सभी नागारिकों की मीटिंग चल रही थी .मुद्दा था – पितृ –पक्ष में घर की छत पर कौवों का न मिलना .जाहीर सी बात है पम्परा के अनुसार अगर श्राद्ध के अन्न को कौवे ने नहीं खाया तो श्राद्ध मान्य नहीं होगा .पर ,इस कंक्रीट के जंगल को कौवों ने अपने अनुकूल न जान अब लगभग त्याग ही दिया था . लोगों की चिंता धीरे – धीरे बहस का रूप लेती जा रही थी कि एक सज्जन ने सुझाया –‘क्यों न हम मुहल्ले से थोड़ा हटकर बने पार्क में श्राद्ध के लिए जाएँ ? मुहल्ले के पार्क में तो यह संभव नहीं क्योंकि वहाँ कई महंगे पेड़ और करीने से सजा – धजा लॉन है जहाँ हमारे बच्चे खेलते हैं या हम कभी वहाँ घूमने ही चले जाते हैं .अत: वहाँ गंदगी फैलाना उचित नहीं ‘ दूसरे ने उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा – ‘ बिलकुल सही कह रहे हैं आप मुहल्ले के बाहर वाला पार्क ही ठीक रहेगा .वहाँ बेतरतीब पेड़ – पौधे भी खूब हैं और आसपास झुग्गियां ही हैं तो कौवे तो मिलेंगे ही गंदगी फैले या न फैले इस बात से भी कोई फर्क नहीं पडेगा ‘ इस बात से हर किसी ने सहमती जताई .नतीजतन ,फैसला हुआ कि कमीटी द्वारा अगले दो दिनों के अन्दर पितृ –पक्ष शुरू होते से पहले पार्क के एक छोटे से हिस्से की साफ़ – सफाई करा दी जाए ताकि लोग अपनी सुविधानुसार या श्राद्ध की तिथि के अनुसार वहाँ जाकर कौवों को अन्न खिला पितरों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन कर सकें ..  उस पार्क के पास बड़ी संख्या में झुग्गियाँ थीं .सब की सब अवैध रूप से बनी हुई उस में रहने वाले सभी या तो ऑटो चालक थे या ठेले पर फल – सब्जी बेचने वाले या फिर ऐसे ही कोई छोटा – मोटा रोजगार करने वाले .कुछ मजदूर – वर्ग के लोग भी यहाँ झुग्गी बना रहते थे .कई बार सत्ता की और से उन झुग्गियों को हटाने की कोशिश हुई पर हमेश विपक्ष की और से ऐसा बखेड़ा खडा कर दिया जाता कि सत्ता पक्ष चुप हो जाता और शहर के बीचो – बीच गगनचुम्बी इमारतों को चिढाती वे झुग्गियाँ पूरी शान से सर उठाये खडी थीं .आसपास के लोगों को उन झुग्गियों से कुछ ख़ास शिकायत नहीं थी क्योंकि वहाँ की महिलायें उन के घरों के काम करती थीं .अत: यह सभी भली – भांती जानते थे कि अगर यह झुगी – बस्ती यहाँ से हट गई तो कामवालियों का अकाल पड जाएगा .इस तरह परस्पर समन्वय और सहजीवन की प्रतीक ये झुग्गियां निश्चिन्त थीं .इन्हीं झुग्गियों में एक झुग्गी बस अभी – अभी बनी ही थी . रमेश ,उस की पत्नी और एक पाँच वर्ष का उनका बेटा – अभी कुछ दिनों पूर्व ही गाँव से आ कर रोजगार की तलाश में यहाँ बस गए थे .रमेश झुगी से कुछ किलोमीटर की दूरी पर बन रहे एक विशाल शौपिंग – माँल में मजदूरी करने लगा था और उसकी पत्नी अंजू अन्य महिलाओं की तरह एक घर में चौका – बर्तन ,साफ़ – सफाई आदि .करने लगी थी .बेटा गोकुल – जब तक माँ दूसरे घरों के काम निबटाती पास – पड़ोस के बच्चों के साथ खेलता रहता .उस की झुग्गी पार्क से बिलकुल सटी हुई थी .अत: वह अक्सर पार्क में बेतरतीब उगे वृक्षों पर भी चढने की कोशिश करता .इस क्रम में कई बार गिरा भी और माँ से इस के लिए डांट भी खूब सुनी लेकिन वह कभी अपनी इस आदत से बाज न आता था .  ऎसी ही दिनचर्या के साथ एक सुबह गोकुल अपनी झुग्गी के पास बैठा हुआ था .अभी पास – पड़ोस के बच्चे खेलने आये नहीं थे .तभी उसकी आँखें गहरे आश्चर्य से फ़ैल गईं .उस के पास ही कुछ दूरी पर एक बड़ी सी चमचमाती कार आकर हच से रुकी और वह कुछ समझ पाता इस से पहले ही उस कार से एक भारी – भरकम डील – डौल वाले रेशमी कुरते – पायजामे में सजे – धजे एक सज्जन निकले .उन के एक हाथ में एक बड़ा सा कई खानों वाला टीफिन था तथा दूसरे में एक प्लास्टिक की थैली में कुछ सामान .महानगरीय सभ्यता का आदी हुआ जा रहा गोकुल न तो बड़ी गाड़ी से आश्चर्यचकित था और न ही उन सज्जन के पहनावे से .उस के आश्चर्य का कारण था सज्जन का गाड़ी में बैठ कर वहाँ पार्क तक आना .बालक – मन कौतुहल से भर उठा .उसे वह सज्जन रहस्यों से भरे लगे .खासकर उन के हाथ में टंगा वह टीफिन .वह अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए उन सज्जन के पीछे – पीछे पार्क में पहुँच गया .सज्जन ने पार्क की थोड़ी सी साफ़ जगह पर टीफिन रख अभी प्लास्टीक की थैली को खोलने का उपक्रम ही किया था कि उन की नजर पास खड़े गोकुल पर पद गई .गंदे कपडे में लिपटे बच्चे को अपनी और उत्कंठा से देखते हुए देख उन्हों ने उसे जोर से डांटते हुए कहा – ‘ अबे ,चल भाग यहाँ से .खडा – खडा क्या देख रहा है ‘ फटकार सुन गोकुल डर से न चाहते हुए भी उन सज्जन की नज़रों से ओझल होने के लिए पास की झाड़ी के पीछे चला गया और वहीं से उन्हें देखने लगा . सज्जन ने कागज़ के बने चमकीले प्लेट्स निकाले तथा टिफीन खोल उस में एक – एक कर खीर ,पूड़ी और सब्जी रखने लगे .इतना बढ़िया खाना देख गोकुल के मुँह में पानी आ गया .उस पर सब्जी से उठती गरम मसाले की सुगन्ध से उस का अपने पर से नियंत्रण … Read more