अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा

अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा

  जिन दरवाज़ों को खुला होना चाहिए था स्वागत के लिए, जिन खिड़कियों से आती रहनी चाहिए थी ताज़गी भरी बयार, उनके बंद होने पर जीवन में कितनी घुटन और बासीपन भर जाता है इसका अनुमान सिर्फ वही लगा सकते हैं जिन्होंने अपने आसपास ऐसा देखा, सुना या महसूस किया हो। रिक्तता सदैव ही स्वयं को भरने का प्रयास करती है। भले ही इस प्रयास में व्यक्ति छीजता चला जाए या शनै-शनै समाप्त होता चला जाए… रिश्तों में आई दूरियाँ और रिक्तता व्यक्ति को भीतर ही भीतर न केवल तोड़ देती हैं,अकेला कर देती हैं बल्कि उसका स्वयं पर से, दुनिया पर से भरोसा भी डिगने लगता है। ऐसे सूने जीवन से जूझते पात्रों की भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी कहानी है ‘अब तो बेलि फैल गई’ उपन्यास में।   अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा   कविता वर्मा किसी लेखकीय परिचय की मोहताज नहीं हैं। उनके रचना कौशल, संवेदनशीलता और सामाजिक सरोकारों से उनकी सम्बद्धता के साथ ही स्पष्टवादिता और निडरता से भी हम सभी भलि भांति परिचित हैं। बावजूद इसके उनके स्नेहिल मित्रों, शुभचिंतकों एवं पाठकों की बड़ी संख्या यही बताती है कि वे अपनी जगह कितनी सही हैं। इस उपन्यास में भी उनके पात्रों में उन्होंने तमाम मानवीय और परिस्थितियों से जुड़ी कमज़ोरियों के साथ ही इन गुणों को भी अवस्थित किया है जिनके बल पर वे पात्र सही-गलत के पाले में झूला झूलते हुए सही पाले में जाकर रुक जाते हैं और कहानी एक खूबसूरत मोड़ पर पहुँचती है। सुने अटूट बंधन यू ट्यूब चैनल पर ‘अब तो बेलि फैल गई’ पर परिचर्चा  मध्यम वर्गीय जीवन की विरूपताओं और विडंबनाओं को अनावृत करने वाले घटनाक्रमों की एक बड़ी श्रृंखला के बीच, पुनर्मूल्यांकन और नैतिकता को किसी ऐसे कुशल चितेरे की भांति अपनी कृति में सजा दिया है कि सब कुछ सहज ही प्रभावित करने वाली अनुपम कृति में सामने आया है। रिश्तों के ताने-बाने में उपेक्षा, छल, अपमान, कटुता और अलगाव के काँटे हैं तो वहीं प्रेम, विश्वास, आदर, अपनापन, सहयोग और समायोजन के बेल-बूटे और फूल-पत्ती की कसी हुई बुनावट भी है जो पूरे उपन्यास को सम्पूणता प्रदान कर रही है। लेखिका- कविता वर्मा इस उपन्यास को ट्रेन यात्रा के दौरान इसे पढ़ा, पढ़कर कई बार मैं स्तब्ध सी रह गई थी कि इतना महीन सच का धागा लेकर कैसे ही इतने खूबसूरत और मजबूत उपन्यास की चादर बुन ली है! जिसको‌ चाहे हम ओढ़ें, बिछाएं या शॉल की तरह लपेटें, हम खुद को एहसासों की गर्मी से नम ही रखेंगे! एहसासों की ये गर्मी कभी झुलसाती भी है तो कभी ठंडे पड़ते रिश्तो में गर्माहट लाने का काम भी करती है! उपन्यास की कथा वस्तु दो आधे-अधूरे रह गए परिवारों के संघर्ष, पछतावे और इन्हें पीछे छोड़ आगे बढ़ने की कोशिश करने के इर्दगिर्द घूमती है। एक हैं मिस्टर सहाय जिनके मन में अत्यधिक ग्लानि और पछतावा है अपनी भूलों को लेकर। जो कुछ अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए,वही सब एक अन्जान परिवार के लिए करते हुए स्वयं को एक अवसर और देने की कोशिश करते हैं। तो दूसरी तरफ नेहा है, संघर्ष जिसके जीवन में स्थाई रूप से ठहरा हुआ है और जो खुद को ठगा हुआ महसूस करती है। बिना किसी गल्ती के उसके जीवन में अकेलापन भर गया। रिश्तों ने कदम-कदम पर उसे छला है। परन्तु अनजाने में ही एक अनजान व्यक्ति पर किया गया भरोसा उसके मन में दुनिया से उठते हुए भरोसे के दंश पर मरहम लगाने का काम करता है। जो बीत गया उसे बदला तो नहीं जा सकता,पर आने वाले समय को बेहतर बनाने का प्रयास अवश्य किया जा सकता है। मुझे इस उपन्यास का मूलभाव यही लग रहा है। आज हमें ऐसे ही कथानकों की ही भारी आवश्यकता है जो केवल संघर्ष, दुख-दर्द, आपत्तियों और विपत्तियों का ही मार्मिक चित्रण कर सहानुभूति बटोरने के उद्देश्य पर काम न करके, कुछ ऐसा प्रस्तुत करें कि बहने की बजाय खुद जाएँ आँखें कि अरे हाँ! रोते रहने की बजाय जीवन को ऐसे भी जिया जा सकता है… कम से कम कोशिश तो की ही जा सकती है। इस दृष्टि से यह उपन्यास एकदम सफल है। मिस्टर सहाय के साथ उनके बेटे सनी की बात चलती है और नेहा के साथ उसके बेटे राहुल की कहानी चलती रहती है जिसके माध्यम से बालपन और युवावस्था की जटिलताओं, कमज़ोरियों और समझदारी का सहज, सुंदर वर्णन किया गया है। एक और महत्वपूर्ण पात्र है सौंदर्या, जिसकी चर्चा के बिना बात अधूरी ही रहेगी। मिस्टर सहाय और नेहा की कथा को पूर्णता प्रदान करने के लिए इस पात्र को गढ़ा गया है। हालांकि वास्तविक जीवन में ऐसे पात्रों का होना थोड़ा संशयात्मक है, फिर भी असंभव तो नहीं। और फिर जैसा कि मुझे लगता है कि ऐसे पात्रों को रचकर ही तो समाज में ऐसे पात्रों को पैदा किया जा सकता है, एक राह सुझाई जा सकती है। इसलिए सौंदर्या का होना भी उचित ही ठहराया जा सकता है। तमाम मानवीय संवेदनाओं के अजीबोगरीब ड्रामे और उठा-पटक के बिना ये संवेदनशील कहानी अपनी सहज गति से आगे बढ़ती हुई मंज़िल तक पहुँचती है और पाठकों के चेहरों पर मुस्कान सजा जाती है। ऐसी पुस्तकें पढ़कर कभी-कभी मेरे मन में आता है वही कहूँ जो हम पौराणिक व्रत-कथाओं को कहने- सुनने के बाद कहते हैं। हे ईश्वर सबके जीवन में ऐसे ही सुख बरसाना जैसे इस कथा के पात्रों के जीवन में बरसाया है। मज़ाक से इतर, कविता वर्मा की लेखनी की सदैव प्रशंसक रही हूँ, इस उपन्यास ने उसमें और बढ़ोतरी की है। ऐसे ही अच्छा लिखते रहें। ये लेखन ही समाज को दिशा दिखाएगा। शुभकामनाएँ शिवानी जयपुर   यह भी पढ़ें बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी जासूसी उपन्यासों में हत्या की भूमिका – दीपक शर्मा शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ आपको “अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा” समीक्षात्मक लेख कैसा लगा ? हमें अपनी राय से अवश्य अवगत कराइएगाl अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेकबूक पेज को लाइक करें l

खुल के जिए जीवन की तीसरी पारी

खुल के जिए जीवन की तीसरी पारी

आमतौर पर परिवार की धुरी बच्चे होते हैं | माता -पिता की दुनिया उनके जन्म लेने से उनका कैरियर /विवाह  हो जाने तक उनके चारों ओर घूमती है | कहीं ना कहीं आम माओ की तो बच्चे पूरी दुनिया होती है, इससे इतर वो कुछ सोच ही नहीं पाती | पर एक ना एक दिन बच्चे माँ का दामन छोड़ कर अपना एक नया घोंसला बनाते हैं .. और माँ खुद को ठगा हुआ महसूस करती है |  मनोविज्ञान ने इसे एम्टी नेस्ट सिंड्रोम की संज्ञा दी है | पर क्या नए आकाश की ओर उड़ान भरते, अपने जीवन की खुशियाँ तलाशते और अपनी संतान को तराशने में लगे बच्चों को दोष देना उचित है ?  या स्वयं ही इस उम्र की तैयारी की जाए | आइए इस विषय पर पढ़ें सुपरिचित साहित्यकार शिवानी जयपुर का लेख खुल के जिए जीवन की तीसरी पारी   यू ट्यूब पर देखें .. तीसरी पारी यही तो वो समय है… एक ही जीवन हम कई किश्तों में, कई पारियों में जीते हैं। आमतौर पर एक बचपन की पारी होती है जो शादी तक चलती है। उसके बाद शादी की पारी होती है जो घर गृहस्थी और बच्चों की ज़िम्मेदारी तक चलती रहती है। और उसके बाद एक तीसरी पारी होती है जब बच्चे बड़े हो जाते हैं और अपने काम-धंधे में लग जाते हैं या पढ़ाई और नौकरी के सिलसिले में कहीं बाहर चले जाते हैं। या फिर शादी के बाद अपनी ज़िंदगी में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि माता-पिता के लिए समय बचता ही नहीं या बहुत कम बचता है। ऐसे में पति पत्नी अकेले रह जाते हैं। मुझे लगता है कि ये जो तीसरी पारी है, पति-पत्नी के संबंधों में बहुत ही महत्वपूर्ण है। बहुत सारे ऐसे सपने होते हैं, बहुत सारी इच्छाएँ होती है जिन्हें चाह कर भी गृहस्थी के तमाम उत्तरदायित्वों को निभाते हुए पूरा नहीं कर पाते हैं। इस समय जब बच्चे बाहर हैं और अपने आप में व्यस्त हैं, मस्त हैं… तब रात-दिन बच्चों को याद करके और उनकी चिंता करके अपने आप को गलाते रहने से कहीं बेहतर है कि पति-पत्नी एक-दूसरे को फिर से नये सिरे से समझें और समय दें। न जाने कितने किए हुए लड़ाई-झगड़े हैं, कितनी अधूरी छूटी हुई लड़ाइयाँ हैं, गिले-शिकवे भी हैं, उनकी स्मृतियों से बाहर आएँ और इस समय का सदुपयोग करें। “चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों” इस तर्ज़ पर फिर से आपस में प्रेम किया जा सकता है! इस बार आप निश्चित रूप से बेहतर कर पाएँगे क्योंकि एक दूसरे को पहले से अधिक जानते हैं। बच्चे जो एक बार बाहर चले जाते हैं, बहुत ही मुश्किल होता है उनका लौट कर आना। आप अगर बड़े शहरों में हैं तो फिर भी कुछ संभावना बनती है। लेकिन अगर छोटे शहरों में है और बच्चे बड़ी पढ़ाई कर लेते हैं तो फिर छोटे शहरों में उनका भविष्य नहीं रह जाता है। तो मान के चलिए कि ये बची हुई उम्र आप पति-पत्नी को एक-दूसरे के सहारे ही काटनी है। इस उम्र का एक-दूसरे का सबसे बड़ा सहारा आप दोनों ही हैं। तो अब तक की कड़वाहट को भूलकर नयी शुरुआत करने की कोशिश करिए। अपनी और साथी की पसंद का खाना मिल-जुलकर बनाइए। पसंद का टीवी शो या फिल्म देखिए। सैर-सपाटा कीजिए।अपने शहर को नये सिरे से जानने की कोशिश करिए। मंदिर और पुरातत्व की ऐसी जगहें जहाँ आमतौर पर बच्चे जाना पसंद नहीं करते तो आप भी नहीं जाते थे, वहाँ जाइए। किसी पुस्तकालय की सदस्यता ग्रहण कर लीजिए और छूट गई आदत को पुनः पकड़ लीजिए। पुराने एल्बम निकालकर उस समय की मधुर स्मृतियों को ताज़ा किया जा सकता है। जिन दोस्तों और रिश्तेदारों से मिले अर्सा हो गया है, उनसे मिलना-जुलना करें या फिर फोन पर ही पुनः सम्पर्क बनाएँ। मान कर चलिए कि सब अपने-अपने एकाकीपन से दुखी हैं। सबको उस दुख से बाहर लाकर गैट टुगेदर करिए। छोटी-छोटी पार्टी रखिए। छुट्टी के दिन पूल लंच या डिनर करिए। एक दूसरे के घर या किसी पब्लिक प्लेस पर चाय-शाय पीने का कार्यक्रम करिए। और हाँ, अपने शौक जो पहले पूरे नहीं कर पाए थे, उन्हें अब पूरा कर सकते हैं। सिलाई-कढ़ाई, बुनाई, पेंटिंग, बागवानी, टैरेस गार्डन आदि विकल्प मौजूद हैं,उन पर विचार किया जा सकता है। अगर लिख सकते हैं तो अपने उद्गार लिखना शुरू किया जा सकता है। डायरी लेखन या सोशल मीडिया लेखन भी अच्छा विकल्प है। सामाजिक सरोकारों से जुड़ी संस्थाओं से जुड़कर खाली समय का सदुपयोग किया जा सकता है। इसके अलावा अब तक अगर अपनी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं को नज़रंदाज़ करते रहे हैं, तो उन पर ध्यान दीजिए। उचित चिकित्सकीय परामर्श लेकर खान-पान और जीवनशैली को बेहतर बनाने की कोशिश शुरू की जा सकती है।योग और प्राकृतिक चिकित्सा शुरू कर सकते हैं। स्वास्थ्य का ध्यान रखना सबसे पहली आवश्यकता है ही ना! तो खुद को व्यस्त और मस्त रखना अच्छे स्वास्थ्य के लिए बहुत आवश्यक है। कभी-कभी बच्चों से भी मिलना-जुलना करिए। उन्हें बुलाइए या आप उनके पास जा सकते हैं। आजकल तो दूर रहकर भी वीडियो कॉल जैसी सुविधाएँ हमें परस्पर जोड़े रखती हैं। ज़माने के बदलाव को समझते हुए, आत्मसात करते हुए बच्चों को दोस्त मानकर चलना ही बेहतर है। इससे भी बहुत सी घरेलू समस्याएँ सुलझ सकती हैं। उनके सलाहकार की बजाए सहयोगी बनेंगे तो आपको भी बदले में सहयोग ही मिलेगा। हो सके तो बचपन से ही उनकी आँखों में विदेश जाने का सपना न बोएँ। हम में से बहुत से माता-पिता ये भूल कर चुके हैं। उन्हें लगता है कि बच्चों की तरक्की में हम क्यों बाधा बनें? पर मुझे लगता है कि ऐसा सोचना ठीक नहीं है। जब हम बच्चों को ज़िम्मेदार बनाने की बात सोचते हैं तो याद रखें उनकी एक ज़िम्मेदारी हम भी होते हैं। इसमें कोई शर्म या झिझक की बात नहीं है। देश में ही बच्चे दूर कहीं रहें तो मौके बेमौके आ-जा सकते हैं! पर विदेश से आने-जाने का हाल हम सब जानते-समझते हैं। और फिर कोविड महामारी ने भी यही समझाया है जो हम बचपन से सुनते आए हैं- “देख लिया हमने जग सारा, अपना घर है सबसे प्यारा।” किसी भी परिस्थितिवश … Read more

पौ फटी पगरा भया

शिवानी शर्मा

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है | समाज में कई रिश्तों के बीच उनका जन्म होता है और जीवन पर्यन्त इस रिश्तों को निभाता चला जाता है | कुछ रिश्ते उसके वजूद का इस कदर हिस्सा बन जाते हैं कि उनसे अलग वो अपने अस्तित्व को समझ ही नहीं पाता | कभी कभी कोई एक घटना आँखों पर बंधी ये  पट्टी खोल देती और अहसास कराती है कि दो लोगों के बीच परस्पर विश्वास की तथाकथित धुरी पर टिका ये रिश्ता कितना एक तरफ़ा था | ऐसे समय में क्या निर्णय सही होता है ? ये द्वन्द उसे कैसे तोड़ता है ? और वो किसके पक्ष में खड़ा होता है एक टूटे जर्जर रिश्ते के नीचे कुचले अपने वजूद के साथ या अपने आत्मसम्मान के साथ | पौ फटी पगरा भया , 30 साल के अँधेरे के छटने के बाद ऐसे ही निर्णय की कहानी है |ये कहानी है सुमन और अनूप के रिश्तों की , ये कहानी है , ये कहानी है परस्पर विश्वास की , ये कहानी है स्त्री चरित्र की …आइये पढ़ें स्त्री विमर्श को रेखांकित करती शिवानी शर्मा जी की सशक्त कहानी। .. “पौ फटी पगरा भया” सुमन हफ्ते भर से परेशान थी। रसोई में सब्जियों को गर्म पानी में धोते हुए मन ही मन भुनभुना रही थी! भतीजे की शादी अगले हफ्ते है और ये पीरियड्स समय से क्यों नहीं आए? एन शादी के वक्त आए तो दर्द लेकर बैठी रहूंगी, नाचने गाने की तो सोच भी नहीं सकती! डॉ को भी दिखा आई। उन्होंने कहा कि मेनोपॉज़ का समय है कुछ दिन आगे पीछे हो सकता है!क्या मुसीबत है! और एक ये अनूप हैं! हर बात हंसी-मजाक में उड़ाते हैं! कहते हैं कोई खुशखबरी तो नहीं सुना रही? हद्द है सच्ची! पंद्रह साल पहले ही खुद ने अपना ऑपरेशन करवाया था फिर बच्चे की बात कहां से आ गई? कुछ भी मज़ाक करना बस! और ये इतनी सारी पत्ते वाली सब्जियां एक साथ क्यों ले आते हैं जाने!सारा शनिवार इनमें ही निकल जाता है। साफ-सूफ करने में कितना समय और मेहनत लगती है!पालक,मेथी, बथुआ, सरसों,मटर सब एक साथ थोड़े ही बनेगी? ज्यादा दिन रख भी नहीं सकते! उफ़!ये अनूप भी ना अपनी तरह के बस एक ही अनोखे इंसान हैं शायद! बरसों से समझा रही हूं कि ये सब एकसाथ मत लाया करो पर मंडी में घुसते ही मुझे भूलकर सब्जियों के प्रेम में पड़ जाते हैं! पालक,मेथी, बथुआ, सरसों और धनिया साफ करके और धो कर अलग-अलग टोकरियों में पानी निथरने के लिए रख दिए गए हैं और गाजर, पत्तागोभी, फूलगोभी एक टोकरी में रखी है।अब मटर छीले जाएंगे। आज सरसों का साग और बथुए का रायता बनेगा। कल सुबह मेथी के परांठे और शाम को मटर पनीर! हरी सब्जियों को ठिकाने लगाने की पूरी योजना बन चुकी थी। अपने लिए चाय बनाकर सुमन मटर छीलने बैठी।मटर छीलते हुए मां बहुत याद आती हैं! भैया और मैं आधी मटर तो खा ही जाते थे। फिर मम्मी खाने के लिए अलग से मटर लाने लगी और कहतीं कि पहले खालो फिर छीलना और तब बिल्कुल मत खाना। मम्मी ने सब्जी-सुब्जी साफ करने के काम शायद ही कभी किए होंगे। संयुक्त परिवार में पहले देवर-ननदें फिर बच्चे और सास-ससुर ही बैठे बैठे ऐसे काम कर देते थे। एक हम हैं कि कोई सहारा नहीं! एकल परिवार अनूप की नौकरी के कारण मजबूरी रही! बार-बार स्थानांतरण के चलते कोई स्थाई साथ भी नहीं बन पाया। बच्चों को पढ़ाई-लिखाई और हॉबी क्लासेज से फुर्सत नहीं मिली फिर बाहर पढ़ने चले गए और अब दोनों की शादी हो गई, नौकरी में बाहर रह रहे हैं। हम फिर दोनों अकेले रह गये घर में! सुमन के विचारों की चक्की अनवरत चलती रहती है! उसने तय कर लिया है कि जो दुख उसने उठाया वो बहूओं को नहीं उठाने देगी! अनूप की सेवानिवृत्ति के बाद उनके साथ रहेगी, बच्चे पालेगी और काम में मदद करेगी। अभी भी कभी कभी सुमन उनके साथ रहने चली जाती है। बहुएं भी उसका इंतज़ार ही करती रहती हैं। अभी तक तो बहुत अच्छी पट रही है और वो प्रार्थना करती है कि आगे भी भगवान ऐसे ही बनाए रखे। मटर भी छिल गये हैं। भैया का फोन आ गया। “हां सुमी!कब पहुंच रही है?” “आती हूं भैया एक-दो दिन पहले पहुंच जाऊंगी।” “अरे पागल है क्या? तुझे तो हफ्ते दस दिन पहले आना चाहिए। कल ही चल दे। अनूप को छुट्टी मिले तो दोनों ही आ जाओ वरना तू तो कल ही आ जा। तीन घंटे का तो रास्ता है। सुबह ही चल दे।”( अनूप भैया के बचपन के दोस्त हैं इसलिए भैया उनको नाम से ही बुलाते हैं) “देखती हूं भैया! अनूप तो बाद में ही आएंगे। मैं पहले आ जाऊंगी। यहां से कुछ लाना हो तो बताओ।” “रावत की मावे की कचौड़ी ले आना सबके लिए!” “ठीक है भैया। मैं रात को सब पक्का करके बताती हूं।” सुमन का मन सब्जियों में अटका हुआ था। इतनी सब्जियां आई पड़ी हैं। छोड़ जाऊंगी तो खराब हो जाएंगी और फिकेंगी! वहां ले जाऊं, इतनी भी नहीं हैं! परसों जाऊं तो केवल गाजर और गोभियाँ बचेंगी। काट-पीट कर रख जाऊंगी। अनूप बना लेंगे। मन ही मन सब तय करके सुमन रसोई में खाना बनाने में लग गयी।दो दिन अनूप की छुट्टी होती थी। शनिवार को सुबह सब्जी मंडी जाते हैं। फिर बैंक और बाज़ार के काम निपटाते हैं और खूब सोते हैं। रविवार का दिन सुमन के साथ बिताते हैं। सुमन इसलिए रविवार को कहीं और का कोई काम नहीं रखती। ज़िन्दगी अच्छी भली चल रही है बस ये सर्दियों में सब्जियां ही सौतन सी लगती हैं सुमन को! खैर… शादी से निपटकर सुमन और अनूप वापस आ गये दोनों बेटे-बहू भी आए थे। सीधे वहीं आए और वहीं से चले गए। खूब मौज-मस्ती के बीच भी सुमन के पीरियड्स आने की धुकधुकी लगी रही जिसके चलते वो थोड़ी असहज रही। भाभी ने टोका भी तो भाभी को बताया। भाभी भी खुशखबरी के लड्डू मांगकर छेड़छाड़ करती रही। आज सुबह अनूप के ऑफिस जाने के बाद सुमन फिर डॉ के गयी। जाते ही डॉ ने भी बच्चे की संभावना के बारे में पूछा। सुमन ने … Read more

महिला सशक्तिकरण : नव संदर्भ एवं चुनौतियां

आठ मार्च यानि महिला दिवस , एक दिन महिलाओं के नाम ….क्यों? शायद इसलिए कि बरसों से उन्हें हाशिये पर धकेला गया, घर के अंदर खाने -पीने के, पहनने-ओढने और  शिक्षा के मामले में उनके साथ भेदभाव होता रहा | ब्याह दी गयी लड़कियों की समस्याओं से उन्हें अकेले जूझना होता था, और ससुराल में वो पाराया खून ही बनी रहती | शायद इसलिए महिला दिवस की जरूरत पड़ी | आज महिलाएं जाग चुकी हैं …पर अभी ये शुरुआत है अभी बहुत लम्बा सफ़र तय करना है | इसके लिए जरूरत है एक महिला दूसरी महिला की शक्ति बने | आज महिला दिवस पर प्रस्तुत है शिवानी जयपुर जी का एक विचारणीय लेख ……..  महिला सशक्तिकरण : नव संदर्भ एवं चुनौतियां सशक्तिकरण, इस शब्द में ये अर्थ निहित है कि महिलाएं अशक्त हैं और उन्हें अब शक्तिशाली बनाना है । ऐसे में एक सवाल हमारे सामने पैदा होता है कि महिलाएं अशक्त क्यों है? क्या हम शारीरिक रूप से अशक्त होने की बात कर रहे हैं? या हम बौद्धिक स्तर की बात कर रहे हैं? या फिर हम जीवन के हर क्षेत्र में उनके अशक्त होने की बात कर रहे हैं फिर चाहे वो शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन और सामाजिक स्थिति का मुद्दा ही क्यो न हो! मेरा जहां तक मत है ,मुझे लगता है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था महिलाओं के अधिकतर क्षेत्रों कमतर या पिछड़ी होने के लिए जिम्मेदार है। उनका पालन पोषण एक दोयम दर्जे के इंसान के रूप में किया जाता है। जिसके सिर पर जिम्मेदारियों का बोझ है। घर चलाने की जिम्मेदारी, घर की व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी, बच्चों के पालन पोषण की जिम्मेदारी, घर में रहने वाले बड़े बुजुर्गों की देखभाल की जिम्मेदारी, और कहीं कहीं तो आर्थिक तंगी होने की स्थिति में पति का हाथ उस क्षेत्र में भी बंटाने की अनकही जिम्मेदारी उनके कंधों पर होती है। हालांकि आज इस स्थिति में थोड़ा सा परिवर्तन आया है। बेटियों के पालन पोषण पर भी ध्यान दिया जा रहा है और जो हमारी वयस्क  महिलाएं हैं उनके अंदर एक बड़ा परिवर्तन आया है। ये जो बदलाव का समय था पिछले 20-25 सालों में वह हमारी उम्र की जो मांएं हैं, जिनके बच्चे इस समय 18-20 या 25 साल के लगभग हैं मैंने जो खास परिवर्तन देखा है उनके पालन पोषण में देखा है और महसूस किया है। और मजे की बात यह है कि इन्हीं सालों में महिला सशक्तिकरण और महिला दिवस मनाने का चलन बहुत ज्यादा बढ़ गया है। तो एक सीधा सा सवाल हमारे मन में आता है कि ये जो बदलाव आया है, जागरूकता आई है वो इन सशक्तिकरण अभियान और महिला दिवस मनाने से आई है या कि जागरूकता आने के कारण सशक्तिकरण का विचार आया? ये एक जटिल सवाल है। दरअसल दोनों ही बातें एक दूसरे से इस कदर जुड़ी हुई हैं कि हम इसे अलग कर के नहीं देख सकते। ये एक परस्पर निर्भर चक्र है। जागरूकता है तो प्रयास हैं और प्रयास हैं तो जागरूकता है। पर फिर भी परिणाम संतोषजनक नहीं हैं। पढ़ें – बालात्कार का मनोविज्ञान और सामाजिक पहलू  जब तक महिला सशक्तिकरण को व्यक्तिगत रूप से देखा जाएगा तब तक वांछित परिणाम आ भी नहीं सकते। जिन परिवारों में महिलाओं की स्थिति पहले से बेहतर है, वो आर्थिक रूप से, सामाजिक रूप से और वैचारिक रूप से आत्मनिर्भर हैं उनका परम कर्त्तव्य हो कि अपने पूरे जीवन में वे कम से कम पांच अन्य महिलाओं के लिए भी इस दिशा में कुछ काम करें। कहीं कहीं सशक्तिकरण का आशय स्वतंत्रता समझा गया है और स्वतंत्रता का आशय पुरुषों के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश या उनके द्वारा किए जाने वाले काम करने से लिया गया जो कि सर्वथा गलत है और भटकाव ही सिद्ध हुआ। महिला सशक्ति तब है जब वो अपनी योग्यता और क्षमता और इच्छा के अनुसार पढ़ सके, धनोपार्जन कर सके। परिवार में सभी, सभी यानि कि पुरुष सदस्य भी उसके साथ पारिवारिक जिम्मेदारियों को वहन करें। महिला सशक्त तब है जब उसके साथ परिवार का प्रेम और सुरक्षा भी हो। किसी भी प्रकार के सशक्तिकरण के लिए पुरुष विरोधी होना आवश्यक नहीं है। पर इसके लिए पुरुषों की मानसिकता में बदलाव लाना बेहद आवश्यक है। घर की बड़ी बूढ़ी महिलाएं ही इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। यानि घूम फिर कर गेंद महिलाओं के पाले में ही आ गिरती है।  महिलाओं के सशक्तिकरण की राह में हमारे अंधविश्वास, रूढ़ियां, सामाजिक व्यवस्था और मानसिकता ही सबसे बड़ी बाधा है और इन सबका पीढ़ी दर पीढ़ी पालन और हस्तांतरण भी महिलाओं द्वारा किया जाता है। अगर महिलाएं इनमें कुछ बदलाव करके इसे अगली पीढ़ी को सौंपती हैं तो धीरे धीरे बदलाव आता जाता है। इसमें सबसे बड़ी बाधा है ILK यानि ‘लोग क्या कहेंगे’? पर सच बात तो आज यही है कि लोग तो इंतज़ार कर रहे होते हैं कि कोई कुछ नया बेहतर करे, परंपरा तोड़े तो सबके लिए रास्ता खुले! बस इसी हिम्मत और पहल की आवश्यकता है।  पढ़ें –#Metoo से डरें नहीं साथ दें  मैं यहां एक उदाहरण देना चाहूंगी । एक महिला हैं। उम्र है कोई साठ साल। जे एल एफ में जाती थीं। वहीं से पढ़ने लिखने का शौक हुआ। अपने शहर के एक बड़े व्यापारिक घराने से हैं। अभी हाल ही में उन्होंने कविता लिखना शुरू किया है। परिवार ने हंसी उड़ाई। फिर भी वो लिखती रहीं। फिर उन्होंने अपनी पुस्तक छपवानी चाही। पति को बहुत मुश्किल से मनाया। उन्होंने कहा जितना खर्च हो देंगे पर किसी को पता न चले कि तुमने कोई किताब लिखी है। किताब छपकर आ चुकी है पर उसका विधिवत विमोचन नहीं हो पाया है! क्योंकि परिवार नहीं चाहता। मुझे उनकी बेटियों और बहुओं से पूछना है कि एक स्त्री होकर अगर आप दूसरी स्त्री के लिए, जो कि आपकी मां है, इतना भी नहीं कर सकते तो आप भी कहां सशक्त हैं? आप अपनी कुंठाओं से,डर से जब तक बाहर नहीं आते आप कमज़ोर ही हैं। आज भी किसी सफल महिला को देखकर लोगों को ये कहते सुना जा सकता है कि पति ने बहुत साथ दिया इसलिए यहां तक पहुंची है। पर स्थिति ये भी हो सकती है कि अगर पति ने सचमुच … Read more

बालात्कार का मनोविज्ञान और सामाजिक पहलू

इज्जत के ऐसा शब्द जो सिर्फ औरतों के हिस्से में आया है …..घर के मर्दों का सबसे बड़ा दायित्व भी अपने घर की औरतों की इज्जत बचाना ही है | महिलाएं और इज्जत के ताने -बाने से बुनी सामाजिक सोच से हम क्या उम्मीद कर सकते हैं कि वो बालात्कार पीड़िता  के साथ खड़ा हो पायेगा | क्या अब समय आ गया है कि हम इस पर पुनर्विचार करें | पढ़िए शिवानी जी का एक विचारणीय आलेख … बालात्कार का मनोविज्ञान और सामाजिक पहलू  आगरा की दोनों घटनाओं ने फिर झिंझोड़ कर रख दिया है! दोनों ही घटनाओं में परिचित लड़कों के संलिप्त होने की आंशका निकल रही है। सांजलि के चचेरे भाई की आत्महत्या ने घटना पर नये सिरे से, पर पुराने अनुभवों के आधार पर सोचने पर मजबूर किया है। सिहर उठते हैं नज़दीकी रिश्ते जब दाग़दार होते हैं!  इसमें केवल इंटरनेट या आज के माहौल को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। ये तो हर युग में चलता आया है। पहले और अब में अंतर केवल इतना ही आया है कि पहले चुपचाप सहन करते हुए अपने स्तर पर निपटना होता था पर अब खुले तौर पर विरोध करने की हिम्मत जुटी है। पर अगर उस हिम्मत को सामूहिक बलात्कार या जलाकर, एसिड फेंककर तोड़ दिया जाता रहेगा तो सारी तरक्की, सारा विकास बेमानी है। जब तक घरों में पल रहे और छिपे हुए ऐसे मानसिक रोगियों को सामने लाकर दंडित नहीं किया जाएगा तब तक बच्चियों की हर ‘ना’ को यही परिणाम भुगतने होंगे। हमें बलात्कार का मनोविज्ञान और सामाजिक पहलू समझना होगा। बहुत बुरा चक्रव्यूह है! लड़कियां डरती हैं बदनामी से इसलिए चुप रहती हैं। वो चुप रहती हैं इसलिए उन पर ज़ुल्म होते हैं। ज़ुल्म करने वालों को बदनामी से डर नहीं लगता है क्योंकि …. इस क्योंकि के आगे ही आपको हमको मिलकर काम करना है! समाज में लड़कियों की ज़िंदगी,उनकी इज़्ज़त से जुड़ी हुई है और इज़्ज़त शरीर से जुड़ी हुई है! तो पुरुष की इज़्ज़त शरीर से क्यों नहीं जुड़ी हुई? चूंकि स्त्री को सिर्फ मादा शरीर माना गया है, इंसान माना ही नहीं गया है। या तो शरीर या फिर देवी, पूजनीय मानकर इंसान होना उससे वंचित रखा गया है। और उस शरीर को भी खुद पर मालिकाना हक नहीं। वो भी किसी न किसी पुरुष के पास है। पिता के साथ है तो वहां पिता किसी वस्तु की तरह दूसरे पुरुष को दान कर देगा। दान में प्राप्त वस्तु पर वह पति बनकर मालिकाना हक रखता है। कब?कब इंसान बनकर जीती है स्त्री? ये मालिकाना हक़ की भावना ही है जो कि बलात्कार की शिकार लड़की को समाज में जीने नहीं देती है। इस्तेमाल की हुई चीज़ को कोई पुरुष स्वीकार नहीं करेगा तो माता पिता के लिए कन्या ऐसा बोझ हो जाएगी जिसे किसी को दान देकर वो मुक्त नहीं हो सकते! इसलिए अपने शरीर को सुरक्षित रखने के लिए स्त्री पर दबाव होता है। और सबसे निकृष्ट बात ये कि शरीर को दूसरों की सेवा करने में गला सकती है, छिजा सकती है पर अपने आनंद के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकती। यहां मैं प्रेम की बात कर रही हूं। आप देखिए कि प्रेम प्रसंगों में भी अगर कोई स्त्री शारीरिक संबंध स्थापित करती है तो समाज उसे स्वीकारता नहीं! उसके पीछे भी मानसिकता यही है कि अपने शरीर का इस्तेमाल अपने सुख, अपनी खुशी के लिए नहीं कर सकती है क्योंकि शरीर पर हक़ किसी और का, किसी पुरुष का है। किसी भी नर-मादा संबंध में केवल एक की ही इज़्ज़त खराब कैसे हो जाती है? चाहे प्रेम संबंध हों या बलात्कार, शरीर दोनों का इस्तेमाल हुआ है तो दोष दोनों को लगना चाहिए। पर नहीं! कलंक स्त्री के माथे पर ही लगता है! कारण वही है… जिसके बारे में सोचना हमने वर्जित किया हुआ है। जिस दिन बलात्कार की शिकार लड़की बिना झिझके घर से बाहर निकल सकेगी, लोगों के लिए दया की या घृणा की पात्र नहीं रहेगी, त्यजात्य नहीं रहेगी बल्कि वो इंसान जिसने बलात्कार किया है , समाज द्वारा दंडित किया जाएगा, बहिष्कृत किया जाएगा और घरों से बाहर फेंक दिया जाएगा, उस दिन कहिएगा कि हां लड़कियों-महिलाओं को भी शरीर से अलग इन्सान समझा जा रहा है। जब तक समाज में लड़कियों को एक मादा शरीर के रूप में ही मान्यता मिली हुई है तब तक उनका शोषण  (अलग से ‘शारीरिक शोषण’ कहना आवश्यक नहीं है) होता रहेगा। जितनी भी महिलाओं को मेरी बात से सहमति नहीं है वे अपने मन में झांकें, टटोलें कि अपने बचपन से अपनी बेटी के जवान होने तक, उन्होंने कितनी बार चाहे-अनचाहे स्पर्शों के लिए खुद को परेशान न किया होगा! आक्रोश के साथ साथ अपराध बोध न रहा होगा! काश कि स्त्री का जीवन ,उसका चरित्र केवल और केवल उसका शारीरिक मसला नहीं होता! और साथ ही पुरुष का जीवन, उसका चरित्र भी शारीरिक मसला होता तो समाज में न बलात्कार होता न उसका ख़ौफ़ होता! जैसे राह चलते दुर्घटना हो जाती है वैसे ही शारीरिक संबंध का मामला भी होता। यकीन मानिए इससे कोई अराजकता नहीं फैलती और ना ही दुनिया इसी में लिप्त रहती!  कौन चाहता है दुर्घटनाग्रस्त होना? तो ऐसे ही कोई नहीं चाहेगा अनावश्यक रूप से शारीरिक संबंध बनाना। पर बन जाए तो दुर्घटना में घायल की तरह ही इलाज कराते और ठीक हो जाते। काल्पनिक बात लगती है। हमारे समाज में लड़के-लड़कियों के लिए शारीरिक पवित्रता के मापदंड युगों-युगों से अलग अलग बने हुए हैं कि उनको समान करने के लिए और कई युग लग जाएंगे। मालिकाना हक़ की भावना पुरुष में इतनी गहरे पैठी हुई है कि उसको उखाड़ कर अलग करने के लिए खुरचना होगा। उस खुरचने में वो घायल भी होगा । अब भला कोई खुद को घायल कैसे कर सकता है! इसलिए उसके आसपास की महिलाएं ही ये कर सकती हैं। बुजुर्ग महिलाओं को शुरुआत करनी चाहिए। अपने नाती पोतों को बदलाव के लिए तैयार करें। हमारी पीढ़ी की महिलाओं को अपने बच्चों को इस बदलाव के लिए तैयार करना चाहिए। असंभव कुछ भी नहीं है! शरीर के मामले लड़के-लड़कियों के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण होने चाहिए। इंसान के रूप में दोनों को समान … Read more

प्रथम गुरु

अक्सर ऐसा कहा जाता है कि बालक की प्रथम गुरु उसकी माता होती है परंतु मैं इस बात से सहमत नहीं हूं। माता भी एक इंसान है और उसके अपने सुख-दुख हैं । कुछ चीजों से वह विचलित हो सकती है , कभी वह उद्वेलित भी हो सकती है । लेकिन उसको गुरु रूप में हम स्थापित करते हैं तो उससे अपेक्षा करते हैं कि वह इन भावनाओं पर काबू रखें और कभी भी कठोर प्रतिक्रिया ना दें । वह हमेशा सद्गुणों से भरपूर रहे अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दें ।घर में माहौल अच्छा रखे ताकि बच्चों में अच्छे संस्कार पड़ें। मगर यह सारी चीजें हम स्त्री से ही क्यों अपेक्षित रखते रखते हैं जबकि बच्चों की परवरिश में घर के दूसरे लोगों का भी पूरा प्रभाव पड़ता है।  प्रथम गुरु                                     अगर किसी का पति शराबी है या गुस्से वाला है, घर में माहौल अच्छा नहीं रखता है तो उसका प्रभाव क्या बच्चों पर नहीं पड़ेगा?एक स्त्री प्रभावों से, नहीं बल्कि कुप्रभाव कहना चाहिए,घर के माहौल के प्रभाव से अपने बच्चे को कैसे अछूता रख सकती है? ये जो हम मां को गुरु के रूप में ,शिक्षक के रूप में ,प्रथम शिक्षक के रूप में स्थापित करते हैं वह मेरी नजर में स्त्री पर अत्याचार है ! यह अमानवीय व्यवहार है ! जो उसकी भावनाएं है उन्हें वह क्यों सबके सामने व्यक्त नहीं कर सकती?  अगर कोई बच्चा अच्छा संस्कारी है तो उसमें परिवार का नाम बताइऐंगे कि अरे वाह !कितने अच्छे परिवार का बच्चा है! देखो उसके संस्कार कितने अच्छे हैं! और इसके विपरित अगर कोई बच्चे में कोई बुरी आदतें हैं ,कुछ गलत संस्कार है तो मां का नाम लेते हैं कि इसकी मां ने कुछ नहीं सिखाया ! अरे सिखाने की सारी जिम्मेदारी अकेले मां की है क्या?  परिवार के बाकी सदस्य भी ज़िम्मेदार होते हैं।और सबसे महत्वपूर्ण है पिता! पिता की भूमिका को बच्चे पालने के लिए क्यों नजरअंदाज किया जाता है जबकि घर के वातावरण के लिए पिता बराबर से जिम्मेदार होता है !अगर पिता शराबी है या गुस्से वाला है, घर में वातावरण अच्छा नहीं रहता है !बच्चों में भय का वातावरण रहता है !तो आप एक मां से अपेक्षा करते हैं कि वह उस वातावरण से बच्चों को दूर रखे! पर सोचिए क्या वो इंसान नहीं है ? वो भी पति के भय से भयभीत है। तो ऐसे में आप उससे सहज रहने के अमानवीय व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं! कि वह सारे दुख दर्द चुपचाप सहते हुए बच्चों के सामने हंसती मुस्कुराती रहे और एक अच्छा माहौल बच्चों को दे! मैं इस चीज को अत्याचार जैसा महसूस करती हूं ! ये ठीक है कि वह अधिकतर अपनी माता के पास में रहता है इसलिए सबसे ज्यादा कोशिश मां को करनी चाहिए। पर आप सोचिए कि जो मां के जीवन में सब कुछ ठीक है तो उसके लिए सब कुछ आसान है। लेकिन यदि उसके जीवन में केवल कष्ट और पीड़ाएं ही हैं तो कैसे उससे अपेक्षा करते हैं कि सहजता से रहे!  यह सारी चीजें उसके ऊपर दबाव डालती हैं कि वह बच्चे के सामने सामने आए तो सदा हंसते मुस्कुराते हुए आए ! और एक आदर्श स्त्री की भूमिका में आए! क्यों भाई ?आप उसे इंसान नहीं समझते हैं ? पति चाहे जो करे, सास ससुर कितना अपमान करें ,दुख दर्द सहते सारे दिन रात वो काम में खटती रहे !लेकिन जहां बात आती है कि बच्चों के सामने वह आए तो उसे एक आदर्श मां के रूप में सामने आना चाहिए !बहुत ही गलत बात है !इतना दबाव क्यों डालना चाहिए? अगर यह दबाव नहीं हो कि मां प्रथम गुरु है ,बच्चा जो कुछ सीखता है वह मां सीखता है! तो घर के अन्य सदस्यों की जिम्मेदारी भी तय होगी और वह भी अपने आप को बच्चे के पालन पालन पोषण के लिए जिम्मेदार मानेंगे! और घर में माहौल सही रखने के लिए अपने व्यवहार और आचार विचार पर नियंत्रण रखने को बाध्य होंगे।सबकी सहभागिता सुनिश्चित हो तो निश्चित रुप से घर में माहौल अच्छा रखने के लिए सब प्रयास करेंगे और मां अनावश्यक दबाव से मुक्त होकर अन्य सदस्यों की तरह ही सहजता से अपना जीवन जी सकेगी। सहजता से अपना जीवन बिताने के लिए स्त्री स्वतंत्र क्यों नहीं है? अगर उसे कष्ट है, दुख है, भयभीत है वो तो इसे बच्चों से क्यों छुपाए? इसलिए कि उनके कोमल मन पर दुष्प्रभाव पड़ेगा! बच्चों की प्रथम शिक्षक होने के दबाव में ही वो बच्चों के सामने हंसती मुस्कुराती है! छुप छुप कर रोती है। जबकि सच तो ये है कि बच्चे घर में सभी से कुछ न कुछ सीखते हैं जिनके भी संपर्क में वह दिन भर आते हैं उन सब से वह कुछ न कुछ सीखते हैं। बच्चे स्पंज की तरह होते हैं अपने आसपास के वातावरण से,माहौल से हर पल कुछ न कुछ सीखते रहते हैं। आपको पता भी नहीं चलता जब तक कि उस स्पंज को निचोड़ा ना जाए ! यानि कि जब बच्चे के मन से ज़बान से बात बाहर आएंगी तभी आपको पता चलेगा कि उसने क्या सीखा है !तो वह सारा दिन केवल मां के पास ही तो नहीं रहता है !अगर संयुक्त परिवार है या बड़ा परिवार है तो हर इंसान से, हर उस इंसान से सीखता है जिसके पास वो पल भर भी रह जाता है !मां के ऊपर यह दबाव है कि वह पहली गुरु है , उससे उसे को बाहर निकालना हमारी जिम्मेदारी है ! उसके ऊपर जो एक आदर्श होने का चोला हमने उसको जबरदस्ती पहनाया हुआ है वह बहुत ही अमानवीय व्यवहार है! वो मां होने के साथ साथ एक इंसान भी है ! उसे दुख है तो दुखी होने दीजिए! भयभीत है तो कहने दीजिए !उसे इन चीजों को छुपाने के लिए मजबूर मत करिए! शिक्षक होने का दबाव है उसकी वजह से वह अपने बच्चों से बहुत कुछ छुपाती है !जबकि उन्हीं बच्चों को सब कुछ पता होना चाहिए! एक मात्र जिम्मेदारी स्त्री को सौंपकर पूरा परिवार जिम्मेदारी से मुक्त कैसे हो सकता है?  दरअसल … Read more

दीपोत्सव :स्वास्थ्य ,सामाजिकता ,और पर्यावरण की दृष्टी से महत्वपूर्ण

त्यौहार और उत्सव हमारे जीवन में हर्षोल्लास और सुख लेकर आते हैं ।भारतीय संस्कृति में त्यौहारों का विशेष स्थान है। सभी पर्व या तो पौराणिक पृष्ठभूमि से जुड़े हैं या प्रकृति से! इनका वैज्ञानिक पहलू भी नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता! पांच त्यौहारों की एक श्रृंखला है दीपोत्सव  दीवाली न सिर्फ एक त्यौहार है बल्कि ये पांच त्यौहारों की एक श्रृंखला है जो कि न सिर्फ पौराणिक कथाओं से जुड़े हैं बल्कि सामाजिक एवं पर्यावरण की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं।वास्तव में त्यौहारों का अंतिम अभिप्राय आनन्द और किसी आस्था का संरक्षण ही होता है। पांच दिवसीय इस त्यौहार के लिए हफ़्तों पहले से तैयारियाँ शुरु हो जाती हैं ।साफ-सफाई करते हैं, घर सजाते हैं ।इसका वैज्ञानिक महत्व है।बारिश के बाद सब जगह सीलन होती है फंगस और कीटाणु होते हैं जो कि बीमारियों का कारण बनते हैं ।इसलिए साफ-सफाई करके स्वास्थ्य सुरक्षा की जाती है। इसके बाद घर को सजाते हैं जिससे सुन्दरता के साथ-साथ सकारात्मक ऊर्जा का भी संचरण होता है।फिर आती है ने कपड़ों और ज़ेवर,बरतन की खरीद! सजे संवरे घर में सब कुछ नया-नया हो तो नई उमंग और उत्साह से भर जाते हैं ।सर्दियां भी बस शुरू होने को ही होती हैं तो इस दृष्टि से खान-पान का विशेष ध्यान रखते हुए पकवान बनाए जाते हैं। इतना सब करें और मेहमानों का आना-जाना न हो !!!इसलिये अब एक-दूसरे को बधाई देते हैं, बहन बेटियों को बुलाते हैं और मिलजुल कर त्यौहार मनाते हैं । तो इस तरह दीवाली का ये त्यौहार न केवल पौराणिक मह्त्व का है बल्कि सामाजिक,स्वास्थ्य और पर्यावरण की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। इसके अलावा समाज के लगभग हर वर्ग के लिए महत्व का है। मिट्टी के दीपक, मिठाइयां, ज़ेवर-कपड़े, फल-सब्जी, मोमबत्तियों की और बिजली की रोशनी आतिशबाज़ी आदि बहुत सी चीज़े समाज के विभिन्न वर्गो को रोज़गार के अतिरिक्त अवसर प्रदान करती हैं। अब क्रमवार दीपोत्सव  त्यौहारों की बात करें — 1—धन-तेरस— कार्तिक मास की त्रयोदशी के दिन मनाया जाने वाले इस त्यौहार में आरोग्य के देवता धन्तवरी की आराधना की जाती है।साथ ही नहर बरतन,आभूषण आदि की खरीद भी की जाती है। 2—रूप-चौदस/यम-चतुर्दशी––महिलाएँ अब तक साफ-सफाई और खरीददारी,रसोई में ही व्यस्त रही होती हैं ।तो आज का त्यौहार उनके सजने संवरने का है। साथ ही परिवार की सुरक्षा एवं  खुशहाली के लिए यम के लिए बाहर देहरी पर एक दीपक जलाती हैं ।इस भावना के साथ कि वो बाहर से ही लौट जाएं । 3—दिवाली—तीसरा दिन मुख्य दिवाली का त्यौहार है जिसे न केवल भारत बल्कि दुनियां भर में बसे भारतीय भी मनाते हैं। इस दिन देवी लक्ष्मी एवं गणपति की पूजा की जाती है।दीपकों से घर-आंगन के साथ-साथ मंदिर और चौराहों जैसी सार्वजनिक जगहों को भी रोशन करते हैं। विभिन्न धर्मों में विविध कारणों से दिवाली मनाते हैं जैसे— १-श्रीराम के चौदह वर्ष के वनवास की समाप्ति पर अयोध्या आगमन की खुशी में२-धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूर्य यज्ञ की समाप्ति की खुशी में३-आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती का निर्वाण दिवस४-जैनियों के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस ये कुछ उदाहरण मात्र हैं । 4—अन्नकूट—चौथे दिन शीत ऋतु से जुड़े विभिन्‍न फल-सब्जियों के खाद्यान्नों से इष्ट देव को भोग लगाकर सामूहिक भोजों का आयोजन किया जाता है और गोवर्धन पूजा भी की जाती है। ५—भाई-दूज—शुक्ला द्वितिया के दिन इस घर में भाई-बहन के प्रेम को सुदृढ़ करता भाई दूज का त्यौहार मनाया जाता है। इस तरह दीवाली का ये पांच-दिवसीय त्यौहार सम्पूर्ण होता है। इस प्रकार से अपने आप में सिद्ध हैं कि  दीपोत्सव स्वास्थ्य सामाजिकता व् पर्यावरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है |  शिवानी, जयपुर फोटो क्रेडिट –विकिमीडिया ऑर्ग से साभार यह भी पढ़ें …. आओ मिलकर दिए जलायें धनतेरस -दीपोत्सव का प्रथम दिन दीपावली पर 11 नए शुभकामना सन्देश लम्बी चटाई के पटाखे की तरह हूँ मित्रों , शिवानी , जयपुर  जी का आलेख दीपोत्सव – स्वास्थ्य सामाजिकता व् पर्यावरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण  आपको कैसा लगा  | पसंद आने पर शेयर करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको ” अटूट बंधन ” की रचनाएँ पसंद आती हैं तो हमारा फ्री ईमेल सबस्क्रिप्शन लें ताकि सभी नयी प्रकाशित रचनाएँ आपके ईमेल पर सीधे पहुँच सके | 

तबादले का सच

शालिनी का आज दफ्तर में पहला दिन था। सुबह से काम कुछ न किया था बस परिचय का दौर ही चल रहा था।बड़े साहब छुट्टी पर थे सो पूरा दफ्तर समूह बनाकर खिड़कियों से छन-छन कर आती धूप का आनन्द ले रहा था और बातशाला बना हुआ था। उसने पाया कि वो एक अकेली महिला नहीं है दफतरि में ! रमा जी भी हैं उनके साथ ।जो कि जीवन के 50 बसंत देख चुकी हैं और पिछले 10 वर्षों से इसी दफ्तर में होने के कारण अब अपना दफ्तरी आकर्षण शायद खो चुकी थीं। इसीलिए शालिनी पर सबकी आस बंधी थी कि शायद दफ्तर के रूखे रसहीन माहौल में कोई बदलाव आएगा।पूरे दफ्तर पर वेलेन्टाइन का भूत सवार था । हर कोई एक दूसरे की चुटकियाँ ले रहा था। राम बाबू उम्र में सबसे बड़े थे वहाँ । वो बीते ज़माने का पुलिंदा खोलकरबैठे थे। उनकी जीभ किसी चतुर सिपाही की तरह गुटके की सुपारियों को मुंह के कोने -कोने से ढूंढ कर दांतों के हवाले कर रही थी । और दांत दुश्मन को पीस रहे थे चबा रहे थे कि उनके बचने की कोई सूरत न रहे!उन्हीं शिकारी प्रवृत्तियों को ज़रा विराम देते हुए सुपारियों को गाल का आश्रय देते हुए राम बाबू बोले। बेलेन्टाइन डे की सुरसुरी हमारे जमाने में नहीं सुनी थी पर“आपके जमाने अब नहीं क्या राम बाबू ” सतीश बाबू ने बात काटकर ठहाका लगाया।सबने उनका साथ दिया। राम बाबू भी कहाँ रुकने वाले थे !बोले मर्द के जमाने कभी न जाते हैं सतीश बाबू! असली घी तो पानी की तरह पीकर जवान हुए हैं! ये फास्ट फूड खाकर बड़े हुए आजकल के नौजवान हमारी बराबरी में टिक ही नहीं सकते हैं!आज भी साँस न फूलती हमारी उन्होने एक आँख दबाकर पास बैठे दिवाकर की जांघ को धीरे-से दबाते हुए और सबकी तरफ नज़र घूमाते हुए शालिनी पर गाड़ दी! शालिनी जो अब तक उन सबकी बातों में रुचि ले रही थी, यकायक इस बेहूदगी के लिए तैयार न थी सो अचकचाकर उसने रमा जी की तरफ देखा । वो तो किसी नाॅवेल में मगन इस चर्चा से अलग अपनी दुनिया में थीं।शालिनी ने भी अब अखबार उठाकर अपना ध्यान बंटाना शुरु किया।बातचीत का दौर उधर ज़ोर पकड़ रहा था। राम बाबू की बात ने सभी को रोमांचित कर दिया था। इससे उनका उत्साह और बढ़ गया और वो अपनी व्यक्तिगत बातों को सार्वजनिक करने लगे कि कब-कब उनकी पत्नी से उन्होंने कैसे-कैसे अपनी मर्दान्गी का लोहा मनवाया! अखबार में मुँह छुपाए भी शालिनी को आवाज़ की दिशा और रफ्तार से समझ आ रहा था कि सबकी गर्दन उसी की तरफ घूमकर ही कुछ बोल रही हैं! ईश्वरीय वरदान कहें या अभिशाप इसको कि जब भी कोई नज़र स्त्री को सिर्फ देह समझ कर देखती है तो वो परदे की ओट से भी पहचान लेती है। उसको निशाना बनकर की जाने वाली द्विअर्थी बात उस तक ज़रूर पहुँचती है भले ही एक घड़ी कोई दूसरा पुरुष न समझ पाए। खैर… शालिनी थोड़ी विचलित ज़रूर थी क्योंकि इससे पहले वो जहाँ पोस्टेड थी वहाँ का माहौल बहुत अच्छा था। महिलाएं और पुरुष सब मित्रतापूर्वक काम करते थे बातें करते थे। उसने सोचा भी न था कि नयी जगह पर पहले दिन इन बेहूदगियों से दो-चार होना पड़ेगा! पुराना दफ्तर उपनगरीय इलाके में था। शहर से दूर, तो भी सब समय से आते-जाते थे, काम करते थे। पढ़े-लिखे समझदार लोग थे! काम से काम रखते थे फिर भी थोड़ा बहुत हंस बोल लिया करते थे। कभी-कभी उस माहौल को उबाऊ , नीरस और यंत्रवत भी कहा जा सकता था! जहाँ किसी के सुख-दुख का हाल जानना महज एक शिष्टाचार होता था जिसका पालन करना दफ्तर के नियमानुसार आवश्यक था। शालिनी को वैसे माहौल में सामजस्य बिठाने में भी बड़ी मुश्किल हुई थी। BA. करते ही एक साल की कोचिंग की! कड़ी मेहनत की! आरक्षण कोटे के कारण कठिन हुई डगर के बावजूद competition exam पास करके उसे तुरंत ही सरकारी नौकरी मिल गयी थी। अभी तो college life की तरह अल्हड़पन से जीने वाली शालिनी को ये माहौल ज़रा भी न जमता था। उसने तो सुन रखा था कि सरकारी दफ्तरों में काम कम मस्ती ज़्यादा होती है। तभी तो इतनी मेहनत की इसे पाने के लिए। पर यहाँ तो सब काम करते हैं और उसे भी करना पड़ता है। कारण भी जल्दी ही समझ आ गया था। दफ्तर के head जो थे वो मुख्य मंत्री के पी.ए.के दामाद थे। मानो सबके सिर पर लटकती तलवार! खुद भी काम करते और सबसे भी करवाते क्योंकि विपक्ष की पैनी नज़र इस दफ्तर पर ही रहती थी। सावधानी हटी दुर्घटना घटी वाली स्थिति थी।तीन साल वहाँ काम करके शालिनी भी उसी माहौल की आदि हो गयी थी। ज़रूरत भर का बोलना और मुस्कुराना उसने भी सीख लिया था और अब उसे ये सब सहज भी लगने लगा था!उधर बेहूदे ठहाकों का दौर जारी था। बहुत सोच समझकर शालिनी के पापा ने उसकी पोस्टिंग यहाँ करवाई थी। उन्हें शालिनी का दिन ब दिन संजीदा होता जाना बिल्कुल न जँचता था और इसके लिए वो उसके दफ्तर के माहौल को ही दोषी मानते थे। कई लोगों से जानकारी निकलवायी गयी कि किस दफ्तर में काम या तो होता ही नहीं है या बहुत देर से कुछ ले देकर ही होता है और फिर वहीं अर्जी लगाई गयी। इस की कहानी भी बड़ी दिलचस्प रही कि शालिनी को यहाँ तबादला कैसे मिला! वो हुआ यूं कि जब जानकार लोगों से निम्नतर कामकाज वाले दफ्तरों की सूची बनवाई गयी तो साथ में वहाँ बदली की रेट भी सामने आई! पापाजी ने हिसाब किताब लगाया कि अभी दफ्तर आने-जाने में जितना समय और पैसा लगता है उसके मुकाबले किस ब्रांच में कितना कम लगेगा! फिर रेट देखकर चार दफ्तर फाइनल किए गये और उन्हीं में से एक उसको मिल गया। पापाजी ने बताया था कि तीन साल में जितनी तेरी बचत थी वो इस रेट की भेंट चढ़ गयी है और अब तुझे वो वसूल करनी है बस! कितने समय में वो तू जान।तो यूं शालिनी इस तैयारी से आई थी इस दफ्तर में ।पहला दिन कुछ अच्छा नहीं बीत रहा था। काम … Read more

फैसला

                                                               “माँ सीरियस है जल्दी आ जाओ।” भैया के ये शब्द बार बार कानों में गूंज रहे थे मगर आँखों और दिमाग में कुछ और ही मंजर थे।25 साल पहले ऐसा ही एक फोन मां के पास भी आया था – तब दादी सीरियस थीं।अंतिम सांस लेती मेरी दादी बस जैसे मेरी माँ की ही बाट देख रही थी।माँ के हाथों में उन्होंने दम तोड़ दिया। मेरे final exams चल रहे थे।पर माँ चाहने पर भी 15 दिन से पहले नहीं आ सकीं।दादी जीवित थीं तब माँ वहाँ थी तो उनका वहाँ 12 दिन तक रूकना और तमाम रीति रिवाज निभाना जरूरी था।सामाजिक रीति रिवाजों ने मेरे भविष्य की,सपनों की बलि ले ली।माँ की अनुपस्थिति में पढ़ना और घर भी देखना मैं ठीक से न कर सकी। पड़ोसियों और दोस्तों ने हर सम्भव मदद की पर माँ तो माँ ही होती है। हर समय खाने पीने का पढ़ने का इतना ध्यान रखती थीं।उनके बिना मेरे exams ठीक नहीं हो सकते थे और न हुए।result खराब हुआ और मुझे अपने सपनों से समझौता करना पड़ा। मैं जीवन भर माँ को इस बात के लिए माफ न कर सकी। हमेशा एक तल्खी सी रहती थी मुझमें,पर माँ ने कभी सफाई देने की कोशिश भी नहीं की।  आज इतिहास फिर अपने आप को दोहराने पर अड़ा है।पर मैं कुछ और ही सोच रही थी।मैंने भैया को फोन किया।माँ से बात करना चाही।माँ ने फोन पर अस्पष्ट शब्दों में बस इतना ही कहा “मेरे मरने पर ही आना अनु….. जिन्दा पर मत आना।तू भी मेरी तरह फस गई तो अपने आप को माफ नहीं कर पाएगी जिन्दगी भर।” फोन मेरे हाथ से छूट गया और आँसुओं का एक सैलाब मेरे मन की सारी तल्खी लेकर बह निकला। मैं तड़प उठी माँ से मिलने को। बेहूदा सामाजिक रीति रिवाजों को तोड़ कर,अपनी माँ और बेटी,दोनों के प्रति अपनी भावनाओं और जिम्मेदारी को पूरी तरह से निभाने का निर्णय लेकर मैं अपना bag तैयार करते समय काफी हल्का महसूस कर रही थी।मैं बस जल्दी से माँ के पास जाना चाहती थी। शिवानी जैन शर्मा  अटूट बंधन …………कृपया क्लिक करे