वृक्ष की तटस्था

ईश्वर ने इंसान को भी बनाया और वृक्षों को भी | पर दोनों के स्वाभाव में कितना अंतर है | जहाँ इंसान मेरा , मेरा और सिर्फ मेरा करता है , किसी को कुछ देता भी है तो भी पूरा आकलन कर के देता है , कि कैसे उसके स्वार्थ की पूर्ति हो | पर वृक्ष तटस्थ रहते हैं | वहां मेरा -तेरा कुछ नहीं है वो सब की सेवा करने को वैसे ही तत्पर हैं |  कविता -वृक्ष की तटस्थता   हे ईश्वर  मुझे अगले जन्म मेंवृक्ष बनानाताकि लोगों कोऔषधियां फल -फूलऔर जीने की प्राणवायु दे सकूँ । जब भी वृक्षों को देखता हूँमुझे जलन सी होने लगती हैक्योकि इंसानों में तो  दोगलई घुसपैठ  कर गई है । इन्सान -इन्सान कोवहशी होकर काटने लगा हैवह वृक्षों पर भी स्वार्थ केहाथ आजमाने लगा है । ईश्वर नेतुम्हे पूजे जाने का आशीर्वाद दियाबूढ़े होने पर तुमइंसानों को चिताओ परगोदी में ले लेते होशायद ये तुम्हारा कर्तव्य है । इंसान चाहे जितने हरेवृक्ष -परिवार उजाड़ेकिंतु तुम सदैव  इंसानों को कुछदेते ही हो । ऐसा ही दानवीरमै अगले जन्म में बनना चाहता हूँउब चूका हूँधूर्त इंसानों के बीचस्वार्थी बहुरूपिये रूप सेलेकिन वृक्ष तुम तो आज भी तटस्थ होप्राणियों की सेवा करने में । संजय वर्मा “दृष्टि “  शहीद भगत सींग मार्ग  मनावर जिला धार (म प्र ) यह भी पढ़ें … मायके आई हुई बेटियाँ मैं गंगा  कैंसर सतरंगिनी आपको “ वृक्ष की तटस्था “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- Tree, Poetry, Poem, Hindi Poem, Emotional Hindi Poem

माँ मै दौडूंगा

माँ मै तुम्हारे लिए दौडूंगा जीवन भर आप मेरे लिए दौड़ती रही कभी माँ ने यह नहीं दिखाया कि मै  थकी हूँ  माँ ने दौड़ कर जीवन की सच्चाइयोंका आईना दिखायासच्चाई की राह परचलना सिखाया  अपने आँचल से मुझेपंखा झलायाखुद भूखी रह करमेरी तृप्ति की डकारखुद को संतुष्ट पाया  माँ आप ने मुझे अँगुलीपकड़कर चलना /लिखना सिखायाऔर बना दिया बड़ा आदमीमै खुद हैरान हूँ  मै सोचता हूँमेरे बड़ा बनने पर मेरी माँ का हाथ औरसंग सदा उनका आशीर्वाद हैयही तो सच्चाई का राज है  लोग देख रहे है खुली आँखों सेमाँ के सपनों का सचजो उन्होंने मेहनत/भाग दौड़ से पूरा कियामाँ हो चली बूढ़ीअब उससे दौड़ा नहीं जाता किंतुमेरे लिए अब भी दौड़ने की इच्छा है मन में  माँ अब मै  आप के लिए दौडूंगाता उम्र तक दौडूंगादुनिया को ये दिखा संकूमाँ से बढ़ कर दुनिया मेंकोई नहीं है संजय वर्मा”दृष्टि” यह भी पढ़ें ……. बदनाम औरतें रेप से जैनब मरी है डायरी के पन्नों में छुपा तो लूँ नए साल पर पांच कवितायें -साल बदला है हम भी बदलें आपको “ माँ मै  दौडूंगा  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |

तीसरा कोण – संजय वर्मा की तीन लघुकथाएं

                        हर किस्से , हर प्रसंग का एक तीसरा कोण होता है , जो दो कोणों को बांधता है | तीसरा कोण दीखता नहीं है बस ये एक सेतु है दो कोणों के मध्य , कभी प्रेम का , कभी दर्द का तो कभी समझौते का | आज हम संजय वर्मा जी की ऐसे ही तीन लाघुकाथायें लाये हैं , जहाँ ये अनदेखा तीसरा कोण उभर कर सामने आता है | पढ़िए :तीसरा कोण    – संजय वर्मा की तीन लघुकथाएं  पुनीत कार्य  रंगबिरंगी चिड़ियों को दुकान में बिकते देख पत्नी ने दो चिड़िया खरीद ली । घर लेकर उनके लिए दाना पानी नियमित रूप से देना दिनचर्या में शामिल हो गया । उन चिड़ियों के नाम भी रख दिए गए । अब ऐसा लगने लगा मानो वे घर के सदस्य हो ।जब कभी बाहर जाना हो तो उनके देख -भाल की चिंता सताती । समय बिता तो उनकी संख्या दस बारह हो गई । उन्हें सम्भालना मुश्किल सा लगने लगा । एक दिन विचार किया कि क्यों न हम इन्हे चिड़ियाघर रख आए । चिड़ियों को चिड़िया घर दे आए । जब उन्हें देकर वापस जाने लगे तो पत्नी ने उन्हें उनके दिए नाम से पुकारा तो वे अपने पंख फड़फड़ाने लगे । ऐसा लग रहा था मानों बच्चे अपनी माँ को पुकार रहे हो । आँखों में आँसू की धारा बह निकली ,मन कह रहा था की वापस घर ले चले ।तब महसूस हुआ की अपनों से दूर होने की टीस कैसी होती है ।चिड़ियों को छोड़ते समय की उठी  टीस से   आँखों  में आंसू गिरने लगे । घर  पर आये तो उन रंग बिरंगी चिड़ियों की गौरेया दोस्त बन गई थी वो उन्हें न पाकर शोर करने लगी ।गोरेया के लिए दाना -पानी और खोके का घर बनाकार उसका भी नाम रखकर उसे पुकारने लगे मानों वो भी हमारे घर की सदस्य हो ।  एक अलग ही प्रकार की अनुभूति महसूस हुई मानो  कोई पुनीत कार्य किया हो ।      गुलमोहर  माँ को गुलमोहर का पेड़ बहुत पसंद है । उनकी इच्छा है की अपने बड़े में गुलमोहर का पेड़ होना चाहिए लेकिन गुलमोहर का पौधा लाए कहा से ?नर्सरी में ज्यादा पोधे थे मगर उस समय गुलमोहर नहीं था । पत्नी ने सास की इच्छा को जान लिया। उसका अपने रिश्तेदार के यहाँ शहर जाना हुआ तो उसे सास की गुलमोहर वाली बात याद आगई ।उसने  पौधे  बेचने वाले से  एक गुलमोहर का पौधा खरीद लिया । और उसे बस में अपनी गोद में रख कर संभाल कर घर ले आई । घर पर स्वयं ने गढ्ढा खोदकर उसे रोपा और पानी  दिया ।  करीब चार साल बाद नन्हा पौधा जो की बड़ा हो चूका और उसमे पहली गर्मी में फूल खिले ,पूरा गुलमोहर सुर्ख रंगो से मनमोहक लग रहा था  और आँखों को  सुकून प्रदान कर रहा था । माँ खाना खाते  समय गुलमोहर को देखती तो उसे ऐसा लगता मानो वो बगीचे में बैठ  कर खाना  खा रही हो  । मन की ख्वाइश पूरी होने से  जहां मन को सुकून मिल रहा था वही बहू ने अपनी सेवा भाव को पौधारोपण के जरिए उसे पूरा किय। अब आलम ये है की जब सास बहू  में कुछ भी अनबन होती तो गुलमोहर के पेड़ को देखकर छोटी छोटी  गलतियां माफ़ हो जाती है । रिश्तों को सुलझाने में किसी माध्यम की जरुरत होती है ठीक उसी तरह आज उनके बीच माध्यम गुलमोहर का पेड़ एक सेतु का कार्य कर रहा है ।                परिभाषा गर्मियों की छुट्टियों में एक श्रीमान के यहाँ  उनकी साली  आई ।श्रीमान  की पत्नी की आवाज बहुत ही सुरीली थी । वो अपनी नन्ही सी बेटी को अक्सर  लोरी गा  कर सुलाती थी । जब  वो लोरी गा रही  थी तब श्रीमान की सालीजी ने उस लोरी को रेकार्ड कर वीडियो बना लिया सोचा दीदी इतना अच्छा गाती  है । में घर जाकर माँ को दिखाउंगी । सालीजी कुछ दिनों बाद घर चली गई । कुछ दिनों  पश्च्यात श्रीमान की पत्नी को गंभीर  बीमारी ने जकड़ लिया काफी इलाज करने के उपरांत वह बच नहीं  पाई ,चल बसी । उधर पत्नी की मृत्यु का गम और इधर नन्ही बच्ची को सँभालने की चिंता । जब रात  होती बच्ची माँ को घर में नहीं पाकर रोने लगती हालाॅकि वो अभी एक साल की ही थी । कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर क्या किया जाये । सालीजी आई तो उसने लोरी वाला वीडियो जब बच्ची को दिखाया तो वो इतनी खुश हुई और उसके मुँह  से अचानक “माँ “शब्द निकला और हाथ दोनों माँ की और उठे मानो कह रहे थे माँ मुझे अपने आँचल में ले लो तभी टीवी पर दूर गाना  बज रहा था -माँ मुझे अपनेआँचल में छुपा ले गले से लगा ले  की और मेरा कोई नहीं । उस समय के हालत से सभी घर के सदस्यों की आँखों में अश्रु की धारा बहने लगी । ममत्व और भावना  की परिभाषा क्या होती है किसी को समझाना  नहीं पड़ा  संजय वर्मा  यह भी पढ़ें ………… तोहफा सम्मान राम रहीम भीम और अखबार अनफ्रेंड आपको आपको  कहानी  “सुधीर द्विवेदी की लघुकथाएं “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  संक्षिप्त परिचय                नाम:- संजय वर्मा “दॄष्टि “ 2-पिता का नाम:- श्री शांतीलालजी वर्मा3-वर्तमान/स्थायी पता “-125 शहीद भगत सिंग मार्ग मनावर जिला -धार ( म प्र ) 4544464-फोन नं/वाटस एप नं/ई मेल:- 07294 233656 /9893070756 /antriksh.sanjay@gmail.com5-शिक्षा/जन्म तिथि- आय टी आय / 2-5-1962 (उज्जैन ) 6-व्यवसाय:- ड़ी एम  (जल संसाधन विभाग )7-प्रकाशन विवरण .प्रकाशन – देश -विदेश की विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में रचनाएँ व् समाचार पत्रों में निरंतर रचनाओं और पत्र का प्रकाशन ,प्रकाशित काव्य कृति “दरवाजे पर दस्तक “ खट्टे मीठे रिश्ते उपन्यास  कनाडा  -अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व के  65 रचनाकारों में लेखनीयता में सहभागिता  भारत की और से सम्मान-2015 /अनेक साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित                  -संस्थाओं से सम्बद्धता ):-शब्दप्रवाह उज्जैन ,यशधारा – धार, लघूकथा संस्था जबलपुर में उप संपादक                -काव्य मंच/आकाशवाणी/ पर  काव्य पाठ … Read more

वेदना का पक्ष

संजय वर्मा”दृष्टी” स्त्री की उत्पीड़न की  आवाज टकराती पहाड़ो पर और आवाज लौट  आती साँझ की तरह  नव कोपले वसंत मूक बना  कोयल फिजूल मीठी  राग अलापे  ढलता सूरज मुँह छुपाता  उत्पीड़न कौन  रोके  मौन  हुए बादल  चुप सी हवाएँ  नदियों व्  मेड़ो के पत्थर  हुए मौन   जैसे उन्हें साँप  सूंघ गया  झड़ी पत्तियाँ मानो  रो रही  पहाड़ और जंगल कटते गए  विकास की राह बदली  किन्तु उत्पीड़न की आवाजे  कम नहीं हुई स्त्री के पक्ष में  वासन्तिक  छटा में टेसू को  मानों आ रहा हो  गुस्सा  वो सुर्ख लाल आँखे दिखा  उत्पीडन  के उन्मूलन हेतू  रख रहा हो दुनिया के समक्ष  वेदना का पक्ष  संजय वर्मा”दृष्टी” मनावर जिला धार (म प्र )

बिकते शब्द

शब्द  मीठे /कडवे  बनाओं तो बन जाते   शस्त्र  तीखे बाण /कानों को अप्रिय  आदेश  हौसला ,ढाढंस ऊर्जा बढ़ाते  मौत को टोक कर  रोक देते उपदेशो से कर देते  अमर  शब्दों का पालन  भागदौड़ भरी दुनिया से परे  सिग्नल मुहँ चिढा रहे  बिन बोले  सौ बका और एक लिखा  कैसे वजन करें  इंसाफ की तराजू  शब्द झूट के  हो जाते विश्वास की कसमो में  बेवजह तब्दील  चंद  रुपयों की खातिर  अनपढ़ों को मालूम   शब्द बिकते    पढ़े लिखे बने अंजान  वे खोज रहे शब्दकोश  जहाँ से बिन सके  बिकने वाले सत्य  और मीठे शब्द  संजय वर्मा “दृष्टी “