मिसेज़ चटर्जी वर्सस नॉर्वे और लीड्स में हुई हिंसा

मिसेज़ चटर्जी वर्सस नॉर्वे और लीड्स में हुई हिंसा

लंदन से प्रकाशित पुरवाई के संपादकीय कई मुद्दों पर सोचने को विवश कर देते हैं। ‘प्रवासी हिंसा और दंगे” ऐसा ही संपादकीय है जिसने मुझे उसपर लिखने को विवश कर दिया l आदरणीय तेजेंद्र शर्मा जी अपने संपादकीय में लिखते हैं कि, “ब्रिटेन में ऐसे बहुत से इलाक़े हैं जिनमें एक ख़ास किस्म के प्रवासी एक समूह की तरह रहते हैं और अपने रीति-रिवाजों के साथ वहां जीते हैं। ये सभी प्रवासी ब्रिटेन में आर्थिक कारणों से ही बसने के लिये आए हैं। इनमें से बहुतों ने राजनीतिक शरण ले रखी है; वे ब्रिटेन की सोशल सेवाओं का पूरा लाभ उठाते हैं। मगर वे ब्रिटेन की मुख्यधारा में शामिल होने का प्रयास नहीं करते। संपादकीय मुख्य रूप से पिछले दिनों ब्रिटेन के शहर लीड्स के हेयरहिल्स इलाके में हुई हिंसा और दंगों पर केंद्रित है, जहाँ एक भाई ने अपने छोटे भाई को बेदर्दी से मारा और उसे घायल कर दिया। माँ-बाप बच्चे को अस्पताल ले गये तो अस्पताल के कर्मचारियों ने सोशल सर्विस विभाग को सूचित कर दिया। सोशल सर्विस विभाग के कर्मचारियों ने उस परिवार के बच्चों को परिवार से अलग करने का निर्णय लिया क्योंकि उस परिवार में बच्चों को हिंसा के कारण जान का ख़तरा था। जैसे ही बच्चों को ले जाया जाने लगा, लोग इकट्ठे होना शुरू हो गये। भीड़ उग्र हो गई l मिसेज़ चटर्जी वर्सस नॉर्वे और लीड्स में हुई हिंसा सर ने ब्रिटेन की बात की, पर अलगाववादी फैलाव भारत और पूरे विश्व में है। हमारा अपना देश भी ऐसे समूहों से जूझ रहा है l कभी एक सज़ा के रूप में प्रचलित ‘गैटो’ शब्द अब एक हथियार के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। निजी तौर पर अपनी संस्कृति का आदर या उसे अपनी जीवन शैली में शामिल रखना गलत बात नहीं है, पर भीड़ में बदल कर कानून के खिलाफ़ हो जाना, संस्कृति का नहीं सत्ता का एक रूप है। रही बात बच्चों को मारने पीटने की तो इसे तो सही नहीं कहा जा सकता। मेरा एक अस्पताल में आँखों देखा केस है, एक पिता ने अपनी बच्ची को इतना मारा कि उसकी एक आँख की रोशिनी चली गई l पास खड़ा पिता रो रहा था, पर गुस्से में उस समय खुद को काबू में नहीं रख पाया। मेरा रंग में ऐसिड विक्टिम का एक कार्यकम देखा था l पिता ने माँ पर गुस्से में तेजाब फेंका और माँ का पल्लू पकड़ कर खड़ी बच्ची की आँखों में चला गया, और रोशिनी छीन ली l   देवी-देवता के स्थान पर बैठाए गए माता-पिता भी कितने परिपक्कव है? ये भी सोचने का विषय है। अपने देश में भी जब मार-पिटाई जायज मानी जाती थी, तब बच्चे संयुक्त परिवार में रहते थे। इतनी हिंसक पिटाई से बचाने वाला कोई न कोई घर में रहता था। बड़े बुजुर्गों से सुना है, ज्यादा मारोगे तो ‘मरकहा हो जाएगा’ यानि मार का असर नहीं पड़ेगा। स्त्रियों पर हाथ ना उठाने का संस्कार तो हम कबका भूल चुके हैं। मुझे तो लगता है कि हल्की-फुकी चपत और हिंसात्मक पिटाई में अंतर है, और आज जबकि सहनशक्ति कम हो गई है, यहाँ के माता-पिता को भी कानून के दायरे में लाना चाहिए। वैसे “मिसेज़ चटर्जी वर्सस नॉर्वे” जैसी फिल्म प्रवासी भारतीयों की एक अलग ही कहानी कहती है। फिल्म में मुख्यतः देबिका की कहानी को दिखाया गया है जिसमें वो अपने पति अनिरुद्ध, पुत्र शुभ और पाँच माह की बच्ची सुची के साथ नॉर्वे के स्टवान्गर नामक स्थान पर रहती है। नॉर्वेजियन चाइल्ड वेलफेयर सर्विसेज के दो कर्मचारी तब तक उनके घर पर नियमित तौर पर आते थे जब तक वो शुभा और सुचि को लेकर नहीं चले गये। चटर्जी परिवार को बता दिया गया कि वो अपने बच्चों की देखभाल करने में सक्षम नहीं हैं, अतः देबिका ने सरकार पर मुक़दमा करने का निर्णय लिया और अपने बच्चों की अभिरक्षा वापस प्राप्त की l   ये कहानी  प्रवासियों को परेशान करके पैसे ऐंठने का ये सत्ता का नया रूप हैl सही क्या है गलत क्या है, ये हम निष्पक्ष होकर नहीं कह सकते l मेरे विचार से अगर किसी कानून से दिक्कत भी है, तो भीड़ की सत्ता का हिंसात्मक प्रदर्शन करने के स्थान पर लोकतांत्रिक तरीके से अपना विरोध दर्ज किया जा सकता है, पर उसके लिए देश को अपना समझना होगा, देश को प्रवासियों को । एक शानदार, विचारणीय संपादकीय के लिए बहुत बधाई वंदना बाजपेयी

गीत अटपटे-बड़े चटपटे

गीत अटपटे बड़े चटपटे

लगभग 50 वर्षों पूर्व हिन्दी के बालसाहित्यकारों का एक बड़ा जमावड़ा उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हुआ था। जमावड़ा शब्द का प्रयोग मैं इसलिए कर रहा हूँ कि तब बालसाहित्य भी जमने के लिए निरंतर प्रयत्नशील था, ऐसे में इस अधिवेशन को मुझे वास्तव में जमावड़ा कहना ही अधिक प्रासंगिक लगा। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसमें उन सभी बालसाहित्यकारों की विशेष रूप से उपस्थिति थी, जो आगे चलकर बालसाहित्य में मानक बने। कुछ नाम छूटने के डर से यहाँ नामोल्लेख करना उचित प्रतीत नहीं हो रहा है। पूरे कार्यक्रम में लखनऊ के तत्कालीन बालसाहित्यकारों ने एक पाँव पर खड़े होकर जो सहयोग किया था, उसकी कल्पना से ही मन आह्लादित हो उठता है। जब मैं यह टिप्पणी लिख रहा हूँ तो उनमें से अधिकांश का स्मरण करते हुए मेरा माथा श्रद्धा से झुका जा रहा है, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। हुआ यह कि किसी को भी बालसाहित्य पर केन्द्रित ऐसे सफल अधिवेशन की न तो कल्पना थी, और न ही बालसाहित्य की गंभीरता को लेकर उठाए गए सवालों पर गंभीर विमर्श की उम्मीद थी। यह अच्छा रहा कि आज बालसाहित्य के नाम पर चहलकदमी करने वाले लोग तब तो इस क्षेत्र में आए ही नहीं थे। कुछ लोग जरूर दूर से ही तमाशा देख रहे थे। विष्णुकांत पांडेय : गीत अटपटे-बड़े चटपटे इस पूरे कार्यक्रम को लेकर दिनमान में एक रिपोर्ट छपी —–चमकदार अस्तबल: कमज़ोर घोड़े। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस रिपोर्ट को जिसने लिखा था, वह कोई छोटा- मोटा साहित्यकार नहीं था, साहित्य जगत में उसके नाम की तूती बोलती थी। तीसरा सप्तक का वह कवि बालसाहित्य में भी बराबर की दखल रखता था। आगे चलकर उसने पराग जैसी बच्चों की प्रतिष्ठित पत्रिका का संपादन भी किया। उसका नाम था —-सर्वेश्वरदयाल सक्सेना , और वे दिनमान में नियमित चरचे और चरखे स्तंभ लिखा करते थे। (पाठक इस स्तंभ में छपी सामग्री सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ग्रंथावली के भाग 8-9 में पढ़ सकते हैं)। इसके छपते ही पहले दबी जुबान से फिर मुखर रूप में हंगामा शुरू हो गया। मोतिहारी बिहार के साहित्यकार विष्णुकांत पांडेय उस समय परिकल्पना पत्रिका निकालते थे। उन्होंने इसका मुख्य रूप से विरोध किया, तथा आगामी बालसाहित्य की क‌ई संगोष्ठियों में भी यह चर्चा मुखर रही। यह बात मैं इसलिए कह रहा हूँ कि मुझे विष्णुकांत पांडेय की पांडुलिपि बालसाहित्य विवेचन पढ़ने को सन् 1982-83 में निरंकारदेव सेवक के घर पर बरेली में मिली थी। उस पांडुलिपि को बिहार सरकार ने पुरस्कृत भी किया था, मगर पांडुलिपि पुस्तक के रूप में कभी छप नहीं सकी। इसकी चर्चा मैंने सन् 1992 में प्रकाशित अपनी पुस्तक हिन्दी बाल पत्रकारिता: उद्भव और विकास में किया है। कुछ लोग विष्णुकांत पांडेय को बालसाहित्य का दुर्वासा भी कहते थे, लेकिन सही अर्थों में वे दुर्वासा इसलिए थे कि उन्हें गलत बात किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं थी। उनके शिशुगीतों की खूब चोरी हुई है। ऐसे क‌ई लेखकों पर उन्होंने कानूनी कार्रवाई भी की थी, वकील की नोटिस भिजवाई थी। उ.प्र. हिन्दी संस्थान, लखनऊ के कार्यक्रम में जब वे लखनऊ आए थे, तो मेरी उनसे क‌ई मुद्दों पर बात हुई थी। एक लेखक ने उनके शिशुगीतों की पूरी पुस्तक ही अपने नाम से छपवा ली थी। इसकी जानकारी मुझे थी। जब चर्चा चली तो वे आगबबूला हो गए थे। उनका गुस्सा जायज़ था। उन्हें पेसमेकर लगा था, इसलिए उन्हें ज़्यादा छेड़ना मैंने उचित नहीं समझा। दरअसल, इस भूमिका की पीछे असली तथ्य यह था कि पहले विष्णुकांत पांडेय की साहित्यिक रचनात्मकता, मान्यताओं और प्रवृत्तियों को समझ लिया जाए, फिर उनके शिशुगीतों पर चर्चा की जाए,ताकि पाठक समझ जाएँ कि वैसे साहित्यकार संवेदनशील होता है, मगर जब बात आत्मसम्मान की आ जाए तो फिर वह किसी भी कीमत पर समझौता नहीं करता है। ऐसे गुणी, आत्मसम्मानी और बालसाहित्य के लिए प्राणप्रण से लगे रहने वाले साहित्यकार विष्णुकांत पांडेय ने वैसे तो बालसाहित्य की अनेक विधाओं में लेखन किया है, मगर उनके शिशुगीतों का कोई सानी नहीं है। यह कहना बड़ा कठिन है कि हिन्दी का पहला शिशु गीत कौन सा है, परन्तु इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हिन्दी में शिशु गीतों का आरंभ स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व ही हो गया था और छठवें दशक तक आते-आते अनेक रोचक और महत्त्वपूर्ण शिशु गीत लिखे ग‌ए। शिशु गीतों को एक सफल मंच प्रदान करने का श्रेय बच्चों की सुप्रसिद्ध पत्रिका पराग को है। पराग में पूरे दो पृष्ठों में शिशु गीत आकर्षक साज-सज्जा के साथ प्रकाशित किए जाते थे। शिशुगीतों के सृजन और चयन के पीछे संपादक की अपनी गहरी सूझबूझ होती थी। संपादक आनंदप्रकाश जैन की यह टिप्पणी बड़ी महत्त्वपूर्ण है:—– “पिछले कई वर्षों से पराग में शिशुगीत छापे जा रहे हैं। इन शिशुगीतों के चयन में बड़ी सावधानी बरती जाती है क्योंकि शुद्ध शिशुगीत लिखना उतना आसान नहीं है जितना समझा जाता है। इसलिए अच्छे शिशु गीत बहुत कम लिखे जा रहे हैं। शिशुगीत ऐसे होने चाहिए कि इन्हें 4 से 6 साल तक के बच्चे आसानी से ज़बानी याद कर लें और अन्य भाषा-भाषी बच्चे और बड़े भी इनका आनंद ले सकें। इनसे मुहावरेदार हिन्दी सरलता से जु़बान पर चढ़ जाती है।” – पराग: अक्टूबर 1996: पृष्ठ 52 शिशुगीतों के सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें कुछ ऊलजलूलपन (नॉनसेंस) हो। उनकी यही विशेषता शिशुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है। शिशु गीतों में एक और महत्त्वपूर्ण बात है-भाषा के चयन की, परंतु पराग के भूतपूर्व संपादक आनंदप्रकाश जैन कहते हैं —शिशुगीतों की भाषा कोई भी हो, उनकी पहली शर्त यही है कि उनमें कुछ ऐसा अटपटापन हो जो बरबस ही गुदगुदाए, खास तौर पर बच्चों के सरल बोध को और उन बड़ों को भी ,जिनकी प्रवृत्ति बच्चों के समान हो। वास्तव में अटपटे शिशुगीतों का अपना चटपटा संसार होता है। इतना तो तय है कि शिशुगीतों को बहुत शाश्वत बंधन में बाँधकर नहीं लिखा जा सकता है। अटपटेपन के साथ-साथ, खट्टे-मीठे चटपटेपन का स्वाद देने वाले शिशुगीतों की अपनी ही परिभाषा है और अपनी ही विशेषता। इनसे बच्चे बिना रोक-टोक के आनंद लें, यही शिशु गीतों का मूल-मंतव्य भी है। हिन्दी में लगभग सभी बालसाहित्यकारों ने शिशुगीतों का सृजन किया है, परंतु जो बात विष्णुकांत पांडेय के शिशुगीतों में … Read more

कलर ऑफ लव – प्रेम की अनूठी दास्तान

कलर ऑफ लव

  प्रेम जो किसी पत्थर हृदय को पानी में बदल सकता है, तपती रेत में फूल खिला सकता है, आसमान से तारे तोड़ के ला सकता है तो क्या किसी मासूम बच्चे में उसकी उच्चतम संभावनाओं को विकसित नहीं कर सकता | क्या माँ और बच्चे का प्रेम जो संसार का सबसे शुद्ध, पवित्र, निश्चल प्रेम माना जाता है, समाज की दकियानूसी सोच, तानों -उलाहनों को परे धकेलकर ये करिश्मा नहीं कर सकता है?  एक माँ का अपनी बेटी के लिए किया गया ये संघर्ष ….संघर्ष नहीं प्रेम का ही एक रंग है | बस उसे देखने की नजर चाहिए |    ऐसे ही प्रेम के रंग में निमग्न वंदना गुप्ता जी का  भारतीय ज्ञानपीठ/वाणी से प्रकाशित उपन्यास “कलर ऑफ लव” समस्या प्रधान एक महत्वपूर्ण उपन्यास है| ये उपन्यास “डाउन सिंड्रोम” जैसी एक विरल बीमारी की सिर्फ चर्चा ही नहीं करता बल्कि उसके तमाम वैज्ञानिक और मानसिक प्रभावों पर प्रकाश डालते हुए एक दीप की तरह निराशा के अंधकार में ना डूब कर कर सकारात्मकता की राह दिखाता है | अभी तक हिंदी साहित्य में किसी बीमारी को केंद्र में रख कर सजीव पात्रों और घटनाओं का संकलन करके कम ही उपन्यास लिखे गए है | और जहाँ तक मेरी जानकारी है “डाउन सिंड्रोम” पर यह पहला ही उपन्यास है |  कलर ऑफ लव -डाउन सिन्ड्रोम पर लिखा गया पहला और महत्वपूर्ण उपन्यास   Mirrors should think longer before they reflect. – Jean Cocteau           अगर कोई ऐसा रोग ढूंढा जाए जो सबसे ज्यादा संक्रामक है औ पूरे समाज को रोगग्रस्त करे हुए है तो वो है तुलना | जबकि हर बच्चा, हर व्यक्ति  प्रकृति की नायाब देन है, जो अपने विशेष गुण के साथ पैदा होता है बस जरूरत होती है उसे पहचानने की, उसे उसके हिसाब से खिलने देने की |  ऐसा ही एक विशेष गुण है “डाउन सिंड्रोम” .. ये कहानी है एक ऐसी ही बच्ची पीहू की जो इस विशेष गुण के साथ पैदा हुई है |    शब्दों का हेर-फेर या  समझने का फ़र्क  कि जिसे विज्ञान की भाषा “सिन्ड्रोम” का नाम देती है, प्रकृति प्रयोग का नाम देती है | ऐसे ही प्रयोगों से निऐनडेरथल मानव से होमो सैपियन्स बनता है और होमो फ्यूचरिस की संभावना प्रबल होती है | इसलिए प्रकृति की नजर में “डाउन सिन्ड्रोम” महज एक प्रयोग है .. जिसमें बच्चे में 46 की जगह 47 गुणसूत्र होते है | इस एक अधिक गुणसूत्र के साथ आया बच्चा कुछ विशेष गुण के साथ आता है | जरूरत है उस विशेष गुण के कारण उसकी विशेष परवरिश का ध्यान रखने की, तो कोई कारण नहीं कि ये बच्चे खुद को सफलता के उस पायदान पर स्थापित ना कर दें जहाँ  तथाकथित तौर पर सामान्य कहे जाने वाले बच्चे पहुंचते हैं|  यही मुख्य उद्देश्य है इस किताब को लिखे जाने का |    “कलर ऑफ लव”  उपन्यास मुख्य रूप से एक शोध उपन्यास है जिसे उपन्यास में पत्रकार सोनाली ने लिखा है |  छोटे शहर से दिल्ली तबादला होने के बाद सोनाली की मुलाकात अपनी बचपन की सहेली मीनल और उसकी बेटी पीहू से होती है | पीहू “डाउन सिन्ड्रोम” है| दोनों सहेलियाँ मिलती है और मन बाँटे जाने लगते हैं | संवाद शैली में आगे बढ़ती कथा के साथ सोनाली  पीहू और उसकी माँ मीनल के संघर्ष की कहानी  जान पाती है| पन्ना दर पन्ना जिंदगी खुलती है और अतीत के अनकहे दर्द, तनाव, सफलताएँ सबकी जिल्द खुलती जाती है | पर पीहू और मीनल के बारे में जानने  के बाद सोनाली की रुचि “डाउन सिन्ड्रोम के और शोध में बढ़ जाती है | और जानकारी एकत्र करने के लिए वो विशेष स्कूल के प्रिन्सपल ऑफिस में जाकर केसेस डिस्कस करती है | इन बच्चों के विकास में लगे फ़ेडेरेशन व फोरम जॉइन करके जानकारियाँ और साक्ष्य जुटाती है | एक तरह से नकार, संघर्ष, स्वीकार  और जानकारियों का  कोलाज है ये उपन्यास | जो काफी हद तक  असली जिंदगी और असली पात्रों की बानगी को ले  कर बुना गया एक मार्मिक पर सकारात्मक दस्तावेज है |   इस उपन्यास के चार  महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर बात करना पाठकों के दृष्टिकोण से सुविधाजनक रहेगा|  समाज में व्याप्त अशिक्षा  रोगग्रस्त बच्चे के परिवार, विशेषकर माँ का का घर के अंदर और बाहर का संघर्ष  उन बच्चों की चर्चा जिन्होंने “डाउन सिंड्रोम” जैसी बीमारी के बावजूद सफलता के परचम लहराए | जीवन दर्शन जो व्यक्ति को सहज जीवन को स्वीकारने का साहस देता है|    कोई भी अवस्था समस्या तब बनती  है जब समाज में उसके  बारे में पर्याप्त जानकारी ना हो | जैसे बच्चे के जन्म के समय ही यह बातें होने लगती हैँ, “की उसके हाथों में एक भी  लकीर नहीं है, ऐसे बच्चे या तो घर छोड़ देते है या फिर बड़े सन्यासी बन जाते हैं |”   “देख सोनाली, मेरे पीहर में मेरी चाची के एक चोरी हुई थी| जिसकी बाँह के साथ दूसर बाँह भी निकलने के लिए बनी हुई थी |पीर बाबा है, उन्होंने जैसे  ही निगाह डाली वो माँस का लोथड़ा टूट कर गिर गया | तब से आज तक बच्ची बिल्कुल मजे से जी रही है|”      इस अतिरिक्त भी लेखिका ने कई उदाहरण दिए है  जहाँ गरीबी अशिक्षा के चलते लोग  डॉक्टर या विशेष स्कूल की तरफ ना जाकर किसी चमत्कार की आशा में अपनी ही बगिया के फूल के साथ अन्याय करते है | दरअसल अशिक्षा ही नीम हकीम और बाबाओं की तरफ किसी चमत्कार की आशा में भेजती है और इसी के कारण ना तो बच्चे का विकास सही ढंग से हो पाता है ना समाज का नजरिया बदल पाता है|    आज जब की पूरे विश्व में “प्रो. लाइफ वर्सिज प्रो चॉइस” आंदोलन जोर पकड़ रहा है | लेखिका एक ऐसी माँ  की जीवन गाथा लेकर आती है जो डॉक्टर द्वारा जन्म से पहले ही बच्चे को “डाउन सिंड्रोम” घोषित करने के बावजूद अपने बच्चे के जन्म लेने के अधिकार के साथ खड़ी  होती है | यहाँ जैसे दोनों तर्क मिल जाते हैं | क्योंकि ये भी एक चॉइस है जो लाइफ के पक्ष में खड़ी है| एक माँ के संघर्ष के अंतर्गत लेखिका वहाँ से शुरू करती हैं  जहाँ एक माँ को … Read more

पुस्तक समीक्षा -शंख पर असंख्य क्रंदन

संख पर असंख्य क्रंदन

    जो देश और काल को परिभाषित कर दे, उसकी समस्याओं, तकलीफों, बेचैनियों को शब्द दे दे, दुःख सुख, युद्ध शांति, संयोग वियोग, मानवता नृशंसता को व्याख्यायित कर दे, जीवन को आधार प्रदान करे, श्वास लेने के लिए मुफीद जगह उपलब्ध करवा दे, वही कविता है. कविता का संसार अत्यंत व्यापक है जिसका कोई ओर छोर नहीं है. हरी अनंत हरी कथा अनंता की भांति कविता भी अनंत है. कविता को किसी देश काल में विभक्त नहीं किया जा सकता. ये जानते हुए जब कवि की कलम चलती है तब उसकी कविताओं में न केवल हमारा परिवेश, प्रकृति उसकी चिंताएं समाहित होती हैं बल्कि उसमें हमारा समाज, राजनीति, धर्म, स्त्री, मानव जाति, मनुष्य का व्यवहार और स्वभाव सभी का समावेश होता है. कविता किसी एक देश की बात नहीं करती हैं, ये सम्पूर्ण विश्व, सम्पूर्ण मानवता की बात करती हैं. इनकी कविताओं का भी फलक उसी तरह व्यापक है जिस तरह कहानियों का था. कविताओं में पूरे विश्व की चिंताएं समाहित हैं चाहे इतिहास हो या भूगोल. एक ऐसी ही कवयित्री हैं डॉ सुनीता जिनका पहला कविता संग्रह ‘शंख पर असंख्य क्रंदन’ अपने व्यापक फलक का दर्शन कराता है. कविता क्या होती है और क्या कर सकती है, दोनों का दर्शन संग्रह में होता है. इनकी कविताओं में केवल देश या अपना समाज ही नहीं है बल्कि एक कविता सम्पूर्ण विश्व की पीड़ा का दर्शन करा देती है इस प्रकार इन्होंने इतिहास भूगोल और संवेदनाओं को कविताओं में पिरोया है.  शंख पर असंख्य क्रंदन- गाँव की पगडंडी से लेकर वैश्विक चिंताओं को समेटे कविताएँ    पहली ही कविता ‘दोपहर का कोरस’ अपनी संवेदना से ह्रदय विगलित कर देती है जहाँ संवेदनहीनता किस प्रकार मनुष्य के अस्तित्व का हिस्सा बन गयी है उसका दर्शन होता है.  अनगिनत लाशें सूख चुकी थीं जिनको किसी ने दफन नहीं किया आज तक/ क्योंकि वहां मानवीयता के लिए मानव थे ही नहीं/ कुछ परिंदे चोंच मार रहे थे उसकी देह पर  रेगिस्तान की त्रासदी और मानवता के ह्रास का दर्शन है ये कविता जहाँ ऐसे भयावह मंज़र नज़रों के सामने होते हैं और आप उन्हें देख कर सिहर उठते हैं और आगे बढ़ जाते हैं. आप के अन्दर की करुणा आपसे संवाद नहीं करती. एक ऐसे दौर में जी रहा है आज का मानव. संवेदनशील ह्रदय जब भी मानवीय त्रासदी देखता है आहत हो जाता है. आंतरिक घुटन बेचैनी को शब्दबद्ध करने को बेचैन हो जाता है. ऐसे में पहले ही सफ़र में जब ऐसा मंज़र रेगिस्तान में देखता है द्रवीभूत हो जाता है, सोचने को विवश हो जाता है, आखिर किस दौर के साक्षी बन रहे हैं हम? हम सरकारों को कोसते हैं लेकिन क्या हमने कुछ किया? हम भी मुंह फेर आगे बढ़ जाते हैं, त्रासदियाँ घटित होती रहती हैं. कवि ह्रदय मानवता की त्रासदी पर दुखी हो सकता है और अपनी पीड़ा को शब्दबद्ध कर स्वयं को हल्का करने का प्रयास करता है तो साथ ही समाज के सम्मुख एक कटु यथार्थ सामने लाता है.  ‘प्रेम की बारिश को पत्तियों ने जज़्ब किया’ एक ऐसी कविता जहाँ प्रेम का वास्तविक स्वरूप क्या है उसका दर्शन होता है. मानवीय प्रेम नहीं, आत्मिक प्रेम नहीं अपितु प्रकृति का दुलार, प्रकृति का उपहार, बिना किसी भेदभाव के सब पर समान रूप से बरसता प्रकृति का प्रेम ही इस धरा की अमूल्य निधि है. प्रकृति अपना निस्वार्थ प्रेम इसीलिए बांटती है कि धरती पर जीवन पनपता रहे. प्यार बाँटते चलो का सन्देश देती नदियाँ, पहाड़, बादल, धरती, वृक्ष सभी प्रेमगीत गुनगुनाते हैं. जब भी सभ्यता का क्षरण होता है अर्थात प्रलय आती है, यही रखते हैं मानवता की, प्रेम की नींव ताकि जीवन कायम रहे, उम्मीद कायम रहे. यूं ही नहीं कहा – दरार से प्रेम मिटाता नहीं/ सूरज से तेज चमकने लगता है/ जिस दिन धरती डोलना बंद करेगी उस दिन/ बादल पहाड़ों का चुम्बन अन्तरिक्ष में बाँट देंगे/आकाशगंगा पर लिख देंगे स्थायी इश्तहार/ जब धरती प्रलय की योजना बनाएगी तब हम नए सृजन के नाम/ प्रेम में डूबे देश की नींव रखेंगे  ये है प्रकृति का सन्देश, उसका निस्वार्थ प्रेम जिसे मानव समझ नहीं पा रहा, अपने हाथ अपना दोहन कर रहा है.      ‘सदियों से खड़ी मैं दिल्ली’ इस कविता में कवयित्री दिल्ली के माध्यम से केवल दिल्ली की बात नहीं कर रहीं हैं. दिल्ली क्या है – क्या केवल उतनी जितनी हम देखते हैं? आज की दिल्ली या कुछ वर्षों पहले की दिल्ली की हम बात करते हैं जबकि दिल्ली के सीने में सम्पूर्ण सभ्यता का इतिहास समाया है बस उसे देखने वाली नज़र चाहिए. यहाँ एक देश की राजधानी की बात नहीं है. दिल्ली एक प्रवृत्ति का आख्यान है. एक इतिहास विश्व का जिसे दिल्ली न केवल देख रही है बल्कि अपने सीने में जज़्ब कर रही है. डॉ सुनीता दिल्ली के माध्यम से वैश्विक फलक तक की बात करती हैं. वर्तमान समाज और समय की चिंताओं का समावेश इस कविता में हो रहा है. मनुष्यता  की चिंता है इन्हें. जहाँ १९१० का काल भी समाहित हो रहा है तो मदर टेरेसा की करुणा भी इसमें समाहित हो रही है, कैसे युगोस्लाविया से कोलकता तक का सफ़र तय करती है. युद्ध की विभीषिका, मालवीय के प्रयास से पहले अखिल भारतीय हिंदी सम्मलेन कैसे संपन्न हुआ, सभी का आख्यान प्रस्तुत कर रही है. दिल्ली के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व की चिंताएं समाहित हो रही हैं. युद्ध हों या सम्मलेन, किसने क्या किया, कैसे सफलता प्राप्त की या असफलता सबकी मूक भाव से साक्षी बनती है.  यहाँ दिल्ली होना सहज नहीं, इतिहास ही नहीं, भूगोल का दर्शन भी होता है. कविता के माध्यम से  सोलहवीं शताब्दी का दर्शन कराती दिल्ली, एक नोस्टाल्जिया में ले जाती हैं और समय की करवट का दर्शन करवा देती हैं. प्राचीनतावाद में डूबे विश्व के बदलते भूगोल को लोमहर्षक नज़रों से देखती/उन सभी पलों में कई सदियों को देख रही होती हूँ   खेती एक सार्वजनिक सेवा है – इनकी कविताओं में प्रतीक और बिम्ब और शैली को समझने के लिए गहराई में उतरना पड़ेगा, विश्लेषण करना पड़ेगा. खेती एक सार्वजनिक सेवा है, इस भाव को वही ग्राह्य कर सकता है जो खेती के महत्त्व को समझता हो, जो अन्न के महत्त्व को जानता हो. जो … Read more

हवा का झोंका थी वह -स्त्री जीवन के यथार्थ की प्रभावशाली अभिव्यक्ति    

हवा का झोंका थी वह

     समकालीन कथाकारों में अनिता रश्मि किसी परिचय की मोहताज़ नहीं है। हवा का झोंका थी वह अनिता रश्मि का छठा कहानी संग्रह है। इनके दो उपन्यास, छ: कहानी संग्रह सहित कुल 14 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी रचनाएँ निरंतर देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। इस संग्रह में 14 कहानियाँ संग्रहीत हैं। अनिता रश्मि ने स्त्री विमर्श के विविध आयामों को सरई के फूल तथा हवा का झोंका थी वह संग्रहों की कहानियों के माध्यम से सफलतापूर्वक हमारे सामने प्रस्तुत किया हैं। अनिता रश्मि ने स्त्री पीड़ा को, उसकी इच्छाओं, आकांक्षाओं, भावनाओं और सपनों को अपनी कहानियों के माध्यम से चित्रित किया हैं। इस संग्रह की कहानियों में स्त्रियों के जीवन की पीड़ा, उपेक्षा, क्षोभ, संघर्ष को रेखांकित किया है और साथ ही समाज की विद्रूपताओं को उजागर किया है। इन कहानियों का कैनवास काफ़ी विस्तृत हैं। ये कहानियाँ मध्यवर्गीय जीवन से लेकर निम्न वर्ग तक के जीवन की विडंबनाओं और छटपटाहटों को अपने में समेटे हुए है। इन कहानियों में यथार्थवादी जीवन, पारिवारिक रिश्तों के बीच का ताना-बाना, आर्थिक अभाव, पुरूष मानसिकता, स्त्री जीवन का कटु यथार्थ, बेबसी, शोषण, उत्पीड़न, स्त्री संघर्ष, स्त्रीमन की पीड़ा, स्त्रियों की मनोदशा, नारी के मानसिक आक्रोश आदि का चित्रण मिलता है। संग्रह की सभी कहानियाँ मानवीय संवेदनाओं को चित्रित करती मर्मस्पर्शी, भावुक है। इस संग्रह की कहानियाँ जिंदगी की हकीकत से रूबरू करवाती है। लेखिका अपने आसपास के परिवेश से चरित्र खोजती है। कहानियों के प्रत्येक पात्र की अपनी चारित्रिक विशेषता है, अपना परिवेश है जिसे लेखिका ने सफलतापूर्वक निरूपित किया है। अनिता रश्मि की कहानियों में सिर्फ पात्र ही नहीं समूचा परिवेश पाठक से मुखरित होता है।  हवा का झोंका थी वह -स्त्री जीवन के यथार्थ की प्रभावशाली अभिव्यक्ति     संग्रह की पहली कहानी हवा का झोंका थी वह नारी की संवेदनाओं को चित्रित करती आदिवासी स्त्री मीनवा की एक मर्मस्पर्शी, भावुक कहानी है जो विपरीत परिस्थितियों में भी हँसते मुस्कराते घरेलु नौकरानी का काम करती है। मीनवा एक बिंदास स्त्री है। आँखें एक मध्यम वर्गीय परिवार की कहानी है। पायल और सुमंत लीव इन रिलेशनशिप में रहते हैं। पायल शादी इसलिए नहीं करना चाहती क्योंकि वह अपने माता-पिता को हमेशा लड़ते-झगड़ते हुए देखती है। लेकिन कुछ ही सालों में पायल अनुभव करती है कि वह अपनी माँ में और सुमंत उसके पापा में परिवर्तित हो रहा है तो पायल सुमंत से शादी करने का फैसला करती है। सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए हम कोल्हू के बैल की तरह जूते रहते हैं लेकिन क्या ये सुविधाएँ हमें खुशियाँ देती है? इस प्रश्न का उत्तर जिस दिन हमें मिल जाएगा उस दिन हम भी इस कहानी के पात्रों मथुरा, जिरगी और कजरा की तरह कोलतार की तपती सड़क पर मुस्कुरा उठेंगे। शहनाई कहानी संगीत की दुनिया में ले जाती है। निशांत अपने बेटे अंकुल की मृत्यु के पश्चात टूट जाता है और उसके हाथ से शहनाई छूट जाती है। निशांत के सैकड़ों शिष्य देश विदेश में निशांत का नाम रोशन कर रहे है लेकिन निशांत अपने बेटे के निधन से उबर नहीं पा रहा था। एक दिन अचानक जब निशांत की मुलाक़ात शहनाई पर बेसुरी तान निकालते हुए प्रकाश पर पड़ती है तो निशांत को प्रकाश में अपना बेटा अंकुल दिखता है और निशांत प्रकाश को शहनाई पर सुर निकालने का प्रशिक्षण देता है और निशांत वापस संगीत की दुनिया में लौट आता है।   एक नौनिहाल का जन्म एक आदिवासी युवक वृहस्पतिया की कहानी है। वृहस्पतिया अमीर बनने के लिए अपने सीधे सादे पिता की ह्त्या कर देता है। वह न तो दूसरों के खेतों पर मजदूरी करता है, न ही अपनी किडनी बेचता है और न ही आत्महत्या करता है। वह अमीर होने के लिए अफीम की खेती करता है और एक बड़ी जमीन का मालिक बन जाता है। लेकिन वह पुलिस के डर से इधर उधर भागता रहता है। उस घर के भीतर एक ऐसे माता पिता की कहानी है जो अपने अर्धविक्षिप्त, विकलांग बेटे को घर के अंदर बाँध कर रखते है। इनके पडोसी को इस तरह की हरकत अमानवीय लगाती है और वह इनको एक पत्र लिखता है कि आप अपने बेटे को खुले वातावरण में सांस लेने दो, फिर देखो कि तुम्हारा बेटा कैसे खिल उठेगा। वह अर्धविक्षिप्त, विकलांग बेटे को अपने बेटे के साथ खेलने के लिए भी बुलाता है। किर्चें एक लेडी डॉक्टर की कहानी है जिसका पति दहेज़ का लोभी है। वह अपनी पत्नी की तनखा स्वयं रख लेता है और अपनी पत्नी के द्वारा अपने ससुर से भी पैसे मांगता रहता है। ससुर की मृत्यु के पश्चात वह पत्नी के भाई से भी पैसा मांगता है। पत्नी अपने पति के लालची स्वभाव के कारण परेशान हो जाती है और अपने पति से अलग हो जाती है। वह अपने बेटे को पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाती है।    एक उदास चिट्ठी एक पत्र शैली में एक युवती द्वारा अपनी माँ को लिखी कहानी है। यह एक भारतीय संस्कारों में पली बढ़ी आधुनिक युवती के शोषण की कहानी है। जिसे अपनी विदेशी माँ से उपेक्षा मिलती है। वह अपनी जीवन व्यापन के लिए एक रेस्टोरेंट खोलती है जहां उसके जीवन में एक फौजी आता है। वह फौजी एक दिन उसका बलात्कार करता है। तब वह टूट जाती है और कहती है वह मेरी चीख नहीं थी। वह बेबसी की चीख नहीं थी… वह एक औरत की चीख भी नहीं थी। वह एक घायल, मर्माहत संस्कृति की चीख थी ममा।      लाल छप्पा साड़ी गरीब आदिवासी स्त्री बुधनी की कहानी है। बुधनी रोज रात को डॉक्टर निशा के यहाँ पढ़ने के लिए जाती है। बुधनी का पति जीतना दारु पीकर पड़ा रहता है।  एक दिन जीतना शहर जाने के लिए निकलता है तो बुधनी उसे पैसे देकर अपने लिए लाल छप्पा साड़ी लाने के लिए कहती है। क्योंकि बुधनी जहां काम करती है उस घर की मालकिन के पास भी एक लाल रंग की साड़ी है जो की बुधनी को बहुत पसंद है। बुधनी का पति शहर से नहीं लौटता है। गाँव में लोग बुधनी को डायन समझने लग जाते है। वह विक्षिप्त सी हो जाती है और बुधनी अपने पुत्र को लेकर अपने पति को ढूंढने शहर जाती है। शहर में उसे पता … Read more

पुस्तक समीक्षा -भगवतीचरण वर्मा स्मृति : समकालीन कहानी संग्रह

पुस्तक समीक्षा

  सीमा वशिष्ठ जौहरी जो कि वरिष्ठ साहित्यकार भगवतीचरण वर्मा की पोती हैं, ने अपने दादाजी भगवतीचरण वर्मा की स्मृति में समकालीन कहानी संग्रह का संपादन कर पुस्तक भगवतीचरण वर्मा स्मृति : समकालीन कहानी संग्रह का प्रकाशन संस्कृति, चेन्नई से करवाया है। सीमा जौहरी बाल साहित्य के क्षेत्र में लेखन में सक्रीय हैं। सीमा वशिष्ठ जौहरी ने इस संकलन की कहानियों का चयन और संपादन बड़ी कुशलता से किया हैं। इस संग्रह में देश-विदेश के सोलह  कथाकार शामिल हैं। संग्रह के 16 कथाकारों में भगवतीचरण वर्मा, ममता कालिया, ज़किया ज़ुबेरी, सूर्यबाला, चित्रा मुद्गल, तेजेन्द्र शर्मा, डॉ. हंसा दीप, सुधा ओम ढींगरा, अलका सरावगी, प्रहलाद श्रीमाली जैसे हिंदी के प्रतिष्ठित हस्ताक्षरों के साथ नयी और उभरते कथाकारों की कहानियाँ भी सम्मिलित हैं। इस संग्रह की कहानियाँ पाठकों के भीतर नए चिंतन, नई दृष्टि की चमक पैदा करती हैं। भगवतीचरण वर्मा स्मृति : समकालीन कहानी संग्रह सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कथाकार भगवतीचरण वर्मा की वसीयत कहानी बेहद रोचक है। कहानी सामाजिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि में लिखी गई है। कहानी में संवाद चुटीले और मार्मिक हैं। इस कहानी के द्वारा भगवती चरण वर्मा ने समाज की आधुनिक व्यवस्था पर करारा कटाक्ष किया गया है। इस कहानी में हास्य है, व्यंग्य और मक्कारी से भरे चरित्र हैं। भगवतीचरण वर्मा की किस्सागोई का शिल्प अनूठा है। भगवतीचरण वर्मा की कहानियों में घटनाएँ, स्थितियाँ और पात्रों के हावभाव साकार हो उठाते हैं। वसीयत कहानी एक कालजयी रचना है। भगवतीचरण वर्मा की रचनाएँ युगीन विसंगतियों पर प्रहार करते हुए नवयुग के सृजन की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं। वरिष्ठ कथाकार ममता कालिया ने कहानी दो गज़ की दूरी कोरोना काल की त्रासदी को केंद्र में रख कर लिखी है। कहानी में सहजता और सरलता है। यह नारी अस्मिता की कहानी है। यहां समिधा को सशक्त किरदार में दर्शाया गया है। ममता कालिया ने समिधा की सूक्ष्म मनोवृत्तियों, जीवन की धड़कनों, मन में चलने वाली उथल पुथल को इस कहानी में सहजता से अभिव्यक्त किया है। ममता कालिया विडम्बना के सहारे आज के जीवन की अर्थहीनता को तलाशती हैं। इस कहानी में संबंधों के नाम पर समिधा का पति वरुण झूठ, धोखा, अविश्वास, छल-कपट और बनावटीपन का मुखौटा लगाये संबंधों को जीना चाहता है। ज़कीया ज़ुबैरी की गरीब तो कई बार मरता है अमीना की कहानी है। ज़किया जुबैरी स्त्रियों की ज़िन्दगी में आहिस्ता से दाख़िल होकर उनके मन की परतों को खोलती हैं। भीतरी तहों में दबे सच को सामने लाती हैं। ज़किया जुबैरी की कहानियाँ उनकी बेचैनी को शब्द देती है। ज़कीया ज़ुबैरी हिन्दी एवं उर्दू दोनों भाषाओं में समान अधिकार रखती हैं। ज़कीया ज़ुबैरी की भाषा में गंगा जमुनी तहज़ीब की लज़्ज़त महसूस होती है। अमीना का विवाह समी मियाँ से होता है। अमीना का प्रत्येक दिन समी मियाँ की चाकरी में गुजर जाता है। अमीना चार बच्चों की माँ बन जाती है। समी मियाँ बिज़नेस के सिलसिले में एक महीने के लिए बाहर चले जाते हैं, तब अकेलेपन से बचने के लिए अमीना सत्रह साल की नूराँ को अपने पास बुला लेती है। जब समी मियाँ वापस लौट कर आते है, तब एक दिन सुबह अमीना अपने पति समी मियाँ को उनके बेड रूम में जाकर देखती है कि नूराँ समी मियाँ के बिस्तर पर सोई हुई है। अमीना और नूराँ दोनों चौंक जाती हैं।   सूर्यबाला की गौरा गुनवन्ती एक अनाथ लड़की की कहानी है जो अपनी ताई जी के यहाँ रहती है। सूर्यबाला अपनी कहानियों में व्यंग्य का प्रमुखता से प्रयोग करती हैं। सूर्यबाला की कहानियों में यथार्थवादी जीवन का सटीक चित्रण है। इनके कथा साहित्य में स्त्री के कई रूप दिखाई देते हैं। सूर्यबाला के नारी पात्र पुरुष से अधिक ईमानदार, व्यवहारिक, साहसी और कर्मठ दिखाई देती हैं। कहानीकार पाठकों को समकालीन यथार्थ से परिचित कराती हैं और उसके कई पक्षों के प्रति सचेत भी करती हैं। लेखिका जीवन-मूल्यों को विशेष महत्व देती हैं, इसलिए इनकी इस कहानी की मुख्य पात्र गौरा दुःख, अभाव, भय के बीच जीते हुए भी साहस के साथ उनका सामना करते हुए जीवन में सुकुन की तलाश कर ही लेती है। उसमें विद्रोह की भावना कहीं नहीं है। कथाकार चित्रा मुद्गल की कहानी ताशमहल पुरुष मानसिकता और माँ की ममता को अभिव्यक्त करने वाली है। यह एक परिवार की कहानी है, जिसमें संबंध बनते हैं, फिर बिगड़ते है और अंत में ताश के पत्तों की तरह ढह जाते हैं। माता-पिता के झगड़ों में बच्चों पर क्या गुजरती है? इस प्रश्न के उत्तर बारे में केवल माँ ही सोच सकती है। कहानी में बाल मनोविज्ञान का सूक्ष्म चित्रण भी दिखता है। यह एक सशक्त कहानी है जिसमें कथ्य का निर्वाह कुशलतापूर्वक किया गया है। कथाकार ने इस कहानी का गठन बहुत ही बेजोड़ ढंग से प्रस्तुत किया है। रीता सिंह एक ऐसी कथाकार है जो मानवीय स्थितियों और सम्बन्धों को यथार्थ की कलम से उकेरती है और वे भावनाओं को गढ़ना जानती हैं। लेखिका के पास गहरी मनोवैज्ञानिक पकड़ है। साँझ की पीड़ा एक अकेली वृद्ध महिला विमला देवी की कहानी है जो बनारस में अपने घर में रहती है। एक दिन विमला देवी की बेटी और उनका दामाद विमला देवी के यहाँ आकर बनारस के उस घर को बेच देते हैं और विमला देवी को अपने साथ चंडीगढ़ लेकर चले जाते हैं। लेकिन कुछ दिनों बाद ही बेटी और दामाद विमला देवी के साथ बुरा बर्ताव करते हैं, तब एक दिन विमला देवी दिल्ली में अपने भाई रघुवीर के घर चली जाती है। रघुवीर के घर में भी विमला देवी के लिए जगह नहीं थी, तब रघुवीर विमला देवी को एक विधवाश्रम में छोड़ कर आ जाते हैं। चार दिन बाद ही रघुवीर के पास विधवाश्रम के संचालक का फोन आता है कि विमला देवी को दिल का दौरा पड़ा है। रघुवीर जब आश्रम पहुँचते हैं, तब तक विमला देवी का निधन हो चुका होता है। तेजेन्द्र शर्मा ने बुजुर्गों के अकेलेपन को खिड़की कहानी के द्वारा बहुत मार्मिकता के साथ बयां किया है। कहानी के नायक जो कि साठ वर्ष के हैं और अब परिवार में अकेले रह गए हैं, की ड्यूटी रेलवे की इन्क्वारी खिड़की पर होती है। वे इस इन्क्वारी खिड़की पर लोगों के साथ संवाद स्थापित कर के, उनकी सहायता कर … Read more

बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा

बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा

  1857 का संग्राम याद आते ही लखनऊ यानी की अवध की बेगम हज़रत महल के योगदान को कौन भूल सकता है l  खासकर तब जब आजादी के अमृत महोत्सव मना रहा देश अपने देश पर जाँ निसार करने वाले वीरों को इतिहास के पीले पन्नों से निकाल कर फिर से उसे समकाल और आज की पीढ़ी से जोड़ने का प्रयास कर रहा हो l कितनी वीर गाथाएँ ऐसी रहीं, जिन्होने अपना पूरा जीवन अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए बिता दिया और हम उन्हें कृतघ्न संतानों की तरह भूल गए l बेगम हज़रत महल उन्हीं में से एक प्रमुख नाम है l   किसी भी ऐतिहासिक व्यक्तित्व पर लिखना आसान नहीं होता l ज्ञात इतिहास ज्यादातर जीतने वाले के हिसाब से लिखा जाता है जो कई बार सत्य से काफी दूर भी हो सकता है l अतः निष्पक्ष लेखन हेतु लेखक को समय के साथ जमींदोज हुए तथ्यों की बहुत खुदाई करनी पड़ती है, तब जा कर वो कहीं कृति के साथ न्याय कर पाता है l ऐसे में वीणा वत्सल सिंह इतिहास में लगभग भुला दी गई  “बेगम हज़रत महल’ को अपनी कलम के माध्यम से उनके हिस्से का गौरव दिलाने का बीड़ा उठाया है l वो बेगम को उनकी आन-बान-शान के साथ ही नहीं उनके बचपन, मुफलिसी के दिन जबरन परी बनाए जाने की करूण  कहानी से नवाब वाजिद अली शाह के दिल में और अवध में एक खास स्थान बनाने को किसी दस्तावेज की तरह ले कर आई हैं l ये किताब मासूम मुहम्मदी से महक परी और बेगम हज़रत महल तक सफर की बानगी है l जिसमें बेगम हज़रत महल के जीवन के हर पहलू को समेटा गया है l ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की प्रगतिशील सोच रखने वाली एक जुझारू संघर्षशील स्त्री के सारे गुण मुहम्मदी में नजर आते हैं l बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा   बेगम हज़रत महल की संघर्ष यात्रा शुरू होती है एक निम्नवर्ग के परिवार में जन्मी बच्ची मुहम्मदी से l कहते है कि होनहार बिरवान के होत चीकने पात” l जब पाठक मुहम्मदी के बचपन से रूबरू होता है तो लकड़ी की तलवार लेने की जिद और जंगी हुनर सीखने कि खवाइश से ही उसके भविष्य की दिशा दिखने लगती है l एक कहावत है “होनहार बिरवान के होत चीकने पात”यानि  विशिष्ट व्यक्तित्व के निर्माण के बीज उनके बचपन से ही दिखने लगते हैं l ऐसा ही मुहम्मदी के साथ हुआ l बच्चों के खेल “बोलो रानी कितना पानी” जिसमें रानी को कभी ना कभी डूबना ही होता है का मुहम्मदी द्वारा विरोध “रानी नहीं डूबेगी” दिखा कर खूबसूरती से उपन्यास की शुरुआत की गई है l और पाठक तुरंत मुहम्मदी से जुड़ जाता है l शुरुआत से ही पाठक को मुहम्मदी में कुछ नया सीखने का जज्बा, जंगी हुनर सीखने का जुनून, करुणा, विपरीत परिस्थितियों को जीवन का एक हिस्सा समझ कर स्वीकार तो कर लेना पर उस में हार मान कर सहने की जगह वहीं से नए रास्ते निकाल कर जमीन से उठ खड़े होने की विशेषताएँ दिखाई देती हैं lये उसका अदम्य साहस ही कहा जाएगा कि जीवन उन्हें बार-बार गिराता है पर वो हर बार उठ कर परिस्थितियों की लगाम अपने हाथ में ले लेती हैं l  उपन्यास में इन सभी बिंदुओं को बहुत ही महत्वपूर्ण तरीके से उभारा गया है l   निम्न वर्ग के परिवार में तीन भाइयों के बाद आई सबसे छोटी मुहम्मदी यूँ तो पिता की बहुत लाड़ली थी पर गरीबी-मुफलिसी और सबसे बड़े भाई अनवर के हर समय बीमार रहने के कारण उसका बचपन आसान नहीं था l अनवर के इलाज लायक पैसे भी अक्सर घर में नहीं होते l ऐसे में जब भी अनवर को दिखाने हकीम के पास जाना होता उस दिन घर में चूल्हा भी नहीं जलता l ऐसे में उसके मामा सलीम ने जब अपनी बीमार पत्नी की देखभाल के लिए मुहम्मदी को अपने साथ ले जाने को कहा तो माता- पिता को अनुमति देनी ही पड़ी l इसका एक कारण यह भी था कि मुहम्मदी की बढ़ती उम्र और सुंदरता के कारण वो इस कमजोर दरवाजे वाले घर में सुरक्षा नहीं कर पाएंगे l पर खुश मिजाज मुहम्मदी ने माता-पिता के बिछोह को भी स्वीकार कर लिया l अपनी ममेरी बहन नरगिस के साथ उसने ना केवल घर के काम सीखे बल्कि मामूजान से उनका हुनर टोपी बनाना भी सीखा l ताकि आर्थिक संबल भी दे सके l हिफ़ाजत और जंग के लिए तलवार चलाना सीखने की खवाइश रखने वाली मुहम्मदी का दिल बेजूबानों के लिए भी करुणा से भरा था l  यहाँ तक की उपन्यास में मुर्गे की लड़ाई के एक दृश्य में मुहम्मदी मुर्गे को बचाती है l और कहती है कि   “मुर्गे का सालन ही खाना है तो सीधे हलाल करके खाइए ना ! ऐसे क्यों इस गरीब को सताये जा रहे हैं ? क्या इसए दर्द नहीं होता होगा?”   मुहम्मदी की ममेरी बहन नरगिस और जावेद की प्रेम कथा उपन्यास की कथा में रूमानियत का अर्क डालती है l “नरगिस का चेहरा सुर्ख, नजरें झुकी हुई l जबकि जावेद का मुँह थोड़ा सा खुला हुआ और आँखें नरगिस के चेहरे पर टिकी हुई l दोनों के पैरों के इर्द-गिर्द गुलाब और मोगरे के फूल बिखरे हुए और बेचारा टोकरा लुढ़क कर थोड़ी दूर पर औंधा पड़ा हुआ l”   जब भी हम कोई ऐतिहासिक उपन्यास पढ़ते हैं तो हम उस कथा के साथ -साथ उस काल की अनेकों विशेषताओं से भी रूबरू होते हैं l उपन्यास में नृत्य नाटिका में वाजिद आली शाह का कृष्ण बनना उनके सभी धर्मों के प्रति सम्मान को दर्शाता हैं तो कथारस वहीं प्रेम की मधुर दस्तक का कारण बुनता है l कथा के अनुसार कृष्ण बने नवाब वाजिद अली शाह द्वारा जब मुहम्मदी की बनाई टोपी पहनते हैं तो जैसे कृष्ण उनके वजूद में उतर आते हैं l परंतु उसके बाद हुए सर दर्द में लोग उनके मन में डाल देते हैं कि उन्होंने शायद जूठी टोपी यानि किसी की पहनी हुई टोपी पहनी है, ये दर्द उसकी वजह से है l वाजिद के गुस्सा होते हुए तुरंत सलीम … Read more

घूरे का हंस – पुरुष शोषण की थाह लेती कथा

मैं खटता रहा दिन रात ताकि जुटा सकूँ हर सुख सुविधा का सामान तुम्हारे लिए और देख सकूँ तुम्हें मुस्कुराते हुए पर ना तुम खुश हुई ना मुस्कुराई तुमने कहा मर्दों के दिल नहीं होता और मैं चुपचाप आँसूँ पिता रहा कविता का यह अंश मैंने लिया है सुपरिचित लेखिका अर्चना चतुर्वेदी जी के उपन्यास “घूरे का हंस” से, जो भावना प्रकाशन से प्रकाशित है और जिसे मैंने अभी पढ़कर समाप्त किया है l   घूरे का हंस – पुरुष शोषण की थाह लेती कथा जैसा की कविता से स्पष्ट है ये उपन्यास पुरुष की पीड़ा को उकेरता है l जो कर्तव्यों  के बोझ तले दब रहा है, पर स्नेह के दो बोल उसके लिए नहीं हैं l उपन्यास सवाल उठाता है,  आज के बदलते सामाजिक परिवेश में जब स्त्रियों को कानून से सुरक्षित किया गया है, जो कि अभी भी जरूरी हैं पर उत्तरोत्तर ऐसी महिलाओं की संख्या में भी इजाफा हो रहा है, जो इनका दुरप्रयोग कर रहीं हैं, और अपने ही घर में पुरुष शोषित हो रहा है l इन महिलाओं को अधिकार तो चाहिए पर कर्तव्य से पीछा छुड़ाना चाहती हैं l तो क्या ऐसे में उस तकलीफ को रेखांकित नहीं किया जाना चाहिए ? समाज के इस बदलते समीकार से साहित्य अछूता रह जाना चाहिए l जबकि ऐसे तमाम दुखड़े आपको आस -पास मिल जायेगे l यू ट्यूब पर तमाम साइट्स पर भी हैं जिन पर पुरुष अपना दर्द साझा कर रहे हैं l फिर भी परिवार या सामाज में आम चलन में हम उस पर बात करने से कतराते रहे हैं, कंधा देने से कतराते हैं l   अर्चना जी उसी दर्द को सामने लाने के लिए एक बिल्कुल देशी , मौलिक कथा लाती हैं l ये कहानी है गाँव के लच्छु पहलवान के घर चार पोतियों के बाद पोता होने की l जिसके जन्म पर थाली पीटी जा रही है, पर उस नवजात को नहीं पता कि ये थाली उसके ऊपर तमाम जिम्मेदारियों का बोझ डालने के कारण पीटी जा रही है l कहानी रघु के जन्म से पहले की दो पीढ़ियों की कथा बताकर आगे बढ़ती है तो जैसे रघु अपने जीवन की व्यथा बताने के लिए पाठक का हाथ पकड़कर आगे चलने लगता है और उसके साथ भ्रमित चकित पाठक उसके दर्द के प्रवाह में बहता चला जाता है और अंत में एक बड़े दर्द को समेट कई प्रश्नों से जूझता हुआ, कई बदलावों की जरूरत को महसूस करता हुआ  विचार मगन रह जाता है l अर्चना जी ने  रघु के साथ पूरे समाज को कटघरे में खड़ा किया है l सबसे पहले माता-पिता जो बेटे के जन्म के लिए 4 बेटियों की लाईन लगाते हैं पर उनकी जिम्मेदारी जन्मते ही बेटे के कंधों पर होती है l  और भाई कितना ही छोटा क्यों ना हो, बहनों को कहीं जाना हो भाई को साथ जाना पड़ता है, चाहे खेल छोड़ कर, चाहे पढ़ाई छोड़ कर, लड़कियों पर पढ़ाई का दवाब नहीं है पर लड़कों पर माता -पिता के सपनों का बोझ है l हॉस्टल गए लड़कों को किस तरह से लड़कियाँ मौन या चालाकी भरे अंदाज आमंत्रण देती हैं और इच्छा पूरी ना होने पर उनपर ही आरोप लगा देती हैं, या उन पर कुछ ऐसे लेबल् लगा देती हैं, जिसमें पुरुष, पुरुषों के मध्य हंसी का पात्र बन जाता है l हमारे पौराणिक आख्यानों  में भी ऐसी स्त्रियाँ रहीं हैं,ये हम सब जानते हैं l रघु के साथ यात्रा करते हुए हम उसकी पारिवारिक कलह से रूबरू होते हैं, अपने घर के अंदर दम घोटू स्थिति से रूबरू होते हैं l कहानी को ना खोलते हुए मैं ये कहना चाहूँगी कि रघु की निरीह दयनीय स्थिति पर करुणा आती हैं l ये वो सच है जो हमने अपने आस -पास जरूर देखा होगा, पर उसके साथ खड़े नहीं हुए जरूरत नहीं समझी, क्यों?   तो क्या ये पुरुष विमर्श का युग है और स्त्री को सब कुछ मिल गया है और अब हमें उसके संघर्षों को ताक पर रख देना चाहिए ? अमूमन पुरुष विमर्श की बात आते ही ये सहज प्रश्न आम उदारवादी जन मानस के मन में आता है, खासकर तब जब वो एनिमल जैसी फिल्म देखकर सकते में हों, जहाँ टाक्सिक अल्फा मेल स्थापित किए जा रहे हैं l इसका उत्तर उपन्यास में बहुत सावधानी और तार्किकता से दर्ज है, वो भी कथा रस को बाधित किए बिनाl जहाँ पुरुष की पीड़ा बताते हुए स्त्रियों की पीड़ा गाथा भी है l जहाँ दहेज के कारण जलाई गई सुमन भी है, तो पढ़ाई बीच में रोक कर शराबी -कबाबी से ब्याह दी गई राधा भी है, नकारा पति को झेलती दादी भी हैं, तो पति से पिटती स्त्रियाँ भी हैं, जिन्हे अपना पति माचोमैँन लगता है l  अर्चना जी कहीं भी शोषित स्त्री के दर्द को कम नहीं आँकती हैं, बल्कि कई स्थानों पर भावुक भी कर देती है, पर इसके साथ ही वो आगाह करती हैं कि पीड़ित स्त्री के साथ हमें पीड़ित पुरुष को सुनना चाहिए l ये आवाज नासूर बन जाए उससे पहले सुनना होगा क्योंकि एक स्वस्थ समाज के लिए सत्ता किसी की  भी हो  सही नहीं है, शोषण किसी का भी हो सही नहीं है l हमें आँसू और आँसू में फर्क करने से बचना होगा l   अब आती हूँ उपन्यास के कथा शिल्प पर, तो 160 पेज की इस कहानी में गजब का प्रवाह है l किताब पाठक को आगे “क्या ?” की उत्सुकता के साथ पढ़वा ले जाती है l भाषा सरल -सुलभ है और कथा- वस्तु के साथ न्याय करती है l कहानी के साथ-साथ  बहते हुए व्यंग्य भी है और अर्चना जी का चुटीला अंदाज भी l दादा -दादी की रंग तरंग जहाँ गुदगुदाती है तो हॉस्टल के दृश्य कॉलेज के जमाने की याद दिलाते हैं l लेकिन इसके बीच कहानी पाठक के मन में प्रश्नों के बीज बोती चलती है, जो उसे बाद तक परेशान करते हैं l यहीं उपन्यास अपने मकसद में सफल होता है l प्रतीकात्मक कवर पेज कहानी का सार प्रतिबिंबित करता है l अंत में यही कहूँगी कि व्यंग्य के क्षेत्र में अपनी खासी पहचान बना चुकी अर्चना जी का ये संवेदन … Read more

सुनो कहानी नई पुरानी -कहानियों के माध्यम से बच्चों को संस्कृति से जोड़ने का अभिनव प्रयास

“मम्मी इस घर का एक रूल बना दीजिए कि चाहे जो भी हो जाए इस फॅमिली का कोई मेम्बर एक-दूसरे से बात करना बंद नहीं कर सकता है l” यूँ तो साहित्य लेखन ही जिम्मेदारी का काम है पर बाल साहित्य के कंधे पर यह जिम्मेदारी कहीं ज्यादा महती है क्योंकि यहाँ पाठक वर्ग एक कच्ची स्लेट की तरह है, उसके मन पर जो अंकित कर दिया जाएगा उसकी छाप से वो जीवन भर मुक्त नहीं हो सकता l आज इंटरनेट पीढ़ी में जब दो ढाई महीने के बच्चे को चुप कराने के लिए माँ मोबाइल दे देती है तो उसे संस्कार माता-पिता से नहीं तमाम बेहूदा, ऊल-जलूल रील्स या सामग्री से मिलने लगते हैं l ऐसे में बाल साहित्य से बच्चों को जोड़ना क कड़ी चुनौती है l जहाँ उन्हें मनोरंजन और ज्ञान दोनों मिले l किरण सिंह जी के बाल साहित्य के लेखन में ये अनुपम समिश्रण देखने को मिलता है l बाल साहित्य पर उनकी कई पुस्तकें आ चुकी हैं और सब एक से बढ़कर एक है l उनका नया बाल कहानी संग्रह “सुनो कहानी नई पुरानी” इसी शृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी है l सुनो कहानी नई पुरानी -कहानियों के माध्यम से बच्चों को संस्कृति से जोड़ने का अभिनव प्रयास   संग्रह के आरंभ में बच्चों को लिखी गई चिट्ठी में वो अपनी मंशा को स्पष्ट करते हुए लिखती हैं कि, “कहानियाँ लिखते समय एक बात मन मिएन आई, क्यों नाइन कहानियों के माध्यम से आपको संस्कृति से जोड़ा जाएl” वनिका पब्लिकेशन्स से प्रकाशित 64 पेज के इस बाल कहानी संग्रह में 14 कहानियाँ संकलित हैं l जैसा की नाम “सुनो कहानी नई पुरानी” से स्पष्ट है किरण सिंह जी ने इस बाल् कहानी संग्रह कुछ नई कहानियों के माध्यम से और कुछ पौराणिक कहानियों के माध्यम से बच्चों को अपनी संस्कृति से जोड़ने का अभिनव प्रयास किया है l इससे पहले वो ‘श्री राम कथमृतम के द्वारा सरल गेय छंदों में श्री राम के जीवन प्रसंगों को बच्चों तक पहुँचाने का महत्वपूर्ण काम कर चुकी हैं l कहीं ना कहीं पाश्चात्य संभयता और संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण बच्चे अपने पूर्वजों के गौरव को भूलते जा रहे हैं l हमने वो समय भी देखा है, जब ये व्यंग्य खूब प्रचलित था बच्चे ये प्रश्न करते हैं कि, “सीता किसका बाप था ?” बात हँस कर टालने की नहीं, अपितु गंभीर चिंतन की थी क्योंकि व्यंग्य समाज की विसंगतियों पर प्रहार ही होते हैं l पर दुर्भाग्य से इस ओर विशेष कदम नहीं उठाए गए l एक क्रूर सच्चाई ये भी है कि आज के माता- पिता को खुद ही नहीं पता है तो वो बच्चों को क्या बताएंगे l किरण सिंह जी इसे एक बहुत ही रोचक अंदाज में कहानियों के माध्यम से बुना है lफिर चाहें वो दीपावली क्यों मनाई जाती है ? मीरा का श्याम में अद्भुत विलय हो या जिज्ञासु नचिकेता के बाल सुलभ प्रश्न पूछने और जिज्ञासाओं को शांत कर ज्ञान अर्जित करने की कथा हो l हर कथा को इस तरह से बुना गया है कि आज के बच्चे जुड़ सकें l जैसे कृष्ण-सुदामा की कहानी वहाँ से शुरू होती है, जहाँ दक्ष अपने दोस्त की शिकायत करता है कि वो उसका टिफिन खा जाता है l वो उसे मोंटू भी कहता है l माँ कृष्ण सुदामा के माध्यम से दोस्ती के अर्थ बताती हैं l दक्ष को समझ आता है और उसे अपनी गलती का अहसास भी होता है कि उसे अपने दोस्त को “मोंटू” नहीं कहना चाहिए, उसे उसके नाम ‘वीर’ से ही बुलाना चाहिए l वहीं दक्ष की बर्थ डे पार्टी में आया वीर भी वादा करता है कि वो अब दूसरे बच्चों का टिफिन नहीं खाएगा बल्कि खेल कूदकर योग करके खुद को पतला करने की कोशिश करेगा l ये कहानी मुझे इस लिए बेहद अच्छी लागि क्योंकि इसमें कृष्ण-सुदामा की कथा के माध्यम से दोस्ती के सच्चे अर्थ तो बताए ही, बच्चों को किसी दूसरे पर कोई टैग लगाने या बॉडी शेमिंग की प्रवत्ति पर भी प्रहार है l वहीं स्वास्थ्यकर खाने और योग से फिट रहने की समझ पर भी जोर दिया गया है l इस संग्रह में केवल पुरानी कहानियाँ ही नहीं हैं कुछ बिल्कुल आज के बच्चों, और आज के समय को रेखांकित करती कहानियाँ भी हैं l जैसे रौनक ने अपने छोटे भी चिराग के बात-चीत बंद कर दी l छोटू चिराग से भैया की ये चुप्पी झेली नहीं गई l अब बंद बातों के तार जुड़ें कैसे ? लिहाजा उसने मम्मी से गुजारिश कर घर में ये रूल बनवा दिया कि घर में किसी का किसी से झगड़ा हो जाए तो कोई बात-चीत बंद नहीं करेगा l वहीं रौनक ने भी रूल बनवा दिया कि “कोई किसी की चुगली नहीं करेगा l”यहाँ लेखिका बच्चों के मन में ये आरोपित कर देती हैं कि आपसी रिश्तों को सहज सुंदर रखने के लिए संवाद बहुत जरूरी है l “कुछ दाग आच्छे होते हैं कि तर्ज पर कहूँ तो “ऐसे रूल भी अच्छे होते हैं l” रोज रात में दादी की कहानी सुनने की आदी गौरी के माता-पिता जब दादी की तबीयत खराब होने पर गौरी को कहानी ना सुनाने को कहते हैं ताकि उनके ना रहने पर गौरी के कोमल मन पर असर ना पड़ें तो दादी चुपक से टेक्नोलॉजी का सहारा लेकर अपनी कहानियों को पोती के लिए संरक्षित कर देती हैंl यह प्रयोग मन को भिगो देता है l नए जमाने के साथ चलती ये कहानी बाल मन के साथ साथ बुजुर्गों को भी अवश्य बहाएगी और दिशा देगी l बाल कहानियाँ लिखते हुए किरण सिंह जी ने इस बात में पूरी सतर्कता रखी है कि भाषा, शिल्प, शैली आज के बच्चों के अनुरूप हो l कहानी में छोटे-छोटे, रोचक, और बहुत सारे संवादों का प्रयोग कर उसकी पठनीयता को बढ़ाया है l हर कहानी में मजे- मजे में एक शिक्षा नत्थी करके बाल मन को संस्कारित करने का प्रयास किया है l वनिका पब्लिकेशन की मेहनत संग्रह में साफ दिखती है l कागज़, बच्चों को आकर्षित करते चित्र और प्रूफ रीडिंग हर दिशा में नीरज जी और उनकी टीम की मेहनत स्पष्ट नजर आती है l कवर … Read more

शंख में समंदर-सोशल मीडिया के अनदेखे रिश्तों के नाम

शंख समुद्र में पाए जाते हैं और शंख में भी में समंदर रहता है l लेकिन इस आध्यात्मिक बात को अगर लौकिक जगत में ले आयें तो संसार में सोशल मीडिया है और सोशल मीडिया में जीता जागता संसारl अपने- अपने घरों में, बाजार में, स्कूल में, ऑफिस में बैठकर इसमें आवाजाही करते रहते हैं| तो कभी लाइक और कमेन्ट के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्शाते हैंl कभी कोई एक घटना हर वाल पर उसकी प्रतिक्रिया के रूप में शंख के अंदर के जल की तरह ठहर जाती है तो कहीं हम एक पोस्ट पर बधाई और दूसरी पर विनम्र श्रद्धांजलि लिखते हुए भावनाओं के सागर में लहर-लहर बहते हैंl सच तो ये है कि हम ऐसे तमाम रिश्तों में बँध जाते हैं जिनसे हम कभी मिले ही नहीं...l

शंख समुद्र में पाए जाते हैं और शंख में भी में समंदर रहता है l लेकिन इस आध्यात्मिक बात को अगर लौकिक जगत में ले आयें तो संसार में सोशल मीडिया है और सोशल मीडिया में जीता जागता संसारl अपने- अपने घरों में, बाजार में, स्कूल में, ऑफिस में बैठकर इसमें आवाजाही करते रहते हैं| तो कभी लाइक और कमेन्ट के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्शाते हैंl कभी कोई एक घटना हर वाल पर उसकी प्रतिक्रिया के रूप में शंख के अंदर के जल की तरह ठहर जाती है तो कहीं हम एक पोस्ट पर बधाई और दूसरी पर विनम्र श्रद्धांजलि लिखते हुए भावनाओं के सागर में लहर-लहर बहते हैंl सच तो ये है कि हम ऐसे तमाम रिश्तों में बँध जाते हैं जिनसे हम कभी मिले ही नहीं…l शंख में समंदर-सोशल मीडिया के अनदेखे रिश्तों के नाम अनेक सम्मनों से सम्मानित डॉ. अजय शर्मा जी इससे पहले कई उपन्यास और कहानी संग्रह लिख चुके हैंl कुछ विश्वविध्यालयों में पढ़ाए भी जाते हैंl तकरीबन हर उपन्यास में वो नया विषय लाते हैंl साहित्य को समृद्ध करने के लिए ये आवश्यक भी है कि नए विषयों पर या उसी विषय पर नए तरीके से लिखा जाएl समकाल को दर्ज करने का साहित्यिक फर्ज वो हमेशा से निभाते रहे है पर शंख और समुद्र के बिम्ब के साथ लिखा गया उपन्यास “शंख में समुंदर” उनके पिछले उपन्यासों से ही नहीं साहित्य की दृष्टि से भी कई मामले में अलग हैl क्योंकि इसमें हमारी फेसबुक की घटनाओं का जीता जागता संसार हैl जहाँ ममता कालिया जी की “रविकथा” की समीक्षा पोस्ट करते हुए वंदना बाजपेयी की “वो फोन कॉल” की समीक्षा को कल डालने के लिए सेव करते डॉ.केशव हैंl जो कभी तमाम लेखकों और उनकी रचनाओं के बारे में विस्तृत चर्चा करते नजर आते हैं तो कभी वंदना गुप्ता जी के “कलर ऑफ लव” के मेसज का जवाब देते हुए जागरूकता का प्रसार करती उसकी विषय वस्तु की आवश्यकता पर प्रसन्न होते हैंl तो कहीं डॉ. सुनीता नाट्य आलोचना पर लंबा आख्यान देती हुई नजर आती हैंl डॉ. शर्मा के उपन्यासों में उन्हें अक्सर पत्रकार, लेखक, डॉक्टर वाली उनकी असली त्रिदेव भूमिका में देखा होगा पर यहाँ खुद को किसी उपन्यास के पात्र के रूप में देखना सुखद हैl निराला ने जब छंद- बद्ध से अतुकांत कविता की ओर रुख किया तो वो गहन भावों की सरल सम्प्रेषणनीयता के कारण शीघ्र ही लोकप्रिय हो गई l आजकल एक कदम आगे बढ़कर साहित्य में एक विधा से दूसरी विधा में आवाजाही का चलन हैl कविता में कहानी है तो कहानी में कविता का लालित्य, समीक्षा में पुस्तक परिचय का भाव सन्निहित है तो आलोचना थोड़े जटिल शब्दों में लिखी गई समीक्षा… पर उन सब का भी एक अलग स्वाद हैl ये स्वाद आज की युवा पीढ़ी को भा भी रहा है जो हर नई चीज का खुले दिल से स्वागत करती हैl ऐसे ही प्रयोग के तहत पाठक को इस उपन्यास में कविता, कहानी- “पर्त दर पर्त”, नाटक-“छल्ला नाव दरिया”, बौद्धिक विमर्श, प्रेरक कथाएँ, ऑनलाइन ऐक्टिविटी, पत्नी बच्चों के साथ सामान्य घरेलू जीवन सब कुछ मिल जाएगाl खास बात ये है कि इसमें मूल कथा कहीं भी प्रभावित नहीं होती, वो मूल कथा का एक हिस्सा ही लगते हैं और आम जीवन की कहानी आगे बढ़ती जाती हैl कहानी के केंद्र में कोरोना की दूसरी लहर हैl कोरोना ने कितनी तकलीफ दी कि जगह ये उपन्यास कोरोना के उस सकारात्मक पहलू को देखता है जो इस समय “आपदा में अवसर” के रूप में उभर कर आएl लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में समय कैसे कटेगा के अवसाद में गए लोगों की जिजीविषा ने शीघ्र ही उन्हें समय के संसाधन का सदुपयोग करने की ओर मोड़ाl सोशल मीडिया का उपयोग साहित्यिक व अन्य कार्यक्रमों के लाइव के रूप में होने लगाl बाल काटने से लेकर नाली साफ करने तक के यू ट्यूब चैनल खुले, जो लोगों के खूब काम आएl महिलाओं ने नए-नए व्यंजन बनाने सीखे तो किसी ने गायन या नृत्य के अपने पुराने शौक आजमाने शुरू कियेl ऐसे में एक लेखक डॉ. केशव की नजर एक ऐक्टिंग सिखाने वाले ऑनलाइन कोर्स पर पड़ती हैl अपनी युवावस्था में वो अभिनेता बनना चाहते थे लेकिन तब वक्त ने साथ नहीं दियाlविज्ञापन देखकर एक बार वो “पुनीत प्रीत” फिर से जाग उठती है, और वो कोर्स में रजिस्ट्रेशन करवा देते हैंl यहाँ से कहानी अभिनय कला पर एक गहन शोध को ले कर आगे बढ़ती जाती है l हम एक शब्द सुनते हैं “वॉयस मॉड्यूलेशन’ पर इसके लिए किस तरह से ओम की ध्वनि को साध कर स्वर तन्तु खोलने हैंl “फ्लावर और कैन्डल” पर ध्यान लगा कर आवाज ही कंठ के गड्डे से नीचे से निकालनी है, ताकि स्टेज पर आते समय या बाहर जाते समय अभिनेता की जल्दी में ली गई साँस की आवाज दर्शकों को ना सुनाई देl किस तरह से सुर का बेस बदल कर के अशोक कुमार की आवाज से शक्ति कपूर की आवाज और अक्षय कुमार की आवाज तक पहुँचा जा सकता हैl रसों के प्रकार, भाव सम्प्रेषण आदि की विस्तृत चर्चा ने एक पाठक के तौर पर मुझे तृप्त किया l आजकल ऑडियो युग लौट रहा है, ऐसे में भावों को शब्दों में साधने की कला ऑडियो स्टोरी टेलिंग के काम में लगे लोगों के लिए फायदेमंद साबित होगीl उपन्यास में गुथी हुई कहानी, नाटक और प्रेरक कहानियाँ इसे गति देते हैं और रोचकता को भी बढ़ाते हैंl कुल मिला हमारी सोशल मीडिया की आम जिंदगी से निकला ये उपन्यास कई तरह का संतुलन साधते हुए सरपट भागता हैlउपन्यास विधा में इस नए प्रयोग के लिए डॉ.अजय शर्मा को हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ l वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें मीमांसा- आम जीवन से जीवन दर्शन की यात्रा बातें किताबों की- नेहा की लव स्टोरी प्राइड एंड प्रिज्युडिस को हुए 210 साल – जानिए जेन ऑस्टिन के जीवन के कुछ अनछुए पहलू अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा आपको ‘शंख में समंदर-सोशल मीडिया के अनदेखे रिश्तों के नाम” लेख कैसा लगाl  अगर आओको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती है तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक … Read more