गरीबों का जीवन स्तर उठाना मेरा मकसद- एनी फेरर

           संकलन – प्रदीप कुमार सिंह    मेरा जन्म इंग्लैंड में हुआ था। वर्ष 1963 में अपने भाई के साथ मैं भारत आई और फिर यहीं की होकर रह गई। मुंबई में पढ़ाई की और फिर पत्रकार के तौर पर एक पत्रिका में काम करने लगी। उस वक्त मेरी उम्र करीब 18 वर्ष रही होगी। वर्ष 1968 में एक इंटरव्यू के सिलसिले में मेरी मुलाकात स्पेन से आए मिशनरी विन्सेंट फेरर से हुई। उन दिनों वह महाराष्ट्र के मनमाड़ में रहकर गरीबों की मदद करने में जुटे थे। उनके विचारों और गरीबों के प्रति उनकी सेवा-भावना ने मुझे काफी प्रभावित किया। मैंने नौकरी छोड़ दी और में भी उनके साथ गरीबों की सेवा में जुट गई।             वर्ष 1969 में मैं विन्सेंट के साथ आंध्र प्रदेश के अनंतपुरम में आ गई। उन दिनों अनंतपुरम भयंकर सूखे और गरीबी से जूझ रहा था। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना क्षेत्र के ज्यादातर इलाकों में यही हाल था। सूखा, बुनियादी सुविधाओं की कमी और रूढ़िवादी परंपराओं ने उस पूरे इलाके को जकड़ा हुआ था। हमने वहां पर रूरल डेवलपमेंट ट्रस्ट (आरडीटी) नामक एक सामाजिक संस्था शुरू की और 1970 में हमारी शादी हो गई। अब मैं स्थानीय भाषा फर्राटे से बोलती हूं और 70 साल की उम्र में भी महिलाओं एवं बच्चों की भलाई के लिए बिना थके काम करती हूं। हम सामुदायिक शक्ति को एकजुट करके सहभागिता आधारित विकास कार्यों पर जोर देते हैं। इससे प्रेरित होकर दलित, आदिवासी, ग्रामीण गरीब और अन्य पिछड़े वर्गों के लोग मिलकर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ते हैं।             आंध्र प्रदेश के अनंतपुरम, कुरनूल, गुंटूर एवं प्रकाशम और तेलंगाना के महबूबनगर और नालगोंडा समेत छह जिलों के 3,291 गांवों में आरडीटी काम कर रही है। मेरा मानना है कि गरीबी के दुश्चक्र में फंसे लोगों को भी सम्मानपूर्वक जिंदगी जीने का हक है। नलामला के जंगलों में रहने वाले दस हजार से अधिक चेंचू आदिवासी परिवारों के जीवन-स्तर में सुधार के लिए हम एकीकृत विकास कार्यक्रम चला रहे हैं। बच्चों की शिक्षा से लेकर विकलांगों के अधिकार, सामुदायिक स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण, सामुदायिक आवास, ग्रामीण अस्पताल और पारिस्थितिक पुनरूत्थान और पर्यावरण संरक्षण हमारे उद्देश्यों में शामिल रहे हंै।             आरडीटी तीन सामान्य अस्पताल और संक्रामक रोगों के लिए एक अस्पताल का संचालन कर रहा है। जबकि 17 ग्रामीण हेल्थ क्लिनिक चलाए जा रहे हैं। इसके अलावा कम्युनिटी हेल्थ वर्कर के तौर पर काम करने के लिए महिलाओं को प्रशिक्षित किया गया है। आरडीटी के इन अस्पतालों में हर साल 13 हजार से अधिक शिशु जन्म लेते हैं। 2,801 गांवों में चल रहे तीन हजार से अधिक पूरक स्कूलों को माॅनिटर करने के लिए कम्युनिटी डेवलपमेंट कमेटियों को हम प्रशिक्षित करते हैं। इन स्कूलों में दलितों, आदिवासियों एवं पिछड़े वर्ग के बच्चों को कोचिंग दी जाती है। लड़कियों की शिक्षा पर खास ध्यान दिया जाता है। इनमें से कई बच्चे तो टेनिस और हाॅकी जैसे खेलों का प्रशिक्षण भी ले रहे हैं। यही नहीं, वे कंप्यूटर चलाते हैं और अंग्रेजी भी सीखते हैं।             इन बच्चों को अंग्रेजी के अलावा फ्रेंच, जर्मन और स्पेनिश भाषाएं भी सिखाई जाती है, ताकि रोजगार के ज्यादा अवसर उन्हें मिल सकें। इन टेªनिंग कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक पूरा करने वाले 98 प्रतिशत से अधिक छात्रांे को नौकरी आसानी से मिल जाती है और बेहतर आमदनी होने से वे परिवार को गरीबी के दलदल से उबार लेते हैं।   – विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित साभार – अमर उजाला रिलेटेड पोस्ट नौकरी छोड़ कर खेती करने का जोखिम काम आया        मेरा एक महीने का वेतन पिता के कर्ज के बराबर  जनसेवा के क्षेत्र में रोलमॉडल बनी पुष्प पाल   “ग्रीन मैंन ” विजय पाल बघेल – मुझे बस चलते जाना है 

” ग्रीन मैंन” विजय पाल बघेल – मुझे बस चलते जाना है……

    प्रेषक -प्रदीप कुमार सिंह  पर्यावरण और जीवन का अनोखा संबंध है आज के समय में पर्यावरण का ध्यान रखना हर किसी की जिम्मेदारी और अधिकार होना चाहिए , विशेषकर आने वाली पीढ़ियों के लिए पर्यावरण संरक्षण बहुत जरूरी है ।पर्यावरण संरक्षण और जल वायु परिवर्तन ने पूरी दुनिया को प्रभावित किया हुआ है । इस समस्या से उबरने के लिए पूरी दुनिया को एक होने की जरूरत है, और इस काम को बखूबी अंजाम दे रहे हैं ग्रीन मैन के नाम से विख्यात पर्यवरण विद विजय पाल बघेल । पेड़ों के दर्द को अपने हृदय में महसूस करने और उनके संरक्षण में लगे ग्रीन मैन विजयपाल बघेल से  वरिष्ठ पत्रकार संजीव कुमार शुक्ला ने बातचीत की प्रस्तुत आलेख उसी बातचीत पर आधारित है…  हाथरस उत्तर प्रदेश की जमीन पर एक किसान परिवार के घर पर जन्म लेने  वाले इस बालक का बचपन से ही रुझान पेड़-पौधों की ओर था। ,उन्हें संस्कार तो अपने दादा राम बघेल जो की स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे ,से प्राप्त हुए बालक के हाव-भाव और बातों से ही माता रामकली बघेल और पिता रामप्रसाद बघेल को यह एहसास हो चला था कि मेरा पुत्र सामाजिक उत्थान के लिए जीवन में जरूर कुछ ना कुछ करेगा और यह बात सत्य भी साबित हुई । अपने जीवन मे अब तक  देश और दुनिया में पांच करोड़ से अधिक पेड़ लगाकर गिनीज बुक में नाम दर्ज कराने वाले विजयपाल ग्रीन मैन के नाम से जाने गए ।     पर्यावरण संरक्षण की वह जिद्द  जो लोगों की प्रेरणा बन गई अंतरराष्ट्रीय क्लाइमेट लीडर ए पी जे अब्दुल कलाम अवार्ड ,वन विभूति, वन्यजीव प्रतिपालक ,ग्रीन अम्बेसडर, वृक्षमित्र ,प्राणी मित्र जैसे तमाम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय  पुरस्कार  प्राप्त करने वाले विजयपाल बघेल बहुत ही शांतिप्रिय और सरल स्वभाव वाले हैं हमेशा हरे रंग के कपड़े पहनने वाले विजयपाल बघेल कहते हैं कि इन कपड़ों में खुद को इस पर्यावरण में समाहित पाता हूं जो मुझे आनंदित करता है ।पृथ्वी के हर कोने में पर्यावरण संरक्षण की मुहिम को संचालित करने वाले ग्रीन मैन बहुत ही गर्व के साथ बताते हैं कि मेरे जीवन का सर्वाधिक   आनंदमय छण वह था जब देव भूमि ऋषिकेश के गंगा तट पर परमपूज्य स्वामी चिदानंदसरस्वती मुनि जी महाराज के दिव्य सानिध्य मे  छत्तीसगढ़  के माननीय मुख्यमंत्री डॉ रमण सिंह द्वारा सम्मानित किया गया और जब मेरे हरित महागुरु ने हरित ऋषि के रूप में दीक्षा प्रदान कर  रुद्राक्ष का पौधा तथा माला पहनाकर हरित आशीर्वाद प्रदान किया था ।  बहुत ही चिंतित होते हुए वह बताते हैं कि हमारे सांसों की डोर पेड़ों से बंधी हुई है इसके बावजूद हम पर्यावरण संरक्षण के प्रति बहुत गंभीर नहीं लगते। वह बताते हैं कि विश्व मे  इस समय 10 अरब पेड़ हर साल लगाए जाते हैं और 20 अरब पेड़ काट दिए जाते हैं मतलब वृक्षारोपण से ज्यादा पेड़ों की कटान हो रही है और यही पर्यावरण असंतुलित होने का सबसे बड़ा कारण है। हम जब तक पर्यावरण संरक्षण को अपनी आदत नहीं बना लेते तब तक हालातों में सुधार आने  वाला नहीं है बातचीत में वह बताते हैं कि विश्व में आज एक आदमी पर 22 पेड़ है जबकि भारत में एक आदमी पर 21 पेड़ हैं और यह संख्या 33 होनी चाहिए वह बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में एक आदमी पर मात्र 5 पेड़ हैं जबकि जिले में एक आदमी पर केवल दो से तीन पेड़ है जिंदा रहने के लिए प्रति  मनुष्य 30 पेड़ तो जरूरी है हमें पर्यावरण संरक्षण के प्रति काफी सचेत होना पड़ेगा हम अगर हर बच्चे के जन्म के अवसर और उसके हर संस्कार के अवसर पर तथा  राष्ट्रीय और सामाजिक पर्वों पर वृक्षारोपण की परंपरा को कायम कर ले तो काफी हद तक स्थित सुधर सकती है अन्यथा हम सभी को आगे आने वाले समय में बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा ।       वह बताते हैं कि आजकल सर्दियों में भी गर्मियों का एहसास मौसम का बदलता चक्र सब कुछ पेड़ों के होते विनाश के कारण ही हो रहा है और हम अगर इसे सरकार और संस्थानों का काम समझेंगे तो भला होने वाला नहीं है । इसके लिए हमे  खुद जागरूक होना पड़ेगा वह बताते हैं की अध्यात्मिक वृक्षारोपण अधिक से अधिक करना चाहिए जिससे जिसमें बरगद ,पीपल, अशोक ,बेल ,आंवला आदि  पेड़ों को  अधिकता से रोपित  करना चाहिए बातचीत में आप बताते हैं कि सृष्टि को संचालित करने वाले घटकों में वृक्ष संपदा आधार है और साथ ही अध्यात्म का केंद्र बिंदु भी जो पूरे भूमंडलीय घटनाचक्र पर नियंत्रण करती आ रही है और इसी कारण हमारे ग्रह नक्षत्र तथा राशियां वृक्षों से प्रभावित होती हैं और जो वृक्ष जिस ग्रह नक्षत्र एवं राशि को प्रभावित करता है उसी वृक्ष को पौराणिक मान्यताओं के आधार पर उस का प्रतिनिधित्व वृक्ष माना गया है जिसके रोपण करने से ग्रह नक्षत्र तथा राशि का दुष्प्रभाव खत्म होता है ।इसीलिए वह कहते हैं कि हर व्यक्ति को अपना जन्मदिन तो राशि वृक्ष लगाकर ही मनाना चाहिए वह वृक्षारोपण को अध्यात्म से जोड़ते हुए पंचवटी वाटिका, नक्षत्र उपवन, गृह वाटिका और राशि वृक्ष के सिद्धांत का विवरण देते हैं पर्यावरण संरक्षण को पूर्ण रूप से अपने जीवन का सिद्धांत बना लेने वाले ग्रीन मैन विजयपाल बघेल का जीवन वास्तव में एक प्रेरणा मय मिशाल है अगर हम उनकी कही किसी एक बात का भी अनुसरण कर लेते हैं तो स्थित बहुत बेहतर हो जाएगी फिलहाल विजयपाल बघेल अपनी मस्त चाल से वृक्षारोपण को एक अभियान की तरह मन मे समाहित कर अपना सफर अनवरत जारी रक्खे है।       रिलेटेड पोस्ट          नौकरी छोड़ कर खेती करने का जोखिम काम आया        मेरा एक महीने का वेतन पिता के कर्ज के बराबर   जनसेवा के क्षेत्र में रोलमॉडल बनी पुष्प पाल                              

नौकरी छोड़कर खेती करने का जोखिम काम आया – अभिषेक सिंहानिया (आईआईटी मद्रास से ग्रेजुऐट )

संकलनकर्ता – प्रदीप कुमार सिंह              मैं कोलकाता का रहने वाला हूं और मेरे पिता उद्योगपति है। आईआईटी मद्रास से ग्रेजुएशन करने के बाद मुझे मुंबई में प्राइसवाटरहाउस कूपर्स में नौकरी मिल गई। लेकिन बचपन से ही किसानों का मैं काफी सम्मान करता था, इसलिए उनको होने वाली परेशानियां मुझे उदास कर देती थी। हालांकि जमीनी स्तर पर मुझे इसका कोई समाधान नहीं मिलता था। नौकरी जाॅइन करने के कुछ ही समय बाद कंपनी ने मुझे छह महीने की एक परियोजना पर सऊदी अरब भेज दिया। लेकिन उन्हीं दिनों महाराष्ट्र के विदर्भ में कुछ किसानों की आत्महत्याओं की खबर सामने आई थी, जिसने मुझे फिर से बेचैन कर दिया था। मैं सोचता था कि अगर खेती लाभ का सौदा नहीं हुई, तो किसान खेती करना छोड़ देंगे।             सऊदी अरब में काम करते हुए ही मैं एक बार छुट्टी लेकर भारत आया और कोलकाता के पास बालीचक, डेबरा और तेमाथानी जैसे गांवों का दौरा किया और वहां खेती को बहुत गौर से देखा। यह किसी गांव को नजदीक से देखने-जानने का मेरा पहला अवसर था। जल्दी ही मुझे एहसास हुआ कि महाराष्ट्र और बंगाल की खेती में बहुत अंतर है। महाराष्ट्र में भीषण जल संकट है, जबकि परिचम बंगाल में पानी की प्रचुरता है और जमीन भी उपजाऊ है, लेकिर किसान साल में तीन बार धान की फसल लेकर जल का दुरूपयोग कर रहे थे। उससे किसानों को पूरे साल में मात्र तीस हजार रूपये का मुनाफा हो रहा था और रासायनिक खादों के लगातार इस्तेमाल से मिट्टी की ऊर्वरा शक्ति को कहीं ज्यादा नुकसान हो रहा था। फसलों की उत्पादकता घट रही थी और खेती की लागत भी बढ़ रही थी। मैंने आईआईटी, खड़गपुर से इस संदर्भ में संपर्क किया।             थोड़े दिनों बाद मैं अपनी नौकरी छोड़ आईआईटी, खड़गपुर में शोध से जुड़ गया। आठ महीनों तक मैंने दूसरे प्रोफेसरों के साथ धान और दूसरी फसलों पर शोध किया। उसके बाद खेती से जमीनी स्तर पर जुड़ने की इच्छा लिए शोध से मुक्त होकर घूमने लगा। मेघालय से महाराष्ट्र और हिमाचल से कर्नाटक तक मैं खेती की विविधताओं को देखता और किसानों के साथ ही रहता था।             मैंने इस दौरान कई किसानों को देखा, जो प्राकृतिक खेती करते थे और अपने खेतों में रासायनिक खाद डालने से परहेज करते थे। मैंने महसूस किया कि प्राकृतिक खेती में शुरूआत में उत्पादन भले कम हो, पर बाद में न केवल उत्पादन बढ़ता है, बल्कि लागत लगभग शून्य रह जाती है और प्राकृतिक तरीके से उपजाई गई फसल का मोल बहुत अधिक होता है। मुझे याद है, मुजफ्फरनगर में मैं प्राकृतिक रूप से गन्ना उपजाने वाले एक किसान के खेत में पहुंचा था। वे गन्ने न केवल तुलनात्मक रूप से लंबे थे, बल्कि उनमें मिठास भी अधिक थी। यह सब देख-समझकर मैंने पिछले साल पश्चिम बंगाल में ही तीन एकड़ जमीन खरीदी।             आज मैं हर तरह की सब्जियां और फल यहां उपजाता हूं। मैं शुरूआत में यह देखना चाहता हूं कि इस जमीन में क्या-क्या उपजाया जा सकता है। उसके बाद मैं फसल उपजाने के बाद में किसी निष्कर्ष पर पहुंचूंगा। मेरे इस प्रयोग से आसपास के किसान अचंभित हैं। मैं सबको यही कहता हूं कि खेती घाटे का सौदा नहीं है। अगर रासायनिक खादों से मुक्ति पाई जाए और खेती में नए प्रयोग किए जाएं, तो इस देश में खेती की तस्वीर बदलते देर नहीं लगेगी। – विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित साभार -अमर उजाला फोटो क्रेडिट – अवध की आवाज़ यह भी पढ़ें ……… मेरे एक महीने का वेतन पिताजी के कर्ज के बराबर              पूंछने की आदत से शिक्षक परेशांन होते थे जनसेवा के क्षेत्र में रोल मोडल बनीं पुष्पा पाल तब मुझे अंग्रेजी का एक अक्षर भी नहीं आता था नहीं पता था मेरी जिद सुर्ख़ियों में छा जायेगी

मेरे एक महीने का वेतन पिता के कर्ज के बराबर – पी.सी. मुस्तफा

संकलन कर्ता – प्रदीप कुमार सिंह              मेरा जन्म केरल के एक छोटे-से गांव वायनाड में हुआ था। मेरे पिता काॅफी के एक बगीचे में दैनिक मजदूरी का काम करते थे। तमाम पिछड़े गांवों की तरह मेरे गांव में भी सिर्फ एक ही प्राइमरी स्कूल था। हाई स्कूल करने के लिए बच्चों को गांव से चार किलोमीटर दूर पैदल जाना पड़ता था। बचपन में मेरा मन पढ़ाई में नहीं लगता था, इसलिए स्कूल के बाद मैं पिता के पास बगीचे में चला जाता था। पढ़ाई से बेरूखी के कारण मैं कक्षा छह में फेल हो गया।             मेरे पिता भी मुझे पढ़ाने के इच्छुक नहीं थे, मैंने पढ़ाई छोड़ दी और अपने पिता के साथ बगीचे में काम पर जाने लगा। भले ही मैंने पढ़़ाई छोड़ दी थी, पर मुझे यह पता था कि मैं गणित में अच्छा था। मेरी इसी खूबी को मेरे गणित के अध्यापक जानते थे। उन्होंने मेरे पिता से बात करके मुझे दोेबारा स्कूल जाने के लिए मना लिया। उस वक्त मेरे अध्यापक ने मुझसे सवाल किया था कि ‘तुम क्या बनना चाहते हो कुली या एक अध्यापक?’ इस सवाल ने मुझे एहसास कराया कि स्कूल छोड़कर मैं गलती कर रहा था। उन्होंने मेरे कमजोर विषयों पर विशेष ध्यान दिया।             इसी मेहनत का नतीजा रहा कि मैंने सभी अध्यापकों को चैंकाते हुए कक्षा सात में पहला स्थान हासिल किया। उसके बाद मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। हाई स्कूल में टाॅप करने के बाद मेरा उस वक्त का मकसद अपने गणित अध्यापक जैसा बनना था, क्योंकि वह मेरे रोल माॅडल थे। उच्च शिक्षा के लिए कोझिकोड जाने के फैसले के वक्त भी मेरे पिता के पास इतने पैसे नहीं थे कि वे इसका खर्चा उठा सकें। पिता के एक दोस्त ने कोझिकोड में किसी तरह मेरे रहने-खाने का इंतजाम किया। गांव से होने के कारण मेरी अंग्रेजी भी बुरी थी। मेरे लिए काॅलेज के सभी लेक्चर को समझना मुश्किल होता था, क्योंकि वे सारे अंग्रेजी में होते थे। मेरे एक दोस्त ने इसमें मेरी मदद की और मेहनत के दम पर मैंने यहां भी अच्छे अंक हासिल किए।             इंजीनियरिंग करने के बाद मुझे बंगलूरू में अमेरिका की प्रतिष्ठित मोबाइल कंपनी में नौकरी मिल गई। कंपनी ने एक प्रोजेक्ट के लिए मुझे आयरलैंड भेजा, जहां मैंने डेढ़ साल तक काम किया। बाद में मुझे दुबई के एक बैंक में प्रतिमाह एक लाख रूपये से ज्यादा वाली नौकरी मिल गई। उस वक्त मेरे पिता ने तमाम तरह के कर्ज ले रखे थे, जो लगभग एक लाख के आसपास था। सारे कर्ज चुकाने के लिए मैंने अपना पहला वेतन पिता के पास भेजा। वह विश्वास नहीं कर पा रहे थे, कि मेरी एक महीने की कमाई उनके जीवन भर के कर्ज से ज्यादा थी।             मैं 2003 में बंगलूरू लौट आया। मैं भारत लौटकर आगे की पढ़ाई करके समाज को कुछ वापस लौटाना चाहता था। मेरे लिए अपनी नौकरी छोड़ना काफी मुश्किल था। मैंने गेट की परीक्षा में अच्छा स्कोर किया और आईआईएम बंगलूरू से एमबीए किया। पढ़ाई के साथ-साथ मैं छुट्टी वाले दिन अपने चेचेरे भाइयों की किराने की दुकान पर जाता था। वहां मैंने देखा कि कुछ महिलाएं इडली और डोसा बनाने के लिए बैटर (आटे का घोल) खरीद कर ले जाती हैं। यहीं से मेरे दिमाग में इसका बिजनेस करने का आइडिया आया। 25,000 रूपये से अपना बिजनेस शुरू करने के बाद आज मेरी कंपनी 100 करोड़ रूपये का टर्नओवर पार कर चुकी है। मेरा यही मानना है कि यदि आपके पास कुछ नया शुरू करने का जुनून है, तो उसे तुरंत कर डालिए। – विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित                                                           साभार- अमर उजाला  फोटो क्रेडिट – भोपाल समाचार रिलेटेड पोस्ट ……… पूंछने की आदत से शिक्षक परेशांन होते थे जनसेवा के क्षेत्र में रोल मोडल बनीं पुष्पा पाल तब मुझे अंग्रेजी का एक अक्षर भी नहीं आता था नहीं पता था मेरी जिद सुर्ख़ियों में छा जायेगी

क्रांति ने मुश्किलें दी खेल से मिला प्यार – नादिया कोमानेची की अपनी कहानी

             मेरा जन्म 12 नवंबर, 1961 को रोमानिया के एक छोटे से शहर ओनेस्टी में हुआ था। जल्द ही मेरे माता-पिता अलग रहने लगे। बचपन में मैं बहुत ऊर्जावान और चंचल बच्ची थी, जिसे काबू में रखना आसान नहीं था। इसलिए मेरी मां ने मुझे जिमनास्ट सीखने एक स्थानीय टीम में भेजा। छह वर्ष से ही प्रशिक्षण             जब में कुछ वर्ष की थी, तो मशहूर प्रशिक्षण कारोली ने मुझे तलाशा। दरअसल वह किसी ऐसे जिमनास्ट की तलाश में थे, जिसे वह शुरू से सिखा सकें। शुरू में मुझे बस जिम से परिचय कराया गया। वह जगह मुझे बेहद पसंद आई, क्योंकि वह हाईटेक खेल के मैदान की तरह थी, जहां मैट्स के साथ कई चीजें थीं, जिससे मैं लटक सकती थी। जिम मुझे इतना पसंद था कि मेरी मां अक्सर मुझे धमकाती थी कि अगर तुमने स्कूल में अच्छे ग्रेड नहीं लाए, तो तुम्हारा जिम जाना बंद हो जाएगा। इस तरह वह मुझे पढ़ाई में भी अच्छा करने के लिए प्रेरित करती थीं। चैदह की उम्र में परफेस्ट 10             वर्ष 1970 से मैंने अपने गृहनगर की टीम में प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना शुरू कर दिया और रोमानियन नेशनल जीतने वाली सबसे कम उम्र की जिमनास्ट बन गई। 14 वर्ष की उम्र में मैंने मांट्रियल में हुए 1976 के समर ओलंपिक में परफेक्ट 10 स्कोर हासिल किया और तीन गोल्ड मेडल जीते। आधुनिक ओलंपिक के इतिहास में पहली बार किसी को परफेक्ट 10 मिला था। वर्ष 1975 में यूरोपियन चैंपियनशिप और 1976 में अमेरिकन कप भी मैंने जीता। 1980 के ओलंपिक में भी मैंने दो गोल्ड मेडल जीता। अमेरिकी जिमनास्ट से विवाह             क्रांति के कारण रोमानिया में रहना जब मुश्किल होने लगा, तो मैं 1989 में अमेरिका आ गई। उस क्रांति ने राष्ट्रपति निकोलाइ चाउसेस्कु की सरकार की उखाड़ फेंका। 1996 में मैंने अमेरिकी जिमनास्ट बार्ट कोनर से शादी कर ली। बार्ट कोनर से मैं पहली बार 1976 में ही मिली थी, खेल के कारण ही मुझे मेरा प्यार मिला। मैं समझती हूं कि खेल लोगों को करीब लाने का काम करता है। लेकिन हमने शादी बुखारेस्ट में की, जब अपना वतन छोड़ने के बाद पहली बार मैं वहां गई थी। वर्ष 2001 में मुझे अमेरिकी नागरिकता मिल गई। अब मैं और कोनर मिलकर एक एकेडमी चलाते हैं। हमारी एकेडमी में 1,500 बच्चे हैं। शुरूआत  में बच्चों को जिमनास्ट का प्रशिक्षण देना अच्छा है, भले ही बाद में वे चाहे जो करें, बच्चों को जिमनास्ट इसलिए अच्छा लगता है, क्योंकि वे झटका देना चाहते हैं, उड़ना चाहते हैं। रिटायरमेंट के बाद जीवन             1984 मैं रिटायर हो गई और अमेरिका आने से पहले रोमानियाई टीम के कोच के रूप में काम किया। जब मैं जिमनास्ट कर रही थी, तब उपकरण अलग तरह के थे। तब जिमनास्ट करना काफी कठिन था, क्योंकि फ्लोर मैट काफी सख्त होता था। अब फ्लोर मैट में स्प्रिंग होता है। यहां तक कि इन दिनों जिन वाॅल्ड टेबल का उपयोग होता है, वे ज्यादा सुरक्षित, चैडे़ होते हैं और उनमें स्प्रिंग लगे होते हैं, जो जिमनास्ट की बहुत ऊंचाई तक छलांग में मददगार होते हैं।                         हाल में भारत आई रोमानिया की जिमनास्ट नादिया कोमानेची के विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित साभार: अमर उजाला प्रेषक – प्रदीप कुमार सिंह पाल  साक्षात्कार :तब मुझे अंग्रेजी का एक अक्षर भी नहीं आता था- आशा खेमका, सीईओ और प्रिंसिपल