उपन्यास अंश: हेति -सुकन्या एक अकथ कथा

उपन्यास अंश: हेति -सुकन्या एक अकथ कथा

  एक स्वाभिमानी, कर्मठ, स्त्री थी सुकन्या, जिसे इतिहास च्यवन ऋषि की पथअनुगामिनी भार्या के रूप में जानता है l इससे सुकन्या के व्यक्तित्व पर समुचित प्रकाश नहीं पड़ता l राजपुत्री सुकन्या के स्वाभिमान, प्रेम, करुणाद्र हृदय, वनस्पतियों से सहज लगाव और उनका औषधि के रूप में प्रयोग की कथा अकथ ही रह जाती है l “हेति’ के माध्यम से सिनीवाली इतिहास के धुँधलके में कल्पना और तथ्यों के सहारे प्रवेश करते हुए तार्किक ढंग से सुकन्या के साथ न्याय करते हुए उसे इतिहास से वर्तमान में लाकर खड़ा कर देती हैं l उपन्यास के ब्लर्ब से कहानी संग्रह “हंस अकेला रोया” और “गुलाबी नदी की मछलियाँ” की अपार सफलता के बाद सबकी प्रिय लेखिका सिनीवाली कई वर्षों के परिश्रम के बाद ला रहीं हैं कथ्य, भाव, भाषा की दृष्टि से एक बेहद सशक्त उपन्यास “हेति -सुकन्या एक अकथ कथा” l अपनी कलम से पाठकों को बाँध लेने की क्षमता रखने वाली सिनीवाली का यह उपन्यास भी पाठकों की अपेक्षा पर खरा उतरेगा | इस विश्वास और शुभकामनाओं के साथ आइए कर्टन रेजर के तौर पर पढे इस उपन्यास का अंश उपन्यास का ये अंश मासूम कोमल राजपुत्री सुकन्या की च्यवन ऋषि से विवाह के बाद विदाई का है l ये सिर्फ पुत्री की विदा नहीं है…. उपन्यास पर आधारित रील यहाँ देखें उपन्यास अंश: हेति -सुकन्या एक अकथ कथा   जिस मंगलकारी, हर्षवर्षा करने वाले दिवस की मुझ सहित सभी को चिरप्रतीक्षा थी वो वही दिवस था। मेरे विवाहोत्सव में तो अत्यधिक हर्षोल्लास, मंगलगीत, आडम्बर के संग नगरवासी सम्मिलित होते। नगर तथा हर्म्य की शोभा का वर्णन ही क्या होता! पिताश्री महाराज कोष का द्वार खोल देते। जिसकी जो इच्छा होती, जितनी इच्छा होती उसे उतना दिया जाता। माता आनंदित हो ईश्वर का आभार प्रकट करतीं। भ्राता गर्व से कुमार को विवाह मंडप में लाते परंतु…! अब…! मैं परिणय सूत्र में बँधूंगी एवं सभी शोकग्रस्त होंगे। अपनी कल्पनाओं की चिता पर अश्रुपूरित नेत्र लिए मैं सुकन्या विवाह के लिए प्रस्तुत थी। परंतु इसे विवाह कैसे कह सकते हैं? वो तो समिधा के लिए लायी गई सुकन्या को विवाह मंडप में भस्म किया जा रहा था तथा अपने अहं एवं क्षुधा की तुष्टि करनेवाले तपस्वी का कार्य सिद्ध हो रहा था! वैवाहिक जीवन सम्बन्धी जितनी भी कोमल कल्पनाएँ थीं वे सभी विवाह वेदी की अग्नि में भस्म हो रही थीं। पुरोहितगण मंगलाष्टक का सस्वर पाठ कर आशीर्वचन दे रहे थे। उस वेदी से लौह की ऐसी बेड़ी निर्मित हो रही थी जो मंत्रोच्चार के घन के प्रहार से सशक्त होती जा रही थी। मुझे विवाह रूपी उस पाश में जकड़ा जा रहा था। मंडप में वर के रूप में ऋषि को देखकर एक वृद्धा ने कहा, “प्रतीत होता है रुद्र, गौरी को ब्याहने आए हैं।” पार्वती ने तप करके शिव को स्वयं पति रूप में वरण किया था। माता गौरी के समान सौभाग्य मुझे भी प्राप्त होता ! किंतु मेरा दारकर्म तो भय दिखाकर किया जा रहा था। इसे विवाह नहीं बलात् अधिकार स्थापित करना कहिए, जिसे धर्म के माध्यम से मेरे धर्मपति प्रजाजनों एवं स्वजनों के समक्ष कर रहे थे। हमारा युग्म देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था, ज्यों सर्प के मुख में शशक! प्रेतो मुञ्चामि नामुतः सुबद्धाममुतस्करम्। (ऋग्वेद) यहाँ (पितृकुल) से तुझे मुक्त करता हूँ, वहाँ (पतिकुल) से नहीं। वहाँ से तुझे अच्छी तरह बाँधता हूँ। मैं राजकुमारी सुकन्या से ऋषिपत्नी सुकन्या में परिणत हो गई। परिवर्तन जीवन का शाश्वत नियम है परंतु ऐसा परिवर्तन…! विवाह के पश्चात बासरगृह… प्रेम की दैहिक यात्रा! प्रेम में एकरूप हो जाना! इस यामिनी की कल्पना करके उर्वी ने मुझे कई बार सताया था। मिलनकक्ष की सज्जा की बातें मेरे लोभी मन को लुभा जातीं, आँखें झुक जातीं परंतु कर्ण अपनी पूरी शक्ति लगाकर श्रवण करते। जब दो हृतल का प्रथम मिलन होगा तो बासरगृह की सज्जा भी हृदयहारी होनी चाहिए। उर्वी कभी पुष्प से कक्ष सज्जित करने के लिए उतावली होती तो कभी मणि – माणिक्य से। कभी मयूरचंद्रिका एवं मौतिक्य से। इतनी कल्पनाओं के मध्य वो स्वयं ही उलझ जाती। मुझसे पूछने लगती, “कुँवर, कौन सी सज्जा प्रथम रयन के योग्य होगी ?” “उवीं, ये तो तुम्हारा कार्य क्षेत्र है मैं भला क्या उत्तर दूँ?” “हाँ सखी, प्रथम रयन केलिगृह में जाते हुए आपकी जो दशा होगी उस क्षण मैं भी कोई सहायता नहीं कर सकूँगी।” सुकंठ भी कभी-कभी, सुनते सुनते बोल पड़ता, सखी मणिमुक्ता की सज्जा, पुष्प की शय्या ! चिरप्रतीक्षित स्वप्न जिन नयनों ने संजोया था, अश्रु की अविरल धारा उसे अपने संग प्रवाहित कर ले गई। उर्वी भी व्यथित थी परंतु वो अपना कष्ट प्रकट कर मेरी पीड़ा में वृद्धि करना नहीं चाहती थी। मेरे लिए अब कोई कष्ट, दुखदायी नहीं क्योंकि इससे अधिक प्रलंयकारी और क्या होगा ? क्या अतीव कष्ट भी भय से मुक्त कर देता है ? उर्वी दुविधा में थी प्रथम निशि के लिए मेरा श्रृंगार किस भाँति करे जो मेरे धर्मपति के अनुरूप हो। मुझे पट्टमहिषी, राजरानी, पटरानी बनाने का स्वप्न देखने वाली अब मुझे ऋषिपत्नी का रूप देते हुए काँप रही थी। “उर्वी, श्रृंगार की क्या आवश्यकता, इस रयन के लिए जब सौभाग्य का आगमन हुआ ही नहीं ?” मैंने उसकी दुविधा समाप्त कर दी। * * * विदाई की बेला आ गई। अयुत स्वस्थ दुग्ध देने वाली गौ, सहस्र स्वस्थ सुडौल वायु से गति मिलाने वाले स्वर्ण आभरण से युक्त अश्व, शतम चंदनचर्चित स्वर्णमंडित गज, महावत सहित, इंद्रनील, महानील, वैदूर्यमणि, पीतमणि, स्वर्ण एवं रजत मुद्राएँ, कौशेय, क्षौम वस्त्र, पाट साड़ी, भाँति-भाँति के नगवलित अवतंस, कतारबद्ध दास-दासियाँ, मेरे प्रिय रथों पर मेरे प्रिय वाद्ययंत्र, मेरे पोषित मयूर, शुक, कपोत, राजहंस, मृग आदि राजप्रासाद के प्रांगण, द्वार एवं राजपथ पर मेरे संग जाने हेतु सज्जित थे। पिता का वात्सल्य पुत्री के लिए! वह मेरे संग इतना यौतुक भेजना चाहते थे कि मैं जहाँ भी रहूँ वहाँ राजभवन का सुख एवं एश्वर्य प्राप्त हो। परंतु क्या ये वस्तुएँ मुझे सुख प्रदान करेंगी ? अब मेरे लिए इनका क्या प्रयोजन ? यदि पिता श्री वन में महल का निर्माण करा भी दें तो मैं वहाँ पत्नी के रूप में स्वाभिमान के साथ जीवन कैसे व्यतीत करूँगी ? मैं ध्यानपूर्वक अपने संग जाने वाले यौतुक देख रही थी। महाराज मेरे कक्ष में कांतिहीन मुख, … Read more

अधजली

सिनीवाली शर्मा

हिस्टीरिया तन से कहीं अधिक मन का रोग है | तनाव का वो कौन सा बिंदु है जिसमें मन अपना सारा तनाव शरीर को सौप देता है …यही वो समय है जब रोगी के हाथ पैर अकड़ जाते हैं, मुँह भींच जाता है और आँखें खुली घूरती सी हो जाती है | हिस्टीरिया का मरीज ज्यादातर लोगों ने देखा होगा …दुनिया से बेखबर, अर्धचेतन अवस्था  में अपने सारे तनाव को शरीर को सौपते हुए, किसी ऐसे बिंदु पर जहाँ चेतन और अवचेतन जगत एकाकार हो जाते हैं |   ऐसी ही तो थी कुमकुम …सुन्दर , सुशील सहज जिसकी ख़ुशी की खातिर  उसके बेरोजगार भाई ने पकडूआ ब्याह (बिहार के कुछ हिस्सों  की एक प्रथा जिसमे लड़कों को पकड कर जबरदस्ती विवाह करा दिया जाता है )के तहत ब्याह दिया एक नौकरी वाले लड़के से |जिसने उसे कभी नहीं अपनाया | बरसों बिंदी, चूड़ी और सिंदूर के साथ प्रतीक्षारत कुमकुम के तन  का तनाव मन पर उतर आया, उसे खुद भी पता नहीं चला | जिसका गुनहगार भाई ने खुद को माना और सजा मिली एक और निर्दोष स्त्री को, भले ही वो कुमकुम की भाभी हो पर उसके साथ बहनापा भी था उसका | अधजली  कहानी है मन की उलझन की, तन और मन के रिश्ते की …बहनापे और इर्ष्या के द्वन्द की और स्त्री की अपूर्ण इच्छाओं की | स्त्री यौनिकता की बात करती ये कहानी भाषा के स्तर पर कहीं भी दायें बाये नहीं होती | आइये पढ़ें सिनीवाली शर्मा जी की कहानी …. अधजली   इस घर के पीछे ये नीम का पेड़ पचास सालों से खड़ा है। देख रहा है सब कुछ। चुप है पर गवाही देता है बीते समय की! आज से तीस साल पहले, हाँ तीस साल पहले ! इस पेड़ पर चिड़ियाँ दिन भर फुदकती रहती, इस डाल से उस डाल। घर आँगन इनकी आवाज से गुलजार रहता। आज सुबह सुबह ही चिड़ियों के झुंड ने चहचहाना शुरू कर दिया था, चीं…चीं… चूं…चूं…! बीच बीच में कोयल की कूहू की आवाज शांत वातावरण में संगीत भर रही थी कि तभी कई पत्थर के टुकड़े इस पेड़ पर बरसने लगे! चिड़ियों के साथ उनकी चहचहाहट भी उड़ गई, रह गई तो केवल पत्थरों के फेंकने की आवाज के साथ एक और आवाज, ‘‘ उड़, तू भी उड़…उड़ तू भी! सब उड़ गईं और तू…तू क्यों अकेली बैठी है…तू भी उड़ !‘‘ ‘‘ क्या कर रही हो बबुनी ? यहाँ कोई चिड़िया नहीं है… एक भी नहीं, सब उड़ गईं, चलो भीतर चलो‘‘ , शांति कुमकुम का हाथ खींचती हुई बोली। ‘‘ नहीं, वो नहीं उड़ी ! मेरे उड़ाने पर भी नहीं उड़ती। उससे कहो न उड़ जाए, नहीं तो अकेली रह जाएगी मेरी ही तरह !‘‘ बोलते हुए उसकी आवाज काँपने लगी, भँवें तनने लगीं और आँखें कड़ी होने लगीं। वो तेजी से भागती हुई बरामदे पर आई और बोलती रही, ‘‘ अकेली रह जाएगी, अकेली…उड़, तू भी उड़…उड़…!‘‘ बोलते बोलते कुमकुम वहीं बरामदे पर गिर गई। सिंदूर के ठीक नीचे की नस ललाट पर जो है वो अक्सर बेहोश होने पर तन जाती है उसकी। हाथ पैर की उंगलियां अकड़ जाती हैं। कभी दाँत बैठ जाता है तो कभी बेहोशी में बड़बड़ाती रहती है। शांति कुमकुम की ये हालत देखकर दरवाजे की ओर भागी और घबराती हुई बोली, ‘‘ सुनिएगा !‘‘ ये शब्द महेंद्र न जाने कितनी बार सुन चुका है। शांति की घबराती आवाज ही बता देती है कि कुमकुम को फिर बेहोशी का दौरा आया है। कितने डॅाक्टर, वैध से इलाज करा चुका है, सभी एक ही बात कहते हैं, मन की बीमारी है! ‘‘आ…आ ‘‘ ‘‘तुम…तुम, मैं…मैं…!‘‘ ये सब देखकर महेंद्र के भीतर दबी अपराध बोध की भावना सीना तानकर उसके सामने खड़ी हो जाती। कुमकुम की बंद आँखों से भी वो नजर नहीं मिला पाता। सिरहाने बैठकर वो उसके माथे को सहलाने लगता और शांति कुमकुम के हाथ पैर की अकड़ी हुई उंगलियों को दबा कर सीधा करने की कोशिश करने लगती। महेन्द्र पानी का जोर जोर से छींटा तब तक उसके चेहरे पर मारता जब तक कुमकुम को होश नहीं आ जाता। होश आने के बाद कुछ देर तक कुमकुम की आँखों में अनजानापन रहता। वो चारों ओर ऐसे शून्य निगाहों से देखती जैसे यहाँ से उसका कोई नाता ही न हो। धीरे धीरे पहचान उसकी आँखों में उतरती। कुमकुम धीरे से बुदबुदायी, ‘‘ दादा…दादा !‘‘ महेंद्र के भीतर आँसुओं का अथाह समुद्र था पर आँखें सूखी ! वो कुमकुम का माथा सहलाता रहा। ‘‘ दादा, क्या हुआ था मुझे ?‘‘ कुमकुम की आवाज कमजोर थी। ‘‘कुछ नहीं…बस तुम्हें जरा सा चक्कर आ गया था।ये तो होता रहता है। अब तुम एकदम ठीक हो।‘‘ ‘‘ हाथ पैर में दर्द हो रहा है, लगता है देह में जान ही नहीं हो, जैसे किसी ने पूरा खून चूस लिया हो‘‘ ‘‘ तुम आराम करो, भौजी पैर दबा रही है।‘‘ ‘‘ पता नहीं क्यों…मैं बराबर चक्कर खा कर गिर जाती हूँ !‘‘ महेंद्र के पास इसका कोई जवाब नहीं था। ‘‘ इसका ध्यान रखना‘‘, इतना बोलकर उसका माथा एक बार बहुत स्नेह से सहला कर वो चला गया। महेंद्र के जाने के कुछ देर बाद तक कुमकुम, शांति को गौर से देखती रही। ‘‘भौजी, दादा कुछ बताते नहीं, मुझे क्या हुआ है ! डाक्टर क्या कहता है मुझे बताओ तो !‘‘ ‘‘ तुम्हें आराम करने के लिए कहा है‘‘, कुमकुम का हाथ सहलाती हुई शांति बोली। ‘‘ भौजी, क्या डाक्टर सब समझता है, मुझे क्या हुआ है ?‘‘ ‘‘ हाँ, बबुनी ! वो डाक्टर है न !‘‘ ‘‘तुम तो ऐसे बोल रही हो जैसे वो डाक्टर नहीं भतार हो !‘‘ शांति के चेहरे पर मुस्कुराहट की बड़ी महीन सी लकीर खिंच गई। ‘‘ जाओ भौजी, तुम्हें भी काम होगा। मैं भी थोड़ी देर में आती हूँ…अभी उठा नहीं जाता !‘‘ ‘‘ मैं तो कहती हूँ थोड़ी देर सो जाओ, रात में भी देर तक जगना होगा।‘‘ ‘‘ क्यों ?‘‘ ‘‘ याद नहीं कल गौरी का ब्याह है और आज रात मड़वा ( मंडपाच्छादन ) है। मैं तो जा नहीं सकती, तुम्हें ही जाना पड़ेगा, नहीं तो कल कौन…!‘‘ बोलते बोलते शांति बिना बात पूरी किए तेजी से बाहर निकल गई। … Read more

कृष्णा सोबती -एक बेबाक रचनाकार

कृष्णा सोबती समय से आगे रहने वाली हिंदी साहित्य की ऐसी अप्रतिम साहत्यिकार थीं जिन्होंने नारी अस्मिता को उस दौर में रेखांकित किया था जब नारी विमर्श की दूर दूर तक आहट भी नहीं थी। उन्होंने सात दशक तक लगातार लिखा और एक से बढ़कर एक कई कालजयी रचनाएं दीं। उनकी कृतियों में एक ओर जिंदगीनामा जैसा विशाल काव्यात्मक उपन्यास है तो वहीं उनकी रचना-सूची में मित्रो मरजानी और ऐ लड़की जैसी छोटी कृतियां भी हैं। उनकी रचनाओं ने नए शिखर बनाए। उनकी रचनाओं में इतनी विविधता रही है कि उन पर व्यापक विमर्श किसी एक आलेख में कठिन है। हम कह सकते हैं कि उनकी रचनाओं में समय का अतिक्रमण है। विविधता और प्रासंगिकता ऐसी चीजें हैं, जो लंबे समय तक उनके साहित्य की महिमा बनी रहेगी। उन्होंने साहित्य में इतना योगदान किया है कि लंबे समय तक वह अपनी मौजूदगी का अहसास कराती रहेंगी। कृष्णा सोबती -एक बेबाक रचनाकार कृष्णा सोबती ने अपनी रचनाएं बेबाकी से भी लिखीं। उनकी रचनाओं मे बोल्ड भाषा अपनाए जाने और भदेस होने के आरोप भी लगे। लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की और अपनी सृजनात्मकता को नया आयाम देती रहीं। उन्होंने साबित कर दिया कि वह नारी अस्मिता से सरोकार रखने वाली संभवतः पहली साहित्यकार हैं। उनकी खूबियों में स्वाभिमान, स्वतंत्रता, निर्भीकता आदि भी शामिल हैं। अपनी जिद को लेकर वह अमृता प्रीतम के साथ लंबे समय तक मुकदमे में भी उलझी रहीं। उम्र बढ़ने के बाद भी समसामयिक घटनाओं से उनका सरोकार कायम रहा और वह असहिष्णुता का विरोध करने वालों में प्रमुखता से शामिल रहीं। व्हील चेयर पर होने के बाद भी उन्होंने असहिष्णुता के विरोध में 2015 में नयी दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लिया जहां उनके संबोधन की खासी प्रशंसा हुयी। उनकी भाषा हिंदी-उर्दू-पंजाबी का अनोखा मिश्रण है। अपनी तमाम आलोचनाओं के बीच उन्होंने जता दिया था कि वह अपनी शर्तों पर लिखेंगी और साहित्य जगत में अपना अलग स्थान बनाएंगी। उन्होंने अपने सृजन, साहस और मानवीय संवेदना से जुड़े सरोकारों के दम पर न सिर्फ मूर्धन्य और कालजयी रचनाकारों में अपना स्थान सुनिश्चित किया बल्कि हिंदी साहित्य को एक नयी दिशा भी दिखायी। उनकी शैली में लगातार बदलाव दिखा। इसका असर पाठकों पर भी दिखा और लेखिका तथा कई पीढ़ी के पाठकों के बीच आत्मीय नाता बना रहा। कृष्णा सोबती भारत के उस हिस्से से आती थीं जो बाद में पाकिस्तान बना। इसका असर उनकी रचनाओं में दिखता है और पंजाबियत उनकी भाषा में सहज रूप से दिखती है। हर बड़े रचनाकार की तरह ही उनकी एक अलग भाषा है जिसकी अलग ही छटा दिखती है। उनकी रचनाओं में विविधता भी खूब है। पंजाब से लेकर राजस्थान, दिल्ली और गुजरात का भूगोल उनकी कृतियों में है। वह लिखने के पहले काफी तैयारी या यों कहें कि होमवर्क करती थीं। दिल ओ दानिश कहानी इसका जीवंत उदाहरण है। पुरानी दिल्ली की संस्कृति, आचार-व्यवहार, भाषा, परंपरा आदि को शामिल कर ऐसी रचना की कि पाठक पात्रों के साथ उसी दौर में पहुंच जाता है। उनकी कृति हम हशमत ऐसी रचना है जिसमें उन्होंने अपने समकालीनों के बारे में आत्मीयता के साथ ही बेबाकी से लिखा है। इस रचना के जरिए उन्होंने एक नयी दिशा को चुना। सममुच यानी यथार्थ के पात्रों का ऐसा बारीक चित्रण किया कि लोगों ने उनकी इस किताब को अपने समय की चित्रशाला करार दिया। सामाजिक और राजनीतिक घटनाक्रम को लेकर वह हमेशा सजग रहतीं। कई मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त करने के लिए उन्होंने समाचार पत्रों में लेख भी लिखे। भारत का विभाजन उन्हें हमेशा खलता रहा। संभवतः यही कारण था कि वह सामाजिक समरसता की पक्षधर थीं। वह स्वयं बंटवारे का शिकार थीं। संभवतः इसी वजह से वह समाज को विभाजित करने वाली गतिविधियों से वाकिफ थीं और ऐसी गतिविधियों के विरोध में लगातार आवाज बुलंद करती रहीं। वह संभवतः हिंदी साहित्य की ऐसी रचनाकार रहीं जिन्होंने सबसे ज्यादा ऐसे नारी चरित्रों को गढ़ा जो न सिर्फ नारी की पारंपरिक छवि को तोड़ने वाली थीं बल्कि स्वाधीनता, संघर्ष और सशक्तता के मामले में पुरूषों के समकक्ष खड़ी थीं। कृष्णा सोबती ऐसी लेखिका थीं जिन्होंने शायद ही कभी अपने को दोहराया। उनकी रचनाओं में तथ्य के साथ ही वस्तु और शिल्प का बेहतरीन प्रयोग दिखता है। उनकी लोकप्रियता का यह आलम था कि पाठकों को उनकी अगली कृति का इंतजार रहता। पाठकों को उम्मीद रहती कि उनकी नयी कृति में कुछ नया पढ़ने को मिलेगा और कुछ नयी चीज प्राप्त होगी। साहित्यकारों से पाठकों की ऐसी उम्मीद विरले ही दिखती है। समय के साथ साथ उनकी रचनाएं और उनका व्यक्तित्व दोनों यशस्वी होते गए। अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीने वाली कृष्णा सोबती मानवीय मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध रहीं। यही वजह है कि समय के साथ उनकी प्रतिष्ठा भी बढ़ती रहीं। किसी लाभ या लोभ के लिए वह कभी अवसरवादी नहीं रहीं। उनके व्यक्तित्व के बारे में कहा जा सकता है कि वह समकालीन हिंदी साहित्य की माॅडल यानी आदर्श रचनाकार थीं। उनके जीवन, उनकी लेखनी से युवा काफी कुछ सीख सकते हैं और अपनी नियति तय कर सकते हैं। कृष्णा सोबती ने आम नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों को लेकर भी कलम चलायी और उनके अधिकारों को बचाने का प्रयास किया। उन्होंने अपनी लेखकीय गरिमा से लोगों को शक्ति देने की कोशिश की और जताया कि लेखन एक लोकतांत्रिक कार्य है। लोकतांत्रिक व्यवस्था और भारतीय संविधान में गहरी आस्था रखने वाली कृष्णा सोबती लेखकों के लिए किसी विशेष अधिकार की पक्षधर नहीं थीं। लेकिन उनका मानना था कि लेखक को संविधान से आजादी और नागरिकता के अधिकार मिले हैं। किसी व्यवस्था, सत्ता या समुदाय को इसमें कटौती करने का अधिकार नहीं है। बहरहाल, कृष्णा सोबती 94 साल की लंबी उम्र जीने के बाद अब हमारे बीच नहीं हैं। हमें इस सचाई को आत्मसात करना होगा। सिनीवाली कृष्णा सोबती के बारे में और पढ़ें .. .कृष्णा सोबती -जागरण कृष्णा सोबती को मिला ज्ञानपीठ कृष्णा सोबती -विकिपीडिया फोटो क्रेडिट –DW.COM आपको   लेख “ कृष्णा सोबती -एक बेबाक रचनाकार    “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट … Read more

हंस अकेला रोया -ग्रामीण जीवन को सहजता के साथ प्रस्तुत करती कहानियाँ

 “गाँव” एक ऐसा शब्द जिसके जुबान पर आते ही अजीब सी मिठास घुल जाती है | मीलों दूर तक फैले खेत, हवा में झूमती गेहूं की सोने सी पकी बालियाँ, कहीं लहलहाती मटर की छिमियाँ, तो कहीं छोटी –छोटी पत्तियों के बीच से झाँकते टमाटर, भिन्डी और बैगन, कहीं बेल के सहारे छत  पर चढ़ इतराते घिया और कद्दू, दूर –दूर फैले कुछ कच्चे, कुछ पक्के घर, हवा में उड़ती मिटटी की सुवास, और उन सब के बीच लोक संस्कृति और भाषा में रचे बसे सीधे सच्चे लोग | यही तो है हमारा असली रूप, हमारा असली भारत जो जो पाश्चात्य सभ्यता में रचे शहरों में नहीं बम्बा किनारे किसी गाँवों में बसता है | पर गाँव के इस मनोहारी रूप के अतिरिक्त भी गाँव का एक चेहरा है…जहाँ भयानक आर्थिक संकट से जूझते किसान है, आत्महत्या करते किसान हैं, धर्म और रीतियों के नाम पर लूटते महापात्र, पंडे-पुजारी हैं | शहरीकरण और विकास के नाम पर गाँव की उपजाऊ मिटटी को कंक्रीट के जंगल में बदलते भू माफिया और ईंट के भट्टे | गाँव के लोगों की छोटी –मोटी लड़ाइयाँ, रिश्तों की चालाकियाँ, अपनों की उपेक्षा से जूझते बुजुर्ग | जिन्होंने गाँव  नहीं देखा उनके लिए गाँव केवल खेत-खलिहान और शुद्ध जलवायु तक ही सीमित हैं | लेकिन जिन्होंने देखा है वो वहाँ  के दर्द, राजनीति, निराशा, लड़ाई –झगड़ों और सुलह –सफाई से भी परिचित हैं | बहुत से कथाकार हमें गाँव के इस रूप से परिचित कराते आये हैं | ऐसी ही एक कथाकार है सिनीवाली शर्मा जो गाँव पर कलम चलाती हैं तो पाठक के सामने पूरा ग्रामीण परिवेश अपने असली रूप में खड़ा कर देती हैं | तब पाठक कहानियों को पढ़ता नहीं है जीता है | सिनीवाली जी की जितनी कहानियाँ मैंने पढ़ी हैं उनकी पृष्ठभूमि में गाँव है | वो खुद कहती हैं कि, ‘गाँव उनके हृदय में बसता है |” शायद इसीलिये वो इतनी सहजता से उसे पन्नों पर उकेरती चलती हैं | अपने कहानी संग्रह “हंस अकेला रोया” में सिनीवाली जी आठ कहानियाँ लेकर आई हैं | कहने की आवश्यकता नहीं कि ये सारी कहानियाँ ग्रामींण पृष्ठभूमि पर आधारित हैं | इस संग्रह के दो संस्करण आ चुके हैं | उम्मीद है कि जल्दी तीसरा संस्करण भी आएगा | तो आइये  बात करते हैं संग्रह की कहानियों की | हंस अकेला रोया -ग्रामीण जीवन को सहजता के साथ प्रस्तुत करती कहानियाँ सबसे पहले मैं बात करुँगी उस कहानी की जिसके नाम पर शीर्षक रखा गया है यानि की  “हंस अकेला रोया” की | ये कहानी ‘परिकथा’ में प्रकाशित हुई थी | ये कहानी है एक ऐसे किसान विपिन की, जिसके पिता की मृत्यु हुई है | उसके पिता शिक्षक थे | आस –पास के गाँवों में उनकी बहुत इज्ज़त थी | पेंशन भी मिलती थी | लोगों की नज़र में उनका घर पैसे वाला घर था | लेकिन सिर्फ नज़र में, असलियत तो परिवार ही जानता था | रही सही कसर उनकी बीमारी के इलाज ने पूरी कर दी | कहानी शुरू होती है मृत्यु के घर से | शोक का घर है लेकिन अर्थी से लेकर तेरहवीं में पूरी जमात को खिलाने के लिए लूटने वाले मौजूद हैं | अर्थी तैयार करने वाला, पंडित , महापात्र, फूफा जी यहाँ तक की नाउन, कुम्हार, धोबी सब लूटने को तैयार बैठे हैं | आत्मा के संतोष के नाम पर जीवित प्राणियों के भूखों मरने की नौबत आ जाए तो किसी को परवाह नहीं | जो खाना महीनों एक परिवार खा सकता था वो ज्यादा बन कर फिकने की नौबत आ जाए तो कोई बात नहीं, आत्मा की शांति के नाम पर खेत बिके या जेवर  तो इसमें सोचने की क्या बात है ? ये कहानी मृत्यु के उपरान्त किये जाने वाले पाखंड पर प्रश्न उठाती है पर इतने हौले से प्रहार करती है कि कथाकार कुछ भी सीधे –सीधे नहीं कहती पर पाठक खुद सोचने को विवश होता है | ऐसा नहीं है कि ये सब काम कुछ कम खर्च में हो जाए इसका कोई प्रावधान नहीं है | पर अपने प्रियजन को खो चुके  दुखी व्यक्ति को अपने स्वार्थ से इस तरह से बातों के जाल में फाँसा जाता है कि ये जानते हुए भी कि उसकी इतनी सामर्थ्य नहीं है, फिर भी व्यक्ति खर्चे के इस जाल में फँसता जाता है | ये सब इमोशनल अत्याचार की श्रेणी में आता है जिसमें सम्मोहन भय या अपराधबोध उत्पन्न करके दूसरे से अपने मन का काम कराया जा सकता है | जरा सोचिये ग्रामीण परिवेश में रहने वाले भोले से दिखने वाले लोग भी इसकी कितनी गहरी पकड़  रहते हैं | एक उदाहरण देखिये … “किशोर दा के जाने के बाद  विपिन के माथे पर फिर चिंता घूमने लगीं | दो लाख का इंतजाम तो किसी तरह हो जाएगा | पर और एक लाख कहाँ से आएगा ? सूद पर …? सूद अभी दो रुपया सैंकड़ा चल रहा है | सूद का दो हज़ार रुपया महीना कहाँ से आएगा…सूद अगर किसी तरह लौटा भी दिया तो मूल कहाँ से लौटा पायेगा | वहीँ दूसरी तरफ … “अंतर्द्वंद के बीच सामने बाबूजी के कमरे पर विपिन की नज़र पड़ी …किवाड़ खुला है,  सामने उनका बिछावन दिख रहा है | उसे लगा एक पल में जैसे बाबूजी उदास नज़र आये.. नहीं नहीं बाबूजी मैं भोज करूँगा | जितना मुझसे हो पायेगा | आज नहीं  तो कल दिन जरूर बदलेगा पर अप तो लौट कर नहीं आयेंगे …हाँ, हाँ करूँगा भोज |” कथ्य भाषा और शिल्प तीनों ही तरह से ये कहानी बहुत ही प्रभावशाली बन गयी है | एक जरूरी विषय उठाने और उस पर संवेदना जगाती कलम चलने के लिए सिनीवाली जी को बधाई | “उस पार” संग्रह की पहली कहानी है | इस कहानी बेटियों के मायके पर अधिकार की बात करती है | यहाँ बात केवल सम्पत्ति पर अधिकार की नहीं है (हालांकि वो भी एक जरूरी मुद्दा है-हंस जून 2019 नैहर छूटल  जाई –रश्मि  ) स्नेह पर अधिकार की है | मायके आकर अपने घर –आँगन को देख सकने के अधिकार की है | इस पर लिखते हुए मुझे उत्तर प्रदेश के देहातों में गाया जाने वाला लोकगीत याद आ … Read more

चिठ्ठी

               किसी अपने की चिट्ठी कुछ ख़ास ही होती है, क्योंकि उसका एक -एक शब्द प्रेम में डूबा हुआ होता है | पर कुछ अलहदा ही होती है वो चिट्ठी जो किसी ऐसे अपने की होती है जिससे बरसों से मिले ही न हों , यहाँ तक कि ये यकीन भी न हो कि ये चिट्टी जहाँ जायेगी वहां वो रहता भी है या नहीं | ऐसे ही खास जज्बातों को समेटे हुए है युवा लेखिका सिनीवाली शर्मा की कहानी “चिट्ठी ” कम शब्दों में भावों को खूबसूरती से व्यक्त करना सिनीवाली जी की विशेषता है | ऐसे ही एक पंक्ति जो बहुत देर तक मेरे दिल में गड़ती रही … हाँ, आनंद तलाक के कुछ महीने बाद ही दूसरी शादी कर ली मैंने। हम बहुत सुखी पति–पत्नी हैं, सभी कहते हैं——कहते हैं तो सही ही होगा।  कहने को ये मात्र एक वाक्य है पर ये दाम्पत्य जीवन का कितना दर्द उकेर देता है जिसको शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है|  एक स्त्री, एक प्रेमिका का अपने पूर्व पति को लिखा गया भाव भरा पत्र पाठक को देर तक उसके प्रभाव से मुक्त नहीं होने देता | आप भी पढ़िए … कहानी-चिट्ठी  आनंद, कितने दिनों बाद आज तुम्हें चिठ्ठी लिख रही हूं ,कई साल पहले हमारे प्रेम की शुरूआत इसी से तो हुई थी, एक नहीं, दो नहीं, न जाने कितनी चिठ्ठियां…….इनके एक–एक शब्द को जीते, महसूस करते हम एक दूसरे के करीब होते गए। आज फिर कई सालों बाद तुम्हें चिठ्ठी लिख रही हूं और ये भी नही जानती कि तुम उस पते पर हो भी या नहीं। पता नहीं क्यों इतने दिनों बाद भी तुमसे मिलने का मन हो रहा है क्योंकि मन की कुछ ऐसी बातें जो तुम्हीं समझ सकते हो, वो तुम्हारे आगे ही खुलना चाहता है।  इससे पहले कि ये मन बिखर जाये, तुम इसे समेट दो ! बार बार, मैं मन को समेट लाती हूं अपनी दुनिया में—–पर पता नहीं कैसे खुशबू की तरह उड़कर तुमसे मिलने पहुंच जाता है, हाँ जानती हूं अब मुझे तुमसे मिलने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए—–फिर भी न जाने क्यों ! सोचती थी किसी के जीवन से निकल जाते ही संबंध टूट जाते हैं, कितनी गलत थी मैं ! संबंध तो मन से बनते हैं और वहाँ से चाह कर भी नहीं निकाल पाई तुम्हें, जबसे तुमसे अलग हुई तभी से तुम्हारे साथ हो गई, जब मैने तुम्हें खो दिया तभी ये जाना प्यार किसे कहते हैं लेकिन तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी। वो कमजोर पल भी आते हैं जब मैं तुम्हारी जरूरत महसूस करती हूँ। जब मन बेचैन होता है तो सोचती हूँ कि तुम्हें फोन करके सब बता दूं—–।  जब किसी को अपना प्यार सहेजते देखती हूँ तुम सामने आ जाते हो, किसी को अपने प्यार के आगे सिर झुकाते देखती हूँ तो तुम नजर आ जाते हो। ओह ! अब भी तुम मेरे साथ–साथ क्यों चलते हो। कहीं तुम अभी भी अपने प्रेम की कसमें तो नहीं निभा रहे ! जानती हूँ तुम ऐसे ही हो पर सबकुछ जानकर भी तो——मैं ही तुम से अलग हो गई। तुम्हारा नंबर अब तक मैं नहीं भूली। मेरे कितने करीब हो—–पर कितनी दूर। कई बार बात करनी चाही तुमसे—–पर न जाने क्या सोचकर फिर हाथ से फोन रख देती हूँ। अपने आपको बहला लेती हूँ कि शायद नंबर बदल लिया होगा—–पर मैं भी जानती हूँ कि वो नंबर तुम कभी नहीं बदलते। कितना अजीब लग रहा है ना——तुम्हें, तुम्हारे ही बारे में बता रही हूँ ——मैं। वही मैं जो साथ रहते हुए तुम्हें समझ नहीं पाई या यूँ कहो, अपने मैं को छोड़कर हम नहीं बन पाई कभी। हाँ, तुम सोच रहे होगे, जब मैं तुम्हें प्यार करती थी तो फिर हमारे रिश्ते का वह कौन सा तार टूटा कि हमारा जीवन ही अलग हो गया। शायद तुम से अलग होना ही मुझे तुम्हारे करीब ले गया। तुम ने इतना सहेज कर रखा था मुझे कि जान ही नहीं पाई कि जीवन के मीठे पल के बीच कड़वाहट भरा बीज भी होता है, पहले तुम मेरी जरूरत थे फिर आदत बन गए। पता ही नहीं चला कब पूरा अधिकार जमा लिया तुम पर, कि किसी और रिश्ते की जगह ही नहीं छोड़ी। पर ये नहीं समझ पाई, जरूरत से अधिक अधिकार प्रेम की कोमलता खो देती है। मैं अधिकार बढ़ाती गई और हमारा प्रेम घुटता गया। मैं यही समझने लगी थी कि मुझ में ही कुछ ऐसा है कि तुम मुझे इतना चाहते हो। ओह ——ये क्यों नहीं समझ पाई, प्रेम समर्पण होता है ! मेरी चाहत हमेशा खोजती रही अपनी ही खुशियाँ। मैंने प्रेम तो तुम से किया—–पर सच तो यही है कि मैं अपने आप से ही खोई रही, तभी तो समर्पण नहीं जान पाई। मेरा प्रेम तुम्हारे प्रेम का प्रतिउत्तर होता था, नाप तौल कर ही प्रेम करती थी, तुम्हारे सहारे मैं अपने आप को सुखी करती रही तभी तो हमारा वैवाहिक जीवन संतोष और खुशी दे रहा था मुझे। अपने दायित्वों को भूल अपने आप में खो गई थी। लगता है जैसे कल की ही बात है, जब तुम्हारी माँ हमारे साथ रहने आई थी। उनका आना हमारे लिए वैसा ही था जैसे शांत जल में किसी ने जोर से पत्थर मार कर हलचल मचा दी हो। मैं इस हलचल को स्वीकार नहीं कर पाई। तुम्हारे लाख समझाने पर भी मैं समझ नहीं पाई कि बादल की सुंदरता आकाश में विचरने से तो है ही पर उसकी सार्थकता पानी बन धरती पर बरसने में है। तुम्हारा अपनी माँ पर ध्यान देना, उनके सेहत के बारे में, खाने के बारे में पूछते रहना, वो गाँव की यादों में माँ के साथ खो जाना। बीते दिनों को याद करके नौस्टैलजिक होना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं था। खासकर गाँव की बातें तो मुझे बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगतीं। दुनिया चाँद पर घर बसा रही है और तुम उन्हीं यादों में घर बना रहे थे। मेरे लिए तो जिंदगी रफ्तार थी, तेज—–तेज—–और तेज ——बहुत तेज।  इतनी तेज कि अपनी गति के अलावा कुछ सूझता ही नहीं था मुझे। तुम कोशिश करते रहे मुझे समझाने की  और मैं जिद पर अड़ती चली गई कि तुम मुझे या अपनी माँ में से किसी एक को चुनो। शायद कहीं न कहीं मैं ये चाहती थी कि तुम साबित करो कि  दुनिया … Read more