सपने देखना भी एक हुनर है

    कौन है जो सपने नहीं देखता , पर क्या हमारे सब सपने पूरे होते हैं |  कुछ लोग जीवन में आने वाली समस्याओं से विशेष रूप से आर्थिक समस्याओं से घबराकर अपने ख़र्चों में कटौती करने और अपने सपनों का गला घोंटने में लग जाते हैं। क्या आप को पता है की पूरे होने वाले सपने देखने के लिए सपने देखने का हुनर सीखना भी जरूरी है | सपने देखना भी एक हुनर है  जो लोग बड़े सपनों से भयभीत हो उनका गला घोंटते हैं , उनके अनुसार जीवन में समस्याओं से बचने का यही एकमात्र उपाय है लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत होती है। समस्याओं से बचने से न तो हमारी समस्याएँ कम होती हैं और न उनका समाधान ही हो पाता है। ये तो बिल्ली को देखकर कबूतर के आँखें मूँद लेने जैसी स्थिति है। ऐसे लोग प्रायः कहते हैं कि हवाई किले मत बनाओ या दिन में सपने देखना छोड़ दो लेकिन आज ये बात सिद्ध हो चुकी है कि जीवन में आगे बढ़ने या कुछ पाने के लिए दिन में सपने देखना बहुत ज़रूरी है। हमारा भविष्य हमारे सपनों के अनुरूप ही आकार ग्रहण करता है। आज दुनिया में जो लोग भी सफलता के ऊँचे पायदानों पर पहुँचे हैं वो अपने सपनों की बदौलत ही ऐसा कर पाए हैं और जो लोग किसी भी क्षेत्र में सबसे नीचे के पायदान से भी नीचे हैं वो भी अपने कमज़ोर व विकृत सपनों के कारण ही वहाँ हैं। ‘‘रिच डैड पुअर डैड’’ के अनुसार       ‘‘रिच डैड पुअर डैड’’ के लेखक राॅबर्ट टी. कियोसाकी कहते हैं कि हमें अपने ख़र्चों में कमी करने की बजाय अपनी आमदनी बढ़ानी चाहिए और अपने सपनों को सीमित करने की बजाय अपने साहस और विश्वास में वृद्धि करनी चाहिए। जिस किसी ने भी सही सपने चुनने और देखने की कला विकसित की है वही संसार में सबसे ऊपर पहुँच सका है। ऊपर पहुँचने का अर्थ केवल धन-दौलत कमाने तक सीमित नहीं है अपितु जीवन के हर क्षेत्र में उन्नति व विकास से है। अच्छा स्वास्थ्य तथा प्रभावशाली व आकर्षक व्यक्तित्व पाने का सपना भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं होता। जो लोग जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपेक्षित ऊँचाइयों तक नहीं पहुँच पाते ज़रूर उनके सपनों व उन्हें देखने के तरीक़ों में कोई कमी रही होगी। सपना देखने के बाद उसकी देख-भाल व परवरिश करना भी अनिवार्य है ताकि वो अपने अंजाम तक पहुँच सके। प्रश्न उठता है कि सही सपनों का चुनाव कैसे करें और कैसे उन्हें देखें? इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पश्चिमी देशों में हर साल 11 मार्च को ‘ड्रीम डे’ अथवा ‘स्वप्न दिवस’ मनाया जाता है। खुली आँखों से देखे सपने      वास्तविकता ये है कि हमारा मन कभी चैन से नहीं बैठता। उसमें निरंतर विचार उत्पन्न होते रहते हैं। एक विचार जाता है तो दूसरा आ जाता है। हर घंटे सैकड़ों विचार आते हैं और नष्ट हो जाते हैं। ये विचार हमारी इच्छाओं के वशीभूत होकर ही उठते हैं। ये हमारे सपने ही होते हैं। सपनों का प्रारंभिक स्वरूप। हमारे अवचेतन व अचेतन मन में विचारों की कमी नहीं होती। पूरे जीवन के अच्छे व बुरे सभी अनुभव इनमें संग्रहित रहते हैं। ये अनुभव ही हमारे विचारों के मूल में होते हैं। इन असंख्य विचारों में से जो विचार जीवन या भौतिक जगत में वास्तविकता ग्रहण कर लेता है वो एक सपने की पूर्णता ही होती है। कई बार हमें अपने इस सपने की जानकारी भी नहीं होती। सपने की जानकारी न होने से सपने की जानकारी होना बेहतर ही नहीं बेहतरीन है। संभावना रहती है कि ग़लत विचार हमारा सपना बनकर हमें तबाह कर डाले। अतः नींद में नहीं अपितु खुली आँखों से सोच-समझकर सपने देखना ही श्रेयस्कर है। सीखें सपने देखने की कला       अब एक और प्रश्न उठता है कि सही विचारों अथवा सपनों के चयन के लिए क्या किया जाए? सही विचारों के चयन के लिए विचारों को देखकर उनका विश्लेषण करना और उनमें से किसी अच्छे उपयोगी विचार का चयन करना अपेक्षित है। जब हम रोज़ मर्रा की सामान्य अवस्था में होते हैं तो न तो विचारों को सही-सही देखना ही संभव है और न उनका विश्लेषण करना ही। इसके लिए मस्तिष्क की शांत-स्थिर अवस्था अपेक्षित है। ध्यान द्वारा यह स्थिति प्राप्त की जा सकती है।  मस्तिष्क की चंचलता कम हो जाने पर जब हम शांत-स्थिरि हो जाते हैं तो उस अवस्था में विचारों को देखना और उनका विश्लेषण करना संभव हो जाता है। उस समय हमें चाहिए कि हम अनुपयोगी नकारात्मक विचारों पर ध्यान न देकर केवल उपयोगी सकारात्मक उदात्त विचारों पर संपूर्ण ध्यान केंद्रित कर लें। हम जो चाहते हैं मन ही मन उसे दोहराएँ। उसी विचार के भाव को पूर्ण एकाग्रता के साथ मन में लाएँ। उस भाव को अपनी कल्पना में चित्र के रूप में देखें।      अपने विचार, भाव या सपने को चित्र के रूप में देखना सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण व फलदायी होता है। हम पूरे घटनाक्रम को एक फिल्म अथवा उस सपने की परिणति को एक चित्र की तरह देखें। आपकी फिल्म अथवा चित्र जितना अधिक स्पष्ट होगा सपने की सफलता उतनी ही अधिक निश्चित हो जाएगी।  यह पूरी प्रक्रिया हमारे मस्तिष्क को अत्यंत सक्रिय व उद्वेलित कर देती है। मस्तिष्क की कोशिकाएँ हमारे सपने के अनुरूप अपेक्षित परिस्थितियों का निर्माण करने में जुट जाती हैं और तब तक न स्वयं चैन से बैठती हैं और न हमें ही चैन से बैठने देती हैं जब तक कि वो सपना पूरा नहीं हो जाता। बिना किसी सपने के न तो हमारा मस्तिष्क ही सक्रिय होता है और न अपेक्षित परिस्थितियों का निर्माण ही होता है। इसी से जीवन में सपनों का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। तो आप भी अपने अंदर सपने देखने का हुनर विकसित का लीजिये | बड़े सपनॉन से दरिये नहीं , उन्हें जी भर के देखिये … उन्हें सच करिए … और दोनों हाथ बढ़ा कर वो सब समेत लीजिये जिसे पाने का कभी आपने सपना देखा था |  सीताराम गुप्ता, दिल्ली – 110034 यह भी पढ़ें … case study-क्या जो दीखता है वो बिकता है विचार मनुष्य की सम्पत्ति हैं स्ट्रेस मेनेजमेंट और माँ का फार्मूला अपने दिन … Read more

अपरिग्रह -वस्तुओं से अत्यधिक प्यार रिश्तों व् मानवता के लिए खतरा

प्रायः ऐसी घटनाएँ देखने-सुनने में आती हैं कि किसी नौकर से कोई चीज़ टूट गई या कुछ नुक़सान हो गया तो मालिक द्वारा उसको अमानवीय यातनाएँ दी गईं। पिछले दिनों ऐसे मामले भी प्रकाश में आए हैं कि ऐसी यातनाओं के कारण नौकर या नौकरानी की मृत्यु तक हो गई। घर के बच्चे विशेष रूप से बहुएँ भी इस प्रकार की यातनाओं का शिकार होती देखी गई हैं। इस प्रकार की घटनाएँ न केवल गाँवों और क़स्बों तक सीमित हैं अपितु बड़े-बड़े शहरों और महानगरों तक में ऐसी घटनाएँ घटित होना आम बात है। इस प्रकार की घटनाएँ न केवल अशिक्षित अथवा अल्पशिक्षित लोगों द्वारा अंजाम दी जाती हैं अपितु समाज के शिक्षित और आज की भाषा में कहें तो प्रोफेशनल और समृद्ध लोगों द्वारा भी ऐसी घटनाओं को अंजाम देना साधारण-सी बात है और इसमें महिलाएँ भी पीछे नहीं हैं। वस्तुओं से अत्यधिक प्यार रिश्तों व् मानवता के लिए खतरा  माना कि एक टी सैट या क्रिस्टल का गिलास बहुत क़ीमती है लेकिन एक समृद्ध व्यक्ति के लिए ये क्या मायने रखता है और फिर क्या एक कप, प्लेट या गिलास की कीमत एक व्यक्ति की जान से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो सकती है? कदापि नहीं। फिर क्यों ऐसा होता है कि हम थोड़े से आर्थिक नुक़सान के लिए किसी की जान लेने से भी नहीं हिचकिचाते? किसी की जान लेने का अर्थ है ज़िंदगी भर जेल की सलाखों के पीछे सड़ना या फाँसी। क्या कारण है कि हम विवेक से काम न लेकर दूसरों का और स्वयं का जीवन संकट में डाल देते हैं? जीवन को संपूर्णता से जीने के लिए ज़रूरी है कि व्यक्ति वस्तुओं का उपयोग करे और मनुष्यों से प्रेम न कि वस्तुओं से प्रेम और मनुष्य का उपयोग। आज व्यावहारिक स्तर पर इसका उलट हो रहा है। मनुष्य भौतिक वस्तुओं से तो प्रेम करता है लेकिन मनुष्य से नहीं। भौतिक वस्तुओं के प्रति आकर्षण अथवा लगाव या प्रेम का प्रमुख कारण है मनुष्य की परिग्रह-वृत्ति या संग्रह करने की आदत। व्यक्ति जिन वस्तुओं का संग्रह करता है उनके प्रति मोह पैदा होना स्वाभाविक है। इसी मोह के वशीभूत जब वस्तु उसके हाथ से निकलती है तो उसे पीड़ा होती है। पीड़ा का कारण वस्तु के क़ब्ज़े से महरूम या वंचित होना है। अनेक ऐसी वस्तुएँ हैं जिनको व्यक्ति प्रयोग में तो लाता है पर उन वस्तुओं पर उसका क़ब्ज़ा नहीं होता। जिन वस्तुओं पर व्यक्ति क़ब्ज़ा नहीं कर सकता उनके लिए तो वह नहीं लड़ता। इस भौतिकवादी युग में पैसा या उससे प्राप्त वस्तु ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई है और जब उससे वंचित होना पड़ता है तो बरदाश्त नहीं होता और इस असहिष्णुता के भयंकर परिणाम होते हैं। अपरिग्रह अपनाने के लिए जरूरी है परिग्रह को समझना  परिग्रह या संग्रह वृत्ति को जानने के लिए योग को जानना ज़रूरी है। योग के आठ अंग है जो क्रमशः यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार धारणा, ध्यान तथा समाधि हैं। योग मात्र कुछ आसनों या सांसों की क्रियाओं का नाम नहीं हैं। यम-नियम से लेकर समाधि तक की यात्रा ही वास्तविक योग है। योग की शुरूआत होती है यम से। यम की परिभाषा है: ‘‘अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः’’ अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह का पालन ही यम है। अपरिग्रह यम का अनिवार्य अंग है। जीवन में यम का समावेश और यम में अपरिग्रह का समावेश नहीं है तो कैसा योग? इनके अभाव में आसन, प्राणायाम तथा ध्यान व योग के अन्य अंग निरर्थक हैं। अपरिग्रह से तात्पर्य है परिग्रह या वस्तुओं का संग्रह न करना या कम से कम आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना। वस्तुएँ नहीं होंगी तो कोई क्लेश नहीं होगा। वस्तुओं के अभाव में न चोरी का भय, न खो जाने की आशंका तथा न पुरानी होकर बेकार हो जाने की चिंता। जीवन में जितना अपरिग्रह का पालन किया जा सकेगा व्यक्ति उतना ही अहिंसक तथा सत्य के निकट हो सकेगा। अहिंसा और अपरिग्रह तो मानो एक ही सिक्के के दो पहलू हों। अपरिग्रह है तो हिंसा नहीं। परिग्रह वृत्ति के कारण ही हिंसा और उसके दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं। जो जितना अधिक संग्रह करता है वह उतना ही भयभीत भी है। भयभीत व्यक्ति प्रेम नहीं कर सकता और न चीजों का सही इस्तेमाल ही। अपरिग्रह भय से मुक्त कर व्यक्ति से प्रेम करना तथा वस्तुओं का सही इस्तेमाल करना भी संभव बनाता है। अपरिग्रह के साथ-साथ एक चीज़ और है जो महत्वपूर्ण है और वह है उपयोग की जाने वाली वस्तुओं की साधारणता। वस्तुएँ जितनी साधारण होंगी मनुष्य उतना ही सुखी होगा। चाट खाई और पत्ता फैंक दिया या चाय पीकर कुल्हड़ फोड़ दिया। क़ीमती चीज़ों के उपयोग के कारण कई बार बड़ी हास्यास्पद स्थिति हो जाती है। आपसी संबंध बिगड़ जाते हैं या तनावपूर्ण हो जाते हैं। ऐसे में प्रेम कैसे संभव है? प्रेम महँगी वस्तुओं में नहीं प्रेम तो वस्तुओं से परे है। मन का भाव है। अभाव में जितना प्रेम प्रस्फुटित होता है उतना समृद्धि में नहीं। ओ. हेनरी की कहानी ‘उपहार’ तो आपने अवश्य पढ़ी होगी जिसमें डेला और जिम अभावग्रस्त होते भी हुए एक दूसरे को कितना प्यार करते हैं। अपरिग्रह अपनाने के लिए खुद ही खींचनी होगी सीमा रेखा  आज मनुष्य की आवश्यकताएँ इतनी अधिक बढ़ गई हैं कि संग्रह के बिना काम नहीं चल सकता। उपदेश देना सरल है लेकिन संग्रह का पूर्ण त्याग अथवा पूर्ण अपरिग्रह असंभव है फिर भी कहीं न कहीं तो सीमा रेखा खींचनी ही होंगी। सीमा रेखा के साथ-साथ भौतिक वस्तुओं के प्रति अपनी सोच अथवा दृष्टिकोण में परिवर्तन करना भी अनिवार्य है। भौतिक वस्तुओं के प्रति उचित सोच का निर्माण होने पर ही व्यक्ति के प्रति उचित सोच का निर्माण संभव है। वस्तुतः हमारी सोच अथवा हमारा दृष्टिकोण ही सबसे महत्वपूर्ण है। हमारा दृष्टिकोण ही हमारी सफलता-असफलता अथवा सुख-दुख के स्तर का निर्माण और निर्धारण करता है। सकारात्मक सोच ही हर समस्या का समाधान है। वस्तुओं और मनुष्य के प्रति अपेक्षित उचित दृष्टिकोण अनिवार्य है। एक प्रश्न ये भी उठता है कि यदि सभी लोग अपरिग्रह वृत्ति को अपना लें तो दुनिया के अधिकांश कारोबार ठप्प हो जाएंगे। भौतिक प्रगति के साथ-साथ विज्ञान और टेक्नोलाॅजी तथा शिल्प और कलाओं का विकास … Read more

दुख से बाहर आने का प्रयास है संघर्ष

     जीवन के हर मोड़ पर कोई न कोई विषमता, कोई न कोई अभाव मुँह उठाए ही रहता है। किसी का बचपन संघर्षों में गुज़रता है तो किसी की युवावस्था। कोई अधेड़ावस्था में अभावों से जूझ रहा है तो कोई वृद्धावस्था में एकाकीपन की पीड़ा का दंश भोगने को विवश है। हम सबका जीवन किसी न किसी मोड़ पर कमोबेश असंख्य दूसरे अभावग्रस्त अथवा संघर्षशील लोगों जैसा ही होता है। मेरे ही जीवन में अभावाधिक्य रहा है अथवा मैंने ही जीवन में सर्वाधिक संघर्ष किया है और ऐसी परिस्थितियों में मेरे स्थान पर दूसरा कोई होता तो वो सब नहीं कर सकता था जो मैंने किया यह सोचना ही बेमानी, वास्तविकता से परे व अहंकारपूर्ण है।      कई लोगों का कहना है कि यदि उनके जीवन में ये तथाकथित बाधाएँ अथवा समस्याएँ न आई होतीं तो उनका जीवन कुछ और ही होता। प्रश्न उठता है कि यदि जीवन ऐसा नहीं होता तो फिर कैसा होता? यहाँ एक बात तो स्पष्ट है कि यदि परिस्थितियाँ भिन्न होतीं तो जीवन भिन्न होता लेकिन ऐसा नहीं होता जैसा आज है। लेकिन जैसा आज है क्या वह कम महत्त्वपूर्ण अथवा महत्त्वहीन है? क्या ऐसे जीवन की कोई सार्थकता अथवा उपयोगिता नहीं? क्या संघर्षमयता स्वयं में जीवन की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि नहीं? इसका उत्तर तो हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। जानिये कैसे दुख का मूल नहीं, दुख से बाहर आने का प्रयास है संघर्ष      संघर्षों से जूझनेवाला बहादुर तथा पलायन करने वाला कायर कहलाता है। अभाव और संघर्ष हमारे जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा होते हैं अतः हमारे चरित्र निर्माण अथवा चारित्रिक विकास में बड़े सहायक होते हैं। जो अभावों तथा संघर्षों की आँच में तपकर बड़े होते हैं अथवा निकलते हैं वह उन लोगों के मुक़बले में महान होते हंै जिन्होंने जीवन में कोई संघर्ष किया ही नहीं। अभाव और संघर्ष जीवन की गुणवत्ता को नए आयाम प्रदान करते हैं। संघर्षशील व्यक्ति अपने जीवनकाल में अथवा संघर्ष के बाद के शेष जीवन में बिना किसी भय के अडिग रह सकता है जबकि संघर्षविहीन व्यक्ति बाद के जीवन में अभाव अथवा दुख के एक हलके से आघात अथवा झोंके से धराशायी हो सकता है। जिनके जीवन में अभाव अथवा संघर्ष की कमी होती है उन्हें आगे बढ़ने के लिए अथवा स्वयं का विकास करने के लिए कठोर परिश्रम करना पड़ता है जिसकी उन्हें आदत नहीं होती। आभाव देते हैं संघर्ष की प्रेरणा       वास्तविकता ये भी है कि अभावों में व्यक्ति जितना संघर्ष करता है सामान्य परिस्थितियों में कभी नहीं करता। अभाव एक तरह से व्यक्ति के उत्थान के लिए उत्प्रेरक का कार्य करते हैं, उसके विकास की सीढ़ी बन जाते हैं। अभावों से जूझने वाला संघर्षशील व्यक्ति अधिक परिश्रमी ही नहीं अपितु अधिकाधिक सहृदय और संवेदनशील भी होता है। परिस्थितियाँ एक संघर्षशील व्यक्ति में स्वाभाविक रूप से ऐसे गुण पैदा कर देती हैं। संघर्ष चाहे स्वयं के लिए किया जाए अथवा दूसरों को आगे बढ़ाने व उनके हितों की रक्षा करने के लिए संघर्ष के उपरांत सफलता मिलने पर ख़ुशी होती है। यही ख़ुशी हमारे अच्छे स्वास्थ्य और समृद्धि में सहायक होती है। हमारी ख़ुशी का हमारे स्वास्थ्य से और स्वास्थ्य का हमारी भौतिक उन्नति से सीधा संबंध है। संघर्ष व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में सहायक होता है।      सफ़र में थोड़ी बहुत दुश्वारियाँ न हों तो घर पहुँचकर साफ़-सुथरे बिस्तर पर आराम करने का आनंद संभव नहीं। इसी प्रकार अभाव की पूर्ति होने पर जो आनंदानुभूति होती है वह अभाव की अनुभूति के बिना संभव नहीं। अभाव व संघर्ष द्वारा ही यह संभव है। संघर्षों का नाम ही जीवन है। जीवन में संघर्ष न हों तो जीने का मज़ा ही जाता रहता है। उर्दू शायर असग़र गोंडवी तो ज़िंदगी की आसानियों को ज़िंदगी के लिए सबसे बड़ी बाधा मानते हुए कहते हैं: चला जाता हूँ हँसता खेलता मौजे-हवादिस से,अगर आसानियाँ हो  ज़िंदगी दुश्वार हो जाए।  सघर्ष हैं आनंद  का मार्ग      जीवन में आनंद पाना है तो स्वयं को संघर्षों के हवाले कर देना ही श्रेयस्कर है। संघर्ष रूपी कलाकार की छेनी आपके अस्तित्व रूपी पत्थर को तराशकर एक सुंदर प्रतिमा में परिवर्तित करने में जितनी सक्षम होती है अन्य कोई नहीं। मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ जीवन में विषम परिस्थितियों से उत्पन्न हालात को एक दूरदर्शी व्यक्ति के लिए उस्ताद या गुरू के तमाचे अथवा थप्पड़ की तरह मानते हुए कहते हैं: अहले-बीनिश  को  है  तूफ़ाने-हवादिस  मक्तब,लत्मा-ए-मौज कम अज़  सीली-ए-उस्ताद नहीं।      हम स्वयं अपने जीवन को रोमांचक, चुनौतीपूर्ण और साहसी बनाने में कोई कसर बाक़ी नहीं रख छोड़ते। ख़तरों के खिलाड़ी कहलवाने में गौरव का अनुभव करते हैं। इससे हमें ख़ुशी मिलती है। लेकिन यदि हमें कोई चुनौती प्राकृतिक रूप से मिल जाती है तो उसे स्वीकार करने अथवा उसके पार जाने में दुविधा क्यों? अभावों तथा संघर्ष को अन्यथा मत लीजिए। उन्हें महत्त्व दीजिए। किसी भी चुनौती को स्वीकार किए बिना उसे जीतना और विजेता बनना असंभव है। संघर्ष हर जीत को संभव बना देता है।  संघर्ष दुख नहीं, दुख से बाहर आने का प्रयास होता है। दुख से बाहर आने का अर्थ है सुख, प्रसन्नता अथवा आनंद। संघर्ष आनंद का ही उद्गम है।  सीताराम गुप्ता, दिल्ली यह भी पढ़ें ……….. तेज दौड़ने के लिए जरूरी है धीमी रफ़्तार असफलता से सीखें अधूरापन अभिशाप नहीं प्रेरणा है व्यक्तित्व विकास के पांच बेसिक नियम -बदलें खुद को आपको आपको  लेख “दुख से बाहर आने का प्रयास है संघर्ष“ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | 

चलो चाय पीते हैं

चलो चाय पीते हैं … दो लोग कभी भी इत्मीनान से बैठ कर बात करना कहते हैं तो सबसे पहली बात याद आती है चाय |पर हम में से अक्सर लोग ये नहीं जानते की सुबह – सुबह जिस चाय की तलब हमें लगती है वो न सिर्फ चुस्ती फुर्ती देने वाली बल्कि फायदेमंद भी है       हुआ यूँ की एक सज्जन से मिलने जाना हुआ। पहले पानी और उसके बाद चाय आई। चाय सिर्फ़ एक कप ही थी। मैंने मेज़बान से पूछा, ‘‘आप चाय नहीं लेंगे?’’ ‘‘मैं चाय-काॅफी, बीड़ी-सिगरेट, पान, गुटका, शराब, तम्बाकू आदि कोई ग़लत चीज़ नहीं लेता,’’ मेज़बान ने फ़र्माया। ‘‘अच्छी बात है आप कई बेकार की चीज़ों से परहेज़ रखते हैं लेकिन चाय-काॅफी की तुलना बीड़ी-सिगरेट, पान, गुटके, शराब, तम्बाकू आदि चीज़ों से करना मेरे विचार से उचित नहीं, ’’मैंने किंचित प्रतिवाद किया।      सभ्यता के विकास के साथ-साथ न जाने कितनी चीज़ें हमारी दिनचर्या में सम्मिलित हो गईं। माना कुछ चीज़ें बाज़ारवाद के कारण जबरदस्ती हमारी दिनचर्या में सम्मिलित हो गई हैं लेकिन इसके बावजूद हर एक चीज़ को हानिकारक, अनुपयोगी अथवा निरर्थक नहीं कहा जा सकता। कुछ वस्तुएँ हमारी दिनचर्या में इसलिए शामिल हैं क्योंकि वे हमारे लिए वास्तव में उपयोगी हैं। आप कितने लोगों को जानते हैं जिन्हें चाय (tea )अथवा काॅफी से कैंसर, टीबी या अन्य घातक बीमारी हो गई हो जबकि बीड़ी-सिगरेट, पान, गुटके, शराब अथवा तम्बाकू से हज़ारों नहीं लाखों मौतें हर साल होती हैं। चाय  यूँ ही बदनाम है       कुछ लोग चाय-काॅफी के पीछे हाथ धोकर पड़े हुए हैं जो ठीक नहीं। चाय पारंपरिक भारतीय पेय नहीं है फिर भी इस समय भारत में ये एक अत्यंत लोकप्रिय पेय है। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सभी न केवल चाय की चुस्कियाँ लेना पसंद करते हैं अपितु प्रायः सभी चाय बनाना भी जानते हैं। चाय बनाने के अनेक तरीक़े हैं और कई प्रकार से इसे तैयार किया जाता है। हमारे देश में विशेष रूप से उत्तरी भारत में चाय प्रायः दूध डाल कर तैयार की जाती है। यूरोपीय देशों, रूस और अमेरीका के लोग प्रायः बिना दूध की चाय पसंद करते हैं। तिब्बत की नमकीन चाय का तो स्वाद ही नहीं बनाने की विधि भी रोचक है।      चाय आप जिस विधि से भी तैयार करें, चाहे वह दूध के बिना हो या दूध के साथ, मीठी हो या फीकी, काली हो या सफेद, नींबू वाली चाय (लेमन टी) हो अथवा तुलसी की पत्तियों वाली चाय, हर प्रकार की चाय में एक चीज़ अवश्य डाली जाती है और वो है चाय की पत्तियाँ अथवा टी लीव्ज़। चाय की पत्ती विशुद्ध रूप से एक वनस्पति है। इसे हर्बल पेय की श्रेणी में रखा जा सकता है। चाय की तरह काढ़ा पीने का रहा है प्रचलन       कुछ लोग चाय को बहुत पसंद करते हैं लेकिन कुछ लोग इसे न केवल घातक पेय मानते हैं अपितु चाय को भारतीय संस्कृति के खि़लाफ़ भी मानते हैं। क्या चाय वास्तव में भारतीय संस्कृति के प्रतिकूल और घातक है? हमारे यहाँ वैदिक काल से ही विभिन्न रोगों के उपचार के लिए क्वाथ या काढ़ा बनाकर पीने का वर्णन मिलता है। आयुर्वेद में विभिन्न प्रकार की जड़ी-बूटियों अथवा वनस्पतिजन्य पदार्थों से क्वाथ बनाने का वर्णन मिलता है। यूनानी चिकित्सा पद्धति में जोशांदा भी विभिन्न प्रकार की जड़ी-बूटियों को उबालकर ही बनाया जाता है।      काली मिर्च, लौंग, बड़ी और छोटी इलायची, सौंठ या अदरक, पीपल, मुलेहटी, उन्नाब, बनफ़्शा आदि विभिन्न जड़ी-बूटियों और मसालों को उबालकर काढ़ा बनाने का प्रचलन आज भी हमारे यहाँ ख़ूब प्रचलित है। सर्दी-ज़ुकाम में के उपचार के लिए तो इससे उपयोगी ओषधि हो ही नहीं सकती। इसी प्रकार चाय में भी अनेक औषधीय गुण विद्यमान हैं जो शरीर को चुस्ती-स्फूर्ति देने के साथ-साथ अनेक प्रकार के रोगों को रोकने अथवा उनका उपचार करने में सक्षम हैं। लाभदायक है चाय में पाया जाने वाला थियानिन       जब भी चाय के गुणों अथवा अवगुणों की बात होती है तो चाय में उपस्थित तत्त्व कैफीन की चर्चा भी अवश्य होती है। चाय में कैफीन के अतिरिक्त और भी एक ऐसा तत्त्व उपस्थित होता है जो केवल लाभदायक है और वह है थियानिन। मस्तिष्क और शरीर को शांत रखने और तनाव को कम करने में इस अमीनो एसिड की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चलता है कि थियानिन न केवल तनाव को कम कर शरीर को स्वस्थ रखने में मददगार होता है अपितु मानसिक सतर्कता और एकाग्रता के विकास में भी सहायक होता है।      जब हम ध्यान अथवा मेडिटेशन की अवस्था में होते हैं तो उस समय हमारे मस्तिष्क से जो तरंगें निकलती हैं उन्हें अल्फा तरंगें कहते हैं और उस अवस्था को ‘अल्फा स्टेट आॅफ माइंड’। इस अवस्था में शरीर में स्थित विभिन्न अंतःस्रावी ग्रंथियों से लाभदायक हार्मोंस का उत्सर्जन प्रारंभ हो जाता है जो व्यक्ति को तनावमुक्त कर उसे रोगों से बचाता है तथा रोग होने पर शीघ्र रोगमुक्ति प्रदान करने में सहायक होता है। चाय में उपस्थित थियानिन मस्तिष्क को उसी अवस्था में ले जाने में सक्षम है अतः चाय की प्याली ध्यानावस्था का ही पर्याय है।      चाय का सेवन हमारी याददाश्त को चुस्त-दुरुस्त रखने में भी सहायक होता है। अगर शरीर में पाॅलीफिनाॅल्स की पर्याप्त मात्रा हो तो इससे याददाश्त की कमी का ख़तरा कम हो जाता है। ताज़ा अनुसंधानों से ये बात स्पष्ट होती है कि फल, चाय, काॅफी आदि पेय पदार्थ शरीर में पाॅलीफिनाॅल्स के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इस प्रकार चाय हमारी याददाश्त को चुस्त-दुरुस्त रखने में भी सहायक होती है। चाय के कुछ खास फायदे  दिनभर में तीन-चार कप चाय पीजिए और हृदय रोगों, स्ट्रोक, त्वचा रोगों तथा कैंसर जैसे रोगों को दूर भगाइए। प्रतिदिन तीन-चार कप चाय पीने से हृदय विकारों की संभावना दस प्रतिशत से भी ज़्यादा कम हो जाती है।  चाय में उपस्थित एंटीआॅक्सीडेंट हमारी रोगों से लड़ने की क्षमता में वृद्धि कर हमें नीरोग बनाए रखने में सक्षम होते हैं तथा रोग की दशा में शीघ्र रागमुक्ति में सहायक होते हैं। चाय में उपस्थित तैलीय तत्त्व हमारे पाचन में भी सहायक होते हैं। चाय डिहाइड्रेशन दूर करने, दाँतों को मजबूत बनाने तथा कोलेस्ट्राॅल को राकने में भी सक्षम है। … Read more

शुभ या अशुभ मुहूर्त नहीं, कार्य होते हैं शुभ अथवा अशुभ

सीताराम गुप्ता, दिल्ली      अधिकांश लोगों का मत है कि किसी भी कार्य को सही अथवा शुभ मुहूर्त में ही किया जाना चाहिए क्योंकि शुभ मुहूर्त में किए गए कार्यों में ही अपेक्षित पूर्ण सफलता संभव है अन्यथा नहीं। मोटर गाड़ी या प्राॅपर्टी खरीदनी हो, मकान बनवाना प्रारंभ करना हो, गृह प्रवेश करना हो अथवा विवाहादि अन्य कोई भी मांगलिक कार्य हो लोग प्रायः शुभ मुहूर्त में ही ये कार्य सम्पन्न करते हैं। अब तो बच्चों को भी मनचाहे महूर्त में पैदा करवाने का प्रचलन प्रारंभ हो गया है। बारह दिसंबर सन् 2012 के बारह बजे का तथाकथित शुभ मुहूर्त आप भूले नहीं होंगे जब पूरी दुनिया में अपरिपक्व नवजात शिशुओं को निर्दयतापूर्वक इस संसार में लाने के प्रयास किए जा रहे थे। ये बाज़ारवाद की पराकाष्ठा है जहाँ अज्ञान व अंधविश्वास फैला कर लागों का बेतहाशा शोषण किया जा रहा है।      किसी भी कार्य को करने के लिए शुभ मुहूर्त, शुभ घड़ी, शुभ दिन अथवा शुभ महीना कौन सा होगा इसका पूरा शास्त्र हम लोगों ने रच डाला है लेकिन देखने में ये भी आता है कि एक समय विशेष पर शुभ मुहूर्त में जहाँ अनेकानेक मांगलिक कार्य सम्पन्न हो रहे होते हैं वहीं उन्हीं क्षणों में दूसरी ओर रोग-शोक, मृत्यु, दुर्घटनाएँ, उत्पीड़न, शोषण आदि के असंख्य दृष्य भी सर्वत्र दिखलाई पड़ते हैं। कहीं परीक्षा परिणाम घोषित हो रहा है जिसमें कोई पास तो कोई फेल हो रहा है। ऐसी स्थिति में हम प्रायः कह देते हैं कि ये अपने-अपने कर्मों का फल है। जैसा कर्म वैसा परिणाम। ठीक है। यदि हर व्यक्ति को अपने कर्मों का फल भोगना ही है, कर्म के अनुसार परिणाम मिलना ही है तो फिर महत्त्व कर्म का हुआ या मुहूर्त का?      शुभ मुहूर्त वास्तव में है क्या? शुभ मुहूर्त वास्तव में कार्य को प्रारंभ करने का उचित समय है। यह समय प्रबंधन का ही एक स्वरूप है ताकि कार्य समय पर सम्पन्न हो सके और निर्विघ्न रूप से सम्पन्न हो सके। हमारे संसाधन और प्रयास निरर्थक न हो जाएँ। अब जीवन के दूसरे महत्त्वपूर्ण पक्ष को भी देखिए। आपका किसी महत्त्वपूर्ण या मनचाहे कोर्स में प्रवेश हो जाता है अथवा नौकरी मिल जाती है तो आपको एक निर्दिष्ट समय पर ही जाना पड़ता है अन्यथा आपका प्रवेश या नौकरी रद्द कर दी जाती है। क्या ऐसी स्थितियों में भी आप शुभ मुहूर्त के चक्कर में पड़ेंगे? हम जानते हैं कि यदि ये अवसर हाथ से निकल गया तो दोबारा नहीं मिलने वाला। प्रायः यही पढ़ाई अथवा नौकरी हमारे जीवन में सुख-समृद्धि लाती है तथा हमारे जीवन को अर्थ व गुणवत्ता प्रदान करने में सहायक व सक्षम होती है। यहाँ अवसर महत्त्वपूर्ण हो जाता है न कि कोई मुहूर्त विशेष।      यदि हम ध्यानपूर्वक देखें या चिंतन करें तो ज्ञात होता है कि मुहूर्त शुभ या अशुभ नहीं होता शुभ या अशुभ होता है कार्य। भयानक मानवीय दुर्घटना, रोग-शोक, बाढ़, भूकंप आदि प्राकृतिक आपदाओं में जन-माल की हानि, किन्हीं भी कारणों से प्रियजनों का वियोग जिन क्षणों में घटित होते हैं वे क्षण स्वयमेव अशुभ बन जाते हैं जबकि वे क्षण जिनमें कोई सुखद संयोग, धन लाभ, अनुकूल संधि, संतान प्राप्ति, विवाह योग्य जातकों का विवाह, रोग मुक्ति के बाद स्वास्थ्य लाभ अथवा अन्य किसी भी प्रकार का संतुष्टि प्रदान करने वाला कार्य घटित होता है या क्षण जीवन में अवतरित होता है वह क्षण शुभ क्षण व उस क्षण सम्पन्न किया जाने वाला कार्य शुभ कार्य हो जाता है।      हिन्दी भाषा के श्रेष्ठ कवि, साहित्य शिरोमणि संत तुलसीदास का जन्म तथाकथित अशुभ नक्षत्र में होने के कारण उनके माता-पिता ने उनका त्याग कर दिया गया था। एक दासी के द्वारा उनका पालन-पोषण किया गया लेकिन उसकी मृत्यु के उपरांत बालक तुलसी को दर-दर भटकना पड़ा। भीख माँग कर उदरपूर्ति करनी पड़ी। लेकिन बाद में यही बालक संस्कृत का प्रकांड पंडित बना और लोकभाषा अवधी में रामचरितमानस नामक रामकथा लिखने का क्रांतिकारी कार्य किया। यह उनके अध्यवसाय के कारण संभव हुआ न कि किसी मुहूर्त विशेष की कृपा से। इस संसार के योग्यतम व्यक्ति किसी मुहूर्त विशेष की कृपा से आगे नहीं बढ़े अपितु अपने अथक प्रयास व सकारात्मक दृष्टिकोण से उन्होंने हर घड़ी को शुभ घड़ी में बदल दिया।      समझदारी और विवेक से कोई भी समय शुभ समय हो जाएगा जबकि इसके अभाव में किसी भी घड़ी को अशुभ होते देर नहीं लगती। शुभ मुहूर्त के कारण जीवन में कभी भी महत्त्वपूर्ण कार्य करने के अवसर नहीं मिलते। एक आदर्श दिनचर्या अथवा आदर्श ऋतुचर्या का पालन करना ही वास्तव में शुभ मुहूर्त की सृष्टि करना है। हमारा विवेक, समय प्रबंधन, हमारी सही समय पर सही निर्णय लेने की क्षमता, हमारा सामान्य ज्ञान व हमारी व्यावहारिक बुद्धि आदि ऐसे तत्त्व हैं जो किसी भी क्षण को शुभ अर्थात् उपयोगी बनाने में सक्षम हैं। शुभ मुहूर्त की तलाश छोड़ कर शुभ, उपयोगी व सकारात्मक कार्यों के चयन व उपलब्ध उपयोगी अवसरों के क्रियान्वयन में हम जितनी शीघ्रता कर सकें उतना ही हमारे लिए श्रेयस्कर होगा। यह भी पढ़ें ……. बुजुर्गों को दे पर्याप्त स्नेह व् सम्मान क्या आप वास्तव में खुश रहना चाहते हैं जो मिला नहीं उसे भूल जा जो गलत होने पर भी साथ दे वो मित्र नहीं घोर शत्रु

बुजुर्गों को दें पर्याप्त स्नेह व् सम्मान

सीताराम गुप्ता, दिल्ली      आज दुनिया के कई देशों में विशेष रूप से हमारे देश भारत में बुज़ुर्गों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। ऐसे में उनकी समस्याओं पर विशेष रूप से ध्यान देना और उनकी देखभाल के लिए हर स्तर पर योजना बनाना अनिवार्य है। न केवल सरकार व समाजसेवी संस्थाओं को इस ओर पर्याप्त धन देने की आवश्यकता है अपितु हमें व्यक्तिगत स्तर भी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। कई घरों में बुज़्ाुर्गों के लिए पैसों अथवा सुविधाओं की कमी नहीं होती लेकिन वृद्ध व्यक्तियों की सबसे बड़ी समस्या होती है शारीरिक अक्षमता अथवा उपेक्षा और अकेलेपन की पीड़ा। कई बार घर के लोगों के पास समय का अभाव रहता है अतः वे बुज़्ाुर्गों के लिए समय बिल्कुल नहीं निकाल पाते। एक वृद्ध व्यक्ति सबसे बात करना चाहता है। वह अपनी बात कहना चाहता है, अपने अनुभव बताना चाहता है। वह आसपास की घटनाओं के बारे में जानना भी चाहता है। बुज़्ाुर्गों की ठीक से देख-भाल हो, उनका आदर-मान बना रहे व घर में उनकी वजह से किसी भी प्रकार की अवांछित स्थितियाँ उत्पन्न न हों इसके लिए बुजुर्गों  के मनोविज्ञान को समझना व उनकी समस्याओं को जानना ज़रूरी है।      बड़ी उम्र में आकर अधिकांश व्यक्ति किसी न किसी शारीरिक अथवा मानसिक व्याधि से ग्रस्त हो जाते हैं। उम्र बढ़ने के साथ-साथ श्रवण-शक्ति व दृष्टि प्रभावित होने लगती है। कुछ लोगों में असुरक्षा की भावना बढ़ने लगती है व उनकी स्मरण शक्ति भी कमज़ोर हो जाती है जो वास्तव में बीमारी नहीं एक स्वाभाविक अवस्था है। बढ़ती उम्र में बुज़ुर्गों की आँखों की दृष्टि कमज़ोर हो जाना अत्यंत स्वाभाविक है। इस उम्र में यदि घर में अथवा उनके कमरे में पर्याप्त रोशनी नहीं होगी तो भी वे दुर्घटना का शिकार हो सकते हैं। बुज़ुर्गों को किसी भी प्रकार की अप्रिय घटना से बचाने के लिए उनके कमरे, बाथरूम व शौचालय तथा घर में अन्य स्थानों पर पर्याप्त रोशनी होनी चाहिये और यदि उनकी दृष्टि कमज़ोर हो गई है या पहले से ही कमज़ोर है तो समय-समय पर उनकी आँखों की जाँच करवा कर सही चश्मा बनवाना ज़रूरी है। कई लोग कहते हैं कि अब इन्हें कौन से बही-खाते करने हैं जो इनकी आँखों पर इतना ख़र्च किया जाए। यह अत्यंत विकृत सोच है। आँखें इंसान के लिए बहुत बड़ी नेमत होती हैं।      श्रवण शक्ति का भी कम महत्त्व नहीं है। यदि किसी बुज़्ाुग की श्रवण शक्ति कमज़ोर है तो उसका भी उचित उपचार करवाना चाहिए। इनके अभाव में बुज़्ाुर्गों के साथ बहुत सी दुर्घटनाएँ होने की संभावना बनी रहती है। वृद्धावस्था में प्रायः शरीर में लोच कम हो जाती है और हड्डियाँ भी अपेक्षाकृत कमज़ोर और भंगुर हो जाती हैं अतः थोड़ा-सा भी पैर फिसल जाने पर गिर पड़ना और हड्डियों का टूट जाना स्वाभाविक है। गिरने पर बुज़ुर्गाें में कूल्हे की हड्डी टूूटना अथवा हिप बोन फ्रेक्चर सामान्य-सी बात है जो अत्यंत पीड़ादायक होता है। यदि हम कुछ सावधानियाँ रखें तो इस प्रकार की दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है। यदि हम अपने आस-पास का अवलोकन करें तो पाएँगे कि ज़्यादातर बुज़्ाुर्ग बाथरूम में या चलते समय ही दुर्घटनाओं का शिकार होते हैं। प्रायः बाथरूमों में जो टाइलें लगी होती हैं उनकी सतह चिकनी होती हैं। पैर फिसलने का कारण प्रायः चिकनी सतह या उस पर लगी चिकनाई होती है। बाथरूम अथवा किचन का फ़र्श  प्रायः गीला हो जाता है और यदि उस पर चिकनाई की कुछ बूँदें भी होंगी तो वहाँ बहुत फिसलन हो जाएगी। जहाँ तक संभव हो सके बाथरूम व किचन में फिसलन विरोधी टाइलें ही लगवाएँ।      तेल की बूँदों की चिकनाई के अतिरिक्त साबुन के छोटे-छोटे टुकड़े भी कई बार फिसलने का कारण बनते हैं। साबुन का एक अत्यंत छोटा-सा टुकड़ा भी बड़ी दुर्घटना का कारण बन सकता है अतः साबुन के छोटे-छोटे टुकड़ों को भी फ़र्श से बिल्कुल साफ़ कर देना चाहिए। शारीरिक कमज़ोरी के कारण बुज़ुर्गों को बाथरूम अथवा शौचालय में भी उठने-बैठने में दिक्कत होती है। पाश्चात्य शैली के शौचालय बुज़ुर्गों के लिए अपेक्षाकृत अधिक सुविधाजनक होते हैं। पाश्चात्य शैली के शौचालय के निर्माण के साथ-साथ यदि इन स्थानों पर कुछ हैंडल भी लगवा दिये जाएँ तो बुज़ुर्गों को बाथरूम अथवा शौचालय में उठने-बैठने में सुविधा होगी और वे गिरने के कारण फ्रेक्चर जैसी दुर्घटनाओं से बचे रह सकेंगे। इसके अतिरिक्त घर में अन्य स्थानों पर भी ज़रूरत के अनुसार हैंडल तथा सीढ़ियाँ और ज़ीनों के दोनों ओर रेलिंग लगवाना अनिवार्य प्रतीत होता है। जहाँ आवागमन ज़्यादा होता है वहाँ बिल्डिंगों की सीढ़ियाँ और ज़ीनों की सीढ़ियाँ भी घिस-घिस कर चिकनी हो जाती हैं। ऐसे ज़ीनों में साइडों में दोनों ओर पकड़ने के लिए रेलिंग लगानी चाहिएँ तथा अत्यंत सावधानीपूर्वक चलना चाहिए। घरों या बिल्डिंगों के मुख्य दरवाज़ों पर बने रैम्प्स की सतह भी अधिक चिकनी नहीं होनी चाहिए।      उन्हें हर तरह से शारीरिक व मानसिक रूप से चुस्त-दुरुस्त बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए। वे पूर्णतः सक्रिय व सचेत बने रहें इसके लिए उनकी अवस्था व शारीरिक सामथ्र्य के अनुसार उनके लिए कुछ उपयोगी कार्य अथवा गतिविधियों को खोजने में भी उनकी मदद करनी चाहिए। बुज़ुर्गों का एक सबसे बड़ा सहारा होता है उनकी छड़ी। छड़ी के इस्तेमाल में शर्म नहीं करनी चाहिये। साथ ही छड़ी ऐसी होनी चाहिये जो हलकी और मजबूत होने के साथ-साथ चलते समय फर्श पर सही तरह से रखी जा सके। छड़ी का फ़र्श पर टिकाया जाने वाला निचला हिस्सा हमवार होना ज़रूरी है अन्यथा गिरने का डर बना रहता है। सही छड़ी का सही प्रयोग करने वाले बुज़ुर्गों में दुर्घटना की संभावना अत्यंत कम हो जाती है। वैसे अच्छी लकड़ी की बनी एक कलात्मक छड़ी सुरक्षा के साथ-साथ इस्तेमाल करने वाले के बाहरी व्यक्तित्व को सँवारने का काम भी करती है।      अत्यधिक व्यस्तता के कारण कई बार हमारे पास समय नहीं होता या कम होता है तो भी कोई बात नहीं। हम अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करके उन्हें प्रसन्न रख सकते हैं व अपने कार्य करने के तरीके में थोड़ा-सा बदलाव करके उनके लिए कुछ समय भी निकाल सकते हैं। घर के बड़े-बुज़्ाुर्ग जब भी कोई बात कहें उनकी बात की उपेक्षा करने की बजाय उसे ध्यानपूवक सुनकर … Read more

हमेशा खुश रहने के लिए अपनाएं 15 आदतें

सीताराम गुप्ता कौन है जो प्रसन्न रहना नहीं चाहता? हम सभी प्रसन्न रहना चाहते हैं। प्रसन्न रहने के लिए क्या कुछ नहीं करते लेकिन फिर भी कई बार सफलता नहीं मिलती। जितना प्रसन्नता की तरफ़ दौड़ते हैं प्रसन्नता और हममें अंतर बढ़ता जाता है। यदि जीवन में सचमुच प्रसन्न रहना चाहते हैं और हमेशा प्रसन्न रहना चाहते हैं तो अपनाएं ये 15 आदतें  अपनी स्वीकार्यता को बढा़एँ और रहे खुश  वास्तव में कोई भी स्थिति बहुत अच्छी या बहुत बुरी नहीं होती। हर स्थिति को स्वीकार कर उससे प्रसन्नता पाने का प्रयास करें। हमें अपने मन की कंडीशनिंग के कारण ही कोई भी स्थिति या वस्तु अच्छी या बुरी लगती है। अपने मन की इस कंडीशनिंग अथवा बंधन को तोड़कर हर स्थिति को स्वीकार करें। इससे हमारी परेशानी कम होकर प्रसन्नता में वृद्धि होगी। हम प्रायः सरदी में गरमी की, गरमी में बरसात की और बरसात में सूखे की कामना करते हैं जो हमारी प्रसन्नता को कम कर देता है। हर ऋतु का अपना आनंद है। हर ऋतु के मौसम व खानपान का आनंद लीजिए। जेठ जितना तपता है सावन उतना ही अधिक बरसता है। सावन का आनंद लेना है तो जेठ की चिलचिलरती घूप को स्वीकार करना अनिवार्य है। भयंकर शीत ऋतु के उपरांत ही वसंत का आनंद उठाना संभव है। जीवन में हमारी जितनी अधिक स्वीकार्यता होगी उतना ही अधिक आनंद हम पाएँगे क्योंकि अप्रिय या विषम परिस्थितियाँ सदैव नहीं रहतीं। खुश रहने के लिए करें दृष्टिकोण में परिवर्तन  प्रसन्न रहने के लिए अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना अनिवार्य है। सकारात्मक दृष्टिकोण से युक्त व्यक्ति ही वास्तव में प्रसन्न रह सकता है। किसी भी वस्तु या स्थिति से कोई भी व्यक्ति ख़ुश रह सकता है तो मैं और आप क्यों नहीं रह सकते? दृष्टिकोण में सकारात्मक परिवर्तन द्वारा ही यह संभव है। हमें अपनी सीमाओं को स्वीकार करने से नहीं घबराना चाहिए। ये भी ज़रूरी है कि हम अपनी परिस्थितियों को बदलने की भरपूर कोशिश करें लेकिन ये भी तभी संभव है जब हम वर्तमान को स्वीकार कर उससे संतुष्ट रहने का प्रयास करें। वर्तमान परिस्थितियों में हमेशा असंतुष्ट रहने वाला व्यक्ति कभी भी परिस्थितियों को अपने नियंत्रण में लेकर उनमें सुधार नहीं कर सकता। बच्चे प्रायः छोटी-छोटी चीज़ों में ख़ुशी ढूंढ लेते हैं और हर हाल में प्रसन्न रह सकते हैं। यदि वास्तव में प्रसन्नता चाहिए तो उन चीज़ों से अवश्य प्रसन्न होने का प्रयास कीजिए जिनसे बच्चों को प्रसन्नता मिलती है। जीवन में दृष्टिकोण में परिवर्तन द्वारा यह आसानी से किया जा सकता है। प्रकृति के सान्निध्य में अधिक समय व्यतीत करें: जब भी मौक़ा मिले प्रकृति के निकट जाने का प्रयास करें। पर्वतीय स्थानों की यात्राएँ करें। ट्रैकिंग करें। समुद्र तट अथवा नदियों के किनारे घूमें। शहरों में रहते हैं और बाहर जाने का कम अवसर मिलता है तो अपने आसपास के बड़े पार्कों व झीलों की सैर करने जाएँ व झालों में नौकाविहार करें। फूल-पत्तियों का अवलोकन करें। उनकी बनावट व रंगों को ध्यानपूर्वक देखें। पेड़ों के पास बैठें। बागबानी अथवा किचन गार्डनिंग करना न केवल हमारी रचनात्मकता में वृद्धि करता है अपितु उस रनात्मकता से प्रसन्नता भी मिलती हे। अँधेरी व चाँदनी रातों में छत पर बैठकर चाँद-तारों का अवलोकन करें। घर में कृत्रिम सजावटी वस्तुओं का ढेर लगाने की बजाय घर को प्राकृतिक वस्तुओं व ताज़ा फूलों से सजाएँ। लिविंग रूम में फूलों के गमले रखें। खुश  रहने के लिए करें बच्चों के साथ समय व्यतीत  बच्चों के साथ समय व्यतीत करना प्रसन्न रहने का अचूक नुस्ख़ा है। हम अपना बचपन वापस नहीं लौटा सकते लेकिन बच्चों के साथ समय गुज़ारने पर उसका आनंद अवश्य ले सकते हैं। बच्चे बड़े सरल हृदय होते हैं। उन्हीं की तरह सरल हृदय बनकर उनसे बात कीजिए। जब हम अपनी कुटिलता या अत्यधिक चतुराई का त्याग करके सीधे-सच्चे बन जाते हैं तो हमें सचमुच प्रसन्नता की अनुभूति होती है। बच्चों के साथ समय बिताना प्रसन्नतादायक होता है। बच्चों से कुछ सुनिए और उन्हें भी सुनाइए। बच्चों के साथ उनके ही खेल खेलिए। उनके साथ कोई प्रतियोगिता कीजिए। आप हारें या जीतें प्रसन्नता अवश्य मिलेगी। अपनी ख़ुशी के लिए दूसरों की प्रसन्नता का ध्यान रखें यदि वास्तव में स्वयं प्रसन्न रहना चाहते हैं तो दूसरों की प्रसन्नता का ध्यान रखना भी ज़रूरी है। यदि हमारे आसपास गरमी होगी तो हमें भी गरमी लगेगी और ठंड होने पर ठंड लगेगी। यदि हमारे आसपास के लोग प्रसन्न नहीं होंगे तो प्रसन्नता हमसे भी कोसों दूर रहेगी। यदि हम समृद्ध हैं लेकिन हमारे आसपास के लोग अभावग्रस्त हैं तो हमारी समृद्धि को भी ख़तरा बना रहेगा। यदि हमारे मित्र व संबंधी हमसे अधिक समृद्ध हैं तो कम से कम हमें तो परेशान नहीं करेंगे। इसी तरह यदि हमारे परिवार के सदस्य, मित्र व रिश्तेदार प्रसन्न हैं तो वो हमारी प्रसन्नता में बाधा नहीं बनेंगे। हमें भी चाहिए कि हम उनकी ख़ुशियों के बीच रोड़ा बनने की बजाय उनकी प्रसन्नता में वृद्धि के प्रयास करते रहें। उनकी प्रसन्नता भी हमारे ही हित में होगी। आसपास की सुंदरता से खुश  होना सीखें हमारा घर व बाल्कनी बहुत सुंदर नहीं है तो कोई दुख की बात नहीं लेकिन यदि हमारे पड़ौसियों के घर व उनकी बाल्कनियाँ सुंदर हैं और उनमें रंग-बिरंगे फूल खिले हुए हैं तो सचमुच प्रसन्नता की बात है क्योंकि हम अपने घर पर या अपनी बाल्कनी में खड़े होकर आसपास के दृष्य ही देखते हैं। इस प्रसन्नता को स्थायित्व प्रदान करने के लिए अपने आसपास के लोगों को अच्छी क़िस्म के रंग-बिरंगे व आकर्षक फूलों के बीज उपलब्ध करवाने का प्रयास करें। जब फूल खिलेंगे तो फूलों को बोने वाले ही नहीं आप भी प्रसन्नता का अनुभव करेंगे। उनकी सुगंध आप तक भी अवश्य ही पहुँचेगी। सबसे प्रेम ख़ुशी का खुशनुमा  राज  प्रेम जीवन का अनिवार्य तत्त्व है। इसका मूल्य आँकना असंभव है। संसार में जितना प्रेम बढ़ेगा लोग उतने ही अधिक संतुष्ट व सुखी अनुभव करेंगे। सबसे प्रेम कीजिए। मन से प्रेम कीजिए। प्रेम में कोई लेनदेन न हो अपितु वह निस्स्वार्थ भाव से किया गया हो। जब हम निस्स्वार्थ व निष्छल प्रेम करेंगे तो अन्य लोग भी हमें वैसा ही प्रेम देंगेे जिससे हमारी प्रसन्नता में वृद्धि ही होगी। हमारा प्रेम संकुचित नहीं होना चाहिए। हम अपने … Read more

दिल्ली की सड़कों पर भिखारियों की वजह से भी रहता है जाम और जाम से होता है बेतहाशा प्रदूषण

सीताराम गुप्ता,      दिल्ली में प्रदूषण का एक मुख्य कारण है वाहनों की बहुत ज़्यादा संख्या। यह स्थिति दिल्ली व एनसीआर के लोगों के स्वास्थ्य के लिए भी गंभीर चिंता का विषय है। यहाँ वाहन चलते नहीं रेंगते हैं। वाहनों के एक निश्चित अपेक्षित गति से कम गति पर चलने से न केवल हवा में ज़्यादा घातक गैसों का अतिरिक्त ज़हर घुलता है अपितु वाहनों की सेहत पर भी बुरा असर होता है। दूसरी बात यहाँ जो वाहन सड़कों पर चलने के लिए निकलते हैं या चल रहे होते हैं उनमें से एक बड़ी संख्या में वाहन या तो चैराहों पर रुके होते हैं या कहीं न कहीं जाम में फँसे होते हैं। स्थिति ये होती है कि दिल्ली की सड़कों पर एक साथ लाखों वाहनों के इंजन तो चालू होते हैं लेकिन वाहन गति न करके स्थिर होते हैं जो शहर की हवा को विषाक्त बनाते रहते हैं।      दिल्ली के चैराहों की स्थिति सबसे ख़राब है। चार-चार पाँच-पाँच बार ग्रीन सिग्नल होने के बावजूद वाहन चैराहे पार नहीं कर पाते। इससे न केवल बिना कारण के बहुमूल्य ईंधन फुंकता है और प्रदूषण में वृद्धि होती है अपितु लोगों का क़ीमती वक़्त भी बरबाद होता है। चैराहों पर ट्रैफिक ठीक से मूव न कर पाने का कारण नियंत्रण व्यवस्था में ख़ामियाँ ही नहीं अपितु चैराहों पर उपस्थित भिखारी समुदाय भी है। इसमें कोढ़ में खुजली का काम करते हैं सामान बेचने वाले। हर चैराहे पर हर दिशा में दर्जनों लोग खड़े रहते हैं। दो-तीन साल के बच्चों से लेकर अस्सी-पिचासी साल की उम्र के बुज़ुर्गों तक भीख मांगने के लिए वाहनों के आगे डटे रहते हैं। इनके अतिरिक्त छोटे बच्चों को गोद में उठाए औरतें व बैसाखियों के सहारे चलती लड़कियाँ भी हर चैराहे की शोभा बढ़ाती नज़र आती हैं।      इनके कारण न केवल यातायात के सुचारु परिचालन में व्यवधान उत्पन्न होता है अपितु वाहन चालकों को भी बड़ी परेशानी होती है। ग्रीन लाइट होने पर भी ये गाड़ियों के आगे डटे रहते हैं। ये वाहन चालकों को परेशान भी कम नहीं करते। गाड़ियों के दोनों ओर से ठक-ठक ठक-ठक करके वाहन चालकों को परेशान करते हैं व शीशा खुला होने पर सामान पर हाथ साफ करने में भी देर नहीं लगाते। ये लोग ग्रुप्स में होते हैं और झगड़ा करने से भी बाज नहीं आते। इससे यातायात के परिचालन व चालकों की मनोदशा दोनों पर बुरा असर पड़ता है।      हमारे चैराहों पर भिखारियों के अतिरिक्त सामान बेचनेवाले भी कम नहीं होते। हर चैराहे पर पानी की बोतलों से लेकर ग़ुब्बारे, खिलौने, नमकीन, मूंगफली, रेवड़ी, गजक, सीजनल फल, गोलागिरी, डस्टर-पौंछे, अगरबत्तियाँ, इलैक्ट्राॅनिक आइटम्स, किताबें, टायर, स्पेयर पाट्र्स तक क्या नहीं होता जो यहाँ नहीं बिकता। जब कोई वाहन चालक इनसे सामान ख़रीदता है तो जब तक उसका मोल-भाव व पेमेंट नहीं हो जाती ग्रीन सिग्नल होने पर भी वह आगे नहीं बढ़ता और उसके पीछे के वाहनों को भी रुके रहने पर विवश होना पड़ता है। इस स्थिति में कुछ लोग पौं-पौं करके आसमान सर पर उठा लेते हैं लेकिन इससे ट्रैफिक नहीं सरकता अलबत्ता ध्वनि प्रदूषण ज़रूर बढ़ जाता है। कई बार झगड़े की नौबत आ जाती है और ट्रैफिक की स्थिति और बदतर हो जाती है।      प्रदूषण बढ़ने का एक पहलू और भी है। भिखारियों और सामान बेचने वालों से बचने के लिए ज़्यादातर लोग गाड़ियों की खिड़कियों के शीशे नहीं खोलते। सामान्य स्थितियों व अच्छे मौसम में भी उन्हें एसी चलाने के लिए विवश होना पड़ता है जो प्रदूषण बढ़ाने के लिए कम उत्तरदायी नहीं। इसके अतिरिक्त कुछ सार्वजनिक वाहन जैसे रिक्शा, ई-रिक्शा व ग्रामीण सेवा आदि भी प्रायः ट्रैफिक रूल्स का खुला उल्लंघन कर यातायात को बाधित करने के लिए कम दोषी नहीं। ये मेट्रो स्टेशनों के नीचे व आसपास बेतर्तीब खड़े रहते हैं और जाम लगाए रखते हैं। कुछ लोगों ने विशेष रूप से भिखारियों व सामान बेचने वालों ने चैराहों के आसपास की सड़कों व फुटपाथों पर स्थायी अड्डे बना रखे हैं। वहीं रहते हैं, वहीं खाते-पीते हैं, वहीं टट्टी-पेशाब जाते हैं, वहीं कपड़े धोते और सुखाते हैं और वहीं पर सोते हैं।      दिल्ली में मधुबन चैक से लेकर रिठाला मेट्रो स्टेशन तक मेट्रो लाइन के नीचे अधिकांश स्थानों पर इन लोगों ने न केवल क़ब्ज़ा कर रखा है अपितु इन स्थानों को बेहद गंदा भी रखते हैं। ये लोग केवल भीख मांगने और सामान बेचने का काम ही नहीं करते बल्कि कई ग़लत काम भी करते हैं जो अपराध की श्रेणी में आते हैं। इस पूरे परिदृष्य में भीख देने वाले दानी व धर्मात्मा लोग तथा यहाँ पर सामान ख़रीदनेवाले लोग भी कम दोषी नहीं हैं। दिल्ली शहर व इसके बाशिंदों की सेहत के लिए प्रदूषण के इस दुष्चक्र को तोड़ना अनिवार्य है।      कुल मिलाकर इन्होंने और इनको यहाँ बसाने व क़ब्ज़ा करवाने में मदद करने वाले लोगों ने दिल्ली की हवा को प्रदूषित करने और दिल्ली की ख़ूबसूरत सड़कों व चैराहों को नरक बनाने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी है। वास्तविकता तो ये है कि पूरे देश के भिखारी व नकारा लोग दिल्ली आकर यहाँ की सड़कों को अपना ठिकाना बनाने से बाज नहीं आते हैं लेकिन सरकार व प्रशासन को तो इनसे निपटने के लिए ठोस क़दम उठाने ही चाहिएँ ताकि दिल्ली ख़ूबसूरत न सही लोगों के रहने लायक तो बनी रहे।

ग़लत होने पर भी जो साथ दे वह मित्र नहीं घोर शत्रु है

     कई लोग विशेष रूप से किशोर और युवा फ्रेंडशिप डे का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं। हर साल उसे नए ढंग से मनाने का प्रयास करते हैं ताकि वो एक यादगार अवसर बन जाए। क्यों मनाया जाता है फ्रेंडशिप डे? फ्रेंडशिप वास्तव में क्या है अथवा होनी चाहिए इस पर कम ही सोचते हैं। क्या फ्रेंडशिप-बैंड बाँधने मात्र से फ्रेंडशिप अथवा मित्रता का निर्वाह संभव है? क्या एक साथ बैठकर खा-पी लेने अथवा मटरगश्ती कर लेने का नाम ही फ्रेंडशिप है? क्या फ्रेंडशिप सेलिब्रेट करने की चीज़ है? फ्रेंडशिप अथवा मित्रता का जो रूप आज दिखलाई पड़ रहा है वास्तविक मित्रता उससे भिन्न चीज़ है। फ्रेंडशिप अथवा मित्रता सेलिब्रेट करने की नहीं निभाने की चीज़ है। फ्रेंडशिप अथवा मित्रता एक धर्म है और धर्म का पालन किया जाता है प्रदर्शन नहीं। ग़लत होने पर भी जो साथ दे वह मित्र नहीं घोर शत्रु  है गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं: धीरज, धरम, मित्र अरु नारी, आपत काल परखिएहु चारि। धैर्य, धर्म और नारी अर्थात् पत्नी के साथ-साथ मित्र की परीक्षा भी आपत काल अथवा विषम परिस्थितियों में ही होती है। ठीक भी है जो संकट के समय काम आए वही सच्चा मित्र। पुरानी मित्रता है लेकिन संकट के समय मुँह फेर लिया तो कैसी मित्रता? ऐसे स्वार्थी मित्रों से राम बचाए। यहाँ तक तो कुछ ठीक है लेकिन आपत काल अथवा विषम परिस्थितियों की सही समीक्षा भी ज़रूरी है।      हमारे सभी प्रकार के साहित्य और धर्मग्रंथों में मित्रता पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। सच्चे मित्र के लक्षण बताने के साथ-साथ मित्र के कत्र्तव्यों का भी वर्णन किया गया है। रामायण, महाभारत से लेकर रामचरितमानस व अन्य आधुनिक ग्रंथों में सभी जगह मित्रता के महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है। उर्दू शायरी में तो दोस्ती ही नहीं दुश्मनी पर भी ख़ूब लिखा गया है और दुश्मनी पर लिखने के बहाने दोस्ती के नाम पर धोखाधड़ी करने वालों की जमकर ख़बर ली गई है। मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ एक बेहद दोस्तपरस्त इंसान थे पर हालात से बेज़ार होकर ही वो ये लिखने पर मजबूर हुए होंगे: यह फ़ितना आदमी की  ख़ानावीरानी को क्या कम है, हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आसमाँ क्यों हो।      एक पुस्तक में एक बाॅक्स में मोटे-मोटे शब्दों में मित्र विषयक एक विचार छपा देखा, ‘‘सच्चे आदमी का तो सभी साथ देते हैं। मित्र वह है जो ग़लत होने पर भी साथ दे।’’ क्या यहाँ पर मित्र से कुछ अधिक अपेक्षा नहीं की जा रही है? मेरे विचार से अधिक ही नहीं ग़लत अपेक्षा की जा रही है। ग़लत होने पर साथ दे वह कैसा मित्र? ग़लती होने पर उसे दूर करवाना और दोबारा ग़लती न हो इस प्रकार का प्रयत्न करना तो ठीक है पर किसी के भी ग़लत होने पर उसका साथ देना किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता। हम दोस्ती में ग़लत फेवर की अपेक्षा करते हैं। कई बार दोस्ती की ही जाती है किसी ख़ास उद्देश्य के लिए। ऐसी दोस्ती दोस्ती नहीं व्यापार है। घिनौना समझौता है। स्वार्थपरता है। कुछ भी है पर दोस्ती नहीं। इस्माईल मेरठी फ़र्माते हैं: दोस्ती और किसी ग़रज़ के लिए, वो तिजारत है दोस्ती  ही  नहीं।      ऐसा नहीं है कि अच्छे मित्रों का अस्तित्व ही नहीं है लेकिन समाज में मित्रता के नाम पर ज़्यादातर समान विचारधारा वाले लोगों का आपसी गठबंधन ही अधिक दिखलाई पड़ता है। अब ये समान विचारधारा वाले लोग अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी। अब यदि ये समान विचारधारा वाले लोग अच्छे हैं तो उनकी मित्रता से समाज को लाभ ही होगा हानि नहीं लेकिन यदि समान विचारधारा वाले ये लोग अच्छे नहीं हैं तो उनकी मित्रता से समाज में अव्यवस्था अथवा अराजकता ही फैलेगी।       मेरे अंदर कुछ कमियाँ हैं, कुछ दुर्बलताएँ हैं और सामने वाले किसी अन्य व्यक्ति में भी ठीक उसी तरह की कमियाँ और दुर्बलताएँ हैं तो दोस्ती होते देर नहीं लगती। ऐसे लोग एक दूसरे की कमियों और दुर्बलताओं को जस्टीफाई कर मित्रता का बंधन सुदृढ़ करते रहते हैं। व्याभिचारी व चरित्रहीन लोगों की दोस्ती का ही परिणाम है जो आज देश में सामूहिक बलात्कार जैसी घटनाएँ इस क़दर बढ़ रही हैं। इन घटनाओं को अंजाम देने वाले दरिंदे आपस में गहरे दोस्त ही तो होते हैं।      किसी भी कार्यालय, संगठन अथवा संस्थान में गुटबंदी का आधार प्रायः दोस्ती ही तो होता है न कि कोई सिद्धांत जो उस संगठन अथवा संस्थान को बर्बाद करके रख देता है। सत्ता का सुख भोगने के लिए कट्टर दुश्मन तक हाथ मिला लेते हैं और मिलकर भोलीभाली निरीह जनता का ख़ून चूसते रहते हैं। हर ग़लत-सही काम में एक दूसरे का साथ देते हैं, समर्थन और सहायता करते हैं। क्या दोस्ती है! इसी दोस्ती की बदौलत देश को खोखला कर डालते हैं।       एक प्रश्न उठता है कि सिर्फ़ दोस्त की ही मदद क्यों?  हर ज़रूरतमंद की मदद की जानी चाहिए और इस प्रकार से जिन संबंधों का विकास होगा वही उत्तम प्रकार की अथवा उत्कृष्ट मित्रता होगी। एक बात और और वो ये कि जब हम किसी से मित्रता करते हैं तो उस मित्र के विरोधियों को अपना विरोधी और उसके शत्रुओं को अपना शत्रु मान बैठते हैं और बिना पर्याप्त वजह के भी मित्र के पक्ष में होकर उनसे उलझते रहते हैं चाहे वे कितने भी अच्छे क्यों न हों। ये तो कोई मित्रता का सही निर्वाह नहीं हुआ। मित्र ही नहीं विरोधी की भी सही बात का समर्थन और शत्रु ही नहीं मित्र की ग़लत बात का विरोध होना चाहिए। उर्दू के प्रसिद्ध शायर ‘आतिश’ कहते हैं: मंज़िले-हस्ती में  दुश्मन को भी अपना दोस्त कर, रात हो जाए तो दिखलावें  तुझे  दुश्मन  चिराग़।      और यह तभी संभव है जब हमारा विरोधी, प्रतिद्वंद्वी अथवा शत्रु भी कोई सही बात कहे या करे तो उसकी हमारे मन से स्वीकृति हो। ऐसा करके हम शत्रुता को ही हमेशा के लिए अलविदा करके नई दोस्ती का निर्माण कर सकते हैं। जहाँ तक मित्र की मदद करने की बात है अवश्य कीजिए। दोस्त के लिए जान क़ुर्बान कर दीजिए लेकिन तभी जब दोस्त सत्य के मार्ग पर अडिग हो, ग़लत बात से समझौता करने को तैयार न … Read more

उर्दू शायर शुजाअ ‘ख़ावर’ की चुनिंदा शायरी

आलेख, संकलन, लिप्यंतरण एवं प्रस्तुति: सीताराम गुप्ता दिल्ली  जीवन परिचय  पूरा नाम: शुजाउद्दीन साजिद पैदाइश: 24 दिसंबर सन् 1946 को दिल्ली में  वालिद का नाम: जनाब अमीर हुसैन तख़ल्लुस: शुजाअ ‘ख़ावर’  मुलाज़मत: पहले दिल्ली के एक काॅलेज में अंग्रेज़ी के लेक्चरर मुकर्रर हुए और बाद में आई.पी.एस. इम्तिहान पास करने के बाद 20 साल तक पुलिस में आला अफसर के रूप में काम किया। वफ़ात: 19 जनवरी सन् 2012 को दिल्ली में  पैदाइश और मिज़ाज के ऐतिबार से ही नहीं, ज़बान और उस्लूब के ऐतिबार से भी शुजाअ ‘ख़ावर’ ठेठ दिल्ली की ख़ूबसूरत टकसाली ज़बान के शायर हैं। उनकी शायरी में अल्फाज़ और मुहावरों का इस्तेमाल देखते ही बनता है। क्योंकि शुजाअ ‘ख़ावर’ के यहाँ ज़बान और बयान में किसी क़िस्म का बनावटीपन नहीं है इसलिए उनकी शायरी को न सिर्फ आम पाठक पसंद करते हैं बल्कि शायरी की ख़ास समझ रखने वाले भी उस पर उतनी ही तवज्जो देते हैं। उनके कुछ शेर देखिए: पहुँचा हुज़ूरे-शाह,  हर एक रंग का फक़ीर, पहुँचा नहीं जो, था वही पहुँचा हुआ फक़ीर। कहाँ से इब्तिदा कीजे, बहुत मुश्किल है दरवेशो! कहानी उम्र भर की और जलसा रात भर का है। हालात न बदलें तो इस बात पे रोना, बदलें तो बदलते हुए हालात पे रोना। गुज़ारे के लिए हर दर पे जाओगे ‘शुजाअ’ साहब अना का फ़लसफ़ा दीवान में  रह जाएगा लिखा। कुछ नहीं बोला तो मर जाएगा अंदर से शुजाअ, और अगर बोला तो फिर, बाहर से मार जाएगा। थोड़ा सा बदल जाए तो  बस ताज हो और तख़्त, इस दिल का मगर क्या करें सुनता नहीं कमबख़्त। इस सर की ज़रूरत कभी उस सर की ज़रूरत, पूरी  नहीं  होती   मिरे  पत्थर  की  ज़रूरत। मरके भी देखा जाए दो इक दिन, कब तक  ऐसे  ही ज़िंदगी कीजे। ‘शुजाअ’ मौत से पहले ज़रूर जी लेना, ये काम भूल न जाना  बड़ा ज़रूरी है। ये दुनियादारी और इर्फान का दावा  शुजाअ ख़ावर, मियाँ  इर्फान  हो  जाए  तो  दुनिया छोड़ देते हैं। तुझ पर है श्हर भर की नज़र इन दिनों शुजाअ, क्यों  बोलता  नहीं  किसी इर्शाद के ख़िलाफ। इस तरह ख़ामोश रहने से तो ये मिट जाएगा, सोचिए इस शहर के बारे मंे बल्कि  बोलिए। यहाँ  तो  क़ाफिले  भर को  अकेला छोड़ देते हैं, सभी चलते हों जिस पर हम वो रस्ता छोड़ देते हैं। मुझको तो मरना है इक दिन ये मगर ज़िंदा रहे, कारीगर की मौत का क्या है,  हुनर ज़िंदा रहे। सर को ख़म कीजे तो दस्तार बंधे सर पे शुजाअ, बोलिए क्या है अज़ीज़ आपको  दस्तार कि सर? शब्दार्थ: हुज़ूरे-शाह = शाह की सेवा में उपस्थिति इब्तिदा = प्रारंभ अना = मैं/अहंकार दीवान = ग़ज़लों का संकलन इर्फान = विवके/ब्रह्मज्ञान/तमीज़ ख़म करना = झुकाना दस्तार = पगड़ी/सम्मान इर्शाद = हिदायत/हुक्म/आज्ञा रिलेटेड पोस्ट बहादुर शाह जफ़र के अंतिम दिन -इतिहास की एक उदास ग़ज़ल मीना कुमारी की बेहतरीन गजलें