अर्नेस्ट हेमिंग्वे की कहानी- दिन भर का इंतजार

दिन भर का इंतज़ार ------------------------ --- मूल लेखक : अर्नेस्ट हेमिंग्वे --- अनुवाद : सुशांत सुप्रिय

आज हम कोरोना वायरस से जूझ रहे हैं | पर ये कहानी फ्लू कि कहानी है | जाहिर है उसका भी खौफ रहा होगा | मृत्यु सामने दिखाई देती  होगी | बीमारी इंसान को कई  बार निराशावादी भी  बना देती है | “दिन भर का इंतजार”अमेरिकी लेखक अर्नेस्ट हेमिंग्वे कि ये कहानी एक ऐसी ही मनोदशा से जूझते व्यक्ति कि कहानी है |अर्नेस्ट हेमिंग्वे  की कहानियों कि खासियत है कि वो आत्मानुभवजन्य होते हुए भी कलात्मकता के शिखर को छूती हैं |इसका अनुवाद किया है सुपरिचित साहित्यकार सुशांत सुप्रिय जी ने .. दिन भर का इंतज़ार ———————— — मूल लेखक : अर्नेस्ट हेमिंग्वे — अनुवाद : सुशांत सुप्रिय जब वह खिड़कियाँ बंद करने के लिए कमरे में आया , तो हम सब बिस्तर पर ही लेटे थे और मैंने देखा कि वह बीमार लग रहा था । वह काँप रहा था , उसका चेहरा सफ़ेद था और वह धीरे-धीरे चल रहा था , जैसे चलने से दर्द होता हो । ” क्या बात है , शैट्ज़ ? ” ” मुझे सिर-दर्द है । ” ” बेहतर होगा , तुम वापस बिस्तर पर चले जाओ ।” ” नहीं , मैं ठीक हूँ ।” ” तुम बिस्तर पर जाओ । मैं कपड़े पहनकर तुम्हें देखता हूँ ।” पर , जब मैं सीढ़ियाँ उतर कर नीचे आया , तो वह अलाव के पास कपड़े पहन कर तैयार बैठा था । वह नौ वर्ष का एक बेहद बीमार और दुखी लड़का लग रहा था । जब मैंने अपना हाथ उसके माथे पर रखा , तो मुझे पता चल गया कि उसे बुखार था । ” तुम बिस्तर पर जाओ ” , मैंने कहा , ” तुम बीमार हो ।” ” मैं ठीक हूँ “, उसने कहा । जब डॉक्टर आया , तो उसने लड़के का बुखार जाँचा । ” कितना बुखार है ?” मैंने उससे पूछा । ” एक सौ दो । ” डॉक्टर अलग-अलग रंग के कैप्सूलों में तीन अलग-अलग तरह की दवाइयाँ और उन्हें देने के बारे में हिदायतें भी दे गया । एक दवा बुखार उतारने के लिए थी , दूसरी एक रेचक थी और तीसरी अम्लीय स्थिति पर क़ाबू पाने के लिए थी । इन्फ्लुएंज़ा के कीटाणु केवल अम्लीय स्थिति में ही जीवित रह सकते हैं , उसने बताया । लगता था , उसे इन्फ़्लुएंज़ा के बारे में सब कुछ मालूम था और उसने कहा कि यदि बुख़ार एक सौ चार डिग्री से ऊपर नहीं गया , तो डरने की कोई बात नहीं । यह फ़्लू का एक हल्का हमला है और यदि आप निमोनिया से बच कर रहें , तो ख़तरे की कोई बात नहीं थी । कमरे में वापस जा कर मैंने लड़के का बुख़ार लिखा और अलग-अलग तरह के कैप्सूलों को देने का समय नोट किया । ” क्या तुम चाहते हो कि मैं तुम्हें कुछ पढ़ कर सुनाऊँ ? ” ” ठीक है । अगर आप पढ़ना चाहते हैं तो “, लड़के ने कहा । उसका चेहरा बेहद सफ़ेद था और उसकी आँखों के नीचे काले घेरे थे । वह बिस्तर पर चुपचाप लेटा था और जो कुछ हो रहा था , उससे बेहद निर्लिप्त लग रहा था । मैं उसे हॉर्वर्ड पाइल की ‘ समुद्री डाकुओं की किताब ‘ ज़ोर से पढ़ कर सुनाने लगा , लेकिन मैं देख सकता था कि मैं जो पढ़ रहा था , उसमें वह दिलचस्पी नहीं ले रहा था । ” अब कैसा महसूस कर रहे हो , शैट्ज़ ? ” मैंने उससे पूछा । ” अब तक ठीक वैसा ही ,” उसने कहा । मैं बिस्तर के एक कोने पर बैठ कर अपने लिए पढ़ता रहा और उसे दूसरा कैप्सूल देने के समय का इंतज़ार करता रहा । उसका सो जाना स्वाभाविक होता , लेकिन जब मैंने निगाह ऊपर उठायी , तो वह बड़े अजीब ढंग से बिस्तर के पैताने को घूर रहा था । ” तुम सोने की कोशिश क्यों नहीं करते ? मैं तुम्हें दवा देने के लिए उठा दूँगा ।” ” मुझे जगे रहना अधिक पसंद है ।” थोड़ी देर बाद उसने मुझसे कहा — ” अगर आपको परेशानी हो रही है पापा , तो आपका यहाँ मेरे पास रहना ज़रूरी नहीं । ” ” मुझे तो कोई परेशानी नहीं हो रही ।” ” नहीं , मेरा मतलब है अगर आपको परेशानी हो , तो आप यहाँ मत रुकिए । ” मैंने सोचा , शायद बुखार के कारण वह थोड़ा व्याकुल हो गया था और ग्यारह बजे उसे निर्दिष्ट कैप्सूलों को देने के बाद मैं थोड़ी देर के लिए बाहर चला गया । वह एक चमकीला , ठंडा दिन था और ज़मीन बर्फ़ से ढँकी हुई थी । बर्फ़ जम गई थी , जिससे लगता था कि बिना पत्तों वाले सभी पेड़ों , झाड़ियों , सारी घास और ख़ाली ज़मीन को बर्फ़ से रोगन कर दिया गया हो । मैंने आइरिश नस्ल के छोटे कुत्ते को सड़क पर कुछ दूर तक सैर करा लाने के लिए अपने साथ ले लिया । मैं उसे एक जमी हुई सँकरी खाड़ी के बगल से ले गया , पर काँच जैसी सतह पर खड़ा होना या चलना मुश्किल था और वह लाल कुत्ता बार-बार फिसलता और गिर जाता था और मैं भी दो बार ज़ोर से गिरा । एक बार तो मेरी बंदूक़ भी हाथ से छूट कर गिर गई और बर्फ़ पर फिसलते हुए दूर तक चली गई । हमने मिट्टी के एक ऊँचे टीले पर लटके झाड़-झंखाड़ में छिपे बटेरों के एक झुंड को उत्तेजित करके उड़ा दिया और जब वे टीले के ऊपर से उस पार ओझल हो रही थीं , मैंने उनमें से दो को मार गिराया । झुंड में से कुछ बटेरें पेड़ों पर जा बैठीं पर उनमें से ज़्यादातर झाड़-झंखाड़ के ढेर में तितर-बितर हो गईं और झाड़-झंखाड़ के बर्फ़ से लदे टीलों पर कई बार उछलना ज़रूरी हो गया , तब जा कर वे उड़ीं । जब आप बर्फ़ीले , लचीले झाड़-झंखाड़ पर अस्थिर ढंग से संतुलन बनाए हों , तब उन्हें निशाना साध कर गोली मारना मुश्किल रहता है और मैंने दो बटेरें मारीं , पाँच का निशाना चूका और घर के इतने पास एक झुंड को पाने पर प्रसन्न हो कर वापस लौट चला । मैं इसलिए भी ख़ुश था कि किसी और दिन शिकार करने के लिए इतनी सारी बटेरें बची रह गई थीं । घर पहुँचने पर लोगों ने बताया कि लड़के ने किसी को भी कमरे में आने से मना कर दिया था । ” तुम लोग अंदर नहीं आ सकते “, उसने सबसे कहा ,” तुम्हें इस बीमारी से दूर रहना चाहिए , जो मुझे हो गई है ।” मैं उसके पास भीतर गया और उसे ठीक उसी अवस्था में पाया , जिसमें उसे छोड़ कर गया था । उसका चेहरा सफ़ेद था , पर उसके गालों का ऊपरी हिस्सा बुखार के कारण लाल हो गया था । वह सुबह की तरह बिना हिले-डुले बिस्तर के पैताने को घूर रहा था । मैंने उसका बुखार जाँचा । ” कितना है ? ” ” सौ के आस-पास ,” मैंने कहा । बुखार एक सौ दो से थोड़ा ज़्यादा था । ” बुखार एक सौ दो था ,” उसने कहा । ” यह किसने बताया ?” ” डॉक्टर ने ।” ” तुम्हारा बुखार ठीक-ठाक है ,” मैंने कहा , ” चिंतित होने की कोई बात नहीं । ” ” मैं चिंता नहीं करता ,” उसने कहा , ” लेकिन मैं खुद को सोचने से नहीं रोक सकता ।” ” सोचो मत ,” मैंने कहा , ” तुम केवल आराम करो ।” ” मैं तो आराम ही कर रहा हूँ ,” उसने कहा और ठीक सामने देखने लगा । साफ़ लग रहा था कि वह किसी चीज़ के बारे में सोच-सोच कर बेहद चिंतित हो रहा था । ” यह दवा पानी के साथ ले लो ।” ” क्या आप सोचते हैं कि इससे कोई फ़ायदा होगा ?” ” हाँ , ज़रूर होगा ।” मैं बैठ गया और समुद्री डाकुओं वाली किताब खोलकर पढ़ने लगा , लेकिन मैं देख सकता था कि उसका ध्यान कहीं और था , इसलिए मैंने किताब बंद कर दी । ” आप क्या सोचते हैं , मैं किस समय मरने वाला हूँ ? ” ” क्या ? ” ” मेरे मरने में अभी और कितनी देर लगेगी ?” ” तुम कोई मरने-वरने नहीं जा रहे हो । ऐसी बहकी-बहकी बातें क्यों कर रहे हो ? ” ” हाँ , मैं मरने जा रहा हूँ । मैंने डॉक्टर को एक सौ दो कहते हुए सुना । ” ” लोग एक सौ दो बुखार में नहीं मरते । बेवक़ूफ़ी भरी बात नहीं करो । ” ” मैं जानता हूँ , वे मरते हैं । फ़्रांस में लड़कों ने मुझे स्कूल में बताया था कि तुम चौवालीस डिग्री बुखार होने पर जीवित नहीं बच सकते । मुझे तो एक सौ दो बुखार है । ” तो वह सुबह नौ बजे से लेकर दिन भर मरने का इंतज़ार करता रहा था । ” ओ मेरे बेचारे शैट्ज़ ,” मैंने कहा , ” मेरे बेचारे बच्चे शैट्ज़ । यह मीलों और किलोमीटरों की तरह है । तुम कोई मरने-वरने नहीं जा रहे । वह एक दूसरा थर्मामीटर है । उस थर्मामीटर में सैंतीस सामान्य होता है , जबकि इस थर्मामीटर में अट्ठानवे सामान्य होता है ।” ” क्या आपको पक्का पता है ? ” ” बेशक,” मैंने कहा । ” यह मीलों और किलोमीटरों की तरह है । जैसे कि , जब हम कार से सत्तर मील की यात्रा करते हैं , तो हम कितने किलोमीटर की यात्रा करते हैं , समझे ? ” ” ओह ,” उसने कहा । लेकिन , बिस्तर के पैताने पर टिकी हुई उसकी निगाह धीरे-धीरे शिथिल हुई । अपने ऊपर उसकी पकड़ भी अंत में ढीली हो गई और अगले दिन वह बेहद सुस्त और धीमा था और वह बड़ी आसानी से उन छोटी-छोटी चीज़ों पर रोया , जिनका कोई महत्व नहीं था ।     ————०———— सुशांत सुप्रिय     इंदिरापुरम् , ग़ाज़ियाबाद – 201014 ( उ. प्र . ) मो: 8512070086 ई-मेल: sushant1968@gmail.com     यह भी पढ़ें …… डाटा फ्लो डायग्राम है जिंदगी जेल के पन्नों से–हत्यारिन माँ लाल चप्पल आपको सुशांत सुप्रिय द्वारा अनुवादित अर्नेस्ट हेमिंग्वे कि कहानी दिन भर का इंतज़ार कैसी लगी |हमें अपनी राय से अवश्य अवगत कराए | अगर आपको हमारी रचनाएँ पसंद आती हैं तो अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें व अटूट बंधन कि साइट सबस्क्राइब करें | ————————

अगस्त के प्रेत -अनूदित लातिन अमेरिकी कहानी

अगस्त का प्रेत

 भूत होते हैं कि नहीं होते हैं इस बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता |परन्तु भूतिया यानि की डरावनी फिल्में देखने का अपना एक अलग ही आनंद है | फिल्म का माध्यम दृश्य -श्रव्य वाला है वहां डर उत्पन्न करना थोडा सरल है पर कहानियों में यह उतना सहज नहीं | परन्तु कई कहानियाँ हैं जो इस कसौटी पर खरी उतरती हैं |ऐसी ही एक लातिन अमेरीकी कहानी हैं अगस्त के  प्रेत | मूल लेखक गैब्रिएल गार्सिया मार्खेज़की कहानी का अनुवाद किया है सुशांत सुप्रिय जी ने | तो आइये पढ़ते हैं … अगस्त के प्रेत —— मूल लेखक : गैब्रिएल गार्सिया मार्खेज़ —— अनुवाद : सुशांत सुप्रिय   दोपहर से थोड़ा पहले हम अरेज़्ज़ो पहुँच गए , और हमने दो घंटे से अधिक का समय वेनेज़ुएला के लेखक मिगुएल ओतेरो सिल्वा द्वारा टस्कनी के देहात के रमणीय इलाक़े में ख़रीदे गए नवजागरण काल के महल को ढूँढ़ने में बिताया । वह अगस्त के शुरू के दिनों का एक जला देने वाला , हलचल भरा रविवार था और पर्यटकों से ठसाठस भरी गलियों में किसी ऐसे व्यक्ति को ढूँढ़ना आसान नहीं था जिसे कुछ पता हो । कई असफल कोशिशों के बाद हम वापस अपनी कार के पास आ गए , और हम सरू के पेड़ों की क़तार वाली , किंतु बिना किसी मार्ग-दर्शक संकेत वाली सड़क के रास्ते शहर से बाहर निकल आए । रास्ते में ही हमें हंसों की देख-भाल कर रही एक वृद्ध महिला मिली , जिसने हमें ठीक वह जगह बताई जहाँ वह महल स्थित था । हमसे विदा लेने से पहले उसने हमसे पूछा कि क्या हम रात उसी महल में बिताना चाहते हैं । हमने उत्तर दिया कि हम वहाँ केवल दोपहर का भोजन करने के लिए जा रहे हैं , जो हमारा शुरुआती इरादा भी था । “ तब तो ठीक है , “ उसने कहा , “ क्योंकि वह महल भुतहा है । “ मैं और मेरी पत्नी उस वृद्धा के भोलेपन पर हँस दिए क्योंकि हमें भरी दुपहरी में की जा कही भूत-प्रेतों की बातों पर बिल्कुल यक़ीन नहीं था । लेकिन नौ और सात वर्ष के हमारे दोनों बेटे इस विचार से बेहद प्रसन्न हो गए कि उन्हें किसी वास्तविक भूत-प्रेत से मिलने का मौका मिलेगा । मिगुएल ओतेरो सिल्वा एक शानदार मेज़बान होने के साथ-साथ एक परिष्कृत चटोरे और एक अच्छे लेखक भी थे , और दोपहर का अविस्मरणीय भोजन वहाँ हमारी प्रतीक्षा कर रहा था । देर से वहाँ पहुँचने के कारण हमें खाने की मेज़ पर बैठने से पहले महल के भीतरी हिस्सों को देखने का अवसर नहीं मिला , लेकिन उसकी बाहरी बनावट में कुछ भी डरावना नहीं था । यदि कोई आशंका रही भी होगी तो वह फूलों से सजी खुली छत पर पूरे शहर का शानदार दृश्य देखते हुए दोपहर का भोजन करते समय जाती रही । इस बात पर यक़ीन करना मुश्किल था कि इतने सारे चिर-स्थायी प्रतिभावान व्यक्तियों का जन्म मकानों की भीड़ वाले उस पहाड़ी इलाक़े में हुआ था , जहाँ नब्बे हज़ार लोगों के समाने की जगह बड़ी मुश्किल से उपलब्ध थी ।हालाँकि अपने कैरेबियाई हास्य के साथ मिगुएल ने कहा कि इनमें से कोई भी अरेज़्ज़ो का सबसे प्रसिद्ध व्यक्ति नहीं था । “ उन सभी में से महानतम तो ल्यूडोविको था , “ मिगुएल ओतेरो सिल्वा ने घोषणा की । ठीक वही उसका नाम था । उसके आगे-पीछे कोई पारिवारिक नाम नहीं जुड़ा था — ल्यूडोविको , सभी कलाओं और युद्ध का महान् संरक्षक । उसी ने वेदना और विपदा का यह महल बनवाया था । मिगुएल दोपहर के भोजन के दौरान उसी के बारे में बातें करते रहे । उन्होंने हमें ल्यूडोविको की असीम शक्ति , उसके कष्टदायी प्रेम और उसकी भयानक मृत्यु के बारे में बताया । उन्होंने हमें बताया कि कैसे ग़ुस्से से भरे पागलपन के उन्माद के दौरान ल्यूडोविको ने उसी बिस्तर पर अपनी प्रेमिका की छुरा भोंक कर हत्या कर दी , जहाँ उसने अभी-अभी उस प्रेमिका से सहवास किया था । फिर उसने ख़ुद पर अपने ख़ूँख़ार कुत्ते छोड़ दिए , जिन्होंने उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए । मिगुएल ने पूरी गम्भीरता से हमें आश्वस्त किया कि अर्द्ध-रात्रि के बाद ल्यूडोविको का प्रेत प्रेम के इस दुखदायी , अँधेरे महल में शांति की तलाश में भटकता रहता है । महल वाक़ई विशाल और निरानंद था । लेकिन दिन के उजाले में भरे हुए पेट और संतुष्ट हृदय के साथ हमें मिगुएल की कहानी केवल उन कई विपथनों में से एक लगी जिन्हें सुना कर वे अपने अतिथियों का मनोरंजन करते थे । दोपहर का आराम करने के बाद हम बिना किसी पूर्व-ज्ञान के महल के उन बयासी कमरों में टहलते-घूमते रहे जिनमें उस महल की कई पीढ़ियों के मालिकों ने हर प्रकार के बदलाव किए थे । स्वयं मिगुएल ने पूरी पहली मंज़िल का पुनरुद्धार कर दिया था । उन्होंने वहाँ एक आधुनिक शयन-कक्ष बनवा दिया था जहाँ संगमरमर का फ़र्श था , जिसके साथ वाष्प-स्नान की सुविधा थी , व्यायाम करने के उपकरण थे और चटकीले फूलों से भरी वह खुली छत थी जहाँ हमने दोपहर का भोजन किया था । सदियों से सबसे ज़्यादा इस्तेमाल की जाने वाली दूसरी कथा में अलग-अलग काल-खंडों की सजावट वाले एक जैसे साधारण कमरे थे , जिन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया था । लेकिन सबसे ऊपरी मंज़िल पर हमने एक कमरा देखा जो अक्षुण्ण रूप से संरक्षित था , जिसे समय भी भूल चुका था — ल्यूडोविको का शयन-कक्ष । वह पल जादुई था । पलंग वहाँ पड़ा था जिसके पर्दों में सोने के धागे से ज़रदोज़ी का काम किया गया था । बिस्तरें , चादरें आदि क़त्ल की गई प्रेमिका के सूखे हुए ख़ून की वजह से अकड़ गई थीं । कोने में आग जलाने की जगह थी जहाँ बर्फ़ीली राख और पत्थर बन गई अंतिम लकड़ी पड़ी हुई थी । हथियार रखने की जगह पर उत्कृष्ट क़िस्म के हथियार पड़े हुए थे और एक सुनहले चौखटे में विचारमग्न सामंत का बना तैल-चित्र दीवार की शोभा बढ़ा रहा था । इस तैल-चित्र को फ़्लोरेंस के किसी श्रेष्ठ चित्रकार ने बनाया था किंतु बदक़िस्मती से उसका नाम उस युग के बाद किसी को याद नहीं रहा । लेकिन जिस चीज़ ने मुझे वहाँ सबसे ज़्यादा प्रभावित किया वह न जाने … Read more

रात

                                               एक मासूम बच्चा रात में और  अँधेरे में फर्क नहीं करता , उसे लगता है जहाँ अँधेरा है वहां रात है | रात अलग है , दिन में भी कहीं , कोनों में अँधेरा हो सकता है ये बात उसे पिता ही समझाता है | परन्तु क्या जीवन की रात यानि वृद्धावस्था से जूझते पिता के इन अंधेरों को बेटा भी उसी तरह दूर करता है | सोचने पर विवश करती कहानी … रात  शाम ढल गई थी । रात का पंछी पंख पसारने लगा था । पिता अपने ढाई साल के बच्चे के साथ सड़क पर टहल रहा था । पश्चिमी क्षितिज पर छाए गुलाबी बादलों में प्रकृति का चित्रकार अब काला रंग भर रहा था ।               ” पापा , रात में अँधेरा होता है ? ”              ” हाँ , बेटा । ”              ” पापा , रात में कुछ नहीं दिखता ? ”              ” हाँ , मेरे बच्चे । ”               इस घटना के कुछ दिनों बाद बच्चा अपने खिलौने से खेल रहा था । खेलते-खेलते उसका खिलौना संदूक के नीचे चला गया । पिता पास बैठा अख़बार पढ़ रहा था ।               ” पापा , पापा । मेरा खिलौना अंदर चला गया है । निकाल दो । ”              ” बेटा , नीचे झुको और हाथ अंदर डाल कर खिलौना निकाल लो । अब तो आप बड़े हो रहे हो । शाबाश । ”               बच्चा ज़मीन पर लेटकर संदूक के नीचे देखने लगा । पर उसने अपना हाथ अंदर नहीं डाला । उसकी आँखों में भय की महीन रेखा उभर आई ।              ” पापा , अंदर रात है । अँधेरा है । ”  पिता यह सुनकर मुस्कराया । वह बच्चे को खिडकी के पास ले गया ।               ” बेटा , देखो । अभी दिन है , रात नहीं । सूरज आकाश में चमक रहा है । चारों ओर रोशनी है । ”                फिर वह बेटे के साथ ज़मीन पर बैठकर झुका और उसे संदूक के नीचे दिखाते हुए बोला — ” अंदर अँधेरा तो है पर रात नहीं है , बेटा । ज़रूरी नहीं कि जहाँ अँधेरा हो , वहाँ रात भी हो । ”                बच्चे को उसका खिलौना मिल गया था । वह खेलने में मस्त हो गया ।  पढ़िए -ताई की बुनाई               समय का रथ अबाध गति से चलता रहा ।               तीस साल बीत गए । अब बेटा बड़ा हो गया था । वह नौकरी करने लगा था । उसकी शादी हो गई थी और उसका एक बच्चा भी था ।                 पिता अब बूढ़ा हो गया था । बुढ़ापा अपने-आप में ही बीमारी होती है । ऊपर से उसकी आँखों में मोतियाबिंद उतर आया था । सब धुँधला-धुँधला लगता था । आँखों के आगे अँधेरा-सा छाया रहता था । वह पिछले छह महीने से बेटे से कह रहा था , ” बेटा , मुझे किसी डॉक्टर को दिखा दो । मेरा ऑपरेशन करवा दो । ठीक से दिखता नहीं है । कई बार ठोकर खा कर गिर चुका हूँ । घुटने छिल गए हैं । धोती फट गई है । आँखों की रोशनी बुझती जा रही है … ”               पर बेटा अपने जीवन में व्यस्त था । वह एक बहु-राष्ट्रीय कंपनी में मैनेजर था । दिन कंपनी के नाम था । रात बीवी-बच्चे के नाम थी । पिता के लिए उसके पास समय नहीं रह गया था । पिता घर में पड़े किसी फ़ालतू सामान-सा उपेक्षित जीवन जी रहा था ।               एक दिन बेटा हमेशा की तरह देर-शाम दफ़्तर  से घर पहुँचा । अपने बेड-रूम में जाते हुए उसने पिता के कमरे में झाँका । । वहाँ अँधेरा था । उसने ध्यान से देखा । पिता अँधेरे में ही बिस्तर पर बैठा था । उससे रहा नहीं गया — ” क्या , पिताजी ! शाम ढल चुकी है । रात हो गई है । और आप कमरे में अँधेरा किए बैठे हैं । कम-से-कम उठ कर लाइट तो जला ली होती । यह इंसानों के रहने का घर है । शाम के समय घर में बत्ती नहीं जलाना अपशकुन माना जाता है । ”              और इतना कह कर उसने कमरे की बत्ती जला दी । कमरे में उजाला हो गया ।              पिता ने चाहा कि वह कहे — ” बेटा , मेरा सूरज तो तू था । जब तूने ही मुझसे मुँह मोड़ लिया तो मेरे जीवन में कैसी रोशनी ? तूने कमरे में तो उजाला कर दिया पर मेरे भीतर जो अँधेरा छा गया है , मेरे जीवन में जो रात उतर आई है , उसे कौन-सा बल्ब दूर करेगा ? ”  पढ़िए -दलदल             पर बेटा तब तक अपने कमरे में लौट गया था । अचानक पिता तीस साल पीछे चला गया जब बेटे का खिलौना संदूक के नीचे चला गया था और बेटे ने उससे कहा था — ” पापा , अंदर रात है , अँधेरा है । ”              उस दिन उसने बेटे को समझाया था  — ” बेटा , ज़रूरी नहीं कि जहाँ अँधेरा होता है , वहाँ रात भी हो । ”             पर आज उसे लगा कि शायद तब बेटे ने ठीक कहा था । जहाँ अँधेरा होता है , वहाँ रात भी होती है । उसकी आँखों में अँधेरा भरा हुआ था । और उसके मन में एक अंतहीन रात उतर आई थी … Read more

दलदल

   यूँ तो दलदल हर चीज को निगल जाता है , इसलिए बहुधा हम दलदल केपास जाने से  बचते हैं पर एक दलदल और है जो हमारे व्यक्तित्व को निगल जाता है वो है डर का दलदल | डर जो हमें अपने अंदर खींचता रहता है और आगे बढ़ने से  रोक देता है, जरूरत है इस दलदल से बाहर निकलने की | पढ़िए वरिष्ठ कथाकार सुशांत सुप्रिय की कहानी -दलदल   कहानी -दलदल  “ मैं उस समय बारह साल का था । वह दस साल का रहा होगा । वह — मेरा सबसे अच्छा मित्र सुब्रोतो । ” बूढ़े की भारी आवाज़ कमरे में गूँज उठी । वह हमें अपने जीवन की सत्य-कथा सुना रहा था ।         कुछ पल रुक कर बूढ़े ने फिर कहना शुरू किया , ” मेरा जन्म सुंदरबन इलाक़े के पास एक गाँव में हुआ । गाँव से दो मील दूर दक्षिण में दलदल का इलाक़ा था । पिता मछुआरे थे जो गाँव के उत्तर में बहती नदी से मछलियाँ पकड़ने का काम करते थे । पिता बताते थे कि पच्चीस-तीस मील दूर जा कर यह नदी एक बड़ी नदी में मिल जाती थी । गाँव के पूरब और पश्चिम की ओर घने जंगल थे ।       मेरा मित्र सुब्रोतो बचपन में ही अपाहिज हो गया था । पोलियो की वजह से उसकी एक टाँग हमेशा के लिए बेकार हो गई थी । पर मेरी सभी शरारतों और खेलों में वह मेरा भरपूर साथ निभाने की कोशिश करता था । सुब्रोतो की आवाज़ बहुत सुरीली थी । वह बहुत मीठे स्वर में गीत गाता था । उसके गाए गीत सुन कर मैं मस्त हो जाता था ।        हमें गाँव के दक्षिण में स्थित दलदली इलाक़े की ओर जाने की सख़्त मनाही थी ।उस दलदल के भुतहा होने के बारे में अनेक तरह की कहानियाँ प्रचलित थीं । हम बच्चे अक्सर गाँव के उत्तर में बहती नदी के किनारे जा कर खेलते थे । मैं नदी में किनारे के पास ही तैरता रहता जबकि सुब्रोतो किनारे पर बैठा नदी के पानी में एक कोण से चपटे पत्थर फेंक कर उन्हें पानी की सतह पर फिसलता हुआ देखता ।       अपने हम-उम्र बच्चों के बीच मैं बड़ा बहादुर माना जाता था । दरअसल मैंने एक बार गाँव में घुस आए एक लकड़बग्घे पर पत्थर फेंक-फेंक कर उसे गाँव से बाहर भगा दिया था । एक बार नदी किनारे खेलते-खेलते गाँव के कुछ बच्चों ने मुझे चुनौती दी कि क्या मैं गाँव के दक्षिण के दलदली इलाक़े में अकेला जा सकता था ? बात जब इज़्ज़त पर बन आई तो मैंने चुनौती मान ली । हालाँकि सुब्रोतो ने मुझे ऐसा करने से मना किया पर तब तक मैंने हामी भर ली थी । यह तय हुआ कि कल मैं गाँव के दक्षिण में स्थित दलदली इलाक़े में जाऊँगा और सकुशल लौट कर दिखाऊँगा ।         नियत दिन सुबह गाँव के सभी बच्चों की टोली गाँव के दक्षिणी छोर पर पहुँची । मैं और सुब्रोतो भी उन सब के साथ थे । मुझे दो मील दूर के दलदली इलाक़े में जा कर कुछ समय वहाँ बिताना था और फिर सकुशल वापस लौट कर दिखाना था । सबूत के लिए मुझे दलदल की कुछ गीली मिट्टी साथ ले जाए जा रहे थैले में भर कर वापस लानी थी । बाक़ी बच्चे वहीं मेरा इंतज़ार करने वाले थे । उस दलदली इलाक़े में जाने से सभी डरते थे ।         लेकिन ऐन मौक़े पर मुझे भी उस दलदली इलाक़े में अकेले जाने में डर लगने लगा । मैंने बाक़ी बच्चों से इजाज़त माँगी कि मेरा प्रिय मित्र सुब्रोतो भी मेरे साथ जाएगा । बाक़ी बच्चे बड़ी मुश्किल से माने पर सुब्रोतो ने दलदली इलाक़े में जाने से साफ़ इंकार कर दिया । जब मैंने उसे हमारी मित्रता का वास्ता दे कर भावुक किया तब जा कर वह मेरे साथ चलने के लिए तैयार हुआ ।         आख़िर उस सूर्य-जले दिन हमने अपना सफ़र शुरू किया । दो-ढाई मील चल कर अंत में हम दोनों उस इलाक़े में पहुँच गए । सामने खदकता हुआ दलदल था जिसमें डरावने बुलबुले फूट रहे थे और अजीब-सी भाफ़ उठ रही थी । दलदल के किनारे से कुछ दूर पहुँच कर हम दोनों बैठ गए । सुब्रोतो लँगड़ा कर चलने की वजह से बेहद थक गया था और हाँफ रहा था । लेकिन असली काम तो अभी बाक़ी था । सबूत के तौर पर हमें दलदल की थोड़ी गीली मिट्टी साथ लाए थैले में भर कर वापस ले जानी थी ।         सुब्रोतो को वहीं छोड़ कर मैं दलदल की ओर आगे बढ़ा । ज़मीन घास, मरे हुए पत्तों और फिसलन भरी काई से ढँकी हुई थी । ठीक से कुछ पता नहीं चल रहा था कि कहाँ ठोस ज़मीन ख़त्म हो गई थी और गहरा दलदल शुरू हो गया था ।        अगला क़दम ज़मीन पर रखते ही मैंने पैर को धँसता हुआ महसूस किया । इससे पहले कि मैं सँभल पाता , मेरा दूसरा पैर भी दलदल में धँसने लगा था ।        मैं सुब्रोतो का नाम ले कर ज़ोर से चिल्लाया । लेकिन जब तक सुब्रोतो लँगड़ाते हुए मेरे पास पहुँचता , मैं कमर तक दलदल में धँस गया था । जैसे नदी में डूबता हुआ आदमी तिनके को भी सहारा समझ कर बचने के लिए व्याकुल हो कर छटपटाता है , उसी तरह मैंने भी सुब्रोतो के अपनी ओर बढ़े हुए हाथ को कस कर अपने हाथों में पकड़ लिया और व्याकुल हो कर छटपटाते हुए ख़ुद को किसी तरह दलदल से बाहर निकालना चाहा । लेकिन जब मैंने उसके हाथ के सहारे दलदल से बाहर निकलने की कोशिश की तो इस खींच-तान में सुब्रोतो के पैर की किनारे पर से पकड़ ढीली हो गई और वह भी मेरे साथ ही उस दलदल में आ गिरा । देखते-ही-देखते वह भी दलदल में कमर तक धँस गया । दलदल हर पल हम दोनों पर अपना शिकंजा कसते हुए हमें नीचे खींचता जा रहा था ।       घबरा कर मैंने  इधर-उधर देखा … Read more

सावन में लग गई आग , दिल मेरा …

                                                                                                       नरिंदर कुमार रोमांटिक और भावुक क़िस्म का आदमी था । उसे एक लड़की से इश्क़ हो गया । भरी जवानी में इश्क़ होना स्वाभाविक था । अस्वाभाविक यह था कि उस समय पंजाब में आतंकवाद का ज़माना था । नरिंदर कुमार हिंदू था । जिस लड़की से उसे इश्क़ हुआ , वह जाट सिख थी । पर यह तो कहीं लिखा नहीं था कि एक धर्म के युवक को दूसरे मज़हब की युवती से इश्क़ नहीं हो सकता । लिहाज़ा नरिंदर कुमार ने इन बातों की ज़रा भी परवाह नहीं की । इश्क़ होना था , हो गया ।  सावन में लग गई आग , दिल मेरा …               शुरू में उसका इश्क़ ‘ वन-वे ट्रैफ़िक ‘ था । लड़की उसी के मोहल्ले में रहती थी । नाम था नवप्रीत कौर संधू । नरिंदर को लड़की पसंद थी । उसका नाम पसंद था । उसकी भूरी आँखें पसंद थीं । उसकी ठोड़ी पर मौजूद नन्हा-सा तिल पसंद था । उसका छरहरा जिस्म पसंद था ।                लड़की को नरिंदर में कोई दिलचस्पी नहीं थी । लड़की को इश्क़ में कोई दिलचस्पी नहीं थी । यह नरिंदर के इश्क़ की राह में एक बड़ी बाधा थी । पर वह मजनू ही क्या जो अपनी लैला को पटा न सके ! लिहाज़ा नरिंदर तन-मन-धन से इस सुकार्य में लग गया । बड़े-बुज़ुर्ग कह गए हैं कि यदि किसी कार्य में सफल होना है तो अपना सर्वस्व उसमें झोंक दो । इसलिए नरिंदर ‘ मिशन-मोड ‘ में आ गया । वह उन दिनों अमृतसर के गुरु नानक देव वि.वि. से अंग्रेज़ी में एम. ए. कर रहा था ।  ‘ रोमांटिक पोएट्री ‘ पढ़ रहा था । वह इश्क़ की उफ़नती नदी में कूद गया और हहराते मँझधार में पहुँच कर हाथ-पैर मारने लगा ।                नवप्रीत को यदि ख़ूबसूरत कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । तीखे नैन-नक़्श , गेंहुआ रंग , छरहरी कमनीय काया , सलोना चेहरा । नरिंदर ने जवानी में क़दम रखा और विधाता की इस गुगली के सामने क्लीन-बोल्ड हो गया । लेकिन आलम यह कि इश्क़ के खेल में आउट हो कर भी वह खुश था । दिल हाथ से जा चुका था पर अगली इनिंग्स का इंतज़ार था । मन में निश्चय था कि अगली बार वह इश्क़ के मैदान में डबल सेंचुरी ठोक कर ही लौटेगा । अगली बार मौक़ा मिलते ही वह धैर्य के साथ इश्क़ के मैदान की क्रीज़ पर डट गया । उसने एक साथ सचिन तेंदुलकर , राहुल द्रविड़ और वी. वी. एस. लक्ष्मण की ख़ूबियों को आत्म-सात करके  विधाता की बॉलिंग खेलनी शुरू कर दी ।                पहले कुछ ओवर बेहद ख़तरनाक थे । नवप्रीत-रूपी नई गेंद बहुत स्विंग कर रही थी । मेघाच्छादित आकाश में गेंद उसे बार-बार छका कर बीट कर जाती । वह नवप्रीत-रूपी गेंद को स्क्वेयर-कट मारना चाहता लेकिन स्विंग हो रही गेंद हवा में थर्ड-मैन की दिशा में चली जाती । लेकिन यहीं नरिंदर ने राहुल द्रविड़ की शैली में इश्क़ की क्रीज़ पर लंगर डाल दिया । ठुक-ठुक , ठुक-ठुक करते हुए वह मनचाहे स्कोर की ओर बढ़ने लगा । उसने अपनी बहन हरलीन को प्रेरित किया कि वह नवप्रीत से दोस्ती करे । दोनों एक ही उम्र की थीं । उधर इन दोनों की मित्रता हुई ,  इधर नरिंदर को लगा जैसे विकट परिस्थितियों में एक हरी घास वाली उछाल भरी पिच पर उसने जूझते हुए पचास रन बना लिए हैं ।                फिर नवप्रीत हरलीन से मिलने उनके घर आने लगी । नरिंदर तो कब से ताक में था ही । नवप्रीत से ‘ हलो-हाय ‘ हुई । फिर बातचीत होने लगी । नरिंदर को पता चला कि नवप्रीत खालसा कॉलेज से एम.ए. ( पंजाबी ) कर रही है । फिर तो नरिंदर और नवप्रीत के बीच अकसर साहित्य-चर्चा होने लगी । नरिंदर ने प्रसिद्ध पंजाबी कवि सुरजीत पातर की कविताएँ पढ़ी थीं । नवप्रीत के प्रिय कवि भी सुरजीत पातर ही थे । इधर दोनों को बातचीत के लिए ‘ कॉमन ग्राउंड ‘ मिल गया , उधर नरिंदर को लगा जैसे उसने इश्क़ के मैच में विधाता की गेंद को ‘ टेम ‘ कर लिया है ।  उसे लगा जैसे उसने इस खेल में शतक ठोक डाला है ।                सावन का महीना था । काली घटाएँ आकाश में उमड़-घुमड़ रही थीं । ऐसे मौसम में नवप्रीत एक दिन हरलीन ले मिलने उनके घर आई । उसने फ़ीरोज़ी रंग का पटियाला सूट पहना हुआ था । इत्तिफ़ाक़ से घर के सभी लोग एक रिश्तेदार की शादी में गए थे । नरिंदर की परीक्षा चल रही थी । लिहाज़ा वह पढ़ाई करने के महती कार्य के नाम पर घर पर ही था । अब यह बात नवप्रीत को तो पता नहीं थी । या यह भी हो सकता है कि उसे यह बात अच्छी तरह पता थी । कुछ भी हो , नवप्रीत आई और नरिंदर ने उसकी आव-भगत की । साहित्य-चर्चा होने लगी । रोमांटिक कविता की विशेषताओं की चर्चा करते-करते हमारे नायक ने बेहद रोमानी अंदाज़ में अपनी नायिका का हाथ पकड़ कर उसे चूम लिया । यदि यह कथा कालांतर में घटी होती तो नरिंदर गायक मीका की शैली में अपनी नायिका के सामने गा उठता — ” सावन में लग गई आग , दिल मेरा …। ” ऐसा इसलिए क्योंकि बरसों बाद उसे मीका का गाया यह गाना बेहद पसंद आया था ।                 पर उस समय तो नवप्रीत नाराज़ हो गई । या कम-से-कम उसने नाराज होने का अभिनय ज़रूर किया । नरिंदर घुटनों के बल बैठ कर रोमियो की शैली में अपने सच्चे प्यार … Read more

हत्यारे

हत्यारे -अर्नेस्ट हेमिंग्वे की कहानी ‘ द किलर्स ‘ का हिंदी में अनुवाद  ) ‘ हेनरी भोजनालय ‘ का दरवाज़ा खुला और दो व्यक्ति भीतर आए । वे एक मेज़ के साथ लगी कुर्सियों पर बैठ गए ।  ” आप क्या लेंगे ? ” जॉर्ज ने उनसे पूछा ।  ” पता नहीं ,” उनमें से एक ने कहा । ” अल , तुम क्या लेना चाहोगे ? “  ” पता नहीं , ” अल ने कहा । ” मैं नहीं जानता , मैं क्या लूँगा । “                बाहर अँधेरा होने लगा था । खिड़की के उस पार सड़क की बत्तियाँ जल गई थीं । भीतर बैठे दोनों व्यक्तियों ने मेनू-कार्ड पढ़ा । हॉल के दूसरी ओर से निक ऐडम्स उन्हें देख रहा था । जब वे दोनों भीतर आए , उस समय वह जॉर्ज से बातें कर रहा था ।                ” मैं सूअर का मुलायम भुना हुआ गोश्त , सेब की चटनी और आलू का भर्ता लूँगा , ” पहले आदमी ने कहा ।               ” यह सब अभी तैयार नहीं है । “                ” तो फिर तुमने इसे मेनू-कार्ड में क्यों लिख रखा है ? “               ” यह रात का खाना है , ” जॉर्ज ने बताया । ” यह सब आपको छह बजे के बाद मिलेगा । “                जॉर्ज ने पीछे लगी दीवार-घड़ी की ओर देखा ।                ” अभी पाँच बजे हैं । “                ” लेकिन घड़ी में तो पाँच बज कर बीस मिनट हो रहे हैं , ” दूसरे आदमी ने कहा ।                ” घड़ी बीस मिनट आगे चल रही है । “                ” भाड़ में जाए तुम्हारी घड़ी , ” पहला आदमी बोला । ” खाने के लिए क्या मिलेगा ? “                ” मैं आप को किसी भी तरह का सैंडविच दे सकता हूँ , ” जॉर्ज ने कहा । ” मैं आप को सूअर का सूखा मांस और अंडे , या सूअर का नमकीन मांस और अंडे , या फिर टिक्का दे सकता हूँ । “                ” तुम मुझे मुर्ग़ का मांस , भुनी हुई मटर , क्रीम की सॉस और आलू का भर्ता दो । “                ” यह सब रात का खाना है । “                ” हमें जो भी चीज़ चाहिए , वह रात का ख़ाना हो जाता है ? तो ऐसी बात है ! “                ” मैं आप को सूअर का सूखा मांस और अंडे , सूअर का नमकीन मांस और अंडे , कलेजी — “                ” मैं सूअर का सूखा मांस और अंडे लूँगा , ” अल नाम के आदमी ने कहा । उसने एक टोपी और लम्बा कोट पहना हुआ था जिसके बटन उसकी छाती पर लगे हुए थे । उसका चेहरा छोटा और सफ़ेद था और उसके होंठ सख़्त थे । उसने रेशमी मफ़लर और दस्ताने पहन रखे थे ।               ” मेरे लिए सूअर का नमकीन मांस और अंडे ले आओ , ” दूसरे आदमी ने कहा । क़द में वह भी अल जितना ही था। हालाँकि उनके चेहरे-मोहरे अलग थे पर दोनों ने एक जैसे कपड़े पहन रखे थे , जैसे वे जुड़वाँ भाई हों । दोनों ने बेहद चुस्त ओवरकोट पहना हुआ था और दोनों मेज़ पर अपनी कोहनियाँ टिकाए , आगे की ओर झुककर बैठे हुए थे ।               ” पीने के लिए क्या है ? ” अल ने पूछा ।               ” कई तरह की बीयर है , ” जॉर्ज ने कहा ।               ” मैं वाक़ई ‘ पीने ‘ के लिए कुछ माँग रहा हूँ । “               ” जो मैंने कहा , वही है । “               ” यह बड़ा गरम शहर है , ” दूसरा आदमी बोला । ” इस शहर का नाम क्या है ? “               ” सम्मिट ।”               ” क्या कभी यह नाम सुना है ? ” अल ने अपने साथी से पूछा ।               ” कभी नहीं । “               ” यहाँ रात में तुम लोग क्या करते हो ? ” अल ने पूछा ।               ” वे यहाँ आ कर रात का खाना खाते हैं , ” उसके साथी ने कहा । ” वे सब यहाँ आ कर धूम-धाम से रात का खाना खाते हैं ! “               ” हाँ , आपने ठीक कहा । ” जॉर्ज बोला ।              ” तो तुम्हें लगता है कि यह ठीक है ? ” अल ने जार्ज से पूछा ।               ” बेशक । “               ” तुम तो बेहद अक़्लमंद लड़के हो , नहीं ? “               ” बिल्कुल , ” जॉर्ज ने कहा ।              ” लेकिन तुम अक्लमंद नहीं हो , समझे ? ” छोटे क़द के दूसरे आदमी ने कहा । ” तम क्या कहते हो अल ? “               ” यह बेवक़ूफ़ है , ” अल बोला । फिर वह निक की ओर मुड़ा । ” तुम्हारा नाम क्या है ? “               ” ऐडम्स । “               ” एक और अक़्लमंद लड़का , ” अल बोला । ” क्या यह अक़्लमंद नहीं है , मैक्स ? “               ” यह पूरा शहर ही अक़्लमंदों से भरा हुआ है , ” मैक्स ने कहा ।       … Read more

डर -science fiction

                                                      दिनकर की टाइम-मशीन 2140 में आ पहुँची थी । वहाँ वह धरती की बर्बादी के भयावह दृश्य देखकर सन्न रह गया । चारों ओर ढह चुके भवनों के अवशेष थे । ध्वस्त शहरों का मलबा था । दूर-दूर तक एक भी साबुत बची इमारत या पेड़-पौधा नज़र नहीं आ रहा रहा था । कहीं-कहीं ज़मीन जल कर काली पड़ गई थी । जगह-जगह चिपके हुए धातु के गले हुए टुकड़े अतीत में घट चुके किसी महा-विनाश का संकेत दे रहे थे । बाक़ी जगहें बर्फ़ से ढँकी हुई थीं ।   डर -science fiction                 दिनकर ने टाइम-मशीन में लगे सुपर-कम्प्यूटर से इसकी वजह पूछी । सुपर-कम्प्यूटर ने बताया कि कई दशक पहले 2080 में तृतीय विश्व-युद्ध हुआ था जिसमें सारी मानवता नष्ट हो गई थी । पश्चिमी दुनिया के अमेरिका और यूरोपीय देश एक ओर थे जबकि चीन और उत्तर कोरिया का गठबंधन दूसरी ओर था । दोनों ओर से घातक परमाणु-अस्त्रों और प्रक्षेपास्त्रों का प्रयोग किया गया था , जिसकी वजह से धरती पर मौजूद पशु-पक्षी , पेड़-पौधे , मनुष्य और इमारतें आदि सब नष्ट हो गई थीं । इस त्रासद युद्ध के बाद धरती पर लगभग तीस वर्षों तक ‘ न्यूक्लिअर विंटर ‘ या ‘ परमाणु सर्दी ‘ छाई रही । इसने धरती पर से बचे हुए जीव-जंतुओं का नामो-निशान भी मिटा दिया — सुपर-कम्प्यूटर के स्क्रीन पर उपलब्ध यह जानकारी पा कर दिनकर स्तब्ध रह गया । वह अपने टाइम-मशीन की मदद से तृतीय विश्व-युद्ध के बाद के छठे दशक की बंजर , बियाबान और उजड़ी धरती पर पहुँच गया था ।  फेसबुक की दोस्ती                  पहले तो दिनकर अपना सिर पकड़ कर बैठ गया । वह 2040 के अपने काल से अपने टाइम-मशीन में बैठ कर भविष्य की सैर के लिए निकला था । उसने सोचा था कि वह भविष्य में सौ साल आगे जा कर मनुष्यता की प्रगति को देखेगा । कितनी उम्मीद ले कर वह 2140 के काल में पहुँचा था । किंतु अब इस नष्ट दुनिया को देखकर उसका मन किया कि वह विलाप करे ।                   किसी तरह दिनकर ने खुद को सँभाला । फिर उसके दिमाग़ में कुछ विचार आने लगे । उस के पास अभी भी उसकी प्रिय टाइम-मशीन मौजूद थी । क्यों न मैं तृतीय विश्व-युद्ध से एक साल पहले , यानी 2079 में जा कर इस युद्ध को रोकने का प्रयास करूँ — उसने सोचा । इसमें ख़तरा तो बहुत होगा , पर यदि मैं किसी तरह इस कार्य में सफल हो गया , तो शायद मेरी धरती भविष्य में बची रह जाएगी । उसने तत्काल टाइम-मशीन के बटनों को 2079 की तिथि में लगा दिया । उसके हरा बटन दबाने पर वह और उसकी टाइम-मशीन पलक झपकते ही 2079 में प्रक्षेपित हो गई …                 वह शाम का समय था जब परछाइयाँ लम्बी हो रही थीं । दिनकर की टाइम-मशीन वापस उसके घर के बड़े-से आँगन में उसके अपने समय 2040 में प्रकट हो गई । वह बेहद थका और घबराया हुआ लग रहा था । घर के भीतर से बाहर आँगन में आते हुए उसकी पत्नी ने कहा , ” अरे , आप वापस आ गए ! शुक्र है भगवान का । मुझे तो फ़िक्र हो रही थी । देखिए , यह टाइम-मशीन एक दिन आपको हम सब से दूर कर देगी । । मैं कह देती हूँ — मुझे ग़ुस्सा आ गया तो एक दिन मैं आपकी इस मुई टाइम-मशीन को आग लगा दूँगी । आइ विल डेस्ट्रॉय इट वन डे , हाँ ! ”                    ” अरे जान , क्यों कोस रही हो इस टाइम-मशीन को । इसी की वजह से आज मैं भविष्य की अपनी दुनिया बचा कर लौटा हूँ । ” दिनकर ने सफ़ाई दी ।                    ” ऐसा क्या गुल खिला दिया आपने , ज़रा मैं भी तो सुनूँ ! ” पत्नी बड़े धाँसू अंदाज़ में बोली ।                    ” कुछ ख़ास नहीं जान । जब मैं 2140 में पहुँचा तो मुझे पता चला कि 2080 में हुए तृतीय विश्व-युद्ध में परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की वजह से हमारी धरती पर से सारा जीवन नष्ट हो गया था । इसलिए मुझे 2079 में जा कर 2080 में होने वाले विनाशकारी युद्ध को रोकना पड़ा । ” दिनकर बोला ।                    ” आपने युद्ध को कैसे रोका ? ” पत्नी ने उत्सुकता से पूछा ।                    ” देखो , यह बात अपने तक ही रखना । मैंने 2079 में जा कर 2080 में होने वाले युद्ध को रोकने के लिए एक गुप्त योजना बनाई । उस योजना के तहत मैंने उस समय मौजूद अमेरिका के शासक और चीन और उत्तर कोरिया के तानाशाहों को मरवा दिया । यह मत पूछना कि यह सब मैंने कैसे किया । यह एक लम्बी कहानी है जो फिर कभी सुनाऊँगा । तीनों शासकों की हत्या होते ही उन देशों में नए शासक आ गए और तृतीय विश्व-युद्ध टल गया । ”                    ” पर आप इतने घबराए हुए क्यों लग रहे हैं ? आपने तो धरती को बचाने के लिए भलाई का काम किया । और अब आप वापस अपने समय 2040 में हम सब के पास सुरक्षित लौट आए हैं । ” पत्नी ने पूछा ।                   अपने माथे पर से पसीना पोंछते हुए दिनकर बोला — ” जान , 2079 के शासकों के पास भी तो टाइम-मशीन होगी । मैं भविष्य के समय का एक फ़रार मुजरिम हूँ । यदि उस समय की सुरक्षा-एजेंसियाँ टाइम-मशीन की मदद से मुझे ढूँढ़ते हुए मेरे युग 2040 में … Read more

चेखव की अनूदित रूसी कहानी – दुःख

” मैं अपना दुखड़ा किसे सुनाऊँ ? “             शाम के धुँधलके का समय है । सड़क के खम्भों की रोशनी के चारों ओर बर्फ़ की एक गीली और मोटी परत धीरे-धीरे फैलती जा रही है । बर्फ़बारी के कारण  कोचवान योना पोतापोव किसी सफ़ेद प्रेत-सा दिखने लगा है । आदमी की देह जितनी भी मुड़ कर एक हो सकती है , उतनी उसने कर रखी है । वह अपनी घोड़ागाड़ी पर चुपचाप बिना हिले-डुले बैठा हुआ है । बर्फ़ से ढँका हुआ उसका छोटा-सा घोड़ा भी अब पूरी तरह सफ़ेद दिख रहा है । वह भी बिना हिले-डुले खड़ाहै । उसकी स्थिरता , दुबली-पतली काया और लकड़ी की तरह तनी सीधी टाँगें ऐसा आभास दिला रही हैं जैसे वह कोई सस्ता-सा मरियल घोड़ा हो ।              योना और उसका छोटा-सा घोड़ा , दोनों ही बहुत देर से अपनी जगह से नहीं हिले हैं । वे खाने के समय से पहले ही अपने बाड़े से निकल आए थे , पर अभी तक उन्हें कोई सवारी नहीं मिली है ।               ” ओ गाड़ी वाले , विबोर्ग चलोगे क्या ? ” योना अचानक सुनता है ,” विबोर्ग ! “                हड़बड़ाहट में वह अपनी जगह से उछल जाता है । अपनी आँखों पर जमा हो रही बर्फ़ के बीच से वह धूसर रंग के कोट में एक अफ़सर को देखता है , जिसके सिर पर उसकी टोपी चमक रही है ।                ” विबोर्ग ! ” अफ़सर एक बार फिर कहता है । ” अरे , सो रहे हो क्या ? मुझे विबोर्ग जाना है । “                चलने की तैयारी में योना घोड़े की लगाम खींचता है । घोड़े की गर्दन और पीठ पर पड़ी बर्फ़ की परतें नीचे गिर जाती हैं । अफ़सर पीछे बैठ जाता है । कोचवान घोड़े को पुचकारते हुए उसे आगे बढ़ने का आदेश देता है । घोड़ा पहले अपनी गर्दन सीधी करता है , फिर लकड़ी की तरह सख़्त दिख रही अपनी टाँगों को मोड़ता है और अंत में अपनी अनिश्चयी शैली में आगे बढ़ना शुरू कर देता है । योना ज्यों ही घोड़ा-गाड़ी आगे बढ़ाता है , अँधेरे में आ-जा रही भीड़ में से उसे सुनाई देता है , ” अबे , क्या कर रहा है , जानवर कहीं का ! इसे कहाँ ले जा रहा है , मूर्ख ! दाएँ मोड़ ! “                ” तुम्हें तो गाड़ी चलाना ही नहीं आता ! दाहिनी ओर रहो ! ” पीछे बैठा अफ़सर ग़ुस्से से चीख़ता है ।               फिर रुक कर , थोड़े संयत स्वर में वह कहता है , ” कितने बदमाश हैं …सब के सब ! ” और मज़ाक करने की कोशिश करते हुए वह आगे बोलताहै , ” लगता है , सब ने क़सम खा ली है कि या तो तुम्हें धकेलना है या फिर तुम्हारे घोड़े के नीचे आ कर ही दम लेना है ! “               कोचवान योना मुड़ कर अफ़सर की ओर देखता है । उसके होठ ज़रा-सा हिलते हैं । शायद वह कुछ कहना चाहता है ।                ” क्या कहना चाहते हो तुम ? ” अफ़सर उससे पूछता है ।                योना ज़बर्दस्ती अपने चेहरे पर एक मुस्कराहट ले आता है , और कोशिश करके फटी आवाज़ में कहता है , ” मेरा इकलौता बेटा बारिन इस हफ़्ते गुज़र गया साहब ! “                ” अच्छा ! कैसे मर गया वह ? “                 योना अपनी सवारी की ओर पूरी तरह मुड़ कर बोलता है , ” क्या कहूँ , साहब । डॉक्टर तो कह रहे थे , सिर्फ़ तेज़ बुखार था । बेचारा तीन दिन तक अस्पताल में पड़ा तड़पता रहा और फिर हमें छोड़ कर चला गया … भगवान की मर्ज़ी के आगे किसकी चलती है ! “                 ” अरे , शैतान की औलाद , ठीक से मोड़ ! ” अँधेरे में कोई चिल्लाया , ” अबे ओ बुड्ढे , तेरी अक़्ल क्या घास चरने गई है ? अपनी आँखों से काम क्यों नहीं लेता ? “                  ” ज़रा तेज चलाओ घोड़ा … और तेज … ” अफ़सर चीख़ा , ‘ नहीं तो हम कल तक भी नहीं पहुँच पाएँगे ! ज़रा और तेज ! ” कोचवान एक बार फिर अपनी गर्दन ठीक करता है , सीधा हो कर बैठता है और रुखाई से अपना चाबुक हिलाता है । बीच-बीच में वह कई बार पीछे मुड़ कर अपनी सवारी की तरफ़ देखता है , लेकिन उस अफ़सर ने अब अपनी आँखें बंद कर ली हैं । साफ़ लग रहा है कि वह इस समय कुछ भी सुनना नहीं चाहता ।                  अफ़सर को विबोर्ग पहुँचा कर योना शराबख़ाने के पास गाड़ी खड़ी कर देता है , और एक बार फिर उकड़ूँ हो कर सीट पर दुबक जाता है । दो घंटे बीत जाते हैं । तभी फुटपाथ पर पतले रबड़ के जूतों के घिसने की ‘ चूँ-चूँ , चीं-चीं ‘ आवाज़ के साथ तीन लड़के झगड़ते हुए वहाँ आते हैं । उन किशोरों में से दो लंबे और दुबले-पतले हैं जबकि तीसरा थोड़ा कुबड़ा और नाटा है ।                  ” ओ गाड़ीवाले ! पुलिस ब्रिज चलोगे क्या ? ” कुबड़ा लड़का कर्कश स्वर में पूछता है । ” हम तुम्हें बीस कोपेक देंगे । “ *      *      *      *      *      *       *       *      *      *      *      *     *      *    *                  योना घोड़े की लगाम खींचकर उसे आवाज़ लगाता है , जो … Read more

इश्क़ वो आतिश है ग़ालिब

                                                                                                सुमी                                 ——      करवट बदलते-से समय में वह एक उनींदी-सी शाम थी । एक मरते हुए दिन की उदास , सर्द शाम । काजल के धब्बे-सी फैलती हुई । छूट गई धड़कन-सी अनाम ।ऐसा क्या था उस शाम में ? धीरे-धीरे सरकती हुई एक निस्तेज शाम थी वह जिसे बाक़ी शामों के बासी फूलों के साथ समय की नदी में प्रवाहित किया जा सकताथा । उस शाम की चटाई को मोड़ कर मैंने रख दिया था एक किनारे ।      लेकिन ज़रूर कुछ अलग था उस शाम में । घुटने मोड़े वह शाम अपनी गोद में कोई ख़ास चीज़ समेटे थी । कौन जानता था तब कि उन यादों के रंग इतने चटखीले होंगे कि दस बरस बाद भी … कौन जानता था कि एक सलोना-सा सुख जो अधूरा रह गया था उस शाम , कि एक छोटी-सी बेज़ुबान इच्छा जो ख़ामोश रह गई थी उस शाम , आज न जाने कहाँ से स्वर पा कर कोयल-सी कूकने लगेगी मेरे जीवन में । कौन जानता था कि समय के अँधियारे में अचानक उस शाम की फुलझड़ियाँ जल उठेंगी और रोशन कर देंगी तन-मन को । मुझे कहाँ पता था कि उस शाम के बगीचे में मौलश्री के शर्मीले , ख़ुशबूदार फूल झरते रहे थे । आज कैसे दिसम्बर की वह शाम जून की इस सुबह में समय के आँगन में मासूम गिलहरी-सी फुदक रही है ।       यादों के समुद्र के इस पार मैं हूँ । समय की साँप-सीढ़ी से बेख़बर । वह शाम आज यादों के समुद्र-तट पर स्वागत के सिंह-द्वार-सी खड़ी है । मैं हैरान हूँ वहाँ तुम्हें खड़ा पा कर — लहरों के हहराते शोर के पास आश्वस्ति-सी एक सुखद उपस्थिति … कॉलेज में भैया के दोस्त थे तुम । हमारे यहाँ बेहद पढ़ाकू माने जाते थे तुम — शिष्ट और सौम्य-से । न जाने क्यों तुम्हें देख कर मेरे मन में गुदगुदी-सी होने लगती थी … तुम जब मुस्करा कर मुझे ‘ हलो सुमी ‘ कहते तो भीतर तक खिल जाती थी मैं — मेरे गालों की लाली से बेख़बर थे क्या तुम ? तुम्हारी हर अदा को कनखियों से देखती मैं तुम्हारी ख़ामोश उपस्थिति से भी खुश हो जाती ।        पहली बार यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी में मिले थे तुम मुझे — लम्बी चोटी में सलवार-क़मीज़ पहने एक परेशान-सी लड़की कोई किताब ढूँढ़ती हुई । तुमने उस दिन लाइब्रेरी की हर शेल्फ़ छान मारी थी और आख़िर वह किताब मुझे ढूँढ़ कर दे ही दी थी । मैं तुम्हारी कौन थी ? ऐसा क्यों था कि जब तुम काफ़ी दिनों तक दिखाई नहीं देते या घर नहीं आते तो मैं गुमसुम रहने लगती थी ? चाय में चीनी की बजाए नमक डाल देती थी ? दाल या सब्ज़ी बिना नमक वाली बना देती ? रात में कमरे की बत्ती जलती छोड़ कर चश्मा पहने-पहने सो जाती ?       जिस दिन पता चला कि तुम अब एम. बी. ए. की पढ़ाई करने आइ. आइ. एम., अहमदाबाद चले जाओगे , मैं बाथरूम में फिसल कर गिर गई थी । खाना बनाते समय मैंने अपना हाथ जला लिया था । उसी दिन मैंने यह कविता लिखी थी ।शीर्षक था : ” क्या तुम जानते हो , प्रिय ? ” । कविता थी : ” ओ प्रिय , मैं तुम्हारी आँखों में बसे / दूर कहीं के गुमसुम खोएपन से / प्यार करती हूँ , / मैं घाव पर / पड़ी-पपड़ी-सी / तुम्हारी उदास मुस्कान से / प्यार करती हूँ , / मैं हमारे बीच पड़ी /अनसिलवटी चुप्पी से भी / प्यार करती हूँ , / हाँ प्रिय / मैं उन पलों से भी / प्यार करती हूँ / जब एकाकीपन से ग्रस्त मैं / तुम्हारे चेहरे में / अपने लिए / आइना ढूँढ़ती रहती हूँ / और खुद को / बहुत पहले खो गई / किसी अबूझ लिपि के / चटखते अक्षर-सी / बिखरती महसूस करती हूँ … “        भैया को तुम्हारे प्रति मेरे आकर्षण का पता चल गया होगा तभी तो एक दिन उन्होंने मुझसे कहा था , ” सुमी , इंडिया में कास्ट एक बहुत बड़ा फ़ैक्टर होता है । हमें इसी समाज में रहना होता है । जात-पात के बंधनों को हम इग्नोर नहीं करसकते ।”         तुम और मैं — हम अलग-अलग जातियों के थे । तुम दलित थे जबकि मैं ब्राह्मण थी । हालाँकि इससे तुम्हारे प्रति मेरे आकर्षण में कोई अंतर नहीं पड़ा ।          वह शाम कैसी थी । उस शाम जब मैं बुखार में पड़ी थी , तुम भैया से मिलने घर आए थे । अगले दिन तुम अहमदाबाद जा रहे थे । क्या यह दैवी इत्तिफ़ाक़ नहीं था कि उस शाम घर पर और कोई नहीं था ? सब लोग एक शादी में गए थे ।         मैंने दरवाज़ा खोला था और तुम जैसे अधिकार-पूर्वक भीतर आ गए थे । क्या मेरा चेहरा बुखार की वजह से तप रहा था ? वर्ना तुमने कैसे जान लिया कि मेरी तबीयत ठीक नहीं थी ?         ” अरे सुमी , तुम्हें तो तेज बुख़ार है । ” मेरे माथे को छू कर तुमने कहा था ।         मेरे माथे पर तुम्हारे हाथों का स्पर्श पानी की ठंडी पट्टी-सा पड़ा था ।         ” दवाई ले रही हो कोई ? ” तुम्हारे स्वर में चिंता थी । ऐसा क्या था जो तुम्हें भी मेरी ओर खींचता था ? क्या तुम्हें इसका अहसास था ?         तुम देर तक मेरे सामने के सोफ़े पर बैठे रहे थे । क्या इस बीच मेरा बुखार बढ़ गया था ? मेरी आँखें मुँद-सी क्यों गई थीं ? जब आँखें खुली थीं तो तुम मेरे बगल में बैठे चिंतित स्वर में … Read more

एंटन चेखव की अनूदित रूसी कहानी कहानी निंदक – अनुवाद : सुशांत सुप्रिय

                                                                       सुलेख के शिक्षक सर्गेई कैपितोनिच अख़िनेयेव की बेटी नताल्या की शादी इतिहास और भूगोल के शिक्षक इवान पेत्रोविच लोशादिनिख़ के साथ हो रही थी । शादी की दावत बेहद कामयाब थी । सारे मेहमान बैठक में नाच-गा रहे थे । इस अवसर के लिए क्लब से किराए पर बैरों की व्यवस्था की गई थी । वे काले कोट और मैली सफ़ेद टाई पहने पागलों की तरह इधर-उधर आ-जा रहे थे । हवा में मिली-जुली आवाज़ों का शोर था । बाहर खड़े लोग खिड़कियों में से भीतर झाँक रहे थे । दरअसल वे समाज के निम्न-वर्ग के लोग थे जिन्हें विवाह-समारोह में शामिल होने की इजाज़त नहीं थी ।                मध्य-रात्रि के समय मेज़बान अख़िनेयेव यह देखने के लिए रसोई में पहुँचा कि क्या रात के खाने का इंतज़ाम हो गया था । रसोई ऊपर से नीचे तक धुएँ से भरी थी । हंसों और बत्तखों के भुनते हुए मांस की गंध धुएँ में लिपटी हुई थी । दो मेजों पर खाने-पीने का सामान कलात्मक बेतरतीबी से बिखरा हुआ था । लाल चेहरे वाली मोटी रसोइया मारफ़ा उन मेजों के पास व्यस्त-सी दिख रही थी ।               ” सुनो , मुझे पकी हुई स्टर्जन मछली दिखाओ , ” अपने हाथों को आपस में रगड़ते और जीभ से अपने होठों को चाटते हुए अख़िनेयेव ने कहा । ” क्या बढ़िया ख़ुशबू है ! मैं तो रसोई में रखा सारा खाना खा सकता हूँ ! अब ज़रा मुझे स्टर्जन मछली दिखाओ । “               मारफ़ा चल कर एक तख़्त के पास गई और उसने ध्यान से एक मैला अख़बार उठाया । उसके नीचे कड़ाही में एक पकी हुई बड़ी-सी मोटी मछली रखी हुई थी , जिसके ऊपर खजूर और गाजर के टुकड़े पड़े हुए थे । अख़िनेयेव ने स्टर्जन मछली पर निगाह डाली और चैन की साँस ली । उसका चेहरा खिल गया और उसकी आँखों में संतोष का भाव आ गया । वह झुका और उसने अपने मुँह से पहिये के चरमराने जैसी आवाज़ निकाली । वह थोड़ी देर वहीं खड़ा रहा । फिर खुश हो कर उसने अपनी उँगलियाँ चटकाईं और दोबारा अपने होठों से चटखारा लेने की आवाज़ निकाली ।              ” ओह ! हार्दिक चुम्बन की आवाज़ । मारफ़ा , तुम वहाँ किसे चूम रहीहो ? ” बगल वाले कमरे में से किसी की आवाज़ आई , और जल्दी ही दरवाज़े पर विद्यालय के शिक्षक वैन्किन का घने बालों वाला सिर नज़र आया । ” तुम यहाँ किसे चूम रही थी ? अहा ! बहुत अच्छे ! सर्गेई कैपितोनिच ! क्या शानदार बुज़ुर्ग हैं आप ! तो आप इस महिला के साथ हैं ! “              ” मैं किसी को नहीं चूम रहा था , ” अख़िनेयेव ने घबराहट में कहा , ” मूर्ख आदमी , तुम्हें यह बात किसने बताई ? मैं तो केवल अपने होठों से चटखारा लेने की आवाज़ निकाल रहा था क्योंकि मैंने बढ़िया पकी हुई मछली देखी थी । “             ” ये बहाने मुझे नहीं , किसी और को बताना , ” वैन्किन चहक कर बोला । उसके चेहरे पर एक चौड़ी मुस्कान फैल गई थी । फिर वह दरवाज़े से हटकर दूसरे कमरे में चला गया । अख़िनेयेव झेंप गया ।             ” शैतान ही जानता है कि इस घटना का नतीजा क्या होगा ! ” उसने सोचा ।” अब वह दूसरों से मेरी निंदा करता फिरेगा । बदमाश कहीं का ! उफ़्फ़ ! वह जंगली पूरे शहर के सामने मेरी इज़्ज़त उतार देगा ! “              अख़िनेयेव सहमता हुआ बैठक में दाखिल हुआ । वह चोर-निगाहों से यह देख रहा था कि वैन्किन क्या कर रहा है । वैन्किन पियानो के पास खड़ा था । उसका सिर झुका हुआ था और वह पुलिस इंस्पेक्टर की साली के कान में कुछ फुसफुसा रहा था । उसकी बात सुन कर वह महिला हँस रही थी ।             ” ज़रूर वह मेरी ही निंदा कर रहा है , ” अख़िनेयेव ने सोचा । ” शैतान उसका बेड़ा ग़र्क करे ! उस स्त्री ने वैन्किन की बातों को सच मान लिया है , तभी तो वह हँस रही है । हे ईश्वर ! नहीं , मैं इस बात को ऐसे ही नहीं छोड़ सकता । मुझे लोगों को सच्चाई बतानी ही पड़ेगी ताकि कोई भी वैन्किन की बातों पर यक़ीन न करे । मैं खुद इस बारे में सबको बताऊँगा ताकि अंत में वैन्किन की बातें मनगढ़ंत गप्प साबितहों । “              घबराहट में अपने सिर को खुजलाते हुए अख़िनेयेव चल कर पदेकोई के पास पहुँचा ।             ” अभी थोड़ी देर पहले मैं रात के खाने की तैयारी देखने के लिए रसोई में गया था ,” उसने अपने फ़्रांसीसी मेहमान से कहा । ” मुझे पता है , आप को मछली पसंद है । इसलिए मैने एक ख़ास बड़ी स्टर्जन मछली का इंतज़ाम किया है । लगभग दो गज लम्बी मछली ! हा, हा हा ! अरे वह बात आपको बताना तो मैं भूल ही गया । रसोई में उस स्टर्जन मछली से जुड़ा एक क़िस्सा मैं आपको बताता हूँ । थोड़ी देर पहले मैं रात के खाने का इंतज़ाम देखने के लिए रसोई में गया । अच्छी तरह से पकी स्टर्जन मछली को देखकर मैंने होठों से चटखारा लिया । वह बड़ी मसालेदार मछली लग रही थी । तभी वह मूर्ख वैन्किन रसोई के दरवाज़े पर आया और कहने लगा —  हा,हा,हा ! और कहने लगा — ‘ आहा ! तो तुम यहाँ मारफ़ा को चूम रहे हो ! आप ही सोचिये — रसोइये का चुम्बन ! क्या मनगढ़ंत बात थी ! महामूढ़ व्यक्ति ! वह औरत वैसे ही दिखने में बदसूरत है । … Read more