पिता की अस्थियां ….
पिता , बस दो दिन पहले आपकी चिता का अग्नि-संस्कार कर लौटा था घर …. माँ की नजर में खुद अपराधी होने का दंश सालता रहा … पैने रस्म-रिवाजों का आघात जगह जगह ,बार बार सम्हालता रहा …. आपके बनाए दबदबा,रुतबा,गौरव ,गर्व अहंकार का साम्राज्य , होते देखा छिन्न-भिन्न, मायूसी से भरे पिछले कुछ दिन… खिंचे-खिंचे से चन्द माह , दबे-दबे से साल गुजार दी आपने बिना किसी शिकवा बिना शिकायत दबी इच्छाओं की परछाइयां न जाने किन अँधेरे के हवाले कर दी एक खुशबु पिता की पहले छुआ करती थी दूर से विलोपित हो गई अचानक न जाने कहाँ …? न जाने क्यों मुझसे अचानक रहने लगे खिन्न आज इस मुक्तिधाम में मैं अपने अहं के ‘दास्तानों’ को उतार कर चाहता हूँ तुम्हे छूना … तुम्हारी अस्थियों में, तलाश कर रहा हूँ उन उंगलियों को छिन्न-भिन्न ,छितराये समय को टटोलने का उपक्रम पाना चाहता हूँ एक बार … फिर वही स्पर्श जिसने मुझे उचाईयों तक पहुचाने में अपनी समूची ताकत झोक दी थी पता नहीं कहाँ -कहाँ झुके थे लड़े थे …. मेरे पिता मेरी खातिर …. अनगिनत बार मेरा बस चले तो सहेज कर रख लूँ तमाम उँगलियों के पोर-पोर हथेली ,समूची बांह कंधा …उनके कदम … जिसने मुझमें साहस का दम जी खोल के भरा पिता जाने-अनजाने आपको इस ठौर तक अकाल ,नियत समय से पहले ले आने का अपराध-बोध मेरे दिमाग की कमजोर नसें हरदम महसूस करती रहेगी सुशील यादव काव्य जगत में पढ़िए बेहतरीन कवितायें आपको कविता “ पिता की अस्थियां …. “ कैसी लगी | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |