स्ट्रेस ईटिंग डिसऑर्डर – जब आप खाना खा रहे हो और खाना आपको

कई बार तब हम भोजन में अपनी समस्याओं का समाधान ढूँढने लगते हैं जब भावनाएं हमें  खा रही होती हैं – अज्ञात  “देखिये आप बिंज ईटिंग डिसऑर्डर से बुलुमिया नेर्वोसा की तरफ बढ़ रही हैं अब अगर आप खाने से दूर नहीं रहीं तो ये खाना आपको खा जाएगा “कहते हुए डॉक्टर ने मुझे दवाइयों और देखभाल की लंबी – चौड़ी  फेहरिशत  पकड़ा | मैं निराशा से भरी डॉक्टर के केबिन से बाहर निकली | मुझे देख कर बाहर बैठी दो लडकियां मुस्कुरा दी | एक ने चुटकी ली ,” अगर ये अपना खाना कम कर दे तो देश की खाने की समस्या काफी हद तक खत्म हो जायेगी | उसके बाद हंसी के ठहाके  काफी देर तक मेरा पीछा करते रहे और मैं साडी के पल्लू से अपने भीमकाय शरीर को ढकने का असंभव  प्रयास करती रही | आप की जानकारी के लिए बता दूं की मेरी उम्र ३६ साल कद पांच फुट दो इंच और वजन पूरे ९० किलो | यानी 100 से बस १० कम | मेरा स्ट्रेस ईटिंग डिसऑर्डर का इलाज़ चल रहा है | क्योंकि मैं खाने से दूर नहीं रह पाती | अच्छा बुरा मैं कुछ भी खाती हूँ |यहाँ  तक की कुछ न मिलने पर मैं कच्चा आलू भी कहा लेती हूँ |  मैं तनाव में खाती हूँ और खाने की वजह से उपजे तनाव में और खाती हूँ | खाने  से मेरा ऐसा लगाव पहले नहीं था | माँ कहती हैं  ,” मैं बचपन में कुछ नहीं खाती थी , वो बुलाती रह जाती थीं और मैं खेल में इतनी मगन की सुनती ही नहीं | खाना ठंडा हो जाता तो एक दो कौर खा कर माँ अच्छा नहीं लग रहा है कह कर भाग जाती | कई बार माँ के डर लंच में दिया खाना सहेलियों को खिला देती या स्कूल के  डस्टबिन में फेंक आती , ताकि वो मुझे डांट न सके | फिर कब कैसे मैं इतना ज्यादा खाने लगी और खाना मुझे खाने लगा ? यादों के झरोखों से देखती हूँ तो वो दिन याद आता  है  जब रितेश से मेरी शादी हुई थी , न जाने कितने अरमान ले कर मैं इस घर में आई थी | पर यहाँ आते ही  मुझे रितेश  की दो बातें सख्त नापसंद लगी | एक तो उनका शराब पीना और दूसरा अपनी सेकेट्री से  जरूरत से ज्यादा घनिष्ठता |और रितेश को … रितेश को तो शयद मैं पसंद ही नहीं थी | उसने घर वालों के कहने पर मुझसे शादी की थी | कुछ दिन तक तो मैं सहती रही फिर मैंने विरोध करना शुरू किया | पर उसका उल्टा असर हुआ | रितेश और उग्र होते गए उनकी शराब की मात्र व् सेकेट्री को दिया जाने वाला समय बढ़ने लगा | मैं दुःख में अपने प्रति लापरवाह सी रहने लगी | सहेलियों ने कहा तू  बन ठन  कर रहा कर | उसका कुछ असर तो हुआ रितेश मेरी बात को थोडा बहुत सुनने लगे | मैंने सासू माँ से भी रितेश के बारे में बात की | उनके समझाने पर रितेश मेरे पास आये और अपने स्नेह का चिन्ह मेरे माथे पर अंकित कर के बोले,” आज से मैं सिर्फ तुम्हारा “ उन्होंने  मुझसे वादा किया की अगले दिन से वो जल्दी घर आयेंगे व् खाना मेरे साथ ही खायेंगे | जब छोड़ देना साथ चने से बेहतर लगे                             अंधे को क्या चाहिए दो आँखें |और मैंने तो आँखों में अपने व् रोहित के सुनहरे भविष्य के न जाने कितने ख्वाब एक पल में पाल लिए |  मैं इतनी खुश थी की पूछो मत | उसने जो – जो कहा था , मैंने खाने में वो सब कुछ बनाया   | सब कुछ उसकी पसंद का …मटर पनीर , पुलाव , दम आलू की सब्जी और खीर | | कांच के डोंगों में डाईनिग टेबल पर सजा भी दिया | साथ में सजा दिया अपना नन्हा सा दिल | फिर खुद तैयार होने लगी |ये रात मेरी शादी के बाद की पहली रात से भी हसीं जो होने वाली थी | मैंने गुलाबी साडी बिंदी और गुलाबी ही चूड़ियाँ पहनी | फिर आईने में अपने को ही देख कर लजा सी गयी | यूँ ही नहीं मेरी सहेलियां मुझे हीरोइन कह कर बुलाती थी | रंग , रूप , कद काठी सब कुछ परफेक्ट | सहेलियां रस्क करती ,” यार तुझ पर तो मोटापा चढ़ता ही नहीं “ एक हम हैं कमर का कमरा बन गया | सोंचते ही मेरे चेहरे पर मुस्कान फ़ैल गयी , अगले ही पल गहरी उदासी छा गयी | आखिर क्या है उस सेकेट्री के पास की रोहित ऑफिस से इतनी लेट आते हैं वो भी शराब पी कर | और उसके बाद रितेश , रितेश नहीं रहते , जानवर हो जाते है | कितनी बार मैंने रितेश से शिकायत की की मेरे हिस्से में  ये जंगली और सेकेट्री के हिस्से में रितेश , ऐसा क्यों ?  फिर खुद ही मन को समझाया  ,” अरे पगली , आज क्या दुखी होना | आज तो तेरे जीवन का नया अध्याय शुरू हो रहा है | आज से रितेश समय पर घर आएगा , शराब भी नहीं पिएगा और सेकेट्री … उसे तु छुएगा भी नहीं | मन के सूर्य पर छाए बादलों को मैंने अपने विचारों से ही दूर किया और रितेश की प्रतीक्षा करने लगी | १० , 11 , १२ .. एक बजे रितेश आये  | उनके पास से आती शराबकी महक  साथ ही लेडीज परफ्यूम की तीखी गंध मिल कर मेरी दुनिया को विषैली , जहरीली बदबू से भर रही थी , मैं खुद को काबू में न रख सकी | मैं चिल्लाने लगी , रितेश , रीइते ते ते श , तुमने अपना वादा तोड़ दिया , तुम आज जल्दी  आने वाले थे , मेरे साथ खाना खाने वाले थे और …. तुमने मेरे सारे हक़ उसको दे दिए | तुम कभी नहीं सुधर सकते कभी नहीं | रितेश  ने लडखडाते क़दमों से आगे बढ़ते हुए कहा ,” तो क्या हुआ अब दे देता हूँ तुम्हे तुम्हारा हक़ | रितेश  ने डाईनिग टेबल से खाना उठा कर मुँह में ठूसना शुरू … Read more

टर्मिनली इल – कुछ लम्हे जो मिले हैं उस पार जाने वाले के साथ

प्रेम वो नहीं है जो आप कहते हैं प्रेम वह है जो आप करते हैं                       इस विषय को पढना आपके लिए जितना मुश्किल है उस पर लिखना मेरे लिये उससे कहीं अधिक मुश्किल है | पर सुधा के जीवन की त्रासदी  ने मुझे इस विषय पर लिखने पर विवश किया |               सुधा , ३२ वर्ष की विधवा | जिस   के   जीवन का अमृत सूख गया है | वही कमरा था , वही बिस्तर था ,वही अधखाई दवाई की शीशियाँ , नहीं है  तो सुरेश | १० दिन पहले जीवनसाथी को खो चुकी सुधा की आँखें भले ही पथरा गयी हों | पर अचानक से वो चीख पड़ती है | इतनी जोर से की शायद सुरेश  सुन ले व्  लौट आये | अपनी सुधा के आँसूं पोछने और कहने की “ चिंता क्यों करती हैं पगली | मैं हूँ न | सुधा जानती है की ऐसा कुछ नहीं होगा | फिर भी वो सुरेश के संकेत तलाशती है , सपनों में सुरेश को तलाशती हैं , अगले जन्म का सोंच , किसी नन्हे शिशु में  सुरेश को तलाशती है | उसे विश्वास है , सुरेश लौटेगा | यह विश्वास उसे इतनी दर्द व् तकलीफ के बाद भी  जिन्दा रखता है | मृत्यु की ये गाज उस पर १० दिन पहले नहीं गिरी थी |  दो महीने पहले यह उस दिन गिरी थी जब डॉक्टर ने सुरेश के मामूली सिरदर्द को कैंसर की आखिरी स्टेज बताया था | और बताया था की महीने भर से ज्यादा  की आयु शेष नहीं है | बिज़ली सी दौड़ गयी थी उसके शरीर में | ऐसा कैसे ? पहली , दूसरी , तीसरी कोई स्टेज नहीं , सीधे चौथी  … ये सच नहीं हो सकता | ये झूठ है | रिपोर्ट गलत होगी | डॉक्टर समझ नहीं पाए | मामूली बिमारी को इतना बड़ा बता दिया | अगले चार दिन में १० डॉक्टर  से कंसल्ट किया | परिणाम वही | सुरेश तो एकदम मौन हो गए थे | आंसुओं पोंछ कर सुधा ने ही हिम्मत करी | मंदिर के आगे दीपक जला दिया और विश्वास किया की ईश्वर  रक्षा करेंगे चमत्कार होगा , अवश्य होगा | सुधा , स्तिथि की जटिलता समझ तो रही थी पर मृत्यु को स्वीकार नहीं कर पा रही थी | उसने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध  रखी थी | भ्रम की पट्टी | कीमो शुरू हुई ,  पर सुरेश की हालत दिन पर दिन बद से बदतर होती जा रही थी | दिन भर चलने फिरने वाले सुरेश शरीर से लाचार होते जा रहे थे | इधर घर में मेहमानों का ताँता लगना शुरू हो गया | सुधा किसको देखे | मरीज को की मेहमान को | भारतीय समाज जहाँ गंभीर से गंभीर बिमारी से जूझ रहे मरीज को देखने आये रिश्तेदार पूरी आवभगत चाहते हैं | और चलते – चलते एक हिदायत देना नहीं भूलते | सुधा सब कुछ करने का प्रयास करती | ये चालीसा , ये जप वो दान , इसके बीज , उसकी भस्म सब कुछ | कभी कभी सुधीर को दवा के अतिरिक्त दो मिनट का समय भी नहीं दे पाती | सुधीर पास आती मौत की आहत सुन  कर कभी कभी घबरा  जाते | सुधा का हाथ थाम कर मृत्यु का भय बाटना चाहते पर सुधा ,” ऐसा कभी हो ही नहीं सकता कह कर उनकी बात काट देती |सुधीर अपने बाद उसके जीने की बात करते तो सुधा मुँह पर हाथ रख देती | जब मैंने अपने माता – पिता को माफ़ किया                           आज जब सब परदे उतर गए हैं | सुधा के जीवन  में घनघोर खाली पन है, पछतावा है | पता नहीं सुधीर क्या कहना चाहते  थे |पता नहीं सुधीर ने उसके बारे में क्या सोंचा था | काश वो मेहमाननवाज़ी के स्थान पर उस समय सुधीर को ज्यादा समय दे पाती | काश जो थोडा वक्त मिला था उसे वो दोनों  बेहतर तरीके से गुज़ार पाते | काश ! , काश !  और काश ! …. काश ये काश न बचते |                       हम जीवन की बात करते हैं | आशाओं , उमंगों की बात करते हैं | हम मृत्यु की बात नहीं करते | क्योंकि हम मृत्यु की बात करना पसंद नहीं करते | यथा संभव इससे बचते हैं | बात जब अपने किसी प्रियजन की हो तो हम बिलकुल ही नकार जाते हैं |  परन्तु मृत्यु एक सत्य है | जिसे झुठलाया नहीं जा सकता | जब ये हमारे किसी अपने के सामने आ कर खड़ी हो जाती है , जिसे हम पल- पल खोते हुए महसूस कर रहे हों | तब हमारे हाथ पाँव फूल जाते हैं | ये ऐसे मामलों में होता है | जहाँ डॉक्टर , मरीज को “ टर्मीनली इल “ घोषित कर दे | यानी की बीमारी लाइलाज हो चुकी है | मरीज पर अब कोई दवा असर नहीं करेगी | जीवन और मृत्यु के बीच का फासला कुछ , दिनों , हफ़्तों या महीनों का है | ऐसा मुख्यत : टर्मिनल कैंसर , अल्जाइमर्स कुछ खास ह्रदय सम्बन्धी बीमारियाँ या ऐसी ही कुछ बीमारियों में होता है | जहाँ डॉक्टर जीवन का अंत घोषित कर देते हैं | व् उनकी अस्पताल से छुट्टी कर देते हैं |                  विदेशों में इसके लिए hospice care यूनिट “ होती है | जहाँ मरीज का इस प्रकार ख्याल रखा जाता है की उसको शारीरिक व् मानसिक कष्ट कम से कम हों वो आसानी से प्राण त्याग सके | मरीज व् उसके परिवार वालों की शारीरिक , भावनात्मक व् आध्यात्मिक काउंसिलिंग की जाती है | जिससे उस पार जाने वाले  मरीज का कष्ट कम हो सके | व् उसके परिजन खोने के अहसास को झेल सकें |   हमारे देश में क्योंकि “ टर्मीनली इल “ मरीजों की देखभाल कर रहे लोगों को कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं प्राप्त  होता है | इसलिए मरीज व् उसके प्रियजनो को बहुत सारी  दिक्कतों को झेलना पड़ता है | मरीज की मृत्यु के बाद इस आघात को  उसके प्रियजनों  को झेलना मुश्किल हो जाता है | ये सोंचना बहुत दर्दनाक है पर जो लोग इस सदमें से गुज़र चुके … Read more

फॉरगिवनेस : जब मैंने अपने माता – पिता को माफ़ किया

           क्षमा करना किसी कैदी को आज़ाद करना है , और ये समझना है की वो कैदी आप खुद हैं – लुईस .बी . सेमेडेस                   मदर्स डे आने वाला है | ठीक एक महीने बाद फादर्स डे है | गर्मी की छुट्टियों में आने वाले ये दिन बच्चों , खासकर छोटे बच्चों के लिए बहुत स्पेशल होते है | बच्चे अपने पेरेंट्स के लिए गिफ्ट्स , ग्रीटिंग कार्ड्स वैगैरह बड़े जतन  से बनाते हैं | और क्यों न करें जब पेरेंट्स होते ही इतने स्पेशल हैं | सोशल मीडिया हो , प्रिंट मीडिया हो , या आम महफ़िल हर तरफ माता – पिता के त्याग और निस्वार्थ प्रेम की बात हो रही है | फिर भारतीय संस्कृति में तो माता पिता का दर्जा भगवान् से भी ऊँचा है | ऐसे में मेरे लेख  का शीर्षक पढ़ कर आप जरूर सकते में आ गए होंगे | हो सकता है आप मुझे किसी दुष्ट बच्चे की  उपाधि से भी नवाज़ दें | कैसा बच्चा है अहसान फरमोश जो माता – पिता को माफ़ करने की बात कह रहा है | क्या जमाना आ गया है बच्चे संस्कार हीन हो गए हैं | आप के इन आरोपों के बीच में  मुझे याद आ रही है सात साल की छोटी सी बच्ची जिसकी माँ ने पिता से झगडे के बाद फिनायल की पूरी बोतल पी ली थी | माँ हॉस्पिटल में आई सी यू में ऑक्सीजन मास्क लगाए अपनी साँसों के लिए संघर्ष कर रही थी और मैं अपने एक साल के छोटे भाई को गोद में लिए बाहर से टुकुर – टुकुर ताक  रही थी | मुझे पहली बार अहसास हो रहा था , माँ इतना पास हो कर भी मुझसे इतना दूर हैं | मेडिकल स्टाफ मुझे माँ के पास जाने से रोक रहा है | मैं उन्हें छटपटाते हुए देख सकती थी  पर  मैं उन्हें गले से नहीं लग सकती | मैं दूसरी तरफ देखती हूँ वहां पिताजी किसी पुलिस वाले से बात कर रहे हैं , वो उन्हें पैसे दे रहे हैं | शायद मामला रफा – दफा करने के लिए | (तब तो नहीं समझी थी पर आज समझती हूँ ) मेरी गोद में मेरा भाई रो रहा है | मैं उसे चुप करा रही हूँ , वो सुसु कर देता है मैं उसके कपडे बदलती हूँ | माँ से जिस भाई को गोद लेने पर मैं झगड़ती थी की उसे उतारों मुझे लो , आज मैं उसी भाई की माँ बन गयी हूँ | नन्ही सी माँ | तभी पिताजी मेरी तरफ आते हैं | मेरी गोद से भाई को छीनते हैं और मेरी बांह पकड़ कर घसीटते हैं चालों घर चलो ये इतना रो रहा है अस्पताल की शांति भंग कर रहा है | मैं जाने से इनकार करती हूँ | पिताजी मुझे घसीटते हैं | मैं माँ – माँ चिल्लाती हूँ | पिताजी मुझे एक थप्पड़ मारते हैं ,” मत कर माँ – माँ , बहुत घटिया औरत है तेरी माँ , मरने चल दी , अरे मेरी नौकरी चली जाती…. सुसाइड करेंगी , नीच औरत | पिताजी अनवरत माँ को गालियाँ दिए जारहे हैं | इस बीच मैं पीछे मुड – मुड़ कर माँ को ढूंढती हूँ | मैं  फिर माँ चिल्लाती हूँ | पिताजी मेरे बाल नोचते हैं ,” नाम न ले उस घटिया औरत का | पर माँ को ऐसी हालत में अस्पताल में अकेले छोड़ कर जाना मुझे गंवारा नहीं है मैं अनवरत रो रही हूँ व् मार खाते हुए भी फिर – फिर पिताजी की बांह पकड कर कहीं रहीं हूँ ,” पिताजी माँ कब लौटेंगी | जितनी बार मैं माँ शाद कहती हूँ उतनी बार पिताजी मुझे मारते हैं | अपनी माँ को मरणासन्न हालत में छोड़ कर पिताजी से अनवरत माँ के लिए अपशब्द सुनने को विवश हूँ | रिश्तों में पारदर्शिता : या पर्दे उखाड़ फेंकिये या रिश्ते दो दिन हो गए मुझे माँ के बारे में कुछ पता नहीं | मैं पिताजी से पूंछने की हिम्मत भी नहीं कर पा रही हूँ | मैं भाई के लिए सरेलेक बना रही हूँ , उसे सुसु ,छि- छि करा रही हूँ |पर मेरी भूख खत्म है | मैं बार – बार सोंच रही हूँ | मेरी माँ को पिताजी ऐसे शब्द क्यों कह रहे हैं | वो तो इतना प्यार करती हैं फिर वो घटिया औरत क्यों हैं ? माँ कह कर मैं रोती हूँ सुबकती हूँ | ऐसा नहीं है की माता पिता का ये झगड़ा मेरे सामने पहली बार हुआ हो | दोनों जोर – जोर से चिल्लाते थे | हमेशा मैं सहम जाती थी | माँ घंटो रोती  रहती , रोती  रहती पर कुछ दिन बाद सब ठीक हो जाता | मैं फिर खेल में मगन हो जाती मुझे लगता “ happy family “ ऐसी ही होती है | पर शायद मैं गलत थी | तीसरे दिन पिताजी माँ को घर छोड़ कर ऑफिस चले गए | माँ ने हम दोनों को भाई – बहनों को प्यार किया | खाना बनया कपडे धोये | वैसे ही जैसे कुछ हुआ ही न हो | मैंने माँ से वादा भी लिया की माँ हमें छोड़ कर कभी मत जाना | माँ ने मेरे माथे को चूम कर हामी भरी | मैंने सोंचा अब सब कुछ ठीक हो गया है | हमारी फैमली “ happy family “ हो गयी है | कुछ दिन सब ठीक रहा | फिर झगडे फिर से शुरू हो गए | मैंने अब झगड़ों पर ध्यान देना शुरू किया | पिताजी माँ को घर में कैद रखना चाह्ते थे | इतना इस कदर की सब्जी भी खरीदने वो अकेली नहीं जा सकती थी | मौसी – मामा , नानी – नाना से भी वो कितनी बात कर सकती है इसके भी नियम थे | वो उनसे कितना प्यार कर सकती हैं इसके भी नियम थे | इन नियमों को न मानने पर वो  घटिया औरत की श्रेणी में आ जाती | माँ बिलकुल वैसे ही करती जैसे पिताजी कहते तब तक घर में सब कुछ शांत रहता | पर कुछ दिनों  में इस थोपी हुई जिन्दगी में उनका दम घुटने लगता | वो … Read more

रिश्तों में पारदर्शिता : या परदे उखाड़ फेंकिये या रिश्ते

पारदर्शिता किसी रिश्ते की नीव है | रहस्य के पर्दों में रिश्तों को मरते देर नहीं लगती – बॉब मिगलानी                                                                       बचपन में हमारे माता – पिता प्रियजन जो कुछ समझाते हैं उसे हमारा बाल मन कैसे लेता है या उसे कैसे समझता है ये कोई नहीं जानता | माता – पिता या घर के बड़े अपना समझाने का दायित्व पूरा जरूर कर लेते हैं |  और बाल मन किसी अनजाने चक्रव्यूह में फंस जाता है | क्योंकि कभी – कभी समझाई गयी दो बातों में विरोधाभास होता है | और इसके   कारण  न जाने कितने अंधविश्वासो , धार्मिक विश्वासों की जो खेती बाल मन की उपजाऊ भूमि पर कर दी जाती हैं | उसकी फसल कई बार इतनी भ्रम भरी इतनी विषाक्त होती है , जो न बोने वाला जानता है न उगाने वाला |                                                          ऐसा ही कुछ – कुछ मेरे दिमाग में भरा गया था   की घर की बात बाहर न जाए | विभीषण की वजह से लंका  का सर्वनाश हुआ था | हालांकि ये भी कहा गया था की सदा सच बोलना चाहिए | पर युगों बाद भी विभीषण को यूँ कोसा जाना मुझे भयभीत कर देता था | मेरे बाल – मन में ये तर्क उठते की रावण का नाश उसके कर्मों , उसकी बुराइयों या उसके अहंकार के कारण हुआ, जो की होना ही था | पर बनी बनायी मान्यताओं के विपरीत मैं न जा सकी | मेरे लिए घर का मतलब चार दिवारी के अंदर रहने वाले प्राणी ही थे | पर क्या हमारे रिश्ते उन्हीं चार प्राणियों से होते हैं जो एक घर में रहते हैं या एक सरनेम इस्तेमाल करते हैं | जाहिर है हमारे घनिष्ठ रिश्ते इसके मोहताज़ नहीं होते | आत्मीयता और मन मिलना वास्तविक रिश्तों की एक अलग ही परिभाषा है जिसका परिवार खून खानदान के बनवटी पर्दों से कोई लेना देना नहीं है | ऐसा ही मेरा रिश्ता सौम्या  से था | पर उम्र और शिक्षा मेरी पूरानी मान्यताओं को नहीं बदल सकी |                            सौम्या से मेरी मुलाकात हमारी एक कॉमन फ्रेंड निधि के यहाँ हुई | सौम्या के अंदर समाज के लिए कुछ करने की भावना थी | उसकी  में कुछ करने की चमक थी  | वो एक फ़ूड चेन खोलना  चाहती थी | जहाँ अच्छा और सस्ता खाना मिल सके |क्योंकि काम बड़ा था उसमें अधिक मात्रा में धन व्अ श्रम लगना था अ त : ये केवल लोंन लेकर या एक संस्था बना कर किया जा सकता था |  सौम्या  के व्यक्तित्व से प्रभावित थी |  हमें सौम्या का संस्था बनाने का विचार प्रभावी लगा |  मैंने भी हां कर दी | जैसा की सभी जानते हैं की कोई संस्था बनाने में ढेर सारे पैसे और लोगों की जरूरत होती है | हम अपने काम में लग गए |हमें फंड्स इकट्ठे करने थे और सदस्य जोड़ने थे , जो काम में हमारा सहयोग कर सकें | निधि , रूपा , प्रिया  भी सौम्या के साथ आ गयी | मैं सौम्या  से लगभग रोज़ मिलने लगी | हमारा स्नेह घनिष्ठ से घनिष्ठतम होता गया | धीरे – धीरे मैं सौम्या  के विचारों व् उसके जज्बे के प्रति समर्पण  नतमस्तक होती चली गयी | सौम्या भी मुझसे बहुत स्नेह करने लगी | वो सदा यही कहती मैं उसके  शरीर में  में रीढ़ की हड्डी की तरह हूँ| और  मैं मैं भी तो उसके उद्देश्य में  अपना तन – मन धन सब समर्पित कर देना चाहती थी | | नाउम्मीद करती उम्मीदें – निराशा अवसाद , चिंता के चक्रव्यूह से कैसे निकलें                                                         पर नियति कुछ और ही थी | हमें कहाँ पता था की वो दिन जो हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण दिन होना चाहिए था , इतिहास में समस्याओं के शुरू होने के दिन के रूप में दर्ज हो जाएगा | वो दिन था हमारी छोटी सी संस्था के शुरुआत का दिन | सौम्या ने सबके सामने मुझे उस का उप – प्रबंधक घोषित कर दिया | निधि , रूपा , प्रिया  को ये नागवार गुज़रा | उन सब को मेरा यूँ सम्मानित होना रास नहीं आया | पर सौम्या मेरे साथ थी इस विश्वास के साथ की हम सब इसी तरह  समर्पित भाव से काम करते रहेंगे | हमारेउसके विश्वास को पहला झटका लगा प्रिया से | प्रिया ,   जो आर्थिक रूप से सशक्त थी , संस्था को छोड़ कर चली गयी | ये छोटे सपने में बड़ी रुकावट थी | सौम्य को  प्रिया  से आर्थिक मदद की आशा थी | अब संस्था के सारे खर्चे  सौम्या  पर आ गए | निधि और रूपा ने अपनी आर्थिक स्तिथि स्पष्ट कर दी , और ये भी की वो अपनी सीमा भर ही काम कर पाएंगी | ऐसे समय में सौम्या  ने बड़ी आशा से मेरी तरफ देखा | वो जानती थी की मेरे पति एक बड़े व्यसायी हैं | सौम्या  को आशा थी की मैं आर्थिक मदद अच्छे से कर  सकूंगी | मैंने हां में सर हिला दिया |                                                      उसी रात मैंने अपने पति से बात की उन्होंने मेरी इस सो कॉल्ड संस्था के लिए  अपनी गाढ़ी  कमाई  के पैसे देने से इनकार कर दिया | उन्होंने न सिर्फ इनकार किया वरन इसे मेरा टाइम पास शौक करार दे  मुझे भी संस्था छोड़ने  का दवाब बनाया | हमारे बीच झगड़े हुए |तीखे प्रहार हुए व् फिर  बातचीत बंद  हो गयी |मुझ पर पूरी तरह से दवाब … Read more

सेल्फ केयर : आखिर हम खुद को सबसे आखिरी में क्यों रखते हैं

हमेशा सबकी मदद करने के लिए आगे रहिये ,  पर खुद को पीछे मत छोड़ दीजिये –   अज्ञात                माँ को हार्ट अटैक पड़ा था | मेजर हार्ट अटैक | वो अस्पताल के बिस्तर पर पर लेटी थी | इतनी कमजोर इतनी लाचार मैंने उन्हें पहले कभी नहीं देखा था | तभी डॉक्टर कमरे में आया | माँ का चेकअप करने के बाद बोला | इनका पेस मेकर   बहुत वीक है | माताजी आप को पहले कभी कोई अंदाजा नहीं हुआ | माँ , धीमे से बोली ,” कभी सीढियां चढ़ते हुए लगता था , फिर सोंचा उम्र बढ़ने का असर होगा | या काम करते हुए थक जाती तो जरा लेट लेती | बस ! डॉक्टर मुस्कुराया ,” खुद के प्रति इतनी लापरवाही तभी तो आपका दिल केवल १५ % काम कर रहा है | डॉक्टर फ़ाइल मुझे पकड़ा कर चला गया | अरे ! निधि तू डॉक्टर की बातों में मत आना , मैं ठीक हूँ , चिंता मत कर | माँ ने अपने चिर परिचित अंदाज़ में कहा | और मैं याद करने लगी ,”ये मैं ठीक हूँ   “ के इतिहास को  |हमेशा  से मैं माँ के मुँह से यही सुनती आ रही थी | हम सब को बुखार आता , खांसी , जुकाम , मलेरिया जाने क्या – क्या होता | माँ सब की सेवा करती , प्रार्थनाएं करती | माँ को कभी बीमार पड़ते नहीं देखा | हां  ! इतना जरूर देखा की कभी सर पर पट्टी बाँध  कर खाना बना रही हैं , पूंछने पर ,” अरे कुछ नहीं , जरा सा सर दर्द हैं | मैं ठीक हूँ | बुखार में बर्तन माँज  रही हैं और मुस्कुरा कर कह रही हैं , बुखार की दवा ले ली है , अभी उतर जाएगा , मैं ठीक हूँ | गला इतना पका है की बोला नहीं जा रहा है तो इशारे से बता रही हैं अदरक की चाय ले लूँगी  , मैं ठीक हूँ | धीरे – धीरे हम सब पर माँ के इस मैं ठीक हूँ का असर इतना ज्यादा हो गया की हमें लगने लगा माँ को भगवान् ने किसी विशेष मिटटी से बनाया है जो वो हमेशा ही ठीक रहती हैं | माँ अपने खाने का ध्यान नहीं रखती फिर भी वो ठीक रहती हैं , वो पूरी नींद सोती नहीं , फिर भी वो ठीक रहती है , वो दिन भर काम करके भी थकती नहीं ठीक रहती है | पर डॉक्टर की फ़ाइल तो माँ के ‘मैं ठीक हूँ ‘के झूठ की पोल खोल रही थी | हीमोग्लोबिन , कैल्सियम , कोलेस्ट्रोल ,और हार्ट सब गड़बड़ | मेरी आँखों में आँसू  भर रहे हैं | मैं माँ पर चिल्लाना चाहती हूँ ,” माँ ऐसा क्यों किया , क्यों अपना ध्यान नहीं रहा , क्यों मैं ठीक हूँ का झूठ बोलती रही | पर अचानक मेरे शब्द जैसे जम गए | मैं भी तो यही करती हूँ |  आज मैं भी तो एक माँ हूँ  | और अपने बच्चों से ” मैं ठीक हूँ का झूठ बोलती हूँ | माँ , मैं , अन्य महिलाएं न जाने कितने लोग ऐसा करते हैं | नाउम्मीद करती उम्मीदें – निराशा और अवसाद के चक्रव्यूह से कैसे निकलें ऐसे लोग जो परिवार का , और दूसरे लोगों की हर छोटी बड़ी जरूरतों का ध्यान रखते हैं | पर जब अपनी बात आती है तो पीछे हट जाते हैं |सेल्फ केयर गुनाह क्यों लगता है | बचपन से हमारे दिमाग में ये बात हावी रहती है की अपने को आगे रखना गलत है | हमेशा दूसरों को ही पहले रखना चाहिए | खुद का ख्याल  रखना स्वार्थी  होना है | बहुत कुछ ऐसा है जो गलत धारणाओं  के कारण पनपता है | खासकर जब बात शारीरिक व् मानसिक स्वास्थ्य की हो | महिला हो या पुरुष , किसी की भी सेहत बिगडने से पूरा परिवार  प्रभावित होता है | शरीर साथ नहीं देता तो  कोई भी साथ नहीं देता |हालांकि मामले की तह में जाए तो मामला और अधिक गंभीर हैं जो केवल स्वास्थ्य तक जुड़ा  न होकर , मी टाइम ,अपनी पसंद के कपडे ,अपनी पसंद से उठाना , बैठना , खाना – पीना आदि की लंबी फेहरिस्त तक जाता है |  फिर अपने प्रति इतनी लापरवाही  क्यों ?  ढूँढने पर कुछ कारण  समझ में आते हैं | जो मेरे साथ रहे है | शायद आप के साथ भी रहे हों |  हमें लगता है खुद का ख्याल रखने वाले स्वार्थी होते हैं                                 बचपन से समाज हमें ये घुट्टी पिलाता है की खुद का ख्याल रखने वाले स्वार्थी होते हैं | एक सास अपनी तारीफ़ करती हुए कह रही थीं की मैंने तो अपनी बहू  को इजाज़त दे रखी है की रसोई में चाय पीते – पीते काम करो | दूसरी औरते उनकी महानता  पर धन्य थी | भले ही उन की बहू को दोपहर दो बजे तक कुछ भी खाने को न मिलता हो पर वो चाय पीने के लिए स्वतंत्र है | पर वहीं बैठी 4 साल की बच्ची के दिमाग में ये आया की चाय पीना  बहू की महानता को कम करता है | बड़े होकर उसने चाय भी रसोई का काम खत्म होने के बाद ही पी | अफ़सोस की वो छोटी बच्ची मैं थी | जाने अनजाने न जाने कितनी धारणाएं समाज हमारे ऊपर आरोपित कर देता है | जहाँ खुद की देखभाल करना स्वार्थी होना लगने लगता है | कठिन रिश्ते : जब छोड़ देना साथ चलने से बेहतर लगे हम दूसरों का ध्यान रखने के स्थान पर उसे अपने हिसाब से चलाने की कोशिश तो नहीं कर रहे ….             हमारे पास बिलकुल भी टाइम नहीं है की हम खुद को देख सकें | एक कप चाय भी शांति से पी सके | क्योंकि हमें , इसका उसका सबका ध्यान रखना है | इस हद तक की हम बीमार पड़ जाए | क्या ये सही है ? क्या वास्तव में अगला यही चाहता है की हम इस तरह से ध्यान रखे | खासकर के तब जब घर में कोई बीमार हो | ऐसे ही एक रिश्तेदार की बीमारी के समय हम सब उसका ध्यान रखने में कोई कसर नहीं रख रहे थे | हमारे पास इंस्ट्रक्श्न्स की एक लिस्ट थी जिसे उसे फॉलो करना था ताकि वो जल्दी अच्छा हो जाए | उसे कमजोरी न आये और वो जल्दी ठीक हो जाए | इसलिए उसके चलने , फिरने यहाँ तक की बोलने पर भी हम ने लगाम लगा दी | मरीज तो ठीक नहीं हो रहा था | पर हम स्ट्रेस की वजह से  जरूर बीमार पड़ने लगे थे | उपाय डॉक्टर ने ही बताया | इनको बिलकुल नार्मल लाइफ जीने दीजिये | तब ये जल्दी ठीक होंगे | बॉडी अपनी रूटीन में जितनी जल्दी आती है | जल्दी हील होती है | इसका अर्थ ये कतई  नहीं है की किसी की मदद नहीं करनी चाहिए … Read more

नाउम्मीद करती उम्मीदें – निराशा , अवसाद , चिंता के चक्रव्यूह से कैसे निकलें

वरदान प्राप्त हैं वो लोग जो उम्मीदों से परे जीते हैं , क्योंकि वो कभी निराश नहीं होंगे – अलेक्जेंडर पोप                    बहुत पहले एक कहानी पढ़ी थी | कहानी का नाम तो याद नहीं पर उसका मुख्य पात्र राजू है | गरीब राजू बारहवीं का छात्र है व् तीन बहनों के बीच अकेला लड़का | जाहिर है माता – पिता को राजू से बहुत उम्मीदें  हैं की एक दिन इसकी नौकरी लग जायेगी तो हम सब की गरीबी दूर हो जायेगी | लड़कियों की शादी हो जायेगी व्  बुढापा भी आराम से कट जाएगा | सब बच्चों में राजू का सबसे ज्यादा ख्याल रखा जाता है | खाने में घी दूध राजू को मिलता है , उसके कमरे में कूलर लगा है पर वहां बैठने की इजाजत किसी को नहीं है | राजू के मुँह से कुछ निकले तो उसकी फरमाइश तुरंत पूरी हो जाती है | तीनों बहनों को इसमें अपनी उपेक्षा महसूस होती है | वह चिढाने के अंदाज में राजू को राजू साहब कह कर पुकारने लगती हैं | राजू मन लगा कर पढता है , पर एग्जाम  से ठीक एक दिन पहले वो घर से भाग जाता है | अपनी चिट्ठी में वो सपष्ट कर देता है की उसके घर छोड़ कर जाने की वजह माता – पिता की उम्मीदें है | उसे भय है की कहीं उनकी उम्मीदें न टूट जाएँ | वो स्पष्ट करता है की कितना अच्छा होता अगर उसके माँ – बाप उसकी साड़ी फरमाइशें  पूरी नहीं करते , उसकी बहनों को भी उतने ही दूध में हिस्सा मिलता व् कूलर में लेटने का अधिकार मिलता बदलें में उसे प्रोत्साहित तो किया जाता पर उस पर उम्मीदें पूरा करने का इतना दवाब न होता | यहाँ यह बात ख़ास है की राजू के माता – पिता ने उससे उम्मीदें की थी इसलिए वो घर से भाग गया | अगर यही उम्मीदें उसने खुद से करी होती तो वह भाग कर कहाँ जाता | आज तमाम बच्चों के निराशा , अवसाद व् चिंता में डूबने की वजहें ये उम्मीदें ही तो है | उम्मीदें करना जितना आसन है उम्मीदें टूटने पर उसे सहने उतना ही मुश्किल |कई बच्चे तो उम्मीदें टूटने पर आत्हत्या जैसा घातक कदम भी उठा लेते हैं | बदलाव किस हद तक ?                 मुझे ये स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं की मैं इस समय अवसाद और चिंता का शिकार हूँ | मेरी भूख मर चुकी है | आँखों से नींद गायब है | मैं घंटों अपनी बालकनी  में बैठ कर सामने पार्क की पौधों को निहारती हूँ | शयद मैं भी जीवन की विषैली कार्बन डाई ऑक्साइड को निगलने के पश्चात् उसे कोई रचनात्मक रूप दे सकूँ | पर ये गहरी निराशा का पर्दा मेरे सामने से हटता ही नहीं | यहाँ तक की मैं सांस तक नहीं ले  पा रही हूँ | जब भी मै सांस लेने की कोशिश करती हूँ मेरी सारी उम्मीदें जो मैंने जिंदगी से करी थीं , मेरे सामने चलचित्र की तरह चलने लगती हैं | मुझे घुटन होने लगती है | नहीं ये वो जिन्दगी नहीं है जो मैंने मांगी थी | मुझे तो सफल होना था , मुझे तो कुछ बनना था , मुझे ढेर सारे पैसे कामने थे ताकि मैं वर्ल्ड  टूर पर जा सकूँ | मुझे भीड़ का हिस्सा नहीं होना था , मुझे तो अपवाद होना था | अपवाद जो अँगुलियों पर गिने जा सकते हैं | इसके लिए मैंने मेहनत भी तो कितनी की थी | बचपन से ही पिताजी ने बताया था जो बच्चे क्लास में अच्छा करते हैं वो जीवन में सफल होते है , नाम कमाते हैं और मैंने अपनी गुडिया से खेलना छोड़ कर अंग्रेजी की किताब उठा ली थी | क्लास में फर्स्ट आना मेरी आदत में  शुमार हो गया | कितने सफल लोगों के इंटरव्यू पढ़े थे मैंने , सबमें यही तो लिखा था … “ कठोर परिश्रम सफलता की कुंजी है |” ये वाक्य मेरे लिए वेद  वाक्य बन गया | मैंने मेहनत में कोई कसर नहीं छोड़ी | फिर मुझे लगा की अगर मैं कॉलेज में बहुत अच्छा करुँगी तो मुझे सफलता मिलेगी | मैं  काम में दिल लगा दूंगी तो मुझे सफलता मिलेगी | काम को अपना सोलमेट समझ लुंगी तो मुझे सफलता मिलेगी | पर अफ़सोस ऐसा कुछ भी नहीं हुआ | सफलता और मेरे बीच में ३६ का आंकड़ा ही रहा | और मैं भीड़ का हिस्सा बन गयी | जो मुझे कतई  स्वीकार नहीं था | यहाँ सफलता से मेरा अभिप्राय अपवाद वाली सफलता थी | मेरे पास नौकरी थी पर वैसे नहीं जैसी मैंने उम्मीद करी थी , मेरे पास उस तनख्वाह में अफोर्ड करने लायक घर था पर वैसा नहीं जैसा मैंने उम्मीद करी थी | मैं अपने पैसों से विदेश घूम –  फिर सकती थी पर वर्ल्ड टूर नहीं जैसी मैंने उम्मीद करी थी | मेरी खुद से की गयी उम्मीदें मुझे मार रही थी | कुछ खास बनने  व् ख़ास करने के लालच में मैं आम जीवन का या यों कहिये जो मुझे मिला है उसका लुत्फ़ नहीं उठा पा रही थी | मैं निराश थी बहुत निराश |                                 अपने मन की निराशा  का कम करने के लिए  मैंने टी . वी ऑन कर दिया | विज्ञापन आ रहे हैं |पहला विज्ञापन जिस पर मेरी नज़र पड़ी  | गोरेपन की क्रीम का है | गोरेपन की क्रीम से न सिर्फ रंग साफ़ उजला हो जाता है बल्कि आत्मविश्वास बढता  है , अच्छा पति मिलता है , नौकरी मिलती है , रास्ते रुक जाते हैं , सडक पर लोग दिल थाम कर खड़े रहते हैं और बहुत कुछ जिसकी कल्पना एक लड़की कर सकती है | पर क्या ये संभव है ? क्या पहले से ही गोरे  लोगों को ये सब कुछ मिला हुआ है | शायद नहीं | पर मार्केटिंग उम्मीद बेचने की कला है | अगर यही  क्रीम का विज्ञापन ऐसा होता की ये क्रीम आप की त्वचा को नमी प्रदान करेगी तो क्या लोग उसकी तरफ भागते ? क्या उस क्रीम की बिक्री बढती ? उम्मीदें बढ़ाना और और उनके टूटने पर नाउम्मीद लोगों की संख्या … Read more

कठिन रिश्ते : जब छोड़ देना साथ चलने से बेहतर लगे

एक खराब रिश्ता एक टूटे कांच के गिलास की तरह होता है | अगर आप उसे पकडे रहेंगे तो लगातार चोटिल होते रहेंगे | अगर आप छोड़ देंगे तो आप को चोट लगेगी पर आप के घाव भर भी  जायेंगे – अज्ञात                                                                                       मेरे घर में  मेरी हम उम्र सहेलियां  नृत्य कर रही थी | मेरे माथे पर लाल चुनर थी |  मेरे हाथों में मेहँदी लगाई जा रही थी | पर आने जाने वाले सिर्फ मेरे गले का नौलखा  हार देख रहे थे | जो मुझे मेरे ससुराल वालों ने गोद भराई की रसम में दिया था | ताई  जी माँ से कह रही थी | अरे छुटकी बड़े भाग्य हैं तुम्हारे जो  ऐसा घर मिला तुम्हारी  नेहा को | पैसों में खेलेगी | इतने अमीर हैं इसके ससुराल वाले की पूछों मत | बुआ जी बोल पड़ी ,” अरे नेहा थोडा बुआ का भी ध्यान रख लेना , ये तो गद्दा भी झाड लेगी तो इतने नोट गिरेंगें की हम सब तर  जायेंगे | मौसी ने हां में हाँ मिलाई  और साथ में अर्जी भी लगा दी ,” जाते ही ससुराल के ऐशो – आराम में डूब जाना , अपनी बहनों का भी ख्याल रखना | बता रहे थे  उनके यहाँ चाँदी का झूला है कहते हुए मेरी माँ का सर गर्व से ऊँचा हो गया |  तभी मेरी सहेलियों   ने तेजी से आह भरते हुए कहा ,” हाय  शिरीष , अपनी मर्सिडीज में क्या लगता है , उसका गोद – भराई  वाला सूट देखा था एक लाख से कम का नहीं होगा | इतनी आवाजों के बीच , ” मेरी मेहँदी कैसी लग रही है” के मेरे प्रश्न को भले ही सबने अनसुना कर दिया हो | पर उसने एक गहरा रंग छोड़ दिया था , .. इतना लाल … इतना सुर्ख की उसने मेरे आत्म सम्मान के सारे रंग दबा लिए | इस समय मैं एक कंप्यूटर इंजिनीयर नहीं , (जिसने अपने अथक प्रयास से कॉलेज टॉप किया था ) एक माध्यम वर्गीय दुल्हन थी जिसे भाग्य से एक उच्च वर्ग का दूल्हा मिल रहा था | मध्यमवर्गीय भारतीय समाज से उम्मीद भी क्या की  जा सकती है ?                                                हालांकि जब मैंने शिरीष से शादी के लिए हाँ करी तो मेरे जेहन में पैसा नहीं था | शिरीष न सिर्फ M .BA . थे बल्कि , बातचीत में मुझे काफी शालीन व्  सभ्य  लगे थे | शिरीष के परिवार ने दहेज़ में कुछ नहीं माँगा था |  मेरे माता – पिता तो जैसे कृतार्थ हो गए थे | और उन्होंने कृतज्ञता निभाने के लिए जरूरत से ज्यादा दहेज़ देने की तैयारी कर ली | विवाह की तमाम थकाऊ रस्मों के बाद जब मैं अपने  ससुराल पहुँची तो मेरे सर पर लम्बा  घूंघट था | हमारे यहाँ बहुए नंगे  सर नहीं घूमती , सासू माँ का फरमान था | चाँदी का झूला जरूर था पर घुंघट पार उसकी चमक बहुत कम लग रही  थी | रात को मैं  सुहाग की सेज पर अपने पति का इतजार कर रही थी | १२ , 1 , २ … घडी की सुइंयाँ आगे बढ़ रही थी | मुझे नींद आने लगी | ३ बजे शिरीष कमरे में आये | मैंने प्रथम मिलंन  की कल्पना में लजाते हुए घूँघट सर तक खींच लिया | शिरीष एक बड़ा सा गिफ्ट बॉक्स लेकर मेरे पास आये | पर ये क्या ! शिरीष ने शराब पी हुई थी | इतनी की वो लगभग टुन्न थे | मै उनका हाथ झटक कर खड़ी हो गयी | मैं समर्पण को तैयार नहीं थी | आज शगुन होता हैं शिरीष ने बायीं आँख दबाते हुए शरारती अंदाज़ में कहा |होता होगा शिरीष पर मैं किसी शगुन के लिए अपनी जिंदगी भर की स्मृतियों को काला नहीं कर सकती | मेरे स्वर में द्रणता थी | हालांकि शिरीष नशे की हालत में ज्यादा देर तक खड़े नहीं रह सके  | और वहीँ बिस्तर पर गिर गए | कमरे में उनके खर्राटों की आवाज़ गूंजने लगी |                                      सुबह जब मैं नहा कर निकली  तब तक शिरीष जग चुके थे | वे मुझ पर मुहब्बत दर्शाने लगे | | मैं अभी तक कल के दर्द से उबर नहीं पायी थी तो जडवत ही रही | अचानक चुम्बन लेते – लेते शिरीष ने मेरा हाथ मरोड़ दिया ,” इतनी बेरुखी , कोई और आशिक था क्या ? मैंने न में सर हिलाया | तो फिर बीबी की ही तरह रहो , जैसे घरेलू  औरतें रहती हैं | अकड़   दिखाने की क्या जरूरत है | मेरी कलाई पर शिरीष की अंगुलियाँ छप  गयी , और मन पर अपमान का दर्द |  पाँव फेरने पहली बार मायके जाने तक मैं तीन बार पिट चुकी थी व् अनेकों बार अपमानित करने वाले शब्द सुन चुकी थी | माँ के पास जाते ही मैंने शिरीष के बर्ताव की शिकायत की | माँ ने शुरू , शुरू में झगडे तो होते ही हैं कह कर मेरी बात सुनने तक से इनकार कर दिया | यह वही माँ थी , जो मुझसे कहा करती थी की अगर आदमी एक बार हाथ उठा दे तो वो जिंदगी भर मारता रहता है | फिर शिरीष तो मुझे बात – बेबात पर न जाने कितनी बार मार चुके थे | क्या उन्हें अपने वचनों का भी मान नहीं रहा | हां ! भाभी के मन में जरूर करुणा उपजी थी | उन्होंने सलाह दी  की तू  नौकरी कर लें | अपना वजूद होगा तो कोई ऐसे अपमानित नहीं कर सकेगा | भाभी की बात मुझे सही लगी | घर आते ही मैंने शिरीष के आगे अपनी बात रखी | सुनते ही शिरीष भड़क उठे | शिरीष मिश्र की … Read more

फीलिंग लॉस्ट : जब लगे सब खत्म हो गया है

आज मैं लिखने जा रही हूँ उन तमाम निराश हताश लोगों के बारे में जो जीवन में किसी मोड़ पर चलते – चलते अचानक से रुक गए हैं | जिन्हें गंभीर अकेलेपन ने घेर लिया है और जिन्हें लगता है की जिंदगी यहीं पर खत्म हो गयी है |सारे सपने , सारे रिश्ते , सारी संभावनाएं खत्म हो गयीं | यही वो समय है जब बेहद अकेलापन महसूस होता है | ऐसे ही कुछ चेहरे शब्दों और भावों के साथ मेरी आँखों के आगे तैर रहे हैं , जहाँ जिन्दगी अचानक से अटक गयी थी और उसका कोई दूसरा छोर नज़र ही नहीं आ रहा था …….. * निशा जी , दो बच्चों की माँ , जब उसके सामने पति का दूसरा प्रेम प्रसंग सामने आया तो उसे लगा जैसे सब कुछ खत्म हो गया है | अपनी सारी त्याग , तपस्या प्रेम सब कुछ बेमानी लगने लगा | उस पर समाज का ताना ,” पति को सँभालने का हुनर नहीं आता , वर्ना क्यों वो दूसरी के पास जाता ” , जले पर नमक छिडकने के लिए पर्याप्त था | मृत्यु ही विकल्प दिखती , पर उसे जीना था , अपनी लाश से खुद ही नकालकर … अपने बच्चों के लिए | *सुजाता , एक जीनियस स्टूडेंट जिसकी आँखों में बहुत सारे सपने थे | पर क्योकर उसका पढाई से मन हटता चला गया | वो खुद भी नहीं समझ पायी | कॉलेज जाने के लिए रोज खुद को मोटिवेट करती पर रोज निराश हो तकिये में मुंह छिपा कर सो जाती | रोज खुद को उत्साहित करने व् निरुत्साहित होने का एक ऐसा चक्रव्यूह चला की वो उससे निकल ही नहीं पायी | अकेली होती गयी | परिणाम वही हुआ जिससे वो भाग रही थी | असफलता … न सिर्फ उसके बल्कि उसके माता – पिता व् परिवार के सपनों की | * प्रशांत ने एक स्टार्ट अप शुरू किया , उसकी आँखों में चमक थी उन बहुत सारे सपनों की … जो शायद रियलिस्टिक नहीं थे | पर उसने उन्हें पूरा करने अपना सारा समय , पैसा व् अथाह परिश्रम झोंक दिया | पर सपनों ने सपनों सा परिणाम नहीं दिया कम्पनी बंद हो गयी | निराशा के अंधियारे ने उसे अकेलेपन में डुबो दिया | ये मात्र कुछ उदाहरण हैं .. उन बहुत सारे लोगों के जो जीवन में कभी न कभी लॉस्ट या सब कुछ खतम हो गया महसूस करते हैं | अगर आप या आपका कोई अपना भी ऐसी ही मन : स्तिथि से गुजर रहा है | तो शायद मेरा यह लेख आपके कुछ काम आ सके | कुछ लिखने से पहले मैं अपनी प्लेलिस्ट ऑन कर देती हूँ | और संयोग से आज जो पीछे से मधुर गीत बज रहा है वो मुझे बहुत प्रेरणा दे रहा है | गीत के बोल हैं ,” चल अकेला , चल अकेला चल अकेला …. तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला | ” एक दार्शनिक सा गीत जिसमें जीवन का सार छुपा हुआ है | और कहीं न कहीं यह भी छुपा हुआ है की हमसे आपसे पहले बहुत से लोग इस ” सब कुछ खत्म हो गया ” वाली भावनात्मक दशा से गुज़र चुके हैं |इस गीत को सुनते हुए मुझे राधिका जी ( परिवर्तित नाम ) याद आ जाती हैं | राधिका जी जो इस समय एक सफल डॉक्टर हैं अपने अनुभव बताते हुए कहती हैं , ” आज मैं सफल , सुखी और संतुष्ट नज़र आती हूँ पर कभी कभी इस प्रकार के भावों से मुझे भी दो चार होना पड़ा | तब इस गीत को सुन कर मुझे लगा की शायद हम सब ” अपने अपने अकेलेपन को भोगने के लिए आये हैं |”क्या ये खूबसूरत धरती मात्र पेट भरती है ,”मन नहीं ” ? लेकिन इसमें एक खास बात थी |                                        जितना ज्यादा मैं इस अकेलेपन या , निराशा या सब खत्म हो गया के बारे में सोंचती , उतना ही मुझे इस अकेलेपन की ख़ूबसूरती दिखाई देने लगती | एक ऐसे ख़ूबसूरती जिससे मैं अभी तक अनभिग्य थी | वह खूसुरती थी उस शख्स को जानने समझने का अवसर जिससे हम सबसे ज्यादा प्यार करते हैं , यानि हम खुद | ये अकेला पन हमें खुद से कनेक्ट होने का अवसर देता है | आइये जानते हैं कैसे … अकेले हो कर भी हम अकेले नहीं सब से पहले तो जान लीजिये की अकेला होंना इतना आसान नहीं है | जब आप को लगता है की आप के जीवन में यह निराशा की चरम सीमा है , सब कुछ खत्म हो गया है , आप किसी लायक नहीं है , आप को कोई प्यार नहीं करता और आप दुनिया में बिलकुल अकेले हैं |यकीन मानिए ठीक उसी समय बहुत से लोग जिनका रूप , रंग , आकर आपसे भिन्न होगा | वो आपसे परिचित , अपरिचित हो सकते हैं आप से मीलों दूर हो सकते हैं पर अपने बारे में ठीक वैसा ही सोंच रहे हैं | मतलब आप अकेले हो कर भी अकेले नहीं हैं , आप उस बहुत बड़े group का हिस्सा हैं जो खुद को अकेला महसूस करता है | जब छोड़ देना साथ चलने से बेहतर लगे जब आप अकेलापन महसूस करते हैं तब आप अकेले रहना चाहते हैंकभी आप ने सोंचा है की जब आप अकेले होना चाहते हैं तभी आपकेलापन महसूस करते हैं | कभी – कभी आप भीड़ में भी बेहद तनहा मह्सूस करते हैं तो कभी अकेले घर में मधुर संगीत और एक कप कॉफ़ी के साथ तरोताज़ा महसूस करते हैं | यानी आप का ध्यान आप के अकेलेपन पर जाता ही नहीं |अब जरा गौर करिए जब आपके अन्दर ग्लूकोज की कमी हो जाती है और आप काम में लगे होते हैं , तो कौन बताता है आप को की आप को कुछ खा लेना चाहिए … आप का दिमाग | जी हाँ ! आप का दिमाग सिग्नल देता है और आप को जोर की भूख लगती है | ठीक वैसे ही जब आप सब कुछ खत्म हो गया की फीलिंग … Read more