अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस -परिवार में अपनी भूमिका के प्रति सम्मान की मांग

  मिसेज गुप्ता कहती हैं की उस समय परिवार में सब  कहते थे, “लड़की है बहुत पढाओ  मत | एक पापा थे जिन्होंने सर पर हाथ फेरते हुए कहा, “तुम जितना चाहो पढो” |   श्रीमती देसाई बड़े गर्व से बताती हैं की उनका भाई शादी में सबसे ज्यादा रोया था | अभी भी हर छोटी बड़ी जरूरत में उसके घर दौड़ा चला जाता है |   कात्यायनी जी ( काल्पनिक नाम ) अपने लेखन का सारा श्री पति को देती हैं | अगर ये न साथ देते तो मैं एक शब्द भी न लिख पाती | जब मैं लिखती तो घंटो सुध न रहती | खाना लेट हो जाता पर ये कुछ कहते नहीं | भले ही भूख के मारे पेट में चूहे कूद रहे हों | श्रीमान देशमुख अपनी पत्नी की ख़ुशी के लिए  स्कूटर न लेकर उसके लिए उसकी पसंद का सामान लेते हैं |                            फेहरिस्त लम्बी है पर  ये सब हमारे आपके जैसे आम घरों के उदाहरण है | ये सही है  कि हमारे पिता , भाई , पति बेटे और मित्र हमारे लिए बहुत कुछ करते हैं |पर क्या हम उनके स्नेह को नज़रअंदाज कर देते हैं | अगर ऐसा नहीं है तो क्यों पुरुष ऐसा महसूस कर रहे हैं |  अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस -परिवार में अपनी भूमिका के प्रति  सम्मान की मांग है  कल व्हाट्स एप्प पर एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें एक खूबसूरत गीत के साथ अन्तराष्ट्रीय पुरुष दिवस मानाने की अपील की गयी थी .. गीत के बोल कुछ इस तरह से थे “ मेन्स डे पर ही क्यों सन्नाटा एवेरीवेयर , सो नॉट फेयर-२” … पूरे गीत में उन कामों का वर्णन था जो पुरुष घर परिवार के लिए करता है, फिर भी उसके कामों को कोईश्रेय नहीं मिलता है | जाहिर है उसे देख कर कुछ पल मुस्कुराने के बाद एक प्रश्न दिमाग में उठा “ मेन्स डे’ ? ये क्या है ? तुरंत विकिपिडिया पर सर्च किया | जी हां गाना सही था |  अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस कब मनाया जाता है    १९ नवम्बर को इंटरनेशनल मेन्स डे होता है | यह लगातार १९९२ से मनाया जा रहा है | पहले पहल इसे ७ फरवरी को मनाया गया | फिर १९९९ में इसे दोबारा त्रिनिदाद और टुबैगो में शुरू किया गया |     अब पूरे विश्व भर में पुरुषों द्वारा किये गए कामों को मुख्य रूप से घर में , शादी को बनाये रखने में , बच्चों की परवरिश में , या समाज में निभाई जाने वाली भूमिका के लिए सम्मान की मांग उठी है |     पुरुष हो या स्त्री घर की गाडी के दो पहिये हैं | दोनों का सही संतुलन , कामों का वर्गीकरण एक खुशहाल परिवार के लिए बेहद जरूरी होता है | क्योंकि परिवार समाज की इकाई है | परिवारों का संतुलन समाज का संतुलन है | इसलिए स्त्री या पुरुष हर किसी के काम का सम्मान किया जाना जरूरी हैं | काम का सम्मान न सिर्फ उसे महत्वपूर्ण होने का अहसास दिलाता है अपितु उसे और बेहतर काम करने के लिए प्रेरित भी करता है | क्यों उठ रही है अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस की मांग    यह एक  सच्चाई  है की दिन उन्हीं के बनाये जाते हैं जो कमजोर होते हैं |पितृसत्तात्मक  समाज में हुए महिलाओं के शोषण को से कोई इनकार नहीं कर सकता | महिला बराबरी की मांग जायज है | उसे किसी तरह से गलत नहीं ठहराया जा सकता है | पर इस अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस  की मांग क्यों ? तस्वीर का एक पक्ष यह है की दिनों की मांग वही करतें हैं जो कमजोर होते हैं | तो क्या स्त्री इतनी सशक्त हो चुकी है की पुरुष को मेन्स डे सेलेब्रेट करने की आवश्यकता आन पड़ी | या ये एक बेहूदा मज़ाक है | जैसा पहले स्त्री के बारे में कहा जाता था की पुरुष से बराबरी की चाह में स्त्री अपने प्रकृति प्रदत्त गुणों का नाश कर रही है , अपनी कोमलता खो रही है | क्योंकि उसने पुरुष की सफलता को मानक मान लिया है | इसलिए वो पुरुषोचित गुण अपना रही हैं |अब पुरुष स्त्री की बराबरी करने लगे हैं |      सवाल ये उठता है की पुरुषों को ऐसी कौन सी आवश्यकता आ गयी की वो स्त्री के नक़्शे कदम पर चल कर मेन्स डे की मांग कर बैठा | क्या नारी को अपनी इस सफलता पर हर्षित होना चाहिए “ की वास्तव में वो सशक्त साबित हो गयी है | पर आस पास के समाज में देखे तो ऐसा तो लगता नहीं , फिर अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस की मांग क्यों ?     अपने प्रश्नों के साथ मैंने फिर से वीडियो देखा …. और उत्तर भी मिला | इस वीडियों के अनुसार पुरुष घर के अन्दर अपने कामों के प्रति सम्मान व् स्नेह की मांग कर रहा है | कहीं न कहीं मुझे लग रहा है की ये बदलते समाज की सच्चाई है | पहले महिलाएं घर में रहती थी और पुरुष बाहर धनोपार्जन में | पुरुष को घर के बाहर सम्मान मिलता था और वो घर में परिवार व् बच्चों के लिए पूर्णतया समर्पित स्त्री का घर में बच्चो व् परिवार द्वारा ज्यादा मान दिया जाना सहर्ष स्वीकार कर लेता था |समय बदला , परिसतिथियाँ  बदली |आज उन घरों में जहाँ स्त्री और पुरुष दोनों बाहर धनोपार्जन कर रहे हैं |   बाहर दोनों को सम्मान मिल रहा है | घर आने के बाद जहाँ स्त्रियाँ रसोई का मोर्चा संभालती हैं वही पुरुष बिल भरने ,घर की टूट फूट की मरम्मत कराने , सब्जी तरकारी लाने का काम करते हैं | संभ्रांत पुरुषों का एक बड़ा वर्ग इन सब से आगे निकल कर बच्चों के डायपर बदलने , रसोई में थोडा बहुत पत्नी की मदद करने और बच्चों को कहानी सुना कर सुलाने की नयी भूमिका में नज़र आ रहा है | पर कहीं न कहीं उसे लग रहा है की बढ़ते महिला समर्थन या पुरुष विरोध के चलते उसे उसे घर के अन्दर या समाज में उसके स्नेह भरे कामों के लिए पर्याप्त सम्मान नहीं मिल रहा है |     अपने परिचित का एक उदाहरण … Read more

अच्छा सोंचो … अच्छा ही होगा

वो देखो प्राची पर फ़ैल रहा है उजास दूर क्षितज से  चल् पड़ा है नव जीवन रथ एक टुकड़ा धूप पसर गयी है मेरे आँगन में जल्दी –जल्दी चुनती हूँ आशा की कुछ किरण  हंसती हूँ ठठाकर क्योंकि अब मेरी मुट्ठी में बंद है मेरी शक्ति  हर नयी चीज का आगमन मन को प्रसन्नता  से भर देता है। हर निशा के बाद नव भोर को भास्कर का अपनी किरणों का रथ ले कर आना ,चिड़ियों की चहचाहट ,नए फूलों का खिलना ,घर में अतिथि का आगमन भला किसके मन को हर्षातिरेक से नहीं भर देता। आज   हम समय के एक ऐसे मुहाने पर खड़े हैं , जहाँ आने वाले वर्ष  का नन्हा शिशु  माँ के गर्भ से निकल  अपने आकर -प्रकार के साथ धरती पर आने को  उत्सुक है। यह एक संक्रमण काल है | जहाँ बीता वर्ष  अपनी बहुत सारी  खट्टी -मीठी यादें देकर जा रहा है वहीं नूतन वर्ष से बहुत सारे सपनों के पूरा होने की आशा है |समय अपनी गति के साथ आगे बढ़ता है। एक का अवसान ही दूसरे का उदय है। निशा का अंत ही सूर्य का आगमन है ,सूर्य के उदय के साथ ही भोर के तारे का अस्त है। मृत्यु के शोक के साथ ही नव जीवन का हर्ष है। जय शंकर प्रसाद “कामायनी में कहते हैं। …………… “दुःख की पिछली रजनी बीचविकसता सुख का नवल प्रभात,एक परदा यह झीना नीलछिपाये है जिसमें सुख गात।                           ध्यान से देखा जाये तो हम जीवन पर्यंत एक संक्रमण बिंदु पर खड़े रहते हैं ,जहाँ हमारे सामने होता है एक गिलास आधा भरा हुआ ,आधा खाली। ये मुझ पर आप पर हम सब पर निर्भर है कि हम उसे किस दृष्टी से देखे। हमारे पास चयन की स्वतंत्रता है। सुकरात के सामने विष का प्याला रखा है ,शिष्य साँस रोके अंतिम प्रवचन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। सुकरात प्याले को देख कर कहते है “आई ऍम स्टिल अलाइव “मैं अभी भी जिन्दा हूँ ,सुकरात प्याला हाथ में ले कर कहते हैं “मैं अभी भी जिन्दा हूँ ,सुकरात जहर मुँह में लगाते हैं “मैं अभी भी जिन्दा हूँ ,कहकर उनकी गर्दन एक तरफ लुढ़क जाती है। …सुकरात अभी भी ज़िंदा हैं, अपने विचारों के माध्यम से ,क्योंकि उन्होंने मृत्यु  को नहीं माना जीवन को स्वीकार किया। यही अभूतपूर्व सोच उन्हें आम लोगों से अलग करती है।                                   प्रसिद्ध दार्शनिक ओशो कहते हैं “मेरे पास आओ मैं तुम्हे कुछ दूंगा नहीं बल्कि जो तुम्हारे पास हैं वो ले लूंगा।” और तुम यहाँ से खाली हो कर जाओगे। यहाँ ओशों के अनुसार सद्गुरु एक चलनी की तरह हैं। जो शिष्य के समस्त नकारात्मक विचारों को निकाल देता है व् सकारात्मक विचारों को शेष रहने देता है। सर का बोझ हट्ते ही मनुष्य सफल सुखी व् प्रसन्न हो जाता है।                                        वास्तव में हर मनुष्य की जीवन गाथा उसके अमूर्त विचारों का मूर्त रूप है। विचार ही देवत्व प्रदान करते है विचार ही राक्षसत्व के धरातल पर गिराते हैं। अगर मोटे तौर पर वर्गीकरण किया जाये तो  विचार दो प्रकार के होते हैं. …सकारात्मक (प्रेम ,दया ,करुना ,उत्साह ,हर्ष आदि ),नकारात्मक (ईर्ष्या ,घृणा ,क्रोध ,वैमस्यता आदि )दिन भर में हमारे मष्तिष्क में आने वाले लगभग ६०,००० विचारों में जिन विचारों की प्रधानता होती है वही  हमरी मूल प्रकृति होती है.सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति नकारात्मक सोच वाले व्यक्तियों  की तुलना में अधिक खुश व् सफल देखे गए हैं।                                   भारतीय संस्कृति भी अपने मूल -मन्त्र (सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।) में सकरात्मक सोच की अवधारणा को ही पुष्ट करती है |  निर्विवाद सत्य है ,जो लोग सब का भला सोचते हैं उनमें ऊर्जा का स्तर  ज्यादा होता है |                                                            विचारों का मानव जीवन पर कितना प्रभाव है ,इसका उदहारण मनसा वाचा कर्मणा के सिद्धांत पर चलने वाले  हिन्दू धर्म ग्रन्थ गीता में देखने को मिलता है |जहाँ व्रत ,पूजा उपवास से लेकर अच्छे और बुरे हर कर्म को विचार या भावना के आधार पर तामसी ,राजसी या सात्विक कर्म में बांटा जाता है। श्री कृष्ण गीता में कहते हैं “हे अर्जुन मृत्यु के समय समस्त इन्द्रियाँ मन में समाहित हो जाती हैं और मन आत्मा में समाहित हो कर प्राणो के साथ निकल जाता है। संभवत:ये मन विचारों से ही निर्मित है। हमारे कर्म हमारे विचारों के आधीन हैं और कर्मों के आधीन परिस्तिथियाँ हैं |ब्रह्म कुमारी शिवानी जी भी अपने हर प्रवचन में विचार का महत्व बताती हैं | उनके अनुसार जिसे हम कर्म कहते हैं | वह एक न होकर तीन बिन्दुओं से बना है | विचार शब्द और क्रिया | अर्थात हम जो सोंचते , बोलते और करते हैं | तीनों मिल कर कर्म बनाते हैं | अगर हम किसी व्यक्ति काम और घटना के प्रति विचार दूषित रखते हैं परन्तु संभल कर बोलते हैं और काम भी ठीक से करते हैं | तब भी परिणाम नकारात्मक ही आएगा | इसलिए हम सब अक्सर ये प्रश्न करते हैं की हम तो सबके साथ अच्छा करते हैं फिर मेरे साथ ही बुरा क्यों होता है | कारण स्पष्ट है हमारे विचार नकारात्मक होते हैं |.                धर्म ग्रंथों में भी विचारों का महत्व बताया गया है | क्योंकि विचारों का प्रभाव कर्म से भाग्य के सिद्धन्त पर इस जन्म में ही नहीं अगले जन्म में भी होता हैं |  कहते हैं   जैसा हम जीवन भर सोचते हैं वैसा ही मन पर अंकित होता जाता है यही गुप्त भाषा (कोडेड लैंगुएज )हमारे अगले जन्म का प्रारब्ध बनती है। स्वामी  विवेकानंद के अनुसार नकारत्मक व् सकारत्मक उर्जायें मृत्यु के बाद हमारी आत्मा को खींचती हैं | हम अपने जीवन काल में रखे गए विचारों के आधार पर ही वहां पहुँचते हैं व् वैसा ही नकारात्मक या सकारात्मक जन्म पाते हैं |  अतः न सिर्फ इस जीवन के लिए बल्कि अगले जीवन के लिए भी एक- एक विचार महत्वपूर्ण है।  धर्म से इतर अगर दुनयावी … Read more

फेसबुक और महिला लेखन

कितनी कवितायें  भाप बन  कर उड़ गयी थी  उबलती चाय के साथ  कितनी मिल गयी आपस में  मसालदान में  नमक मिर्च के साथ  कितनी फटकार कर सुखा दी गयी  गीले कपड़ों के साथ धूप में  तुम पढ़ते हो   सिर्फ शब्दों की भाषा  पर मैं रच रही थी कवितायें  सब्जी छुकते हुए  पालना झुलाते हुए  नींद में बडबडाते हुए  कभी सुनी , कभी पढ़ी नहीं गयी  कितनी रचनाएँ  जो रच रहीहै  हर स्त्री  हर रोज                               सृजन और स्त्री का गहरा नाता है | पहला रचियता वो ईश्वर है और दूसरी स्त्री स्वयं | ये जीवन ईश्वर की कल्पना तो है पर मूर्त रूप में स्त्री की कोख   में आकार ले पाया है | सृजन स्त्री का गुण है , धर्म है | वह हमेशा से कुछ रचती है | कभी उन्हीं मसालों से रसोई में कुछ नया बना देती है की परिवार में सब अंगुलियाँ चाटते रह जाएँ | कभी फंदे – फंदे जोड़ कर रच देती है स्वेटर | जिसके स्नेह की गर्माहट सर्द हवाओ से टकरा जाती है | कभी पुराने तौलिया से रच देती है नयी  दरी | जब वो इतना सब कुछ रच सकती है तो फिर साहित्य क्यों नहीं ? कभी – कभी तो मुझे लगता है की क्या हर स्त्री के अंदर कविता बहती है , किसी नदी की तरह या कविता स्वयं ही स्त्री है ? फिर भी भी लम्बे समय तक स्त्री रचनकार अँगुलियों पर गिने जाते रहे | क्या कारण हो सकता है इसका … संयुक्त परिवारों में काम की अधिकता , स्त्री की अशिक्षा या अपनी खुद की ख़ुशी के लिए कुछ भी करने में अपराध बोध | या शायद तीनों |                                 आज स्त्री ,स्त्री की परिभाषा से आज़ाद हो रही है | सदियों से परम्परा ने स्त्री को यही सिखाया है की उसे केवल त्याग करना है | परन्तु वो इस अपराध बोध से मुक्त हो रही है की वो थोडा सा अपने लिए भी जी ले | उसने अपने पंखों को खोलना शुरू किया है | यकीनन इसमें स्त्री शिक्षा का भी योगदान है | जिसने औरतों में यह आत्मविश्वास भरा है की आसमान केवल पुरुषों का नहीं है | इसके विस्तृत नीले विस्तार में एक हरा  कोना उनका भी है | ये भी सच है की आज तमाम मशीनी उपकरणों के इजाद के बाद घरेलु कामों में भी  आसानी हुई है | जिसके कारण महिलाओं को रसोई से थोड़ी सी आज़ादी मिली है | जिसके कारण वो अपने समय का अपनी  इच्छानुसार इस्तेमाल करने में थोडा सा स्वतंत्र हुई है | साहित्य से इतर यह हर क्षेत्र में दिख रहा है | फिर से वही प्रश्न … तो फिर साहित्य क्यों नहीं ? निश्चित तौर पर इसका उत्तर हाँ  है | पर उसके साथ ही एक नया प्रश्न खड़ा हो गया …कहाँ और किस तरह ? और इसका उत्तर ले कर आये मार्क जुकरबर्ग फेसबुक के रूप में | फेसबुक ने एक मच प्रदान किया अपनी अभिव्यक्ति का |                                                  यूँ तो पुरुष हो या महिला फेसबुक सबको समान रूप से प्लेटफ़ॉर्म उपलब्द्ध करा रहा है | परन्तु इसका ज्यादा लाभ महिलाओं को मिल रहा है | कारण यह भी है की ज्यादातर महिलाओ को अपनी लेखन प्रतिभा का पता नहीं होता | साहित्य से इतर शिक्षा प्राप्त महिलाएं कहीं न कहीं इस भावना का शिकार रहती थी की उन्होंने हिंदी से तो शिक्षा प्राप्त की नहीं है, तो क्या वो सही – सही लिख सकती हैं | और अगर लिख भी देती हैं तो क्या तमाम साहित्यिक पत्रिकाएँ उनकी रचनाएँ स्वीकार करेंगी या नहीं | फेसबुक पर पाठकों की तुरंत प्रतिक्रिया से उन्हें पता चलता है की उनकी रचना छपने योग्य है या उन्हें उसकी गुणवत्ता में क्या -क्या सुधार  करने है |   कुछ महिलाएं जिन्हें अपनी प्रतिभा का पता होता भी है  प्रतिभा बच्चो को पालने व् बड़ा करने में खो जाती है |वो भी  जब पुन : अपने को समेटते हुए लिखना शुरू करती हैं तो  पता चलता कि  की साहित्य के आकाश में मठ होते हैं जो तय करते हैं कौन उठेगा ,कौन गिरेगा। किसको स्थापित  किया जायेगा किसको विस्थापित।इतनी दांव – पेंच हर महिला के बस की बात नहीं | क्योंकि अक्सर साहित्य के क्षेत्र में जूझती महिलाओ को ये सुनने को अवश्य मिलता है की ,” ये भी कोई काम है बस कागज़ रंगती रहो | मन निराश होता है फिर भी कम से कम हर रचनाकार यह तो चाहता है कि उसकी रचना पाठकों तक पहुँचे।  रचना के लिए पाठक उतने ही जरूरी हैं जितना जीने के लिए ऑक्सीज़न।  इन मठाधीशों के चलते कितनी रचनायें घुट -घुट कर दम  तोड़ देती थी और साथ में दम  तोड़ देता था रचनाकार का स्वाभिमान ,उसका आत्मविश्वास। यह एक ऐसी हत्या है जो दिखती नहीं है |कम से कम फेस बुक नें रचनाकारों को पाठक उपलब्ध करा कर इस हत्या को रोका है।                                            हालंकि महिलाओ के लिए यहाँ भी रास्ते आसान  नहीं है | उन्हें तमाम सारे गुड मॉर्निंग , श्लील  , अश्लील मेसेजेस का सामना करना पड़ता है |  अभी मेरी सहेली ने बताया की उसने अपनी प्रोफाइल पिक बदली तो किसी ने कमेंट किया ” मस्त आइटम ” | ये कमेन्ट करने वाले की बेहद छोटी सोंच थी | ये छोटी सोंचे महिलाओं को कितना आहत करती हैं इसे सोंचने की फुर्सत किसके पास है | वही किसी महिला के फेसबुक पर आते ही ऐसे लोग कुकरमुत्ते की तरह उग आते हैं जो उसके लेखन को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए उसे रातों रात स्टार बनाने में मदद देने को तैयार रहते हैं | याहन इतना ही कहने की जरूरत है की छठी इन्द्रिय हर महिला के पास है और उसे लोगों के इरादों को भांपने और परखने में जरा भी … Read more

मदर्स डे पर विशेष- प्रिय बेटे सौरभ

एक माँ का पत्र बेटे के नाम               प्रिय बेटे सौरभ ,                              आज तुम पूरे एक साल के हो गए | मन भावुक है याद आता है आज ही का दिन जब ईश्वर ने तुम्हे मेरी गोद में डाला था तब मैं तो जैसे पूर्ण हो गयी थी | जिसे पूरे नौ महीने अपने अन्दर छुपा कर रखा , पल –पल जिसका इंतज़ार किया उसे देखना छूना कितना सुखद है | हाँ  महसूस तो मैं तुम्हे पहले से ही कर रही थी अपने गर्भ  के अन्दर | जब लगता था किसी कली  को अपने अन्दर कैद कर लिया है | जो पल –पल खिल रही है | मेरी जिंदगी अब तुम्हारे चारों और घूमती है , सुबह से रात तक | जानती हो तुम्हारी नानी हँसती  हैं , कहती है ,” ये कल की बिटिया मम्मी बनते ही बदल गयी | और क्यों न बदलूँ  , तुम हो ही इतने प्यारे | जब तुम खेलते –खेलते आकर मुझे देख जाते हो , मुझे देखते ही किसी की गोदी से उतर कर मेरे पास आने की जिद करते हो या मुझे किसी दूसरे बच्चे को गोद में उठाता हुआ देखकर रोने लगते हो , तो अपने वजूद पर अभिमान हो उठता है | मेरे नन्हे से फ़रिश्ते ईश्वर तुम्हे खूब लंबी  आयु  व् जीवन की हर ख़ुशी दें | अले ले ले … का तुमने तो रोना शुरू कर दिया … अब पत्र लिखना बंद , मेरा बेटू  बुलाएगा तो मम्मी सबसे पहले उसके पास जायेगी | ************************************************************************** प्रिय बेटे सौरभ            आज तुम पूरे ५ साल के हो गए | तुम्हारा स्कूल का पहला दिन | जब तुम्हे तुम्हारी टीचर मुझसे दूर कर के क्लास में ले जा रही थी और तुम बेतरह मुझे देख कर मम्मी , मम्मी चीख रहे थे | उफ़ ! जैसे मेरा कालेज कटा  जा रहा था | फिर भी उपर –ऊपर से तुम्हे मोटिवेट कर रही थी ,” अरे पढ़ेगा नहीं तो ,  तो कमाएगा कैसे ? फिर  अपनी मम्मी के लिए सुंदर  साड़ी   कैसे लाएगा , क्या मैं हमेशा पापा की लायी साड़ी  ही पहनती रहूंगी , बेटे की दी  नहीं | इतना सुनते ही तुम जैसे जिम्मेदारी  के अहसास से भर गए | थोडा सुबकते ही सही पर आँसू पोंछ कर चुपचाप क्लास में चले गए | और मैं पूरा दिन घर में बेचैनी से तुम्हारा इंतज़ार करती रही | कितना बुरा लग रहा था आज करीने से सजा घर | हर चीज जहाँ की तहां | न बात – बात पर रोने चीखने की आवाज़े न खिलखिलाकर हंसने की | ये भी कोई घर है | पर शुक्र है भगवान् का तुम्हारे  आते ही सब कुछ पहले जैसा हो गया |  हाँ  इतना फर्क जरूर आया है की अब तुम समझदार होने लगे हो ,” तभी तो मेरे पिछले बर्थ डे पर छुप –छुप  कर मेरे लिए कार्ड बनाते रहे और सुबह मेरे उठते ही , “ हैप्पी  बर्थडे टू यू  मम्मी कह कर गले  से लग गए | कार्ड क्या . कुछ आड़ी  तिरछी  रेखाए , पर ये कार्ड मेरे जीवन का सबसे अनमोल तोहफा है | और उससे भी अनमोल तोहफा है बात बात पर तुम्हारा कहना ,” मम्मी आप दुनिया की सबसे अच्छी मम्मी हो | |मेरी बगिया  के फूल जीते रहो मेरे लाल | ************************************************************************* प्रिय बेटे सौरभ              आज तुम पूरे १४ साल के हो गए | मन में अपने पौधे  को बढ़ते हुए देखने की ख़ुशी तो है पर ये क्या … क्या हो गया मेरे लाल , क्यों  तुम मुझसे दूर जा रहे हो |  मैं तो वही हूँ , फिर क्यों तुम्हे मेरी हर बात गलत दिखाई देती है | मैं तो पहले की ही तरह खाने –पीने सोने हर बात में तुम्हारा ध्यान रखती हूँ | पर अब तुम्हे वो ध्यान नहीं टोंका टोंकी लगने लागा है | “ माय लाइफ , माय  रूल्स “ का जुमला जो तुम बार – बार उछालते हो तो सुन लो बेटा मैं ऐसे कैसे तुम्हे अपनी मर्जी चलने दूं | आखिरकार तुम मुझसे पृथक तो नहीं हो | तुम मेरे अंश हो | और वो क्या जो तुम दोस्तों से कहते फिरते हो ,” मम्मी चैनल “ जो दिन भर नॉन स्टॉप चलता रहता है |  अपने बच्चे का ध्यान रखना गलत है क्या ? पर किससे कहूँ  तुम्हे तो मेरी हर बात से शिकायत है , मेरा बनाया खाना अच्छा नहीं लगता … दोस्त की मम्मी अच्छा बनाती है , मैं ठीक से कपडे प्रेस नहीं करती , सलवट रह जाती है | दोस्त की मम्मी ने साइंस  पढ़ा दी  इसलिए उसके नंबर अच्छे आ गए … और फिर उलाहना में कहना ,” मैं कहाँ से अच्छे नम्बर लाऊं तुम्हे तो साइंस भी नहीं आती | बेटा क्या साइंस न आना किसी माँ का इतना बड़ा दोष होता है | उस दिन जो तुम कहते –कहते रूक गए , “ हिटलर माँ टोंका –टांकी  न करो ,” आप तो दुनिया की सबसे बुरी … “ | तुमने तो कह दिया पर मैं घंटों तकिये में मुँह छिपाए रोती  रही | तुम्हारे पापा कह रहे थे इस उम्र में होता है , सब ठीक हो जाएगा | हे प्रभु सब ठीक हो जाए ,मेरा जीवन तुम्हारे इर्द –गिर्द घूमता है | तुम मुझे गलत समझो … सहन नहीं होता … सहन नहीं होता | खूब तरक्की करो मेरे लाल | ************************************************************************** प्रिय बेटे सौरभ                 प्रतियोगी परीक्षाओं में तुम्हारा चयन इतने अच्छे कॉलेज में हो गया | मन बहुत खुश है | सभी पड़ोसनें मुझे बहुत भाग्यशाली बता रही हैं | सच में हूँ तो मैं भाग्यशाली जो तुम्हारे जैसा बेटा पाया है | पर तुम्हे घर से दूर  भेजने में बहुत बेचैनी है | कौन तुम्हारा ध्यान रखेगा | कौन कमरा साफ़ करेगा , कौन कपडे धोएगा , और तुम तो हो ही लापरवाह .. खाने पीने की सुध तो रहती नहीं | यहाँ भी तो खाना सामने पड़ा –पड़ा ठंडा होता रहता है | जब तक मैं याद न दिलाऊ , तुम खाते ही नहीं | अब वहाँ क्या खाओगे | सोंच –सोंच कर कलेजे में हूक सी उठ रही है … Read more

“माँ“ … कहीं बस संबोधन बन कर ही न रह जाए

माँ केवल एक भावनात्मक संबोधन ही नहीं है , ना सिर्फ बिना शर्त प्रेम करने की मशीन ….माँ के प्रति कुछ कर्तव्य भी है …. “माँ” … कहीं बस संबोधन बन कर ही न रह जाए डुग – डुग , डुग , डुग … मेहरबान कद्रदान, आइये ,आइयेमदारी का खेल शुरू होता है | तो बोल जमूरे … जी हजूर सच –सच बताएगा जी हजूर आइना दिखाएगा जी हजूर दूध का दूध और पानी का पानी करेगा जी हजूर तो दिखा …. क्या लाया है अपने झोले में हजूर, मैं अपने झोले में लाया हूँ मनुष्य को ईश्वर का दिया सबसे नायब तोहफा “सबसे नायब तोहफा … वो क्या है जमूरे, जल्दी बता?” “हुजूर, ये वो तोहफा है, जिसका इंसान अपने स्वार्थ के लिए दोहन कर के फिर बड़ी  बेकदरी करता है |” “ईश्वर के दिए नायब तोहफे की बेकद्री ,ऐसा क्या तोहफा है जमूरे ?” “हूजूर ..वो तोहफा है … माँ” “माँ ???” “जी हजूर , न सिर्फ जन्म देने वाली बल्कि पालने और सँभालने वाली भी” “वो कैसे जमूरे” “बताता हूँ हजूर , खेल दिखता हूँ हजूर …… हाँ ! तो मेहरबान  कद्रदान , जरा गौर से देखिये … ये हैं एक माँ,चारबच्चों की माँ , ९० साल की रामरती देवी |झुर्रियों से भरा चेहरा कंपकपाती आवाज़, अब चला भी नहीं जाता | रामरती देवी वृद्ध आश्रम के एक बिस्तर पर  पड़ी जब – तब कराह उठती हैं | पनीली आँखे फिर दरवाज़े की और टकटकी लगा कर देखती हैं | शायद प्रतीक्षारत हैं | मृत्यु का यथार्थ सामने है पर मानने को मन तैयार नहीं की उसके चार बेटे जिन्हें उसने गरीबी के बावजूद अपने दूध और रक्त से बड़ा किया | जो बचपन में उन्हेंचारों ओर घेरे हुए ,” अम्मा ये चाहिए , अम्मा वो चाहिए कहते रहते थे | जब तक वो देने योग्य थी , देती रही | पर अब जब वो अशक्त हुई तो उसको मिला आश्रम का अकेलापन | आज बड़े आदमी बनने के बाद उसके बच्चे यह भी भूल गए की कम से कम एक बार तो पू छना चाहिएथा , “अम्मा तुम्हें क्या चाहिये “?पूछना तो दूर उनका साथ रहना बेटों के लिए भारी हो गया | आश्रम में लायी गयी रामरती देवी बस “माँ ” ही हो सकती है | जो समझते हुए भी नहीं समझ पाती तभी तो प्रतीक्षारत है अपने बेटों की , की आश्रम द्वारा बार – बार नोटिस भेजे जाने पर, “तुम्हारी माँ का अंतिम समय है , आ कर देख जाओ” शायद आ जाये | शायद एक बार दुनिया से कूँच करने से पहले उन्हें सीने से लगा सके | बरसों से अकेले , उपेक्षित रहने का दर्द शायद …शायद कुछ कम हो सके | पर साहिबान रामरती देवी अकेली नहीं है आज न जाने कितनी माएं अपनी वृद्धावस्था में घर के अन्दर ही उपेक्षित , अवांछित सी पड़ी है | जिनका काम बस आशीर्वाद देना भर रह गया है | ये देखिये साहिबान वो भी माँ ही है …..जिसे हमारे पूर्वजों ने धरती मैया कहना सिखाया | सिखाया की सुबह सवेरे उठ कर सबसे पहले उसके पैर छुआ करो | माँ शब्द से अभिभूत धरती माता हँस हँस कर उठा लेती है अपनी संतानों के भार को | जब – जब रौंदी जाती है हल से उपजाती है तरह –तरह की वनस्पतियाँ … कहीं भूँखी न रह जाएँ उसकी संतानें | न जाने कितने अनमोल रत्न छिपाए रहती है अपने गर्भ में , अपनी संतति को सौपने के लिए | पर हमने धरती के साथ क्या किया | पहाड़ काटे , नदियों का रास्ता मोड़ा … यहाँ तक तो कुछ हद तक समझ में आता है | पर जंगल जलाना, ये क्रूरता ही हद है | जिस समय मैं ये कह रहा हूँ उत्तराखंड के जंगल धूँ, धूँ कर के जल रहे हैं | कितने पेड़, कितने जीव –जंतु रक्षा, दया के लिए याचना करते – करते काल के गाल में भस्म हो रहे होंगे | सुनते हैं भू माफिया का काम है | जगल साफ़ होंगे | शहर बसेंगे | बड़े –बड़े भवन खड़े होंगे | पैसे –पैसे और पैसे आयेंगे | माँ तड़प रही है | किसे परवाह है | और तो और जहाँ – जहाँ धरती मैया अपने अन्दर जल समेटे हैं | वहाँ उसका बुरी तरह दोहन हो रहा है |घर – घर बोरिंग हो रही है | ट्यूबवेल लग रहे हैं |धरती दे रही है तो चाहे जितना इस्तेमाल करो |बहाओ , बहाओ , खूब बहाओ | रोज कारे धुल रहीं हैं , नल खुले छूट रहे हैं , पानी की टंकी घंटो ओवर फ्लो कर रही है | किसे चिंता है लातूर औरबुंदेलखंडबूंद – बूँद पानी को तडपते लोगो की |किसे चिंता है धरती माता के अन्दर प्लेटों के रगड़ने की | कितना कष्ट होता होगा धरती माँ को | पर किसे परवाह है | ये देखिये साहिबान एक और माँ … अपनी गंगा मैया | अभिभूत संतति “ जय गंगा मैया “ का उद्घोष कर हर प्रकार का कूड़ा – करकट गन्दगी उसे समर्पित कर देती है | माँ है … सब सह लेंगी की तर्ज पर | और गंगा मैया, सिसकती होगीशायद | हर बार उसके आँसू मिल जाते होंगे उसी के जल में | कहाँ देख पाते हैं हम | वैसे भी आँसू देखने की नहीं महसूस करने की चीज है | तभी तो अब थक गयी रोते –रोते |सिकुड़ने लगी है | समेटने लगी है अपने अस्तित्व को |माँ का आदर प्राप्त “ गंगा मैया “ अक्सर याद करती होंगी अपने अतीत को | जब भागीरथ उसे स्वर्ग से उतार लाये थे | तब ममता पिघल – पिघल कर दौड़ पड़ी थी अपने शिशुओं की प्यास बुझाने को | संतानों ने भी माँ कह कर सम्मानित किया | उसके तटो पर बस गयी हमारे देश की संस्कृति | पर कहाँ गया वो सम्मान | आश्चर्य हर – हर गंगे कह कर गंगा से अपनी पीर हरवाने वाली संतति नाले में तब्दील होती जा रही गंगा की पीर से अनजान कैसे हैं? और देखिये साहिबान …ये हैं वो गौ माता … ३३ करोंण देवताओं का जिसमें वास है | जिसे दो रोटी की … Read more

अटूट बंधन वर्ष -२ अंक -६ सम्पादकीय :समग्र जीवन की सफलता

समग्र जीवन की  सफलता जब जानी थी सुख –दुःख की परिभाषा तब बड़ी ही सावधानी से खींच दिया था एक वृत्त सुख के चारों ओर की कहीं मिल न जाए सुख के चटख रंगों में दुःख के स्याह रंग और मैं एक सजग प्रहरी की भांति अनवरत रही युद्ध रत अंधेरों के खिलाफ पर जीवन तो परिधि पर ही बीत गया जिसकी रक्षा में रत उसे भोगा कहाँ इसलिए मुक्त कर  मन को तोड़ दी है परिधि  पड़ गए हैं सुख के चटख रंगों में स्याह राग के छींटे पर मन अब शांत है , सहज है क्योंकि ,यही तो जीवन है                            सुधा और अरुण पति –पत्नी हैं | दो बच्चों का  छोटा सा सुखी परिवार |  इस छोटे से घर , टी वी वाशिंग मशीन व् तमाम सुख सुविधायें हैं | जो अरुण की छोटी तनख्वाह के बस में नहीं थीं | अरुण ने सब कुछ लोन पर ले लिया | उसका उदेश्य सिर्फ परिवार  को खुशियाँ देना नहीं था | वो चाहता था उसके दोस्तों व् उसकी पत्नी की सहेलियों के बीच उनकी  नाक सबसे  ऊँची रहे |पर लोन की मासिक क़िस्त  भरने के कारण अरुण की तनख्वाह का एक बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता है | थोड़े से पैसों में बच्चों की छोटी –छोटी माँगे   अधूरी रह जाती हैं | खाने –पीने और  बच्चों की सेहत से कई बार समझौता करना पड़ता हैं | नयी साड़ी  न खरीद पाने के कारण सुधा कई बार मुहल्ले के कार्यक्रमों में नहीं जा पाती  है | क्योंकि वहाँ  कपड़ों से इंसान की औकात तय की जाती है | सुधा  और अरुण कई बार पछताते हैं की  सब कुछ जल्दी पा लेने ही होड़ में लोन न लेकर धीरे –धीरे बचत कर के लेते तो शायद ये आभाव न लगता |       रितेश व् दीपा दोनों बड़ी कम्पनी में कार्यरत हैं | ऊँचा  ओहदा , ऊँचा  वेतन , घर में ऐशो आराम की सब चीजे सब कुछ है , नहीं है तो बस समय | खुद के लिए ,  एक दूसरे के लिए , बच्चों के लिए | कभी कभी रितेश को अपनी माँ याद आती है |जब वो अल सुबह एक एक फूल चुन कर भगवान के लिए माला बनाया करती थी व् उनके सुरीले भजन से उनकी आँख खुलती थी | अब तो कभी वो या  कभी दीपा,” हे भगवान दो मिनट लेट हो गया” कहते हुए उठते हैं | आया के हाथों पला एकलौता बेटा कब माँ की लोरी का इंतज़ार करते –करते ड्रग्स के चंगुल  में फंस गया पता ही नहीं चला | उन्हें कभी कभी लगता है जैसे सब कुछ पा के भी खाली हाथ हैं |           नर्सरी की टीचर रोहन की माँ को बुला कर कहती हैं | पिछले ३ दिन से  रोहन स्कूल नहीं आया | क्या बात है आप रोहन का फ्यूचर स्पॉइल कर रही हैं | निकिता जी को बेटी का फ्यूचर  बनाने की जरूरत से ज्यादा चिंता है | वह ७ साल की बेटी के स्कूल से घर आते ही उसका होम वर्क कराती हैं | फिर स्वीमिंग क्लासेज में ले जाती हैं | फिर ट्यूशन पढने भेजती हैं | ट्यूशन  से आने बाद डांस क्लासेज में  | खाना खिलाते समय जब निकिता को नींद के झोंके आने लगते हैं तो उसकी मम्मी उसे जगा –जगा कर आज के सब पाठ याद कराती हैं | ७ साल की बच्ची के पास खेलने का समय नहीं है | पर माँ को अभी भी फ़िक्र है उसकी, जो सीखने से  छूटा  जा रहा है | जिंदगी की दौड़ में निकिता को विजेता कैसे बनाये |                  आज के युग का नारा है | जिंदगी एक दौड़ है | दौड़ो विजेता बनों | हम सब जीतने आये हैं | तारे जमीं पर का एक गीत मुझे याद आ रहा है , “ दुनिया का नारा जमे रहो , मंजिल का इशारा जमे रहो | और हम सब बेतहाशा भाग रहे हैं |फिर  भी सब में खाली पन है अकेला पन है | जो भीतर ही भीतर हर किसी को खाए जा रहा है |  ये अनकंट्रोल्ड ट्रैफिक ही दुर्घटनाओं का कारण बनता है | दुर्घटनायें शारीरिक , दुर्घटनायें मानसिक और दुर्घटनायें सामाजिक | आज हर दिन अख़बार में आत्महत्याओं , रोड रेज की घटनाएं पढने को मिलती हैं | आज जब ऐसे साइकोपैथ लोगों की संख्या बढ़ गयी है जिनके  अपने ही बच्चे  व् परिवार के सदस्य दिन –रात वर्बल ऐब्युज़ का शिकार होते रहते हैं | आज अनेक घटनाएं सफलता के युग में मानवता को आदिम युग तक पीछे छोडती प्रतीत होती हैं |  चाहे वो घर में अपने बेटे के साथ क्रिकेट  खेलते डॉ नारंग की उनके बेटे के सामने की गयी नृशंस  हत्या हो , बॉयफ्रेंड का छल झेलती आनंदी उर्फ़ प्रत्यूषा  बनर्जी की आत्महत्या हो या माँ – बाप के झगड़ों से आजिज़ आ व्हाट्स एप पर अपने दोस्तों को जिंदगी और मौत के मेसेज भेज कर आत्महत्या करने वाला वो नन्हा बच्चा हो  | और क्यों न हो ऐसे घटनाएं , जब सफलता की दौड़ में जीतना ही सब कुछ है , और नंबर वन बनना ही धेय्य तो  ‘एव्री थिंग इस फेयर इन  लव एंड वार’  का नारा लगाते समाज में एक दूसरे की टांग खीच कर लंगड़ी  मार कर आगे बढ़ जाना स्वाभाविक है |                       एक भगदड़ मची है | सब को भागना है |क्यों दौड़ रहे हैं पता नहीं |  मंजिल कहाँ है कई लोगों  को यह भी पता नहीं | पर भागना है | रुको नहीं भागो | मुझे बरबस लियो टॉलस्टाय की कहानी “ हाउ मच लैंड ए  मैं डज नीड “ याद आ रही है | कहानी का नायक जब’ जितना भाग लोगे उतनी जमीन तुम्हारी ‘का नियम सुनता है , तो बेतहाशा भागने लगता है | थोडा और थोडा और … साँस फूलने लगती है | पर आगे की जमीन तो और उपजाऊ है , वो और भागता है | वो इतना भागता है की अन्तत : उसकी मृत्यु हो जाती है | कब्र खुद जाती है और उसके हिस्से जमीन आती है मात्र ६ फुट २ इंच | आज यही तो हमारे साथ हो रहा है |  … Read more

अटूट बंधन वर्ष -२ अंक -५ सम्पादकीय : किसी का जाना …कभी जाना नहीं होता

किसी का जाना ….कभी जाना नहीं होता लाल –पीले हरे नीले रंगों से इतर कुछ अलग ही होते हैं रिश्तों के रंग जहाँ चलतें हैं सापेक्षता के सिद्धांत की पल पल बनते बिगड़ते त्रिकोंड़ो में साथ –साथ आगे बढ़ी हुई रेखायें नहीं ले पाती हैं कोई आकर की दृश्य –अदृश्य रूप में मौजूद रहता है तीसरा कोण ध्वस्त हो जातें हैं कल्पना के बिम्ब शेष रहता है क्रूर यथार्थ रोक सको तो रोक लो उसको जो नहीं हो कर भी तैरता है किसी न किसी रूप में , किसी न किसी आकार में दो रेखाओं के मध्य क्योंकि किसी का जाना …कभी जाना नहीं होता                    रंगों का त्यौहार होली आने वाला   है | पत्रिका के इस अंक में हर रंग को समेटने का प्रयास किया है |अब अंतिम प्रस्तुति मेरा पाठकों के साथ संवाद | जब –जब यह संवाद स्थापित करती हूँ अतीत की न जाने कितनी स्मृतियाँ मन के आँगन में पुकारने लगती हैं | और क्यों न हो ये अनुभव , ये स्मृतियाँ , ये मनोभावों का विश्लेषण किसी लेखक की धरोहर होती हैं | परन्तु एक विरोधाभास भी है | जीवन की अनेक घटनाएं जो महत्वहीन होती हैं | जिनका होना या न होना बराबर होता है | स्मृतियों में बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाती हैं | मैं अपने विचारों लीं थी की  भतीजे का फोन आ गया | हँसते हुए कहा “ मौसी कल तो कॉलेज में बेवजह की डांट  पड़ गयी | दरसल सभी बच्चे सामूहिक बंक ( एक साथ क्लास न अटेंड करना ) चाहते थे | पर हम तीन –चार बच्चे यह सोच कर क्लास में गए की अध्यापिका जब पढ़ाने आएगी तो सारी  क्लास अनुपस्तिथ देख कर उन्हें  अपमानित महसूस होगा | वैसे भी कुछ न कुछ तो पढायेंगी  ही | क्लास में जाने का कुछ तो लाभ मिलेगा  ही | परन्तु हुआ उल्टा | केवल कुछ बच्चों को देख कर अध्यापिका क्रोधित हो गयीं | वह हम लोगों को डाँटने लगीं की आप लोग पढ़ाई पर ध्यान नहीं देतें हैं क्लास बंक करतें हैं | ये एक बेहद गैर जिम्मेदाराना हरकत है | हम सब बच्चे हैरान थे | हम सब जो कक्षा में उपस्तिथ थे उनके हिस्से की डांट खा रहे थे जो अनुपस्तिथ थे | जो अनुपस्तिथ थे वो बाहर मजे ले रहे थे | कुल मिलाकर जो क्लास में नहीं थे वो थे और जो थे वो नहीं थे | बात सामान्य थी पर उसकी बात का आखिरी वाक्य मुझे कहीं गहरे प्रभावित कर गया | किसी  का न हो कर भी होना और किसी का होकर भी नहीं होना |                   पहले भी मुझे कुछ पुरानी फिल्में सोचने पर विवश करती रहीं हैं | जिन में प्रेम त्रिकोण होता है | दो नायक एक नायिका या एक नायक दो नायिका | ज्यादातर फिल्मों में कथाकार सहूलियत की दृष्टि से  इस त्रिकोण में से एक व्यक्ति ( नायक या नायिका ) की मृत्यु दिखा देता है | और दो लोग जीवन के पथ पर आगे बढ़ जातें हैं | हैप्पी एनडिंग हिंदी फिल्मों का अपना अंदाज़ है | पर क्या वास्तविक जिंदगी में ऐसा होता है | क्या दो व्यक्ति तीसरे की छाया से पूर्णतया  मुक्त हो कर जीवन पथ पर आगे बढ़ पाते हैं | सच्चाई ये है की जीवत हो या मृत ,वह तीसरा व्यक्ति उनके मध्य हमेशा रहता है | कभी तानों के रूप में , कभी उलाहनों के रूप में , कभी  दर्द के रूप में | वो जा कर के भी नहीं जाता |              भले ही ये किस्सा फ़िल्मी हो , नायक नायिका का हो | पर जीवन में ऐसे हजारों प्रेम त्रिकोण बनते हैं | जिसमें एक केंद्र होता है और दो परिधि पर | ये त्रिकोण दो बहुओं और सास के बीच में बनता है | पुरुष और उसकी माँ पत्नी के मध्य  बनता है | दो बहनों और भाई के मध्य बनता है | विवाद की स्थिति में जहाँ एक जाता दिखता है , हटता  दिखता है और दो लोग साथ में आगे बढ़ते दिखतें हैं | पर जाने वाला कभी नहीं जाता वो उनके मध्य तैरता  है जीवन पर्यंत | किसी न किसी रूप में किसी न किसी आकार में , चाहे –अनचाहे |  मुझे याद आ रहीं है एक बुजुर्ग महिला ‘राधा जी ‘ | राधा जी अपनी दो बहुओं के मध्य संतुलन बनाने में असमर्थ रहीं | रोज़ –रोज़ की किच –किच का परिणाम यह हुआ की उन्होंने दोनों बहुओं को अलग –अलग रहने का आदेश दे दिया | एक बहु ख़ुशी –खुशी  अलग रहने लगी | दूसरी नें  राधा जी के साथ उनकी सेवा करते हुए रहने का निर्णय  लिया | उस समय वो राधा जी को प्रिय लगी किन्तु दिन बीतने के साथ वो अलग –अलग कारणों से दोनों बहुओं  की तुलना करने लगीं | उन दोनों के बीच में वो ( पहली बहु ) सदा  रही | आश्चर्य जो बहु त्याग , सेवा और समर्पण के साथ राधा जी के साथ  थी | वो ह्रदय में नहीं थी | जो नहीं थी , वो ह्रदय में थी |         अभी ज्यादा समय नहीं हुआ एक व्यक्ति ने मुझे मेसेज किया ,” वंदना जी आपकी कहानी पढ़ी | आप  मानवीय भावनाओं को कागज़ पर पूरे अहसासों के साथ उकेर देती हैं | क्या आप एक ऐसे बेटे की कहानी लिखेंगी जिसने अपने माता –पिता के लिए अपने सब सुख त्याग दिए , यहाँ तक की पत्नी और परिवार भी | पर माता –पिता हमेशा उस बड़े भाई की प्रशंसा करते है ,  जो अपने परिवार के साथ अलग रहता है | क्या आप उस लड़के की टीस को , दर्द को उकेरेंगी | जाहिर सी बात है यह उसका अपना दर्द होगा | मैंने अभी कहानी नहीं लिखी पर इससे मेरी बात को बल मिला | जो पास नहीं है वो है और जो है वो नहीं है |  नेहा का दर्द भी कुछ अलग नहीं है | मुक्ता  जी ने नेहा जी व् कुछ अन्य महिलाओंको लेकर सामाजिक संस्था बनायीं | धीरे –धीरे सदस्यों में मतभेद हुए | एक –एक करके सब मुक्ता की संस्था  को छोड़ कर चल गयीं … Read more

अटूट बंधन वर्ष -२ अंक -४ सम्पादकीय -नगर ढिंढोरा पीटती प्रीत न करियो कोय

        नगर ढिंढोरा पीटती प्रीत न करियो कोय …………. शायद ,बहुत पीड़ा से गुज़रता होगा प्रेम जब –जब हम सिद्ध करते होंगे उसकी उपस्तिथि किसी पिज़्ज़ा हट में किसी महंगे टेडी बीयर में या किसी दिल के आकार के खिलौने में लेने और देने में तब –तब शायद , बहुत याद करता होगा प्रेम किसी  तुलसी को जो स्वेक्षा से बन जाते  है दास किसी राधा को जो छोड़ देती है हर रंग या किसी मीरा को जो अपना एक तारा लेकर दीवानी बन निकल पड़ती हैं जगलों में शायद , बहुत समझाता होगा प्रेम की मात्र शब्द नहीं हैवो  मिलन या जुदाई में प्रयुक्त की दर्द के पार जा कर ही खिलते हैं असली प्रेम पुष्प जहाँ एकात्म भाव में मूल्यहीन हो जाता है पाना  और खोना               वसंत ऋतु आस और उल्लास की ऋतु , जब धरती भी शीत ऋतु में पहना हुआ स्वेत कफ़न उतार कर हरित वस्त्र धारण करती है| समस्त वसुंधरा सुनहरे पीले पुष्पों  के आभूषणों से खुद का श्रृंगार कर लेती है तो मन मयूर कैसे न नाचे | आदिकाल से वसंत ऋतु प्रेम की ऋतु के रूप में मनाई जाती रही है | मौसम भी इन मानवीय भावों को उकसाता है | नृत्य का गीत का अनुराग का एक आल्हादित या उन्मादित करने वाला वातावरण बन जाता है | प्रेम गीतों की स्वर लहरियां हवा में गूँजने  लगती हैं | इसी बीच में आता है प्रेम का आयातित त्यौहार “वैलेंटाइन डे “ | प्रेम के लिए प्राण देने वाले एक संत की शहादत दुनिया भर के प्रेमियों में मन में अपने प्रेम को अभिवक्त करने का , उसे खुल कर स्वीकार करने का एक साहस दे  गयी | कुछ लोग इसे नए ज़माने का प्रेम कह कर संबोधित करते हैं | पर अगर वास्तव में प्रेम है तो वह प्रेम एक भाव है , एक मिठास जो नए  या पुराने ज़माने की नहीं होती | जो सदा से थी है और रहेगी | कहने सुनने का अभिव्यक्ति का माध्यम भले ही बदला हो पर प्रेम की यह सरिता अनवरत बहती रहेगी और हृदयों को सींचती रहेगी |                          प्रेम शाश्वत है फिर भी प्रेम की ऋतु में प्रेम विषय पर  मैं क्या लिखने जा रही हूँ मुझे स्वयं ही नहीं पता | बड़ा ही विरोधाभास है मेरे मन में | क्यों ? क्योंकि मेरी आँखों के सामने रह रह कर दो दृश्य तैर रहे हैं | एक तरफ  लाल रंग के गुब्बारे , टेडी बीयर , दिल के आकार के खिलौने लिए युवा जो नशे में धुत आई लव यू , आई लव यू चिल्ला रहे होंगे |जश्न मना रहे होगे |  वही दूसरी तरफ इक  तारा लिए बेचैन मीरा जो जो तडफ –तडफ कर गा रही हैं , “नगर ढिंढोरा पीटती प्रीत न करियों कोय “ | कृष्ण की आराधिका कृष्ण की उपासिका मीरा जिनके बारे में कहा जाता है की उन्हें कृष्ण साक्षात् दिखाई देते थे| उनके साथ कृष्ण खाते –पीते सोते थे | मीरा की ये तड़प इस तरह सचेत करना कहीं न कहीं यह दर्शाता है जिसे हम प्रेम कहते हैं प्रेम की परिभाषा उससे कहीं अलग ,कहीं अनूठी होगी | हम सब ने अपने जीवन में प्रेम किया है या मात्र उसका स्पर्श किया है या हम सब प्रेम की पहली पायदान पर ही खड़े हैं |  कहना मुश्किल है |                  वास्तव में हम सब जिसे प्रेम कहते  हैं वो प्रेम है ही नहीं|  वो हार्मोन का उतार चढाव है | प्रकृति का एक रासायनिक षड्यंत्र | जो स्त्री पुरुष को एक दूसरे की तरफ धकेलता हैं | क्योंकि उसे अपने को जीवित रखना है अपनी व्यवस्था चलानी है | जब तक यह रसायन काम करता है प्रेम का बुखार सर पर चढ़ा रहता है | रसायन कम होते ही बुखार उतर जाता है | विवाह भी एक व्यवस्था है |  जहाँ लेने और देने का व्यापार है | तुम मुझे ये ये ये दोगे  तो मैं तुम्हे वो वो वो दूँगी | तभी तो विवाह में  मंत्रोच्चार द्वारा ऊर्जा को बाँध कर मन को बाँधा जाता है | इसमें  जन्म –जन्मान्तर का बंधन विकल्प रहित करने की व्यवस्था रही है | जिससे समाज सुचारू रूप से चलता रहे | परन्तु यहाँ भी देने और लेने की तुला में पलड़े बराबर न होने पर विरोध उत्पन्न होता है | एक शोषित व् एक शोषक बन जाता है | प्रेम के बंधन में प्रेम कब खत्म हो जाता है और बस बंधन ही रह जाता है | पता ही नहीं चलता | मुझे महादेवी वर्मा की पंक्तियाँ बरबस याद आ जाती हैं … “ क्या इससे भी कम होगी मेरे प्राणों की ब्रीड़ा  तुमको पीड़ा में ढूंढा , तुममें ढूंढूंगी  पीड़ा “                      जिसे हम प्रेम कहते हैं वह वास्तव में यही है | जब तक नहीं मिला तब तक पाने की बेचैनी जब मिल गया तो दो दिन में जी भर गया | आरोप –प्रत्यारोप शुरू हो गए | प्रेम न हुआ कोई बच्चे का खिलौना हो गया | तभी तो ज्यादातर प्रेम विवाह असफल हो जाते हैं | पाते ही आकर्षण क्षीण होने लगता है | आस –पास वालों की नज़र में विद्रोह करते वक्त जो हीरो बनने की भावना थी वो समाप्त होने लगती है | साथी के दोष दिखने लगते है | प्रेम अदालतों के चक्कर लगाने लगता है |प्रेम , जिसको समझने में ऋषि मुनियों ने अपना पूरा जीवन लगा दिया | जिसको पाने वाले अँगुलियों पर गिने जा सकते हैं|  वो प्रेम किसी मेकडोनाल्ड के रेस्ट्रोंन में बैठ कर बर्गर खाते हुए आई लव यू कहने जितना हल्का तो नहीं हो सकता | पर हमने इसे हल्का समझ रखा है |हल्का बना रखा है |      अंग्रेजी में प्रेम के लिए एक बड़ा ही खूबसूरत वाक्य प्रयोग किया जाता है ,” फाल इन लव “ अगर इसका हिंदी अनुवाद करें  तो “ प्यार में गिर पड़ना  “यानी प्रेम में आदमी न बैठ सकता है न खड़ा रह सकता है बस गिर सकता है | ये गिरना मामूली गिरना नहीं है | यह गिरना मैं का गिरना है , अहंकार का गिरना है | थोडा सा मिटना है … Read more

अटूट बंधन वर्ष -२ अंक -३ सम्पादकीय

वंदना बाजपेयी

कुछ खो कर पाना है …….. चलों कि जाने कि बेला आई है तैयार हैं पालकी , सिंदूर मांग टीका , बड़ी लाल टिकुली कहीं कमी न रह जाए दुल्हन के श्रृंगार में फिर एक बार गले लग के जी भर के रो लें समेट लें यादों कि पोटली को और कर दें विदा समय कि दुल्हन को जो चली जायेगी क्षितिज के उस पार छोड़ कर अपनी ढेर सारी  स्मृतियाँ कुछ हंसने को कुछ रोने को फिर नयी सुबह के साथ स्वागत करे आगत का किसी का जाना किसी का  आना यूँही बस जीवन नदिया तुम अनवरत  बहते जाना            नया साल ! पर कुछ भी तो नहीं बदला है | कल जो सूरज डूबा था , वही तो आज उदित हुआ  है | उतना ही लाल , उतना ही जलता हुआ उतना  ही प्रिय | हां ! शायद  ओढ़नी जरूर  बदल ली है | कल तक जिस पर लिखा था २०१५ आज उसी पर २०१६ लिख गया है | ये महज ओढ़नी बदलने का कमाल है |  या तारीख बदलते ही बहुत कुछ बदल जाता है | समय उम्र की एक पायदान और ऊपर चढ़ जाता है | आश्चर्य है , समय के पास भी निश्चित समय होता है | जिसके साथ साथ  हम भी  केंद्र से परिधि की ओर और खिसकते जाते हैं | बचपन से युवा , युवा से प्रौढ , प्रौढ़ से वृद्ध | और इसी बीतते समय के साथ हम आकलन करने लगते हैं खोने और पाने का |रात के बारह बजे | ठीक एक क्षण | मिलन और जुदाई का आने और जाने का , खोने और पाने का | पुराने को समेटने की नाकाम कोशिशों  के साथ नए के साथ आगे बढ़ जाने का | युवा जोश  में  हैप्पी न्यू इयर चिल्लाते हैं | बच्चे कौतुहल से ये कौतुहल सीखते है | और वृद्ध चुपचाप रजाई मुँह पर  और ऊपर घसीट लेते हैं |अरे !  नया क्या है | एक साल खो कर एक साल पा लिया है |  इस साल का गूगल  डूडल देख कर बरबस ही चेहरे पर मुस्कान आ गयी | अंडे से फूट कर निकला २०१६ का नया साल सब को भौचक हो खुशियाँ मानाते देख रहा है | आखिर उसने पा क्या लिया है |                      अभी कुछ दिन पहले कि ही तो बात है | साल का आखिरी महीना लगा था , गर्मी विदा हो रही थी  और   सर्दी शुरू हो रही थी | ऊनी कपडें , हीटर ब्लोअर , जो पिछले एक वर्ष से प्रतीक्षा कर रहे थे कब हमें इस कैद से छुटकारा मिलेगा कब हम दोबारा खुली हवा में सांस लेंगे , उनकी  प्रतीक्षा आज पूरी हुई थी | मैं महसूस कर रही थी कि घर में मद्धिम सी आवाज़े शायद उन्ही के चहकने की  हैं | इन्हीं सामानों के बीच में रखी थी  एक अंगीठी , कुछ मायूस सी | जो निकाली तो जायेगी पर जलायी नहीं जायेगी | यह वही अंगीठी है जिसे मैं मायके से ले आयी थी अपनी कुछ यादों को समेटते –समेटते | मैं शायद भूल गयी पर अंगीठी याद करती है वह दिन, जब माँ उसे सुलगा जाड़े में खाना बनाया करती थी और  हम चारों भाई बहन उसके चारों ओर अपनी –अपनी थाली ले कर बैठ जाते | माँ एक रोटी के चार टुकड़े कर हम सब की  थाली में डाल  देती | हम बहनें अपनी थाली के टुकड़े भाइयों कि थाली में डाल  देते | एक अजीब संतोष का भाव उभरता | खाने से ज्यादा खिलाने में आनंद था | उस समय अंगीठी मुस्कुराती , उसकी मुकुराहट से घर में धुँआ भर जाता पर हमारी हँसती  आँखों में कभी उस धुँए कि कारण आँसू  नहीं आये | मन का उजास दीवाल के काले पन  को ढँक  देता जो अंगीठी अपनी छाप डालने के कारण बना देती | अब अंगीठी नहीं निकलती , वो शिकायत नहीं करती बस एक नज़र देख कर बैठ जाती है चुपचाप दीवान के अन्दर |                                       अंगीठी को देखकर मुझे माँ याद आ जाती हैं | झुर्रीदार चेहरे में अनुभव कि परतें समेटे | वो  ढूढ़ लेती हैं घर का कोना , और शुरू कर देती हैं  माला फेरना | माँ शिकायत नहीं करती एक नज़र देख कर सिर्फ दुआएं देती हैं , अंगीठी की  तरह | माँ जानती हैं अब अंगीठी नहीं निकलती,  निकलते हैं ब्लोअर | पूरा कमरा गर्म  एक साथ | पास बैठने कि जरूरत नहीं | इसलिए तो इस गर्माहट में स्नेह कि गर्माहट नहीं होती | न टुकड़ा , टुकड़ा रोटियाँ बँटती  हैं ,  जब बंटे  हो दिल | आलिशान घरों कि दीवारें कालापन बर्दाश्त नहीं करना चाहती |स्टेटस मेन्टेन करने की राह में दीवारों  का कालापन हैसियत पर धब्बा है | तभी तो  वो स्यामलता भर जाती है मन में | अंगीठियां अब भी सुलगती हैं पर कमरे में नहीं मन में अकेलेपन की  अंगीठियाँ | भर जाता है धुँआ अन्दर ही अन्दर , और उस धुंध में खो जाता  है अपनापन |यह विकास का फल है | एक क्षितिज पाने और खोने का | कुछ खोते हुए कुछ  पाते हुए आगे बढ़ जाना है |           रज्जो घर में रहती है | सुबह उठ जाती है | घर आँगन बुहारती है | क्यारी में लगे पौधों को पानी देती है | एक –एक फूल चुनती है | माला पिरोती है | भजन गाती है | रज्जो खिड़की से बाहर देखती है | बाहर उसे दिखाई देती है मीरा | ऊपर से नीचे तक टिप –टॉप | सुबह सुबह पर्स ले कर  बस पकड़ने को भागती | एक आज़ाद नारी , एक कमाऊ स्त्री | दोनों की नज़ारे अक्सर टकरा जाती हैं | दोनों ही निराशा से भर जाती हैं | रज्जो के पास आज़ादी नहीं है | मीरा के पास आज़ादी का उत्सव मनाने का समय नहीं है| दोनों ने ही कुछ पाया है कुछ खोया है | इंदिरा नुई कहती हैं , “ स्त्री के दोनों हाथों में लड्डू नहीं होते | पर यह स्तिथि केवल स्त्री तक ही सीमित नहीं है | ये समान रूप से हर किसी पर लागू एक ध्रुव सत्य है |           हम कहतें हैं आज के … Read more

अटूट बंधन वर्ष -२ अंक -२ सम्पादकीय

वंदना बाजपेयी

                  जीतनें के लिए चाहिए जोश और जूनून   दिसंबर का महीना , साल का  आखिरी महीना | समय के वृक्ष पर २०१५ कि पीली  पत्तियाँ झड़ने को और २०१६ कि नन्हीं हरी कोंपलें उगने को तैयार हैं | आगत के स्वागत के उत्साह  में दबे पांव चलता  रहता है  बीते वर्ष का आकलन | क्योंकि शाश्वत जीवन में कुछ भी आखिरी नहीं होता न पल , न दिन , न वर्ष , न ही यह जन्म | हर आखिरी एक बुनियाद बनता है नए की | चाहे वो पल हो , दिन हो या जीवन | उसी बुनियाद पर रखी जाती है नए कि नींव | इसीलिये हमारे पूर्वज समझा गए हर पल का महत्व है | मैं  भी बीते वर्ष के लाखों पलों का हिसाब  करना  चाहती हूँ |  मुझे लगता है जैसे मैं  एक विशाल सागर के तट पर खड़ीं हूँ और स्मृतियों कि लहरे आ कर मेरे मानस  को भिगो कर लौट रहीं हैं |मैं चुन लेती हूँ हूँ कुछ पलों के मोती |              एक  लहर आती है  बहुत सारी स्मृतियाँ “ अटूट बंधन “ के जनवरी अंक  की  लेकर | पिछले साल जनवरी की कडकडाती ठंड में  “ अटूट बंधन “ का तीसरा अंक ‘हौसलों की  उड़ान’ | जिसके पन्ने पन्ने पर बिखरी थी उन लोगों कि  गाथाएं जिन्होंने जिन्होंने भाग्य के  , दुखों के , असफलताओं के आगे कभी हार नहीं मानी और हर हार को जीत में बदल दिया | ये अंक अटूट बंधन का तीसरा अंक था | जो दो अंकों (बाल और बेमेल  विवाह ) के बाद पूर्व नियोजित दिशा में ही  अस्तित्व में आया था | पर उस अंक को मिली अभूतपूर्व सराहना के बाद हमें अहसास हो गया कि प्रेरणादायक  विचारों और दिशा देते साहित्य को पाठक कितनी व्याकुलता से खोज रहे हैं  | यह प्रेरणादायी अंक हमारे लिए प्रेरणा बन गया | “ अटूट बंधन परिवार कृत संकल्प हो गया कि वो पत्रिका को पॉजिटिव  थिंकिंग का महा अभियान बना कर लोगों के दिलों से न सिर्फ निराशा का अँधेरा दूर करेगा अपितु आशा और सफलता का दीप भी प्रज्वलित करेगा |                 एक बार पथ निश्चित हो जाने के बाद  हमने निराशा के पथ पर अटूट बंधन का सकारात्मक दीप जला दिया |  लोग भले ही अटूट बंधन को पत्रिका कहे , हमारे लिए वो एक दीपक है | दीप का काम ही है प्रकाश देना | दीप चाहे अपने लिए जलाया जाए या दूसरे के लिए | उसका  प्रकाश एक स्थान पर नहीं रहता वो पूरे  पथ का अंधियारा दूर करता है | वो निश्चिंत  जलता रहे , प्रकाश फैलाता रहे उसके लिए हम तेल बन कर जलते रहे | निरंतर , अनवरत … बिना रुके बिना थके | जब दुनिया पाने,  और पाने कि राह पर चल रही है ऐसे दौर में खुद जल कर रौशनी देने का अपना ही आनंद  है | पर कब तक ? तेल सीमित था |  लोगों ने इस त्याग को समझा , स्वेक्षा से आगे आये , और दीपक को जलाये रखने में हमारी मदद  की | अटूट बंधन परिवार बना और बढ़ा | ? ये अलग तरह का संघर्ष था |पर एक जुटता की  ताकत से सफ़र आसान  हो गया |                  धीरे –धीरे समय का काफिला आगे बढ़ा | हम हर अंक को बेहतर और बेहतर बनाने के प्रयास में लगे रहे | हमारी दिशा तय थी | हमने क्वांटिटी के स्थान पर क्वालिटी को चुना | एक –एक रचना का चयन इस प्रकार किया कि पाठक जब कुछ पढ़े तो उसे यह न लगे कि उसके साथ धोखा  हुआ है | हालांकि  सुंदर  कवर में धोखा अनेक पत्रिकाएँ देती रही हैं | यही शायद उनकी अल्पायु का कारण बनता है | हजारों –लाखों रुपये प्रचार प्रसार में लगाने के बाद भी वही पत्रिकाएँ  अपना स्थान बना पाती हैं जिनके कंटेंट या विषय वस्तु में दम हो  | कठोर चयन कि यह प्रक्रिया हमने अटूट बंधन के ब्लॉग में भी जारी रखी | और उसी के अनुसार पाठकों की  तरफ से सकारात्मक परिणाम आने लगे | पाठकों के स्नेह व् प्रशंशा भरे इ मेल चिट्ठियां , मेसेज हमारी अनमोल निधि हैं |                                                     अटूट बंधन कि कितनी सारी स्मृतियाँ जीवित होते हुए मन पहुँच गया “ अटूट बंधन सम्मान समारोह -२०१५ पर | जब अटूट बंधन एक वर्ष पूरा कर के नए वर्ष में प्रवेश कर रही थी तो हमने सोचा कि जिस तरह से हमने संघर्ष करके विजय हासिल करी है उसी तरह ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने विपरीत परिस्तिथियों कि परवाह न करते हुए अपनी जीतने कि इक्क्षा  अपनी जिजीविषा को जीवित रखा और हजारों असफलताओं को झेलने के बाद अंतत : सफल हुए | हमने  देश भर के ११ लोगों को चुना जिन्होंने अपने –अपने क्षेत्र में  विशेष योगदान दिया है |  उनको सम्मानित करने का उद्देश्य महज़ इतना था कि हम उस संघर्ष को सम्मान दें जो लोगों के लिए प्रेरणादायक  है |              करीब ३ घंटे चले सम्मान समारोह कि हजारों स्मृतियाँ मेरे जेहन में अंकित हैं | पर एक स्मृति जो मेरे लिए सबसे अनमोल है वो है कार्यक्रम कि मुख्य अतिथि मैत्रेयी पुष्पा  जी का सानिध्य | वो जिन्हें आप पढ़ते रहे हों , जिसका लेखन मन को छूता  हो , यह लगता हो हो कि जैसे मेरे ही मन की बात कह  दी | अपने प्रिय लेखक/ लेखिका  के रूबरू होने का मन हर पाठक का होता ही है |  आज मैत्रेयी पुष्पा जी साहित्याकाश में सबसे दैदिपय्मान  सितारा है | वो न जाने कितनी महिलाओं की  रोल मॉडल  हैं | उनको करीब से देखना , सुनना किसी सपने के पूरे होने जैसा है | महिलाओं के विषय में कही गयी उनकी एक –एक बात मुझे अपने  दिल कि बात लगी | जब मैत्रेयी पुष्पा  जी कहती है कि, “  एक स्त्री ही स्त्री कि शक्ति है |  एक स्त्री कि मौजूदगी दूसरी स्त्री में सुरक्षा का अहसास दिलाती है |क्योंकि घर के बाहर काम करने के लिए सुरक्षा स्त्री कि बुनियादी जरूरत है | “  तो  न जाने अतीत कि कितनी लहरें मेरे मानस से आकर … Read more