अटूट बंधन वर्ष -२ , अंक -१ सम्पादकीय
तेरा शुक्रिया है … “ अटूट बंधन “ राष्ट्रीय हिंदी मासिक पत्रिका अपने एक वर्ष का उत्साह व् उपलब्धियों से भरा सफ़र पूरा कर के दूसरे वर्ष में प्रवेश कर रही है | पहला वर्ष चुनौतियों और उसका सामना करके लोकप्रियता का परचम लहराने की अनेकानेक खट्टी –मीठी यादों के साथ स्मृति पटल पटल पर सदैव अंकित रहेगा | हम पहले वर्ष के दरवाजे से निकल कर दूसरे वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं | एक नया उत्साह , नयी उमंग साथ ही नयी चुनौतियाँ , नए संघर्ष पर उन पर जीत हासिल करने का वही हौसला वही जूनून | पहले वर्ष की समाप्ति पर अटूट बंधन लोकप्रियता के जिस पायदान पर खड़ी है वो किसी नयी पत्रिका के लिए अभूतपूर्व है | मेरी एक सहेली ने पत्रिका के लोकप्रियता के बढ़ते ग्राफ पर खुश होकर मुझसे कहा, “ ऐसा लगता है जैसे कोई बच्चा खड़ा होना सीखते ही दौड़ने लगे | ये किसी चमत्कार से कम नहीं है | पर ये चमत्कार संभव हो सका पत्रिका की विषय वस्तु , “ अटूट बंधन ग्रुप “ के एक जुट प्रयास और पाठकों के स्नेह , आशीर्वाद की वजह से | पाठकों ने जिस प्रकार पत्रिका हाथों हाथ ले कर सर माथे पर बिठाया उसके लिए मैं अटूट बंधन ग्रुप की तरफ से सभी पाठकों का ह्रदय से शुक्रिया अदा करती हूँ | वैसे शुक्रिया एक बहुत छोटा शब्द है पर उसमें स्नेह की कृतज्ञता की , आदर की असीमित भावनाएं भरी होती हैं | अभी कुछ दिन पहले की बात है माँ के घर जाना हुआ | अल सुबह घर में स्थापित छोटे से मंदिर से माँ के चिर –परिचित भजन की आवाजे सुनाई देने लगी | “ मुझे दाता तूने बहुत कुछ दिया है तेरा शुक्रिया है , तेरा शुक्रिया है …. मैं बचपन की अंगुली थाम मंदिर में जा कर हाथ जोड़ कर खड़ी हो गयी | माँ पूरी श्रद्धा और तन्मयता के साथ भजन गाने में लींन थी और मैं माँ में लींन हो गयी | जीवन के सत्तर दशक पार कर चुकी , अनेकों सुख , दुःख झेल चुकी माँ के झुर्रीदार चेहरे में चमक और गज़ब की शांति थी जो कह रही थी , “ जब आवे संतोष धन सब धन धूरी सामान “ | कहाँ से आता है ये संतोष धन | क्या इस भजन से ?या शुक्रिया कहने से ? शायद …और मैं बचपन की स्मृतियों में चली गयी | जब माँ हमें समझाया करती थी , सुबह उठते ही सबसे पहले ईश्वर का शुक्रिया अदा किया करो | ईश्वर की कृपा से नया दिन देखने का अवसर मिला है | अपनी बात कहने का अवसर मिला है , दूसरों की बातें सुनने का अवसर मिला है , बुरे कर्मों का प्रायश्चित करने और अच्छे कर्म करने का एक और अवसर मिला है | कितने लोग हैं जो अगली सुबह नहीं देख पाते | कितनी बातें हैं जो सदा के लिए अनकही ,अनसुनी रह जाती हैं | हम माँ की आज्ञा पालन करने के लिए आदतन शुक्रिया कहने लगे , इस बात से अनभिज्ञ की एक छोटा सा शुक्रिया सुबह- सुबह कितना सकारात्मक वातावरण तैयार करता है | कितने सकारात्मक विचारों को जन्म देता है | बचपन के गलियारों में घुमते हुए मुझे अपने बड़े फूफा जी की स्मृति हो आई | बड़े फूफाजी डाइनिंग टेबल छोड़ कर पूरे देशी तरीके से जमीन पर चौकी लगा कर भोजन करते थे | ख़ास बात यह थी वो भोजन करने से पहले थाली छूकर कहा करते “ अन्न उगाने वाले का भला , बनाने वाले का भला , परोसने वाले का भला | हम उनकी बात को गौर से सुनते और सोचते वह ऐसा क्यों कहते हैं | एक दिन हमारे पूंछने पर उन्होंने राज़ खोला , यह मंत्र है इसीकी वजह से स्वस्थ हूँ , दो पैसे की दवा नहीं खानी पड़ती | सच ही होगा , तभी तो उन्होंने बिना दवा पर निर्भर हुए स्वस्थ तन और मन के साथ लम्बी आयु के बाद अपनी इह लीला पूरी कर परलोक गमन किया | शुक्रिया , धन्यवाद एक बहुत छोटा सा शब्द है पर बहुत गहरी भावनायों से भरा हुआ | वो भावनाएं जो ह्रदय से निकलती हैं | जो प्रेम और कृतज्ञता से भरी होती हैं | जो आम चलन में भावना हीन कहे जाने वाले थैंक्स से बहुत भिन्न होता हैं | ये भावनाएं ही तो हैं जो हमें पशु से ऊपर उठाकर मनुष्य बनाती हैं |रिश्तों की डोर में बांधती हैं , उन्हें मजबूत बनाती हैं और जीवन को सार्थक करती हैं | मानव तो क्या भगवान् भी भाव के भूखे हैं | एक पौराणिक कथा हैं | श्रीकृष्ण की परम भक्त मीरा बाई कृष्ण प्रेम में इतना डूबी रहती की सुबह उठते ही उन्हें सबसे पहले यह चिंता सताती की उसके आराध्य भूखे न रह जाए | इसलिए बिना स्नान किये प्रभु को नैवेध अर्पित करती | जब आस –पास वालों को पता चला तो उन्होंने समझाने का प्रयास किया , ईश्वर तो तुम्हारे आराध्य हैं , सबके रचियता हैं उन्हें बिना स्नान किये कुछ खिलाना गलत है | मीरा बाई डर गयी, अपराध बोध हुआ | अगले दिन से श्री कृष्ण के स्थान पर उन्हें स्नान की चिंता सताने लगी | वह स्नान कर विधिवत नैवेध अर्पित करने लगी | तीन दिन बाद स्वप्न में श्री कृष्ण दिखाई दिए | उन्होंने मीरा बाई से कहा , मैं तीन दिन से भूखा हूँ ,कुछ खिलाओ | मीरा बाई बोली , प्रभु ! मैं तो रोज नैवेध अर्पित करती हूँ | प्रभु मुस्कुरा कर बोले , नहीं मीरा पहले मैं तुम्हारे स्मरण में रहता था तो उस भोजन में भाव थे अब स्नान और सफाई की चिंता में तुम्हारे वो भाव खो गए हैं | मैं अन्न ग्रहण नहीं करता भाव ग्रहण करता हूँ | इसलिए तीन दिन से मैं भूखा हूँ | यह मात्र एक किवदंती हो सकती है जिसका उद्देश्य मनुष्य को भावनाओं की श्रेष्ठता सिखाना है | वस्तुतः भावनाएं आत्मा हैं और विचार शरीर | विज्ञान कहता है मानव मष्तिष्क में प्रतिदिन तकरीबन ६०,००० विचार आते हैं | चाहे अनचाहे | क्यों … Read more