अटूट बंधन वर्ष -२ , अंक -१ सम्पादकीय

तेरा शुक्रिया है …  “ अटूट बंधन “ राष्ट्रीय हिंदी मासिक पत्रिका अपने एक वर्ष का उत्साह  व् उपलब्धियों से भरा    सफ़र पूरा कर के दूसरे वर्ष में प्रवेश कर रही है | पहला वर्ष चुनौतियों और उसका सामना करके लोकप्रियता का परचम लहराने की अनेकानेक खट्टी –मीठी  यादों के साथ स्मृति पटल पटल पर सदैव अंकित रहेगा | हम पहले वर्ष के दरवाजे से निकल कर दूसरे वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं | एक नया उत्साह  , नयी उमंग साथ ही नयी चुनौतियाँ , नए संघर्ष पर  उन पर जीत हासिल करने का वही  हौसला वही जूनून |  पहले वर्ष की समाप्ति पर अटूट बंधन लोकप्रियता के जिस पायदान पर खड़ी  है वो किसी नयी पत्रिका के लिए अभूतपूर्व है | मेरी एक सहेली ने पत्रिका के लोकप्रियता के बढ़ते ग्राफ पर  खुश होकर मुझसे कहा,  “ ऐसा लगता है जैसे कोई बच्चा खड़ा होना सीखते ही दौड़ने लगे | ये किसी चमत्कार से कम नहीं है | पर ये चमत्कार संभव हो सका पत्रिका की  विषय वस्तु , “ अटूट बंधन ग्रुप “ के एक जुट प्रयास और पाठकों के स्नेह , आशीर्वाद की वजह से | पाठकों ने जिस प्रकार पत्रिका हाथों हाथ ले कर सर माथे पर बिठाया उसके लिए मैं अटूट बंधन ग्रुप की तरफ से सभी पाठकों का ह्रदय से शुक्रिया अदा  करती  हूँ |                   वैसे शुक्रिया एक बहुत छोटा शब्द है पर उसमें स्नेह की कृतज्ञता की , आदर की असीमित भावनाएं भरी होती हैं | अभी कुछ दिन पहले की बात है माँ के घर जाना हुआ | अल सुबह घर में स्थापित छोटे से मंदिर से माँ के  चिर –परिचित भजन की आवाजे सुनाई देने लगी | “ मुझे दाता तूने बहुत कुछ दिया है तेरा शुक्रिया है , तेरा शुक्रिया है ….     मैं बचपन की अंगुली थाम मंदिर में जा कर हाथ जोड़ कर खड़ी हो गयी | माँ पूरी  श्रद्धा और तन्मयता के साथ  भजन गाने में लींन  थी और मैं माँ में लींन  हो गयी | जीवन के सत्तर दशक पार कर चुकी , अनेकों सुख , दुःख झेल चुकी माँ के झुर्रीदार चेहरे में  चमक और गज़ब की शांति थी जो कह रही थी , “ जब आवे संतोष धन सब धन धूरी सामान “ | कहाँ से आता है ये संतोष धन | क्या इस भजन से ?या शुक्रिया कहने से ?  शायद …और मैं बचपन की स्मृतियों में चली गयी | जब माँ हमें समझाया करती थी , सुबह उठते ही सबसे पहले ईश्वर का शुक्रिया अदा  किया करो | ईश्वर की कृपा से नया दिन देखने का अवसर मिला है | अपनी बात कहने का अवसर मिला है , दूसरों की बातें सुनने का अवसर मिला है , बुरे  कर्मों का प्रायश्चित करने और अच्छे कर्म करने का एक और अवसर मिला है | कितने लोग हैं जो अगली सुबह नहीं देख पाते | कितनी बातें हैं जो सदा के लिए अनकही ,अनसुनी रह जाती हैं |  हम माँ की आज्ञा पालन करने के लिए  आदतन शुक्रिया कहने लगे , इस बात से अनभिज्ञ की एक छोटा सा शुक्रिया सुबह-  सुबह कितना सकारात्मक वातावरण तैयार करता है | कितने सकारात्मक विचारों को जन्म देता है |     बचपन के गलियारों में घुमते हुए मुझे अपने बड़े फूफा जी की स्मृति हो आई | बड़े फूफाजी डाइनिंग टेबल छोड़ कर  पूरे देशी तरीके से जमीन पर चौकी लगा कर भोजन करते थे | ख़ास बात यह थी वो भोजन करने से पहले  थाली  छूकर कहा करते “ अन्न उगाने वाले का भला , बनाने वाले का भला , परोसने वाले का भला | हम उनकी बात को गौर से सुनते और सोचते वह ऐसा क्यों कहते हैं  | एक दिन हमारे पूंछने पर उन्होंने राज़ खोला , यह मंत्र  है इसीकी वजह से स्वस्थ हूँ ,  दो पैसे की दवा नहीं खानी पड़ती | सच ही होगा , तभी तो उन्होंने बिना दवा पर निर्भर हुए स्वस्थ तन और मन के साथ लम्बी आयु के बाद   अपनी इह लीला पूरी कर परलोक गमन किया | शुक्रिया , धन्यवाद एक बहुत छोटा सा शब्द है पर बहुत गहरी भावनायों से भरा हुआ | वो भावनाएं जो ह्रदय से निकलती हैं | जो प्रेम और कृतज्ञता से भरी होती हैं | जो आम चलन में भावना हीन कहे जाने वाले थैंक्स से बहुत भिन्न होता हैं |                   ये  भावनाएं ही तो हैं जो हमें पशु से ऊपर उठाकर मनुष्य बनाती हैं |रिश्तों की डोर में बांधती हैं , उन्हें मजबूत बनाती हैं और जीवन को सार्थक करती हैं | मानव तो क्या  भगवान् भी भाव के भूखे  हैं | एक पौराणिक कथा हैं | श्रीकृष्ण की परम  भक्त मीरा बाई  कृष्ण प्रेम में इतना डूबी रहती की सुबह उठते ही उन्हें  सबसे पहले यह चिंता सताती की उसके आराध्य भूखे  न रह जाए | इसलिए बिना स्नान किये प्रभु को नैवेध अर्पित करती | जब आस –पास वालों को पता चला तो उन्होंने समझाने का प्रयास किया , ईश्वर तो तुम्हारे आराध्य हैं , सबके रचियता हैं उन्हें बिना स्नान किये कुछ खिलाना गलत है | मीरा बाई डर  गयी, अपराध बोध हुआ  | अगले दिन से श्री कृष्ण के स्थान पर उन्हें स्नान की चिंता सताने लगी | वह स्नान कर विधिवत नैवेध अर्पित करने लगी | तीन दिन बाद स्वप्न में श्री कृष्ण दिखाई दिए | उन्होंने मीरा बाई से कहा , मैं तीन दिन से भूखा हूँ ,कुछ खिलाओ | मीरा बाई बोली , प्रभु ! मैं तो रोज नैवेध अर्पित करती हूँ | प्रभु मुस्कुरा कर बोले , नहीं मीरा पहले मैं तुम्हारे स्मरण में रहता था तो उस भोजन में भाव थे अब स्नान और सफाई की चिंता में तुम्हारे वो भाव खो गए हैं | मैं अन्न ग्रहण नहीं करता भाव ग्रहण करता हूँ | इसलिए तीन दिन से मैं भूखा हूँ | यह मात्र एक किवदंती हो सकती है जिसका उद्देश्य मनुष्य को भावनाओं की श्रेष्ठता सिखाना है |          वस्तुतः भावनाएं आत्मा हैं और विचार शरीर | विज्ञान कहता है मानव मष्तिष्क में प्रतिदिन तकरीबन ६०,००० विचार आते हैं | चाहे अनचाहे | क्यों … Read more

अटूट बंधन अंक -१२ सम्पादकीय -सपनों के चाँद पर पहला कदम

आसान होता है मन की धरती के चारों ओर परिक्रमा करने वाले सपनों के  चाँद को परात भर पानी में उतार कर मन बहला लेना पर आसान नहीं होता सपनों के चाँद पर रखना पहला कदम जूझना पड़ता है असीमित निराशाओ  से हर दिन लिखनी पड़ती है संघर्ष की दास्ताने तोड़ना पड़ता है गुरुत्वाकर्षण के माया जाल को पर जब उद्देश्य हो जाते है वृहत सपने बन जाते है प्राण सम्पूर्ण मानवता में उजास फैलाने की ईक्षा बन जाती है ईधन तब केवल तब कुछ भी असंभव नहीं रहता जैसे चाँद खुद उतर आता है मन की धरती पर फैलाने को उजियारा दिश –दिगंत में …… सुबह के साढ़े ४ बजे है मैं हमेशा  की तरह किसी विषय की तलाश में अपनी बालकनी का दरवाज़ा खोलती हूँ | बाहर ठंडी हवा चल रही है | आसमान पर भोर का तारा अभी भी विराजमान है ,कुछ प्रतीक्षारत सा | वहीँ क्षितिज पर एक युद्ध  चल रहा है  धीरे धीरे ,चुपके –चुपके , किसी की नींद  में खलल न पड़े | ये युद्ध चल रहा है …अंधेरों और उजाले के मध्य | अँधेरा लाख कोशिश करेगा अपने साम्राज्य को बचाए रखने की पर उजाला उसे चीर कर निकलेगा | तभी मेरे दृष्टि अपनी बालकनी में रखे गमले पर पड़ती है | ये क्या ! नन्हे –नन्हे  अंकुर मिटटी का सीना चीर कर छोटी –छोटी छतरी तान कर विजेता की मुद्रा में खड़े हैं | मन ख़ुशी से नाच उठता है| कितना संघर्ष किया हुआ होगा इन बीजों ने … पहले अपने कठोर आवरण के विरुद्ध , फिर मिटटी की पर्तों  के विरुद्ध , फिर प्रकृति के विरुद्ध | न जाने किसने कहा होगा इनके कान में “ बीजों तुम सोये मत रहो , संघर्ष करो , बाहर आओ | शायद किसी ने नहीं | जब प्रेरणा स्वस्फूर्त हो , इरादे नेक हों तो परिणाम अपना आरंभ  स्वयं चुन लेता है | जब ये भाव आत्मा में तिरोहित हो जाता है तो संघर्ष ,संघर्ष नहीं रह जाता वो प्राण बन जाता है | मुझे मेरा विषय मिल गया था |               कुछ लिखने की आस में जैसे ही मैंने अपना लैपटॉप खोला | वाल पेपर ने मेरा ध्यान खींच लिया | शायद बच्चों ने रात में बदला होगा | चाँद पर पहला कदम रखते हुए नील आर्मस्ट्रांग , नीचे तारीख अंकित थी २१ जुलाई १९६९ | एक तारीख जो पूरे विश्व के लिए अविस्मर्णीय हो गयी | भविष्य में चाँद पर शायद मानव बस्तियाँ बसे , गेंहू और चावल की फसले लहलहाए ,पर उस पहले कदम का अपना ही एक सुख है ,अपना ही एक आनंद है | |  कहते हैं चाँद पर कदम रखते ही नील आर्मस्ट्रांग ने अपना वजन बहुत हल्का अनुभव किया | विज्ञान कहता है यह गुरुत्वाकर्षण के अंतर के कारण होता है | पर मेरा कवि मन न जाने क्यों एक अलग ही परिभाषा गढ़ता है | पराजय ,दुःख और निराशा भारी  होते हैं | गहरे बैठ जाते हैं ,अंतस के किसी कोने में , स्वयं ही स्वयं को गुरुतर प्रतीत होता है | सफलता , विजय बोध और खुशियाँ हलकी होती हैं , फूल सी ,जो तैरती हैं मन के ऊपर , आत्मा के ऊपर | मुंशी प्रेम चन्द्र रंगभूमि में लिखते है “ अफलता में अनंत सजीवता होता होती है और विफलता  में असह्य अशांति | पर ये सफलता स्वयं चल कर तो नहीं आती | कैसा विचित्र संयोंग है |  जो प्रत्यक्ष है वो कल्पना में बहुत पहले जन्म ले चुका होता है | फिर शुरू होता है कल्पना को हकीकत में बदलने का सफ़र |एक जिद्द , एक धुन  ,एक संघर्ष ,एक जूनून |                             ऐसे ही कोई न कोई चाँद हमारे मन के चारों  ओर चक्कर लगा रहा होता है | वो होता है हमारे सपनों का चाँद | हर रात झिलमिलाता  अपने पास बुलाता सा , मन ललचाता सा |  जिसे देखते तो हैं हम रोज पर दूर से |कभी –कभी यूँ ही मन बहलाने के लिए उसे परात भर पानी में उतार देते हैं | क्योंकि हम जानते उस चाँद पर कदम रखना इतना आसान नहीं हैं | ये एक संघर्ष का रास्ता है | जिसमें बहुत ईधन की  ,बहुत त्याग की  ,बहुत समर्पण की आवश्यकता है | पर कुछ बिरले  ही होते हैं जो उस सपने के चाँद पर कदम रखनेका संकल्प लेते हैं | फिर शुरू होता है सपनों को हकीकत में बदलने का संघर्ष भरा सफ़र | कितना बड़ा यथार्थ कह देता है  डॉ अबुल कलाम का ये कथन “ सपने वो नहीं होते जो आप रात में देखते हैं | सपने वो होते हैं जिनके लिए आप सोना ही छोड़ दे “| जिस ने भी सपनों को हकीकत में बदलने का सफ़र किया है ,वो ही जानता है संकल्प लेने के बाद भी  पहले की तरह सेकंड मिनट में, मिनट घंटों में ,घंटे दिनों में और दिन महीनों में बदलते हैं पर समय ठहर जाता है | सोते –जागते , खाते –पीते , हँसते रोते केवल एक ही लक्ष्य ,केवल एक ही जूनून ,केवल एक ही धुन सपने को हकीकत में बदलने की , शुरुआत एक संघर्ष की | मैं टाइप करती हूँ अंक -१२ सम्पादकीय ……. सपनों के चाँद पर पहला कदम | मेरे सामने “अटूट बंधन “ के पिछले ११ अंक रखे हैं | सपने संघर्ष और जीत का पूरा एक वर्ष | मन भावुक हो जाता है और आँखे नम | जीवन में ऐसे बहुत कम मौके आते हैं जब इंसान की आँखों में ख़ुशी के आँसूं  होते हैं | बेहद कीमती होते हैं ये आँसू | बस चले तो इंसान किसी नक्काशी दार  डिब्बी में लाल कपडे के अन्दर मोती की तरह सहेज कर रख ले | पर इतना तो है ही कि ये स्मृतियों की डिब्बी में बड़ी खूसुरती से संग्रहित हो जाते हैं |              सुबह हो गयी है | पास के मंदिर से शंख और घंटियों की आवाज़े आ रही हैं | प्रात : कालीन आरती हो रही हैं | मेरे हाथ स्वत : ही जुड़ जाते हैं और कदम बालकनी की ओर मुड जाते हैं| बहुत बार सुना था जब किसी चीज को दिल से चाहो ,तो पूरी … Read more

अटूट बंधन अंक -११ सम्पादकीय ….बहुत कुछ है दिल में मगर बेजुबाँ हूँ

बहुत कुछ है दिल में मगर बेजुबाँ हूँ …. कलरव करते हैं,पंक्षी रंभाती हैं गाय दहाड़ते है शेर मिमियाते हैं मेमने और प्रकृति का मन –मयूर भी नृत्य करते हुए करने लगता है ओमकार का शाब्दिक नाद कि दिश दिगंत में व्याप्त है कोलाहल हर तरफ गूँज रही हैं स्वर लहरियाँ सब कहना चाहते है कुछ फिर क्यों  चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद वाणी का अनुपम वरदान लेकर जन्मी सरस्वती की संतानों के शब्दों पर लगा होता है पहरा समाज के भय का परनियंत्रित अभिव्यक्तियाँ चीखती हैं अंतस के मौन में   ये सिसकती रूहे बन कर रह जाती हैं बेजुबाँ               कुछ लिखने की कोशिश में बार –बार कल रात का सपना याद आ रहा है | भरी अदालत में कठघरे में मुद्दई खड़ा हुआ है | सभी लोगों की निगाहे उस पर हैं | न्यायाधीश …आर्डर –आर्डर कह कर अपना हथौड़ा से मेज को थपथपाते हैं | फिर मुद्दई की तरफ देखते हुए कहते हैं , आप को अपनी सफाई में कुछ कहना है ?  मुद्दई कुछ कहना चाहता है ,पर आवाज़ उसके गले में घुट कर रह जाती है ….. कुछ अस्फुट से स्वर निकलते हैं ,एक भी शब्द ठीक से सुनाई नहीं देता | बिना कहे बिना सुने सजा हो जाती है | उसके हाथ में हथकड़ियाँ पहना दी जाती हैं | मैं चीखती हूँ “ठहरिये जज साहब उसे यूँ सजा मत सुनाइए ,उसे सफाई का मौका दीजिये ,वो बेजुबाँ है | जज साहब मुझे देखकर विद्रूप सी हँसी हँसते हैं | जैसे कह रहे “ किस किस को बचाओगी ,कब तक बचाओगी ……….ये दुनियाँ बेजुबानों से भरी पड़ी है | अपने आस –पास इधर –उधर कहीं भी देखो बेजुबाँ ही बेजुबाँ नजर आयेंगे | और ध्यान  से देखो वहाँ जज भी मैं नहीं हूँ | ये समाज है ,उसका भय है जो न जाने कितने मासूमों की जुबान खींच लेता है ….उन्हें बेजुबाँ बना देता है | मैं सच्चाई से  लज्जित सी मुद्दई को पहचानने की कोशिश करती हूँ | कौन हैं ? यह कौन है ? चेहरा अस्पष्ट हैं | न जाने कौन है ……स्त्री ,पुरुष या पशु ? पर है बेजुबाँ |                मेरा सपना टूट जाता  है और मेरा ध्यान  बेजुबाँ शब्द की गहन विवेचना में फँस जाता है| बेजुबाँ ……… शायद ये शब्द मैंने  पहली बार अपनी माँ के मुँह से तब सुना था जब सड़क  पर एक पिल्ला कार से कुचल कर मर गया था | पहले उसकी माँ उस कार  के पीछे बहुत देर तक दौड़ती रही | फिर  अपने बच्चे के शव के पास आकर कुछ देर हर आने –जाने वाले पर भौंकती रही| फिर थोड़ी देर वहीँ बैठने  के बाद  कुछ आगे बढ़ गयी निराश सी, हताश सी  | पर शायद दिल नहीं मानता होगा |तभी तो ,बार – बार अपने बच्चे के पास जाकर उसे सूँघती ,फिर दूर चली जाती …फिर आती सूँघती |  मैंने  उसकी वेदना को अन्दर तक महसूस किया था | माँ से बार –बार उसी के बारे में बात कर रही थी | फिर माँ ने समझाया “ दर्द उसे भी बहुत होगा पर बेजुबाँ है कह नहीं सकती | पीड़ा बाँट नहीं सकती |  अकेली सहेगी चुपचाप | बेजुबाँ होने का दर्द मुझे अंतस तक हिला गया |पशु कितना झेलते हैं|  न कह सकने की पीड़ा | पर क्या सिर्फ पशु ?                          पर जल्द  ही मेरा भ्रम टूटा जब अक्सर इस शब्द से मेरा पाला पड़ने लगा | हमारी काम वाली रामरती की ६ साल की बिटिया लाडो अपनी माँ से जिद कर रही थी ,अपने भाई के साथ स्कूल जाने की और भाई की तरह ही हलवा पूरी खाने की | रामरती चिल्ला  कर बोली “ बहुत बोलने लगी है |जुबान खींच लूंगी | भाई पढ़ेगा ,वंश चलेगा | तेरे तो ब्याह में ही इतना खर्चा होगा | कहाँ से लायेंगे | तू काम कर ,झाड़ू कटका कर | उसके बाद लाडो  ने कोई प्रश्न नहीं पूँछा  | तब भी जब १३ साल की उम्र में उसे ब्याह दिया गया ,तब भी जब शराबी पति उसे घर आकर पीटता था | तब भी जब वह अपने पति द्वारा उपहार में दिए गए एड्स से असमय  काल-कवलित हो गयी | लाडो बेजुबाँ थी क्योंकि वो गरीब तबके से आती थी | आर्थिक रूप से असुरक्षित थी | पर क्या सिर्फ लाडो ?              सुबह हो गयी है | मैं अभी भी अपनी उधेड़बुन में लगी हूँ | मेरी पहचान की रश्मि  अपने आँचल में प्रेम की सौगात लेकर ससुराल आती है | माँ ने विदा करते समय गाँठ में बाँध दिया था की पति की ख़ुशी ही उसकी ख़ुशी है| आँचल की वो गाँठ कब की खुल गयी है, पर जुबान पर गहरी गाँठ है | जहाँ अपनी पसंद का बोलना गुनाह है | आज पढ़ी लिखी रश्मि एक रबर स्टैम्प है, जिसे बस परिवार के हर सही गलत फैसले पर मुहर लगानी है |  रमेश भट्टी में बाल मजदूर है | दिन रात शारीरिक और मानसिक शोषण झेलता है |कुछ ऐसा भी जिसको कह पाने में असमर्थ है | सब सह कर भी वो चुप है ,क्योंकि वो जानता है कि अगर उसने कुछ बोला तो उसके परिवार का पालन –पोषण कैसे होगा | पिछले १० साल से रीढ़ की हड्डी टूट जाने से बिस्तर पर पड़े रमेश जी  एक पशु से भी बद्तर  जिंदगी जी रहे हैं | ढेर सारे ताने उलाहने सुनने को विवश रमेश जी  के पास कहने को लाचार दृष्टि व् धन्यवाद के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं |  कार्तिक घर के बाहर अफसर है ,घर के अन्दर मौन ही रहते हैं  |वो बोलते हैं ,पर वो नहीं जो वो बोलना चाहते हैं | लोक –लाज उन्हें  बहुत से समझौते करने पर विवश कर उनकी जुबान बंद कर  देती है | बेजुबानों की फेहरिश्त लम्बी है |           आज इसी विषय पर बात करते हुए मेरी सहेली ने पूँछ दिया …. आखिर पहचाने कैसे अपने बीच छुपे बेजुबानों को ? प्रतिक्रया से  ,इस संक्षिप्त उत्तर के बाद मेरे मानस में उभर आई बहुत पहले की  एक फिल्म अनुपमा की स्मृतियाँ  | जिसमें नायिका के जन्म लेते ही उसकी माँ की मृत्यु हो … Read more

अटूट बंधन अंक -१० सम्पादकीय …भावनात्मक गुलामी भी गुलामी ही है

कुछ खौफनाक जंजीरे जो दिखती नहीं हैं  पहना दी जाती हैं अपनों द्वारा इस चतुराई से कि मासूम कैदी स्वयं ही स्वीकार कर लेता है बंधन अंगीकार कर  लेता है पराजय यहाँ तक   कि  उसकी सिसकियाँ ,घुटन ,मौन चीखे नहीं लांघ पाती कभी घर की देहरी न ही उठती है कभी मुक्ति कामना की आवाज़ हत भाग्य !किसी स्वतंत्र देश में भी  नहीं की जा सकती गिनती इन भावनात्मक  परतंत्र लोगो की                 १५ अगस्त सन १९४७ को हमारे देश भारतवर्ष को  ब्रिटिश  हुकूमत से स्वतंत्रता मिली | यह दिन हम सब के लिए अत्यंत प्रसन्नता का दिन है | आज स्वतंत्रता पर कुछ लिखने से पूर्व मेरा मन मनुष्य की एक खतरनाक वृत्ति पर जा रहा है | वो है दूसरे को परतंत्र बनाने की इक्षा | आज से अरबों –खरबों साल पहले जब पृथ्वी पर जीवन का पहला अंकुर  फूटा था तब कौन जानता था कि विकास के क्रम में शीर्ष पर आने वाला मानव अहंकार से इतना अधिक ग्रस्त हो जाएगा कि वो समस्त प्राणियों को ईश्वर द्वारा प्रदत्त स्वतंत्र अस्तित्व के नैसर्गिक अधिकार की अवहेलना करते हुए उनकी स्वतंत्रता  छीन कर उन्हें गुलाम बनाने में लग जाएगा | जिसका आरंभ  हुआ  प्रकृति को गुलाम बनाने की प्रवत्ति से , फिर पुशु –पक्षी , फिर एक कबीले द्वारा दूसरे कबीले को , एक सम्प्रदाय द्वारा दूसरे सम्प्रदाय को, एक रंग द्वारा दूसरे रंग वाले समूह को ,  एक देश द्वारा दूसरे देश को | सर्वश्रेष्ठ होने का अभिमान ,सत्ता का मद या  अधिपत्य की भावना  कितने सिकंदर ,गौरी ,गजनी या अंग्रेज़ हुक्मरानों  को फतह के छलावे से संतुष्ट करती रही | हमने उन्हें एक उपनाम से सुशोभित कर दिया …… तानाशाह ,जो दूसरों को उनके अनुसार जीने न दे | पर आज मैं किसी और प्रकार के तानाशाह और गुलामों के बारे में कुछ कहना  चाहती हूँ |              समय के रथ पर सवार होकर जरा पीछे लौटती हूँ तो याद आता है कि जब मैं छोटी थी तब मेरे मन में गुलाम शब्द पढ़ या सुन  कर एक ऐसे निरीह व्यक्ति की तस्वीर खिचती थी , जिसके सामने  बहुत भयानक शक्ल वाला व्यक्ति (तानाशाह ) होता ,जिसके हाथ में हंटर होता और जुबान पर गालियाँ ………. जो बात –बात पर जोर –जोर से चिल्लाते हुए हंटर चलाता  और बेचारा गुलाम  हाथ जोड़ कर उसकी गलत सही हर बात मानने को तैयार रहता | किसी व्यक्ति का दूसरे व्यति से चाबुक के दम पर गुलामी करवाना निहायत निंदनीय है| हर व्यक्ति को स्वतंत्रता से जीने का अधिकार है | ऐसे में गुलाम के प्रति सहानुभूति होना स्वाभाविक है | पर इससे इतर भी एक गुलामी होती है जिसकी कल्पना भी मेरा बाल मष्तिष्क नहीं कर पाया था | जहाँ तानाशाह के हाथ में चाबुक नहीं दूसरे को रुल बुक के अनुसार उसका कर्तव्य याद दिलाने  की अदृश्य किताब होती है |आँखों में दहकते अंगारे नहीं वरन  आँसू होते हैं , जुबान पर गालियाँ नहीं अपितु तुम्हारी वजह से ,या मुझे समझो के जुमले होते हैं | दूसरों को गुलाम बना कर रखने की प्रवत्ति की इनकी जंजीरे इतनी रहस्यमयी होती हैं कि स्वयं गुलाम बने व्यक्ति को भी  बहुत देर में अपनी दासता  के बारे में समझ आता है | यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि इतने नाज़ुक जंजीरों से कोई कैसे गुलाम बन सकता है ? वस्तुतः कोई गुलाम नहीं बनना चाहता पर चाहे -अनचाहे  हममें  से बहुत से  संवेदनशील लोग भावनात्मक  रूप से गुलाम बन जाते हैं | अफ़सोस उन्हें गुलाम बनाने  वाला कोई तानाशाह नहीं वरन उनके  अपने ही जानने वाले ,मित्र ,नाते रिश्तेदार ,जीवनसाथी ,बच्चे यहाँ तक कि कभी –कभी पेरेंट्स भी होते हैं | कैसे ? जरा इन उदाहरणों पर गौर करिए | १ ) पढ़ी  –लिखी सुरुचि जब आँखों में ढेर सारे सपने भर कर  सुशिक्षित पति के साथ ससुराल में आई थी तो उसे इस बात का जरा सा भी अंदाजा नहीं था कि उसका पति उसे घर से बाहर निकलने का अवसर भी नहीं देगा | जब भी वो घर के बाहर जा कर कुछ काम करने की बात करती उसका पति आँखों में आंसूं भर कर कहता “जब तुम घर के बाहर जा कर काम करोगी कोई तुम्हे देखे  ,बात करे मैं बर्दाश्त नहीं कर पाउँगा |  क्योंकि मैं तुम्हे इतना प्यार करता हूँ जो पूरी दुनियाँ से अलग है अलहदा है | सुरुचि कभी –कभी विरोध करती पर पति के दुनियाँ से इतर प्यार व् आँसू उसे स्वयं ही घर में कैद रहने को विवश कर देते | सुरुचि गुलाम है प्रेम खोने के भय की | २ )कॉलेज के हॉस्टल में प्रिया  के साथ रहने वाली कृति अक्सर उसे अपने बॉय फ्रेंड से ब्रेक अप के किस्से सुनाती | प्रिया उसके साथ सहानुभूति रखती ,समझाती पर वही बात रोज़ –रोज़ सुनने से प्रिया  की पढाई का नुक्सान होने लगा | एक दिन उसने कृति से मना  कर दिया | कृति ने तुरंत उसे “इनह्यूमन “ करार  दे दिया | साथ ही यह भी याद दिलाया कि वो एक अच्छी मित्र नहीं है ,क्योंकि जब प्रिया  के पिता बीमार थे तब तो उसने सुना था | प्रिया  के अन्दर कर्तव्य बोध  पैदा होगया उसने अपनी किताब एक तरफ रख कर कृति का हाथ पकड़ कर कहा ‘ सॉरी , बता क्या कहना चाहती है | प्रिया  गुलाम है कृति द्वारा सिद्ध किये गए कर्तव्य की | ३ )श्रीमती सावित्री देवी के पिता बचपन में ही भगवान् को प्यारे हो गए | गरीबी असफल विवाह की त्रासदी झेलने वाली सावित्री देवी अक्सर अपने बच्चो से रिश्ते –नातेदारों से व्  मिलने वालों से  कहती “ कम से कम तुम तो मेरी बात मानो ,मुझे तो पहले ही ईश्वर ने इतने दुःख दे रखे हैं | धीरे –धीरे  …. घर आई बहुओ और नाती –पोतो पर भी वह अपने पिछले दुखद जीवन का वास्ता   देकर गलत –सही बात मनवाने का दवाब डालने लगी | सावित्री देवी का यह कहना “जाओ तुम सब सुखी रहो ,हमें तो भगवान् नें पहले से ही दुःख दे रखे हैं ……. परिवार में सबके अन्दर अपराध बोध भर देता और वे सब उनकी हर जायज़ ,नाजायज बात मानने को तैयार हो जाते … Read more

बड़ा होता आँगन (सम्पादकीय अंक -९ )

बड़ा होता आँगन  बार –बार दरवाजे पर आ कर परदेश गये बेटे की बाट  जोहती है माँ कि दीवार पर टंगे कैलेंडर पर बना देती है बड़ा सा लाल गोला बेटे के आने की तारीख का कि इस इतजार में कैद होता हैं उसका एक –एक पल इसी इंतज़ार में कट जाता है दिन का सूनापन और वो स्याह राते जिसमें बिस्तर पर अकेले पड़े –पड़े  कराहती है,फिर आंसूओ से  धुन्धलाये चश्मे को पोंछ कर कोसती है आँगन को मुआ इतना बड़ा हो गया कि यहीं खेलता बेटा नज़र ही नहीं आता  ***** अम्माँ दूर नहीं हूँ तुमसे जब तुम कराहती हो बिस्तर पर एक पीर सी उठती है दिल में चीर कर रख देती है कलेजा हर रोज याद करता हूँ तुमको रोटी और नाम की जद्दोजहद ने बाँट दिया है मेरे तन और मन को करता हूँ जोड़ने की कोशिश जब ढूढता हूँ तुमको तुम्हारे बनाये अचार के टुकड़ों में या महसूस करता हूँ तुम्हारी अँगुलियों का स्पर्श मिगौरी और मिथौरी  में  हर होली ,दिवाली और त्यौहार सूना लगता है अम्माँ पर मजबूर हूँ इस बडे  आँगन में कैद हूँ अपने छोटे  दायरे में       टी वी पर खबर आ रही है “ सभ्यता का विकास चरम पर है दूरियां घट गयी हैं | आप रात को भारत में हैं सुबह अमेरिका में | पूरा विश्व एक आँगन में तब्दील हो गया है |या यूँ कहे हमारा आँगन बड़ा हो गया है | टी वी देखती हुई ८० वर्षीय  रामरती देवी एक उडती सी नज़र अपने आँगन पर डालती हैं …..वही कोने में चूल्हा जलता था जब चारों  बच्चे घेर के बैठ जाते थे | चूल्हे पर धीरे –धीरे सिकती हर रोटी के ४ टुकड़े कर सब की थाली में एक –एक टुकड़ा  डाल देती थी | देवरानी मुस्कुरा कर कहती थी “दीदी आप से सब बच्चे हिल मिल गए हैं अपना पराया समझ नहीं आता | पर अब ……. अब तो कोई नजर नहीं आता | बरसों पहले देवरानी न्यारी हो गयी ,और बच्चे अमेरिका में जा कर बस गए जिन्हें चार साल से देखा नहीं |रामरती देवी चश्मा पोंछ कर बुदबुदाती  हैं …..हां  शायद आँगन इतना बड़ा हो गया हैं कि कोई दिखता नहीं बरसों –बरस |                       शंकुंतला देवी उम्र ७५ वर्ष  चलने –फिरने उठने –बैठने में असमर्थ एक कमरे में पड़े –पड़े पानी के लिए बच्चों को आवाज़ लगाती हैं | वही घर है ,आँगन भी वही है …. जब उनकी एक आवाज़ पर सारे बच्चे दौड़े चले आते थे…. वह भी कभी मूंगफली से कभी टॉफ़ी से कभी ,कभी भुने चनों से बच्चों की झोलियाँ भर देती थी | पर आज इतना पुकारने पर भी कोई नहीं आता …. घंटों बाद आती है परिचारिका उनके गीले हुए वस्त्रों को बदलने या पानी और दवाई देने | शकुंतला देवी मन ही मन सांत्वना देती है वह  तो अभी भी वही है ,घर भी वही पर शायद टी .वी वाला सही बोल रहा है ………. आँगन बड़ा हो गया है तभी तो उनकी आवाज़ आँगन को पार करके बच्चो तक पहुँच ही नहीं पाती |            बर्फ की सिल्ली पर रखी फूलमती की मृत देह को शायद अभी भी प्रतीक्षा है अपने बेटे पप्पू की जो दस साल पहले विदेश जा कर बस गया था | कितना घबराई थी वो अपने कलेजे के टुकड़े अपने  बेटे को विदेश भेजते  समय | वैधव्य की मार झेलते हुए कैसे नमक रोटी खाकर पढ़ाया था पप्पू को | बेटे ने हाथ थाम कर कहा था “अम्माँ  बस एक साल की बात है ,लौट आउंगा | थरथराते होंठों से बस उसने इतना ही कहा था “ बेटा मेरी मिटटी खराब न होने देना ,आग तुम्ही देना “ अरे नहीं  अम्माँ  अब पूरा विश्व एक आँगन हो गया है ,दूरी रह ही कहाँ गयी है | विधि की कैसी विडम्बना है जो माँ अपलक १० साल से अपने बेटे का इंतज़ार कर रही थी उसकी मृत देह १० घंटे भी न कर सकी | इससे पहले कि देह सड़े रिश्ते के भतीजे को बुला कर पंचतत्व  में विलीन कर दी गयी | पप्पू न आ सका | इतने बड़े आँगन को पार करने में समय तो लगता ही है |       अभी पिछले महीने हमने विदेशियों की परंपरा का निर्वहन करते हुए मदर्स डे ,फादर्स डे ,फैमिली डे मनाया | बहुत से लोगों को इस दिन दूर रहते हुए अपने माता –पिता की याद आई होगी | शायद फोन मिला कर “ हैप्पी मदर ,फादर ,फैमिली डे कहा हो “ शायद कोई कार्ड ,कोई गिफ्ट भी दिया हो | और प्रतीकात्मक रूप से अपने कर्तव्य की ईतिश्री करके अपने सर से बोझ उतार  लिया हो | पर समय कहाँ देख पाता  है कि बुजुर्गों के चेहरे की मुस्कुराहटों की नन्हीं सी शाम, इंतज़ार की लम्बी रात में कितनी जल्दी धंस जाती है | फिर शुरू हो जाता है अंतहीन पलों को गिनने का सफ़र जो कटते हुए भीतर से बहुत कुछ काट जाते हैं |जीवन संध्या में एकाकीपन कोई नयी बात नहीं है | बहुत कुछ कहा जा चुका है कहा जा रहा पर समस्या जस की तस है | एकाकीपन की समस्या से हर बुजुर्ग जूझ रहा है | वो भी जिनके बच्चे दूर विदेश में  हैं और वो भी जिनके बच्चे पास रह कर भी दिल से बहुत दूर हैं | बड़े होते आँगन में दायरे इतने संकुचित हो गए हैं कि किसी के पास किसी के लिए समय नहीं है |           अब तस्वीर को पूरा १८० डिग्री पर पलट कर देखते हैं | नीरज एक छोटे से कस्बे  में रहने वाला होनहार छात्र जिसने अपनी  कुशाग्र बुद्धि के दम पर एक  देश की सबसे प्रतिष्ठित इंजीनयरिंग परीक्षा पास की और  कंप्यूटर इंजिनीयर बना | जाहिर है उसके छोटे से कस्बे  में उसकी योग्यता लायक कोई नौकरी नहीं है  | देश के बड़े शहरों और विदेशों में उसका सुनहरा भविष्य इंतज़ार कर रहा है  |अब उसके पास  मात्र दो विकल्प हैं | या तो वो किसी मात्र पेट भरने लायक नौकरी कर के उस कस्बे  में रहे और जीवन भर अपनी  योग्यता के अनुसार पद न मिल पाने की वजह से कुंठित रहे या घर द्वार … Read more

युवाओ के सर चढ़ कर बोलता ……… स्वप्नीली दुनियाँ का जुनून

युवाओ के सर चढ़ कर बोलता ……… स्वप्नीली  दुनियाँ  का जुनून वो दुनियाँ शायद कुछ और ही होती होगी जहाँ चमकते हैं सितारे बरसता है पैसा गुनगुनाती है शोहरत शायद बहुत मजबूत होते होंगे उनके घर के दरवाजे सारे दुःख बाहर ही रह जाते होंगे उसके  सपनो की दुनियाँ धरती पर स्वर्ग वही तो हैतभी तो शुरू हो गयी है मन को झुठलाने की कवायद कि नक़ल ही सही एक अहसास तो बना रहे कुछ ख़ास होने का  लाइट्स! कैमरा! एक्शन! ….. नायक  कैमरे के सामने आता है और आत्मसम्मान भरे गर्व  के भाव  से बोलता है “ मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता “तभी आवाज़ आती है  “कट! कट! कट!”  सर जरा भाव  में थोड़ी कमी रह गयी है एक रीटेक करना पडेगा | कई रीटेक के बाद सीन फायनल होता है और पसीना पोछते हुए  नायक  कार में बैठ कर घर वापस चला जाता हैं | फिर वो सामान्य आदमी है | उसी तरह खाता –पीता , हँसता -रोता है | पर यही दृश्य जब फिल्म  में एक साथ चलता है तो बड़ा प्रभावशाली लगता है | हम दांतों के बीच में अंगुलियाँ दबाये साँस रोके हुए देखते है अपने सुपर मैंन को | एक आदर्श पुरुष की कल्पना को साकार करता है हमारा नायक पूरा हॉल  तालियों की गडगडाहट  से भर जाता है | हम फिल्म खत्म होते ही हॉल से बाहर  आ जाते हैं पर  मन पर चढ़ा सुपर हीरो का जादू अभी भी यथावत रहता है |                                                        हमारा नायक जो  चाहे डॉक्टर हो  ,इंजिनीयर हो या मजदूर …….. दुश्मन सामने आये तो १० से अकेले निपट सकता है |  वो न्याय प्रिय है ,सत्य का साथी है | शूरवीर है ,सुपरमैन है |  मुझे पुरानी फिल्म का एक गाना याद आता है………..  “ आ चल के तुझे मैं ले के चलूँ ,एक ऐसे गगन के तले जहाँ गम भी न हो आँसू भी न हों ,बस प्यार ही प्यार पले             ऐसी दुनियाँ  का कोई  अस्तित्व नहीं है पर ऐसी ही दुनियाँ हम देखना चाहते हैं | ये है हमारे सपनों की सतरंगी दुनियाँ ,कल्पनाओ का इन्द्रधनुषी संसार | जो वास्तव में है नहीं,और  हो भी नहीं सकता |  सुख और – दुःख जिंदगी के अभिन्न अंग हैं | ये जानते हुए भी दिल मानना नहीं चाहता है |कहीं न कहीं हम इस झूठ को सच मानने की कवायद में लगे रहते हैं | हमारे बच्चे और युवा इस चमक से सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं | इस प्रभाव को गहराने के लिए , इस के बाद मीडिया परोसता है हमारे सामने हमारे नायक ,नायिकाओं का आदर्श रूप , जिसमें इन  टी वी शोज , स्टेज और पत्रपत्रिकाओ में  तन और मन पर ढेरों मेकअप की पर्त चढ़ाये हुए हँसते –मुस्कुराते चेहरे हमें हर गम ,हर दुःख से दूर ,धरती पर स्वर्ग भोगते हुए लगते हैं | ऐसी ही तो जिंदगी हम चाहते हैं | बहुत जल्दी ही ये हमारे बच्चो और युवाओ के  दिलो –दिमाग पर राज़ करने लगते हैं |                   वह  खुद उन जैसा दिखना  चाहते  हैं , बनना चाहते हैं |  कहीं उनके द्वारा पहने गए कपडो के प्रतिरूप  साथ निभाना साथिया की गोपी  की पायल , हम दिल दे चुके सनम की ऐश्वर्या की साड़ी व् स्वदेश के शाहरुख खान की जींस के रूप में बाजारों  में सज जाते हैं युवा वर्ग इन्हें जल्दी  से जल्दी खरीद कर पहनने को अपना स्टेटस सिम्बल समझता है | वो गौरवान्वित होना चाहता है उधार के व्यक्तित्व से जिसमें उसका अपना कुछ नहीं होता |बड़े शहरों में फिल्मों का अन्धानुकरण करके आधे –अधूरे  कपडे पहने हुए युवा अक्सर दिख जाते हैं…. जो उनके व्यक्तिव को विशेष नहीं बनाते अपितु  देश काल और परिस्तिथियों के अनुरूप न होने के कारण आँखों में खटकते हैं |  पर युवा व् किशोर आत्ममुग्धा की अवस्था में उसके विपरीत प्रभाव को समझ ही नहीं पाते |,            एक पुरानी फिल्म है गुड्डी| जिसमें फिल्म की  किशोर नायिका एक सामान्य लड़की है पर वो एक सुपरस्टार के लिए दीवानी है , दीवानगी इस हद तक है कि वो पिता द्वारा पसंद किये गए लड़के  से विवाह  से इनकार करती है | कारण  जानने के बाद पूरा परिवार आश्चर्य में पड़ जाता है | एक योजना के तहत उसे मुबई ले जाया जाता है और फ़िल्मी दुनिया की हकीकत से रूबरू कराया जाता है | परदे के पीछे के खोखलेपन को जानकार उसका दिवास्वप्न टूटता है ,फिर वो  उस लड़के से विवाह के लिए हां कर देती है | ये सिर्फ कहानी नहीं है बल्कि किशोर और युवा वर्ग की सच्चाई है | फिल्म की नायिका  गुड्डी की तरह लड़कियाँ नायकों के समान पति की और लड़के नायिकाओं के समान पत्नी की कल्पना करने लगते हैं | पर हकीकत में ये संभव नहीं है | तिलस्मी दुनियाँ  के स्वप्न हकीकत के धरातल पर एक अंतहीन दौड़ के अतरिक्त कुछ भी नहीं रह जाते हैं | फ़िल्मी दुनियाँ जैसा प्रेम न मिलना कई विवाहों में झगडे व् उनके टूटने का कारण भी बनता है |                                     काफी वक्त पहले दूरदर्शन पर एक बच्चो का मनोविज्ञान जानने  के लिए क्विज प्रोग्राम आता था | उसमें एक बार एंकर ने बच्चों से प्रश्न पूंछा “आप का रोल मोडल कौन है ?एक दो छोड़ कर हर बच्चे ने किसी फिल्मी हीरो ,हीरोइन को  अपना रोल मॉडल बताया | एंकर ने फिर प्रश्न किया क्यों ? किसी बच्चे ने बताया की वो बहुत सीधा /सीधी  है | वो अन्याय के खिलाफ लड़ता /लडती है | कुछ उनके रूप, हेयर सटाइल ,ड्रेसिंग सेन्स पर फ़िदा थे | तभी एंकर  ने बच्चों से प्रश्न करा कि “अगर आप को पता चले कि अपनी असली जिंदगी में वो शराब पीते हैं ,अभद्र भाषा का प्रयोग करते हैं ,चीखते चिल्लाते हैं तो ? बच्चों के चहरे उतर गए ,वो यह बात मानने से इनकार करने लगे ,और असली प्रश्न वही छूट गया “अगर वो रीयल लाइफ में वैसे नहो जैसे  परदे पर दिखते  हैं तो ?                     वो तो बच्चे थे …. पर हम तो बड़े हैं | एक किसान आत्महत्या करता है उसी दिन एक सेलिब्रेटी शादी करता है | आप को … Read more

अन्तराष्ट्रीय तम्बाकू निषेध दिवस पर विशेष : चाहिए बस एक स्नेह भरा हाथ

                                        अन्तराष्ट्रीय तम्बाकू निषेध दिवस पर विशेष  चाहिए बस एक स्नेह भरा हाथ ……. टूट जाते हैं कुछ लोग  सांसों के टूटने से पहले  जब जीवन के टीभते  दर्द के  अनेक नाम ,अनेक रूप  गढ़ लेते हैं  अपनी सर्वमान्य परिभाषा  “निराशा “ कि  छोटे- बड़े रास्तों  पगडंडियों से होते हुए  अपनी समस्याओं का समाधान खोजते  क्यों पहुँच जाते हैं  एक ही जगह  चौराहों की गुमटियों पर जहाँ   फूट जाती है कुछ आँखें  आँखों के फूटने से पहले  दिखती  ही नहीं  साफ़ -साफ़ शब्दों में लिखी  वैधानिक चेतावनी कि  पैसे देकर  खरीदते हैं “धीमी मौत “ समय के साथ  रगड़ते -घिसटते  अतिशय पीड़ा झेलते  जब तय कर देता है डॉक्टर एक तारीख आह ! दुर्भाग्य   मर जाते हैं कुछ लोग  मौत के आने से पहले   मैं जहाँ जा रही हूँ वहां मेरे साथ इस यात्रा में मेरी सहेली सुलेखा है। विशाल प्रांगण से होते हुए ईमारत में अन्दर घुसने से ठीक पहले मैं  धडकते दिल से मुख्य द्वार  पर लगा बोर्ड देखती हूँ … “क ख ग कैंसर हॉस्पिटल “। कैंसर … एक ऐसा शब्द जिसको सुनकर भय के  अनगिनत केकड़े शरीर पर रेंगने लगते हैं । कैंसर जैसे जिंदगी मृत्यु की तरफ रेंग -रेंग कर चल रही हो ,सब ख़त्म कर देने के लिए सब लील जाने के लिए । मैं सुलेखा का हाथ कस कर पकड़ लेती हूँ । मैं आश्वस्त हो जाना चाहत हूँ की एक -दूसरे का साथ शायद उस पीड़ा को कम कर दे जो एक शोध के लिए हम अन्दर देखने जा रहे हैं । हम एक बड़े से वार्ड में प्रवेश करते हैं जहाँ मरीज ही मरीज हैं। …. तम्बाकू का दुष्परिणाम भोगते हुए मरीज ……… या अस्पताल की भाषा में कहें तो बेड संख्या । बेड नंबर -१ पर लेटा  मरीज बुरी तरह खांसता  है ,उसका दाहिना गाल फूल कर चार गुना हो गया है लाल ,सडा ,पीब भरा | दर्द की टीस  के साथ मरीज उलटी कर देता है …….. खून की उल्टी …. कैंसर की तीसरी अवस्था ।दर्द की सिहरन के साथ सुलेखा को उबकाई   आती है  ।”नहीं मैं और नहीं देख सकती कह कर सुलेखा मेरा हाथ छुडा  कर बाहर भाग जाती है । “जो सुलेखा से देखा नहीं जा रहा  है वो कोई भोग  रहा है ।                                           मैं आगे बढती हूँ बेड नंबर -२।  ओपरेशन के बाद गाल सिल  दिया गया है  । मरीज ठीक हो गया है पर होठ ,गाल ,नाक एक विचित्र स्तिथि में आ गए हैं बोलने में लडखडाहट है जो शायद पूरी उम्र रहेगी । बेड नंबर ३ व् चार की असहनीय यंत्रणाओं को देखते हुए मेरी दृष्टि पड़ती है बेड नंबर -५ के मरीज पर… शांत ,निश्चेष्ट ,सफ़ेद कफ़न ओढ़े । साथ में रोती -बिलखती २६ -२७ साल की स्त्री ,गोद में ६ माह का शिशु लिए । शायद पत्नी ही होगी ,और वह नन्हा  शिशु उसका पुत्र ,जो  पिता  शब्द सीखने से पहले ही  पिता के स्नेह से वंचित हो गया । वहीँ जमीन पर पसरी अपने जवान पुत्र की मौत पर मातम मनाती … बदहवास अर्धविक्षिप्त सी माँ ।  हे विधाता ! एक साथ चार मौते …,एक दिख रही है ,तीन दिख नहीं रही । क्यों आखिर क्यों? नशे की दिशा भटके क़दमों के साथ  ये नशा लील लेता है इतनी सारी  जिंदगियाँ एक साथ  । अनमयस्क सी मैं बाहर की तरफ भागती हूँ ।                                    बाहर खुली हवा में एक बेचैन कर देने वाली घुटन है । रह -रह कर बेड नंबर १,२ , ३……… के मरीज मुझे याद आ रहे हैं । शायद उनसे मेरा कोई रिश्ता नहीं है……… या शायद उनसे मेरा बहुत घनिष्ठ रिश्ता है जो एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से ,एक आत्मा को दूसरी आत्मा से जोड़ता है ………. हमारे बीच मानवता का रिश्ता है । अनमयस्क सी मैं चल पड़ती हूँ और मेरे साथ चल पड़ती हैं फूटपाथ पर कुकुरमुत्तों की तरह उगी पान की गुमटियां और उस पर सजे  सिगरेट के पैकेट व् ख़ूबसूरती से लटकाये गए तम्बाकू के गुटखे । जिन पर साफ़ -साफ़ लिखी वैधानिक् चेतावनी ” तम्बाकू स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है  “मुझे मुंह चिढा रही है । जानते समझते हुए भी बच्चे ,किशोर ,युवा और कुछ वृद्ध उसे खरीद कर ले जा रहे हैं और साथ में खरीद कर ले जा रहे हैं …………. अतिशय पीड़ा ,एक धीमी मौत ।         आज  स्कूल में चार्ट कॉम्पटीशन है । विषय है “से नो टू  टुबैको “। कक्षा ३ ,४ और ५ के ढेर सारे  बच्चे चार्ट बना रहे हैं ।  तरह -तरह की आकृतियों  के बीच बड़ा -बड़ा लिखा है “से नो टू  टुबैको “। इनमें से किसी की प्रथम पुरूस्कार मिलेगा ,किसी को द्वितीय किसी को तृतीय । पर मैं खोज उन बच्चों को जो हार जायेंगे । आज की इस प्रतियोगिता में नहीं । उम्र के किसी पड़ाव में ,किसी समय में किसी उलझन में “से नो टू  टुबैको ” कहने वाले बच्चे  ,एक सिगरेट का पैकेट या एक तम्बाकू का गुटखा खरीद कर “से यस टू  टुबैको कहते हुए लील जायेंगे ……….तम्बाकू नहीं , ये सारे चार्ट ,ये सारे भाषण ,ये सारे मार्च पास्ट…. और ये सारा उत्साह और धीरे -धीरे तब्दील होने लगेंगे बेड नंबर १ ,२ ,३ के मरीजों में ।                      हर वर्ष  अन्तराष्ट्रीय तम्बाकू निषेध दिवस मनाया  जाता  है । जोर -शोर से तम्बाकू और उसके उत्पादों की खराबियाँ  बतायी जाती हैं । स्कूलों  में विशेष कार्यक्रम होते हैं । सेमिनार्स होते हैं । ज्यादातर सबको बचपन से ही रट  जाता है “कि तम्बाकू धीरे धीरे सुरसा के मुंह की तरह पूरी दुनिया को लीलने को आमादा है | ४५० ग्राम तम्बाकू में निकोटीन मात्रा लभग ६५ ग्राम होती है और  इसकी ६ ग्राम मात्रा से एक कुत्ता ३ मिनट में ही मर जाता है|भारत में किए गए अनुसंधानों से पता चला है कि गालों में होने वाले कैंसर का मुख्य कारण खैनी अथवा जीभ के नीचे रखी जाने वाली, चबाने वाली तम्बाकू है। इसी प्रकार गले के ऊपरी भाग में, जीभ में और पीठ में होने वाला कैंसर बीड़ी … Read more

मासूम सपनों पर ………. सपनों का बोझ

मासूम सपनों पर ………. सपनों का बोझ   उसके जन्म लेने से पहले माँ नें देख लिया था एक सपना उसके लिए फेरती थी स्नेह से उदर पर हाथ कि सुन लेगा शायद अजन्मा शिशु उसकी पुकार और एक दिन और तय कर देगा रोटी से पूड़ी का सफ़र कि पहला कदम रखने  से पहले भर दिए थे पिता ने नन्हे पांवों में अपनी असफलताओं की कुंठा  के साथ    आसमान नापने के सपने हर पल बढती उम्र के साथ अध्यापक ,नाते –रिश्तेदार ,समाज लादने लगा उसकी आँखों पर अपने सपने इतने इस कदर कि एक दूसरे से दब कर  मर गए  मासूम सपने  बोझ लगने लगी सपनो की  लाश सपनों में भी सपनों से लगने लगा डर फिर एक दिन एक छलांग ले गयी हर डर ,हर अपेक्षा ,हर सपने के पार क्योंकि लाशें सपने नहीं देखा करती ठिठका समाज मात्र  दो पल को निर्दयी  ने फिर शुरू किया सपनो कि लाश से लाशों के सपनो का अंतहीन सफ़र             मार्च –अप्रैल का महीना यानी परीक्षाओं का महीना |इस  महीने में ऐसी घटनाएं आम हैं फिर भी आज मन उदास है और मैं  जिक्र करना  चाहती हूँ उस घटना कि जो रह –रह कर मेरे जेहन में उभर रही है |दिल्ली में बारहवी कक्षा कि एक छात्रा  नें बोर्ड परीक्षाओं से ठीक दो दिन पहले अपने एपार्टमेंट के आठवे माले से कूद कर आत्महत्या कर ली |दो दिन बाद उसकी फिजिक्स कि परीक्षा थी | परीक्षा गणित की  भी हो सकती थी ,हिंदी की  भी |महत्वपूर्ण ये था कि परीक्षा थी और उसके साथ था तनाव ,अपनों के सपनों कि उमीदों पर खरे उतरने का  |शायद आपको यह घटना याद न हो |जरूरत भी नहीं है याद रखने कि ,क्योंकि उस दिन आसमान से आग नहीं बरसी थी ,धरती नहीं हिली थी और अचानक से हवा  भी नहीं रुक गयी थी | स्कूल भी खुले थे बच्चे अपने अभिवावकों ,समाज और टीचर्स के सपनो को नन्हे बस्तों में भर कर यह  बोझ लादे स्कूल गए थे | समाज कि तुलनात्मक निगाहें अपने –अपने दृष्टिकोण से इन मासूमों को सफल –असफल घोषित करने में लगी थी |ऐसे में कौन याद रखता कि एक मासूम  जो लाश होते हुए सपनों का बोझ ढो  न सका और सपनों के पार चला गया |         हम किस समाज कि ओर बढ़ रहे हैं जहाँ बच्चे अपने ही माता –पिता के सपनों से इतना भयभीत हैं कि मृत्यु को अंगीकार करना श्रेयस्कर समझते हैं |ये बच्चों कि उत्तरदायित्वहीनता है या माता –पिता का जरूरत से ज्यादा उम्मीदें पलना |प्रश्न दर  प्रश्न एक उहापोह कि स्तिथि है मेरे मन में तभी मेरी कामवाली अपने तीन साल के बेटे के साथ  मंदिर से उसके नन्हे बस्ते का पाटी  –पूजन करवा कर   आती है|उसका आग्रह है यह बस्ता उस बच्चे के कंधे पर मैं ही चढ़ाऊ | मैं मुस्कुरा कर बच्चे के कंधे पर बस्ता चढाती हूँ |उसकी माँ लगातार बोले जा रही है “देखिएगा दीदी ,ये बहुत पढेगा ,हमारी गरीबी दूर करेगा |आज भले ही मैं इसे नमक –रोटी खिलाती हूँ हूँ ये मुझे पूड़ी –पुआ खिलाएगा |बेटा माँ से चिपक जाता है उसकी आँखों में माँ कि आँखों के सपने भर गए हैं |हां ! ये उसे करना ही है ये वो करके रहेगा |फिर बच्चा बस्ता उतार कर रख देता हैं |शायद भारी लग रहा था ………. पर ये भार किताबों का तो नहीं है  |                नुक्कड़ पर रहने वाले दीपक जी  जिन्होंने बहुत कुछ बनना चाह था पर आज एक दफ्तर में चपरासी हैं ,ठीक ५ बजे ऑफिस से आ जाते हैं |  चौथी कक्षा में पढने वाले बेटे बिट्टू  को पढ़ाने बैठ जाते हैं | रात १० बजे तक पढ़ाना है | खेलना नहीं ,खाना नहीं , टीवी नहीं घूमना नहीं | बिट्टू  बार –बार खिड़की के बाहर पार्क में अपने हमउम्र बच्चों को खेलते हुए देखता  है | दीपक जी  गणित के सूत्र समझा रहे हैं ,बेटे के कान बाहर से आने वाली मुझे छू ,ले कैच पकड़ पर लगे हैं | नन्हा बिट्टू पिट जाता है | आंसुओ में पिता की कुंठा का गणतीय सूत्र कहाँ समझ आता है |जो समाज को दिखाना चाहते हैं की वो भले ही असफल रहे हो ,नकारा साबित किये गए हो पर उन्होंने हीरा लाल पैदा किया है |अपने यारों दोस्तों से अपने अपमान का बदला तो लेना ही है | कहाँ सोचा है इस आग में नन्हे बैट –बॉल ,लूडो ,सांप –सीढ़ी जल गयी हैं | रात गहराते –गहराते बिट्टू कि आँखे बोझिल  हो रही हैं पर ये नींद से तो नहीं  हैं |         मिडिल क्लास मौहल्ले कि मिसेज  नेहा अपनी बिटिया  निधि को को सबसे महंगे स्कूल में पढ़ाती है |कालोनी के  माता –पिता व् बच्चे उस  स्कूल के बारे में सोच भी नहीं सकते |नेहा ने अपनी उम्र में सरकारी स्कूल से पढ़ाई की |औसत बुद्धि कि नेहा यह मान बैठी कि अगर वो महंगे स्कूल में पढ़ी होती तो आज उनके हाथ में बेलन कि जगह मोटी –मोटी  फाइलें  होती | पर निधि अमीर बच्चों के बीच में खुद को हीन समझने लगी | वो पढ़ाई में पिछड़ने लगी |माँ ने झूठी शान के लिए झूठ का पहाड़ खड़ा किया मेरी बेटी फर्स्ट आती है ,वो पढने में बहुत तेज हैं ,सब तारीफ़ करते हैं |झूठ का एक बोझ निधि के सर पर सवार हो गया | नेहा कि शान निधि कि जान पर बन आयी | अकसर निधि कि धडकन बढ़ जाती है वो पसीने –पसीने हो जाती है |जैसे –जैसे इम्तहान करीब आ रहे हैं उसकी तबियत बिगड़ती  जा रही है पर ये किसी शारीरिक बिमारी कि वजह से तो नहीं |           आज आई .आई टी  के इम्तहान का परिणाम निकला है | मेरे पड़ोसी का बेटा १७ वर्षीय रितेश कुशाग्र बुद्धि है |उसने मेहनत  भी बहुत की थी | आस –पड़ोस सबमें चर्चा थी कि रितेश आई .आई टी जरूर क्रैक कर लेगा |पर परिणाम मनोनुकूल नहीं रहा |रितेश के घर में मातम का माहौल है |कुछ हद तक समझ में आता है |पर तभी दूसरा परीक्षा परिणाम आता है रितेश का एक नामी इंजीनियरिंग कॉलेज में चयन हुआ है |घर में अभी … Read more

अंतराष्ट्रीय महिला दिवस् पर विशेष : कुछ पाया है …….. कुछ पाना है बाकी

अंतराष्ट्रीय महिला दिवस् पर विशेष       कुछ पाया है …….. कुछ पाना है बाकी सदियों से लिखती आई हैं औरतें सबके लिए चूल्हे की राख पर  धुएं से त्याग द्वारे की अल्पना पर रंगों से प्रेम तुलसी के चौरे पर गेरू से श्रद्धा  अब लिखेंगी अपने लिए आसमानों पर कलम से सफलता की दास्ताने अब नहीं रह जाएगा आरक्षित उनके लिए पूरब के घर में दक्षिण का कोना बल्कि बनेगा  एक क्षितिज जहाँ सही अर्थो में  स्थापित होगा संतुलन शिव और शक्ति  में  ८ मार्च अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस …. ३६५ दिनों में से एक दिन महिलाओं के लिए ….पता नहीं क्यों  मैं कल्पना नहीं कर पाती किसी ऐसे दिन ऐसे घंटे या ऐसे मिनट की जिसमें स्त्री न हो ,या जो स्त्री के लिए न हो तो फिर ये  महिला दिवस क्या है ? माँ ,बहन बेटी ,सामान्य नारी के लिए सम्मान या मात्र खानापूरी  ,भाषण बाज़ी चर्चाएँ ,नारे बाजी जो यह सिद्ध कर देती है कि वो कहीं न कहीं कमजोर है ,उपेक्षित है ,पीड़ित है , क्योंकि समर्थ के कोई दिन नहीं होते ,दिन कमजोर लोगो के ऊपर करे गये अहसान है कि एक दिन तो कम से कम तुम्हारे बारे में सोचा गया | क्या स्त्री को इसकी जरूरत है ? क्या ये मात्र एक फ्रेम से निकल कर दूसरे फ्रेम में टंगने  के लिए है | इस उहापोह के बीच में मैं पलटती हूँ एक किताब  राहुल संस्कृतायन  “वोल्गा से  गंगा ”  | जिसमें राहुल संस्कृतायन  नारी के बारे में  लिखते हैं  …. देह के स्तर पर  बलिष्ठ ,नेतृत्व  करने की क्षमता के  साथ वह युद्ध करने में और  शिकार करने में   भी पुरुष की सहायक   हुआ करती थी।  राहुल सांकृत्यायन के अनुसार नारी में सबको साथ लेकर चलने की शक्ति थी, वह झुण्ड में आगे चलती थी ,वह अपना साथी खुद चुनती थी ।” वोल्गा से  गंगा ” में वे  एक जगह लिखते हैं ” पुरुष की भुजाएं भी ,स्त्री की भुजाओं की  तरह बलिष्ठ थीं ” अतार्थ स्त्री की भुजाएं तो पहले से ही बलिष्ठ थी |आखिर समय के साथ क्या हुआ की वो बलिष्ठ भुजाओं वाली स्त्री इतनी कमजोर हो गयी कि उसके लिए दिवस बनाने की आवश्यकता पड़ी |                           मैं महिलाओं के मध्य पायी जाने वाली  समस्याए और उनका समाधान खोजना चाहती हूँ |मुझे सबसे पहले याद आती है गाँव की  धनियाँ , जो ढोलक की थाप पर नृत्य करती है “मैं तो चंदा ऐसी नार राजा क्यों लाये सौतानियाँ | नृत्य करते समय वो प्रसन्न है चहक रही है परन्तु वास्तव में उसका पूरा जीवन इसी धुन पर नृत्य कर रहा है | धनियाँ घुटने तक पानी में कमर झुका कर दिन भर धान  रोपती है ,७-८ बच्चे पैदा करती है ,चूल्हा चकिया करती है ,शराबी पति से डांट  –मार खाती है फिर भी सब सहती है उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं है ,कभी सोचा ही नहीं है उसकी धुरी उसका पति है ,जो स्वतंत्र है ….ये औरते रोती हैं लगातार ,बात –बिना बात पर ,ख़ुशी में गम में  सौतन का भय उसे सब कुछ सहने को और एक टांग पर दिन भर नृत्य करने को विवश करता है चक्की चलती है ,धनियाँ नाचती है , बच्चा रोता है धनियाँ नाचती है ,ढोलक बजती है धनियाँ नाचती है … धनियाँ नाचती है अनवरत ,लगातार ,बिना रुके बिना थके |                        मुझे याद आती हैं पड़ोस के मध्यमवर्गीय परिवार वाली  भाभी जो स्कूल में अध्यापिका हैं , बैंक में क्लर्क हैं या  घर के बाहर किसी छोटे मोटे काम में लगी हुई कमाऊ बहु का खिताब अर्जित किये हैं…. भाभी दुधारू गाय हैं , समाज में इज्ज़त है  पर ये अंत नहीं है शुरुआत है उनकी कहानी का |  भाभी दो नावों पर सवार हैं एक साथ , समाज़ की वर्जनाओं रूपी विपरीत धारा  में बहती नदी, जिसे उन्हें पार करना है हर हाल में ज़रा चूके तो गए ….. मीलों दूर नामों निशान भी नहीं मिलेगा | एक बहु घर का खाना बना छोटे बड़े का ध्यान रख  सर पर पल्ला करके घर से बाहर  निकलती है ,चौराहे के बाद पल्ला हटा कर वह एक कामकाजी औरत है ,शाम को फिर रूप बदलना है ,महीने के आखिर में अपनी मेहनत  की कमाई को घर वालों को सौप देना है , क्यों न ले आखिर उन्होंने ही तो दी है घर के बाहर ऐश करने की इजाज़त ….. भाभी इंसान नहीं हैं मशीन हैं ,या घडी के कांटे जिन्हें चलना हैं समाज की टिक –टिक के बीच जो कोई अवसर जाने नहीं देना चाहता “कण देखा और तलवार मारी का “भाभी अक्सर छुप  कर रोती हैं ,या कभी अपने आँसू को चूल्हे के धुए में छिपा लेती हैं … भाभी जानती हैं माध्यम वर्गीय औरत और आँसू …. जैसे शरीर और प्राण |                   मुझे याद आती हैं डॉक्टर ,इंजीनियर , बड़ी कंपनियों की मालिक औरतें ,जिन्होंने खासी मेहनत के बाद अपना एक मुकाम बनाया है |आज बड़े –बड़े ऊंचे  पदों पर बैठी हैं…. अक्सर फाइलों पर दस्तखत करते हुए जब दिख जाते हैं अपने हाथ तो भर जाता है निराशा से मन, एक सहज स्वाभाविक प्रश्न से “क्यों स्त्री के दोनों हाथों में लड्डू नहीं होते “ क्यों कुछ पाने कुछ खोने का नियम हैं |ये औरते बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स की मीटिंग में जाती हैं ,माइक सभालती हैं ,सफलता पर घंटों लेक्चर देती हैं पर खो देती हैं जब बेटी नें पहली बार माँ कहा था ,जब बेटा पहली बार चलना सीखा था ,युवा होते बच्चों को देना चाहती  हैं समय पर नहीं, कहाँ हैं समय ?पेप्सिको की इन्द्रा नुई कहती हैं ऊँचे पदों पर बैठी औरत हर दिन जूझती है इस प्रश्न से आज किसे प्राथमिकता देना है एक माँ को या एक सी .ई .ओ को |ये औरतें रोती  नहीं,…. समय ही नहीं हैं पर हर बार दरक जाती हैं अन्दर से ,बढ़ जाती है एक सलवट माथे पर ,जिसे छुपा लेती हैं मेकअप की परतों में ,पहन लेती हैं समाजिक मुखौटा … और  हो जाती हैं तैयार अगली मीटिंग के लिए                   मुझे दिखाई देती है महिलाओं की एक चौथी जमात जो सभ्यता के लिए बिलकुल नयी है| ये हाई सोसायटी की मॉड औरते … Read more

सिर्फ अहसास हूँ मैं…….. रूह से महसूस करो

फिर पद चाप  सुनाई पड़ रहे  वसंत ऋतु के आगमन के  जब वसुंधरा बदलेगी स्वेत साडी  करेगी श्रृंगार उल्लसित वातावरण में झूमने लगेंगे मदन -रति और अखिल विश्व करने लगेगा मादक नृत्य सजने लगेंगे बाजार अस्तित्व में आयेगे अदृश्य तराजू जो फिर से तोलने लगेंगे प्रेम जैसे विराट शब्द को उपहारों में अधिकार भाव में आकर्षण में भोग -विलास में और विश्व रहेगा अतृप्त का अतृप्त फिर सिसकेगी प्रेम की असली परिभाषा क्योकि जिसने उसे जान लिया उसके लिए हर मौसम वसंत का है जिसने नहीं जाना उसके लिए चार दिन के वसंत में भी क्या है ?                 मैं प्रेम हूँ ….. चौक गए …सच! मैं वहीं प्रेम हूँ जिसे तुम सदियों से ढूंढते आ रहे हो ,कितनी जगहों पर कितने रिश्तों में कितनी जड़ और चेतन वस्तुओं  में तुमने मुझे ढूँढने का प्रयास किया है…..यहाँ वहाँ इधर –उधर सर्वत्र व्याप्त होते हुए भी मैं सदा तुम्हारे लिए एक अबूझ पहेली ही रहा जिसको तुम तरह –तरह से परिभाषित करते रहे और जितना परिभाषित करते रहे उतना उलझते रहे ये लुका –छिपी मुझे दरसल भाती  बहुत है मैं किसी  कमसिन अल्हड नायिका की तरह मुस्कुराता हूँ  जब तुम  मुझे पा के अतृप्त , भोग कर अभोगे ,जान कर अनजान रह जाते हो  …आश्चर्य  जितना तुम मुझे परिभाषाओं से बाँधने का प्रयास करते हो उतना ही मैं परिभाषा से रहित हो जाता हूँ क्योकि बंधन मुझे पसंद नहीं |मैं तुम्हारे हर रिश्ते में हूँ कहीं माता –पिता का प्यार ,कहीं बहन –भाई का स्नेह ,कहीं बच्चों की किलकारी तो कहीं पति –पत्नी का दाम्पत्य |इतने रिश्तों में होते हुए भी तुम अतृप्त हो क्यों ?उत्तर सरल है जब भी तुम किसी रिश्ते में अधिकार और वर्चस्व की भावना ले आते हो ,मेरा दम घुटने लगता है ,बस सतह पर अपना प्रतिबिम्ब छोड़ मैं निकल कर भाग जाता हूँ ,और सतह के जल से तुम तृप्त नहीं होते | फिर तुम मुझे प्रकृति में सिद्ध करते हो कि मैं झरनों  की झम –झम में नदियाँ की कल –कल में फूलों की खुश्बूँ में हूँ तो मैं पाषाण प्रतिमा में  प्रवेश कर साक्षात् ईश्वर बन जाता हूँ ,जब तुम  मुझे सुख –सुविधाओं में  सिद्ध करते हो तो मैं अलमस्त कबीर की फटी झोली बन जाता हूँ ….तुम हार नहीं मानते तुम मुझे देह को भोगते हुए देहातीत होने को सिद्ध करते हो |मैं फिर मुस्कुरा कर कहता हूँ अरे ! मैं तो वो राधा हूँ,जो प्रेम की सम्पूर्णता में  पुकारती है “आदि मैं न होती राधे –कृष्ण की रकार पे ,तो मेरी जान राधे –कृष्ण “आधे कृष्ण” रहते “ राधा  किसी दूसरे की पत्नी बच्चों की माँ , अपने कृष्ण हजारों मील दूर ,कहाँ है देह ?यहाँ तो देह का सानिध्य नहीं है ….राधा के लिए कृष्ण देह नहीं हैं अपतु राधा  के लिए कृष्ण के अतिरिक्त कोई दूसरी देह ही नहीं है ,न जड़ न चेतन |तभी तो जब एक चाकर ने  कृष्ण के परलोक पलायन का दुखद समाचार  राधा को दिया ,हे राधे कृष्ण चले गए … मुस्कुरा  कर कह उठी राधा “परिहास करता है ,कहाँ गए कृष्ण ,कहाँ जा सकते हैं वो तो कण –कण में हैं ,पत्ते –पत्ते  में हैं ,उनके अतिरिक्त कुछ है क्या ? राधा के लिए कृष्ण ,कृष्ण नहीं हैं ,अपितु कृष्ण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है ,स्वयं राधा भी राधा नहीं रहीं वो कृष्ण हो गयी …. सारे  भेद ही मिट गए…. लोक –काल से परे हो गया ,पूज्य हो गया ये प्रेम |  पर ठहरो नहीं, यहीं पर मत अटको अभी मेरे पिटारे में बताने को और भी बहुत कुछ है ….. मैं तुलसी का वो पत्ता हूँ जो कृष्ण के वजन से भी गुरु हो गया ,हाँ !उस कृष्ण के वजन से जिनके पलड़े को  सत्यभामा का अभिमान व् अहंकार मिश्रित प्रेम अपने व् सारे द्वारिका के स्वर्ण आभूषणों के भार  से जरा भी न झुका सका |                                         विज्ञान ने भी मुझे जानने  समझने की कोशिश की है…कभी कहता है मैं मष्तिष्क के हाइपोथेलेमस में हूँ तो कभी कहता है मैं मात्र एक रसायन हूँ ….मैं फिर मुस्कुरा उठता हूँ ….जनता हूँ विरोधाभास मेरा स्वाभाव है …. जितना गूंढ उतना सुलभ  , जितना सूक्ष्म उतना व्यापक, जितना जटिल उतना सरल …. तभी तो लेने में नहीं देने में बढ़ता हूँ ….. इतना कि व्यक्ति में क्या समष्टि में न समाये …. ज्ञानी जान न पाए मुझे पर कबीर गा उठते हैं “पोथी पढ़ी –पढ़ी जग मुआ पंडित भया न कोय ,ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय “|ये ढाई अक्षर समझना ही तो दुष्कर है क्योंकि इसके बाद ज्ञान के सारे द्वार खुल जाते हैं ,आनद के सारे द्वार खुल जाते हैं |कितने विचारक तुम्हे मेरा अर्थ समझाने का प्रयास करते हैं …. पर मैं गूंगे का गुड हूँ जिसने जान लिया उसके लिए समझाना आसान नहीं ….  फिर भी प्रयास जारी रखे गए क्योंकि जिसने पा लिया उसने जान लिया प्रेम को पाना मतलब आनंद को पाना उसे बांटने में आनन्द आने लगा …. अरे ! मैं ही तो वो प्याला हूँ जो एक बार भर जाए तो छलकता रहता है युगों –युगों तक कभी रिक्त नहीं होता |रिश्तों के बंधन हैं मर्यादाएं पर मैं कोई बंधन नहीं मानता …. अपने शुद्ध रूप में जो सात्विक है मैं सबके लिए एक सामान हूँ रिश्तों –नातों के लिए ही नहीं समस्त सृष्टि के लिए |कभी अनुभव किये हैं अपने आंसूं ,सुख के मीठे से ,दुःख के जहरीले ,कडवे से और तीसरे स्नेह के ,कुछ अबूझ से जो आत्मा को तृप्त करते हैं एक विचित्र सा आनंद प्रदान करते हैं जैसे किसी ने आत्मा को छू  लिया है…. क्योकि यहाँ सिर्फ देना ही देना है लेने की भावना नहीं |मेरे इस शुद्ध  सात्विक रूप को ही ऋषि मुनियों ने जाना है ,आनंद का अनुभव किया है  किसी ने तुम्हे यह कह कर  समझाने का प्रयास  किया है सबमें स्वयं को देखो तभी परस्पर झगडे –फसाद ,सीमाओं को तोड़ कर मुझे पा सकोगे |तो किसी ने यह कह कर समझाने का प्रयास किया है अपने अन्दर गहरे उतरो ,सबको खुद में देखो …उस बूँद की तरह जो सागर का हिस्सा भी है ,और स्वयं सागर भी …. क्योकि असली … Read more