आप बच्चों को कैसी कहानियाँ सुनाते हैं ?

बचपन की बात याद करते ही जिस चीज की सबसे ज्यादा याद आती है वो हैं कहानियां | कभी दादी की कभी नानी की ,कभी माँ की कहानियां | पुराने समय से जो  एक परंपरा चली आ रही  है कहानी सुनने और सुनाने की वो आज भी यथावत कायम है | इतना जरूर हो गया है कि बच्चे अब कहानियों के लिए सिर्फ दादी ,नानी  पर निर्भर नहीं रह गए हैं कुछ हद तक वो अपनी भूख  बाल उपन्यासों व् टी वी सीरियल्स से भी शांत कर लेते हैं | ये  कहानियां बच्चों के विकास के लिए बहुत जरूरी हैं क्योंकि इनके माध्यम से हम उनकी जिज्ञासा शांत कर सकते हैं ,उन्हें बहुत कुछ सिखा सकते हैं| आप अपने बच्चों को कैसे कहानियाँ सुनाते हैं   जरा इन उदाहरणों पर गौर करें …. !)निधि के जुड़वां बच्चों की चंचल प्रवृत्ति कभी-कभी उसे  परेशान कर देती ,वो इसी जुगत में लगी रहती कि कैसे एक साथ दोनों बच्चों को अच्छे  संभाल सके | दिन भर की थकान से चूर वह रात्रि में विश्राम करना चाहती , मगर बच्चे हैं  कि खेलने में मस्त, और बिना बच्चों को सुलाये वह सोये भी कैसे……?  आखिर कार उसने हल निकाल लिया , उसने बच्चों को बताया कि यहाँ रात को हौवा निकलता है ,जो दस फूट लंबा है सर पर सींग हैं ,और दांत तो इतने बड़े की एक दीवाल के पास खड़ा  हो तो दूसरी दीवाल पर टकराते हैं ,वो बच्चों की गर्दन में दांत घुसा कर खून पीता है बच्चे डर  गए और तुरंत सो गए |  तब उसकी मम्मी बच्चों को काल्पनिक हौवा का भय दिखाकर सुलाती है।अब  बच्चे भी डर के कारण जल्दी सो जाते हैं मगर यहीं पर हम भूल कर बैठते हैं। हमारी इस छोटी सी भूल के कारण बच्चे अनजाने में उस काल्पनिक हौवा का शिकार हो जाते हैं जो उन्हें बाद में अंदर ही अंदर खाये जाता  है।                          2 )एक बार चार वर्षीया सुमी  अपनी मम्मी के साथ बगीचे में टहल रही थी। अंधेरी झाड़ियों में जगमगाते जुगनुओं को देखकर उसने अपनी मम्मी से पूछा- ‘मम्मी ये चमकदार चीजें क्या हैं ?’ … ये नन्ही नन्ही लालटेन उठाये  परियां हैं  जो रात में तुम्हारी रक्षा करने आती है। रात भर तुम्हारे बिस्तर के पास पहरा देती है और सुबह चली जाती है।’ मम्मी ने दिलचस्प बनाते हुये कहा। तृप्ति जिज्ञासा से भर उठी। वह पूछने लगी-’क्या ये परियां रोज आती है  ?’ हां ! मम्मी ने कहा। सुमी परियों की कल्पना करके एक सुखद आश्चर्य से भर गयी | मगर दूसरे दिन शाम को बगीचे में उसकी मम्मी ने उसे रोते पाया। पूछने पर वह कहने लगी-’मम्मी मैं  परी को पकड़ना चाहती थी। पकड़ने के लिये झाड़ियों के पास गई और एक को पकड़ भी लिया, मगर यह तो गंदी मक्खी है…..।’ और वह सुबक सुबक कर रोने लगी। बहुत समझाने के बाद भी वह अपनी मम्मी की बातों पर विश्वास नहीं कर पायी। यहां यह बात सोचने योग्य है कि क्या सुमी की मम्मी को बात को इस कदर बढ़ा –चढ़ा कर पेश करना चाहिए था | क्या वो बच्चे को सच नहीं बता सकती थी|  3)सरला अपने बेटे को रोज कहानी बना कर सुनाती कि कैसे भगवान् से प्रार्थना कने से हर मांगी हुई वस्तु मिल जाती है | अपने बच्चे के सामने अपनी बात को सच सिद्द करने के लिए उसने नियम बना लिया कि बच्चा जब कुछ भी मांगता वो कहती” बेटा  जाओ मंदिर में भगवान् जी से प्रार्थना करो | शाम तक वो वह चीज स्वयं लाकर मंदिर में रख देती | बच्चा खुश हो कर सोचता भगवान् जी ने दिया है | पर इसका परिणाम आगे चल कर यह हुआ कि बच्चे को लगने लगा हर चीज भगवान् जी दे देते है तो मेहनत करने की क्या जरूरत है | सरला केवल अपने बेटे को धार्मिक बनाना चाहती थी पर उसने आलसी बना दिया | बच्चों पर कहानियाँ का होता है गहरा असर  आज आप  ५ से १२ साल तक के किसी मासूम बच्चे से उसके सपनों के बारे में बात करके देखिये |  आपको एक सपना कॉमन मिलेगा ……… वो की किसी दिन हैरी पॉटर की तरह उनके एक खास बर्थडे पर उनके लिए भी तिलिस्मी ,जादुई दुनिया से पत्र आएगा और वो भी उस स्कूल में पढने जायेंगे …..जहाँ उनकी जिंदगी बदल जाएगी | कुछ बच्चो ने झाड़ू पर बैठ कर उड़ने की भी कोशिश की व् चोट खायी | एक टीवी सीरियल शक्तिमान को देखकर कई बच्चे छत से ये सोंचकर कूदे  कि शक्तिमान उन्हें बचा लेगा | कहीं न कहीं यह सिद्ध करता है कि बच्चे कहानी में बताई गयी हर चीज को सच मान लेते हैं | आपमें से बहुत से लोगों ने ‘भूल –भुलैया’ देखी  होगी जिसमें नायिका एक मानसिक रोग की शिकार हो जाती है | मनो चिकित्सक  कारण पता करने पर  कहता है कि बचपन की दादी की कहानियों के असर से उसकी बुद्धि पर यह प्रभाव पड़ा कि बुराई पर अच्छाई  की विजय के लिए वो अपने मूल रूप को त्याग काल्पनिक रूप रख लेती थी |  कहनियाँ सुनाने का मकसद यही होता है कि बच्चों को जो चीज रोचक लगती है उसे वो आसानी से याद रखते हैं और जो रोचक नहीं लगती है उसे भूल जाते हैं | दादी नानी की काहनियों का पूरा संसार था | जिसमें बच्चों को रोचक कहानियों के माध्यम से नयी जानकारी , नीति शिक्षा व् जीवन दर्शन से परिचित कराया जाता था | और बच्चे इसे याद भी रखते थे |                       आप बच्चों को कहानियों के माध्यम से दे सकते हैं नैतिक शिक्षा  नन्हे बच्चो पर कहानियों का गहरा असर होता है और वो बच्चे के जीवन की दिशा दे सकती हैं | हमसे ज्यादा कहीं यह बात हमारे पूर्वज समझते थे इसीलिए पंच तंत्र ,हितोपदेश ,नीति कथाएँ आदि  की रचना बच्चो के लिए की गयी  | पहले स्कूलों में भी नैतिक शिक्षा का विषय होता था जिसमें कहानियों के माध्यम से बच्चों को नैतिक शिक्षा दी जाती थी | चाहते न चाहते बार –बार दोहराए जाने से अच्छे संस्कार उनके मन में बैठ जाते थे | आज जो समाज का … Read more

जाने -अनजाने मत बनिए टॉक्सिक पेरेंट

                        मुझे पता है आप इस लेख के शीर्षक को पढ़ते ही नकार देंगे | पेरेंट्स वो भी टॉक्सिक ? ये तो असंभव है | जो माता –पिता अपने बच्चों से इतना प्यार करते हैं | उनके लिए पैसे कमातें हैं , घर में  सारा समय देखभाल करते हुए बिताते हैं वो भला  टॉक्सिक कैसे हो सकते हैं | आप का सोचना भी गलत नहीं है | पर दुखद सत्य यह है की कई बार माता –पिता न चाहते हुए अपने बच्चों  के टॉक्सिक पेरेंट्स बन जाते हैं | जो न सिर्फ अपने ही हाथों से अपने बच्चों का बचपन छीन लेते हैं अपितु व्यस्क  के रूप में भी उन्हें एक अन्धकार से भरे मार्ग पर धकेल देते हैं | अगर आप भी जाने अनजाने टॉक्सिक पेरेंट्स बन गए हैं तो अभी भी समय है अपने आप को बदल लें ताकि आप की बगिया के फूल आप के बच्चे जीवन भर मुस्कुराते रहे | आप टॉक्सिक पेरेंट हो या न हों पर अपने व्यवहार पर गौर करिए | यहाँ कुछ लक्षण दिए जा रहे हैं | अगर उनमें से कुछ लक्षण आप से मिलते हैं तो निश्चित जानिये की आप  के बच्चे आपके साथ अच्छा महसूस नहीं कर रहे हैं | इतना ही नहीं वो बड़े होकर एक संतुलित व्यस्क भी नहीं बन पायेंगे |  बहुत द्रढ  या टफ पेरेंट                आज्ञाकारी बच्चे किसे अच्छे नहीं लगते | पर उन्हें आज्ञाकारी बनाने की जगह रोबोट मत बनाइये | मेरी ना का मतलब ना है के जुमले को बार –बार इस्तेमाल मत करिए | जीवन एक नदी की तरह है | कई बार यहाँ रास्तों को काटना होता है , कई बार धारा  को मोड़ लेना होता है|  अपने ही नियम चलाने वाले माता –पिता को लगता है उन्हें बच्चों से ज्यादा पता है तो बच्चों को उनकी बात माननी ही चाहिए | पर कई बार इसका उल्टा असर पड़ता है | बच्चों में निर्णय लेने की क्षमता का विकास नहीं होता | वो बात –बात पर दूसरों का मुँह देखते हैं | और जीवन के संग्राम में अनिर्णय की स्तिथि में रह कर असफल होते हैं | जरूरत से ज्यादा आलोचक पेरेंट्स                 ऐसे कोई माता –पिता नहीं होते जो कभी न कभी अपने बच्चे की आलोचना न करते हो | कबीर के दोहे “ भीतर हाथ संभार  दे बाहर  बाहे चोट “ की तर्ज़ पर बच्चों को दुनियादारी सिखाने के लिए यह जरूरी भी है | परन्तु यहाँ बात हो रही है जरूरत से ज्यादा आलोचक .. जैसे तुमसे तो ये काम हो ही नहीं सकता | ये बेड शीट बिछाई है , कवर ऐसे चढाते हैं आदि बात -बात पर कहने वाले माता –पिता यह सोचते हैं की वो बच्चों को ऐसा इसलिए कहते हैं ताकि बड़े होने पर वो कोई गलती न करें |पर उनका यह व्यवहार बच्चे के अन्दर अपने कामों के प्रति एक आंतरिक आलोचक उत्पन्न कर देता है जो बड़ा होने पर उन्हें अशक्त व्यस्क में  बदल देता है |  बच्चों का जरूरत से ज्यादा ध्यान चाहने वाले पेरेंट्स                  कौन माता –पिता नहीं चाहते की बच्चे उनका ध्यान रखे | पर बच्चा हर समय आप में ही लगा रहे ये उसके साथ ज्यादती है |ऐसे पेरेंट्स अक्सर ,”अरे कहाँ अकेले खेल रहे हो , हमारी याद नहीं आ रही , हमारी आँखों के सामने रहते हो तभी तसल्ली मिलती है आदि वाक्यों का प्रयोग करते हैं |  ऐसा अक्सर वो माता –पिता करते हैं जिनके अपने जीवन में कोई कमी होती है | अब वो अपने को बच्चे की नज़रों में सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए उसे बिलकुल भी स्पेस नहीं देना चाहते | जिन्होंने फागुन फिल्म देखी  होगी उन्हें उसमें वहीदा रहमान द्वारा  अभिनीत पात्र अवश्य याद आ गया होगा | याद रखिये बच्चा एक स्वतंत्र जीव है उसे अपना पेरासाइट न बनाइये | अगर वो हर समय आप में उलझा रहेगा तो बाहर निकल कर सीखने के अनेकों अवसरों को खो देगा | बच्चों को ताने देने वाले पेरेंट्स                हर बच्चा एक अपने आप में अनमोल है | वो एक विशेष प्रतिभा ले कर आता है | हो सकता है आप ने उसके लिए जो सोचा  है उसमें उसका मन न लगता हो | जैसे नेहा का मन नृत्य में लगता था | टी वी में जैसे ही कोई डांस का प्रोग्राम आता नेहा दौड़ कर आ जाती | स्टेप्स देख-देख कर नाचने का अभ्यास करती | पर उसके माता –पिता की नज़र में यह एक गंदी चीज थी | वो उसे घर में और बाहर वालों के सामने ताना देते ,” पढ़ती लिखती तो है नहीं,  नचनिया बनेगी | नेहा अपमानित महसूस करती | राहुल अच्छी पेंटिंग करता पर माता –पिता ताने देते , ‘पेंटिंग से क्या होता है , रोटी  थोड़ी न मिलेगी , बड़े हो कर रिक्शा चलायोगे |या अपने ही बच्चों  के हाईट वेट को ले कर उपहास उड़ाते है … आओ मोटू आओ , मेरी कल्लो को कौन बयाहेगा , दुनिया के सब बच्चे बढ़ गए पर तुम्हारी तो गाडी आगे खिसक ही नहीं रही है | यह व्यवहार बच्चे  का अपने प्रति  दृष्टिकोण बहुत खराब कर देता है | उसका आत्म विश्वास खो जाता है | अगर कुछ कर सकते हैं तो करें अन्यथा जैसा उसे ईश्वर ने बनाया है उसे पूरे दिल से स्वीकारें |   बड़े हो चुके बच्चों को डराने – धमकाने वाले पेरेंट्स            पुरानी कहावत है जब पिता का जूता बेटे के पैर में आने लगे तो उसे बेटा नहीं दोस्त समझना चाहिए | पर जो पेरेंट्स बच्चों को अपनी संपत्ति समझते हैं वो बड़े पर भी बच्चों को डराना धमकाना जारी रखते है | वो समझतें हैं की बच्चे चुपचाप उनका यह व्यवहार सह लें  तभी यह सिद्ध होगा की वो उनसे प्यार करते हैं | कई बार इस तरह की शारीरिक व् भावनात्मक शोषण के भय से बच्चे उनकी बात मानते भी हैं | पर यह व्यवहार बड़े होने के बाद भी बच्चों का मनोविज्ञान पूरी तरह से नकारात्मक कर देता है | बच्चों को काबू में रखने के लिए उनमें गिल्ट भरने वाले पेरेंट्स                         दुनिया का हर चौथा बच्चा कोई न कोई गिल्ट पाले … Read more

सफलता के लिए बोर्ड एग्जाम की तैयारी के 11 उपयोगी टिप्स

आगामी मार्च में दसवीं व् बारहवीं की बोर्ड की परीक्षाएं शुरू होने वाली हैं | सभी विद्यार्थीं अपनी  तैयारी को अंतिम रूप दे रहे हैं | माता -पिता भी बच्चों का विशेष ध्यान रख रहे हैं | सबकी कोशिश यही है की बच्चे परीक्षाओं में अच्छे मार्क्स लाये और सफल हों |परन्तु देखा गया है की कई बार सही तैयारी न करने से मेहनत करने के बाद भी सही परिणाम नहीं मिलते हैं | इसी कारण परीक्षाओं से ठीक पहले माता – पिता व् बच्चे तनाव में आ जाते हैं | उन्हें काउंसलिंग की जरूरत होती है | अगर सही समय में पता चल जाए कि तैयारी किस प्रकार करनी है तो कोई कारण नहीं कि कोई बच्चा सफल न हो पाए |  बोर्ड परीक्षाओं में शामिल होने वाले छात्र-छात्राओं के लिए विशेष लेख बोर्ड परीक्षाओं के मद्दे नज़र बच्चों की और अभिवावकों की  चिंताओं को ध्यान में रखते हुए  लखनऊ के सुप्रसिद्ध सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ के संस्थापक-प्रबन्धक- डा0 जगदीश गांधी अपने लेख के माध्यम बच्चों को बोर्ड  एग्जाम में सफलता के लिए 11 उपयोगी टिप्स बता रहे हैं | जिनकी सहायता से बच्चे अच्छे प्रतिशत के साथ सफल हो सकते हैं | (1)  सफलता की एकमात्र कुंजी निरन्तर अभ्यास, अभ्यास और अभ्यास ही है:-  किसी ने सही ही कहा है कि ‘करत-करत अभ्यास से जड़मत होत सुजान, रसरी आवत जात है सिल पर पड़त निशान’ अर्थात् जिस प्रकार एक मामूली सी रस्सी कुएँ के पत्थर पर प्रतिदिन के अभ्यास से निशान बना देती है उसी प्रकार अभ्यास जीवन का वह आयाम है जो कठिन रास्तों को भी आसान कर देता है। इसलिए अभ्यास से कठिन से कठिन विषयों को भी याद किया जा सकता है। इस प्रकार सफलता की एकमात्र कुंजी निरन्तर अभ्यास, अभ्यास और अभ्यास ही है। विशेषकर गणित तथा विज्ञान विषयों में यदि आप अपना वैज्ञानिक एवं तार्किक दृष्टिकोण विकसित नहीं कर पाये तो आप सफलता को गवां सकते हैं। इसलिए इन विषयों के सूत्रों को अच्छी तरह से याद करने के लिए इन्हें बार-बार दोहराना चाहिए और लगातार इनका अभ्यास भी करते रहना चाहिए। दीर्घ उत्तरीय पाठ/प्रश्नों को एक साथ याद न करके इन्हें कई खण्डों में याद करना चाहिए। बार-बार अभ्यास करने से जीवन की कठिन से कठिन बातें भी याद रखी जा सकती हैं। (2)  बोर्ड परीक्षाओं का तनाव लेने के बजाय छात्र खुद पर रखें विश्वास:- प्रायः यह देखा जाता है कि बोर्ड की परीक्षाओं के नजदीक आते ही छात्र-छात्रायें एक्जामिनेशन फीवर के शिकार हो जाते हैं। ऐसे में शिक्षकों एवं अभिभावकों के द्वारा बच्चों के मन-मस्तिष्क में बैठे हुए इस डर को भगाना अति आवश्यक है। वास्तव में बच्चों की परीक्षा के समय में अभिभावकों की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है। एक शोध के अनुसार बच्चों के मन-मस्तिष्क पर उनके अभिभावकों के व्यवहार का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। ऐसी स्थिति में अभिभावकों को बच्चों के साथ दोस्तों की तरह व्यवहार करना चाहिए ताकि उनमें सुरक्षा की भावना और आत्मविश्वास बढ़ें। इस प्रकार बच्चों का मन-मस्तिष्क जितना अधिक दबाव मुक्त रहेगा उतना ही बेहतर उनका रिजल्ट आयेगा और सफलता उनके कदम चूमेगी। इसलिए छात्र-छात्राओं को बोर्ड परीक्षााओं का तनाव लेने के बजाय खुद पर विश्वास रखकर ‘मन के हारे हार है मन के जीते जीत’ कहावत पर चलना चाहिए और अपने कठोर परिश्रम पर विश्वास रखना चाहिए। (3)  स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है:- किसी ने बिलकुल सही कहा है कि एक स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों एवं डाक्टरों के अनुसार प्रतिदिन लगभग 7 घण्टे बिना किसी बाधा के चिंतारहित गहरी नींद लेना सम्पूर्ण नींद की श्रेणी में आता है। एक ताजे तथा प्रसन्नचित्त मस्तिष्क से लिये गये निर्णय, कार्य एवं व्यवहार अच्छे एवं सुखद परिणाम देते हैं। थके तथा चिंता से भरे मस्तिष्क से किया गया कार्य, निर्णय एवं व्यवहार सफलता को हमसे दूर ले जाता है। परीक्षाओं के दिनों में संतुलित एवं हल्का भोजन लेना लाभदायक होता है। इन दिनों अधिक से अधिक ताजे तथा सूखे फलों, हरी सब्जियों तथा तरल पदार्थो को भोजन में शामिल करें। (4)  अपने लक्ष्य का निर्धारण स्वयं करें और देर रात तक पढ़ने से बचें:-  एक बार यदि हमें अपना लक्ष्य ज्ञात हो गया तो हम उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देंगे। यदि हमारा लक्ष्य परीक्षा में 100 प्रतिशत अंक लाना है तो पाठ्यक्रम में दिये गये निर्धारित विषयों के ज्ञान को पूरी तरह से समझकर आत्मसात करना होगा। इसके साथ ही रात में देर तक पढ़ने की आदत बच्चों को नुकसान पहुँचा सकती है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार प्रातःकाल का समय अध्ययन के लिए ज्यादा अच्छा माना जाता है। सुबह के समय की गई पढ़ाई का असर बच्चों के मन-मस्तिष्क पर देर तक रहता है। इसलिए बच्चों को सुबह के समय में अधिक से अधिक पढ़ाई करनी चाहिए। रात में 6-7 घंटे की नींद के बाद सुबह के समय बच्चे सबसे ज्यादा शांतिमय, तनाव रहित और तरोताजा महसूस करते हैं। (5)  सफलता के लिए  लिखकर याद करने की आदत डालें:- प्रत्येक मनुष्य की स्मरण शक्ति असीमित है। आइस्टीन जैसे महान वैज्ञानिक तथा एक साधारण व्यक्ति के मस्तिष्क की संरचना एक समान होती है। केवल फर्क यह है कि हम अपने मस्तिष्क की असीम क्षमताओं की कितनी मात्रा का निरन्तर प्रयास द्वारा सदुपयोग कर पाते हैं। इसलिए छात्रों को अपने पढ़े पाठों का रिवीजन पूरी एकाग्रता तथा मनोयोगपूर्वक करके अपनी स्मरण शक्ति को बढ़ाना चाहिए। एक बात अक्सर छात्र-छात्राओं के सामने आती है कि वो जो कुछ याद करते हंै वे उसे भूल जाते हैं। इसका कारण यह है कि छात्र मौखिक रूप से तो उत्तर को याद कर लेते हैं लेकिन उसे याद करने के बाद लिखते नहीं है। कहावत है एक बार लिखा हुआ हजार बार मौखिक रूप से याद करने से बेहतर होता है। ऐसे में विद्यार्थी को अपने प्रश्नों के उत्तरों को लिखकर याद करने की आदत डालनी चाहिए। (6)  बोर्ड परीक्षाओं के लिए सम्पूर्ण पाठ्यक्रम का अध्ययन जरूरी है:- सिर्फ महत्वपूर्ण विषयों या प्रश्नों की तैयारी करने की प्रवृत्ति आजकल छात्र वर्ग में देखने को मिल रही है जबकि छात्रों को अपने पाठ्यक्रम का पूरा अध्ययन करना चाहिए और इसे अधिक से अधिक बार दोहराना चाहिए। … Read more

बाल मनोविज्ञान आधारित पर 5 लघु कथाएँ

बच्चे हमारी पूरी दुनिया होते हैं | पर बच्चों की उससे अलग एक छोटी सी दुनिया होती है | कोमल सी , मासूम सी | उनमें एक कौतुहल होता है और ढेर सारी जिज्ञासाएं | हर बात पर उनके प्रश्न होते है | और हर प्रश्न के लिए उन्हें उत्तर चाहिए | मिल गया तो ठीक नहीं तो वो हर चीज को अपने तरीके से समझने की कोशिश करते हैं | बच्चे भले ही छोटे हों पर उनके मन को समझना बच्चों का खेल नहीं है | आज उनके हम उनके मनोविज्ञान को समझने की कोशिश करते हुए आप के लिए लाये हैं पांच लघुकथाएं … पढ़िए बाल मनोविज्ञान पर पाँच  लघु कथाएँ  चिंमटा  नन्हा रिंकू खेलने में मगन है | आज वो माँ रेवती के साथ किचन में ही खेल रहा है | घर की सारी  कटोरियाँ उसने ले रखी हैं | एक कटोरी का पानी दूसरे में दूसरी का तीसरे में … बड़ा मजा आ रहा है उसको इस  खेल में | तभी उसका ध्यान चिमटे की ओर चला जाता है | वो झट से चिंमटा  उठा कर बजाने लगता है …टिंग , टिंग ,टिंग | रेवती  उसे मना  करती है ,” बेटा  चिमटा मत बजाओ | पर रिंकू कहाँ मानने वाला है | खेल चल रहा है … टिंग टिंग , टिंग  रेवती  :मत बजाओ , रखो उसे  रिंकू :टिंग , टिंग , टिंग  माँ चिंमटा  छींनते  हुए कहती है ,”नहीं , बजाते चिमटा ,पता है चिंमटा  बजाने से घर में कलह होने लगती है |  रिंकू रोने लगता है | तभी रिकू के पापा सोमेश फाइलों से सर उठा कर कहते हैं ,”दे दो चिमटा | मुझे ये फ़ाइल कल ही जमा करनी है | इसकी पे पे से तो चिमटे की टिंग , टिंग भली  रेवती  ; ऐसे कैसे दे दूँ | चिंमटा  बजाने से घर में कलह होने लगती है | सोमेश  :क्या दकियानूसी बात है | रेवती  : दकियानूसी नहीं , पुरखों से चली आ रही है |ऋषि – मुनि कह गए हैं | सोमेश  : सब अन्धविश्वास है | कम से कम मेरे बेटे को तो  अन्धविश्वास  मत सिखाओ रेवती : (आँखों में आँसूं भर कर )मुझे ही कहोगे | जब तुम्हारी माँ कहती हैं की चावल तीन बार मत धो , नहीं तो वो भगवान् के हो जाते हैं खा नहीं सकते | तब कहते हो मानने में क्या हर्ज है माँ कह रहीं है तो जरूर ही सच होगा  | फिर उनका  इतना  मन तो रख सकते हैं | आज मैं अपने बेटे से इतना भी नहीं कह सकती | सोमेश : (आवेश में ) देखो माँ को बीच में मत लाओ रेवती : क्यों न लाऊ | जो तुम्हारी माँ कहे वो संस्कार , जो मैं कहूँ वो पोंगा पंथी सोमेश : अच्छा, और तुम्हारी माँ तो …..                           रिंकू सहम कर चिंमटा  एक तरफ रख देता है | उसे पता चल गया है कि चिंमटा  बजाने से घर में कलह होती है | ———————————————————————— क़ानून  सरला जी ने दरवाजा खोला … ये क्या …. उनका ४ वर्षीय बेटा चिंटू आँखों में आँसू  लिए खड़ा है । क्या हुआ बेटा … सरला जी ने अधीरता से पूंछा । मम्मी आज मैं ड्राइंग की कॉपी नहीं ले गया था, इसलिए मैम ने चांटा मार दिया ।  सरला जी का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया । गुस्से मैं बोलीं … ये कैसी औरत है , तुम्हारी टीचर  क्या उसे बच्चों के कानून के बारे में पता नहीं है । चलो मेरे साथ मैं आज ही उस को कानून बताउंगी । तमतमाती हुई सरला जी चिंटू को साथ ले स्कूल पहुंची । प्रिंसिपल के पास जाकर शिकायत की और उन्हें बच्चों के कानून का वास्ता दिया । प्रिंसिपल ने तुरंत टीचर को बुलाकर ताकीद दी कि छोटे बच्चों को बिलकुल न मारा जाये ये कानून है ।  ख़ुशी ख़ुशी चिंटू अपनी मम्मी के साथ घर आ गया । खेलते खेलते उसने ड्रेसिंग टेबल की अलमारी खोल ली । रंग बिरंगी लिपस्टिक देखकर उसका मन खुश हो गया । कुछ दीवार पर पोत दी कुछ मुँह  पर लगा ली और कुछ सहज भाव से तोड़ दी ।   सरला जी वहां आयीं और ये नज़ारा देखकर उन्होंने आव देखा न ताव … चट चट ३-४ तमाचे चिंटू के गाल पर जमा दिए और कोने में खड़े होने की सजा दे दी । कोने में चिंटू खड़ा सोंच रहा है ….. क्या घर में छोटे बच्चों को मारने से रोकने के लिए कोई कानून नहीं है । ——————————– आत्मा  आज सुधीर दादी के साथ सुबह – सुबह मंदिर दर्शन को गया है । दादी सुमित्रा देवी ने सोंचा कि आज छुट्टी का दिन है …. पोते की छुट्टी है तो चलो उसे ले चलते हैं, आखिर संस्कार भी तो सिखाने हैं । सबसे पहले सुमित्रा देवी ने मंदिर के प्रांगण  में लगे पीपल को नमस्कार करने को कहा । सुधीर ने पूंछा ‘ क्यों दादी पेड़ को नमस्कार क्यों करें ‘। सुमित्रा देवी ने समझाया ‘ बेटा पेड़ भी जीवित होता है । उसमें भी आत्मा होती है और हर आत्मा में परमात्मा यानि की भगवान् होते हैं …. इसलिए हमें हर जीव का और पेड़ों का आदर करना चाहिए ‘। सुधीर दादी के साथ आगे बढ़ा । दादी ने गणेश जी को लड्डू का भोग लगाने के लिए कहा । सुधीर लड्डू चढ़ा रहा था की लड्डू छिटक कर दूर जा कर गिरा । सुधीर लड्डू उठाने लगा तो सुमित्रा देवी बोलीं ‘ सुधीर सम्मान के साथ भोग लगाया जाता है । यह गिर गया है तो दूसरा लड्डू चढाओ । किसी को कुछ दो तो इज्ज़त के साथ देना चाहिए … फिर ये तो परमात्मा हैं ‘। 4 वर्षीय सुधीर सब समझता जा रहा था । कैसे सम्मान देने के लिए दोनों हाथ लगा कर पूजा करनी चाहिए, कैसे हर जीव का आदर करना चाहिए । सुधीर बहुत खुश था, जैसे की प्रायः बच्चे किसी नयी चीज़ को सीख कर होते हैं । पूजा करने के बाद सुधीर दादी के साथ मंदिर से बाहर निकला । भिखारियों की भीड़ लगी थी । दादी … Read more

आखिर क्यों 100 % के टेंशन में पिस रहे है बच्चे

अक्सर ही स्त्रियों की  समस्याओं को लेकर परिचर्चा होती रहती है , आये दिन स्त्री विमर्श देखने सुनने तथा पढ़ने को मिल जाता है लेकिन बच्चे जाने अनजाने ही सही अपने अभिभावकों द्वारा सताये जाते हैं इस तरफ़ कम ही लोगों को ध्यान जा पाता है! प्रायः सभी के दिमाग में यह बात बैठा हुआ है कि माता – पिता तो बच्चों के सबसे शुभचिंतक होते हैं इसलिए वे जो भी करते हैं अपने बच्चों की भलाई के लिए ही करते हैं इसलिए इस गम्भीर समस्या पर गम्भीरता से न तो समाज चिंतन करता है और न ही सामाजिक संगठन ! कहाँ से आ रहा है 100 % के टेंशन  अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए माता पिता अपने बच्चों की आँखों में अपने सपने पालने को विवश कर देते हैं परिणामस्वरूप बच्चों का बालमन अपनी सहज प्रवृत्तियाँ खोता जा रहा है क्योंकि उन्हें भी तो टार्गेट पूरा करना होता है अपने अभिभावकों के सपनों का!क्लास में फर्स्ट आना है, 100%मार्क्स आना चाहिए, 100%अटेंडेंस का अवार्ड मिलना चाहिए, उसके बाद एक्स्ट्रा एक्टिविटीज अलग से मानों बच्चे ” बच्चे नहीं कम्प्यूटर हो गये हों!  जब मैं स्वयं 100% फेर में पड़ी  मैं आज भी खुद अपने बेटे के साथ की गई ज्यादती को याद करके बहुत दुखी हो जाती हूँ ! मेरा छोटा बेटा कुमार आर्षी आनंद दूसरी कक्षा में पढ़ता था खेल खेल में उसका हाथ फ्रैक्चर कर गया था , संयोग से उस दिन शनिवार था तो अगले दिन रविवार को भी छुट्टी मिल गई! बेटा हाथ में प्लास्टर चढ़ाये डेढ़ महीने तक लगातार स्कूल गया! वैसे स्कूल के स्टूडेंट्स और बच्चों का बहुत सपोर्ट मिलता था! तब मैं इतना ही कर पाई थी कि बेटे को स्कूल बस से न भेजकर खुद गाड़ी से ले आने ले जाने का काम करती थी ! स्कूल के बच्चों की सहयोगात्मक भावना से मैं अभिभूत थी क्योंकि तब बेटे के बैग उठाने को लेकर बच्चों में आपसी कम्पटीशन होता था! एक दिन तो जब मैं बेटे को स्कूल से लाने गई तो एक मासूम सी बच्ची मुझसे आकर बोली आंटी आंटी देखिये मैं आर्षी का बैग लाना चाहती थी लेकिन शाम्भवी मुझे नहीं उठाने दी रोज खुद ही उठाती है! मैं तब भाव विह्वल हो गई थी और उस बच्ची को प्यार से गले लगाते हुए समझाई थी! एनुअल फंक्शन हुआ, मेरे बेटे ने क्लास में 98. 9%नम्बर लाकर क्लास में सेकेंड रैंक और 100%अटेंडेंस का अवार्ड भी प्राप्त किया! तब मेरे आँखों से आँसू छलक पड़े थे और गर्व तो हुआ ही था! लेकिन आज मुझे वह सब महज एक बेवकूफी लगता है जो मैंने अन्जाने में ही सही की थी! आज सोचती हूँ ऐसे में मुझे बच्चे को स्कूल नहीं भेजना चाहिए था! बच्चे की 100%अटेंडेंस और  माँ का टेंशन  मुझसे भी अधिक तो मेरी एक पड़ोसन सहेली बच्चों के पढ़ाई को लेकर बहुत गम्भीर रहती थीं उनका बेटा हमेशा ही क्लास में फर्स्ट करता था और हमेशा ही उसे 100%अटेंडेंस का अवार्ड मिलता था! एक दिन किसी कारण वश रोड जाम हो गया था तो वे बच्चों को रास्ते से ही वापिस लेकर आ गयीं! अचानक वो दोपहर में मेरे घर काफी परेशान हालत में आयीं! पहले तो उन्हें देखकर मैं डर गयी क्यों कि उनके आँखों से आँसू भी निकल रहा था फिर मैं उन्हें बैठाकर उनकी बातै इत्मिनान से सुना  तो पता चला कि उस दिन स्कूल खुला था और वे इस बात को लेकर रो – रो कर कह रहीं थीं कि बताइये जी हम बच्चे को बुखार में भी स्कूल भेजते थे बताइये जब रोड पर पथराव हो रहा था तो आज स्कूल नहीं न खोलना चाहिए था! उनका रोना और परेशान होना देखकर मेरा छोटा बेटा तो उन्हें समझा ही रहा था साथ में बड़ा बेटा भी समझाते हुए कहा आंटी आप इतनी छोटी सी बात के लिए क्यों परेशान हैं ” 100%अटेंडेंस का सर्टिफिकेट ही चाहिए न तो मैं आपको कम्प्यूटर से निकालकर अभी दे देता हूँ ! उनकी परेशानी देखकर मैं स्कूल में फोन करके भी गुस्साई कि जब रोड जाम था तो आज स्कूल क्यों खुला रहा, तो स्कूल वालों ने बताया कि कुछ बच्चे पथराव से पहले ही स्कूल आ चूके थे इसलिए स्कूल खुला रहा लेकिन आज का अटेंडेंस काउंट नहीं होगा , यह सुनकर मेरी सहेली के जान में जान आई!                                      कहने का मतलब है कि हमें बच्चों के एजुकेशन को लेकर गम्भीर होना चाहिए पर इतना भी नहीं! अति सर्वत्र वर्जयते! दुनिया जहान के सभी बच्चे फले , फूले, खुश रहें, अपने लक्ष्य को प्राप्त करें, उनके सपने साकार हों यही शुभकामना है | ©किरण सिंह  यह भी पढ़ें …  क्या सभी टीचर्स को चाइल्ड साइकोलोजी की समझ है ख़राब रिजल्ट आने पर बच्चों कोकैसे रखे पॉजिटिव बाल दिवस :समझनी होंगी बच्चों की समस्याएं माता – पिता के झगडे और बाल मन आपको आपको  लेख “ आखिर क्यों 100 % के टेंशन में  पिस रहे है बच्चे  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |    keywords: parents, children issues, exam, tension , 100%expectation 

बाल दिवस : समझनी होंगी बच्चों की समस्याएं

बच्चे , फूल से कमल ओस की बूँद से नाजुक व् पानी के झरने से गतशील | कौन है जो फूलों से ओस से , झरने से और बच्चों से प्यार न करता होगा | बच्चे हमारा आने वाला कल हैं , बच्चे हमारा भविष्य है , बच्चे उन कल्पनाओं को साकार करने की संभावनाएं हैं | रविन्द्र नाथ टैगोर ने कहा था कि  हर बच्चा इस सन्देश के साथ आता है की ईश्वर अभी इंसान से निराश नहीं हुआ है | उन्हीं नन्हें मुन्ने बच्चों के लिए समर्पित है एक खास दिन यानी  बच्चों का दिन … बाल दिवस | आइये सब से पहले जानते हैं इस बाल दिवस के बारे में ……. बाल दिवस का इतिहास हमारे देश भारतवर्ष के लिए ये गौरव की बात है कि बच्चों के लिए एक खास अन्तराष्ट्रीय दिन बनाया जाए इस की यू एन ओ में मांग सबसे पहले पूर्व भारतीय रक्षा मंत्री श्री वी के कृष्ण मेनन ने की थी | और पहली बार २० नवम्बर १९५९ को अन्तराष्ट्रीय बाल दिवस मनाया गया | भारत में भी पहले २० नवम्बर को ही बाल दिवस मनाया जाता था | जैसा की सभी जानते हैं कि भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरु जी को बच्चों से बहुत प्यार था | वो बच्चों के साथ खेलते उन्हें दिशा दिखाते व् उनके साथ खेलते थे | उन्होंने बच्चों के लिए कई कल्याण कारी योजनायें भी शुरू की | बच्चे भी उन्हें बहुत प्यार करते थे , और प्यार से उन्हें चाचा नेहरु कहा करते थे | बच्चों द्वारा प्यार से कहा गया चचा नेहरु बाद में नेहरु जी का मानो उपनाम पड़ गया | २७ मई १९६४ को नेहरु जी की मृत्यु के बाद उनके बच्चों के प्रति प्रेम को सम्मान देने के लिए उनके जन्म दिन १४ नवम्बर को बाल दिवस के रूपमें मनाये जाने की घोषणा कर दी गयी |तब से भारत में नेहरु जी की जयंती यानि १४ नवम्बर को बाल दवस मनाया जाने लगा | कैसे मनाया जाता है बाल दिवस बाल दिवस को मानाने में तमाम सरकारी व् गैर सरकारी आयोजन होते हैं | स्कूलों में रंगारंग कार्यक्रम , भाषण व् निबंध प्रतियोगिताएं होती है |बच्चे जिसमें बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं | बाल दिवस पर बच्चों स्कूल में यूनिफार्म में न आने की छूट होती है | जिससे बच्चों को स्कूल में कुछ खास होने का अहसास होता है | कई स्कूलों में प्रिसिपल व् टीचर्स मिल कर बच्चों के लिए कार्यक्रम बनाते हैं | रोज सजा देने वाले या अनुशासन में रहने की ताकीद देने वाले टीचर्स जब इस कार्यक्रम को  बच्चों की ख़ुशी के लिए करते हैं तो बच्चे बहुत आनन्दित होते हैं | कार्यक्रम के अंत में बच्चों को मिठाइयाँ व् फ्रूट्स बांटे जाते हैं | स्कूलों के अतरिक्त टेलीविजन व् रेडियों में भी बाल दिवस पर बच्चों के लिए  खास कार्यक्रम होते हैं | कई कार्यक्रम ऐसे होते हैं जिनमें बच्चे बढ़ चढ़ कर भाग लेते हैं | कई स्वयं सेवी संस्थाएं भी बच्चों के लिए कार्यकर्मों का आयोजन करती हैं | बच्चों को मिठाइयाँ  व् फल आदि वितरित किये जाते हैं | बाल दिवस पर आइये सोंचे बच्चों के बारे में                             बाल दिवस बच्चों का दिन है | इसे स्कूल , संस्थाओं , व् सरकारी तौर पर मनाया जाता है | पर एक  दिन रंगारंग कार्यक्रम कर के मिठाइयाँ बाँट देना बच्चों की सारी  समस्याओं का हल है | जिन्हें आज के बच्चे झेल रहे हैं  | एक नागरिक के तौर पर हमें उन समस्याओं को समझना होगा व् उनका हल निकालना होगा | आइये उस बारे में क्रमवार सोंचे … कन्या शिशु की भ्रूण हत्या .. जन्म लेने का अधिकार ईश्वर का दिया हुआ अधिकार है | परन्तु आज इतने प्रचार के बावजूद कन्या शिशु की भ्रूड हत्या हो रही है | इसके आंकड़े दिन पर दिन बढ़ते ही जा रहे है | ये न सिर्फ अमानवीय बल्कि अत्यंत पीड़ादायक प्रक्रिया है | हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि हम अपने स्तर पर इसे रोकने का प्रयास करें | मतलब हम अपने परिवार में ऐसा नहीं होने देंगें | बाल श्रम की समस्या सड़कों पर कूड़ा बीनते बच्चे , होटल ढाबों में काम करते बच्चे , कार साफ़ करते बच्चे , हमारे घरों में मेड के रूपमें काम करते बच्चे | ये सब भी बच्चे हिन् हैं जो बचपन में खिलौने व् किताबों के स्थान पर श्रम कर के अपना व् अपने परिवार का पेट पाल रहे हैं | इनसे इनका पूरा बचपन छीना जा चुका है | क्या हमारा कर्तव्य नहीं की हम इन बच्चों को बाल श्रम से निकाल कर सरकारी स्कूल में पढने की व्यवस्था करवाने की कोशिश करे | सरकारी स्कूल में बच्चों को मुफ्त शिक्षा व् भोजन मिलता है |केवल जरूरत है इनके माँ – पिता को समझाने की , कि जिम्मेदारी परिवार का पेट पालना नहीं है बल्कि आप की जिम्मेदारी है की आप इनको शिक्षा देकर इस गरीबी के जीवन से निकलने में मदद करें | बच्चों का शारीरिक व् मानसिक शोषण की समस्या  अभी हाल में कैलाश सत्यार्थी के व्यक्तव्य ने हर संवेदनशील व्यक्ति की आँखों में आंसूं ला दिए , जब उन्होंने बताया की न जाने कितने बच्चे यौन शोषण का शिकार होते हैं | ये शिकार सिर्फ लडकियां ही नहीं लड़के भी होते हैं | अफ़सोस ये ज्यादातर पड़ोस के भैया , मामा , चाचा , अंकल कहे जाने वाले लोगों के द्वारा होता है | शिकार होते बच्चे किस भय से अपने माता – पिता को उस समस्या के बारे में नहीं बता पाते | इन सब कारणों की तह में जाना है | छोटे बच्चों को गुड टच व् बैड टच के बारे में समझाना व् उनके माता –पिता को समझाना की अपने बच्चे की शारीरिक व् मानसिक बदले व्यवहार को नज़र अंदाज न करें | एकसभ्य  नागरिक के रूप में हमारा कर्तव्य है | लडकियों की शिक्षा  अभी भी हमारा समाज लड़का लड़की में भेद भाव करता है | लड़कियों की शिक्षा की भी पर्याप्त व्यवस्था नहीं हैं | जहाँ है भी वहां माता … Read more

माता-पिता के झगडे और बच्चे

नन्ही श्रेया अपने बिल्डिंग में नीचे के फ्लोर में रहने वाले श्रीवास्तव जी के घर जाती है और उनका हाथ पकड़ कर कहती है “अंकल मेरे घर में चलो , लाइट जला दो ,पंखा चला दो ,गर्मी लग रही है | श्रीवास्तव जी श्रेया को समझाते हुए कहते हैं “बेटे मम्मी को कहो वो चला देंगी ,जाओ घर जाओ | नहीं अंकल मम्मी नहीं चलाएंगी | पापा –मम्मी में बिजली के बिल को लेकर झगडा चल रहा है | पापा मम्मी को डांट  रहे हैं और मम्मी कह रही हैं ,ठीक है अब पंखा नहीं चलाऊँगी ,कभी नहीं चलाऊँगी ,मम्मी रो रही हैं | आप चलो न अंकल ,प्लीज चलो ,मुझे गर्मी लग रही है | पंखा चला दो न चल के ,प्लीज अंकल |      पी टी एम में निधि कक्षा अध्यापिका के डांटने पर फफक –फफक कर रो पड़ी | मैंम मेरे घर से कोई नहीं आएगा | न् पापा  न मम्मी | पापा तो ऑफिस गए हैं और मम्मी की तबियत खराब है ,कल पापा ने मारा था | हाथ पैर में चोट लग गयी है | मैं रोज –रोज के झगड़ों की वजह से पढ़ नहीं पाती मैम |        ५ साल के  अतुल का पिछले ६ महीने से ईलाज करने वाले डॉ देसाई उसके न बोल पाने की वजह कोई शारीरिक न पाते हुए उसे मनोवैज्ञानिक को दिखाने की सलाह देते हैं | मनोवैज्ञानिक एक लम्बी परिचर्चा  के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अतुल के न बोल पाने की वजह उसके माता –पिता में होने वाले अतिशय झगडे हैं | दोनों खुद चिल्लाते हैं और एक दूसरे को चुप रहने की ताकीद देते हैं | अतुल अपनी बाल बुद्धि से चुप रहने  को ही सही समझता है और बोलने की प्रक्रिया में आगे बढ़ने से इनकार कर देता है | बच्चो पर असर डालते हैं माता -पिता के झगडे              जैसा की उदाहरणों से स्पष्ट है जब पति –पत्नी लड़ते हैं तो उसका बहुत ही प्रतिकूल असर बच्चों पर पड़ता है | लड़ते समय उन्हें ये भी ख़याल नहीं रहता कि आस –पास कौन है | वे बच्चों के सामने निसंकोच एक दूसरे के चाल –चरित्र पर लांछन  लगाते हैं| एक दूसरे के माता –पिता व् परिवार वालों को बुरा –भला कहते हैं | भले ही उनका मकसद लड़ाई जीत कर अपना ईगो सैटिसफेकशन हो |पर उन्हें इस बात का ख्याल ही नहीं रहता कि जो मासूम बच्चे जो उन्हें अपना आदर्श मानकर हर चीज उन्हीं से सीखते हैं उन पर कितना विपरीत असर पड़ेगा | कई बार रोज  –रोज के झगड़ों को देखकर बच्चे दब्बू बन जाते हैं तो कई बार उनमें विद्रोह ही भावना  आ जाती है | किशोरबच्चो में अपराधिक मानसिकता पनपने का एक कारण यह भी हो सकता है | अक्सर  माता –पिता तो लड़ –झगड़कर सुलह कर लेते हैं पर जो नकारात्मक असर बच्चों पर पड़  जाता है उसको बाद में ठीक करना बहुत मुश्किल हो जाता है | माता-पिता के झगडे और बच्चे: मनोवैज्ञानिकों की राय     प्रसिद्द मनोवैज्ञानिक सुशील जोशी कहते हैं कि “ पति –पति में  झगडा होना अस्वाभाविक नहीं है | कहा भी गया है जहाँ चार बर्तन होंगे वहां खट्केंगे  ही | दो भिन्न परिवेश में पले  लोगों में अलग राय होना आम बात है | इससे बच्चों को फर्क नहीं पड़ता , फर्क पड़ता है बात रखने के तरीके  से | आये दिन जोर जोर से चीख चिल्ला कर करे गए झगडे बच्चों पर बहुत ही विपरीत असर डालते हैं | यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि अगर झगड़ों के बाद माता –पिता में अच्छे रिश्ते दिखाई देते हैं तो बच्चे भी झगड़ों  को नजर अंदाज कर  देते हैं | उन्हें लगता है की उनके माता –पिता में प्रेम तो है  | परन्तु अगर बच्चों को लगता है कि माता-पिता में प्रेम नहीं  है व् साथ रहते हुए भी उनमें दुश्मन हैं  तो बच्चे सहम जाते हैं | उन्हें भय उत्पन्न हो जाता है कि कहीं वो लड़ -झगड़ कर अलग न हो जाएँ और उन्हें वो प्यार मिलना बंद न हो जाए  अपने माता – पिता से मिल रहा है |   वैज्ञानिकों की माने  तो इस मानसिक भय के शारीरिक लक्षण अक्सर बच्चों में प्रकट होने लगते हैं जैसे दिल की धड़कन बढ़ जाना, पेटमें दर्द होना, बेहोशी आना , व् विकास दर में कमी आदि।एक प्रचलित विचारधारा तो यह भी है कि अधिक गंभीरकिस्म की स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं मूल रूप में मनोवैज्ञानिक आधार लिये हुये होती हैं।  मनोवैज्ञानिक डॉ. ऐनी बैनिग के अनुसार बच्चों के लिए सबसे खराब वो झगडा होता है जहाँ उनको को ऐसा लगने लगता है की चाहे अनचाहे वो दोषी है | ऐसा तब होता है जब माता – पिता में से एक दबंग व् दूसरा दब्बू प्रकृति का होता है | बच्चे को बार – बार यह अहसास होता है की माता या पिता उसकी वजह से इस ख़राब बंधन में जकड़े हुए हैं |  वैज्ञानिक विश्लेषण से पता चलता है कि हमारे शरीर में  सिम्पैथीटिक व् पैरासिम्पैथीटिक नर्वस सिस्टम होता  है | किसी भावी विपत्ति के समय यही सिस्टम हमारे खून में  एड्रीनेलीन नामक ग्लैंड से एड्रीनेलिन हरमों निकाल कर शरीर को खतरे के लिए तैयार करता है | जिससे दिलकी धड़कन बढ़ जाती है , पाचन क्रिया , एनेर्जी रिलीज सब बढ़ जाती है | खतरे के लिए तो ये एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है पर जब रोज – रोज के झगड़ों से बच्चे भावनात्मक खतरा महसूस करते हैं तो यह प्रक्रिया उन्हें नुक्सान पहुंचाती है व् शारीरिक व् मानसिक विकास को कम करती है |  माता-पिता झगड़ते समय बच्चो के विषय में सोंचे             विवाह भले ही जीवन भर का रिश्ता है पर इसमें अप और डाउन होना बिलकुल स्वाभाविक है | विवाहित जोड़ों का आपस में झगड़ना कोई असमान्य प्रक्रिया नहीं है | असमान्य यह है की वो झगडा करते समय अपने बच्चों को भूल जाते हैं | उस समय उनका धयान पूरी तरह से तर्क –वितर्क करने और एक दूसरे को नीचा दिखाने में होता है |जब भी आप अपने पति या पत्नी से झगडा करने को तत्पर हो यह हमेशा धयान रखे कि आप के बच्चे यह ड्रामा देख रहे हैं | जो उन्हें भानात्मक रूप से कमजोर बना रहा है | इसका मतलब यह नहीं है की आप माता –पिता हैं तो आप को झगडा करने का  या अपनी बात रखने का अधिकार नहीं है | पर आप को … Read more

किशोर बच्चों में अपराधिक मानसिकता :जिम्मेदार कौन ?

किशोरावस्था यानि उम्र का वो पड़ाव जिसमें उम्र बचपन व् युवास्था के बीच थोडा सा विश्राम लेती है | या यूँ कहें  न बचपन की मासूमियत है न बड़ों की सी समझ और ऊपर से ढेर सारे शरीरिक व् मानसिक और हार्मोनल परिवर्तनों का दवाब | शुरू से ही किशोरावाथा “ हैंडल विथ केयर “की उम्र मानी जाती रही है | और यथासंभव परिवार व् समाज इसका प्रयास भी करता रहा है | और किशोर अपनी इस उम्र की तमाम परेशानियों से उलझते सुलझते हँसी – ख़ुशी  युवावस्था में पहुँच ही जाते हैं | पर  निर्भया रेप कांड के बाद मासूम प्रद्युम्न की हत्या की जांच की जो खबरे आ रही हैं | वो चौकाने वाली हैं | अगर अपराधी मानसिकता की बात करें तो किशोर बच्चे अब बच्चे नहीं रहे | चोरी , बालात्कार और हत्या जिसे संगीन अपराधों को अंजाम देने वाले ये किशोर किसी खूंखार अपराधी से कम नहीं है | आखिर बच्चों में इतनी अपराधिक प्रवत्ति क्यों पनप रही है | हम हर बार पढाई का प्रेशर कह कर  समस्या के मूल को नज़रअंदाज नहीं कर सकते | बच्चों में सहनशक्ति की कमी होती जा रही है और गुस्सा बढ़ता जा रहा है व् अपराधिक प्रवत्तियां जन्म ले रही हैं |हमें कारण तलाशने होंगे | किशोर बच्चों में अपराधिक मानसिकता: संयुक्त परिवारों का विघटन  है जिम्मेदार *नौकरी की तलाश में पिछली पीढ़ी अपना गाँव ,शहर छोड़ कर दूसरे शहरों में बस गयी | संयुक्त परिवार टूट गए | साथ ही छूट गया दादी नानी का प्यार भरा अहसास और सुरक्षा का भाव | क्रेच में पले  हुए बच्चे जो स्वयं प्यार के लिए तरसते हैं उन में मानवता के लिए प्यार की भावना  आना मुश्किल है | *दादी नानी की कहानियों की जगह हिंसात्मक वीडियो गेम जहाँ गोली चलाना , मार डालना खेल का हिस्सा है | उसे खेलते हुए बच्चों में अपराधिक मानसिकता की पृष्ठभूमि तैयार हो जाती है | उन्हें मरना या मारना कोई बड़ी बात नहीं लगती | आंकड़ों की बात की जाए तो किशोर आत्महत्या भी बढ़ रही है | जरा सी बात में अपनी जिंदगी भी  समाप्त कर देने में वो परहेज नहीं करते |कई उदहारण तो ऐसे आये कि माँ ने जरा सा डांट दिया या कुछ कह दिया तो बच्चे ने आत्महत्या कर ली | या फिर माँ ने टी .वी देखने को मन किया तो बच्चे ने माँ की हत्या कर दी | दोनों ही स्थितियों में मरने मारने की कोई प्री प्लानिंग नहीं थी | कहीं न कहीं ये हिंसात्मक खेल बच्चों में हिंसा की और प्रेरित कर रहे हैं | बहुत पहले काल ऑफ़ ड्यूटी वीडियो गेम देख कर एक नवयुवा ने कई बच्चों की हत्या कर दी थी | आजकल इसका ताज़ा उदहारण “ब्लू व्हेल “ गेम है | दुखद है की इसे  खेल कर बच्चे न सिर्फ अपने शरीर में चाकू से गोद कर व्हेल बना रहे हैं बल्कि जीवन भी समाप्त कर रहे हैं |   एकल  परिवारों में जहाँ हर बात में बच्चों की राय ली जाती है |कुछ हद तक यह बच्चों को निर्णय लेना सिखाने व् परिवार में उनकी राय को अहमियत देने के लिए जरूरी है | पर अति हर जह बुरी होती है | कौन सा सोफे लेना है , बच्चों से पूँछो , चादर का रंग बच्चो से पूँछ कर , घर का नक्शा बच्चों से पूँछ कर | जब सब कुछ बच्चों से पूँछ कर हो रहा है तो बच्चे अपने को  बड़ों के बराबर समझने लगते हैं | लिहाज़ा उनसे कही गयी हर बात उन्हें अपना अपमान लगती है |उन्हें राय लेने नहीं देने की आदत पड़  चुकी होतीहै | जब उन्हें कह जाता है की बेटा गुस्सा न करों , अच्छे से पढाई करो या दोस्तों से झगडा न करों तो वो सुनने वाले नहीं हैं | बल्कि १० तर्क दे कर माता – पिता को ही चुप करा  देंगे |  किशोर बच्चों में अपराधिक मानसिकता : पढाई का प्रेशर है जिम्मेदार * आज बच्चे के हर दोष के लिए पढाई का प्रेशर कह कर उसे दोष मुक्त कर दिया जाता है | बच्चों पर पढाई का प्रेशर हमी ने डाला है | खासकर छोटे बच्चों में | जहाँ हम इसी तुलना में लगे रहते हैं की किसके बच्चे ने A फॉर एप्पल के आलावा A फॉर ant पहले सीख लिया | हमने इसे नाक का प्रश्न बनाया है |आज छोटे बच्चों की माएं स्वयं सुपर मॉम और अपने बच्चे को सुपर चाइल्ड बनाने की जुगत में लगी रहती हैं |इस कारण वो स्वयं भी तनाव में रहती हैं व् बच्चों पर भी तनाव डालती हैं | ये तनाव बच्चों की सांसों में इस कदर घुल मिल जाता है की उनके जीवन का एक हिस्सा बन जाता है |जब तक परिवार को बात समझ में आती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है | अब तक तनाव रिफ्लेक्स एक्शन में स्थापित हो गया होता है | जिसे वहां से निकाल पाना  असंभव है |  पढ़िए -बदलता बचपन * रही बात किशोर बच्चों की तो किशोर बच्चों में पढाई का प्रेशर हमेशा से रहा है | यही वो उम्र होती है जब प्रतियोगी परीक्षाएं दे कर करियर चुना जाता है |असफलताएं पहले भी होती थी | पर अब असफलताएं सहन नहीं होती | न बच्चों को न माँ – बाप को |इसीलिए इस प्रेशर का  मीडिया हाइप बना कर हम ही अपने बच्चों के सामने प्रेशर , प्रेशर , प्रेशर का मंत्र  जप कर कहीं न कहीं उनके दिमाग में यह बात बिठा दी जाती है की उनके साथ कुछ गलत हो रहा है |इस कारण किशोर बच्चे अक्सर बौखलाए से रहते हैं | क्रोध उनको अपराध की ओर प्रेरित करता है | उनको माँ – बाप ,समाज दुश्मन से नज़र आते हैं |          इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जिन घरों में किशोर बच्चे है उनके माता – पिता उनके इस अतिशय क्रोध से डरे रहते हैं | बच्चों के माता – पिता यह कहते है की हम तो उससे बात भी नहीं कर पाते पता नहीं कब नाराज़ हो जाए | कहीं न कहीं ये … Read more

कहीं हम ही तो अपने बच्चों के लिए समस्या नहीं?

            दृश्य-१-  बहुत दिनों से सोच रही थी कि शीतल से मिल आऊँ, उसके हाल-चाल जान आऊँ…सो आज चली गई उसके घर। गप्पों के बीच उसने बीच उसने आवाज़ दी अपनी बेटी को….मोना! अच्छी चाय बना कर ले आ आंटी के लिए। बेटी चाय लेकर आई, रख कर वो बातें करने लगी।         मोना! यही सीखा है तुमने? इस तरह चाय सर्व करते हैं? कब सीखोगी कुछ? देखा सोनी! ये हैं इसके हाल! हम तो ऐसे किया करते थे, वैसे किया करते थे, पर ये आजकल के बच्चे….करना ही नहीं चाहते कुछ। दूसरे घर जाकर नाक कटवाएँगे हमारी। जब भी उसके घर गई… इसी तरह के दृश्य देखने को मिले मुझे। इसके फलस्वरूप उसकी बेटी हकला कर बोलने लगी….पर शीतल के स्वभाव में कोई बदलाव नहीं। उसका कोसना आज भी वैसे ही जारी है।        दृश्य-२–  बेटा बाहर से खेल कर आया। पिता के मित्र घर में बैठे हुए थे। बेटे के घर में प्रवेश करते ही पिताजी बोलने शुरू हो गए…..आ गए बेटा तीर मार कर। पढ़ने-लिखने से तो कोई संबंध है नहीं तुम्हारा। सचिन तेंदुलकर समझते हो ख़ुद को। मेहनत करना तो बस का नहीं…..बनने चले हो विराट कोहली। बेटे ने एक उपेक्षित भाव से अपने पिता की ओर देखा और पिता के मित्र को नमस्कार कर अंदर चला गया।           दृश्य-३– घर में किसी मेहमान के आते ही मालती अपने दोनों बेटा-बेटी को परेशान कर डालती…. बेटा आंटी को पोयम सुनाओ तो, बेबी…आंटी को डाँस करके दिखाओ।और जब वे करते…ढंग से कुछ नहीं सुनाते-दिखाते तुम। शर्मा आंटी के बच्चों को देखो और एक तुम हो…..जो कुछ ढंग से करते ही नहीं। इस तरह बच्चे मेहमानों के सामने आने से कतराने लगे।         दृश्य-४- आजकल घरों में, स्कूलों में बहुत अच्छी-अच्छी बातें सिखाई जाती हैं…. दूसरों की मदद करनी चाहिए, सेवा करनी चाहिए, माह में एक बार दो-चार घंटे का समय किसी के लिए अच्छा काम करने में देना चाहिए। यदि कोई सच में ऐसा कुछ करता दिखाई देता है…..तो कुछ इस तरह की टिप्पणियाँ सुनने को मिलती हैं…..फ़ालतू इधर से उधर घूमते हैं….ये करना कौन सी बड़ी बात है…..या…अरे अभी से बच्चा तुम इस फ़ालतू काम में लग गए….ये तो रिटायर हो चुके लोगों का काम है। तुम खाओ-पियो, नौकरी करो, परिवार बनाओ। अच्छाई की तरफ़ बढ़ते क़दमों को लौटाने का प्रयास। जो हो रहा है ….उसके ज़िम्मेदार कहीं हम ही तो नहीं?                ये सभी दृश्य काल्पनिक नहीं हैं मैं स्वयं प्रत्यक्षदर्शी हूँ इन दृश्यों की। वास्तव में लोग आजकल दोहरी मानसिकता को लेकर जीते हैं। कहते कुछ हैं, सोचते कुछ हैं और करते कुछ हैं। अपनी संतान के मामले में तो माता-पिता का दृष्टिकोण बनना अपने और दूसरों को देख कर ही बनता है।हमारे समय में ऐसा था, हम ऐसा करते थे, वैसा करते थे, पढ़ाई भी और घर का पूरा काम भी करते थे….पर आज के बच्चे! काम करना तो दूर, ढंग से पढ़ते भी नहीं। जो समय हमने जिया, उसमें हमने जो किया, जैसे किया, वो उस समय के अनुसार  था….पर आज क्या जरूरी है कि बच्चा आज के समय अनुसार न चले। हर समय अपना हवाला देकर बच्चों को दूसरों के सामने नीचा दिखाना, हतोत्साहित करना, हँसी का पात्र बनाना क्या उचित है? फिर जब बच्चे  उपेक्षा करते हैं, विद्रोह करते हैं तो आज के समय और आज की पढ़ाई को कोसने लगते हैं।            अपनी रूचियाँ, अपने अधूरे सपनों का बोझ अपने बच्चों पर पर डाल कर उनके सपनों का अंत करना क्या उचित है? होना तो यह चाहिए कि हम आज के समय को समझते हुए अपने बच्चों की रुचियों को पहचाने, उनके सपनों की आवाज सुनें और उन्हें पूरा करने में उनके साथ क़दम मिलाएँ, गिरें-लड़खड़ायें तो उन्हें थामें, उत्साहित करें ताकि वे अपने सपनों को पूरा कर सकें। इसके लिए माता-पिता को अपनी भूमिका निभाने के साथ मित्र भी बनना होगा। कहीं-कहीं घरों में डर और अनुशासन का इतना आतंक रहता है की बच्चा अपनी बात कहने से कतराते हैं, बाहर कहते हैं,ड्रग्स लेने लगते हैं। हर बात के लिए दूसरों पर आरोप न लगा कर अपनी ओर भी देखना-सोचना चाहिए कि जो हो रहा है ….उसके ज़िम्मेदार कहीं हम ही तो नहीं? बच्चों के साथ  के साथ कैसा हो माता -पिता का व्यवहार               न तो बच्चा बंदर या कठपुतली हैं न हमारी भूमिका क़ादरी की है, तो फिर क्यों हम मेहमानों के आने पर उन्हें नाच दिखाने,गाना-कविता सुनाने को कहते हैं। दूसरों से तुलना करना तो और भी ग़लत है। हर बच्चा दूसरे से अलग होता है। तुलना करके हम उसे हेय बना कर हतोत्साहित करते हैं, उसके विकास की गति को अवरुद्ध करते है।               बच्चे के अंदर स्वतंत्र निर्णय ले सकने की क्षमता का विकास होने देने के लिए उसे स्वतंत्रता देनी चाहिए। सही निर्णय पर प्रशंसा और ग़लत निर्णय पर समझना….ये दोनों प्रक्रियाएँ होनी चाहिए।              आज बच्चे अपने जीवन में जिन भी समस्याओं से जूझते दिखाई पड़ते हैं…..उनकी तह में जाने पर मूल में घर का अशांत वातावरण, माता-पिता का उन्हें अपनी अनुकृति बनने का भरपूर प्रयास ही मिलता है।               आज के समय में तो आज के अनुसार ही जीना-करना होगा। अतीत का गुणगान इतना न हो कि वर्तमान तो बिगड़े ही, भविष्य भी धूमिल हो जाए। इससे परेशानी तो दोनों पक्षों को भुगतनी पड़ती है। तो हम क्यों अपने बच्चों के लिए समस्याएँ उत्पन्न करने का कारण बनें?            होना तो यह चाहिए कि हम अपने बच्चों की सफलता-विकास की यात्रा में उसके सहयात्री बन कर साथ चलें…..इसके लिए हमें यानी माँ और पिता को अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करना होगा, नहीं तो हम जाने-अनजाने उनके लिए समस्या बनने वाले कारक मात्र  बन कर रह जाएँगे। डा० भारती वर्मा बौड़ाई देहरादून यह भी पढ़ें …… घर में बड़ों का रोल निभाते बच्चे  संवेदनाओं का मीडिया करण – नकारात्मकता से अपने व् अपने बच्चों के रिश्तों को … Read more

क्या सभी टीचर्स को चाइल्ड साइकॉलजी की समझ है ?

Teachers should have basic understanding of child psychology  वंदना बाजपेयी   शिक्षक दिवस -यानी  अपने टीचर के आभार व्यक्त करने का , उनके प्रति सम्मान व्यक्त करने का | छोटे बड़े हर स्कूल कॉलेज में “टीचर्स डे “ पर कार्यक्रम का आयोजन होता है  | जिसमें बच्चे  कविता ,कहानी  नृत्य के माध्यम से टीचर्स के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं  | लम्बी – लम्बी स्पीच चलती है  | टीचर्स को फूल कार्ड्स , गिफ्ट्स मिलते हैं  | आभासी  जगत यानी इन्टरनेट की दुनिया में भी हर वेबसाइट पर , फेसबुक की हर वाल पर  टीचर्स की शान में भाषण , सुविचार व् टू  लाइनर्स पढने को मिलते हैं | यह जरूरी भी है | क्योंकि टीचर्स हमें गढ़ते हैं | उन्होंने हमें ज्ञान का मार्ग दिखाया होता है | इसलिए हमारा कर्तव्य है की हम उनके प्रति आदर व् सम्मान का भाव रखे | क्या सभी टीचर्स को चाइल्ड साइकॉलजी  की समझ है ?  सामूहिक सम्मान तो ठीक है | पर जैसे  की बच्चों का अलग – अलग मूल्याङ्कन होता है | उसी तरह हर टीचर का मूल्यांकन करें तो क्या हर  टीचर इस सम्मान का अधिकारी है ? क्या टीचर हो जाना ही पर्याप्त है ?क्या सभी टीचर्स बाल मनोविज्ञान की समझ रखते हैं | आइये इस की गहन विवेचना करें |   क्यों हो मासूम बच्चों पर इतना प्रेशर                             शिक्षक दिवस पर  मुझे उस बच्चे की याद आ गयी | जिसका वीडियो  वायरल हुआ था | जिसमें बच्चे की माँ बच्चे को बहुत गुस्सा करते हुए पढ़ा रही थी | सभी  ने एक स्वर में माँ की निंदा की | पर माँ के इस व्यवहार के पीछे क्या कारण हो सकता है | ये जानने के लिए किसी भी स्कूल के “ पेरेंट्स टीचर मीटिंग “ में जा कर देख लीजिये | टीचर किस बुरी तरीके से बच्चों के चार – पांच नंबर कम आने पर बच्चे के बारे में नकारात्मक  बोलना शुरू कर देते हैं | जिससे माँ – बाप के मन में एक भय पैदा होता है |शायद  मेरा बच्चा कभी कुछ कर ही न पाए या कम से कम इतना तो लगता ही है की सबके बीच में अगली बार उनके बच्चे को ऐसे न बोला जाए |हमें खोजना होगा की एक मासूम बच्चे पर इतना प्रेशर पड़ने की जडें कहाँ पर हैं | क्या जरूरी नहीं की पेरेंट्स टीचर मीटिंग में बच्चे के माता – पिता व् टीचर अकेले में बात करें | जिससे माता – पिता या बच्चे में सबके सामने अपमान की भावना न आये | होता है मासूम बच्चो का शारीरिक शोषण  एक उदहारण  मेरे जेहन में आ रहा है | एक प्ले स्कूल का | प्ले स्कूल में अमूमन ढाई से चार साल के बच्चे पढ़ते हैं | उस प्ले स्कूल की  टीचर बच्चों के शरारत करने पर , काम न करने पर , दूसरे बच्चे का काम बिगाड़ देने पर उस बच्चे के सारे कपडे उतार कर बेंच पर खड़ा होने का पनिशमेंट देती थी | इस उम्र के बच्चों को शर्म  का अर्थ नहीं पता होता  है | परन्तु जिस तरह से सार्वजानिक रूप से ये काम करा जाता उससे बच्चे बहुत अपमानित महसूस करते | कुछ बच्चों को सजा हुई | बाकी बच्चे भयभीत रहने लगे  | कुछ बच्चे स्कूल जाने  से मना करने लगे | बात का पता तब चला जब एक बच्चा १० दिन तक स्कूल नहीं गया | वो तरह – तरह के बहाने बनता रहा | जबरदस्ती स्कूल भेजने पर वह चलते ऑटो से कूद पड़ा | फिर माता – पिता को शक हुआ | बच्चे से गहन पूँछतांच में बच्चे ने सच बताया | पेरेंट्स के हस्तक्षेप से टीचर को स्कूल छोड़ना पड़ा | परन्तु बच्चों के मन में जो ग्रंथि जीवन भर के लिए बन गयी उसका खामियाजा कौन भुगतेगा | वर्बल अब्यूज भी है खतरनाक  मेरी एक परिचित के तीन साल के बच्चे ने एक दिन घर आ कर बताया की ड्राइंग फ़ाइल न ले जाने पर टीचर ने मारा | हालांकि वो डायरी में नोट भी लिख सकती थीं | दूसरे ही दिन वे दोनों स्कूल गए व् प्रिंसिपल से बात की ,की मासूम बच्चों को न मारा जाए | उसके बाद बच्चे ने स्कूल की बातें घर में बताना बंद कर दिया | वह अक्सर स्कूल जाने से मना  करने लगा | जब पेरेंट्स ने बहुत जोर दे कर पूंछा की क्या टीचर अब भी मारती हैं तो बच्चा बोला नहीं मारती नहीं हैं , पर रोज कहतीं हैं की इन्हें तो कुछ कह ही नहीं सकते अगले दिन इनके माता – पिता आ कर खड़े हो जाते हैं | इसके बाद बच्चे ताली बजा कर हँसते हैं | आप लोग मेरा स्कूल चेंज करवा दो | मनोविज्ञान के अनुसार वर्बल अब्यूज , फिजिकल अब्यूज से कम घातक  नहीं होता | लगातार ऐसी बातें सुनने से बच्चे के कोमल मन पर क्या असर होता है ये सहज ही समझा जा सकता है | मारपीट किसी समस्या का हल नहीं   एक और वीडियों जो अभी वायरल हुआ उसमें टीचर बच्चे को बेरहमी से पीट रही थी | वीडियो देखने से ही दर्द महसूस होता है | मासूम बच्चों को मुजरिम की तरह ऐसे कैसे पीटा  जा सकता है ? हालांकि यहाँ मैं सपष्ट करना चाहूंगी की कई पेरेंट्स भी बच्चे को रोबोट बनाने की इच्छा रखते हैं वह आकर स्वयं कहते हैं की ,” आप इसकी तुड़ाई करिए | टीचर भी सहज स्वीकार करती हैं कि  मार पीट से ही बिगड़े बच्चे सुधरते हैं | जबकि उसे बताना चाहिए की तुड़ाई करने से कमियाँ नहीं टूटती बच्चे का आत्मविश्वास टूटता है | इसके अतिरिक्त भी  टीचर्स अक्सर बच्चों पर  नकारात्मक फब्तियां कसते रहते हैं | एक कोचिंग सेंटर में जहाँ इंजीनयरिंग इंट्रेंस एग्जाम की तयारी करवाते हैं | वहां के गणित के टीचर कोई भी सवाल बच्चों को हल करने के लिए देते | फिर यह जुमला कसना नहीं भूलते की देखना कोई लड़का ही करेगा | लड़कियों से तो मैथ्स होती ही नहीं | वैसे तो जेंडर बायस कमेंट बोलने का अधिकार किसी को नहीं है | फिर भी यह जानते हुए की समान अवसर व् सुविधायें मिलने के बाद लडकियां लड़कों से कहीं कम सिद्ध नहीं होती | उस क्लास में पढने वाली लड़कियों का आत्मविश्वास डगमगाने लगा | जाहिर है … Read more