घर में बड़ों का रोल निभाते बच्चे

   चिंतन मंथन – घर में बड़ों को हर बात में अपनी बेबाक राय देते बच्चों की भूमिका कितनी सही कितनी गलत  घरों में बड़ों का रोल निभाते बच्चे   विकास की दौड़ती गाड़ी  के साथ हमारे रिश्तों के विकास में बड़ी उथल पुथल हुई है | एक तरफ बड़े ” दिल तो बच्चा है जी’ का नारा लगते हुए अपने अंदर बच्चा ढूंढ रहे हैं या कुछ हद तक बचकाना व्यवहार कर रहे हैं वहीं बच्चे तेजी से बड़े होते जा रहे हैं | इन्टरनेट ने उन्हें समय से पहले ही बहुत समझदार बना दिया | माता – पिता भी नए ज़माने के विचारों से आत्मसात करने के लिए हर बात में बच्चों की राय लेते हैं | हर बात में अपनी राय देने के कारण जहाँ बच्चों का आत्मविश्वास बढ़ा है | पारिवारिक रिश्तों में अपनी बात रखने का भय कम हुआ है वहीं कुछ नकारात्मक परिणाम भी सामने आये हैं | अत : जरूरी ही गया है की इस बात पर विमर्श किया जाए की बच्चों की ये नयी भूमिका कितनी सही है कितनी गलत |                             निकिता किटी  पार्टी में जाने के लिए तैयार हो रही थी | जैसे ही उन्होंने लिपस्टिक लगाने के लिए हाथ बढाया १५   वर्षीय बेटी पारुल नें तुरंत टोंका “ न न मम्मी डार्क रेड नहीं , ब्राउन कलर की लगाओ वो भी मैट  फिनिश की ,इसी का फैशन हैं | निकिता जी नें तुरंत हामी भरी “ ओके ,ओके | निकिता जी अक्सर  कहा करती हैं कि उन्हें कहीं भी जाना होता है तो बेटी से ही पूँछ कर साड़ी  चुनती हैं , उसका ड्रेसिंग सेंस  गज़ब का है | बच्चे आजकल फैशन के बारे में ज्यादा जानते हैं |                                 धर्मेश जी और उनकी पत्नी राधा के बीच में कई दिन से झगडा चल रहा था | कारण था राधा जी की किसी स्कूल में टीचर के रूप में पढ़ाने की इक्षा | धर्मेश जी हमेशा तर्क देते “ तुम्हे पैसों की क्या कमी है , मैं तो कमाता ही हूँ | चार रुपयों के लिए क्यों घर की शांति भंग करना चाहती हो | राधा जी अपना तर्क  देती कि वो सिर्फ पैसे के लिए नहीं पढाना  चाहती हैं उनकी इक्षा है की अपने दम पर कुछ करे , अपनी नज़र में ऊँचा उठे | पर धर्मेश जी मानने को तैयार नहीं होते | आपसी झगडे में इतिहास और भूगोल घसीटे जाते पर परिणाम कुछ न निकलता | एक दिन रात के २ बजे दोनों झगड़ रहे थे | तभी उनकी ११ साल की बेटी उठ गयी | कुछ देर के लिए पसरी खामोशी को तोड़ते हुए बोली “ पापा ,आप थोड़ी देर के लिए मम्मी की जगह खुद को रख कर देखिये, हम सब स्कूल ,ऑफिस वैगरह चले जाते हैं | मम्मी अकेली रह जाती हैं | ऐसे में अगर वो अपनी शिक्षा का इस्तेमाल करना चाहती हैं ,तो गलत क्या है | इसमें उनको ख़ुशी मिलेगी | हम लोगों को ऐतराज़ नहीं है ,फिर आप को क्यों ? दिन रात इसी बात पर पत्नी से उलझने वाले धर्मेश जी बेटी की बात नहीं काट सके | कुछ दिन बाद राधा जी पास के एक स्कूल में अध्यापन कार्य करने लगी |               ममता का अंग्रेजी का उच्चारण बहुत दोष पूर्ण था पति रोहित उसकी यदा –कदा  हँसी उडा  देता जिससे उनकी हिम्मत और टूट गयी | बेटा सूरज जब बड़ा हुआ तो उसने अपनी मम्मी का उच्चारण दोष दूर करने की ठान ली | उसने ममता के साथ अंग्रेजी में बात करना  शुरू किया | उसको शीशे के सामने बोलने के लिए प्रेरित किया | उसके गलत उच्चारण को विनम्रता पूर्वक सही किया | आज ममता जी फर्राटे  से अंग्रेजी बोलती हैं | उनके मन में अपने बेटे के लिए प्रेम के साथ –साथ सम्मान का भाव भी  है |                                       चंद्रकांत जी पिछले कई सालों से चेन स्मोकर हैं | माँ ,पत्नी ,रिश्तेदार समझाते –समझाते हार गए पर आदत छूटने का नाम ही नहीं ले रही थी | एक दिन ७ वर्षीय बेटा अपना मोबाइल ले कर चंद्रकांत जी  के पास बैठ गया | गूगल पर एक –एक फोटो क्लिक करते हुए वह उन्हें सिगरेट के नुक्सान के बारे में बताने लगा | चंद्रकांत जी सर झुका कर सुनते रहे | वह खुद लज्जित थे | अंत में बेटे नें आंकड़े दिखाए कि सिगरेट पीने वालों के बच्चे भी पैसिव स्मोकर बन जाते हैं | इससे उनके स्वास्थ्य को भी खतरा है | फिर मोबाइल रख कर बेटे ने उनके गालों पर हाथ रखते हुए कहा “ पापा क्या आप हम लोगों को प्यार नहीं करते हैं  “| चंद्रकांत जी की आँखे डबडबा गयी , वे बेटे से नज़रे नहीं मिला सके | उन्होंने सिगरेट फेंक  कर बेटे को गोद ले कर कहा  “ आइ लव यू बेटा , अब कभी सिगरेट नहीं पियूँगा | “ दरसल वो बेटे की नज़रों में गिरना नहीं चाहते थे | रिश्तों में आया है खुलापन              अगर हम एक दो पीढ़ी पीछे जाए तो यह सब एक सपना सा लगेगा | बूढ़े हो जाए पर बच्चे सदा बच्चे ही बने रहते हैं | उन्होंने  जरा कुछ बोलने की कोशिश की …. तुरंत सुनने को मिल जाता “ चार किताबें क्या पढ़ ली ,हमसे जुबान लड़ाओगे | “ खासकर माता –पिता के झगड़ों में तो उन्हें बोलने की सख्त मनाही होती थी | बड़ो के बीच में बोलना अशिष्ट समझा जाता था | उस ज़माने में कहा जाता था ‘ अगर आप को अपनी गलतियाँ देखनी हैं तो अपने बच्चों को गुड़ियाँ खेलते हुए देख लीजिये | अपनी हर गलती समझ आ जायेगी |    मनोवैज्ञानिक सुष्मिता मित्तल कहती हैं “तब बच्चे नकल करते थे अब अक्ल लगाते  हैं | वह माता पिता से अपने मन की बात कहने में ,राय देने में हिचकते नहीं हैं |”  मनोवैज्ञानिक अतुल नागर कहते हैं कि … Read more

संवेदनाओं का मीडियाकारण: नकारात्मकता से अपने व् अपने बच्चो के रिश्ते कैसे बचाएं ?

– अभी हाल में खबर आई की मुंबई की एक वृद्ध माँ का बेटा जब डेढ़ साल बाद आया तो उसे माँ का कंकाल मिला | खबर बहुत ह्रदय विदारक थी | जाहिर है की उसे पढ़ कर सबको दुःख हुआ होगा | फिर सोशल मीडिया पर ऐसी पोस्टों की बाढ़ सी आ गयी | जहाँ कपूत बेटों ने अपने माँ – बाप को तकलीफ दी हर माता – पिता ऐसी  ख़बरों को पढ़ कर भयभीत हो गए | कहीं न कहीं उन्हें डर लगने लगने  की उनका बेटा भी कपूत न निकल जाए | कहीं उन्हें भी इस तरह की किसी दुर्घटना का शिकार न होना पड़े |  इस भय के आलम में किशोर या युवा होते बच्चों पर माता – पिता ताना मार ही देते हैं ,” आज कल की औलादों से कोई उम्मीद नहीं है “, सब कपूत निकलेंगे “ , अरे , इनके लिए दिन रात कमाओ यही बुढापे में नहीं पूंछने वाले | “ क्या हम कभी सोंचते हैं की ऐसा कहते समय हमारे बच्चों के दिल पर क्या असर पड़ता होगा ? शायद नहीं , क्योंकि हम अपने मन का काल्पनिक भय उन पर थोपना चाहते हैं | एक तरह से अपने बच्चे को आज से ही बुरा बच्चा घोषित कर देना चाहते हैं ? क्या ये उसे सही संस्कार देना हुआ ? अगर हम अपने बच्चे को दूसरों की ख़बरों के आधार पर पहले से ही प्रतीकात्मक रूप में ही सही बुरा घोषित कर दें तो उनके मन में अपने लिए बुरा शब्द सुनने प्रति इम्युनिटी विकसित  हो जाती है |भविष्य में उन्हें बुरा कहा जायगा तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा |                   ऐसी ही एक फिल्म थी “ बागवान “जिसमें बेटे बुरे थे | फिल्म अक्सर टीवी पर आती ही रहती है | एक बार अपने किशोर होते बेटे के साथ देख रही थी | बेटा बार – बार यह कह रहा था की मम्मी मैं बड़ा होकर ऐसा नहीं बनूँगा | जाहिर है वो कहीं न कहीं हर्ट फील कर रहा था और कहना चाहता था की मम्मी हर बेटा ऐसा नहीं होता | पर मेरे मन में फिल्म की नकारात्मकता भरी थी | दो दिन बाद किसी बात पर मैंने उसे डांटते हुए कहा ,” बड़े होके  तो तुम्हें पूँछना नहीं है हम लोगों को अभी सारा दिन मम्मी ये मम्मी वो कह कर सेवा करवाए रहो | सासू माँ हम लोगों की बात सुन रहीं थी | उसके जाने के बाद मुझ से बोली ,” बच्चों को हमेशा अच्छे बच्चों की नजीर दिया करो | बल्कि ये कहा करो , फिल्म में चाहें जो दिखाया हो पर “ जब बुढापे में हमारे हाथ – पाँव थकने लगेंगे तो हम कहाँ जायेंगे , तुम्हारे साथ ही तो रहेंगे |जिससे बच्चे मानसिक रूप से तैयार रहे की माता – पिता  उनके साथ रहेंगे | मुझे याद आया की जब मैं विवाह के बाद ससुराल आई थी तो सासू माँ मुझे हर अच्छी बहू के किस्से सुनाया करती थी | हालांकि मैंने शादी से पहले बुरी बहुओं के किस्से सुने थे | पर उन्होंने मुझे एक भी ऐसा किस्सा नहीं सुनाया | मुझे लगा , शायद यहाँ कोई बुरी बहू है ही नहीं  सब अच्छी बहुएं हैं तो मुझे भी अच्छी ही बनना चाहिए | यानी की बुरी बहू बनने का ऑप्शन ही मेरे पास से खत्म हो गया |  बात हंसी की जरूर लग सकती है पर हम सब या कम से कम ९५ प्रतिशत लोग सोशल नॉर्म  से प्रभावित होते हैं | व् उसी दायरे में रहना चाहते हैं | समाज से अलग – थलग छिटका  हुआ या बुरी मिसाल बन कर नहीं | इसमें वो सुरक्षित महसूस करता है |इसे सामाजिक दवाब भी कह सकते हैं पर इसी से हमारा व्यवहार संतुलित रहता है | जिसे हम संस्कार कहते हैं |  याद करिए की दादी नानी की कहानियाँ भी तो ऐसी  ही थी | की बुराई पर अच्छाई की जीत वाली | बुरा व्यक्ति चाहें जितना रसूख वाला हो पर अंत में बुराई पर अच्छाई की ही जीत होती थी | ये कहानियाँ बचपन से ही बच्चों को अच्छा बनने की ओर प्रेरित करती थी |                                 क्या आपको नहीं लगता की ये गलती तो हमारी पीढ़ी से हो रही है | हम बच्चों को शुरू से ही कहते रहते हैं की तुम चाहें जहाँ रहो हम दोनों तो यहीं रहेंगें | यानी हम शुरू से ही बच्चों को अपनी जिम्मेदारी से आज़ाद कर देते हैं | जब ये बच्चे बड़े होते हैं तो वो मानसिक रूप से तैयार होते हैं की उन्हें तो अकेले अपने भावी परिवार के साथ रहना है | व् माता – पिता को अलग रहना हैं | ऐसे में शारीरिक अक्षमताओं के चलते जब उन पर अचानक माता – पिता की जिम्मेदारी आती है तो उन्हें बोझ लगने लगता है |  ये संवेदनाओं के अति मीडियाकरण का नकारात्मक प्रभाव है | जहाँ हम बुरी खबरें देखते हैं | उन्हें ही 100 % बच्चों का  सच मान लेते हैं | खुद तो भय ग्रस्त होते ही हैं अपने बड़े होते बच्चों को बार – बार यह अहसास दिलाते हैं की पूरा समाज बुरा हो गया है |इसका उल्टा असर उसके मन पर पड़ता है की जब सब बुरे हो गए हैं तो उसके बुरा हो जाने में कोई बुराई नहीं है |यह बात सिर्फ हम अपने बच्चों से ही नहीं कहते | गली मुहल्ले सड़क और अब तो सोशल मीडिया हर जगह कहते हैं | एक नकारात्मक वातावरण बनाते हैं |  चाहते न चाहते हुए भी हम हम बड़े हो कर बुरे निकल जाने वाले बच्चों के प्रतिशत में इजाफा कर देते हैं | जरूरी है जब भी ऐसी खबरे आये | हम अपने बच्चों के साथ ( खासकर किशोर बच्चे )  ये खबर शेयर करते समय इस बात का ध्यान रखें की साथ ही उन्हें अच्छे बच्चों का भी उदहारण दें | बताये की अभी जमाना इतना खराब नहीं हुआ है | साथ ही उन पर पूर्ण विश्वास व्यक्त करना न भूले | हामारा यह विश्वास हमारे बच्चों को संस्कारों से  विमुख नहीं होने देगा |  वंदना बाजपेयी  रिलेटेड पोस्ट … … Read more

ख़राब रिजल्ट आने पर बच्चों को कैसे रखे पॉजिटिव

अपने बच्चों पर BEST  RESULT का दवाब न डालें  पंकज“प्रखर” कोटा(राजस्थान) माता-पिता अपने बच्चों को नकारात्मक विचारों से बचाएं और अपने स्नेह एवं मार्गदर्शन से उनमे आत्मविश्वास का दीपक प्रज्वलित करें और उन्हें आश्वस्त करें की अगर वे अपनी इच्छानुसार सफलता नही भी प्राप्त कर पाए या पूरी तरह असफल हो गये तब भी उनके पास अपनी योग्यता सिद्ध करने के कई अवसर आने वाले समय में उपलब्ध होंगे उन्हें विश्वास दिलाएं की एक असफलता हमारा जीवम समाप्त नही करती बल्कि जीवन जीने के और भी नये व अच्छे रास्ते खोल देती है | परीक्षाओं का परिणाम निकलने का मौसम है और इन दिनों ज्यादातर विद्यार्थी सफलता और अफलता  या इच्छानुरूप अंक प्राप्त होंगे या नही होंगे इसी प्रकार के विचारों के बीच अपनी आशा रुपी नौकामें गोते खारहे होंगे | ऐसे समय में आवश्यकता है की माता-पिता अपने बच्चों को नकारात्मक विचारों से बचाएं औरअपने स्नेह एवं मार्गदर्शनसे उनमे आत्मविश्वास का दीपक प्रज्वलित करें और उन्हें आश्वस्त करें की अगर वे अपनी इच्छानुसार सफलता नही भी प्राप्त कर पाए या पूरी तरह असफल हो गये तब भी उनके पास अपनी योग्यता सिद्ध करने के कई अवसर आने वाले समय में उपलब्ध होंगे उन्हें विश्वास दिलाएं की एक असफलता हमारा जीवम समाप्त नही करती बल्कि जीवन जीने के और भी कई सारे नये व अच्छे रास्ते खोल देती है | ऐसे समय में माता-पिता का ये कर्तव्य हो जाता है की वो अपने युवा हो रहे बच्चों के साथ मित्रवत व्यवहार करें उनकी चेष्टाओं को समझने का प्रयत्न करें उनके मित्र बने | आजके माता-पिता की ये शिकायत होती है की बच्चा उनकी नही सुनता अपनी मनमानी करता है ये आज की पीढ़ी की प्रमुख समस्या है ,युवा हो रहे बच्चे अपने निर्णय स्वयं लेना चाहतेहै| यदि आप चाहते है की आपके बच्चे आप के अनुसार अपने जीवन को एक सांचे में ढाले और जीवन को श्रेष्ट मार्ग पर लेकर जाए तो उसके लिए ये आवश्यक हो जाता है की आप उन्हें वो सब करने दें जो वो चाहते है ,जी हाँ शायद आप को ये शब्द आश्चर्य में डाल दे परन्तु ये सत्य है आप जिन चीज़ों के लिए उन्हें रोकेंगे उनका मन उसी चीज़ की और अकारण ही आकर्षित होगा |चाहे तो ये प्रयोग माता-पिता स्वय अपने साथ करके देख सकते है|लेकिन हाँ इसका मतलब ये भी नही है की बच्चे को हानि होती रहे और आप देखते रहें | इसका एक सीधा सरल सा उपाय ये है की आप उन्हें कार्य करने से रोके नही बल्कि उससे होने वाली हानियों से उन्हें अवगत करायें | उन्हें समझाएं की ये करने से तुम्हे ये हानि होगी और नही करने से ये लाभ, और उसके द्वारा की गयी गलती के लिए उसे कोसते ना रहे बल्कि उसे आने वाले अवसरों के लिए सचेत करें | इस प्रयोग से दो लाभ है पहला तो ये की बच्चे को आपकी सोच पर विश्वास बड़ेगा और बच्चा भावनात्मक रूप से आप से और अधिकजुड़ जाएगा की जो बात आपने उसे बताई थी वो सही थी यदि वो आपकी बात मान लेता तो उसे लाभ होता दूसरा लाभ ये होगा की बच्चे को काम करके जो अच्छा या बुरा अनुभव हुआ है वो उसे सदेव याद रखेगा अच्छे लाभ उसकी योग्यत प्रदर्शित करेंगे उसके आत्मविश्वास को बढ़ायेंगेऔर बुरे अनुभव उसको कुछ सिखाकर जायेंगे |युवा हो रहे बच्चों के आप मार्गदर्शक बनिए नकी उनपर हुकुम चलाने वाले तानाशाह नही क्युकी बच्चे के मनोभाव कोमल होते है माता पिता कीडांट- फटकार और कडवी बातें बच्चे को मानसिक हानि पहुंचती है |माता-पिता को इससे बचना चाहिए| लेकिन आज के माता-पिता यहीं चुक जाते है बच्चे के परसेंट उनकी आकांक्षा के अनुरूप नही हुए या बच्चा असफल हो गया तो बस घर का माहौल ही बिगड़ जाता है याद रहे डॉक्टर हमेशा रोग पर प्रहार करता है रोगी पर नही | यदि बच्चा समझाने पर भी आपकी बात नही मानरहा है तो इसके दोषी बच्चे नही बल्कि आप स्वयं है यदि आपने शुरू से उन्हें अनावश्यक छूट न दी होती और उसमे संस्कारों का सिंचन किया होता तो आज ये परिस्थितियाँ नही होती अपनी कमी का ठीकरा हमे बच्चों पर नही फोड़ना चाहिए | आज हम सभी अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर, साइंटिस्ट, सी.ए.और न जाने, क्या-क्या तो बनाना चाहते हैं, पर उन्हें चरित्रवान, संस्कारवान बनाना भूल जाते हैं। यदि इस ओर ध्यान दिया जाए, तो विकृत सोच वाली अन्य समस्याओं से आसानी से बचा जा सकेगा। आज के बच्चे अधिक रूखे स्वभाव के हो गए हैं। वह किसी से घुलते-मिलते नहीं। इन्टरनेट के बढ़ते प्रयोग के इस युग में रोजमर्रा की जिंदगी में आमने-सामने के लोगों से रिश्ते जोड़ने की अहमियत कम हो गई है। बच्चा माता-पिता के पास बैठने की जगह कंप्यूटर पर गेम खेलनाअधिक पसंद करता है | इसके लिए आवश्यक है की बच्चे के साथ भावनात्मक स्तर पर जुडेंउसे पर्याप्त समय दें उसकी बात भी सुने और उपयुक्त सलाह दें उसकी छोटी-छोटी उपलब्धियों के लिए उसे सराहें तो निश्चित रूप से बच्चा आप को भी समय देगा और आपकी बात सुनेगा और समझेगा |  रिलेटेड पोस्ट ………. बच्चों की बाल सुलभ भावनाएं – माता – पिता धैर्य के साथ आनंद लें बस्तों के बोझ तले दबता बचपन किशोर बच्चे बढती जिम्मेदारियां आज बच्चों को संस्कार कौन दे रहा है माँ दादी या टीवी बदलता बचपन

बच्चों की बालसुलभ भावनायें – माता-पिता धैर्य के साथ आनंद लें

– शान्ति पाल, लखनऊ             कुछ बच्चे अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण कुछ न कुछ पूछते हीं रहते हैं- यह क्या है, ऐसा क्यों होता है, आदि-आदि। अगर इन प्रश्नों का सही उत्तर उन्हें मिल जाये तो उन्हें अधिक सोचने का मौका मिलता है। माता-पिता को ऐसे बच्चों को प्रोत्साहित करना चाहिए। इसके विपरीत माता-पिता झिड़की देकर अथवा डांट-डपट कर बच्चों के मनोभावों का दमन करते हैं और बाल चिकित्सकों के अनुसार बच्चे के मन को कुंठित करने का एक तरीका यह भी है कि उसकी स्वाभाविक जिज्ञासा को दबाने के लिए उसे झिड़किया दी जाएं और उसे डराया धमकाया जाए।             यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि बच्चा स्वयं एक निर्देशक होता है। उसकी बुद्धि इतनी विकसित हो चुकी होती है कि वह अपने प्रश्नों को बखूबी समझता है। अतः बच्चों के प्रश्नों का उत्तर उनकी आयु समझ और ग्रहणशक्ति को ध्यान में रखकर दिया जाना चाहिए। पर कई बार माता-पिता बच्चों की जिम्मेदारियों से विमुख होकर उन्हें प्रश्नांे के उत्तर के लिए दादा-दादी के पास भेज देते हैं। वहां उन्हें काल्पनिक कहानियों के अलावा कुछ हासिल नहीं होता। कुछ लोग अपने बच्चों के प्रश्नों को टाल देते हैं। कह देते हैं कि तुम अभी बच्चे हो, इन बातों को क्या समझोगे जाओ जाकर खेलो। इस प्रकार के उत्तरों का बच्चों के ऊपर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बच्चे को तो जानकारी चाहिए। वह गलत जगह से जानकारी लेता है और उलटी-सीधी धारणाएं बना लेता है।             कुछ परिवारों में माता-पिता बच्चों को भला-बुरा कहने को एक हो जाते हैं और उसे झिड़कते रहते हैं इससे वे बच्चे की उपलब्धियों का महत्त्व घटा देते हैं। थोड़े से प्रतिकूल व्यवहार पर वे बेहद नाराज हो उठते हैं। कुछ परिवार ऐसे भी होते हैं जहाँ माता-पिता में से एक खूब डांटता-फटकारता है, तो दूसरा बच्चे का पक्ष लेने लगता है। बच्चे को समझ ही नही आता कि किसे सही माने। नतीजा यह होता है कि परिवार का माहौल बच्चे के विकास के अनुकूल नहीं रह जाता। ऐसे माहौल में पले बच्चे किसी न किसी प्रकार की कुंठा से ग्रस्त होते हैं।             यों नियंत्रण गलत नहीं है। गलत वह है जिसके बारे में सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डाक्टर वाटकिंस का कहना है कि ‘‘हम उस तरह के नियंत्रण की बात कर रहे हैं जिसमें माता-पिता बच्चे की हर हरकत पर नियंत्रण रखने का प्रयत्न करते हैं। बच्चे को सड़क या गली में जाने से रोकने के लिए घर के बाहर बाड़ जैसी कोई वास्तविक सीमा खड़ी करनेे के स्थान पर माता-पिता ऐसी दीवारें खड़ी कर देते हैं जो दिखाई नहीं देती। बच्चे से कहा जाता है कि यदि उसने अपने आप कोई खोज करने की कोशिश की या माता-पिता की बात न मानी तो उसका परिणाम भयंकर होगा।’’             बाल चिकित्साशास्त्री डाक्टर लेफर का कहना है कि ‘‘सभी माता-पिता किसी न किसी मामले में आचरण के मापदंड निर्धारित करके और माता-पिता के मूल्य दिल में बैठाने का प्रयत्न करके अपने बच्चों पर प्रभुत्व जमाने की कोशिश करते हैं। सीख और उदाहरण द्वारा प्रभुत्व जमाने में अन्तर है। डांटने और फटकारने वाले माता-पिता बच्चों को अपनी इच्छानुसार चलाने के लिए उन्हें आतंकित करने का रास्ता अपनाते हैं, जिसे किसी भी मायने में सही नहीं कहा जा सकता।             मनोवैज्ञानिक पाल का कहना है कि ‘‘माता-पिता से डांटे-फटकारे जाने वाले बहुत से बच्चे समझते हैं कि वे इसी लायक हैं। बड़ी उम्र के अन्य लोगों की चुप्पी और निष्क्रियता से बच्चों को विश्वास हो जाता है कि वे वाकई निकम्मे बुरे या डरपोक है। सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक बायरन एंगलैड के अनुसार, ‘‘जिन बच्चों की भावनाओं को ठेस पहंुचती है, बड़े होने पर उनका मानसिक विकास दूसरे बच्चों की अपेक्षा कम हो पाता है। ऐसा इसलिए होता है कि भावनाओं को ठेस पहंुचाते रहने से बच्चे के स्वाभिमान में निरन्तर हास होता चला जाता है।             बच्चे के मन को ठेस पहँुचाने वाले लोग बच्चे के अनुचित व्यवहार के कारण नहीं, अपनी मनोवैज्ञानिक समस्याओं के कारण ऐसा करते हैं। डांटने-फटकारने और गाली-गलौच करने वाले माता-पिता चाहे कम आमदनी वाले परिवार के हों या समृद्ध परिवार के आमतौर पर वे ऐसे लोग होते हैं जिन्हें स्वयं अपने माता-पिता से पर्याप्त प्यार नहीं मिला होता, न ही जिनका ठीक ढंग से पालन-पोषण हुआ होता है। प्रायः सभी यह समझने में असमर्थ होते हंै कि बच्चा जो व्यवहार करता है, उसका सम्बन्ध शायद किसी ऐसी बात से न हो जो उसके माता-पिता ने की है या जिन्हें करने में वे असमर्थ रहे हैं। उदाहरण के लिए गाली-गलौज करने वाले माता-पिता अक्सर यह समझते हैं कि अगर कोई बच्चा रो रहा है तो उसका कारण भूख या डर नहीं बल्कि यह है कि वह ‘बिगड़ा हुआ’ है या वह चाहता है कि उसे गोद में उठा लिया जाये।             वास्तविकता यह है कि उपेक्षा से बच्चों का दिल टूट जाता है। बच्चे को अपनी जिज्ञासा विकास या उपलब्धि का कोई भी सामान्य भावनात्मक पुरस्कार नहीं मिलता। जब कोई बच्चा पहली बार चलना सीखता है तो सामान्य माता-पिता की क्या प्रतिक्रिया होती है? वे प्रसन्न होते हैं और उसे और प्रोत्साहित करते हैं लेकिन जिस घर में प्यार और भावना नाम की कोई चीज नहीं होती वहां बच्चे की प्रगति पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता, अगर माँ-बाप में से किसी का ध्यान इस ओर जाता भी है तो उसमें एक तरह की झुंझलाहट सी होती है कि अब बच्चे की ज्यादा देखरेख करना जरूरी हो गया है। बहरहाल समाज-परिवार के लिए यह एक बीमारी है जिसमें स्वस्थ मनःस्थिति के बच्चे की कल्पना नहीं की जा सकती। यदि आप इस स्थिति को बदलना चाहते हैं तो सबसे पहले खुद को बदलिये। बच्चों को समझिए, जितना आप अपने संसार को अपनी भावनाओं को समझते हैं। बस्तों के बोझ तले दबता बचपन किशोर बच्चे बढती जिम्मेदारियां आज बच्चों को संस्कार कौन दे रहा है माँ दादी या टीवी बदलता बचपन

किशोर होते बच्चों को समझो पापा

सरिता जैन हार्मोंस और शारीरिक परिवर्तनों के दौर से गुजर रहे बच्चे के मन में इस दौर में ढेरों सवाल होते हैं और दूसरी ओर पैरेंट्स का अनुशासन और हिदायतों का शिकंजा और ज्यादा कसता जाता है। अगर आपका बेटा किशोरावस्था की दहलीज पर है तो वह शारीरिक और मानसिक सामंजस्य कैसे स्थापित करे, यह उसके लिए ही नहीं बल्कि आपके लिए भी एक बड़ा सवाल होता है। लड़कों में होने वाले हार्मोंनल परिवर्तन की वजह से उन्हें गुस्सा ज्यादा आता है और चिड़चिड़ापन बढ़ जाता है। थोड़े समय बाद दाढ़ी-मूँछ आना शुरू हो जाती है और आवाज में भी भारीपन आ जाता है जो कुछ समय बाद सही हो जाता है जिसका दूसरे बच्चे मजाक उड़ाते हैं। लड़कों को उनके शरीर में होने वाले परिवर्तनों के विषय में बताएँ। इस उम्र में अक्सर वे अपनी सेहत और साफ-सफाई की ओर से लापरवाह हो जाते हैं तो ऐसे समय में उन्हें अपनी शारीरिक सफाई का ध्यान रखने के लिए समझाएँ। किशोरावस्था में बच्चों के मन में अनेक सवाल होते हैं। घर में टीवी और इंटरनेट एक ऐसा माध्यम है, जिनसे वे जो चाहें, वे सूचनाएँ मिनटों में हासिल कर सकते हैं। अक्सर इंटरनेट पर घंटों चेटिंग चलती है और लड़के पोर्न साइट्स देखते हैं। यदि आप उन्हें ऐसा करते देखते हैं तो प्यार से समझाएँ और बताएँ कि उनकी उम्र अच्छी शिक्षा हासिल करके करियर बनाने की है। इन बातों की ओर से वे अपना ध्यान हटाएँ। इस उम्र में बच्चों का पढ़ाई पर ध्यान कम लगता है। छोटी-छोटी बात पर गुस्सा होना, हाइपर एक्टिव होना, डिप्रेशन, ज्यादा सोचना इस तरह की समस्याएँ होती हैं। गुस्से में वे अपने आप पर नियंत्रण नहीं रख पाते। यदि उनका व्यवहार नियंत्रण से बाहर हो जाए तो मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग जरूरी हो जाती है। उनके असामान्य व्यवहार को यदि गंभीरता से लिया जाए और शांति से हल निकाला जाए तो वे शांत और एकाग्रचित्त हो जाते हैं। इस उम्र में अक्सर लड़के थोड़े उच्छृंखल हो जाते हैं और उन्हें किसी की भी टोका-टोकी बुरी लगती है। ऐसे में पिता को उनसे संवाद करने की पहल करनी चाहिए। पिता को चाहिए कि बच्चे की समस्याएँ सुनें, उसके दोस्त बनें और उसे इस उलझनभरे दिनों में सुलझा हुआ माहौल दें। किशोर उम्र के बच्चों की सबसे बड़ी समस्या है उनकी पहचान का संकट। पहले से ही पहचान के संकट से जूझते बच्चे को सख्ती और अनुशासन पसंद नहीं आता है। अपने और बच्चों के बीच थोड़ी दूरी भी बनाकर रखें। बच्चों की हर छोटी-बड़ी बात की जासूसी नहीं करें। फोन पर यदि वह आपको देखकर अचानक चुप हो जाए तो समझ जाएँ कि उसे प्रायवेसी चाहिए। उसकी प्राइवेसी की कद्र करें। यदि वह अपने लिए अलग चीजों की माँग करता है, तो उसे पूरा करने का प्रयास करें। बच्चे का मानसिक संबल बनें। उनके साथ कलह न करें तो बच्चे प्यार से धीरे-धीरे आपकी समस्याओं को समझने का प्रयास करेंगे। इस उम्र के बच्चे, शारीरिक, मानसिक और हारमोनल परिवर्तन के दौर से गुजर रहे होते हैं। उनका मूड तेजी से बदलता है। किसी के दुःख से वे परेशान हो उठते हैं और किसी भी सीमा तक उनकी मदद करने को तैयार रहते हैं। कुछ बच्चे बहिर्मुखी हो जाते हैं तो कुछ अंतर्मुखी हो जाते हैं। भावनात्मक परिवर्तन के दौर में उनका मार्गदर्शन करें। इस उम्र में बच्चे एक-दूसरे के प्रति जल्दी आकर्षित हो जाते हैं। इस उम्र में आकर्षण होना स्वाभाविक है जो समय के साथ धीरे-धीरे कम हो जाता है। अगर मामला भावनात्मक जुड़ाव का हो तो पढ़ाई-लिखाई में मन नहीं लगता जिसका बच्चे की पढ़ाई पर बुरा असर पड़ता है। बच्चे को इन तमाम सचाइयों से प्यार से रूबरू कराएँ।

बच्चों को कल की तकदीर बनाने में रखे उनके पालन पोषण में कुछ ख़ास बातों का ख्याल

 डॉ. भारती गांधी,शिक्षाविद् एवं संस्थापक-संचालिका,सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से पाये ?:-एक बार मैं रेलवे स्टेशन पर कहीं जाने के लिए खड़ी थी तो मैंने देखा कि एक नौजवान अपने बूढ़े पिता का हाथ पकड़कर घसीट कर ट्रेन की तरफ ले जा रहा था। इस घटना को देखकर मेरे अन्दर बहुत पीड़ा हुई। मुझे ताज्जुब हो रहा था कि इस नौजवान की कैसे हिम्मत हुई कि वह अपने लगभग 70 वर्षीय बूढ़े पिता को कितनी बेरहमी से घसीटे। इस ट्रेन को आये हुए अभी कुछ ही सेंकण्ड हुए थे और अभी इस ट्रेन को अगले कुछ मिनटों तक प्लेटफार्म पर ही खड़ी रहना था। इस घटना से मेरे दिमाग में एक बात आई कि जब यह बच्चा छोटा रहा होगा तो उनके माता-पिता ने हो सकता है कि अपने बच्चे के साथ में कड़ाई का बर्ताव किया हो? और बच्चे के दिल में एक कुंठा बन गई हो कि जो बुजुर्ग हैं उनके साथ कड़ाई का व्यवहार करना अनुचित नहीं है। हमें अपने बच्चों को लाड़-प्यार से पालना चाहिए:-इस युग के कल्कि अवतार बहाउल्लाह ने कहा है कि प्रत्येक माता-पिता को अपने बच्चों को लाड़-प्यार से पालना चाहिए। उन्हें किसी चीज के लिए डांटना नहीं चाहिए। उन्हें किसी प्रकार का शारीरिक दण्ड नहीं देना चाहिए। और अगर उनका बच्चा कोई गलती करता है तो ऐसे में किसी भी माता-पिता को उस बच्चे को दण्ड के रूप में ऐसी चीज को देेने से वंचित कर देना चाहिए, जिस चीज को बच्चा सबसे ज्यादा प्यार करता हो। यह मनोवैज्ञानिकों द्वारा बताया गया सज़ा देने का तरीका है।सच का हौसला फेसबुक पेज बच्चों को दण्डित करने का सर्वश्रेष्ठ तरीका क्या हो ? :–अगर बच्चा रोज खेलने जाता हो तो उसे अगले दिन के खेल पर दण्ड के रूप में रोक लगा देनी चाहिए। इससे बच्चा अपनी गलती को समझ जायेगा। वास्तव में यह बच्चों को दण्ड देने का सर्वश्रेष्ठ तरीका हैं। बच्चे को किसी भी गलती के लिए उसकी सबसे प्यारी चीज से वंचित रखना चाहिए। यही काम स्कूल में टीचर भी कर सकती हैं। बच्चों को लज्जित न करें, उसको कान पकड़ कर खड़ा न करें, उसको क्लास से बाहर न निकालें, उसे बेंच के ऊपर खड़ा न करें, उसे सबके सामने किसी भी तरीके से प्रताडि़त न करें बल्कि कहें कि देखों! इस समय और बच्चे तो खेलेगे लेकिन तुमको इस समय में खेलना नहीं बल्कि अपना होमवर्क पूरा करना है, या स्कूल के बाद तुमको एक घण्टा रूककर काम करना पड़ेगा। शारीरिक दण्ड देना बच्चों के लालन-पालन का गलत तरीका है। उसके कारण बच्चों के मन-मस्तिष्क में दुर्भावनायें पैदा हो जाती है व ग्रंथिया पड़ जाती है।बच्चों को बतायें कि उन्हें कौन-कौन से काम करना चाहिए:-मैं एक माता का हृदय, एक टीचर का हृदय और एक समाज का सदस्य होने के नाते सोचती हूँ कि जो बातें इस युग के अवतार बहाउल्लाह ने बतायी है वे हम क्यों नहीं और लोगों को बतायें? हम क्यों नहीं बच्चों के मन-पसंद कार्य करते हैं? और जो काम हमें बच्चों से कराने होते हैं उन कामों को हम उन्हें क्यों नहीं बताते? ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार हम जब किसी चौराहे से गुजरते हैं तो यदि उस समय लाल बत्ती होती है तो हम रूक जाते हैं। इसी प्रकार से हमें बच्चों को बताना चाहिए कि देखों यह काम तो तुम कर सकते हो, यह तुम्हारी हरी बत्ती है। तुम प्यार कर सकते हो। तुम प्रणाम कर सकते हो। तुम पुस्तक पढ़ सकते हो। तुम कुर्सी पर बैठ सकते हो। तुम टाइम से खाना खा सकते हो। तुम गाना गा सकते हो। तुम अपनी माँ की गोद में बैठ सकते हो आदि सद्गुणों की बातें हमें बच्चों को हरी बत्ती के रूप में समझाना चाहिए। नारी संवेदना के स्वर बच्चों को गलत शिक्षाओं से दूर रखें:- इसके साथ ही हमें बच्चों को न करने योग्य कामों को लाल बत्ती के रूप में बताना चाहिए कि तुम किसी को अपशब्द नहीं बोल सकते। तुम दूसरों की बुराई नहीं करोगे। तुम दूसरों की पीठ पीछे निंदा नहीं करोगे। तुम्हें झूठ नहीं बोलना है। तुम्हें सदा ही इस तरह की बातों से दूर रहना है। फिर बच्चों को रोज-रोज एक ही बात दोहराई जायेगी कि यह करने योग्य कार्य है और यह न करने योग्य कार्य है। इससे बच्चों को इस बात को समझने में आसानी होगी कि उनके द्वारा किस प्रकार के काम किये जाने हैं।हमें बच्चों को ईश्वर द्वारा बताये गये तरीकों से ही पालना चाहिए:-बच्चे कांच के गिलास नहीं हैं जिन्हें हम गुस्से में आकर तोड़ देते हैं। हम बच्चों के साथ कांच के गिलास की तरह व्यवहार नहीं कर सकते। बच्चे हमें ईश्वर से उपहार स्वरूप प्राप्त होते हैं। बच्चे हमारी सम्पत्ति नहीं हैं। बच्चे हमारे पास, हमारी गोद में भगवान की देन हैं, भगवान की भेट हैं। इस प्रकार ईश्वर से प्राप्त उपहार स्वरूप बच्चे के साथ हमें वैसा ही व्यवहार करना चाहिए, जैसा व्यवहार ईश्वर हमसे कराना चाहता है। हमें प्रत्येक बालक को ईश्वर के बताये हुए तरीके से पाल पोसकर बड़ा करना चाहिए ताकि वे विश्व का प्रकाश बन सके। अटूट बंधन हमें प्रत्येक बच्चों को ईश्वर भक्त बनाना है:- किस काम को हमें करना है और किस काम को हमें नहीं करना है? इसको बताने के लिए युग-युग में राम, कृष्ण, बुद्ध, मोहम्मद, नानक, बहाउल्लाह आदि के रूप में ईश्वरीय प्रतिनिधि आते रहते हैं। इस युग की समस्याओं के समाधान हेतु कल्कि अवतार आये हैं। उन्होंने हमें बताया है कि हमें इस युग में किस काम को करना है और किस काम को नहीं करना है। हमें प्रत्येक बच्चे को भगवान का भक्त बनाना है। इस युग के अवतार बहाउल्लाह ने बताया है कि शादी भी किसी विशेष कारण अथवा किसी विशेष मकसद से होती हैं। इस सम्बन्ध में उन्होंने कहा है कि ‘‘हे दुनियाँ के लोगों जाओं शादी करों ताकि तुमसे वो पैदा हो जो दुनियाँ मे मेरा नाम ले।’’बच्चों के द्वारा ही सारी दुनियाँ में आध्यात्मिक साम्राज्य की स्थापना होगी:- हमें बच्चों के सामने कभी अपशब्द नहीं बोलना चाहिए। हमें बच्चों को यह नहीं कहना चाहिए कि तुम नालायक हो। तुम बेवकूफ हो। तुम दुनियाँ में कुछ नहीं कर सकते हो। इस तरह … Read more

बच्चों की शिक्षा सर्वाधिक महान सेवा है!

–डाॅ. जगदीश गाँधी, शिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ             ‘‘स्कूल चार दीवारों वाला एक ऐसा भवन है जिसमें कल का भविष्य छिपा है’’ आने वाले समय में विश्व में एकता एवं शांति स्थापित होगी या अशांति एवं अनेकता की स्थापना होगी, यह आज स्कूलों में बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा पर निर्भर करता है। एक शिल्पकार एवं कुम्हार की भाँति शिक्षकों का यह प्रथम दायित्व एवं कत्र्तव्य है कि वह बच्चों को आध्यात्मिक गुणों से इस प्रकार से संवारे और सजाये कि उनके द्वारा शिक्षित किये गये बच्चे ‘विश्व का प्रकाश’ बनकर सारे विश्व को आध्यात्मिक प्रकाश से प्रकाशित कर सकें। महर्षि अरविंद ने शिक्षकों के सम्बन्ध में कहा है कि ‘‘शिक्षक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से सींचकर उनमें शक्ति निर्मित करते हैं।’’              बच्चों की शिक्षा सर्वाधिक महान सेवा है – सर्वशक्तिमान परमेश्वर को अर्पित मनुष्य की ओर से की जाने वाली समस्त सम्भव सेवाओं में से सर्वाधिक महान सेवा है- (अ) बच्चों की शिक्षा, (ब) उनके चरित्र का निर्माण तथा (स) उनके हृदय में परमात्मा के प्रति प्रेम उत्पन्न करना। इसलिए हमारा मानना है कि बच्चों के मन-मस्तिष्क पर अपने शिक्षकों द्वारा दी गई नैतिक शिक्षाओं का अत्यधिक गहरा प्रभाव पड़ता है। टीचर्स बच्चों को इतना पवित्र, महान तथा चरित्रवान बना सकते हंै कि ये बच्चे आगे चलकर सारे समाज, राष्ट्र व विश्व को एक नई दिशा देने की क्षमता से युक्त हो सकें। एक बालक अच्छे भविष्य की आशा है। यदि एक भी बच्चा पूर्ण गुणात्मक व्यक्ति (टोटल क्वालिटी पर्सन-टी.क्यू.पी.) बन जाये तो वह विश्व में बदलाव लाकर उसे एकताबद्ध कर देगा।              एक अत्यन्त ही सुन्दर सी प्रार्थना है कि ‘हे मेरे परमात्मा मैं साक्षी देता हूँ कि तुने मुझे इसलिए उत्पन्न किया है कि मैं तुझे जाँनू तथा तेरी पूजा करूँ।’ परमात्मा को जानने का मतलब है परमात्मा की ओर से कृष्ण, बुद्ध, ईशु, मोहम्मद, नानक, बहाउल्लाह के माध्यम से धरती पर अवतरित हुई शिक्षाओं न्याय, समता, करूणा, भाईचारा, त्याग व हृदय की एकता को जानना और पूजा करने का मतलब है ईश्वर की इन्हीं शिक्षाओं पर चलना। हमारे प्रतिदिन के प्रत्येक कार्य-व्यवसाय परमात्मा की सुन्दर प्रार्थना बने। धरती पर आध्यात्मिक समाज की स्थापना के लिए तीन क्षेत्रों को उजागर करने की आवश्यकता है, जो कि अभी तक अविकसित हंै। ये तीन क्षेत्र हैं (अ) शिक्षा (ब) धर्म और (स) कानून, व्यवस्था और न्याय। इन तीनों का विस्तृत विवरण इस प्रकार है:- (अ) शिक्षा:                         आज के युग तथा आज की परिस्थितियों में विश्व मंे सफल होने के लिए बच्चों को टोटल क्वालिटी पर्सन (टी0क्यू0पी0) बनाने के लिए स्कूल को जीवन की तीन वास्तविकताओं भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक शिक्षायें देने वाला समाज के प्रकाश का केन्द्र अवश्य बनना चाहिए। टोटल क्वालिटी पर्सन ही टोटल क्वालिटी मैनेजर बनकर विश्व में बदलाव ला सकता है। उद्देश्यहीन तथा दिशाविहीन शिक्षा बालक को परमात्मा के ज्ञान से दूर कर देती है। उद्देश्यहीन शिक्षा एक बालक को विचारहीन, अबुद्धिमान, नास्तिक, टोटल डिफेक्टिव पर्सन, टोटल डिफेक्टिव मैनेजर तथा जीवन में असफल बनायेगी।              शिक्षा एक सतत् और रचनात्मक प्रक्रिया है। मानव प्रकृति में निहित क्षमताओं को विकसित करना और समाज की समृद्धि एवं प्रगति हेतु उनकी अभिव्यक्ति का संयोजन करना ही उसका लक्ष्य है। बच्चों को आध्यात्मिक, सामाजिक तथा भौतिक ज्ञान से सुसज्जित करके यह सम्भव होता है। सच्ची शिक्षा विश्लेषणात्मक योग्यताओं, आत्मविश्वास, संकल्प शक्ति और लक्ष्यपरक शक्तियों के विकास की क्षमताऐं प्रदान करती हैं। साथ ही वह ऐसी दृष्टि प्रदान करती है जो व्यक्ति को समुदाय के सर्वोत्तम हितों का संरक्षक तथा सामाजिक परिवर्तन का आत्मप्रेरित माध्यम बनने की योग्यता प्रदान करती है। (ब) धर्म:                परमात्मा की ओर से दिव्य अवतारों का युग-युग में अवतरण एक प्रगतिशील दैवी प्रेरणा के अन्तर्गत होता है। यह सच्चा ज्ञान है तथा इसका उचित उपयोग व जीवन में धारण करना बुद्धिमानी है। (पहला) स्वयं के जीवन में सफलता तथा (दूसरा) सामाजिक परिवर्तन के द्वारा पृथ्वी पर आध्यात्मिक सभ्यता स्थापित करने के ज्ञान तथा बुद्धिमत्ता दो सशक्त साधन हैं। परमात्मा सबसे ऊँची आत्मा है। वह सृष्टि का रचयिता है। हम उसे गाॅड, ईश्वर, अल्लाह, रब-नूर आदि नामों से पुकारते हैं। परमात्मा अजन्मा है। उसका कोई नाम तथा आकार-प्रकार नहीं है। परमात्मा को भौतिक आँखों से नहीं देखा जा सकता है। परमात्मा प्रकाश पुंज की तरह है। वह मनुष्य के पवित्र हृदय में आत्म तत्व के रूप में रहता है।                         परमात्मा की प्रगतिशील दैवीय प्रेरणा के मायने है कि परमात्मा द्वारा सिलसिलेवार श्रंृखला में युग-युग में अवतरित दैवीय शिक्षक कृष्ण (5000 वर्ष पूर्व), बुद्ध (2500 वर्ष पूर्व), ईशु (2000 वर्ष पूर्व), मोहम्मद (1400 वर्ष पूर्व), नानक (500 वर्ष पूर्व), बहाउल्लाह (200 वर्ष पूर्व) तथा उनकी शिक्षायें युग की आवश्यकता को पूरा करने के लिए विश्व के विभिन्न स्थानों में अवतरित हुई हैं। धर्म का बुनियादी उद्देश्य मानव जाति की एकता, मानवीय प्रेम तथा भाईचारे को विकसित करना है। बच्चों को बताना चाहिए कि सभी अवतार राम, कृष्ण, बुद्ध, ईशु, मोहम्मद, मोजज, अब्राहम, जोरस्टर, महावीर, नानक, बहाउल्लाह एक ही परमात्मा की ओर से आये हैं।                         आध्यात्मिक शिक्षा के अन्तर्गत बालक को पवित्र ग्रन्थों- गीता, कुरान, त्रिपटक, बाईबिल, कुरान, गुरू ग्रन्थ साहिब, किताबे अकदस में संकलित परमात्मा की शिक्षाओं का ज्ञान कराना चाहिए तथा परमात्मा की शिक्षाओं पर चलने के लिए प्रेरित करना चाहिए।  (स) कानून, व्यवस्था और न्याय:             बच्चों को बचपन से ही अपने माता-पिता के द्वारा बनाये नियमों तथा स्कूल में प्रिन्सिपल एवं स्कूल के टीचर्स द्वारा बनाये गये नियमों (या कानूनों) का पालन करना सिखाना चाहिए ताकि बड़े होकर जब वे समाज में प्रवेश करें तब वे समाज के नियमों एवं कानूनों का और न्याय का पालन करें। (5) कुछ उपयोगी विचार:             नेल्सन मण्डेला ने कहा है कि ‘शिक्षा सबसे अधिक शक्तिशाली हथियार है जिसके उपयोग से विश्व में बदलाव लाया जा सकता है।’ महान विचारक विक्टर ह्ूगो ने कहा है कि पूरे संसार की समस्त सैन्यशक्ति और बमों की शक्ति से भी अधिक शक्तिशाली ‘वह विचार होता है जिसका समय आ चुका हो।’ बालकों की भौतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक गुणों की संतुलित शिक्षा वह ‘विचार’ है जिसका समय आ चुका है।  (6)  धरती पर शैतानी सभ्यता के … Read more

बस्तों के बोझ तले दबता बचपन

                जब सुकुमार छोटे बच्चों को बस्ते के बोझ से झुका स्कूल जाते देखतीं हूँ तो सोचती हूँ कि देश मेरांआजाद हो गया पर भारतीय मानस अभी तक परतन्त्र है क्योंकि अंग्रेज भारत छोड़ गये लेकिन अभिभावकों में अपने बालक को सीबीएसई स्कूल में पढ़ा अव्वल कहलाने की चाह स्वतंत्र भारत में भी पूर्णरूपेण जिंदा है । नौनिहालों को देख बरबस ये पंक्तियां फूट पड़ती है ——-       आज  शिक्षा निगल रही बचपनबोझ बस्ते का कमर तोड़ रहा       क्यों करते हो इनसे अत्याचारभरने दो अब हिरनों सी कूदाल                  मानव संसाधन विकास मंत्रालय के द्वारा बनाई गई आठ सदस्यों की समिति बनाई जिसकी अध्यक्षता शिक्षाविद् प्रो .यशपाल कर रहे थे इसका उद्देश्य “स्कूली बोझ” का अध्ययन करना ही था इस समिति ने विभिन्न स्कूलों का सर्वे कर  पाया कि “बच्चों के साथ बस्ते के बोझ से भी बुरी जो बात है वह यह कि वे उस बोझ को समझ नहीं पाते है ।                    उधम , शैतानी की उम्र में किताबों का एक बोझ उन पर लाद दिया जाता है । बालसुलभ मन के एकाकी पन , छटपटाहट एवं खौफ को इस रिपोर्ट में देखा जा सकता है । रिपोर्ट में सुझाव भी दिये गये थे लेकिन उन सभी  सुझावों को सरकार के द्वारा इमानदारी से स्वी�कृत नहीं किया गया ।                   बच्चों पर जो बोझ है इसके लिए माँ बाप भी कम उत्तरदायी नहीं । कक्षा में अव्वल आने की चाह बच्चों से ज्यादा माँ – बाप को होती है इसलिए जो उम्र खेल-कूद की होती है उसमें बच्चे बस्ते  के बोझ तले होते है प्राय : दूसरी -तीसरी कक्षा से ही अच्छे अंक लाने के लिए पुस्तकों के साथ युद्ध लड़ने लगते है ।                  केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने भी स्कूल बैग के भार को कम करने की जरूरत के विषय में कहा है कि कक्षा एक या दो के छात्रों को गृहकार्य न दिया जाए और उच्च कक्षाओं में भी समय सारणी के अनुरूप ही केवल जरूरी पुस्तकें लाना सुनिश्चित किया जाए। तथा संचार -प्रौधोगिकी के माध्यम से शिक्षण पर बल दिया जाए।                   माता -पिता की इन्हीं महत्वाकांक्षाओं का फायदा उठा कर उत्कृष्ट शिक्षा देने की आड़ में स्कूल वाले ज्यादा से ज्यादा वसूलने में लगे रहते है और मनमाफिक पब्लिशर्स से किताबें खरीद बच्चों को देते है या नाम बताकर उसी दुकान सेखरीदने को बाध्य करते है और भरपूर मुनाफाखोरी करते है । स्कूल प्रशासकों के लिए यह धन्धाखोरी का नया साधन है ।                  एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक जे एस राजपूत ने इस सम्बन्ध में कहा कि प्राइवेट स्कूलों को अपनी किताबें चुनने का हक तो मिल गया है, लेकिन यह अच्छा व्यापार बन कर बच्चों के शोषण का जरिया बन गया है। स्कूल अधिक मुनाफा कमाने की दोड़ में बच्चों का बस्ता भारी करते जा रहे हैं।                   इस सम्बन्ध में सुझाव के तौर पर नये विद्यालयों को मान्यता देना बन्द करना चाहिए और तीस पर एक शिक्षक का अनुपात होना चाहिये । लेकिन सरकारी विद्यालयों में भी ऐसा नहीं है ।               एसोचैम के सर्वे के अनुसार,  “बस्ते के बढ़ते बोझ के कारण बच्चों को नन्ही उम्र में ही पीठ दर्द जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इसका हड्डियों और शरीर के विकास पर भी विपरीत असर होने का अंदेशा जाहिर किया गया है।”                   बस्ते के बोझ को कम करने के लिए प्रि -स्कूल समाप्त कर आरम्भिक कक्षा में साक्षात्कार की प्रक्रिया को बन्द कर देना चाहिए । प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों को केवल तनख्वाह से ही मतलब न रख छात्रों को पढाना भी चाहिए । इस स्तर पर मोमवर्क का भी बोझ नहीं होना चाहिए , बच्चों को उन्मुक्त वातावरण में जीने देना चाहिए । डॉ मधु त्रिवेदी 

आज हमारे नन्हें-मुन्नों को संस्कार कौन दे रहा है? माँ? दादी माँ? या टी0वी0 और सिनेमा?

– डा0 जगदीश गांधी, प्रसिद्ध शिक्षाविद् एवं संस्थापक–प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ (1) आज हमारे नन्हें–मुन्नों को संस्कार कौन दे रहा है?:-                 वर्तमान समय मंे परिवार शब्द का अर्थ केवल हम दो हमारे दो तक ही सीमित हुआ जान पड़ता हैं। परिवार में दादी–दादी, ताऊ–ताई, चाचा–चाची, आदि जैसे शब्दों को उपयोग अब केवल पुराने समय की कहानियों को सुनाने के लिए ही किया जाता है। अब दादी और नानी के द्वारा कहानियाँ सुनाने की घटना पुराने समय की बात जान पड़ती है। अब बच्चे टी0वी, डी0वी0डी0, कम्प्यूटर, इण्टरनेट आदि के साथ बड़े हो रहे हैं। परिवार में बच्चों को जो संस्कार पहले उनके दादा–दादी,  माँ–बाप तथा परिवार के अन्य बड़ेे सदस्यों के माध्यम से उन्हें मिल रहे थे, वे संस्कार अब उन्हें टी0वी0 और सिनेमा के माध्यम से मिल रहे हैं। (2) घर की चारदीवारी के अंदर भी बच्चा अब सुरक्षित नहीं है:-                 आज हमने अपने घरों में रंगीन केबिल टी0वी0 के रूप में बच्चों के लिए एक हेड मास्टर नियुक्त कर लिया है। बाल तथा युवा पीढ़ी इस हेड मास्टर रूपी बक्से से अच्छी बातों की तुलना में बुरी बातें ज्यादा सीख रहे हैं। टी0वी0 की पहुँच अब बच्चों के पढ़ाई के कमरे तथा बेडरूम तक हो गयी है। यह बड़ी ही सोचनीय एवं खतरनाक स्थिति है। दिन–प्रतिदिन टी0वी0 के माध्यम से फ्री सेक्स, हिंसा, लूटपाट, निराशा, अवसाद तथा तनाव से भरे कार्यक्रम दिखाये जा रहे हैं। बाल एवं युवा पीढ़ी फ्री सेक्स, लूटपाट, बलात्कार, हत्या तथा आत्महत्या करने वाले समाचारों से सीख रही है। (3) युवक ने टी0वी0 देखने में खलल पड़ने पर उठाया हिंसक कदम:-                      हैवानियत की सारी हदें पार कर कानपुर के श्यामनगर के भगवंत टटिया इलाके मंे हुई हिंसक वारदात में एक युवक ने सिर्फ इसलिए अपनी बहन और दो मासूम भान्जियों के गले रेत दिए क्योंकि उसके टी0वी0 देखने में खलल पड़ रही थी। इस युवक को अपने किए पर पछतावा भी नहीं है। इस हिंसक वारदात में माँ माया और बहन सुनीता के काम पर जाने के बाद जब बच्चे रोए तो अनीता ने टीवी देख रहे भाई सुनील से चाकलेट लाने को कहा, इस पर वह भड़क गया। सुनील ने दरवाजा बंद किया और बहन अनीता की गर्दन पर गड़ासे का तेज वार कर उसे मौत के घाट उतार दिया। बाद में सुनील ने मासूम भान्जियों प्रज्ञा व शिवी की भी गर्दन रेत डाली। इसके बाद सुनील ने अपनी गर्दन पर भी प्रहार कर लिया। (4) बच्चों के मन–मस्तिष्क पर टी0वी0 तथा सिनेमा के द्वारा पड़ने वाले दुष्प्रभाव:-                 इसी प्रकार की एक घटना में एक बच्चे ने अपनी दादी को सिर्फ इसलिए मार डाला था क्योंकि उसकी दादी ने उसे गन्दी पिक्चर देखने से मना किया था। उसके न मानने पर दादी ने टी0वी0 को बंद कर दिया था। टी0वी0 बंद होने से नाराज बच्चे ने गुस्से में आकर अपनी दादी की हत्या कर दी। टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले धारावाहिक बच्चों के कोमल मन–मस्तिष्क पर कितना गहरा दुष्प्रभाव डाल रहे हैं इसका एक उदाहरण केरल के इदुकी नामक स्थान पर देखने को मिला। वहाँ कक्षा पाँच की छात्रा ने टी0वी0 पर आत्महत्या का दृश्य देखा और उसकी नकल करने में उसकी जान चली गई। पत्थानम्थित्ता क्षेत्र में मंगलवार को आठ वर्ष की एक बच्ची टेलीविजन पर एक धारावाहिक देख रही थी। घर में माता–पिता नहीं थे, उसका पाँच वर्षीय भाई ही उसके साथ घर पर था। टी0वी0 पर आत्महत्या का दृश्य देख बच्ची को इसकी नकल करने की सूझी। दूसरे कमरे में उसने दरवाजा बंद कर लिया। काफी देर बाद जब वह बाहर नहीं आई तो भाई ने हल्ला मचाया। पड़ोसियों ने दरवाजा तोड़ा तो बच्ची फाँसी लगा चुकी थी। (5) सी0एम0एस0 के फिल्म डिवीजन एवं दो रेडियो स्टेशनों में शैक्षिक कार्यक्रमों का निर्माण:-                 सी0एम0एस0 के बच्चों ने प्रतिज्ञा की है कि वे गन्दी फिल्में नहीं देखेंगे। केवल शैक्षिक फिल्में देखेंगे। शैक्षिक फिल्में निर्मित करने के उद्देश्य से सी0एम0एस0 ने फिल्म डिवीजन की स्थापना की है। सी0एम0एस0 द्वारा दो रेडियो स्टेशन भी स्थापित किये हैं। सी0एम0एस0 ने अत्यन्त उच्च कोटि की प्रेरणादायी अनेक बाल फिल्मों का निर्माण किया है। संसार में ऐसी सशक्त बाल फिल्मों का निर्माण आज तक नहीं हुआ है। समाज को हिंसा, सेक्स, रेप, हत्या, आत्महत्या जैसे अपराधिक मामलों की प्रेरणा देने वाले अश्लील चैनलों को तत्काल बंद किया जाये। ताकि आगे किसी माँ–बाप के जिगर के टुकड़ों प्रिय बेटे–बेटी को असमय मुरझाने से बचाया जा सके। (6) प्रियजनों के मन में पनप रहे बुरे विचार को समय रहते पहचाने:-                 जीवन प्रभु का दिया है। किसी दूसरे की हत्या करना अथवा स्वयं आत्महत्या करना दोनों एक ही जैसी मनः स्थिति को दर्शाती हैं। और वह है ईश्वर से अलगाव। प्रभु की दृष्टि में ये दोनों ही स्थितियाँ पापपूर्ण हैं। बच्चे माता–पिता के लाड़ले बेटी–बेटे होते हैं। कोई अज्ञानी बालक या युवक आत्महत्या करके अपने परिजनों को जीवन भर के लिए अपराध बोध के बोझ तले रोते–बिलखते रहने के लिए छोड़ जाता है। हमारी आंखों में पड़ा मोह का पर्दा अपने प्रियजनों के मन में पनप रहे बुरे विचार को समय रहते देखने से रोके रखता है। बाद में वह बुरा विचार धीरे–धीरे परिपक्व हो जाता है। तब बहुत देर हो चुकी होती है। (7) परिवार विश्व की सबसे छोटी एवं सशक्त इकाई है:-                            परिवार में मां की कोख, गोद तथा घर का आंगन बालक की प्रथम पाठशाला है। परिवार में सबसे पहले बालक को ज्ञान देने का उत्तरदायित्व माता–पिता का है। माता–पिता बच्चों को उनके बाल्यावस्था में शिक्षित करके उन्हें अच्छे तथा बुरे अथवा ईश्वरीय और अनिश्वरीय का ज्ञान कराते हैं। बालक परिवार में आंखों से जैसा देखता है तथा कानों से जैसा सुनता है वैसा बालक के अवचेतन मन में धारणा बनती जाती हैं। बालक की वैसी सोच तथा चिन्तन बनता जाता है। बालक की सोच आगे चलकर कार्य रूप में परिवर्तित होती है। परिवार में एकता व प्रेम या कलह, माता–पिता का अच्छा व्यवहार या बुरा व्यवहार जैसा बालक देखता है वैसे उसके संस्कार ढलना शुरू हो जाते हंै। अतः प्रत्येक बालक को उसकी प्रथम पाठशाला में ही प्रेम, दया, एकता, करूणा आदि ईश्वरीय गुणों की शिक्षा दी जानी चाहिए। परिवार विश्व की सबसे छोटी एवं सशक्त इकाई … Read more

किशोर बच्चे : बढ़ती जिम्मेदारियाँ

  किशोरावस्था ! संधिकाल….. जहाँ बाल्यावस्था जाने को है और यौवन दस्तक दे रहा है। यह ऐसी अवस्था है कि बचपन पूरी तरह से गया नहीं और योवन द्वार पर आ खड़ा हुआ….ठीक ऐसे कि पहले से आया एक अतिथि गया नहीं कि दूसरे अतिथि ने घर के गेट पर दस्तक दे दी। देखा जाए तो किशोरावस्था ऐसी कोमल अवस्था है जहाँ सब कुछ अच्छा और सुंदर दिखाई देता है, जहाँ अंगड़ाई लेता यौवन सामने होता है, पर बचपन की कोमलता भी बनी रहती है। सतरंगी सपने उड़ान भरने, सीमाएँ तोड़ने को प्रेरित करते रहते हैं। ऐसे में बंधन, उपदेश बिलकुल अच्छे नहीं लगते। अच्छे लगते हैं तो केवल अपने मित्र ! उ नके साथ घूमना, बात करना….इसी में आनंद आता है। बस यहीं से मार्ग भटक जाने की घंटी सुनाई पड़ने लगती है। बहुत से मार्ग भटक भी जाते हैं, नशे की गिरफ्त में पहुँच जाते हैं। विपरीत लिंग के पारस्परिक आकर्षण में बंध कर अपनी मर्यादाएं और संस्कार भूल कर दैहिक संबंधों की ओर मुड़ जाते हैं। आजकल नगरों-महानगरों में लिव इन की प्रवृति लोकप्रिय होती जा रही है क्योंकि उसमें बंधन नहीं है, जिम्मेदारी नहीं है। जब तक अच्छा लगा साथ रहे, नहीं अच्छा लग रहा तो साथ खत्म। फिर कोई दूसरा साथ….. और ऐसी इच्छाओं, आकर्षणों का कोई अंत नहीं है।        तब यहीं से माता-पिता की विशेष जिम्मेदारी का आरम्भ होता है, विशेष रूप से माँ का। आप वो समय नहीं रहा की आपने डांट-डपट कर,धमका कर और आवश्यकता समझी तो थोड़ी पिटाई करके काम चला लिया। ऐसा करने पर आए दिन समाचारपत्रों और दूरदर्शन में कितने ही आत्महत्याओं के समाचार पढ़ने-सुनने को मिलते हैं। आज जिस तकनिकी युग में हम रह रहे हैं वहां एक क्लिक से ही सारा संसार आपके सामने आ खड़ा होता है, क्लिक से ही अधिकतर काम संपन्न हो जाते हैं। तो ऐसी स्थिति में हम पूरी तरह पुराने समय के साथ नहीं चल सकते। चलेंगे तो अपने बड़े होते बच्चों के साथ चलने में पीछे रह जाएंगे, उनके साथ कदम से कदम मिला कर चलने में पिछड़ जाएंगे।       पहले समाज में पिता कमा कर लाते थे और माँ घर देखती थी। संयुक्त परिवारों का चलन ज्यादा था। ऐसे में बच्चों को माँ के साथ परिवार के अन्य सदस्यों दादा-दादी, नाना-नानी,ताऊ-ताई, चाचा-चाची, बुआ, मौसी, मामा आदि सभी सम्बंधियों और घर के बच्चों का साथ भी मिलता था। पर आज संयुक्त परिवारों का चलन घटता जा रहा है, एकल परिवार बढ़ रहे हैं। कैरियर कांशस और महत्वाकांक्षी होने के कारण पिता के साथ-साथ माँ भी काम करने के लिए बाहर निकल रही है। अपने बच्चों को कम समय दे पाने के अपराधबोध को कम करने के लिए दामी उपहार, गैजेट्स दिलवाते हैं जो बाद में उन्हीं के लिए परेशानी का कारण बनते हैं।        ऐसे में माँ की भूमिका ही सबसे महत्वपूर्ण होती है। माँ ही अपनी मर्यादाओं- संस्कारों का परिचय करवाते हुए उनके व्यक्तित्व को निखारती है, खेल-खेल में, काम करते-करवाते हुए, बात करते हुए कब उसे संस्कारित-शिक्षित करती चली जाती है यह पता ही नहीं चलता। यह करने के लिए हम अपने बच्चों के मित्र बनें। उनके साथ गाने सुनें, फ़िल्म देखें, योग-व्यायाम करें, घूमने जाएँ, गप्पे मारें, उनके साथ अपनी दिन भर की बातें साझा करें और उनकी सुनें, उनकी समस्याएं सुन कर उनका निराकरण करें, उनके साथ-साथ उनके मित्रों के भी मित्र बनें…..फिर देखें आपके बच्चे आपके इतना निकट होंगे की वे निसंकोच अपनी हर बात हमसे साझा करेंगे और इसके लिए वे इधर-उधर नहीं भटकेंगे। कभी-कभी बच्चों के भटकाव की शुरुआत यहीं से होती है जब उन्हें यह लगता हैं कि उनके माता-पिता के पास उनकी बातें सुनने का समय नहीं नहीं है या वे कहां हमारी बात समझेंगे और तब मित्रों की तलाश उन्हें अच्छे-बुरे का आकलन करने का अवसर नहीं देती। हम मित्र बन कर उनके हृदय में पहुंचे।        ऐसी और भी बातें हैं जो करके हम जीवन में उन्हें आगे बढ़ाने में सहायक बन सकते हैं……हम हर समय उन्हें सिखाने की कोशिश न करें उनसे सीखें भी। हर समय अपने समय की दुहाई देते हुए टोका-टाकी करते हुए अपने को अप्रिय न बनाएं। समय के साथ चलते हुए उनके हमजोली बन कर अपने सपनों के साथ उनके सपनों को भी जीना सीखें, विवाद की जगह आत्मीय संवाद सदा बनाएं रखें। अपने समय की अपनी कुछ बातें शेयर करते हुए उन्हें बताएं की आज अपनी समस्याओं के बारे में अपने माता-पिता से बात करना कितना आसान है।         अपने किशोर बच्चों के साथ आप भी अपनी किशोर वय को जियें और इस सबसे बढ़ कर……उन पर विश्वास करें, शक नहीं। शक विद्रोह को जन्म देता है।       इन सब बातों के साथ अपने बच्चों के साथ  जियें जीवन के खूबसूरत पल……फिर देखिये उनके साथ सामंजस्य बैठाना, सीखना-सिखाना और उन्हें संभालना कितना सुगम होगा। पर पहले उनके लिए इस राह पर चलने के लिए हम पहला कदम बढ़ाएं तो सही। ~~~~~~~~~~~~~~~~~ डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई —————————————–