बाल दिवस पर विशेष कविता : पढो और बढ़ो :डॉ भारती वर्मा बौड़ाई

पढ़ो, बढ़ो, जीवन के दुर्गम पर्वत चढ़ो। मिलें बाधाएँ रौंद उन्हें नव पथ गढ़ो। दिखे कहीं अन्याय, सहो न आगे बढ़ लड़ो। पथ अपना चुन, उस पर अकेले ही बढ़ो। अँधियारा, डरना कैसा? अपना दीपक आप बनो। रंग भले ही हों कितने भी बस भोलापन चुनो। ———————— कॉपीराइट@डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई।

बाल दिवस पर विशेष : कविता हामिद की दिवाली : संगम वर्मा

दादी! ओ दादी! कौन ? कौन है, जो दादी पुकार रहा है ? अरे दादी! मैं, “हामिद” अरे हामिद! (ख़ुशी से स्वर भरते हुए ) तू कहाँ चला गया था बेटा ? देख न.…… कैसे तेरी बाट में ये आँखें  बूढ़ी हो गई है इक तू ही तो है जिसपे मुझे भरोसा है आजकल तो बुजुर्गों को तो सबने कोसा है तू इन बूढ़ी आँखों की बारिश का बोसा है रे ख़ुशी की थाली में जो तूने प्यार परोसा है (सर पे हाथ फेरती हुई और आँखों से निहारती हुई) बता न…. किधर गया था अरे दादी! मुझे तुम्हारी सबसे ज्यादा फ़िक्र लगी रहती है आखिर…. ग़रीब की ख़ुशी खूंटी पे टंगी रहती है मेले में गया था याद है पिछली दफा तुम्हारे लिए ईद में चिमटा लाया था आज भी दिवाली में तुम्हारे लिए मिट्टी के दीये लाया हूँ घर कैसे सूना रहने देता पर माँ….. दुनिया बहुत ही ज्यादा बदल गई है चारों ओर लूटमार और कोहराम है बगल में छुरी मुँह में राम – राम है जीना भी क्या जीना बस हाहाकार है महंगी हो गई दुनिया सब बेकार है दिखावे की दुनिया में सब जीते है दूसरों की ख़ुशी में जलते रहते हैं मिलावट रिश्तों में घर कर गई है ज़िन्दगी किश्तों में बसर गई है लोग पता नहीं कैसे गुज़र बसर कर लेते है साहूकार की दूकान के टी.वी. पे देखा था सहिष्णुता को लेकर बवाल मचा हुआ है ढूँढ रहें है पुरोधा आखिर कौन सा सवाल बचा हुआ है पहले हथियारों से लड़ा जाता था और अब बातों से लड़ा जाता है बहुत मार है.…बहुत मार है ऐसा क्यों है दादी कलियुग है बेटा घोर कलियुग है यहाँ कोई किसी का नहीं है अच्छा, ये बता दीये लेने क्यों गया था दादी, सारा भारत दिवाली मना रहा है अयोध्या के श्री राम सपरिवार लंका जीत कर आये थे तो साकेत नगरी ने ख़ुशी में दीये जलाए थे तो मैं भी दीये जलाऊँगा क्या पता मेरी अम्मी और अब्बा जान भगवान के यहाँ से वापिस हो आये दादी सबके घर दीये से जगमगा रहें हैं ख़ुशी की फुलझड़ी चला सारे खिलखिला रहें है मेरा भी जी हो आया की मैं भी दीये जलाऊँ अपनी दादी संग ये ज्योति पर्व मनाऊँ अपनी दादी संग ये ज्योति पर्व मनाऊँ (ख़ुशी से लबरेज़ दादी हामिद को लाड़ और दुलार देती हुई जुग जुग जिए मेरे लाल जुग जुग जिए ) #संगमवर्मा सहायक प्राध्यापक  सतीश चन्द्र धवन राजकीय महाविद्यालय  लुधियाना ,पंजाब 

२१ वीं सदी की चुनौतियाँ और बाल साहित्य :डॉ अलका अग्रवाल

21वीं सदी की चुनौतियाँ और बाल-साहित्य नन्हें, भोले बाल-मन को कहानियाँ और कविताएं एक नए स्वप्नलोक में ले जाती हैं जहाँ परियाँ, जादूगर, राजा-रानी, चंदा-तारे हैं तो दूसरी ओर पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, फूल-झरने हैं, और सब उनके साथ बोलते-बतियाते हैं। बाल-साहित्य एक ओर बच्चे की जिज्ञासा शांत करता है तो दूसरी ओर उसमें जिज्ञासा उत्पन्न भी करता है। यह बालक में संवेदनशीलता और सरसता का संचार करता है और चंाद जैसे उपग्रह को जो आकाशीय पिण्ड है बच्चों का प्यारा चंदा मामा बना देता है। बाल मन पर, बचपन की कविताओं और कहानियों की स्मृति कभी धूमिल नहीं होती क्योंकि प्रत्येक कविता-कहानी इतनी बार दोहराई जाती है कि उसके विस्मृत होने का प्रश्न ही नहीं उठता। मैं स्वयं के अनुभव से यह कह सकती हूँ कि बचपन में दादी-नानी से सुनी कहानियाँ या ’नंदन’ ’पराग’ में पढ़ी कहानियाँ आज भी मैं अपने बच्चों को सुनाती हूँ। इन पत्रिकाओं में पढ़ी अनगिनत कविताएँ मुझे आज भी याद हैं। बाल-साहित्य, बचपन को बु़िद्धमानी का भोजन प्रदान करता है, ’पंचतंत्र’ इसका उदाहरण है। विष्णु शर्मा ने राजनीति और राजनय जैसे गूढ़ विषयों को, पशु-पक्षी की छोटी-छोटी कथाओं के द्वारा कितना सरल और सरस बना दिया। रामायण और महाभारत की कहानियां हजारों वर्षो से न केवल धर्म और इतिहास का ज्ञान देती रही हैं, वरन् नैतिक शिक्षा और चरित्र निर्माण के महत्वपूर्ण दायित्व का निर्वाह भी करती रही हैं। जब कहानी के किसी पात्र को झूठ बोलने, चोरी करने पर दण्ड मिलता है, बच्चे की चेतना और आत्मा पर भी इसका अमिट प्रभाव होता है। इस प्रकार बाल-साहित्य, जीवन का अभिन्न अंग बन जाता है, जिसका चरित्र-निर्माण में अमूल्य योगदान होता है। साहित्य के माध्यम से पशु-पक्षी एवं संपूर्ण प्रकृति के साथ बच्चा तादात्म्य स्थापित करता है। जब वह इन कथाओं में चिडि़या, तितली, बिल्ली, चूहा यहाँ तक कि चींटी के प्रति भी प्रेम, मैत्री, करूणा, क्षमा अनुभव करता है तो बडे़ होने पर भी वह इनके क्या किसी के प्रति हिंसक या कठोर नहीं हो सकता। बच्चों की कहानियों में कुत्ता-बिल्ली, बंदर-हिरन सभी मनुष्य की तरह और मनुष्य की तरह और मनुष्य की भाषा में ही बात करते हैं और उनमें सभी मानवीय-गुण और दोष होते है,                                                                      इसलिए कभी कभी तो मासूम बच्चे यथार्थ में फूलों और पक्षियों से बात करने का प्रयास भी करते हैं। उनके लिए कथाओं और जगत में कोई अंतर ही नहीं होता। 21वीं शताब्दी में भारत में भी संयुक्त परिवारों का स्थान, एकल परिवार लेते जा रहे हैं, अपने वृद्धों को भी आधुनिक नगरीय सभ्यता बाहर का (वृद्धाश्रम का) रास्ता दिखा रही है, इसलिए उनके ज्ञान और अनुभव के निचोड़ से नई पीढ़ी पूरी तरह वंचित है। आज जहाँ ’माँ’ भी बाहर जाकर कार्य करने लगी है, वह भी बच्चों को अधिक समय नहीं दे सकती, ऐसी स्थिति में बच्चों के हिस्से में आया है ’अकेलापन’। हर घर में एक ’बुद्धू बक्सा’ (टी.वी.) और कम्प्यूटर ही उनका दोस्त बन गया है। तकनीक का यह प्रहार, बचपन को असमय ही बड़ा कर रहा है और बाजार की, बच्चों की दुनिया में घुसपैठ हो गई है। आज बच्चों की पसंद-नापसंद बाजार निर्धारित कर रहा है और बच्चों को विज्ञापन का प्रमुख अंग बना कर, उनसे उनका बचपन छीन रहा है। इन सब कारणों से जितना ’जैनरेशन गैप’ अब दिखाई दे रहा है, उतना अतीत मे कभी नहीं रहा। तकनीक ने धीरे-धीरे संस्कृति का स्थान लेना शुरू कर दिया है। ऐसे परिवर्तित परिदृश्य में बाल-साहित्य की भूमिका और अधिक बढ़ जाती है। आज जब प्रत्येक नगर और गाँव में अंग्रेजी स्कूल,कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं, इन स्कूलों में अग्रेंजी की ’नर्सरी राइम्स’ रटाई जाती हैं, जिनकी विषय-वस्तु भी विदेशी हीे होती है (लंदन ब्रिज इज फाॅलिग डाउन)। हमें बचपन के लिए संस्कार और भारतीय संस्कृति में रची-बसी, रोचक और बाल-मनोविज्ञान के अनुरूप छोटी-छोटी कविताओं की आवश्यकता है। जो अंग्रेजी की नर्सरी राइम का स्थान ले सकें। साहित्य के अन्य क्षेत्रो की तुलना में बाल-साहित्य कम ही लिखा गया है और हम दोष देते हैं आज के बच्चों को। आरोप लगाते हैं कि वे किताबें पढ़ने के स्थान पर, टी.वी. पर कार्टून ही देखते रहते है।यह तो निश्चित ही है कि जैसी श्वेत-श्याम, पुस्तकें हम अपने बचपन में बड़े चाव से पढ़ा करते थे, आज के बच्चों से हम अपेक्षा कर ही नहीं सकते। आज की चमकदार और सतरंगी दुनिया के अनुरूप बाल-साहित्य को भी अपना स्वरूप बदलना होगा। आज का बच्चा विदेशी चैनलो पर ’डोरेमाॅन’, ’कितरेत्सु’, ’शिनचैन’ देखकर बड़ा हो रहा है, जहाँ न उसका अपने अतीत से साक्षात्कार होता है और न ही अपनी संस्कृति और नैतिक मूल्यों से। आज अगर हिन्दी की बाल-पत्रिकाओं की बात की जाए तो उनकी संख्या अंगुलियों पर गिनने लायक हैं। बाल् साहित्य के क्षेत्र में इस रिक्तता को भरने का प्रयास करना भविष्य के लिए मूल्यवान कार्य होगा। बालपत्रिकाएं, बच्चों को नियमित पाठक बनाती है। साहित्य की समस्त विधाओं से उनका साक्षात्कार होता है। इनके माध्यम से बच्चे न केवल अच्छे पाठक बनते हैं बल्कि ये भविष्य के अच्छे लेखक भी तैयार करती हैं। अभिभावक, शिक्षक और स्कूलों में वाचनालय इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य कर सकते हैं। गीली मिट्टी पर निशान स्थायी होते हैं, इसी प्रकार बाल-मन को भी साहित्य के माध्यम से अपेक्षित दिशा में विकसित किया जा सकता है। बाल-साहित्य ज्ञान के साथ, सृजनात्मकता का भी विकास करता है, बच्चे को सकारात्मक सोच प्रदान करता है और कलात्मक और रचनाधर्मी मन को नए आयाम प्रदान करता है। बहुत छोटे बच्चों को चित्र अधिक आकर्षित करते हैं, बच्चा कविता या कहानी के साथ बार-बार चित्र देखना चाहता हैं और उसका चेहरा हर बार संतोष और प्रसन्नता से चमकने लगता है। साहित्य के पात्र जैसे उसकी आंखो के सामने साकार हो जाते है उसके साथी बन जाते हं। वह उससे गपियाता है व उसके अकेलेपन को बांट लेते हैं। बाल-साहित्य की प्रत्येक विधा में नई दृष्टि से कलम चलाने की जरूरत है। कथा-कहानी, कविता, पद्य-कहानी, नाटक, संस्मरण, उपन्यास- प्रत्येक विधा में इस तरह के साहित्य-सृजन की जरूरत है … Read more

क्यों बदल रहे हैं आज के बच्चे ?

                                                     बचपन ………… एक ऐसा शब्द जिसे बोलते ही मिश्री की सी मिठास मुँह में घुल जाती है ,याद आने लगती है वो कागज़ की नाव ,वो बारिश का पानी,वो मिटटी से सने कपडे ,और वो नानी की कहानियाँ। बचपन……. यानी उम्र का सबसे खूबसूरत दौर ………माता –पिता का भरपूर प्यार ,न कमाने की चिंता न खाने की ,दिन भर खेलकूद …विष –अमृत ,पो शम्पा , छुआ –छुआई ,छुपन –छुपाई।या यूँ कह सकते हैं…… बचपन है सूरज की वो पहली किरण जो धूप बनेगी ,या वो कली जिसे पत्तियों ने ढककर रखा है प्रतीक्षारत है फूल बन कर खिलने की ,या समय की मुट्ठी में बंद एक नन्हा सा दीप जिसे जगमग करना है कल। कवि कल्पनाओं से इतर…… बच्चे जो भले ही बड़ों का छोटा प्रतिरूप लगते हों पर उन पर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है क्योकि वो ही बीज है सामाजिक परिवर्तन के, कर्णधार है देश के भविष्य के।  क्यों बदल रहे हैं आज के बच्चे ? वैसे परिवर्तन समाज का नियम है…जो कल था आज नहीं है जोआज है कल नहीं होगा और हमारे बच्चे भी इससे अछूते नहीं हैं। परिवर्तन सकारात्मक भी होते हैं नकारात्मक भी। इधर हाल के वर्षों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के असर ,भौतिकतावादी दृष्टिकोण ,तेज़ी से बदलते सामाजिक परिवेश के चलते बच्चों के सोच -विचार ,भाषा ,मनोविज्ञान आदि में वांछित -अवांछित अनेकों बदलाव हुए हैं। जहाँ बच्चों के सामान्य ज्ञान में वृद्धि हुई है वही मासूमियत में कमी हुई है। अगर मैं आज के बच्चों की तुलना आज से बीस -पच्चीस साल पहले के बच्चों से करती हूँ तो पाती हूँ की आज के बच्चों में तनाव , निराशा अवसाद के लक्षण ज्यादा हैं ,जो एक चिंता का विषय है। दूसरी तरफ मोटापा ,डायबिटीस ,उच्च रक्तचाप जैसी तथाकथित बड़ों की बीमारियाँ बचपन में अपने पाँव पसार रहीं हैं। साथ ही साथ बच्चों में हिंसात्मक प्रवत्ति बढ़ रही है। यह निर्विवाद सत्य है की बचपन में तेजी से बदलाव हो रहे हैं। जहाँ शिक्षित माता -पिता ,एक -दो बच्चों पर सीमित रह कर अपने बच्चों को पहले से ज्यादा सुविधायें ,उच्च शिक्षा आदि देने में समर्थ हुए हैं वहीँ बहुत कुछ पाने की होड़ में कुछ छूट रहा है ,कुछ ऐसा जिसे संरक्षित किया जाना आवश्यक है। क्योकि बच्चे ही कल का भविष्य है ,हमारी सोच ,सभ्यता व् संस्कृति के वाहक हैं ,इसलिए यह एक गंभीर विवेचना का विषय है। तो आइये इसके एक -एक पहलू पर विचार करे………………. सच ही कहा गया है “बच्चों को समझना कोई बच्चों का खेल नहीं है “ ठहरिये मम्मी ! रोबोट नहीं हैं बच्चे……….  पार्क में ,गली मुहल्लों में अडोस -पड़ोस में अक्सर आप को छोटे बच्चों की माताएं बात करती हुई मिल जाएँगी………… ‘”मेरा बेटा तो ६ महीनें में बैठने लगा था ,आपकी बिटिया तो शायद सात महीने की हो गयी ,अभी बैठती नहीं “……. आप डॉक्टर को दिखा लो क्या पता कुछ समस्या हो। बस हो गयी मम्मी तनावग्रस्त ………… दादी ,नानी के समझाने से समझने वाली नहीं, …………. हर बच्चे का विकास का एक अपना ही क्रम होता है ,कोई बैठना पहले सीखता है कोई चलना। शुरू हो जाते है डॉक्टरों के यहाँ के चक्कर पर चक्कर। धीरे -धीरे वो अपना यह तनाव दूध के साथ बच्चों को पिला देती हैं…………… शायद यहीं से शुरू होता बच्चों के रक्त में बहने वाले तनाव और उससे उन की मनोदशाओं पर असर। अकेला हूँ मैं………. यह सत्य है की जनसँख्या हमारे देश की एक बहुत बड़ी समस्या रही है। पर आज़कल के शिक्षित माता -पिता के “हम दो हमारा एक ” के चलते बच्चे घर में अकेले हो गए हैं, ना भाई ना बहन………. ना राखी ,ना दूज…………… हर त्यौहार फीका ,हर मज़ा अधूरा। बचपन में साथ -साथ पलते बढ़ते भाई -बहन लड़ते -झगड़ते ,खेलते -कूदते एक खूबसूरत रिश्ते के साथ दोस्ती के एक अटूट बंधन में भी बंध जाते है। कितनी समस्याएं माता -पिता को भनक लगे बिना भाई -बहन आपस में ही सुलझा लेते हैं। अकेले बच्चों के जीवन में बहुत ही सूनापन रहता है। साथ के लिए घर में कोई हमउम्र नहीं होता। यह अकेलापन या तो अन्तर्मुखी बना देता है या विद्रोही। कहाँ है दादी -नानी? …………  बचपन की बात हो और दादी के बनाये असली घी के लड्डू या नानी की कहानियों की बात ना हो तो बचपन कुछ अधूरा सा लगता है। पर दुखद है आज के बच्चे इतने भाग्यशाली नहीं हैं। दो जून रोटी की तलाश में अपना गाँव -घर छोड़ कर देश के विभिन्न कोनों में बसे लोगों के बच्चे दादी और नानी के स्नेहिल प्यार से वंचित ही रह जाते हैं …………… और उस पर यह कमर तोड़ महंगाई जिस की वजह से घर का खर्च चलाने के लिए माँ -पिता दोनों को काम पर जाना होता है. ………और मासूम बच्चे सौप दिए जाते हैं किसी आया के हांथों या आँगन वाडी में। यह सच है की पैसे के दम पर सुविधायें खरीदी जा सकती हैं पर अफ़सोस माँ का प्यार , परिवार के संस्कार , घर का अपनापन यह दुकान पर बिकता नहीं है। क्या कहीं न कहीं इसी वजह से बच्चे अधिक चिडचिडे ,बदमिजाज व् क्रोधी हो रहे है ?इसका एक दुखद पहलू यह भी है की आंगनवाडी में पले यह बच्चे वृधावस्था में अपने माता -पिता का महंगे से महंगा ईलाज तो करा देते है……………. पर उनका अकेलापन बांटने के लिए समय………समय हरगिज़ नहीं देते। क्यों दोष दे हम उन्हें भी ?सीखा ही नहीं है उन्होंने समय देना। सीखा ही नहीं है उन्होंने कि घर बंधता है ,परस्पर विचारों के आदान -प्रदान से ,प्रेम से और समय देने से। मोबाईल कंप्यूटर………. “सौ सुनार की एक लुहार की…”……  बचपन को बदलने सबसे बड़ा हाथ अगर किसी का है तो वह है मोबाईल और कंप्यूटर। अक्सर बच्चों के हाथों में मोबाईल देख कर मुझे एक दोहा याद आ जाता है। ………… “देखन में छोटे लगे ,घाव करें गंभीर “. इसका सकारात्मक ,और नकारात्मक दोनों प्रकार का असर होता है…………… सकारात्मक असर यह है की ,बच्चों को घर बैठे दुनिया भर का … Read more