कुम्हार और बदलते व्यापार का समीकरण

दीपावली की बात करते ही मेरे जेहन में बचपन की दीवाली आ जाती है | वो माँ के हाथ के बनाये पकवान , वो रिश्तेदारों का आना -जाना , वो प्रसाद की प्लेटों का एक घर से दूसरे घर में जाना और साथ ही घर आँगन बालकनी में टिम-टिम करते सितारों की तरह अपनी जगमगाहट से  अमावस की काली रात से लोहा लेते मिटटी के दिए | मिटटी के दिए याद आते ही एक हूक  सी उठती है क्योंकि वो अब हमारा घर आँगन रोशन नहीं करते | वो जगह बिजली की झालरों ने ले ली है |  कुम्हारों को समझना होगा बदलते व्यापार का समीकरण  मिटटी के दिए का स्थान बिजली की झालरों द्वारा ले लेने के कारण अक्सर कुम्हारों की बदहाली का वास्ता देते हुए इन्हीं को ज्यादा से ज्यादा खरीदने से सम्बंधित लेख आते रहे हैं ताकि कुम्हारों के जीवन में भी कुछ रोशिनी हो सके | मैं स्वयं भी ऐसी ही एक भावनात्मक परिस्थिति से गुजरी जब मैंने “मंगतलाल की दिवाली “कविता लिखी | कविता को साइट पर पोस्ट करने के बाद आदरणीय नागेश्वरी राव जी का फोन आया | उन्होंने कविता के लिए बहुत बधाई दी साथ ही यह भी कहा आप कि कविता संवेदना के उच्च स्तर पर तो जाती है पर क्या इस संवेदना से वो जमाना वापस आ सकता है बेहतर हो कि हम कुम्हारों के लिए नए रोजगार की बात करें | साहित्य का काम नयी दिशा देना भी है | जब मैंने उनकी बात पर गौर किया तो ये बात मुझे भी सही लगी | मिटटी के दिए हमारी परंपरा का हिस्सा हैं इसलिए पूजन में वह हमेशा रहेंगे | मंदिर में व् लक्ष्मी जी के आगे वही जलाये जायेंगे | शगुन के तौर पर बालकनी में व् कमरों में थोड़े दीपक जलेंगे परन्तु बालकनी में या घर के बाहर जो बिजली की सजावट होने लगी है वो आगे भी जारी ही रहेगी , क्योंकि पहले सभी मिटटी के दिए जलाते थे  इसलिए हर घर में उजास उतना ही रहता था | दूसरे तब घरके बाहर इतना प्रदूषण नहीं रहता था , इस कारण बार -बार बाहर जा कर हम दीयों में तेल भरते रहते थे , और दिए जलते रहते थे | अब थोड़ी शाम गहराते ही इतना प्रदूषण हो जाता है कि बार -बार घर के बाहर निकलने का मन नहीं करता | ऐसे में बिजलीकी झालरें सही लगती हैं | तो मुख्य मुद्दा ये हैं कि हमें कुम्हारों को दिए के स्थान पर कुछ ऐसा बनाने के लिए प्रेरित करना चाहिए जो साल भर बिके  | दीवाली में दिए बनाये अवश्य पर उनकी संख्या कम करें ताकि भारी नुक्सान ना उठाना पड़े | हमेशा से रहा है नए और पुराने के मध्य संघर्ष  अगर आप ध्यान देंगे तो ये समस्या केवल कुम्हारों के साथ नहीं है जब भी कोई नयी उन्नत टेक्नोलोजी की चीज आती है तो पुरानी व् नयी में संघर्ष होता ही है | ऐसी ही एक फिल्म थी नया दौर जिसमें टैक्सी और तांगे  के बीच में संघर्ष हुआ था | फिल्म में दिलीप कुमार तांगे वाला बना था और उसकी जीत दिखाई गयी थी | जो उस समय के लोंगों को वाकई बहुत अच्छी लगी थी , परन्तु हम सब जानते हैं कि तांगे बंद हुए और ऑटो , टैक्सी आदि चलीं |  यही हाल मेट्रो  आने पर ऑटो के कम इस्तेमाल से होने लगा | जहाँ मेट्रो जाती है लोग ऑटो के स्थान पर उसे वरीयता देते हैं , क्योंकि किराया कम है व् सुविधा ज्यादा है | फोन आने पर तार बंद हुआ | मोबाइल आने पर पी .सी .ओ बंद हुए | मुझे याद है राँची  में जब हमारे यहाँ लैंडलाइन फोन नहीं था तब हम घर केवल ये बताने के लिए हम ठीक हैं १५ मिनट पैदल चल कर पी सी ओ जाते थे , फिर लम्बी -लम्बी लाइन में अपनी बारी का इंतज़ार करते थे | जिन लोगों ने पीसी ओ बूथ लगाए उन सब की दुकाने बंद हुई | मेरा पहला नोकिया फोन जो उस समय मुझे अपनी जरूरत से कहीं ज्यादा लगता था कि तुलना में आज के महंगे स्मार्ट फोन में भी मैं कुछ कमियाँ ढूंढ लेती हूँ | सीखने होंगे  व्यापर के नियम  कहने का तात्पर्य ये है कि जब भी कोई व्यक्ति कुछ बेंच रहा है …. तो उसे व्यापर में होने वाले बदलाव पर ध्यान रखना होगा  और उसी के अनुसार निर्णय लेना होगा | ये नियम हर व्यापारी पर लागू होता है चाहें वो सब्जी बेचनें वाला हो , दिए बेंचने वाला हो या अम्बानी जैसा बड़ा व्यापारी हो | व्यापर बदलते समय की नब्ज को पकड़ने का काम है , अन्यथा नुक्सान तय है | जैसा कि कई लोग उस व्यापर में पैसा लगते हैं जो कुछ समय बाद  खत्म होने वाला होता है , ऐसे में लाभ की उम्मीद कैसे कर सकते हैं | समय को समझना हम सब का काम है , क्योंकि वो हमारे लिए इंतज़ार नहीं करेगा | अगर आप नौकरी में भी हैं तो आने वाले समय में कुछ नौकरियां भी खतरे में है …. 1) ड्राइवर — टेस्ला इलेक्ट्रिक से चलने वाली कारें बाज़ार में उतार चुका है | जैसे -जैसे ये टेक्नोलोजी सस्ती होगी प्रचुर मात्र में अपनाई जायेगी | ऑटो , टैक्सी ड्राइवर की नौकरीयाँ तेजी से घटेंगी | 2)बैक जॉब्स – जैसे -जैसे ऑनलाइन बैंकिंग ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल होने लगी है जिस कारण लोगों का बैंक जाना कम हो रहा है | अत : भविष्य में बैंक क्लर्क के जॉब घटेंगे | 3)प्रिंटिंग प्रेस – आज भले ही हम अपनी किताब छपवाने की चाहते रखते हो पर भविष्य में बुक की जगह इ बुक लेंगीं क्योंकि छोटे होते घरों में इतनी किताबें रखने की जगह नहीं होगी | अभी ही मुझ जैसे पुस्तक प्रेमियों को ये सोचना पड़ता है कि जितनी किताबें मैं खरीदती हूँ उन्हें किसी पुस्तकालय को दे दूँ | दूसरी बात ये भी है जब पुस्तकें फोन पर होंगीं तो आप यात्रा में बिना भार बढाए ले जा सकते हैं | तीसरे किताबें कम छपने से पेपर की बचत होगी … हालांकि एक प्लास्टिक पेपर पर … Read more

मंगतलाल की दिवाली

हम सब वायु , ध्वनि , जल और मिटटी के प्रदूष्ण के बारे में पढ़ते हैं … पर एक और प्रदुषण है जो खतरनाक स्तर तक बढ़ा है , इसे भी हमने ही खतरनाक स्तर तक बढाया है पर हम ही इससे अनभिज्ञ हैं … कैसे ? आइये समझें मंगत्लाल की दिवाली से काव्य कथा -मंगतलाल की दिवाली  देखते ही पहचान लिया उसे मैंने आज के अखबार में दिखाने को दिल्ली का प्रदूष्ण जो  बड़ी-बड़ी लाल –लाल आँखों वाले का छपा है ना फोटू वो तो मंगत लाल है अरे , हमारे इलाके ही में सब्जियां बेंचता है मंगत लाल दो पैसे की आस -खींच लायी है उसको परदेश में सब्जी के मुनाफे में खाता रहा है आधा पेट बाकी जोड़ -जोड़ कर भेज देता है अपने देश उसी से भरता है पेट परिवार का , जुड़ते हैं बेटी की शादी के पैसे और निपटती है ,हारी -बिमारी , तीज -त्यौहार और मेहमान कई बरस से गया नहीं है अपने गाँव , पूछने पर खीसें निपोर कर देता है उत्तर का करें ? जितना किराया -भाडा में खर्च करेंगे उतने में बन जायेगी , टूटी छत या हो जायेगी घर की पुताई या जुड़ जाएगा बिटिया के ब्याह के लिए आखिर सयानी हो रही होगी चार बरस हो गए देखे हुए , मंगतलाल बेचैन दिखा  इस दीवाली पर गाँव जाने को तपेदिक हो गया अम्मा को मुश्किल है  बचना हसरत है बस देख आये एक बार इसीलिए उसने दीवाली से कुछ रोज पहले भाजी छोड़ लगा लिया दिये का ठेला सीजन की चीज बिक ही जायेगी , मुनाफे से जुड़ जाएगा किराए का पैसा और जा पायेगा अपने गाँव  मैंने, हाँ मैंने  देखा था मंगत को ठेला लगाये हुए मैं जानती थी कि उसकी हसरत फिर भी अपनी  बालकनी में बिजली की झालर लगाते हुए मेरे पास था , अकाट्य तर्क एक मेरे ले लेने से भी क्या हो जाएगा , बाकि तो लगायेगे झालर शायद यही सोचा पड़ोस के दुआ जी ने , वर्मा जी ने और सब लोगों ने सबने वही किया जो सब करते हैं , सज गयीं बिजली की झालरे घर -घर , द्वार -द्वार  और बिना बिके  खड़ा रह गया दीपों का ठेला       अखबार में अपनी फोटू से बेखबर आज मंगतलाल  फिर बेंच रहा है साग –भाजी आंखे अभी भी है लाल पूछने पर बताता है भारी  नुक्सान हो गया बीबीजी , बिके नहीं दिए, नहीं जुड़ पाया किराए-भाड़े का पैसा   और कल रात अम्मा भी नहीं रहीं , कह कर ठेला ले कर आगे बढ़ गया मंगत लाल शोक मनाने का समय नहीं है उसके पास उसके चलने से चल रहीं हैं कई जिंदगियाँ  यहाँ से बहुत दूर , उसके गाँव में    मैं वहीं सब्जी का थैला पकडे जड़ हूँ ओह मंगत लाल ….तुम्हारी दोषी हूँ मैं , दुआ जी , शर्मा जी और वो सब जिन्होंने सोचा एक हमारे खरीद लेने से क्या होगा और झूठा है ये अखबार भी जो कह रहा है दिल्ली के वायु प्रदूषण  से लाल हैं तुम्हारी आँखें  हां ये आँखे प्रदूषण  से तो लाल हैं पर ये प्रदूषण सिर्फ हवा का तो नहीं ….   वंदना बाजपेयी      बैसाखियाँ   एक गुस्सैल आदमी   सबंध      रंडी एक वीभत्स भयावाह यथार्थ     आपको    “  मंगतलाल की दीवाली “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |   filed under: , poetry, hindi poetry, kavita, diwali, deepawali

वो कन्नौज की यादगार दीपावली

यूँ तो हर बार दिवाली बहुत खास होती है पर उनमें से कुछ होती हैं जो स्मृतियों के आँगन में किसी खूबसूरत रंगोली की तरह ऐसे सज जाती हैं कि हर दीवाली पर मन एक बार जाकर उन्हें निहार ही लेता है | ऐसी ही दीवालियों में एक थी मेरे बचपन में मनाई गयी कन्नौज की दीपावली | वो कन्नौज की यादगार  दीपावली कन्नौज यूँ तो कानपुर के पास बसा एक छोटा शहर है पर इतिहास में दर्ज है कि वो कभी सत्ता का प्रतीक रहा था | राजा हर्षवर्धन के जमाने में कन्नौज की बहुत शान हुआ करती थी | शायद उस समय लडकियां चाहती थी कि हमारी शादी कन्नौज में ही हो , तभी तो, “कन्नौज –कन्नौज मत करो बिटिया कन्नौज है बड़े मोल “जैसे लोक गीत प्रचलित हुए , जो आज भी विवाह में ढोलक की थाप पर खूब गाये जाते हैं | खैर हमारी दोनों बुआयें  इस मामले में भाग्यशाली रहीं कि वो कन्नौज ही बयाही गयीं | तो अब स्मृति एक्सप्रेस को दौडाते हुए  आते हैं कन्नौज की दीवाली पर … बात तब की है जब मैं कक्षा पाँच में पढ़ती थी | दीपावली पर हमारी बड़ी बुआ , जो की लखनऊ में रहती थीं अपने परिवार के साथ कन्नौज अपने पैतृक घर में दीपावली मनाने जाती थी | उस बार वो जाते समय हमारे घर कुछ दिन के लिए ठहरीं, आगे कन्नौज जाने का विचार था |बड़ी बुआ की बेटियाँ मेरी व् मेरी दीदी की हम उम्र थीं | हम लोगों में बहुत बनती थीं | हम लोग साथ –साथ खेलते , खाते –पीते और लड़ते थे |वो दोनों अक्सर कन्नौज की दीवाली की तारीफ़ किया करती थीं | जैसी दीवाली वहां मनती है कहीं नहीं मनती |फिर वो दोनों जिद करने लगीं कि हम भी वहां चल कर वैसी ही दीपावली मनाएं | हमारा बाल मन जाने को उत्सुक हो गया परन्तु हमें माँ को छोड़ कर जाना अच्छा नहीं लग रहा था | इससे पहले हम बिना माँ के कभी रहे ही नहीं थे , पर बुआ ने लाड –दुलार से हमें राजी कर ही लिया | जैसे ही हमारी कार घर से थोडा आगे बढ़ी मैंने रोना शुरू कर दिया , मम्मी छूटी जा रहीं हैं | दीदी ने समझाया , बुआ ने समझाया फिर जा कर मन शांत हुआ | उस दिन मुझे पहली बार लगा कि लडकियाँ  विदाई में रोती क्यों हैं | खैर हँसते -रोते हम कन्नौज पहुचे | बुआ की बेटी ने बड़े शान से बताया ,” यहाँ तो मेरे बाबा का नाम भी किसी रिक्शेवाले के सामने ले दोगी   तो वो सीधे मेरे घर छोड़ कर आएगा , इतने फेमस हैं हम लोग यहाँ “| मन में सुखद  आश्चर्य हुआ ,ये तो पता था की बुआ बहुत अमीर हैं पर उस समय  लगा किसी राजा के राजमहल में जा रहे हैं, जहाँ दरवाजे पर संतरी खड़े होंगें जो पिपहरी बजा रहे होंगे और फूलों से लदे हाथी हमारे ऊपर पुष्प वर्षा करेंगे | बाल मन की सुखद कल्पना के विपरीत , वहां संतरी तो नहीं पर कारखाने के कई कर्मचारी जरूर खड़े  थे | तभी दादी ( बुआ की सासु माँ )लाठी टेकती आयीं |  दादी ने हम लोगों का बहुत स्वागत व दुलार किया  और हम लोग खेल में मगन हो गए |  क्योंकि मेरी बुआ काफी सम्पन्न परिवार की थीं | उनका इत्र  का कारोबार था | वहां का इत्र  देश के कोने -कोने में जाता था | इसलिए वहाँ की दीपावली हमारे घर की दीपावली से भिन्न थी | पकवान बनाने के लिए कई महराजिन लगीं  हुई थी , बुआ बस इंतजाम देख रहीं थीं | जबकि मैंने अपने घर में यही देखा था कि दीवाली हो या होली, माँ अल सुबह उठ कर जो रसोई में घुसतीं तो देर  शाम तक निकलती ही नहीं थीं | माँ की रसोई में भगवान् का भोग लगाए जाने से पहले हम बच्चे भोग लगा ही देते … और बीच -बीच में जा कर भोग लगाते ही रहते | माँ प्यार में डपट लगा तीं पर वो जानतीं थीं कि बच्चे मानेंगे नहीं , इसलिए भगवान् के नाम पर हर पकवान के पहले पांच पीस निकाल कर अलग रख देंती थी ,ताकि बच्चों को भगवान् से पहले खाने के लिए ज्यादा टोंकना  ना पड़े | परन्तु यहाँ पर स्थिति दूसरी थी | दादी , बुआ दादी और महाराजिनों की उपस्थिति  हम में संकोच भर रही थी, लिहाज़ा हम ने तय कर लिया चलो इस बार भगवान् को पहले खाने देते हैं |  त्यौहार के दिन पूरा घर बिजली  जगमग रोशिनी से नहा गया | आज तो लगभग हर घर में इतनी ही झालरे लगती हैं पर तब वो जमाना किफायत का था | आम लोग हलकी सी झालर लगाते थे, ज्यादातर घरों में दिए ही जलते थे | इतनी लाईट देखकर मैंने सोचा ,” क्या यहाँ लाईट नहीं जाती है |” बाद में पता चला की लाईट तो जाती है पर जनरेटर वो सारा बोझ उठा लेता है | दीपावली वाले दिन हम सब को एक बड़ी डलिया  भर के पटाखे जलाने को मिले | बुआ की बेटी ने कहा, ” इतने पटाखे कभी देखे भी हैं ? ” मैंने डलिया में देखा ,वास्तव में हमारे घर में कुल मिला कर इससे कम पटाखे ही आते थे | एक कारण ये भी था कि मैं और दीदी पटाखे छुडाते नहीं थे , बस भाई लोग थोड़े शगुन के छुड़ाते थे , बहुत शौक उन्हें भी नहीं था | पिताजी हमेशा समझाया करते थे कि ये धन का अपव्यय है और हम सब बिना तर्क  दिए मान लेते | खैर , मैंने  उससे कहा , “मैं पटाखे छुड़ाती ही नहीं |” उसने कहा  इस बार छुडाना फिर देखना अभी तक की सारी दीवाली भूल जाओगी | शाम को हम सब पटाखे ले कर घर के बाहर पहुंचे | उस बार पहली बार मैंने पटाखे छुडाये | या यूँ कहे पहली बार पटाखे छुडाना सीखा | थोड़ी देर डरते हुए पटाखे छुड़ाने के बाद मैं इस कला में पारंगत हो गयी | हाथ में सीको बम लेकर आग लगा कर दूर फेंक देती और बम भड़ाम की आवाज़ के … Read more

लक्ष्मीजी का आशीर्वाद

दीपावली के दिन लक्ष्मी ,गणेश के साथ कुबेर की भी पूजा की जाती है । विघ्न विनाशक ,मंगलकर्ता ,ऐश्वर्य ,भोतिक सुखों ,धन -धान्य ,शांति प्रदान करने के साथ साथ विपत्तियों को हरने वाले लक्ष्मी ,गणेश ,कुबेर का महापूजन अतिफलदायी होता है ।  प्राचीन ग्रंथों में लक्ष्मी जी के साथ अलक्ष्मी जी का भी उल्लेख मिलता है । अलक्ष्मी जी को “नृति “नाम से भी जाना जाता है तथा दरिद्रा के नाम से पुकारा जाता है । लक्ष्मी जी के प्रभाव का मार्ग धन -संपत्ति ,प्रगति का होता है वही अलक्ष्मीजी दरिद्रता ,पतन,अंधकार,का प्रतीक होती है । लक्ष्मी जी और अलक्ष्मी जी (दरिद्रा )में संवाद हुआ । दोनों एक दूसरे का विरोध करते हुए कहने लगी -“में बड़ी हूँ । ” लक्ष्मीजी ने कहा कि देहधारियों का कुल शील और जीवन में ही हूँ । मेरे बिना वे जीते हुए भी मृतक के समान है ।  अलक्ष्मी जी (दरिद्रा )ने कहा कि “में ही सबसे बड़ी हूँ ,क्योंकि मुक्ति सदा मेरे अधीन है । जहाँ में हूँ वहां काम क्रोध ,मद लोभ ,उन्माद ,इर्ष्या और उदंडता का प्रभाव रहता है । “ अलक्ष्मी(दरिद्रा ) की बात सुनकर लक्ष्मी जी ने कहा- मुझसे अलंकृत होने पर सभी प्राणी सम्मानित होते है । निर्धन मनुष्य जब दूसरों से याचना करता है तब उसके शरीर से पंच देवता -बुद्धि ,श्री ,लज्जा ,शांति और कीर्ति तुरंत निकलकर चल देते है । गुण और गोरव तबी तक टिके रहते है जब तक कि मनुष्य दूसरों के सामने हाथ नहीं फेलाता । अत: दरिद्रे ।. में ही श्रेष्ठ हूँ “। दरिद्र ने लक्ष्मीजी के दर्पयुक्त तर्क को सुनकर कहा-“जिस प्रकार मदिरा पीने से भी पुरुष को वेसा भयंकर नशा नहीं होता, जेसा तेरे समीप रहने मात्र से विद्वानों को भी हो जाता है । योग्य, कृतज्ञ ,महात्मा ,सदाचारी। शांत ,गुरू सेवा परायण ,साधु ,विद्वान ,शुरवीर तथा पवित्र बुद्धि वाले श्रेष्ठ पुरुषों में मेरा निवास है । तेजस्वी सन्यासी मनुष्यों के साथमे रहा करती हूँ । ‘ इस तरह विवाद करते हुए समाधान हेतु ब्रहमाजी के पास दोनों पहुंची ब्रहम्माजी ने कहा कि -पृथ्वी और जल दोनों देवियाँ मुझसे ही प्रकट हुई है । स्त्री होने के कारण वे ही स्त्री के विवाद को समझ सकती है । नदियों में भी गोतमी देवी सर्वश्रेष्ठ है । वे पीडाओं को हरने वाली तथा सबका संदेह निवारण करने वाली है । आप दोनों उन्ही के पास जाएँ । “ लक्ष्मी जी और दरिद्रा बड़ी कोन है के विवाद को सुलझाने हेतु गोतमी देवी के पास पहुँची । गोतमी देवी(गंगाजी )ने कहा कि ब्रह्श्री ,तपश्री ,यग्यश्री ,कीर्तिश्री ,धनश्री ,यशश्री ,विधा ,प्रज्ञा ,सरस्वती ,भोगश्री ,मुक्ति ,स्मृति ,लज्जा ,धृति ,क्षमा ,सिद्धि ,वृष्टि ,पुष्टि ,शांति ,जल ,पृथ्वी ,अहंशक्ति ,ओषधि ,श्रुति ,शुद्धि ,रात्रि ,धुलोक ,ज्योत्सना ,आशी ,स्वास्ति ,व्याप्ति ,माया ,उषा ,शिवा आदि जो कुछ भी संसार में विद्दमान है वह सब लक्ष्मीजी द्वारा व्याप्त है । ब्राहमण ,धीर क्षमावान ,साधु ,विद्द्वान ,भोग परायण तथा मोक्ष परायण पुरुषों जो -जो श्रेष्ठ सुंदर है वह लक्ष्मी जी का ही विस्तार है। दरिद्रा ,क्यों तू लक्ष्मीजी कके साथ स्पर्धा करती है । जा चली जा यहाँ से कहकर दरिद्रा को भगा दिया । इसी कारण तब से गंगाजी का जल दरिद्रा का शत्रु हो गया । कहते है कि तभी तक दरिद्रा का कष्ट उठाना पड़ता है जब तक गंगाजी के जल का सेवन न किया जाए । इसीलिए गंगाजी के जल में स्नान और दान करने से मनुष्य लक्ष्मीवान तथा पुण्यवान होता है ,साथ ही उस पर लक्ष्मीजी का आशीर्वाद भी बना रहता है । दिवाली के दीपक के प्रकाश में आत्ममंथन ,आत्मलोचन ,आत्मोउन्नति ,को प्राप्त करने की दिशा में अंधकार को उखाड़कर प्रकाश की राह पर चलने हेतु अन्यों को भी उन्नति -उजाले की रहा दिखाने का प्रयत्न करते आ रहे है । यही प्रकाश का आगमन ,आराध्य की तरह सर्वत्र पूजनीय तो है ही साथ ही लक्ष्मी ,गणेश ,कुबेर के स्वागत हेतु दीपों को जलाना दिवाली पर उनके आगमन के शुभ सूचक होते है ।  संजय वर्मा “दृष्टि 

आओ जलाए साहित्य दीप – हायकू एवं हाइगा ( डॉ .रमा द्विवेदी )

                                    `दीपावली’ हाइकु एवं हाइगा  प्रस्तुत हैं वरिष्ठ  साहित्यकार डॉ . रमा द्विवेदी  जी के हायकू .एवं हाइगा ……..  – अँधेरी रात       अकेला है जलता      माटी का दीया । १ ………….. २ ………… -दीप लघु हूँ  अंधेरों को पीता हूँ  तन्हा जीता हूँ । ३ …………….. -उजालों में भी  पलते हैं अँधेरेदीपक तले ।  ४ ………………   रंगोली सजी  हर देहरी द्वार  दीपों के साथ ।                                                                             ५ ………….. –उजाले देता  मुफलिसी में जीता  अँधेरे पीता ।  डॉ रमा द्विवेदी  संपादक -पुष्पक ,साहित्यिक पत्रिका  हैदराबाद ,तेलंगाना