कठिन रिश्ते : जब छोड़ देना साथ चलने से बेहतर लगे

एक खराब रिश्ता एक टूटे कांच के गिलास की तरह होता है | अगर आप उसे पकडे रहेंगे तो लगातार चोटिल होते रहेंगे | अगर आप छोड़ देंगे तो आप को चोट लगेगी पर आप के घाव भर भी  जायेंगे – अज्ञात                                                                                       मेरे घर में  मेरी हम उम्र सहेलियां  नृत्य कर रही थी | मेरे माथे पर लाल चुनर थी |  मेरे हाथों में मेहँदी लगाई जा रही थी | पर आने जाने वाले सिर्फ मेरे गले का नौलखा  हार देख रहे थे | जो मुझे मेरे ससुराल वालों ने गोद भराई की रसम में दिया था | ताई  जी माँ से कह रही थी | अरे छुटकी बड़े भाग्य हैं तुम्हारे जो  ऐसा घर मिला तुम्हारी  नेहा को | पैसों में खेलेगी | इतने अमीर हैं इसके ससुराल वाले की पूछों मत | बुआ जी बोल पड़ी ,” अरे नेहा थोडा बुआ का भी ध्यान रख लेना , ये तो गद्दा भी झाड लेगी तो इतने नोट गिरेंगें की हम सब तर  जायेंगे | मौसी ने हां में हाँ मिलाई  और साथ में अर्जी भी लगा दी ,” जाते ही ससुराल के ऐशो – आराम में डूब जाना , अपनी बहनों का भी ख्याल रखना | बता रहे थे  उनके यहाँ चाँदी का झूला है कहते हुए मेरी माँ का सर गर्व से ऊँचा हो गया |  तभी मेरी सहेलियों   ने तेजी से आह भरते हुए कहा ,” हाय  शिरीष , अपनी मर्सिडीज में क्या लगता है , उसका गोद – भराई  वाला सूट देखा था एक लाख से कम का नहीं होगा | इतनी आवाजों के बीच , ” मेरी मेहँदी कैसी लग रही है” के मेरे प्रश्न को भले ही सबने अनसुना कर दिया हो | पर उसने एक गहरा रंग छोड़ दिया था , .. इतना लाल … इतना सुर्ख की उसने मेरे आत्म सम्मान के सारे रंग दबा लिए | इस समय मैं एक कंप्यूटर इंजिनीयर नहीं , (जिसने अपने अथक प्रयास से कॉलेज टॉप किया था ) एक माध्यम वर्गीय दुल्हन थी जिसे भाग्य से एक उच्च वर्ग का दूल्हा मिल रहा था | मध्यमवर्गीय भारतीय समाज से उम्मीद भी क्या की  जा सकती है ?                                                हालांकि जब मैंने शिरीष से शादी के लिए हाँ करी तो मेरे जेहन में पैसा नहीं था | शिरीष न सिर्फ M .BA . थे बल्कि , बातचीत में मुझे काफी शालीन व्  सभ्य  लगे थे | शिरीष के परिवार ने दहेज़ में कुछ नहीं माँगा था |  मेरे माता – पिता तो जैसे कृतार्थ हो गए थे | और उन्होंने कृतज्ञता निभाने के लिए जरूरत से ज्यादा दहेज़ देने की तैयारी कर ली | विवाह की तमाम थकाऊ रस्मों के बाद जब मैं अपने  ससुराल पहुँची तो मेरे सर पर लम्बा  घूंघट था | हमारे यहाँ बहुए नंगे  सर नहीं घूमती , सासू माँ का फरमान था | चाँदी का झूला जरूर था पर घुंघट पार उसकी चमक बहुत कम लग रही  थी | रात को मैं  सुहाग की सेज पर अपने पति का इतजार कर रही थी | १२ , 1 , २ … घडी की सुइंयाँ आगे बढ़ रही थी | मुझे नींद आने लगी | ३ बजे शिरीष कमरे में आये | मैंने प्रथम मिलंन  की कल्पना में लजाते हुए घूँघट सर तक खींच लिया | शिरीष एक बड़ा सा गिफ्ट बॉक्स लेकर मेरे पास आये | पर ये क्या ! शिरीष ने शराब पी हुई थी | इतनी की वो लगभग टुन्न थे | मै उनका हाथ झटक कर खड़ी हो गयी | मैं समर्पण को तैयार नहीं थी | आज शगुन होता हैं शिरीष ने बायीं आँख दबाते हुए शरारती अंदाज़ में कहा |होता होगा शिरीष पर मैं किसी शगुन के लिए अपनी जिंदगी भर की स्मृतियों को काला नहीं कर सकती | मेरे स्वर में द्रणता थी | हालांकि शिरीष नशे की हालत में ज्यादा देर तक खड़े नहीं रह सके  | और वहीँ बिस्तर पर गिर गए | कमरे में उनके खर्राटों की आवाज़ गूंजने लगी |                                      सुबह जब मैं नहा कर निकली  तब तक शिरीष जग चुके थे | वे मुझ पर मुहब्बत दर्शाने लगे | | मैं अभी तक कल के दर्द से उबर नहीं पायी थी तो जडवत ही रही | अचानक चुम्बन लेते – लेते शिरीष ने मेरा हाथ मरोड़ दिया ,” इतनी बेरुखी , कोई और आशिक था क्या ? मैंने न में सर हिलाया | तो फिर बीबी की ही तरह रहो , जैसे घरेलू  औरतें रहती हैं | अकड़   दिखाने की क्या जरूरत है | मेरी कलाई पर शिरीष की अंगुलियाँ छप  गयी , और मन पर अपमान का दर्द |  पाँव फेरने पहली बार मायके जाने तक मैं तीन बार पिट चुकी थी व् अनेकों बार अपमानित करने वाले शब्द सुन चुकी थी | माँ के पास जाते ही मैंने शिरीष के बर्ताव की शिकायत की | माँ ने शुरू , शुरू में झगडे तो होते ही हैं कह कर मेरी बात सुनने तक से इनकार कर दिया | यह वही माँ थी , जो मुझसे कहा करती थी की अगर आदमी एक बार हाथ उठा दे तो वो जिंदगी भर मारता रहता है | फिर शिरीष तो मुझे बात – बेबात पर न जाने कितनी बार मार चुके थे | क्या उन्हें अपने वचनों का भी मान नहीं रहा | हां ! भाभी के मन में जरूर करुणा उपजी थी | उन्होंने सलाह दी  की तू  नौकरी कर लें | अपना वजूद होगा तो कोई ऐसे अपमानित नहीं कर सकेगा | भाभी की बात मुझे सही लगी | घर आते ही मैंने शिरीष के आगे अपनी बात रखी | सुनते ही शिरीष भड़क उठे | शिरीष मिश्र की … Read more

बदलाव किस हद तक ?

रहिमन प्रिति सराहिए, मिले होत रंग दून । ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून                                                प्रेम का एक अलग ही रंग होता है , जहाँ दोनों एक दूसरे के लिए अपना रंग त्याग देते हैं |तब एक  रंग बनता है , प्रेम का रंग | भले ही प्रेम के एकात्म भाव की फिलोसिफी में इसे सर्व श्रेष्ठ पायदान पर रखा गया हो परन्तु किसी रिश्ते में एक दूसरे के हिसाब से बदलाव की हद क्या हो | यह जरूर चर्चा का विषय है |  अक्सर किसी नव विवाहित जोड़े से मिलने के बाद हमारे मुँह से अनायास ही ये निकल पड़ता है ,” अरे फलाने भैये तो ये सब्जी खाते ही नहीं थे , भाभी ने बदल दिया ” या अमुक दीदी ये रंग तो कभी पहनती ही नहीं थी जीजाजी ने बदल दिया | ” इसके बाद वातावरण नव विवाहित जोड़े की शर्मीली सी मुस्कान के साथ खुशनुमा हो जाता है | रिश्ता पति – पत्नी का हो, सास – बहू का या कोई और हम जिस भी रिश्ते को चलाना चाहते है उसमें पूरा प्रयास करते हैं की दूसरे के हिसाब से जितना हमसे हो सके खुद को बदल लें | पर ये बदलना स्वैक्षिक होता है | इसमें आनद की अनुभूति होती है | परन्तु अगर यह दवाब में या सप्रयास करना पड़े तो यही कलह या रिश्ता टूटने की वजह बनती है |जिस दिन हम अगले पर बदलने का दवाब डालने लगते हैं रिश्ते का दम घुटने लगता है | वस्तुत :  किसी भी रिश्ते में जरूरत से ज्यादा उम्मीद दूसरे पर बदलने का दवाब बनाती है |  अहसासों का स्वाद                   cognitive neurology के प्रोफेसर क्रिस फ्रिथ के अनुसार हम सभी का एक आंतरिक जगत होता है है जो हमारे पिछले अनुभवों के आधार पर बनता है | बाह्य जगत में हम अपने आंतरिक जगत की स्वीकृति चाहते हैं |  हम जिसके जितना जयादा करीब होते हैं | हम अपने आंतरिक जगत की स्वीकृति के लिए उतना ही ज्यादा लालायित रहते हैं | जब वो हमें स्वीकृत नहीं करता तो एक भय सा बैठ जाता है | भयभीत मनुष्य को अपने अनुभवों व् पूर्वाग्रहों  से बना अपना अस्तित्व खतरे में लगने लगता है | जिसके कारण वो दूसरे पर दवाब बनाना शुरू करता है | दूसरा बदल जाए तो उसके पूर्व अनुभवों  द्वारा संचित ज्ञान पर मुहर लग जायेगी और वो सुरक्षित महसूस करेगा | ये बिलकुल वैसा ही है जब हम किसी खोल या कवच के भीतर खुद को सुरक्षित महसूस करें | उम्र बढ़ने के साथ – साथ ये कवच और मजबूत  होता जाता है और लगने लगता है की हम ही  बिलकुल सही है | जहाँ  मुझसे बिलकुल उलट अनुभव रखने वाले व्यक्तित्व  की सम्भावना को बिलकुल नकार दिया जाता है | पौधे की फ़रियाद  जिन्दगी में कई मोड़ ऐसे आते है जहाँ हमें यह निर्णय  लेना पड़ता है की हम सही सिद्ध होना चाहते हैं या खुश रहना चाहते हैं |रिश्ते वही चलते हैं जहाँ कोई दवाब न हो व्  प्रेम इतना गहरा हो  की तमाम झगड़ों और असहमतियों के बावजूद साथ चलना अलग होने से बेहतर सौदा लगे |  वंदना बाजपेयी 

सहानुभूति नहीं समानुभूति रखें

क्यों न हम लें मान, हम हैं चल रहे ऐसी डगर पर, हर पथिक जिस पर अकेला, दुख नहीं बँटते परस्पर, दूसरों की वेदना में वेदना जो है दिखाता, वेदना से मुक्ति का निज हर्ष केवल वह छिपाता; तुम दुखी हो तो सुखी मैं विश्व का अभिशाप भारी! क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी? क्या करूँ? सुप्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्चन की यह पंक्तियाँ संवेदनाओं के व्यापार की पर्त खोल कर रख देती हैं | सदियों से कहा जाता है की दुःख कहने सुनने से कम हो जाता है पर क्या वास्तव में ? शायद नहीं | वो बड़े ही सौभाग्यशाली लोग होते हैं जिनको दुःख बांटने के लिए कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाता है जो उनके साथ समानुभूति रखता हो |वहाँ शायद कह लेने से दुःख बांटता हो | परन्तु ज्यादातर मामलों में यह बढ़ जाता है | संवेदनाओं का आदान -प्रदान को महज औपचारिक रह गया है | दुख कहने-सुनने से बंटता है। डिप्रेशन के खिलाफ कारगर हथियार की तरह काम करने वाली यह सूक्ति अभी के समय में ज्यादा बारीक व्याख्या मांगती है। आम दायरों में कहने-सुनने के दो छोर दिखाई पड़ते हैं। एक तरफ कुछ लोग खुद को लिसनिंग बोर्ड मान कर चलते हैं। आप उनसे कुछ भी कह लें, किसी लकड़ी के तख्ते की तरह वे सुनते रहेंगे। इस क्रिया से आप हल्के हो सकें तो हो लें, लेकिन यह उम्मीद न करें कि आपके दुख से दुखी होकर वे आपके के लिए कुछ करेंगे। मैनेजमेंट के सीवी में यह एक बड़ी योग्यता मानी जाती है। परन्तु आप की तकलीफ को कोई राहत नहीं देती है | दूसरी तरफ कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो पहला कंधा मिलते ही उस पर टिक कर रोना शुरू कर देते हैं। इसके थोड़ी ही देर बाद आप उन्हें प्रफुल्लित देख सकते हैं, भले ही जिस कंधे का उपयोग उन्होंने रोने के लिए किया था, उस पर रखा सिर पूरा दिन उनकी ही चिंता में घुलता रहेे। अंग्रेजी में ऐसे लोगों को साइकोपैथ कहते हैं | ये लोग आप को भावनाओं का पूरा इस्तेमाल करना जानते हैं | इनका शिकार भावुक व्यक्ति होते हैं | जिनको ये अपना दुखड़ा सुना कर अपने बस में कर लेते हैं और मुक्त हो जाते हैं | और बेचारा शिकार दिन -रात इनको दुखों से मुक्त करने की जुगत में लगा रहता है | ये दोनों छोर दिखने में संवेदना जैसे लगते हैं, लेकिन सम-वेदना जैसा इनमें कुछ नहीं है। संवेदना किसी वेदना में बराबर की साझेदारी है। जहां यह अनुपस्थित हो, वहां कहने-सुनने से दुख क्या बंटेगा? ओमकार मणि त्रिपाठी – प्रधान संपादक अटूट बंधन एवं सच का हौसला

रिश्तों की तस्वीर का एक पहलू

इस संसार में हर व्यक्ति और वस्तु गुण-दोष से युक्त है,लेकिन रिश्तों की दुनिया में यह नियम लागू नहीं हो पाता। मन और आत्मा के धरातल पर रिश्ते जब प्रगाढ होते हैं,तो सिर्फ गुण ही गुण दिखाई देते हैं और दोष दिखना बंद हो जाते हैं या दूसरे शब्दों में कहें,तो जब किसी को किसी में दोष दिखाई देना बंद हो जाएं,तो वह रिश्ता प्रगाढता के चरम पर होता है। इसीलिए दुनिया के सबसे बडे और महान मां के रिश्ते में अक्सर यह देखने को मिलता है कि बेटा कितना ही बुरा क्यों न हो,मां को बेटे की बुराइयां नजर नहीं आतीं। जब हम किसी से मिलते हैं,तो उसके तन या मन के आधार पर आकर्षित या विकर्षित होते हैं। तन का आकर्षण दीर्घावधि तक नहीं रह सकता,क्योंकि तन की एक निर्धारित आयु है और यौवन के चरम पर पहुंचने के बाद दिन-ब-दिन तन की चमक फीकी पडने लगती है।लेकिन जब किसी का मन और आत्मा आकर्षण का केन्द्र बनता है,किसी के विचार मन को भाने लगते हैं,तो उसका तन कैसा भी हो,सर्वाधिक सुन्दर लगने लगता है । दोनों तरह के आकर्षणों में मूलभूत अंतर यही है कि तन का आकर्षण बहुधा मन की देहरी तक नहीं पहुंच पाता,जबकि मन और आत्मा का आकर्षण स्वत: तन को आकर्षक बना देता है। जब किसी के विचार या उसकी विचारशैली हृदय में प्रवेश करती है,तो धीरे-धीरे एक ऐसी स्थिति आती है,जब उसमें कोई कमी और दोष दिखना बंद हो जाते हैं।उसकी कमियां भी खूबियां जैसी दिखने लगती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि कोई संशय नहीं रह जाता और अटूट विश्‍वास का सृजन होता है और यह तो सर्वविदित है कि विश्‍वास की किसी भी रिश्ते की सबसे मजबूत नींव होती है। रिश्ते उस समय और प्रगाढ हो जाते हैं,जब यह विश्‍वास गर्व का रुप धारण कर लेता है।यह विश्‍वास की चरमावस्था है,जब किसी को अपने साथी के साथ पर गर्व होने लगता है।विश्‍वास की नींव पर टिकी रिश्तों की इमारत को जब गर्व का गुम्बद मिलता है,तो वह रिश्ता एक मंदिर बन जाता है। जब किसी रिश्ते के प्रति कोई गौरवान्वित होता है,तो यह गौरव आत्मविश्‍वास का सम्बल भी बन जाता है। जिस रिश्ते में भाव पक्ष जितना मजबूत होता है,भौतिक पक्ष का उतना ही अभाव होता जाता है। इन रिश्तों में न तो शरीर का कोई महत्व होaता है और न ही क्षणभंगुर शरीर की किसी तस्वीर का,क्योंकि इस तरह के रिश्ते में शरीर का हर रुप और उस शरीर की हर तस्वीर खुद-ब-खुद दुनिया की सबसे खूबसूरत तस्वीर दिखेगी। ओमकार मणि त्रिपाठी – प्रधान संपादक अटूट बंधन मीडिया ग्रुप

अपनों की पहचान बुरे समय में नहीं अच्छे समय में भी होती है

आम तौर पर यही माना जाता है कि जो बुरे वक्त में विपदा के समय साथ दे,वही सच्चा मित्र या हितैषी होता है.यह बात कुछ हद तक सही भी है,लेकिन तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है.कई बार ऐसा भी होता है कि जब आप परेशान या दुखी होते हैं,तो लोग सहानुभूतिवश भी आपके साथ खड़े हो जाते हैं.कई बार तो ऐसा भी होता है कि आपको सख्त रूप से नापसंद करने वाले लोग भी बुरे समय में आपके साथ सहानुभूति जताने लगते हैं,लेकिन जैसे ही आपका बुरा समय दूर हुआ और अच्छा समय आने लगा ,तो वही लोग फिर विरोध का झंडा उठा लेते हैं. आपने अक्सर देखा होगा कि राह चलते किसी के साथ कोई दुर्घटना हो जाये,तो कुछेक लोगो को छोड़कर उस रास्ते से गुजर रहे लगभग सभी लोगो उसकी सहायता के लिए आगे आ जाते हैं और जिससे जितना संभव हो पाता है,वह उतनी मदद बिना कहे करता है.कोई बीमार हो जाये,कोई दुर्घटनाग्रस्त हो जाये,कोई किसी आपदा का शिकार हो जाये या किसी के घर पर मौत का मातम हो,तो उसके साथ सहानुभूति जताने वालो की कमी नहीं होती.लोग कुछ मदद करे या न करें,सहानुभूति तो जता ही देते हैं.सिर्फ परिचित ही नहीं ,अपरिचित लोग भी पुण्य या यश कमाने के लिए दुखी लोगो की मदद के लिए आगे आ जाते हैं अब जरा तस्वीर का दूसरा पहलू देखिये.कोई प्रगति की राह पर चलने लगा,किसी ने कोई सफलता हासिल कर ली,किसी पर सुखो की बरसात होने लगी,तो अपने होने का दावा करने वाले ज्यादातर लोग उससे दूर होने लगते हैं.कुछ तो मन ही मन और कुछ सार्वजनिक तौर पर उसकी निंदा या आलोचना शुरू कर देते हैं.ऐसे में सहयोग की बात तो दूर है,ज्यादातर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से असहयोग करना शुरू कर देते हैं.इसका मुख्य कारण ईर्ष्या होती है,जिसका मूल आधार यह भाव होता है कि जो हम नहीं कर सके,वह इसने कैसे कर लिया या जिसके लिए हम रात दिन प्रयास करते रहे,जिसके सपने देखते रहे,वह इसे कैसे मिल गया.इर्ष्य एक मानसिक विकार है। यह विकार इतना तीव्र और खतरनाक होता है कि व्यक्ति अपना विवेक भी खो लेता है। यह एक ऐसा रोग है जो दूसरों के लिये तो हानिकारक है ही, स्वयं के लिये भी खतरनाक है। ईर्ष्याभाव एक विष है जो तन और मन दोनों को नष्ट कर देता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति को पर निन्दा में सुख की अनुमति होने लगती है.हिन्दू जीवन दृष्टि में ईर्ष्या और द्वेष जैसे तत्त्वों को राक्षसी दोषों में रखा गया है। इसीलिए कभी –कभी सफलता मिलने के बाद आप अपने को बिलकुल अकेले खड़ा पाते है आप को लगता है की आपने सफलता के लिए अपनों का प्यार खो कर भारी कीमत चुकाई है और अपनी सफलता की ख़ुशी नहीं मना पाते |यह सच है की चोटी पर आदमी अकेला होता है पर उसे अपनों के प्यार और सहारे की सदैव आवश्यकता होती है और सफलता मिलने के पश्चात अचानक से उन लोगों का साथ छोड़ देना जो आपके सपने देखने के समय उसके भागीदार थे मन को अजीब निराशा से भर देता है | मानव मन की इस गुत्थी को समझने के लिए आप को मन कड़ा कर के अपनी सफलता व् खुशियों को अपनों के सच्चे स्नेह के एक लिटमस टेस्ट की तरह समझना चाहिए अच्छे समय में ही अपनों की सही पहचान होती है.दुःख के समय दुखी होने वाले ,सहानुभूति जताने वाले तो आसानी से मिल जाते हैं ,लेकिन आपके सुख से सुखी होने वाले,आपकी खुशिओ से खुश होने वाले बहुत मुश्किल से मिलते हैं और यही लोग आपके सच्चे हितैषी होते हैं. आपकी खुशियों में खुश होने वाले ही वास्तव में आप से निस्वार्थ प्रेम करते हैं जो दुःख –सुख में एक सामान हैं एक कहावत है कि हर पिता अपने बेटे से हारना चाहता है क्योंकि पिता का अपने पुत्र के प्रति निस्वार्थ प्रेम होता है |जो वास्तव में सच्चा प्रेम रखते हैं वह हर सफलता व् ख़ुशी में ख़ुशी व् संतोष का अनुभव करते हैं ,और लिटमस परीक्षा में पास हो जाते हैं |जो निकट सम्बन्धी इस परिक्षण में पास नहीं हो पाते उनके लिए आप को समझ लेना चाहिए की वो केवल निराशा की अवस्था में सहानभूति दिखा कर हीरो बनना चाहते थे |ऐसे रिश्तों के खोने पर दुःख नहीं करना चाहिए अपितु ईश्वर का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि आप को सफलता मिलने पर अपने निकट के रिश्तों के भावों के सही उद्देश्य की पहचान हो गयी तस्वीर का दूसरा रुख यह भी है कि सफलता के साथ बहुत से ऐसे लोग भी जुड़ जाते हैं,जिनका किसी न किसी तरह का स्वार्थ होता है , इस दशा में आपको अपने को अचानक से अकेलापन महसूस कर उन लोगों से भावनात्मक रिश्ते नहीं बना लेने चाहिए अन्यथा बार –बार पछताना पड़ता है|यह सही है कि रिश्ते दिल से बनते हैं पर अगर विवेक से काम लेंगे तो निराशा में नहीं डूबना पड़ेगा | अपने सफलता के पथ पर आगे बढे तो आप देखेंगे देर सवेर सिर्फ और सिर्फ वही साथ रह जाते हैं ,जो आपको सच्चे मन से चाहते थे और आपको सफल और खुश देंखना चाहते थे. जिनके लिए आपकी हँसी से मिलने वाली ख़ुशी बेशक़ीमती होती है,अनमोल सी लगती है. जो आपकी ख़ुशी में अपनी ख़ुशी देखते और तलाशते हैं,जिनके पास आपकी ख़ुशी को समेटने वाला मन और दामन होता है.जिनका प्यार, अपनापन, परवाह और मासूमियत अपने आप दस्तक देती है. कुछ लम्हों के लिए ठहरती है. बातें करती है. हाल-चाल पूछती है. ख़ामोशी से अपनी बात कहती है. सामने वाले को उसकी आवाज़ में सुनती है और अपनी राह चल देती है. वही आपके सच्चे हितैषी होते हैं.ये लोग दुःख में सहानुभूति जताने के आकांक्षी नहीं होते,क्योंकि ये वो लोग होते हैं,जो आपको दुखी देखना ही नहीं चाहते,बल्कि हर समय आपकी सफलता और आपके चेहरे पर खिली हुई मुस्कराहट की कामना करते हैं.ऐसे रिश्ते अनमोल होते हैं इन्हें हर हालत में बचा कर रखिये ओमकार मणि त्रिपाठी – प्रधान संपादक अटूट बंधन एवं सच का हौसला

अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस पर विशेष : चलो चले जड़ों की ओर : वंदना बाजपेयी

जंगल में रहने वाले  मानव ने जिस दौर में आग जलाना सीखा , पत्थरों  को नुकीला कर हथियार बनाना  सीखा , तभी  शायद उसने परिवार के महत्व को समझा और यह भी समझा कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है जिसे सहज जीवन जीने  के लिए समाज , परिवार अपनों के स्नेह की छाया जरूरत है | कदाचित यही से  परिवार संस्था का जन्म हुआ | तब परिवार  का अर्थ संयुक्त परवार ही हुआ करता था | मातृ देवो भव , पितृ देवो भव् में विश्वास रखने वाले भारतीय जन -मानस ने इस व्यवस्था को लम्बे समय तक जीवित रखा । संयुक्त परिवार में स्नेह और सुरक्षा का मजबूत ताना बाना होता है । यहाँ दादी और नानी की कहानियां होती हैं ,जो हौले से बच्चों में संस्कार के बीज रोप देती है , चाचा बुआ के रूप में बड़े मित्र और साथ खेलने के लिए भाई -बहनों की लम्बी सूची । धीरे -धीरे औध्योगिक करण  के साथ रोटी की तालाश में कुछ को माता -पिता से दूर दूसरे  शहरों /देशों में जाने को विवश कर दिया वही स्वंत्रता की चाह में कुछ उसी शहर में रहते हुए माता पिता से दूर एकल परिवार में रहने लगे । यही वो समय था जब समाज नए तरीके से पुर्नगठित होने लगा ।                                                                   वो माता -पिता जिन्होंने अपना जीवन के सब सुख त्याग कर बच्चों को बड़ा किया थ। उन्ही के बच्चों ने बुढ़ापे में दूसरों पर आश्रित रहने पर विवश कर दिया । बुजुर्ग दम्पत्तियों के लिए अपने स्वास्थ्य के साथ -साथ घर के एकाकीपन से निपटना असाध्य हो गया । सूनी पथराई आँखों में विवशता और प्रतीक्षा के अतिरिक्त कुछ नहीं बचा । जीते जी और मरने के बाद अंतिम क्रिया के लिए भी उनके हाथ बच्चों की प्रतीक्षा ही आई । दूसरी तरफ एकल परिवारों में बच्चों ने   माता -पिता की दिन भर हर काम में रोक टोक से आज़ादी  महसूस की । उन्हें लगा कि वो बिना किसी दखलंदाजी के  अपना जीवन आराम से जी सकते हैं । जो चाहे पहन सकते हैं ,कर सकते है । इसमें वो अपने माता -पिता के प्रति कठोर और कठोर होते गए ।                                          जब -जब समाज बदलता है उसके परिणाम एक दो जनरेशन के बाद आते हैं । आज़ादी की तलाश में घर से बाहर गए उन्ही बच्चों ने जब अपने बच्चों को संस्कारों के आभाव में  बड़े होते देखा तब उन्हें अपनी गलती का अंदाजा हुआ ।खासकर जहाँ पति -पत्नी दोनों ऐसी नौकरी में उलझे थे जहाँ उनके दिन का बहुत सारा समय घर के बहार बीतता ।  स्नेह के आभाव में आयाओ या क्रेच  द्वारा पाले गए ये बच्चे बड़े घर्रों के होने के बावजूद चोरी -चकारी करते हुए पकडे गए । सारे नियम तोड़ दो की गाडी कहीं रुकी नहीं अपितु दिन दूनी रात चौगुनी रफ़्तार से आगे बढ़ने लगी । इन्द्राणी मुखर्जी जैसे किस्से इसी की देन है । बबूल पर आम की आशा व्यर्थ साबित हुई ॥                                  आज की नव युवा पीढ़ी एक बार फिर चिंतन -मंथन के मुहाने पर खड़ी  है  । जहाँ उन्हें समझना है कि एकाकीपन मात्र बुजुर्गों की समस्या कह कर टालने का विषय नहीं है ।बुजुर्ग व् उनके द्वारा दिए गए संस्कार  वो नीव हैं जिस पर हमारा भविष्य टिका हुआ है । ये पूरे समाज की समस्या है । ऐसे बहुत से युवा हैं जो  अपने बच्चो की खातिर  वापस संयुक्त परिवारों में लौटना चाहते हैं ,या उन्हें अपने पास बुला कर उसी स्नेह भरे माहौल में रहना चाहते हैं । पर यह वही  पीढ़ी है जो स्वतंत्र वातावरण में पली है । जहाँ एक तरफ इसके दिल में “चलो चले जड़ों की ओर”  की अवधारणा में विश्वास   है । साथ ही माता -पिता के बेवजह हस्तक्षेप के विरुद्ध भी है । वही नए -नए दादी नानी बनी पीढ़ी अपने ही बच्चों को शक की नज़र से देख रही है उन्हें लग रहा है कि कहीं उनके अपने बच्चे अपने स्वार्थ वश तो उन्हें नही बुला रहे हैं । अपने बच्चों के पल जाने के बाद उन्हें वापस लड़- झगड़ कर वापस भेज दें । उनको भय है जब बुढ़ापा अकेले ही काटना है तो क्यों न जब -तक हाथ -पाँव चल रहे हैं अपना जीवन अपने हिसाब से जी लिया जाए । शायद हम सब समय के ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जहाँ हम यह समझ रहे है कि हमारे बुजुर्गों की सुरक्षा व् हमारे  बच्चों में संस्कार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं  ।  और यह  न सिर्फ बुजुर्गों के लिए , बच्चों के लिए बल्कि पूरे समाज के लिए हितकर है। पर मंथन का विषय यह है कि जड़ों की ओर लौटने का प्रारूप क्या  हो ? वंदना बाजपेयी                                                      

रिश्तों को दे समय

                     रिश्तों को दे समय  न  मिटटी न गारा, न सोना  सजाना  जहाँ प्यार देखो वहीं घर बनाना कि  दिल कि इमारत बनती है दिल से दिलासों को छू के उमीदों से मिल के                                       एक खूबसूरत गीत कि ये पंक्तियाँ आज के दौर में इंसान और रिश्तीं के बारे में  बहुत कुछ सोचने को विवश कर देती हैं |आज जब कि भौतिकतावाद हावी हो चुका है |ज्यादासे ज्यादा नाम ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने की होड़ में आदमी दिन -रात मशीन की तरह काम कर रहा है |बच्चों को महंगे से महंगे स्कूल में दाखिला करा दिया ,ब्रांडेड कपडे पहन लिए ,महीने में चार बार मोबाइल या गाडी बदल ली |फिर भी अकेलापन महसूस होता है |बहुत कुछ पा के भी लगता है जैसे खाली हाथ  रह गए| जो जितना पैसे वाला वो उतना ही अकेलापन महसूस करता है |कारण बस एक ही है घर तो बनाया ही नहीं महल बनाने में लगे रहे |यह जरूरी है कि महंगाई के दौर में पैसा कमाना जरूरी है पर कितना ?ये प्राथमिकता तय करनी ही पड़ेगी |वास्तव में  ये पूरा जीवन प्राथमिकताओ के आधार पर चलता है |आप जिस चीज को प्राथमिकता देते हैं वही बढती है खिलती है |अगर आप धन ,यश ,ओहदे को प्राथमिकता देंगे तो वो बढेगा |पर रिश्ते सूख जाएँगे |रिश्तों को खिले रखने के लिए जरूरी है सिर्फ प्यार देना …. और समय देना | पर एक विशेष बात याद रखनी पड़ेगी आप अपने बच्चे से माता –पिता  से भाई -बहन से कितना भी प्यार करते हों अगर आप उनको समय नहीं देते तो ये वृक्ष सूख जायेंगे | कभी इस बात पर गौर करिए कि जब भी किसी मनोरोग विशेषग्य के पास कोई मरीज जाता है तो पहला प्रश्न ही यहीं होता है “आप का बचपन कैसा बीता |” बीमारियों से त्रस्त  ज्यादातर लोगों में यह बात ऊभर कर आई है कि उन्हें  बचपन में पर्याप्त प्यार नहीं मिला |ये बात कहीं न कहीं एक ग्रंथि बन गयी |जो बड़ा होने पर भी एक बेचैनी एक छटपटाहट के रूप में शेष रह गयी । महंगे कैनवास शूज चाहे हजारों किलोमीटर कि यात्रा कर ले पर पिता के साथ पिलो फाइटिंग में बिताए गए दस मिनट कि दूरी कभी नहीं माप पाते । महंगे टेडी बियर माँ के स्नेहिल स्पर्श को कभी छू नहीं पाते । एक पत्नी कि सुन्दरता की तारीफ़ चाहे सारा  संसार कर ले पर अगर पति के पास देखने की भी फुर्सत नहीं है तो सब कुछ व्यर्थ ,सब कुछ बेमानी सा लगता है हर पति अपनी छोटी से छोटी उपलब्धि सबसे पहले अपनी पत्नी को बताना चाहता है.… पर अगर पत्नी ही उस बात पर ध्यानं न दे तो लगता है जैसे सब कुछ पा कर भी किसी ने सब कुछ लूट लिया हो । अगर आप को अपने जीवन के पहले दोस्त अपने भाई या बहन से बात करने के लिए अपॉइंटमेंट लेना पड़े तो इंतज़ार कि हर घडी के साथ रिश्तों में खोखलापन नजर आने लगता है महंगे गिफ्ट मुँह चिढाते है हर गिफ्ट के साथ स्नेह के वृक्ष पर थोडा सा तेज़ाब गिर जाता है ॥……… और अन्दर ही अन्दर कुछ सूख जाता हैं ॥ कभी सोचा है इन अमीर गरीबों का दर्द। …………. (क्रमश ) वंदना बाजपेई (चित्र गूगल से ) अटूट बंधन ………… हमारा फेस बुक पेज 

थोड़ी सी समझदारी से निभाएं जा सकते हैं रिश्ते

मेरा तो मानना है कि हर विवाह ही बेमेल विवाह होता है,क्योंकि कोई भी दो व्यक्ति एक सी सोच, एक सी विचारधारा, एक सी धार्मिक आस्था, एक से रहन सहन, एक से मिज़ाज, रूपरंग मे समकक्ष, आर्थिक स्थिति मे भी समान, शिक्षा मे भी समान हों, मिल पाना लगभग असंभव ही है।जीवन साथी मिलना कपड़े सिलवाने जैसा तो नहीं होता कि अपना नाप दिया, अपना डिज़़ाइन चुना, पसन्द का कपड़ा ख़रीदा और किसी अच्छे दर्ज़ी से सिलवा लिया। साहित्य समाज का दर्पण होता है, बेमेल विवाह किसी न किसी कारण से हमेशा होते रहे हैं, इसीलियें देवदास की पारो का विवाह उसकी मां ने ज़िद और जल्दबाज़ी मे बूढे अमीर आदमी से करवा दिया, क्योंकि देवदास के घर मे उनका अपमान हुआ था। प्रेमचन्द की निर्मला दहेज के अभाव मे बूढ़े से ब्याह दी गई।दोनो नायिकाओं के जीवन की त्रासदी का कारण बेमेल विवाह ही थे।मै इनकी कहानी मे उलझकर विषय से न भटक जाऊं इसलियें वापिस अपने मुद्दे पर आती हूँ। थोड़ी सी समझदारी से निभाएं जा सकते हैं रिश्ते हर विवाह मे सामंजस्य बनाना ज़रूरी होता है,पहले इसकी उम्मीद केवल लड़कियों से की जाती थी कि वो ससुराल के माहौल मे ख़ुद को ढ़ाल लेंगी। यह भी कहा जाता था कि लड़कियों की परवरिश ऐसी होनी चाहिये कि वो पानी की तरह हों, जो रंग मिलादो वैसी ही बन जायें, जिस बर्तन मे रख दो वही आकार ले लें।एक तरह से लड़की की पहचान को ही नकार दिया जाता था, पर अब ऐसा बिलकुल नहीं है , लड़कों को भी विवाह को सफल बनाने के लियें बहुत सामंजस्य बनाना पड़ता है। ये सामंजस्य केवल पति पत्नि के बीच ही नहीं दोनो परिवारों के बीच बनाना भी ज़रूरी है।आदर्श स्थिति तो वह होगी जहाँ पति पत्नि एक दूसरे पर हावी हुए बिना, एक साथ सामंजस्य बनाकर रहें।  ऐसा करने से उनका प्रेम समय और उम्र के साथ बढता है, फिर चाहें वो कितने ही बेमल क्यों न हों! बेमेल विवाह का अर्थ है कि जहाँ पति पत्नि एक दूसरे से बहुत अलग हों। इन अंतरों का आधार लंबाई, मोटा या पतला होना, रंगरूप,शिक्षा,आयु, धार्मिक आस्था,परिवारों की  आर्थिक स्थिति, विचारधारा, शौक,मिज़ाज शहरी या ग्रामीण परवरिश अथवा कुछ और भी हो सकता है।  माता पिता अपने बच्चों का रिश्ता बच्चों के अनुरूप पात्र से ही करना चाहते हैं।बेटी का रिश्ता जिस परिवार मे हो वो उनसे बहतर आर्थिक स्थिति मे हो या कम से कम बराबरी का हो, लड़का लड़की से उम्र मे बड़ा हो, उससे अधिक शिक्षित हो और ज़्यादा कमाता हो। रूपरंग मे लड़का लड़की उन्नीस हो सकता है, पर बहुत कम नहीं होना चाहिये।लड़के के माता पिता को गोरी,सुन्दर सुशील कन्या चाहिये जो आदर्श बहू और पत्नी तो हो ही पर नौकरी पेशा पढ़ी लिखी भी हो।दहेज़ भी एक मुख्य मुद्दा हो सकता है। जब हो आयु में अंतर   माता पिता को अपने बच्चों का जब मन चाहा रिश्ता नहीं मिल पाता, उम्र बढ़ती हुई देखते हैं, तो अक्सर बेमेल विवाह हो जाते हैं। कभी लड़का लड़की से 10-15 वर्ष बड़ा मिल जाता है, कभी लड़की दो चार साल बड़ी हो सकती है, कभी लड़का लम्बा और लड़की छोटी, कभी लड़की बहुत गोरी और लड़का बहुत काला, कभी लड़की बहुत कम पढ़ी, कभी पढ़ी लिखी लड़की और कम पढ़ा व्यवसायी लड़का परिणय सूत्र मे बंध जाते हैं।प्रेम विवाह मे भी बहुत सारे बेमेल लगने वाले जोड़े बंधते हुए देखे जा सकते हैं।ये बेमेल से लगने वाले रिश्ते मे बंधे दम्पति बहुत सफल जीवन बिता सकते हैं, बहुत ख़ुश रह सकते हैं, यदि दोनो तरफ़ से रिश्ते को ईमानदारी से निभाने की इच्छा हो।यदि अहम् रिश्ते के बीच मे आजाये तो जो रिश्ता बेजोड़ और श्रेष्ठ दिखता है, उसे भी निभाना कठिन हो सकता है। बेमेल होने के जो आम आधार  हैं,उनमे आयु मे अंतर बहुत महत्वपूर्ण है। वैवाहिक बंधन मे बंधने के लियें लड़का लड़की से 2-5 साल बड़ा हो, सही माना जाता है, माता पिता ऐसा ही रिश्ता खोजने की कोशिश करते हैं। यदि लड़का लड़की से बहुत साल बड़ा हो या लड़की लड़के से कुछ साल से बड़ी हो तो उसे बेमेल विवाह कह दिया जाता है।उम्र के अंतर की वजह से केवल विवाह असफल नहीं हो सकता। यदि लड़की 20, 21 साल की हो और लड़का 35 के आस पास तो भी वे सफल वैवाहिक जीवन जी सकते हैं।परिपक्व व्यक्ति के साथ पत्नी अधिक सुरक्षित महसूस कर सकती है। पति को भी कम उम्र दिखाने के लियें अपनी वेशभूषा मे बदलाव करना, या हाव भाव मे बदलाव करना ज़रूरी नहीं है।पत्नी को भी व्यवाहार मे अस्वाभाविकता लाने की ज़रूरत नहीं है।आजकल 30 ,32 साल की महिलायें भी अपने सलीके से, अपनी आयु से कम लगती हैं। वैसे भी बढ़ती आयु के साथ उम्र का अंतर कम महसूस होने लगता है। यदि लड़की आयु मे साल दो साल बड़ी हो तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता, परन्तु अंतर यदि ज्यादा हो तो कुछ सावधानियां बरतनी चाहिये, पत्नी को अपने शारीरिक सौंदर्य को बनाये रखने के लियें कुछ महनत करनी चाहिये।पति पर अधिकार जमाने की कोशिश नहीं करनी चाहिये, उनकी उम्र कम है वो अपरिपक्व हैं, यह नहीं जताना चाहिये। पति को भी पत्नी की बड़ी उम्र का अहसास नहीं करवाना चाहिये। जीवन सहजता के साथ जीना चाहिये। आम तौर पर आयु के बड़े अंतर या तो प्रेम विवाह मे होते हैं या माता पिता किसी मजबूरी मे ऐसा रिश्ता करते हैं।उम्र के बड़े अंतर के बावजूद पति पत्नी आपस मे ताल मेल बिठा कर सुखी जीवन जी सकते हैं। जब हो आर्थिक स्थिति में अंतर  दोनो परिवारों की आर्थिक स्थिति मे बहुत अंतर हो तब भी उसे बेमेल विवाह कहा जा सकता है।आम तौर पर मातापिता आर्थिक रूप से समकक्ष परिवार मे ही रिश्ता ढूंढते है, मगर कभी किसी कारणवश असमान आर्थिक स्थिति के परिवारो मे रिश्ता हो जाये, तो दोनो पक्षों को बड़ी सावधानी बरतनी चाहिये। लड़की का मायका संपन्न हो और ससुराल उतनी संपन्न न हो तो कभी कभी उनके आत्म सम्मान को चोट अंजाने मे पंहुच जाती है, जब मायके वाले बेटी की ज़रूरतों को ध्यान मे रखकर ज़्यादा उपहार भेजने लगते हैं। यदि लड़की के परिवार की आर्थिक स्थिति कमज़ोर हो तो … Read more

रिश्तों की तस्वीर का एक पहलू

रिश्तों की तस्वीर का एक पहलू                                                                                        इस संसार में हर व्यक्ति और वस्तु गुण-दोष से युक्त है,लेकिन रिश्तों की दुनिया में यह नियम लागू नहीं हो पाता। मन और आत्मा के धरातल पर रिश्ते जब प्रगाढ होते हैं,तो सिर्फ गुण ही गुण दिखाई देते हैं और दोष दिखना बंद हो जाते हैं या दूसरे शब्दों में कहें,तो जब किसी को किसी में दोष दिखाई देना बंद हो जाएं,तो वह रिश्ता प्रगाढता के चरम पर होता है। इसीलिए दुनिया के सबसे बडे और महान मां के रिश्ते में अक्सर यह देखने को मिलता है कि बेटा कितना ही बुरा क्यों न हो,मां को बेटे की बुराइयां नजर नहीं आतीं। जब हम किसी से मिलते हैं,तो उसके तन या मन के आधार पर आकर्षित या विकर्षित होते हैं। तन का आकर्षण दीर्घावधि तक नहीं रह सकता,क्योंकि तन की एक निर्धारित आयु है और यौवन के चरम पर पहुंचने के बाद दिन-ब-दिन तन की चमक फीकी पडने लगती है।लेकिन जब किसी का मन और आत्मा आकर्षण का केन्द्र बनता है,किसी के विचार मन को भाने लगते हैं,तो उसका तन कैसा भी हो,सर्वाधिक सुन्दर लगने लगता है। दोनों तरह के आकर्षणों में मूलभूत अंतर यही है कि तन का आकर्षण बहुधा मन की देहरी तक नहीं पहुंच पाता,जबकि मन और आत्मा का आकर्षण स्वत: तन को आकर्षक बना देता है। जब किसी के विचार या उसकी विचारशैली हृदय में प्रवेश करती है,तो धीरे-धीरे एक ऐसी स्थिति आती है,जब उसमें कोई कमी और दोष दिखना बंद हो जाते हैं।उसकी कमियां भी खूबियां जैसी दिखने लगती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि कोई संशय नहीं रह जाता और अटूट विश्‍वास का सृजन होता है और यह तो सर्वविदित है कि विश्‍वास की किसी भी रिश्ते की सबसे मजबूत नींव होती है। रिश्ते उस समय और प्रगाढ हो जाते हैं,जब यह विश्‍वास गर्व का रुप धारण कर लेता है।यह विश्‍वास की चरमावस्था है,जब किसी को अपने साथी के साथ पर गर्व होने लगता है।विश्‍वास की नींव पर टिकी रिश्तों की इमारत को जब गर्व का गुम्बद मिलता है,तो वह रिश्ता एक मंदिर बन जाता है। जब किसी रिश्ते के प्रति कोई गौरवान्वित होता है,तो यह गौरव आत्मविश्‍वास का सम्बल भी बन जाता है। जिस रिश्ते में भाव पक्ष जितना मजबूत होता है,भौतिक पक्ष का उतना ही अभाव होता जाता है। इन रिश्तों में न तो शरीर का कोई महत्व होaता है और न ही क्षणभंगुर शरीर की किसी तस्वीर का,क्योंकि इस तरह के रिश्ते में शरीर का हर रुप और उस शरीर की हर तस्वीर खुद-ब-खुद दुनिया की सबसे खूबसूरत तस्वीर दिखेगी। ओमकार मणि त्रिपाठी  चित्र गूगल से साभार atoot bandhan ………… हमारा फेस बुक पेज 

आखिर क्यों टूटते हैं गहरे रिश्ते

                                    अभी ज्यादा दिन नहीं बीते,जब सुरेश व मोहन गहरे दोस्त हुआ करते थे,लेकिन आज दोनों एक दूसरे की चर्चा तो दूर्,नाम तक सुनना पसंद नहीं करते.अगर कहीं किसी ने गलती से भी किसी चर्चा में एक का नाम ले लिया.तो दूसरा बिफर पड़ता है. आखिर क्यों टूटते हैं घनिष्ठ रिश्ते  सीमा और रजनीश की कहानी भी कुछ इसी तरह की है.दोनो ने लगभग 10 वर्षों की कड़ी प्रेम तपस्या के बाद एक वर्ष पूर्व विवाह किया,लेकिन इस एक साल के भीतर ही फ़ासले कुछ इस कदर बढ़े कि अब दोनों तलाक की तैयारी कर रहे हैं .बात सिर्फ़ सुरेश-मोहन या सीमा-रजनीश की ही नहीं है,न जाने कितने ऐसे रिश्ते हैं,जो जन्मते हैं,पनपते हैं,खिलते हैं और फिर यकायक मुरझा जाते हैं.जो कभी एक दूसरे के लिए जान तक कुर्बान करने के लिए तैयार रहते हैं.वही एक दूसरे के जानी-दुश्मन बन जाने हैं. कैसे बनते हैं रिश्ते  दरअसल किसी भी मनुष्य के जीवन में दो तरह के रिश्ते होते हैं.मनुष्य जन्म लेते ही कई तरह के रिश्तों की परिभाषाओं में बंध जाता है, जिनका आधार रक्त सम्बन्ध होता है,लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है,वैसे-वैसे कुछ नए रिश्तों की दुनिया भी आकार लेने लगती है, जिनका वह ख़ुद चयन करता है. ऐसे रिश्तों की एक अलग अहमियत होती है,क्योंकि ये विरासत में नहीं मिलते,बल्कि इनका चयन किया जाता है.ऐसे रिश्तों को प्रेम का नाम दिया जाए या दोस्ती का या कोई और नाम दिया जाये,लेकिन ये बनते तभी हैं,जब दोनों पक्षों को एक दूसरे से किसी न किसी तरह के सुख या संतुष्टि की अनुभूति होती है.यह सुख शारीरिक,मानसिक,आर्थिक या आत्मिक किसी भी तरह का हो सकता है.जब एक पक्ष दूसरे के बिना ख़ुद को अपूर्ण,अधूरा महसूस करता है,तो अपनत्व का भाव पनपता है और जैसे-जैसे यह अपनत्व बढ़ता जाता है,रिश्ता प्रगाढ़ होता जाता है. रिश्ते टूटने की वजह  दूसरे शब्दों में कहा जाए तो किन्हीं दो लोगों के बीच में पारस्परिक हितों का होना,बनना और बढ़ना रिश्तों को न केवल जन्म देता है ,बल्कि एक मज़बूत नींव भी प्रदान करता है,लेकिन जैसे ही पारस्परिक हित निजी हित में तब्दील होना शुरु होते हैं रिश्तों को ग्रहण लगाना शुरु हो जाता है.पारस्परिक हित में अपने हित के साथ-साथ दूसरे के हित का भी समान रुप से ध्यान रखा जाता है,जबकि निजी हित में अपने और सिर्फ़ अपने हित पर ध्यान दिया जाता है.निजहित को प्राथमिकता देने या स्वहित की कामना करने में उस समय तक कुछ भी ग़लत नहीं है जब तक दूसरे के हितों का भी पूरी तरह से ध्यान रखा जाये,लेकिन जब दूसरे के हितों की उपेक्षा करके अपने हित पर जोर दिया जाता है,तो रिश्ते को स्वार्थपरता की दीमक लग जाती है,जो धीरे-धीरे किसी भी रिश्ते को खोखला कर देती है. स्वार्थ की भावना रिश्तों की दुनिया का वह मीठा जहर है,जो रिश्ते को असमय ही कालकवलित कर देती है.स्वार्थ की भावना उस समय और भी कुरूप्, भीषण और वीभत्स रुप धारण कर लेती है,जब दूसरे पक्ष के अहित की कीमत पर भी ख़ुद का स्वार्थ सिद्ध करने की कोशिश की जाती है.किसी भी रिश्ते में एक-दो बार ऐसे प्रयास सफल भी हो सकते हैं,लेकिन जब बार-बार किसी का अहित करके कोई अपना हित साधने की कोशिश करता है,तो रिश्ते जख्मी होने लगते हैं.ये ज़ख्म जितने गहरे होते जाते हैं, रिश्तों की दरार उतनी ही चौड़ी होती जाती है.मन के किसी कोने में या दिल के दर्पण पर स्वार्थ की परत के जमते ही रिश्तों का संसार दरकने लगता है और धीरे-धीरे एक समय ऐसा भी आता है,जब रिश्ता पूरी तरह टूट कर बिखर जाता है. कैसे करे रिश्तों को बचाने की कोशिश  सुदीर्घ और मज़बूत रिश्ते मनुष्य को न केवल भावनात्मक संबल देते हैं,बल्कि आत्मबल बढ़ाने में भी मददगार साबित होते हैं. सदाबहार रिश्तों के हरे-भरे वृक्षों की छाया में मनुष्य ख़ुद को सुरक्षित महसूस करता है,जबकि किसी भी तरह के रिश्ते का बिखरना ऐसे घाव दे जाता है,जिसकी जीवन भर भरपाई नहीं हो पाती .इसलिए जहाँ तक हो सके रिश्तों को टूटने से बचाने की कोशिश करनी चहिये. रिश्तों को बचाने के लिए सबसे जरूरी है कि स्वार्थ के बजाय त्याग और स्वहित के बजाय पारस्परिक हित को प्रधानतादी जाये.दूसरे के अहित की कीमत पर भी अपना हित साधने के बजाए जब अपना अहित होने पर भी दूसरे का हित करने की भावना जन्म लेती है,तो रिश्ते ऐसी चट्टान बन जाते हैं, जिनका टूट पाना असंभव हो जाता है.इस तरह रिश्तों का बंधन इतना मज़बूत होता जाता है कि कोई भी इससे बाहर नहीं निकल सकता. रिश्तों की नाव को डूबने से बचाने के लिए यह जरूरी है कि इस नाव में स्वार्थपरता का सुराख न होने पाये,क्योंकि रिश्तों की नाव मझधार में तभी डूबती है जब पारस्परिकहित रुपी पतवार और त्यागरुपी खेवनहार लुप्त हो जाते हैं.                                                                                                                                                                              ओमकार मणि त्रिपाठी                                                                                 संस्थापक व् संपादक                                                                         सच का हौसला ( दैनिक समाचार पत्र )                                                                          अटूट बंधन … Read more