अनमोल है पिता का प्यार

आज का दिन पिता के नाम है | माँ हो या पिता ये दोनों ही रिश्ते किसी भी व्यक्ति के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं , जो ना सिर्फ जन्म का कारक हैं बल्कि उसको  एक व्यक्तित्व को सही आकार में ढालने में भी सहायक | पिछले एक हफ्ते से अख़बारों मैगजींस में पिता से सम्बंधित ढेरों लेख  पढ़ने को मिले , जिनमें से ज्यादातर के शीर्षक रहे …”बदल रहे हैं आज के पापा’, ‘माँ की जगह ले रहे हैं पापा’ , ‘नया जमाना नये पापा’, ‘पापा और बच्चों का रिश्ता हो गया है बेहतर’  आदि-आदि | ये सच है कि आज के समय की जरूरतों को देखते हुए पिता की भूमिका में परिवर्तन आया है, लेकिन आज के पिता को पुराने पिता से बेहतर सिद्ध करने की जो एक तरफा कोशिश हो रही है वो मुझे कुछ उचित नहीं लगी | अनमोल था है और रहेगा पिता का प्यार   ये सच है की फादर्स  डे मनाना हमने अभी हाल ही में सीखा है …लेकिन संतान और पिता का एक खूबसूरत रिश्ता हमेशा से था | प्रेम तब भी था अभिव्यक्ति के तरीके दूसरे थे …और उनको उसी तरह से समझ भी लिया जाता था | दादी के ज़माने में संयुक्त परिवारों में पिता अपने बच्चों को नहीं खिलाते थे …भाई के बच्चों को खिलाते थे , प्यार दुलार देते थे | इस तरह से हर बच्चे को चाचा ताऊ से पिता का प्यार मिल ही जाता था | अपने बच्चे ही क्या तब गाँव की बेटी भी अपनी बेटी होती थी | कर्तव्य और पारिवारिक एकता के लिए निजी भावनाओं का त्याग आसान नहीं है | छोटे पर बच्चों को समझ भले ही ना आये पर बड़े होते ही उन्हें समझ में आने लगता था कि उनके पिता , चाचा , ताऊ परिवार को बाँधे रखने के लिए ये त्याग कर रहे हैं , तब पिता उनकी आँखों में एक आदर्श के रूप में उभरते थे | लोकगीत तब भी बाबुल के लिए ही बनते थे | बच्चे जानते थे कि उनके पिता उन्हें बहुत प्यार करते थे | अगर अपने ज़माने के पिताओं की बात करूँ तो उस समय पिता ज्यादातर कठोर दिखा करते थे , जिसका कारण घर में अनुशासन रखना होता था | उस समय माताएं शरारत करते समय बच्चों को डराया करतीं , ” आने दो बाबूजी को  , जब ठुकाई करेंगे तब सुधरोगे ” और बच्चे शैतानी छोड़  कर किताबें उठा लेते | ये डर जानबूझ कर बनाया जाता था | कई बार पिता पसीजते भी तो माँ अकेले में समझा देती, “देखो आप कठोर ही रहना , नहीं तो किसी की बात नहीं सुनेगा ‘, और पिता अनुशासन की लगाम फिर से थाम लेते | पिता के अनुशासन बनाये रखने वाले कठोर रूप में माँ की मिली भगत रहती थी इसका पता बड़े होकर लगता था | माँ के मार्फ़त ही बच्चों समस्याएं पिता तक पहुँच जाती थीं और माँ के मार्फ़त ही पिता की राय बच्चों को मिल जाती थी | आज अक्सर माता -पिता दोनों परेशान  दिखते हैं , ” ये तो किसी से नहीं डरता | “अनुशासन भी जीवन का अहम् अंग है , जिसकी पहली पाठशाला घर ही होती है, ये हम पिता से सीखते थे  | मैंने स्वयं अपने पिता के कठोर और मुलायम दोनों रूप देखे | जिन पिता की एक कड़क आवाज से हम भाई -बहन बिलों में दुबक जाते उन्हें कई बार माँ से ज्यादा भावुक और ममता मयी देखा | तब सोचा करती कि घर में अनुसाशन बनाए रखने के लिए वो कितना मुखौटा ओढ़े रखते थे , आसान तो ये भी नहीं होगा | इस आवरण के बावजूद ऐसा कभी नहीं हुआ कि उनका प्रेम महसूस नहीं हुआ हो | वो ह्म लोगों के साथ खेलते नहीं थे , लोरी भी नहीं गाते थे , शायद पोतड़े भी नहीं बदले होंगें पर मैंने उन्हें कभी अपने लिए कुछ करते नहीं देखा हम सब सब की इच्छाएं पूरी करने के लिए वो सारी कटौती खुद पर करते | कितनी बार मन मार लेते कि बच्चों के लिए जुड़ जाएगा कितने भी बीमार हों हम सब की चिंता फ़िक्र अपने सर ओढ़ कर कहते , ” तुम लोग फ़िक्र ना करो अभी हम हैं | उन्होंने कभी नहीं कहा कि हम तुम लोगों से बहुत प्यार करते हैं पर उनके अव्यक्त प्रेम को समझने की दृष्टि हमारे पास थी | अब आते हैं आज के पिता पर ….आज एकल परिवारों में , खासकर वहाँ जहाँ पति -पत्नी दोनों काम पर जाते हों , पिता की छवि में स्पष्ट परिवर्तन दिखता है | बच्चों को अकेले सही से पालना है तो माता -पिता दोनों को पचास प्रतिशत माँ और पचास प्रतिशत पिता होना ही होगा | पिताओं ने इस नए दायित्व को बखूबी निभाना शुरू किया है | अनुशासन का मुखौटा उतार कर वो बच्चों के दोस्त बन कर उनके सामने आये हैं | माँ का बच्चों और पिता के बीच सेतु बनने का रोल खत्म हुआ है | बच्चे सीधे पिता से संवाद कर रहे हैं और हल पा रहे हैं | ये रिश्ता बहुत ही खूबसूरत तरीके से अभिव्यक्त हो रहा है | जैसे पहले पिता और बच्चों के रिश्ते के बीच संवाद की कमी थी आज इस रिश्ते में दोस्ती के इस रिश्ते में बच्चे पिता का आदर करना नहीं सीख रहे हैं | जब पिता का आदर नहीं करते तो किसी बड़े का आदर नहीं करते | हम सब में से कौन ऐसा होगा जिसने ये संवाद अपने आस -पास ना सुना हो , ” चुप बैठिये अंकल , पापा !आपको तो कुछ आता ही नहीं , और सड़क पर , ” ए  बुड्ढे तू  होता कौन है हमरे बीच में बोलने वाला ” |एक कड़वी  सच्चाई ये भी है कि आज जितने माता -पिता बच्चों के मित्र बन रहे हैं उतने ही तेजी से वृद्धाश्रम खुल रहते | दोस्ती का ये रिश्ता दोस्ती में नो सॉरी नो थैंक यू की जगह … “थैंक यू पापा ” और समय आने “सॉरी पापा ‘में बदल रहा है | जो भी हो पिता और बच्चे का रिश्ता एक महत्वपूर्ण रिश्ता है , जिसमें हमेशा … Read more

पिता को याद करते हुए -अपर्णा परवीन कुमार की कवितायें

बेटी का अपने पिता से बहुत मीठा सा रिश्ता होता है | पिता बेटियों से कितने सुख -दुःख साझा करते हैं लेकिन एक दिन अचानक पिता बिना कुछ बताये बहुत दूर चले जाते हैं |  पिता के होने तक मायका अपना घर लगता है , उसके बाद वो भाई का घर हो जाता है , जहाँ माँ रहती है | पिता का प्यार अनमोल है | पिता के न रहने पर ये प्यार एक कसक बन के दिल में गड़ता है जो कभी कम नहीं होती | ऐसी ही कसक है इन कविताओं में जो अपर्णा परवीन कुमार जी ने पिता कोयाद करते हुए लिखी हैं | पिता को याद करते हुए -अपर्णा परवीन कुमार की कवितायें  मेहंदी के मौसमों में त्यौहारों के दिनों में, घेवर की खुशबुओं में, सावन के लहरियों में, इन्द्रधनुष के रंगों में, और पीहर के सब प्रसंगों में, अब कुछ कमी सी है……. बाबा! तुम्हारे बिना, दुनिया चल भी रही है… फिर भी थमी सी है ………. ______________________________________________________ माँ के साथ  माँ को नहीं आता था मेहंदी मांडना, वो हथेली में मेहंदी रख के कर लेती थी मुट्ठियाँ बंद, मेरी तीज, मेरे त्यौहार, सब माँ के हाथों में रच जाते थे इस तरह ……….. शगुन का यह खा ले, शगुन का यह पहन ले, माँ करा लेती थीं, न जाने कितने शगुन, पीछे दौड़ भाग के……. रचा देती थीं मेरे भी हाथों में मेहंदी, चुपके से आधी रात को……., माँ, मैंने नहीं सीखा तुम्हारे बिना, त्यौहार मनाना, …… शगुन करना, मीठा बनाना, मेहंदी लगाना, तुम डाँटोगी फिर भी….. अब हर तीज, हर त्यौहार, मैं जी रही हूँ तुम्हारा वैधव्य तुम्हारे साथ ……………. बाबा  वो उंचाइयां जो पिरो लीं थी अपनी बातों में तुमने, वो गहराइयाँ जो थमाँ दी थी मेरे हाथों में तुमने, वो वक़्त जो बेवक्त ख़त्म हो गया, सपने सा जीवन, जो अब सपना हो गया, मैं मुन्तजिर हूँ, खड़ी हूँ द्वार पे उसी, आना था तुम्हे तुम्हारी देह ही पहुंची, जो तुम थे बाबा तो तुमसे रंग उत्सव था, माँ का अपनी देह से एक संग शाश्वत था, तुम देह लेकर क्या गए वो देह शेष है, जीने में है न मरने में, जैसे एक अवशेष है, जोड़ा है सबका संबल फिर भी टूट कर उसने, जीवन मरण की वेदना से छूट कर उसने, इस उम्मीद में हर रात देर तक मैं सोती हूँ, सपने में तुम्हे गले लग के जी भर के रोती हूँ, बाबा! कहाँ चले गए कब आओगे? बाबा! जहाँ हो वहां हमें कब बुलाओगे? अख़बार की कतरने  पुरानी किताबों डायरीयों में, मिल जाती हैं अब भी इक्की दुक्की, दिलाती है याद सुबह की चाय की, कोई सीख, कोई किस्सा, कोई नसीहत, सिमट आती है उस सिमटी हुई मुड़ी, तुड़ी, बरसों पन्नों के बीच दबी हुई, अखबार की कतरनों में…………… चाय पीते हुए, अखबार पढ़ते हुए, कभी मुझे कभी भैया को बुलाकर, थमा देते थे हाथों में पिताजी अखबार की कतरन…………. कागज़ का वो टुकड़ा, जीवन का सार होता था, हम पढ़ते थे उन्हें, संभल कर रख लेते थे, अब जब निकल आती हैं, कभी किसी किताब से अचानक, तो कागज़ की कतरने भी, उनकी मौजूदगी, उनका आभास बन जाती हैं……………………… अपर्णा परवीन कुमार           यह भी पढ़ें ……… आखिरी दिन किरण सिंह की कवितायें एक गुस्सैल आदमी टूटते तारे की मिन्नतें आपको    “   पिता को याद करते हुए -अपर्णा परवीन कुमार की कवितायें  “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita,father, daughter, memories

पूरक एक दूजे के

 आज पितृ दिवस पर मैं अपने पिता को अलग से याद नहीं कर पाउँगी , क्योंकि माता -पिता वो जीवन भर एक दूसरे के पूरक रहे यहाँ तक की समय की धारा   के उस पार भी उन्होंने एक दूसरे का साथ दिया  |एक बेटी की स्मृतियों के पन्नों से निकली  हृदयस्पर्शी कविता … पूरक एक दूजे के  माँ थी  तो पिता थे पिता थे तो माँ थी पूरक थे दोनों एक-दूजे के…….! जब दोनों थे  हँसते दिन-रातें थीं  हवाएँ घर की  देहरी-आँगन में गीत गाती थीं……! जब दोनों थे बसेरा था त्योहारों का घर में आते थे पंछी घर के बगीचे में शोर मचाते थे नटखट बच्चों की तरह,नृत्य करती थी भोर जैसे उनके साथ में……..! जब दोनों थे  गूँजते थे गीत और कविताएँ घर के कोने-कोने में  आते थे अतिथि  बनती थी पकौड़ियाँ और चाय……! जब दोनों थे फलते थे आम, आड़ू, नाशपाती लीची, चकोतरे बगिया में,पालक, मेथी, धनिया, मूली पोदीना, अरबी फलते थेछोटी-छोटी क्यारियों मेंमिलते थे थैले भर-भर लहलहाती थी बगिया……..! खिलते थे  विविध रंगी गुलाब, गेंदे  गुलमेहँदी, बोगनविलिया  “ उत्तरगिरि “ में…………..! जब दोनों थे बरसता आशीर्वाद मिलती थी स्नेह-छाया हर मौसम में……………! ईश्वर ने  भेजा संदेश  माँ को आने का  तो उनको विदा कर  पिता भी ढूँढने लगे थे  मार्ग जल्दी माँ के पास जाने का……! पूरक थे जीवन भर एक-दूजे के तभी डेढ़ माह बाद ही साथ देने माँ का पहुँचे पिता भी,पूरक बने हैं मृत्यु के बाद भी तारों के मध्य दोनों साथ-साथ चमकते हैं…………! दुख के अंधेरों में  सिर पर हाथ रख सदा की तरह  मेरा साहस बनते हैं तो  खुशियों में आशीष बरसाते नवगीत रचते हैं मेरी श्वास बन  साथ-साथ चलते हैं…………! इसी से नहीं करती उन्हें स्मरण मैं अलग-अलग मातृ दिवस-पितृ दिवस पर…….! हर दिवस  उन्हीं की स्मृतियों के  धनक संग ढलते हैं माँ-पापा आज भी  मेरे हृदय में  बच्चों से पलते हैं……….!! ——————————- डा० भारती वर्मा बौड़ाई                                  यह भी पढ़ें … डर -कहानी रोचिका शर्मा एक दिन पिता के नाम -गडा धन आप पढेंगे ना पापा लघुकथा -याद पापा की आपको  कविता  “    पूरक एक दूजे के “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under- father’s day, papa, father-daughter, memoirs, parents

आप पढेंगे न पापा

पिता होते हैं अन्तरिक्ष की तरह….. जो व्यक्तित्व को विस्तार देते हैं , जहाँ माँ सींचती है प्रेम से और संतान में में भारती है दया क्षमा प्रेम के गुण वहीँ पिता देते हैं जीवन को दृढ़ता …आज भले ही मेरे पिता स्थूल रूप में मेरे पास नहीं हैं पर अपने विचारों के माध्यम से मेरे पास हैं…. आप पढेंगे न पापा  नन्हे -नन्हे पाँव जब लडखड़ा कर रखे थे धरती पर  तब आप ने ही थाम लिया थासिखाया था चलना दिया था हौसला चट्टानों से टकराने का कूट -कूट कर भरी थी आशावादिता ,आत्मविश्वास सिखाई थी जीवन की हर ऊँच -नीच पर पापा ये क्यों नहीं सिखाया की जब चला जाता है कोई अपना यूही बीच डगर में छोड़ कर कैसे रोकते हैं आंसुओं का सैलाब कैसे बंद करते हैं यादों को किसी बक्से में कैसे जुड़ते हैं टूट कर हो कर आधे -अधूरे जीते हैं महज जीवन चलाने के लिए ……….. तुम चिंता क्यों करती हो , बच्चों को माता –पिता के होते चिंता नहीं करनी चाहिए , हम हैं न देख लेंगे सब ,  “ पिताजी का एक वाक्य किसी तेज हवा के झोंके की तरह न जाने कैसे मेरी सारी चिंताएं पल भर में उड़ा के ले जाता | धीरे –धीरे आदत सी पड़ गयी , पिताजी हैं न सब देख लेंगें | लेकिन वक्त की आँधी जो पिताजी के वायदे से भी ज्यादा तेज थी सब कुछ तहस -नहस कर गयी  | मैंने तो अभी चिंता करना सीखा ही नहीं था | पिताजी हैं न सब देख लेंगे के आवरण तले मैं मैं कितनी महफूज थी , इसका पता तब चला जब ये आवरण  हट गया | मेरा ह्रदय भले ही चीख रहा हो , पर मैं ये आसमानी वार झेलने को विवश थी , दिमाग कितना कुछ भी समझता रहे ,पर मन इतना समझदार नहीं होता  ये झटका मन नहीं झेल पाया , गहरे अवसाद में खींच ले गया | जीवन  से विरक्ति सी हो गयी थी |  मुझे इस गहन वेदना से निकलने में तीन –चार वर्ष लगे | आज पितृ दिवस पर एक स्मृति साझा करना चाहती हूँ | यह स्मृति मेरे लेखन से ही सम्बंधित है | बात तब की है जब मैं कक्षा जब कक्षा चार में थी और मैंने पहली कविता लिखी थी , सबसे पहले दौड़ कर पिताजी को ही दिखाई थी क्योंकि उस समय  घर में पिताजी ही साहित्यिक रूचि रखते थे |कविता पढ़ कर  पिताजी की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था |  हर आये गए को दिखाते , देखो इत्ती सी है और इतना बढ़िया लिखा है | फिर मुझसे लाड़ से कहते “ तुम लिखा करो|” पर मैं बाल सुलभ उनकी बात हंसी में उड़ा देती | लिखती पर निजी डायरियों में, और पिताजी उनको खोज –खोज कर पढ़ते | उस पर बात करते , कभी प्रशंसा करते , कभी सलाह देते |   जब तक वो जीवित रहे ,वो  कहते रहे और मैं, “कभी लिखूंगी” सोच कर टालती रही |  घर –परिवार ससुराल की  तमाम  जिम्मेदारियों व् कुछ अन्य कारणों को निभाने के बीच पिताजी की ये इच्छा टलती ही रही | कल कर देंगे , कहते हुए हम सब यह समझने की भूल कर जाते हैं कि हमारे अपने सदा के लिए हमारे साथ होंगे , हर रात नींद के आगोश में जाते हुए हम कहाँ  सोच पाते हैं कि कुछ रातों की सुबह नहीं होती है |  आश्चर्य कि लोग  चले जाते है पर यक्ष प्रश्न जीवित रहता है सदा , सर्वदा …..और पीछे छोड़ देता है एक अंतहीन सूनापन | ऐसे ही पिताजी के उस लोक जाने के बाद जब रिक्तता का  एक आकाश मेंरे  ह्रदय में उतर गया तो खुद को सँभालने के लिए कलम  खुद ब खुद चल पड़ी |  सैंकड़ों कवितायें लिखी पिताजी पर …. आज भी वो कविताएं , मेरे दर्द का लेखा –जोखा मेरी निजी सम्पत्ति है | शायद  पिताजी की इच्छा ही थी कि वो सब लिखते –लिखते मैं सार्वजानिक लेखन में बिना किसी पूर्व योजना के आ गयी और पिताजी के आशीर्वाद से शुरुआत से ही आप सभी  पाठकों ने मेरे लेखन को  स्नेह दिया |  एक बात जो मैं आज आप सब से साझा करना चाहती हूँ कि शुरू शरू में जब भी कोई कविता  फेसबुक पर डालती तो आंसू थमने का नाम नहीं लेते , एक हुक सी  मन में भरती , “ काश पिताजी देख पाते” |परिवार के लोग समझाते  वो जहाँ हैं वहां से देख रहे होंगे “| सही या गलत पर धीरे -धीरे मैं ऐसा समझने की कोशिश करने लगी जिससे यह मलहम मेरे घावों की जलन कुछ कम कर सके | फिर भी ये ” काश ” बीच -बीच में फन उठा कर डसता रहता है |  यादों का पिटारा खुल चुका है … ख़ुशी और गम दोनों ही स्मृतियाँ दर्द दे रही है .. प्रवाह रोकना  मुश्किल है | आज इतना ही , पर अभी बहुत लिखना है …बहुत … आप जहाँ हैं वहां से पढेंगे न पापा  …. बताइये … पढेंगे ना | वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें … पिता को याद करते हुए अपने पापा की गुडिया वो 22 दिन लघु कथा -याद पापा की आपको  लेख “   आप पढेंगे न पापा  .. “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under- father’s day, papa, father-daughter, memoirs

पिता को याद करते हुए

डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई ——————————– कल बहुत दिनों बाद सुबह मिली  खिली खिली बोली उदास होकर तुम्हारे पिता मुझसे रोज़ मिला करते थे गेट का ताला खोल कर इधर-उधर देश-समाज साहित्य, घर-संसार और तुम्हारी कितनी ही बातें करने के बाद तब तुम्हारी माँ सँग सुबह की चाय पिया करते थे फिर बरामदे में बैठ सर्दियों की गुनगुनी धूप में गर्मियों की सुबह-सुबह की ठंडक में साहित्य-संवाद किया करते थे बारिश होने पर बरामदे में आई बूँदों और ओलों को देख अपनी नातिन को पुकारते फ़ोटो खींचने और कटोरी में ओले  भरने को जब बन जाते धीरे-धीरे वे पानी तब वो पूछती ओले कहाँ गए “चैकड़ी पापा” उन दोनों की बालसुलभ सरल बातें सुन मैं भी मन ही मन मुस्काती उनके सँग बैठी रहती थी पर अब मैं रोज़ आती हूँ गेट भी खुलता है पर वो सौम्य मुस्कान लिए चेहरा नज़र नही आता तुम्हीं बताओ अब किसके सँग बैठूँ किससे कहूँ अपना दुख-सुख मुझसे मिलने अब कोई नही आता जो आते है वे सब कुछ करते हैं पर मुझसे बोलते तक नहीं बताओ सही है क्या भला यह! कभी अपने पिता की तरह मुझसे मिलने “उत्तरगिरि” में आओ न सुबह-सुबह। ————————–

अपने पापा की गुड़िया

फादर्स डे पर  एक बेटी की अपने पापा की याद को समर्पित कविता। अपने पापा की गुड़िया दो चुटिया बांधे और फ्रॉक पहने, दरवाजे पे-खड़ी रहती थी——— घंटो कभी अपने पापा की गुड़िया। फिर समय खिसकता गया, मै बड़ी होती गई! मेरे ब्याह को जाने लगे वे देखने लड़के, फिर ब्याह हुआ, मै विदा हुई पापा रोये नही, पर मैने उनके अंदर———- के आँसूओ का गीलापन महसूस किया, पीछे छोड़ आई सब कुछ अपने पापा की गुड़िया। सुना था बहुत दिनो तक, पापा तकते रहे वे दरवाज़ा,  शायद ये सोच—————- कि यही खड़ी रहती थी कभी, उनके इंतज़ार में घंटो,  फ्रॉक पहने दो चुटिया बांधे इस पापा की अपने गुड़िया। फिर आखिरी मर्तबा उन्हे बीमारी मे देखा, वे चल बसे! अब यादो में है——————-  कुछ फ्रॉक दो चुटिया और तन्हा खड़ी—————–  दरवाजे के उस तरफ, आँखो में आँसू लिये—————- अपने पापा की गुड़िया।  ### रंगनाथ द्विवेदी, यह भी पढ़ें ……. डर -कहानी रोचिका शर्मा एक दिन पिता के नाम -गडा धन आप पढेंगे ना पापा लघुकथा -याद पापा की आपको  कविता  “    पूरक एक दूजे के “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under- father’s day, papa, father-daughter, memoirs, parents

स्मृति – पिता की अस्थियां ….

सुशील यादव पिता , बस दो दिन पहले आपकी चिता का अग्नि-संस्कार कर लौटा था घर …. माँ की नजर में खुद अपराधी होने का दंश सालता रहा … पैने रस्म-रिवाजों का आघात जगह जगह ,बार बार सम्हालता रहा …. @@ आपके बनाया दबदबा,रुतबा,गौरव ,गर्व अहंकार का साम्राज्य , होते देखा छिन्न-भिन्न, मायूसी से भरे पिछले कुछ दिन… खिंचे-खिंचे से चन्द माह , दबे-दबे से साल गुजार दी आपने बिना किसी शिकवा बिना शिकायत दबी इच्छाओं की परछाइयां न जाने किन अँधेरे के हवाले कर दी @@ एक  खुशबु पिता की  पहले छुआ करती थी दूर से विलोपित हो गई अचानक, न जाने कहाँ …? न जाने क्यों  मुझसे अचानक रहने लगे खिन्न >>> आज इस मुक्तिधाम में मैं अपने अहं के ‘दास्तानों’ को उतार कर चाहता हूँ तुम्हे छूना … तुम्हारी अस्थियों में, तलाश कर रहा हूँ उन उंगलियों को…. छिन्न-भिन्न ,छितराये समय को टटोलने का उपक्रम पाना चाहता हूँ एक बार … फिर वही स्पर्श जिसने मुझे उचाईयों तक पहुचाने में अपनी समूची  ताकत झोक दी थी पता      नहीं  कहाँ कहाँ झुके थे लड़े थे …. मेरे पिता मेरी खातिर …. अनगिनत बार >>> मेरा बस चले तो सहेज कर रख लूँ तमाम उँगलियों के पोर-पोर हथेली ,समूची बांह कंधा …उनके  कदम … जिसने मुझमें  साहस का ‘दम’जी खोल के भरा >>> पिता जाने-अनजाने आपको इस ठौर तक अकाल ,नियत- समय से पहले ले आने का अपराध-बोध मेरे दिमाग की कमजोर नसें हरदम महसूस करती रहेगी

“एक दिन पिता के नाम “……कवितायें ही कवितायें

अटूट बंधन परिवार द्वारा आयोजित “एक दिन पिता के नाम ‘श्रंखला में  आप सब ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया इसके लिए हम आप सब रचनाकारों का ह्रदय से धन्यवाद करते हैं | हमारी कोशिश रही कि हम इस प्रतियोगिता में अच्छी से अच्छी रचनाओं को ब्लॉग पर प्रकाशित करे …. जिससे पाठकों को एक एक स्थान पर श्रेष्ठ सामग्री पढने को मिले | वैसे पिता के प्रति हर भाव अनमोल है हर शब्द अनूठा है हर वाक्य अतुलनीय है | ……… हम अपने आधार पर किसी भी भावना को कम या ज्यादा घोषित नहीं कर कर सकते थे पर लेखन कौशल और भावों की विविधता को व् रचनाकार के विजन को देखते हुए हमने ब्लॉग पर प्रकाशित की जाने वाली रचनाओं का चयन किया है | हमें प्राप्त होने वाली ५० से अधिक कविताओं में से हमने ७ का चयन किया है| आज प्रतियोगिता के अंतिम दिन आप संजना तिवारी , इंजी .आशा शर्मा ,तृप्ति वर्मा ,दीपिका कुमारी ‘दीप्ति ‘डॉ भारती वर्मा बौड़ाई ,रजा सिंह व् एस .एन गुप्ता की कवितायें पढेंगे | इस प्रतियोगिता के सफलता पूर्वक आयोजन के लिए “अटूट बंधन “परिवार रचनाकारों ,पाठकों व् निर्णायक मंडल के सदस्यों का ह्रदय से आभार व्यक्त करता है |  पापा मैं आप जैसी क्या इन यादों के लिए कोई शब्द भी हैं ? या इस पीड़ा के लिए कोई मरहम ?? मैं आपको खोजती हूँ जाने कहाँ – कहाँ ?? आप मृत्यु शया पर सज कर कब के जा चुके हो !! ये यकिन दिलाऊं भी तो खुद को कैसे ?? आईना देखती हूँ तो पाती हूँ —– वही आँखे…. हाँ ” पापा ” आपकी वही आँखे …… जिनसे नजरें मिलाना मुझे पाप लगता था आज चिपकी हैं मेरी ही आँखों पे ….। खुद को मुस्कुराते देखती हूँ तो…. महसूस होता है जैसे जैसे…. ये वही हुबहू चेहरा है आपका !!!!!! मुस्कुराता चेहरा ….।। जब कभी बच्चों को झिड़कती हूँ झूठे तो लगता है ये डांट…..?? ये तो वही डांट है जो कई बार आपने मुझे सुनाई थी झिड़कियों में ….।। मैं आपकी एक झलक नहीं पूर्ण व्यक्तित्व बन चुकी हूँ मेरे हाथ -पैर .. और उनकी सूजन भी…. उठना – बैठना – चलना और खीजना भी….. हाँ आप ही तो हैं मेरे भीतर -मेरे भीतर साँसे ले रहे हैं …. हैं ना ????? जानते हैं ” पापा ” नहीं देखती हूँ मैं खुद को रोते हुए क्योंकि आपकी ये लाडो नहीं देख पाएगी आपको खुद में रोते हुए…… नहीं देख पाउंगी मैं आपको रोते हुए ……. संजना तिवारी याद है मुझे पापा एक अटूट बंधन है  पिता का पुत्री से , माँ जननी तो पिता भाग्यविधाता, पिता की यादें वो खुशियाँ मानो ऊसर भूमि पर हरियावल। याद है मुझे पिता की सारी बातें बिताए गए उनके साथ वो पल -पल की हँसी, खेल, तमाशे,  मेरा रूठ जाना उनका मनाना,  मेरी एक एक जङता को पूरा करना। याद है मुझे मेरे वो तोहफे फ्रॉक, गाडियाँ व मिठाइयाँ,  जिसे छिपा देते तकिये के नीचे और ताकते दूर से, मानो खोज रहे मेरे चेहरे की खुशियाँ। याद है मुझे  पिता के जीवन की पहली कामयाबी, उनका बाइक खरीदना और  मुझे पहले बैठा घुमाना । याद हैं मुझे दिन भर खेल गर दुख जाते पैर  मेरे तो पिता का उन्हें सहलाना। याद हैं मुझे हर रात खेल कही भी सो जाती मैं पर आँखे खुलती तो पिता को ही पास पाती मैं।                    तृप्ति वर्मा तात नमन समझ न पाया प्यार पिता का, बस माँ की ममता को जाना पुत्र से जब पिता बना मैं, तब महत्ता इसकी पहचाना लम्हा-लम्हा यादें सारी, पल भर में मैं जी गया तुम्हे रुलाये सारे आंसू घूँट-घूँट मैं पी गया जब भी मुख से मेरे कड़वे शब्द कोई फूटे होंगे जाने उस नाज़ुक मन के कितने कौने टूटे होंगे अनुशासन को सज़ा मान कर तुमको कोसा था पल-पल इसी आवरण के भीतर था मेरा एक सुनहरा “कल” लोरी नहीं सुनाई तो क्या, रातों को तो जागे थे मेरे सपने सच करने, दिन-रात तुम्हीं तो भागे थे ममता के आंचल में मैंने, संस्कारों का पाठ पढ़ा हालातों से हार न माने, तुमने वो व्यक्तित्व गढ़ा जमा-पूँजी जीवन भर की मुझ पर सहज लुटा डाली फूल बनता देख कली को, खाली हाथ खिला माली आज नहीं तुम साथ मेरे तब दर्द तुम्हारा जीता हूँ सच्ची श्रध्दा सुमन सहित, तात नमन मैं करता हूँ इंजी. आशा शर्मा पिताजी प्रथम पुज्य भगवान (कविता)मेरे सर पर उनकी साया है वे हैं मेरा आसमान।मेरे लिए मेरे पिताजी  हैं प्रथम पुज्य भगवान।।ऊंगली पकड़ के चलना सिखाया,जीवन का हर मतलब समझाया,मेरे मंजिल का उसने राह बताया,आगे बढ़ने का मुझमें जोश जगाया,उनके आशिर्वाद से हम पा लेंगे हर मकाम।मेरे लिए मेरे पिताजी हैं प्रथम पुज्य भगवान।।प्यार से भी कभी नहीं डाँटा,बचपन में भी कभी न मारा,कैसा है सौभाग्य ये मेरा,बाबुल रुप में भगवान मिला,इनके पावन चरणों में ही मेरा है  चारो धाम।मेरे लिए मेरे पिताजी हैं प्रथम पुज्य भगवान।।अपनी चाहत कभी न जताया,धैर्य का उसने भंडार पाया,वृक्ष बन देते शितल छाया,स्वर्ग से सुंदर  घर बनाया,मेरी यही तमन्ना है मैं बढ़ाऊं इनकी शान।मेरे लिए मेरे पिताजी हैं प्रथम पुज्य भगवान।।– दीपिका कुमारी दीप्ति (पटना) सबसे बड़ा उपहार होता है पिता का  ये दुनिया जो उनके घर जन्म लेकर मिलता है हर बेटी को। दुनिया दिखा कर ऊँगली थामे चलना सिखाये बचपन की शरारतों में  साथ देकर  माँ की डाँट से बचाये कैशौर्य की उड़ानों में करे सावधान युवावस्था के सपनों में मार्गदर्शक बन  चले साथ-साथ सुख की छाया में भले ही दूर से देखे चुपचाप पर दुःख की धूप में समाधान लिए बने छायादार वृक्ष, टूटते-गिरते क्षणों में रखे कंधे पर हाथ और कहे धीरे से कानों में ‘तू चल, मैं हूँ तेरे साथ’ माँ के साथ भी और माँ के बाद भी  दिलाये मायके के होने का सुदृढ़ अहसास, उस बेटी का पिता जब चला जाए अचानक, तब, एक दिन तो क्या  पूरा जीवन भी कम है  पिता के लिए। –डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई– पिता  पिता एक शब्द नहीं एक सम्पूर्ण संसार है एक सुरक्षा है आश्वासन है कर्तव्य है अधिकार है। एक छाया है जिसके तले महफूज़ है बेफिक्र है। पिता का जो कुछ है अपना है ,नहीं है कुछ उसकाजो संतान का है। उसकी श्रम ,सम्पति और अधिकारअपने जाये के लिए है। माँ का सुहाग हैपिता ,उसकी … Read more

“एक दिन पिता के नाम “……… लेख -सुमित्रा गुप्ता

।।ॐ।।   “एक दिन पिता के नाम            नारी–पुरूष का अटूट बन्धन बँधा और मर्यादित बंधन में,अजस्र प्रेम धारा से वीर्य–रज कण से,जो नये सृजन के रूप में अपने ही रूप का विस्तार हुआ,वह रूप सन्तान कहलायी।अपने प्रेम के प्राकट्य रूप पर दोनों ही हर्षित हो गये और माता पिता का एक नया नाम पाया। माँ यदि संतानको संवारती है तो पिता दुलारता है।माँ यदि धरती सी सहनशील,क्षमाशील और ममता भरी  है,तो पिता आकाश जैसा विस्तारित, विशाल ह्रदय और पालक है।दोंनों ही जरूरी हैं,पर आज  हमें पिता की अहमियत दर्शानी है।तो सुनिये—-          घर की नींव,घर का मूल पिता रूप ही हैजिस तरह एक इमारत की मजबूती,  नींव पर दृढ़ता से टिकी रहती है,उसी तरह घर–परिवार कर्मठ पिता के कंधों पर टिका होता है।परिवार का मुखिया पिता ही होता है। हरेक की जरूरतें पूरी करते–करते उसका सारा जीवन यूँ ही बीत जाता है।कमानेवाला एक और खाने वाले अनेक।हांलाकि बाहर की भागम–भाग यदि पिता कर रहे होतें हैं,तो घर की व्यवस्था की  जद्दोजहद में माँ लगी रहती है।दोनों की ही भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है।आपको बहुत सुन्दर प्रभु के फरिश्तों की कहानी सुनाती हूँ—          प्रभु ने जब अपने ‘अंश रूप जीव‘ को अपने से अलग करके पृथ्वी पर भेजना चाहा तो वह ‘जीव‘ बहुत दुखी हुआ और कहने लगा कि पृथ्वी पर मेरी रक्षा,भरण–पोषण,मेरे कार्यों में सहयोग,मेरी देखभाल कौन करेगा।मैं जब बहुत छोटा होऊँगा,तब कौन मेरे कार्य करेगा,तब भगवान बोले तेरीसहायता के लिये पृथ्वी पर मैं फरिश्ते भेज दूँगा। ‘अंश रूप जीव‘बोला, कार्य तो बहुत सारे होंगें,तो क्या इतने सारे कार्यों के सहयोग के लिये  इतने सारे फरिश्ते भेजेंगें एक जीव के लिये,तो बहुत सारे फरिश्ते हो जायेंगे दुनियाँ में।भगवान बोले नहीं,इतने कार्यों के सहयोग के लिये सिर्फ दो फरिश्ते हीकाफी हैं,  जो तेरे माता–पिता के रूप में हर तरह से तेरा सहयोग करेंगें।सो बच्चे के जनमते ही माता–पिता उसकी साफ–सफाई,भरण–पोषण और हर जरूरत को समझते हुये पूरे तन मन धन के साथ सहयोगी होते हैं।‘अंश रूप जीव‘बोला मैं उन फरिश्ते रूपी माँ–बाप का कर्ज कैसे चुकाऊँगा?तब प्रभुबोले तू उनकी आज्ञा मानना,कभी ऐसा कोई कार्य ना करना कि उनको दुःख पहुँचे,जब वे बूढ़े हो जायें,तब उनकी सेवा करना और जब तू भी बड़ा होकर माता–पिता का रूप लेगा,तो पूरा कर्ज तो नहीं,थोड़ा बहुत उतर जायेगा।माता–पिता का कर्ज तो संताने अपनी चमड़ी देकर भी नहीं उतार सकतीं।और विशेषकर माँ का। आज के परिवेश में हम सभी कितना कर्ज–फर्ज अदा कर पा रहे हैं,ये हम सभी बखूबी जानते हैं।पिता खुद जो नहीं बन पाता,आर्थिक कमियों के कारण, अपनी कठिन परिस्थियों के चलते,पर सन्तान के लिये जीवन की समस्त पूँजी दाँव पे लगाकर योग्य बनाने का  भरसक प्रयास करता रहताहै।”एक पिता ही ऐसा होता है,जो अपनी संतान को अपने से भी ज्यादा श्रेष्ठ बनाकर हारना चाहता है।‘‘पिता अपने कन्धे पे बैठाकर पुत्र को कितना ऊँचा उठा देता है यानि पिता के कंधे पर बैठी संतान की ऊँचाई बढ़ जाती है। ऐसाकरके पिता अत्यन्त खुश होता है।ये मेरा भी अनुभव है। कष्ट–पीड़ा होने पर हमारे मुख से अनायास उई माँ,ओ माँ आदि शब्द निकल जाते हैं,लेकिन सड़क पर सामने से आते हुये ट्रक को देखकर कह उठते हैं बाप–रे–बाप।आर्थिक रूप से पिता ही हर तरह से सहयोगी होता है।किसी ने पिता के विषय में क्या खूब कहा है——– वो पिता होता है-,वो पिता ही होता है जो अपने बच्चों को अच्छे विद्यालय में पढ़ाने के लिए दौड भाग करता है… वो पिता ही होता हैं ।। उधार लाकर Donation भरता है, जरूरत पड़ी तो किसी के भी हाथ पैर भी पड़ता है। वो पिता ही होता हैं ।। हर कॅालेज में साथ साथ घूमता है, बच्चे के रहने के लिए होस्टल ढूँढता है वो पिता ही होता हैं ।। स्वतः फटे–पुराने कपड़े पहनता है और बच्चे के लिए नयी जीन्स टी–शर्ट लाता है वो पिता ही होता है।। बच्चे की एक आवाज सुनने के लिए उसके फोन में पैसा भरता है वो पिता ही होता है ।। बच्चे के प्रेम विवाह के निर्णय पर वो नाराज़ होता है और गुस्से में कहता है सब ठीक से देख लिया है ना, वो पिता ही होता है ।। आपको कुछ समझता भी है?” बेटे की ऐसी फटकार पर, ह्रदय क्रंदन कर उठता है वो पिता ही होता हैं ।। बेटी की हर माँग को पूरी करता है ऊँच–नीच,अच्छा–बुरा समझाता है बुरी नज़रों से बचाता है वो पिता ही होता हैं ।। बेटी की विदाई पर, आँसू ,तो पुरूष होने के कारण नहीं बहा पाता, पर अंदर ही अंदर रोता बहुत है, वो पिता होता है–वो पिता ही होता हैं ।।   मेरी युवा पीढ़ी,पिता की अच्छाइयाँ अनन्त हैं।उनके प्रति अपने दायित्व को कभी ना भुलाना।वो हैं तो मजबूती है घर–परिवार में।किसी ने बहुत खूब कहा है–अभी तो जरूरतें पूरी होती हैं,ऐश तो बाप के राज में किया करते थे।ये लेख पिता के नाम समर्पित है।पिता मेरे प्यारे पिता।आपकी छत्र-छाया में, मैं महफूज रहूँ l आप हों तब भी और ना हों तब भी अप्रत्यक्ष रूप में। ll पितृ देवो भव–चरण वंदन ll सुमित्रा गुप्ता  अटूट बंधन ………हमारा पेज 

“एक दिन पिता के नाम “………मेरे पापा ( संस्मरण -संध्या तिवारी )

आंगन के कोने में खडे तुलसी वृक्ष पर मौसमी फल लगे ही रहते थे ।कभी अमरूद, कभी आम , कभी जामुन , कभी अंगूर ,,,,,,,,,, मै जब भी सो कर उठती मुझे तुलसी में लगा कोई न कोई फल मिलता और मै खुशी से उछल पडती । एक दिन मैं जागी और कोई फल न देख बहुत दुखी हुई मैने पापा से शिकायत की। “देखो पापा आज तुलसी जी ने कोई फल नहीं दिया । “ पापा ने मम्मी को सख्त हिदायत दी”  कि अपनी तुलसी मैया से कहो कि मेरी बच्ची के लिये रोज एक फल दें ।” मम्मी ने हंस कर कहा ; ” जो हुकुम मेरे आका।” जब तक मै समझ नहीं गई कि तुलसी में ये फल कैसे लगते है तब तक वे फल लगते रहे। आसमान से पुये बरसते।सोते सोते मुंह में रबडी का स्वाद घुल जाता । इन सबके पीछे था मेरे ममत्व भरे पापा का हाथ। मेरे पापा फैक्ट्री से आते वक्त न जाने कहां से लाल-लाल कोमल-कोमल वीर बहूटी लाते हम उन्हें  कुतूहल से एक डिब्बे में रखते और बडे जतन से उनकी देखभाल करते ।न जाने कहां से वे शहतूत के पत्ते में चिपकी इल्ली लाते और उन्हें शीशे के जार में रख देते । इल्ली से तितली तक का सफर हम आंखो देखते और रोमान्चित होते।मेरी कुतूहल और जानकारी की दुनिया यही से पुष्पित पल्लवित हुई।                   बुलबुल , मछली , लाल मुनिया , खरगोश , सफेद चूहे , बिल्ली और कुता सब कुछ था मेरे बचपन में।इन सब पशु पक्षियों की देखभाल ने मुझमे  दया ,सुरक्षा ,जिम्मेदारी की भावना को भर दिया।              उत्तराखण्ड की पहाडियों मे बसा है एक शक्ति पीठ।किंवतन्ती है कि यहां मां सती के क्षत विक्षत शरीर से नाभि का भाग गिरा  था।यह  पूर्णागिरि शक्ति पीठ कहलाता है । मेरे पापा हर साल पूर्णागिरि पर प्याऊ और तीर्थयात्रियों के लिये रहन सहन की व्यवस्था किया करते थे। मै भी पापा के साथ पूर्णागिरि जाती और पूरे महीने पहाडो झरनो का आनन्द लेती । एक बार पूर्णा गिरि पर धर्मशाला बनबाते समय उनकी जांघ पर एक बडा पत्थर गिर गया और बहुत चोट आई । लेकिन उस हाल में भी वह लगभग बारह किलोमीटर की पैदल उतराई और चार घंटे का बस का सफर करके  घर आये। इतने जीवट थे मेरे पापा। अपनी जिद से खानदान के मना करने के बाबजूद उन्होने मुझे को एड में ( क्योकि तब कोई गल्स काॅलेज नहीं था ) एम ए , बी एड पढाया और रंगमंच पर भी काम करने दिया। पुरानी पिक्चर के ही मैन अर्थात धरमेन्द्र की छवि से मिलते जुलते थे मेरे पापा ।आज भी हैन्सम है , धरमेन्द्र से ज्यादा।       जीवट जुझारू किसी मजवूत अभेद्य दीवार जैसे। ममत्व ,सुरक्षा ,आत्मविश्वास ,जीवटता सम्वेदनशीलता आदि गुण मेरे पापा ने मुझमे बिना कहे सुने ही अपने कृत्यों से भर दिये। यदि उन्होने मेरे बचपन को इतना समृद्ध न किया होता तो आज मैं भी किसी कोने में बैठ कर सिवाय चुगलियां करने के ओर कुछ नहीं कर रही होती।  वट बृक्ष की छाया सा उनका साथ आज भी जीवन की तपिश को कम करता है। मेरे पापा मेरी बचपन की वो समृद्ध दुनियां हैं जहां मैं जाती हूं तो खुद को किसी राजकुमारी से कम नही पाती। डाॅ सन्ध्या तिवारी atoot bandhan……… हमारा फेस बुक पेज