“एक दिन पिता के नाम “……… गडा धन (कहानी- निधि जैन )

                              “गड़ा धन” “चल बे उठ…. बहुत सो लिया… सर पर सूरज चढ़ आया पर तेरी नींद है कि पूरी होने का नाम ही न लेती।” राजू का बाप उसे झिंझोड़ते हुए बोला। “अरे सोने तो दो… बेचारा कितना थका हारा आता है। खड़े खड़े पैर दुखने लगते और करता भी किसके लिए है…घर के लिए ही न कुछ देर और सो लेने दो..” “अरे करता है तो कौन सा एहसान करता है…खुद भी रोटी तोड़ता है चार टाइम”, फिर से लड़के को लतियाता है,”उठ बे हरामी …देर हो जायेगी तो सेठ अलग मारेगा…” लात घलने से और चें चें पें पें से नींद तो खुल ही गई थी। आँखे  मलता दारूबाज बाप को घूरता गुसलखाने की ओर जाने लगा। “एssss हरामी को देखो तो कैसे आँखें निकाल रहा जैसे काट के खा जाएगा मुझे..” “अरे क्यू सुबह सुबह जली कटी बक रहे हो” “अच्छा मैं बक रहा हूँ और जो तेरा लाडेसर घूर रहा मुझे वो…”और एक लात राजू की माँ को भी मिल गई।     लड़का जल्दी जल्दी इस नर्क से निकल जाने की फिराक में है और बाप सबको काम पर लगाकर बोतल से मुंह धोने की फिराक में।     लड़का जानता है इस नर्क से निकलकर भी वो नर्क से बाहर नही क्योकि बाहर एक और नर्क उसका रास्ता देख रहा है,दुकान पर छोटी छोटी गलती पर सेठ की गालियाँ और कभी कभी मार भी पड़ती थी बेचारे 12 साल के राजू को।     यहाँ लक्ष्मी घर का सारा काम निबटा कर काम पर चली गई।घर का खर्च चलाने को दूसरों के घरों में झाड़ू बर्तन करती थी। “लक्ष्मी तू उस पीर बाबा की मजार पर गई थी क्या धागा बाँधने…” मालकिन के घर कपडे धोने आई एक और काम वाली माला पूछने लगी।     माला अधेड़ उम्र की महिला है और लक्ष्मी के दुखों से भली भाँति परिचित भी।इसलिए कुछ न कुछ करके उसकी मदद करने को तैयार रहती।    “हाँ गई थी… उसे लेकर..नशे में धुत्त रहता दिन रात..बड़ी मुश्किल से साथ चलने को राजी हुआ..” लक्ष्मी ने जवाब दिया “पर होगा क्या इस सब से….इतने साल तो गए… इस बाबा की दरगाह… उस बाबा की मजार….ये मंदिर…वो बाबा के दर्शन… ये पूजा… चढ़ावा… सब तो करके देख लिया पर न ही कोख फलती है और न ही घर गृहस्थी पनपती है। बस आस के सहारे दिन कट रहे हैं।” कहते कहते लक्ष्मी रूआंसी हो गई।   माला ढांढस बंधाती बोली,”सब कर्मों के फल हैं री और जो भोगना बदा है सो तो भोगना ही पड़ेगा।” “हम्म..”बोलते हुए लक्ष्मी अपने सूखे आंसुओं को पीने की कोशिश करने लगी।    “सुन एक बाबा और है,उसको देवता आते हैं.. सब बताता है और उसी के अनुसार पूजा अनुष्ठान करने से बिगड़े काम बन जाते हैं।”       “अच्छा तुझे कैसे पता?”      “कल ही मेरी रिश्ते की मौसी बता रही थी कि किस तरह उसकी लड़की की ननद की गोद हरी हो गई और बच्चे के आने से घर में खुशहाली भी छा गई। मुझे तभी तेरा ख़याल आया और उस बाबा का पता ठिकाना पूछ कर ले आई। अब तू बोल कब चलना है?”    “उससे पूछकर बताऊँगी…. पता नही किस दिन होश में रहेगा..”   “हाँ ठीक है,वो सिर्फ इतवार बुधवार को ही बताता है और कल बुध है,अगर तैयार हो जाए तो सीधे मेरे घर आ जाना सुबह ही,फिर हम साथ चलेंगे…मुझे भी अपनी लड़की की शादी के बारे में पूछना है..”      लक्ष्मी ने हाँ भरी और दोनों काम निबटा कर अपने अपने रास्ते हो लीं।     लक्ष्मी माला की बात सुनकर खुश थी कि अगर सब कुछ सही रहा तो जल्दी ही हमारे घर की भी मनहूसियत दूर हो जायेगी। पर कही राजू का बाप न सुधरा तो…आने वाली संतान के साथ भी उसने यही किया तो..जैसे सवाल ने उस्की खुशी को ग्रहण लगाने की कोशिश की पर उसने खुद को संभाल लिया।       सामने आम का ठेला देख राजू की याद आ गई। राजू के बाप को भी तो आम का रस बहुत पसंद है। सुबह सुबह बेचारा राजू उदास होकर घर से निकला था,आमरस से रोटी खायेगा तो खुश हो जायेगा और राजू के बाप को भी बाबा के पास जाने को मना लूँगी,मन में ही सारे ताने बाने बुन, वो रुकी और एक आम लेकर जल्दी जल्दी घर की ओर चल दी।       घर पहुंचकर दोनों को खाना खिलाकर सारे कामों से फारिग हो राजू के बाप से बात करने लगी। दारु का नशा कम था शायद या आमरस का नशा हो आया था,वो दूसरे ही दिन जाने को मान गया।      दूसरे दिन राजू,रमेश (राजू का बाप) और लक्ष्मी सुबह ही माला के घर पहुंच गए और वहां से माला को साथ लेकर बाबा के ठिकाने पर।        बाबा के दरवाजे पर कोई आठ दस लोग पहले से ही अपने अपने दुखों को सुखों में बदलवाने के लिए बाहर ही बैठे थे। एक एक करके सबको अंदर बुलाया जाता। वो लोग भी जाकर बाबा के घर के बाहर वाले कमरे में उन लोगों के साथ बैठ गए।      सभी लोग अपनी अपनी परेशानी में खोये थे। यहाँ माला लक्ष्मी को बीच बीच में बताती जाती कि बाबा से कैसा व्यवहार करना है और समझाती इतनी जोर से कि नशेड़ी रमेश के कानों में भी आवाज पहुँच जाती। एक दो बार तो रमेश को क्रोध आया पर लक्ष्मी ने हाथ पकड़ कर बैठाये रखा।       करीब दो घंटे की प्रतीक्षा के बाद उनकी बारी आई,तब तक पाँच छः दुखी लोग और आ चुके थे। खैर,अपनी बारी आने की ख़ुशी लक्ष्मी के चेहरे पर साफ़ झलक रही थी यूँ लग रहा था मानो यहाँ से वो बच्चा लेकर और घर का दलिद्दर यहीं छोड़ कर जायेगी।        चारों अंदर गए। बाबा पूर्ण आडम्बरयुक्त थे।चारों ने बाबा को प्रणाम बोला।बाबा ने उनकी समस्या सुनी। फिर बाबा ने भगवान् को उनके नाम का प्रसाद चढ़ाया और थोड़ी देर ध्यान लगाकर बैठ गए। कुछ देर बाद बाबा ने जब आँखें खोली तो आँखें आकार में पहले से काफी बड़ी थीं। अब लक्ष्मी को विशवास हो गया था कि … Read more

उसके बाद ( कहानी-उपासना सियाग )

                                          गाँव दीना सर में आज एक अजीब सी ख़ामोशी थी लेकिन लोगों के मन में एक हड़कंपथा। होठों पर ताले लगे हुए थे और मनों में कोलाहल मचा  था। कोई भी बोलना नहीं चाह रहा था लेकिन अंतर्मन शोर से फटा जा रहा था। दरवाज़े बंद थे घरों के लेकिन खिडकियों की ओट  से झांकते दहशत ज़दा चेहरे थे …! आखिर ऐसा क्या हुआ है आज गाँव में जो इतनी रहस्यमय चुप्पी है …! अब कोई अपना मुहं कैसे खोले भला …!किसकी इतनी हिम्मत थी !       गाँव की गलियों के सन्नाटे को चीरती एक जीप एक बड़ी सी हवेली के आगे रुकी। यह हवेली चौधरी रणवीर सिंह की है। जीप से उतरने वाला भी चौधरी रणवीर सिंह ही है। उसकी आँखे जैसे अंगारे उगल रही हो  चेहरा तमतमाया हुआ है। चाल  में तेज़ी है जैसे बहुत आक्रोशित हो ,विजयी भाव तो फिर भी नहीं थे चेहरे पर। एक हार ही नज़र आ रही थी।      अचानक सामने उनकी पत्नी सुमित्रा आ खड़ी हुई और सवालिया नज़रों से ताकने लगी। सुमित्रा को जवाब मिल तो गया था लेकिन उनके मुंह   से ही सुनना चाह  रही थी।जवाब क्या देते वह …! एक हाथ से झटक दिया उसे और आगे बढ़  कर कुर्सी पर बैठ गए।      सुमित्रा जाने कब से रुदन रोके हुए थी। घुटने जमीन पर टिका कर जोर से रो पड़ी , ” मार दिया रे …!  अरे जालिम मेरी बच्ची  को मार डाला रे …!”    रणवीर सिंह ने उसे बाजू से पकड कर उठाने की भी जहमत नहीं की बल्कि  लगभग घसीटते हुए कमरे में ले जा धकेल दिया और बोला , ” जुबान बंद रख …! रोने की , मातम मनाने की जरूरत नहीं है। तुमने कोई हीरा नहीं जना था , अरे कलंक थी वो परिवार के लिए …मार दिया …! पाप मिटा दिया कई जन्मो का …पीढियां तर गयी …!”  बाहर आकर घर की दूसरी औरतों को सख्त ताकीद की , कि कोई मातम नहीं मनाया जायेगा यहाँ , जैसा रोज़ चलता है वैसे ही चलेगा। सभी स्तब्ध थी।     घर की बेटी सायरा जो कभी इन्ही चौधरी रणवीर सिंह के आँखों का तारा थी , आज अपने ही हाथों उसे मार डाला। “मार डाला …!” लेकिन किस कुसूर की सजा मिली है उसे …! प्यार करने की सज़ा मिली है उसे …! एक बड़े घर की बेटी जिसे पढाया लिखाया , लाड-प्यार जताया , उसे क्या हक़ है किसी दूसरी जात के लड़के को प्यार करने का …! क्या उसे खानदान की इज्ज़त का ख्याल नहीं रखना चाहिए था ? चार अक्षर क्या पढ़ लिए …! बस हो गयी खुद मुख्तियार …!  चौधरी रणवीर सिंह चुप बैठा ऐसा ही कुछ सोच रहा है। अचानक दिल को चीर देने वाली आवाज़ सुनाई दी। सायरा चीख रही थी …” बाबा , मत मारो …! मैं तुम्हारी तो लाडली हूँ …इतनी बड़ी सज़ा मत दो अपने आपको …! मेरे मरने से तुम्हे ही सबसे ज्यादा दुःख होगा। तुम भी चैन नहीं पाओगे …,”        सुन कर अचानक खड़ा हो गया रणवीर सिंह और ताकने लगा की यह आवाज़ कहाँ से आई। फिर कटे वृक्ष की भांति कुर्सी पर बैठ गया क्यूँकि यह आवाज़ तो उसके भीतर से ही आ रही थी। पेट से जैसे मरोड़ की तरह रोना फूटना चाहा।   लेकिन वह क्यूँ रोये …! क्या गलत किया उसने। अब बेटी थी तो क्या हुआ , कलंक तो थी ही ना …! कुर्सी से खड़े हो बैचेन से चहलकदमी करने लगा। “यह मन को कैसे समझाऊं कि इसे चैन मिले। किया तो तूने गलत ही है आखिर रणवीर …! कलेजे के टुकड़े को तूने अपने हाथों से टुकड़े कर दिए। किसी का क्या गया , तेरी बेटी गयी , तुझे कन्या की हत्या का पाप भी तो लगा है , क्या तू उसे और समय नहीं दे सकता था। ” अब रणवीर सोचते -सोचते दोनों हाथों से मुहं ढांप  कर रोने को ही था कि बाहर से आहट हुई , किसी ने उसे पुकारा था। संयत हो कर फिर से चौधराहट का गंभीर आवरण पहन बाहर को चला।    आँखे छलकने को आई जब सामने बड़े भाई को देखा। एक बार मन किया कि लिपट कर जोर से रो पड़े। माँ-बापू के बाद यह बड़ा भाई राम शरण ही सब कुछ था उसका।  मन किया फिर से बच्चा बन कर लिपट  जाये भाई से और सारा दुःख हल्का कर दे।   वह रो कैसे सकता था उसने ऐसा क्या किया जो दुःख होता उसको। सामने भाई की आँखों में देखा तो उसकी भी आँखों में एक मलाल था जाने कन्या की हत्या का या खानदान की इज्ज़त जाने का। चाहे लडकी को मार डाला  हो कलंक तो लग ही गया था।     दोनों भाई निशब्द – स्तब्ध से बैठे रहे। मानो शब्द ही ख़त्म हो गए सायरा के साथ -साथ। लेकिन रणवीर को भाई का मौन भी एक सांत्वना सी ही दे रहा था। थोड़ी देर बाद राम शरण उसके कंधे थपथपा कर चल दिया।   चुप रणबीर का गला भर आता था रह – रह कर , लेकिन गला सूख रहा था। आँखे बंद ,होठ भींचे कुर्सी पर बैठा था।  ” बापू पानी …” , अचानक किसी ने पुकारा  तो आँखे खोली। अरे सायरा …! यह तो सायरा ही थी सामने हाथ में गिलास लिए। उसे देख चौंक कर उठ खड़ा हुआ रणवीर। बड़े प्यार से हमेशा की तरह उसने एक हाथ पानी के गिलास की तरफ और दूसरा बेटी के  सर पर रखने को बढ़ा दिया। लेकिन यह क्या …?  दोनों हाथ तो हवा में लहरा कर ही रह गए। अब सायरा कहाँ थी ! उसे तो उसने इन्ही दोनों हाथों से गला दबा कर मार दिया था।हृदय से एक हूक सी निकली और कटे वृक्ष की भाँति कुर्सी पर गिर पड़ा।     रणबीर की सबसे छोटी बेटी सायरा जो तीन भाइयों की इकलौती बहन भी थी। घर भर में सबकी लाडली थी। जन्म हुआ तो दादी ना खुश हुई कि  बेटी हो गयी कहाँ तो वह चार पोतों को देखने को तरस रही थी और कहां सायरा का जन्म हो गया। तीन की पोते हुए अब उसके जोड़ी तो ना … Read more

“एक दिन पिता के नाम “….कुछ भूली बिसरी यादें (संस्मरण -अशोक के.परुथी

“त्वदीयवस्तुयोगींद्र,  तुम्यमेवसम्पर्य               धर्मप्रेमी, नियमनिष्ठ, साहित्यरसिक!” पिता-दिवस सभी को मुबारक। वह सभी लोग खुशनसीब हैं जिनके सिर पर उनके पिता का साया है और उन्हें उनका आशीर्वाद प्राप्त है! पिता का वर्ष में सिर्फ एक ही दिन क्यूँ, बल्कि  हर दिन आदर और सत्कार होना चाहिये।          व्याखान की सामग्री के रूप में श्लोकों, दोहों, टोटकों, व्यंग्य, कथा–कहानियोंआदिको संग्रह करने की रूचि मुझे प्रारम्भ से ही रही है।  इसका सारे का सारा श्रेय मेरे पूज्य पिताजी को जाता है, उन्होने जो ज्ञान–दान मुझे दिया, वह जीवन में मेरे लिए अविस्मरणीयऔरअमूल्यहै। कुछ भूली बिसरी यादें        मुझे ही नही बल्कि परिवार के अन्य सदस्यों के कण–कण में भी उन का यह उपकार छिपा है!  पिताजी के स्नेह तथा वात्सल्य से लाभान्वित होकर ही मैं लेखन की दिशा मेंअग्रसर हो सका हूँ! पिताजी असूलोंकेबड़ेपाबंदथे, एक ईमानदारऔरमेहनतीइंसानथे।उन्होने  हमारी माताजी, जो पेशे से एक अध्यापिका थी, के सहयोग से हम पाँचभाई बहिनो का अपनी हैसियत से बढ़कर लालन–पालनकिया । उन्होने हमें एक सफल जीवन जीने के लिये जो मूलमंत्र दिये उनको अपना कर ही हम इस मुकाम तक पहुंचे हैं जहांआज हम सब हैं!            पिताजी कुटुम्भ–प्रेमी, सत्यप्रिय, और बड़े उदार प्रतिभा वाले व्यक्ति थे।  एक बात तो मैं आज भी बड़े गर्व के साथ जो उनके बारे में कह सकता हूँ वह यह है कि वे रिश्वत लेनेऔर देने वाले दोनों के ही दुश्मन थे!  घर में सिर्फ उनका मासिक वेतन हीआता थाऔर वह अपनी चादर देख कर ही पाँव फैलाते थे।  पिताजी जबसरकारी नौकरी से निवृत हुये तो उन्होनेअपनाअधिकांश समय जरूरत–मंदों की मदद करने में लगाया। मुझेआजभीबहुतअच्छी तरह याद हैकि पिताजी पेट की गैस से छुटकारा पाने के लिये चूर्ण की गोलियां बनाकर हर जरूरतमंद को मुफ्त वितरित किया करते थे!  लोगों को उनसे कितना स्नेहथा यह उनके दाहसंस्कार के लिए उमड़ –आये लोगो की भीड़ को देखकर ही बनता है!       मेरे संस्कारों एवं शिक्षा निर्माण में उन्होने जो अपना समय मेरे लिए बिताया उनकायहउपहारअमूल्यहैऔरउसकेलिए मैंउनकाऋणीहूँ!  पिता जी केबहुआयामी अध्ययन–अनुभव से ही मेरा ज्ञान एवं अध्ययन भी व्यापक हो सका है।      पिता जी किसी भी बात कोकहावतों, चुट्क्लों–टोटकोंऔरशायरी–दोहों के माध्यम से बड़ी सरलता से कह देते थे।वेअपने तीखे व्यंग्यात्मक और अप्रत्याशित ढंग से किसी भी बात को कहने के लिए बड़े निपुणऔरकुशलथे।  एकबार जो भी व्यक्ति उनके कटाक्ष का शिकार हो जाता वह फिर न तो हंस ही पाताऔर नही रो पाता था।  पिताजी के यह गुण कुछ मुझे भी धरोहर में मिले हैं, ऐसा मेरा मानना है! घिनौनी बात अथवा कार्य करने वाला कोई भी व्यक्ति उनके सम्मुख टिकन ही पाता था, चाहे वहअपने परिवार का कोई सदस्य था या बाहर का।  ऐसे व्यक्तियों को वे निजी–तौरपर बार–बार लज्जित करने में विश्वास रखते थे।  इसके विपरीत, अच्छे कार्य करने वालों कीसराहना और बढ़ाई करने में भी वे कभी पीछे नही रहते थे।        पिताजी का मिजाज बहुरंगा था और वे बहुरस–भोजीथे।  वे एकही बैठक में एक साथअनेक रसों तथा उनके उपरसों का मान करना पसंद करते थे।  वे जब रँगीले मूड में होते थे तो उनकी मजलि सेघंटों ठहाकों सेगूँजती रहती थीं।इस बीच उन्हें समय का तनिक भ आभास न रहताथा और इसी बात को लेकर माँ उनसे अक्सरअपनी नाराजगी दर्शाती थीं                           पिताजी का जन्म खाकी–लखी, जिलाझंग, पाकिस्तान, मेंहुआ।भारत विभाजन के बाद उनका पहला गृह–स्थान कुरुक्षेत्र में रिफ़ूजियों के लिए लगायेग एटेंटों में से एक था।  माँ–बापकीसबसेबड़ीसंतानहोनेकेनाते, यही से उन्होनेअपने सभी परिवार जनों – भाई–बहिन, माता–पिता, पत्नीऔरअपनी संतान का दायित्व संभाला। इसी दौरान नौकरी के ईलावा पिता जीनेअपनी पढ़ाई भी जारी रखी औ रपंजाब युनिवर्सिटीसे स्नातक की डिग्री प्राप्त की जो कि उन दिनो एक बहुत बड़ी बात हुआ करती थी देश बंटवारे से पहले पिता जी एफ.ए.(ग्यारवीं के समकक्ष) थे।  पिताजी ने दसवीं क्लास प्रथम श्रेणी में पास कीऔर उनके प्रमाण–पत्र पर गवर्नमेंट हाईस्कूल, शोरकोट, पंजाबयुनिवर्सिटी, लाहौर – सत्र 1936- अंकित है।  पिताजी नेअपने 28-30 वर्ष का सेवा काल, नाभा, पटियाला, लुधियाना, जालंधर, चंडीगढ़ आदि शहरों में पूरा किया औरअंत का समय उन्होने हरियाणा केशहर रोहतक में बिताया।       इन विभिन्न प्रदेशों के प्रवासऔर हिन्दी, पंजाबी, अ्ग्रेज़ी तथा उर्दू–फारसी के विभिन्न साहित्यों काअनुशीलन करने के अतिरिक्त, समाज के विभिन्न दौर से गुजरने केअपने अनुभवोंका एक विशाल संग्रह पिताजी के पासथा जिसकी एक छाप कुछ हद तक मुझमें भी झलकती है जो शायद पाठकों को मेरी कुछ रचनाओ में भी देखने को मिले।अंत में बस मैं इतना ही कहूँगा कि पूज्य–पिताजी की बदौलत जो संस्कार, संयम, ईमानदारी तथा व्यंगात्मक स्वभाव मुझे विरासत में मिला है उसके लिए मैं सदैव उनका ऋणी हूँ/रहूँगा। सबसे बड़ा उपहार जो ईश्वर ने हम सब को दिया है वह है पिता! अशोक परुथी “मतवाला“   अटूट बंधन ………. हमारा फेसबुक पेज 

डर (कहानी -रोचिका शर्मा )

                         रीना एक पढ़ी-लिखी एवं समझदार लड़की थी । जैसे ही उसके रिश्ते  की बातें घर में होने लगीं उसके मन में एक डर घर करने लगा , वह था ससुराल का डर। वह तो अरेंज्ड मॅरेज के नाम से पहले से ही डरती थी । फिर भी कुँवारी तो नहीं रह सकती थी । दुनिया की प्रथा है विवाह ! निभानी तो पड़ेगी । यह सोच उसने अपने पिताजी को बता दिया कैसा लड़का चाहिए । फिर क्या था पिताजी ढूँढने लगे पढ़ा-लिखा एवं खुले विचारों वाला लड़का । बड़ी लाडली थी वह अपने पिता की । एक दिन लड़का व उसके परिवार वाले उसे देखने आए । गोरा रंग, सुन्दर कद-काठी एवं रहन-सहन देख लड़का तो जैसे उस पर मोहित हो गया । और उसी समय रिश्ते के लिए हाँ कर दी । लड़के के माता-पिता ने भी अपने बेटे की हाँ में हाँ मिला दी । फिर क्या था चट मँगनी पट ब्याह । हाँ विवाह में ज़रूर रिश्तेदारों ने अपनी फ़रमाइशों व रीति-रिवाजों की आड़ में काफ़ी परेशान किया । रीना तो स्वयं रीति-रिवाजों और रिश्तेदारों से घिरी हुई थी सो उसे तो भनक भी न लगी कि शादी में कोई मन-मुटाव हो गया है । जब विदाई का समय आया अपने पिता की लाडली रीना ने एक आँसू न बहाया । सोचा उसके पिता को दुख पहुँचेगा और हंसते-हंसते विदा हो गयी । ससुराल के रास्ते में ही उसके पति ने उसे शादी में हुए मन-मुटाव के बारे में बताया । और समझाया कि रिश्तेदार नाराज़ हैं और हो सकता है उसे भला-बुरा कहें ।रीना को अरेंज्ड मॅरेज में जिस बात से डर था वही हुआ । जैसे ही वह ससुराल पहुँची सभी रिश्तेदारों की फौज  ने उसे घेर लिया और फिर ससुराल की रस्में शुरू हो गयीं । बात–बेबात कोई न कोई रिश्तेदार उस पर व्यंग्य करते और शादी की रस्मों को लेकर उस पर ताने मारते । ननद का तो मुँह पूरे समय फूला ही रहता  । अब वह ससुराल में डरी-सहमी ही रहती । सोचती पति न जाने कैसा होगा । फिर भी शायद माँ-पिताजी के दिए संस्कार थे या डर जिनके कारण वह मुँह भी न खोलती । बार-बार उसे अपने पिता की याद आती । कई बार आँखों से आँसू बह निकलते और वह सोचती क्यूँ किया विवाह ? इससे तो वह अपने घर में ही भली थी । एक माह बीत गया, सभी रिश्तेदार अपने–अपने घर जा चुके थे एवं ननद भी ससुराल जा चुकी थी । चुप-चापमूक बन वह मुँह नीचे किए सारा घर का काम करती एवं कभी-कभी अकेले में अपने पिता को याद कर रो लेती । शायद थकान के कारण या इतने काम की आदत न होने के कारण उसकी तबीयत बिगड़ गयी व उसे जुकाम ,बुखार हो गया । पाँच -छह दिन में तो उसकी हालत बहुत खराब हो गयी । डॉक्टर की दवा तो वह ले रही थी किंतु खाँसी थी कि ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही थी । सारा दिन एवं रात को वह खों-खों कर खाँसती रहती । तभी एक दिन उसके ससुर जी आए और बोले बेटा यह लो मैं ने अदरक का रस निकाला हैं थोड़ा इसे पी लो तुम्हारी खाँसी ठीक हो जाएगी । जैसे ही रीना ने ऊपर मुँह उठाया उसके ससुर उसे प्यार से देख मुस्कुरा रहे थे । उस प्यार भरी मुस्कुराहट को देखते ही रीना की आँखों में आँसू आ गये । उसे अपने पिता की  ही छवि ससुर जी में नज़र आई ।उसने झुक कर अपने ससुर के पैर छू लिए । ससुर ने उसे बोला बेटी मैं भी तुम्हारे पिता के समान हूँ और बेटियाँ पैर नहीं छूती । मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है । आज से इस घर में मैं ही तुम्हारा पिता हूँ , तुम्हें कोई भी तकलीफ़ हो तो मुझे बताना । रीना की आँखों में आँसू थे। उसे तो एक पिता का घर छोड़ते ही दूसरे घर में पिता मिल गये थे जिसकी उसने सपने में भी कल्पना न की थी । आँख में आँसू फिर भी वह मुस्कुरा रही थी । और वह डर हमेशा के लिए ख़त्म हो गया था ।                         रोचिका शर्मा, चेन्नई डाइरेक्टर,सूपर गॅन ट्रेडर अकॅडमी                         (www.tradingsecret.com) अटूट बंधन ………..हमारा फेस बुक पेज 

“एक दिन पिता के नाम “… लघु कथा(याद पापा की ) :मीना पाठक

मीन पाठक

                          “एक दिन पिता के नाम”  याद पापा की — “पापा आप कहाँ चले गये थे मुझे छोड़ कर” अनन्या अपने पापा की उंगुली थामे मचल कर बोली “मैं तारों के पास गया था, अब वही मेरा घर है बेटा” साथ चलते हुए पापा बोले “तो मुझे भी ले चलो न पापा तारो के पास !” पापा की तरफ़ देख कर बोली अनन्या “नहीं नहीं..तुम्हें यहीं रह कर तारा की तरह चमकना है” पापा ने कहा “पर पापा, मैं आप के बिना नही रह सकती, मुझे ले चलो अपने साथ या आप ही आ जाओ यहाँ |” “दोनों ही संभव नही है बेटा..पर तुम जब भी मुझे याद करोगी अपने पास ही पाओगी, कभी हिम्मत मत हारना, उम्मीद का दामन कभी ना छोड़ना, खूब मन लगा कर पढ़ना, आसमां की बुलंदियों को छूना और ध्रुवतारा बन कर चमकना,  मैं हर पल तुम्हारे पास हूँ पर तुम्हारे साथ नही रह सकता;  भोर होने को है, अब मुझे जाना होगा |” अचानक अनन्या की आँख खुल गई, सपना टूट गया, पापा उससे उंगली छुड़ा कर जा चुके थे; उसकी आँखों में अनायास ही दो बूँद आँसू लुढक पड़े, आज एक मल्टीनेशनल कम्पनी में उसका इंटरव्यू था और रात उसे पापा की बहुत याद आ रही थी  | मीना पाठक (चित्र गूगल से साभार ) अटूट बंधन ..……. हमारा फेस बुक पेज 

“एक दिन पिता के नाम ” —-वो २२ दिन ( संस्मरण -वंदना गुप्ता )

                                          “एक  दिन  पिता के नाम  “ आपकी ज़िन्दगी  आपकी साँसें  जब तक रहेंगी  तब तक  हर दिन पिता को समर्पित होगा  वो हैं तो तुम हो  उनके होने से ही  तुम अस्तित्व में आये  फिर कैसे संभव है  एक दिन पिता के नाम करना ? मेरे लिए तो  हर दिन , हर घडी , हर पल  है पिता के नाम  इसलिए  नहीं समेट सकती  अपने जज़्बात  अपनी संवेदनाएं  अपने भाव  किसी एक दिन में …….. वो २२ दिन  मेरे पिता संघर्ष की एक मिसाल रहे । जाने कितने जीवन में उन्होने उतार चढाव देखे मगर हमेशा हँसते रहे , मुस्कुरा कर झेलते रहे , कभी कोई शिकवा नहीं किया किसी से कोई शिकायत नहीं की ।  मेरे पिता ने हमेशा अपने आदर्शों पर जीवन जीया , सत्य , दया , अनुशासन , ईमानदारी कूट कूट कर भरी हुई थी जिसके लिए वो कुछ भी कर सकते थे । उनकी ईमानदारी पर तो एक दूधवाले , किराने वाले तक को इतना विश्वास था कि कहते थे बाऊजी हम गलत हो सकते हैं लेकिन आपका हिसाब नहीं क्योंकि यदि उनके पैसे निकलते थे तो खुद जाकर दे कर आते थे । इसी तरह काम के प्रति अनुशासन बद्ध रहे कि जब ऑफ़िस के लिए साइकिल पर निकलते तो गली वाले घडी मिलाते कि इस वक्त ठीक साढे नौ बजे होंगे क्योंकि बाऊजी को देर नहीं हो सकती और वो ही सारे गुण हम बच्चों में आये । बेटियाँ में उनकी जान बसती थी्। यदि क्रोध था तो वो भी प्यार का ही प्रतिरूप था , यदि अनुशासन था तो उसमें भी उनकी चिन्ता झलकती थी । आज यूँ लगता है जैसे अपने पिता का ही प्रतिरूप बन गयी हूँ मैं क्योंकि उन्ही सारे गुणों से लबरेज खुद को पाती हूँ शायद ये बात उस समय नहीं समझ सकती थी मगर आज मेरे हर क्रियाकलाप में उन्ही को खुद में से गुजरते देखती हूँ और नतमस्तक हूँ कि मैं ऐसे पिता की बेटी हूँ जिन्होने इतने उत्तम संस्कार मुझमें डाले कि आज उन्ही के बूते एक सफ़ल ज़िन्दगी जी रही हूँ और उसी की चमक से जीवन प्रकाशित हो रहा है । लेकिन ज़िन्दगी भर नहीं भूल सकती अपने पिता के जीवन की अन्तिम यात्रा तक के वो क्षण जिनकी साक्षी मैं बनी और वो मेरे दिल पर अदालती मोहर से जज़्ब हो गए और एक ऐसा अनुभव मिला जो हर किसी को जल्दी नसीब नहीं होता कुछ इस तरह : किसे ज्यादा प्यार करती है मम्मी को या बाऊजी को ? मम्मी को एक अबोध बालक का वार्तालाप जिसे प्यार के वास्तविक अर्थ ही नहीं मालूम । जो सिर्फ़ माँ के साथ सोने उठने बैठने रहने को प्यार समझती है । उसे नहीं पता पिता के प्यार की गहराई , वो नहीं जानती कि ऊपर से जो इतने सख्त हैं अन्दर से कितने नर्म हैं , उसे दिखाई देता है पिता द्वारा किया गया रोष और माँ द्वारा किया गया लाड और जीने लगती हैं बेटियाँ इसी को सत्य समझ बिना जाने तस्वीर का कोई दूसरा भी रुख होता है । उन्हें दिखायी देता है तो सिर्फ़ पिता का अनुशासन बद्ध रखना और रहना , अकेले आने जाने पर प्रतिबंध मगर नहीं जान पातीं उनका लाड से खिलाये गये निवाले में उनका निश्छल प्रेम , उनकी बीमारी में , तकलीफ़ में खुद के अस्तित्व तक को मिटा देने का प्रण । उम्र ही ऐसी होती है वो जो सिर्फ़ उडान भरना चाहती है वो भी बिना किसी बेडी के तो कैसे जान सकती हैं प्रतिबंधों के पीछे छुपी ममता के सागर को । और ऐसा ही मैं सोचा करती थी और किसी के भी पूछने पर कह उठती थी , “ मम्मी से प्यार ज्यादा करती हूँ । “ प्यार के वास्तविक अर्थों तक पहुँचने के लिए गुजरना पडा अतीत की संकरी गलियों से तब जाना क्या होता है पिता का प्रेम जो कभी व्यक्त नहीं करते मगर वो अवगुंठित हो जाता है हमारी शिराओं में इस तरह कि अहसास होने तक बहुत देर हो चुकी होती है या फिर जब अहसास होता है तब उसकी कद्र होती है । नेह के नीडों की पहचान के लिए गुजरना जरूरी है उन अह्सासों से : खुली स्थिर आँखें , एक – एक साँस इस तरह खिंचती मानो कोई कुयें से बहुत जोर देकर बडी मुश्किल से पानी की भरी बाल्टी खींच रहा हो और चेतना ने संसार का मोह छोड दिया हो और गायब हो गयी हो किसी विलुप्त पक्षी की तरह। वो 22 दिन मानो वक्त के सफ़हों से कभी मिटे ही नहीं , ठहर गये ज्यों के त्यों । कितनी ही आँख पर पट्टी बाँध लूँ मगर स्मृति की आँख पर नहीं पडा कभी पर्दा । हाँ , स्मृति वो तहखाना है जिसके भीतर यदि सीलन है तो रेंगते कीडे भी जो कुरेदते रहते हैं दिल की जमीन को क्योंकि आदत से मजबूर हैं तो कैसे संभव है आँखों के माध्यम से दिल के नक्शे पर लिखी इबारतों   का मिटना ? एक अलिखित खत की तरह पैगाम मिलते रहते हैं और सिलसिला चलता रहता है जो एक दिन मजबूर कर देता है कहने को , बोलने को उस यथार्थ को जिसे तुमने अपने अन्तस की कोठरियों में बंद कर रखा होता है और सदियों को भी हवा नहीं लगने देना चाहते मगर तुम्हारे चाहे कब कुछ हुआ है । सब प्रकृति का चक्र है तो चलना जरूरी है तो कैसे मैं उससे खुद को दूर रख सकती हूँ , स्मृतियों ने अपने पट खोल दिए हैं और कह रही हैं , ‘ आओ , देखो एक बार झाँककर , खोलो बंधनों को जिनमें बाँध रखा है खुद को , निकालना ही होगा तुम्हें तुम्हारा अवसाद , पीडा  और दंश ‘ । बात सिर्फ़ २२   दिनों की नहीं है बात है एक जीवन की , एक सोच की , एक ख्याल की । कोमा एक अवस्था जिसमें जाने वाला छोड देता है सारे रिश्ते नाते जीते जी , तोड लेता है हर संबंध भौतिक जगत से विज्ञान के अनुसार और आप जा … Read more

काहे को ब्याही …. ओ बाबुल मेरे

                                  विवाह जन्म -जन्मान्तर का रिश्ता होता है ………पर गरीबी दहेज़ की कुप्रथा और कहीं न कहीं कन्या को बोझ मानने की प्रवत्ति विवश कर देती है बाबुल को अपनी लाडली का हाथ उन हांथों में………..जहाँ विवाह के बाद नहीं लिखी जाती है प्रेम की स्वर्ण -गाथा अपतु समझोता दर समझौता जीवन जिया जाने लगता है मात्र जीने के लिए ……………..बेटियाँ जानती है पिता की विवशता ,चढ़ती हैं डोलियाँ आँखों के आंसूओं में छिपाए यक्ष प्रश्न ……….मात्र हाथ पीले करने के किये “काहे को ब्याही विदेश “और पिता अपने  आँखों में आंसूओं में छिपा लेते है ………..ज़माने भर के दर्द   काहे को ब्याही—–ओ बाबुल मेरे                                                       बाबुल   मैं ही तो थी तुम्हारे  आँगन की चिरइया  फुदकती मुंडेर पर चुगती दाना ची -ची की सरगम छेड़ कर  गुंजायमान करती  उस  घर का हर कोना -कोना जहाँ मेरे जन्म के साथ ही  तय कर दिया था  समाज ने  किसको मिलेगा मुझे डोली  और अर्थी में बिठाने का अधिकार  आज विदाई  की बेला में  लाल साडी  लाल चुनर  एडी महावर  और हांथों की मेहँदी में  अपना बचपन समेटे  जा रही हूँ  आखों के आँसूंओ  में  छिपाए एक यक्ष प्रश्न मुझे बोझ समझ   येन केन प्रकारेण केवल हाथ पीले करने के लिए  काहे को ब्याही ………ओ बाबुल मेरे  ?                                                   १  बाबुल  मैं ही तो थी  तुम्हारी मुनमुन  उम्र ही क्या थी मेरी  खड़ी किशोरावस्था की देहरी पर  देखे थे मात्र पंद्रह वसंत  अपरिपक्व तन ,अपरिपक्व मन  नहीं जानती   विवाह का अर्थ  हर ले गए  मेरा बाल मन  मात्र नए गहने व् कपडे जब आप ने  सौप दिया  मेरा हाथ  चालीस वर्षीय विधुर के हाथ  जिसे नहीं चाहिए थी जीवन संगिनी  चाहिए थी कच्ची कली  मात्र रौंदने को पवित्र अग्नि और मंत्रोच्चार के मध्य  बन बैठी मैं  दो किशोर संतानों की माँ  और पड गए  बचपन से सीधे अधेडावस्था में कदम  आज विदा हो रही हूँ   आँखों में आँसूओ  में   छिपाए यक्ष प्रश्न  ?                                                           २………. बाबुल  मैं ही तो थी  तुम्हारी नफीसा  अपनी छ :बहनों में सबसे  बड़ी  पाक जिस्म में समेटे  पाक रूह  जली थी तिल -तिल  गरीबी की आँच  में सबके साथ   फांके कर काटे थे  मुफलिसी के दिन  नहीं की थी उफ़ ! टाट -पट्टी पर सोकर  पैबंद लगे फ्रॉक पहनकर  जब सौप दिया  तुमने मेरा हाथ  दूर देश में  अरब के शेख के हाथ  जिसकी कई बीबियों के मध्य  बन कर रह जाऊँगी  बस एक संख्या  जो तालाशेगा मुझमें  खजुराहो का बेजान सौन्दर्य  और  सिसकेगी मेरी पाक रूह  तुम  भले ही छिपा लो  नोटों की गड्डी में  गरीबी ,लाचारी से उपजी बेरहमी  पर मैं  आज विदा हो रही हूँ   आँखों में आँसूओ  में   छिपाए  यक्ष प्रश्न  ?                                                    ३  बाबुल  मैं ही तो थी  तुम्हारी लाडो  जिसके मन में बोये थे तुमने  अनगिनत सपने  समझाया था असंभव नहीं है  इन्द्रधनुष को छू  लेना  फिर क्यों कुंडलियों के फेर में  राहू ,केतू और मंगल बिठाते -बिठाते  जब पड़ गए तुम्हारे पैर में छाले  तो थक हार कर  सौप दिया मेरा हाथ  वहाँ  जहाँ गुनाह है स्त्री -शिक्षा  परम्पराओं और वर्जनाओं की कब्रों में  दफ़न है औरतों के स्वप्न  जहाँ घूँघट  में ही देखना है आसमान  घर का मुख्य द्वार है  लक्ष्मण -रेखा  जिसको पार करके  कभी वापस नहीं आ पाती है सीता   विवाह के अग्नि -कुंड में  जला अपने स्वप्नों की चिता  आज विदा हो रही हूँ   आँखों में आँसूओ  में   छिपाए  यक्ष प्रश्न  ?                                                   ४  बाबुल  मैं ही तो थी तुम्हारी चंदनियां  जिसके स्यामल मुख चन्द्र पर  बचपन की महामारी ने  सजा दिए थे कई सितारे  जिन्हें धोने के लिए  मैं इकठ्ठी करती रही  डिग्रियों पर डिग्रियाँ और गृहकार्य -दक्षता के प्रमाण पत्र  सुनती रही समाज के ताने  सत्ताईस बरस की  “लड़की घर बैठी है “ झेलती रही एक के बाद एक अपने रंग -रूप की अवहेलना के दंश  मुझ वस्तु को देखने आने वाले  भावी वर -परिवारों द्वारा    तभी  किंचित अपनी बैठी नाक को खड़ा करने के लिए  तुमने सौप ही  दिया मेरा हाथ  एक अंगूठा छाप के हाथ  जिसकी रगीन शामें कटती हैं  पान की दुकानों पर पीक थूकते  चौराहों पर गुंडागर्दी करते  जिसे चाहिए  ऐसी पत्नी  जो ना करे कोई प्रश्न  अपनी काली छाया समेटे  बस निभाये कर्तव्य  अपने रूप -रंग के तिरिस्कार के साथ  आज विदा हो रही हूँ   आँखों में आँसूओ  में   छिपाए  यक्ष प्रश्न ?                                                           ५  बाबुल  मैं ही तो थी  तुम्हारी रूपा  यथा नाम तथा गुण  मासूम सा था मेरा मन  अपने पंखों को देने के लिए विस्तार  अर्जित कर रही थी उच्च शिक्षा  जब एक वहशी ने  धर -दबोचा   दुःख की गठरी बन   आई तुम्हारे पास  तो तुम्हें मेरी दुर्दशा से ज्यादा  सताई  नाक की चिंता  किये भागीरथी प्रयत्न  जल्दी से जल्दी सडांध आने से पहले  हटाने को  मेरी लाश  आखिरकार मिल ही गया तुम्हें  झूठा -भात खाने को तैयार  एक मानसिक विकलांग जिसे चाहिए थी  पत्नी नहीं एक सेविका और मैं  भिक्षा में मिले सिन्दूर  दूसरे के अपराध की सजा में मिली डोली में    आज विदा हो रही हूँ   आँखों में आँसूओ  में   छिपाए यक्ष प्रश्न ?                    … Read more