भाग्य बड़ा की कर्म

 “ भाग्य बड़ा है या कर्म “ ये एक ऐसा प्रश्न  है जिसका सामना हम रोजाना की जिन्दगी में करते रहते है | इसका सीधा – सादा   उत्तर देना उतना ही कठिन है जितना की “पहले मुर्गी आई थी  या अंडा “का | वास्तव में देखा जाए तो भाग्य और कर्म एक सिक्के के दो पहलू हैं | कर्म से भाग्य बनता है और ये  भाग्य हमें ऐसी परिस्तिथियों में डालता रहता है जहाँ हम कर्म कर के विजयी सिद्ध हों  या परिस्तिथियों के आगे हार मान कर हाथ पर हाथ रखे बैठे रहे और बिना लड़े  ही पराजय स्वीकार कर लें | भाग्य जड़ है और कर्म चेतन | चेतन कर्म से ही भाग्य का निर्माण होता है | जैसा की जयशंकर प्रसाद जी “ कामायनी में कहते हैं की कर्म का भोग, भोग का कर्म, यही जड़ का चेतन-आनन्द। अब मैं अपनी बात को सिद्ध करने के लिए कुछ तर्क देना चाहती हूँ | जरा गौर करियेगा की हम कहाँ – कहाँ भाग्य को दोष देते हैं पर हमारा वो भाग्य किसी कर्म  का परिणाम होता है | 1)कर्म जब फल की चिंता रहित हो तो सफलता दिलाता है  हमारी भारतीय संस्कृति  जीवन को जन्म जन्मांतर का खेल मानते हुए कर्म से भाग्य और भाग्य से कर्म के सिद्धांत पर टिकी हुई है |गीता का तीसरा अध्याय कर्मयोग के नाम से ही जाना जाता हैं | ये सच है की जन्म – जन्मांतर को तार्किक दृष्टि से सिद्द नहीं किया जा सकता | फिर भी कर्म योग के ये सिद्धांत आज विश्व के अनेक विकसित देशों में MBA के students को पढाया जा रहा है | और और इसे पुनर्जन्म पर नहीं तर्क की दृष्टि से सिद्ध किया जा रहा है | जैसा की प्रभु श्री कृष्ण गीता में कहते हैं की .. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। उसकी तार्किक व्याख्या इस प्रकार दी जाती है की ….फल की चिंता अर्थात स्ट्रेस या तनाव जब हम कोई काम करते समय जरूरत से ज्यादा ध्यान फल या रिजल्ट पर देते हैं तो तनाव का शिकार हो जाते हैं | तनाव हमारी परफोर्मेंस पर असर डालता है | हम लोग दैनिक जीवन की मामूली से मामूली बातों में देख सकते हैं की स्ट्रेस करने से थकान महसूस होती है , एनर्जी लेवल डाउन होता है और काम बिगड़ जाता है |पॉजिटिव थिंकिंग की अवधारणा इसी स्ट्रेस को कम करने के लिए आई | मन में अच्छा सोंच कर काम शुरू करो , जिससे काम में जोश रहे , दिमाग फ़ालतू सोंचने के बजाय काम पर फोकस हो सके | कई बार पॉजिटिव थिंकिंग के पॉजिटिव रिजल्ट देखने के बाद भी हम अपनी निगेटिव थिंकिंग को दोष न देकर कहते हैं …. अरे पॉजिटिव , निगेटिव थिंकिंग नहीं ये तो भाग्य है |J २ ) भाग्य नहीं गलत डिसीजन है असफलता का कारण  कई बार जिसे हम भाग्य समझ कर दोष देते हैं वो हमारा गलत डिसीजन होता है | उदाहरण के लिए किसी बच्चे की रूचि लेखक बनने की है | पर माता – पिता के दवाब में , या दोस्तों के कहने पर बच्चा गणित ले लेता है | निश्चित तौर पर वो उतने अच्छे नंबर  नहीं लाएगा | हो सकता है फेल भी हो जाए | अब परिवार के लोग सब से कहते फिरेंगे की मेरा बच्चा तो दिन रात –पढता है पर क्या करे भाग्य साथ नहीं देता |मैंने ऐसे कई बच्चे देखे जिन्होंने तीन , चार साल मेडिकल या इंजिनीयरिंग की रोते हुए पढाई करने के बाद लाइन चेंज की | और खुशहाल जिन्दगी जी | बाकी उसी को बेमन से पढ़ते रहे , असफल होते रहे और भाग्य को दोष देते रहे | क्या आप को नहीं लगता हमीं हैं जो भाग्य की ब्रांडिंग करते हैं | J J ३)प्रतिभा और परिश्रम बनाते हैं भाग्य   इसी प्रतियोगिता में ही शायद मैंने पढ़ा था की हर चाय वाला मोदी नहीं हो जाता | यानी हम ये मान कर चलते हैं की हर अँगुली बराबर होती है |J प्रतिभा को हमने सिरे से ख़ारिज कर दिया , और उन  स्ट्रगल्स को भी जो मोदी ने मोदी बनने के दौरान की | पूरे देश घूम – घूम कर जनसभाएं की | लोगों से जुड़ने का प्रयास किया | उनकी समस्याएं समझी , सुलझाई | क्या हर चाय वाला इतना करता है | या इतना महत्वाकांक्षी भी होता है | हम सब ने बचपन में संस्कृत का एक श्लोक पढ़ा है | उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः । न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ॥                   हम ये श्लोक पढ़कर एग्जाम पास कर लेते हैं | पर तर्क ये देते हैं की हम भी चाय बेंचते हैं | फिर हम मोदी क्यों नहीं बने | चाय वाला =चायवाला , सबको मोदी बनना चाहिए | अरे ,ये तो भाग्य है | J 4)सफलता बरकरार रखने के लिए भाग्य पर नहीं स्ट्रेटजी पर ध्यन दें   अब जरा गौर करते हैं , उन किस्सों  पर जिनमें शुरू में प्रतिभा बराबर होती है | कई बार शुरूआती प्रतिभा बराबर होने के बाद भी हम लगातार उतने सफल नहीं हो पाते | क्योंकि एक बार सफलता पाना और उसे बनाए रखना दो अलग – अलग चीजे हैं | उसके लिए अनुशासन , फोकस , अपने अंदर जूनून को जिन्दा रखना , असफल होने के बाद भी प्रयास न छोड़ना आदि कर्म आते हैं | जो लगातार करने पड़ते है | चोटी  पर बैठा व्यक्ति जिस स्ट्रेस को झेलता है , उस के लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार करना पड़ता है | Our greatest weakness lies in giving up.  The most certain way to succeed is always to try just one more time.  — Thomas Edison काम्बली और तेंदुलकर का उदहारण अक्सर दिया जाता है |क्या सचिन तेंदुलकर की निष्ठा जूनून , लगन  , अनुशासित जीवन और हार्ड वर्क को हम नकार सकते हैं | पर हम किसी लगातार सफल व्यक्ति के  ये गुण खुद में उतारने के स्थान पर लगेंगे भाग्य को दोष देने | J 5 )कर्म तय कराता है महा गरीबी से महा अमीरी का सफ़र   एक और स्थान जिसे हम भाग्य के पक्ष में रखते हैं | … Read more

जिनपिंग! हम ढ़ाई मोर्चे पे तैयार है

रंगनाथ द्विवेदी अब पता नहीं 1962 के भारत और चीन के क्या हालात थे?,परिस्थितियाँ क्या थी?।उस समय के हमारे प्रधानमंत्री नेहरु जी से भूल हुई या फिर चीन ने हमारे इस देश और हमारी मित्रता के साथ विश्वासघात किया? एैसे मे तमाम तर्क है कुछ लोग उस समय के तत्कालीक प्रधानमंत्री नेहरु जी पे भी अपने-अपने तरीके से दोषारोपण करते है। ये तो निश्चित है कि उस समय के कुछ तथ्य भी तोड़े-मरोड़े गये उस लड़ाई मे चीन ने हमसे ढ़ेर सारी हमारी जमीने भी हथिया ली, सारी सच्चाईयो का बाद की सरकारो के द्वारा गला भी घोटा गया उसका एक प्रमुख कारण भी रहा काग्रेंस का काफी लम्बे समय तक किया गया शासन! वैसे भी अब आज की तारीख़ में”उस कैंसर ग्रस्त पन्ने को पढ़ने से कुछ भी हासिल होने वाला नही एैसे में उसपे बेजा लेखनी लिखने से अच्छा है कि हम उदीयमान होते हुये सुदृढ़ और मजबूत भारत की उस छप्पन इंच की छाती पे लिखे जो आज की तारीख़ मे मदांध चीन से पीछे न खिसक बल्कि अपनी डिप्लोमेसी से चीन और पाकिस्तान को हर मोरचे पे थोड़ा-थोड़ा कर पीछे ढ़केल रहा है। आज हम पलायित होने की बजाय चीन की आँख के उस सुअर की बाल का जवाब कुटनीतिक तरिके से दे रहे है अर्थात आज उसी के से अंदाज मे हमारी भी आँख बखूबी पुरी चाईनीज़ शैली मे पेच लडाये हुये है। यही चीज चीन की तिलमिलाहट का कारण भी बन रहा है जिसकी एक बानगी हमने उसके द्वारा अभी हाल ही मे डोकलाॅम मे देखी है। उसे हर मोर्चे पे भारत से मिल रहे करारे जवाब का ही ये प्रतिफल है जो वे ये कह रहा कि सिक्किम का डोकलाॅम उसके भू-भाग मे है एैसा उसने अपने एक नक्शे मे भी दर्शाया है,लेकिन हमारी भारतीय फौज लगातार वहाँ अपना सफल दबाव बनाये हुये है,इसी के तहत वहाँ के प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मिडिया के माध्यम से ये कहाँ जाना कि—“भारत को 1962 के युद्ध से सबक लेना चाहिये और उसे अपनी सेना पंचशील संधि के तहत हटा लेनी चाहिये क्योंकि वे चीन का अपना भू-भाग है ये निरा बकवास और चीन का बिस्तारवादी नीति का बेहुदापन है नही तो सच ये है कि वे भू-भाग भुटान और भारत का अपना भू-भाग है ये भू-भाग सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है”। चीन को शायद अब ये आभास कराने का समय भी आ गया है कि “अब भारत 1962 के नेहरु का भारत नही बल्कि आज का काफी सुदृढ़ और मजबूत भारत है जो उस युग से काफी आगे निकल आया है,इसलिये अब हमे चीन 1962 की तरह डिल न करे”।अब हम उसकी विस्तारवादी नीति को सहे ये संम्भव नही, अभी हमारे सेनाध्यक्ष का भी एक करारा बयान आया था कि “हम और हमारी सेना ढ़ाई मोरचे पे लड़ने को तैयार है”। और शायद हमारे सेनाध्यक्ष के कथन कि झुंझलाहट ही थी की चाईना के डोकलाॅम के आस-पास आये चीनी सैनिको को हमारी भारतीय सेना ने ढ़केल बाहर किया वे चोट चीन के लिये असह्य और काफी पीड़ादायक हो गई,ये हम भारतियो के लिये गर्व का पल था।हमारे रक्षामंत्री अरुण जेटली ने भी चीन के 1962 वाले युद्ध के गीदड़ भभकी के जवाब मे कहाँ कि “अब चीन को भी थोड़ा सा ये समझ जाना चाहिये कि अब हम भी वे 1962 के भारत नही रहे”। सिक्किम के डोकलाॅम मे लगातार हमारी सेना का डटा रहना चीन को नागवार लग रहा,जब वहाँ उसे मुँह की खानी पड़ी तो उसने एक और चाल चली,उसने कुछ लड़ाकू बेड़े,पनडुब्बी जहाज़ आदि को भारतीय समुद्री सीमा के आस-पास भेज भारत को भयाक्रांत या डराने की कोशिश की और उसके इस ताजा-तरीन कोशिश का नीम की तरह का कड़वा फल उसे कल ही खाने या चखने को मिल गया,अर्थात विश्व की दो महान शक्तियो अमेरिका,जापान और भारत ने एक साथ दस दिनो का सामरिक युद्धाभ्यास किया जो कि अब तलक का सबसे तगड़ा तीन देशो का युद्धाभ्यास है,हालाँकि आज की तारीख़ में चीन की विस्तारवादी नीतियो के चलते विश्व के अधिसंख्य देश उससे मन ही मन चिढ़े हुये है। इस युद्धाभ्यास के नाते चीन एक टुच्चे और टभैये देश की तरह ये कह रहा है कि—भुटान का साथ जीस तरह भारत दे रहा है ठीक वैसे ही हम भारत मे कश्मीर घाटी के अलगाववादीयो,आतंकियो की मदत करने के लिये अपनी सेना को भेज सकते है। आजादी के इतने साल बाद चीन को भी ये कल्पना न थी कि भारत एकदिन उस स्थिति तलक अपनी सफल डिप्लोमेसी के द्वारा पहुँच जायेगा कि उसके समकक्ष अपनी आँख दिखा उसकी गीदड़ भभकियो का शेर की गर्जना के साथ या शैली मे जवाब भी दे लेगा। इस सारे बदलाव की जड़ का एकमात्र नायक आज हमारे देश के इतने बड़े लोकतन्त्र के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी को जाता है,जो अरबो की जनसंख्या के इस देश को जब भी किसी देश मे प्रस्तुत करते है तो लगता है कि पहली बार हमारे इतने बड़े मुल्क कि वे छप्पन इंच की छाती बोल रही है जिसपे आज की तारीख़ मे हम सभी भारतवासियो को गर्व है।नरेन्द्र मोदी की सफल कूटनीतियो ने हमे मात्र तीन साल मे ही वहाँ पहुँचा दिया है जहाँ से पुरी दुनिया भारत को गौर से सुन और तक रही है। तीन साल मे ही मोदी जी ने वे करिश्मा कर दिखाया,जो इतने वर्षो या सालो की राजनीति में भारत के बड़े-बडे नेता या प्रधानमंत्री नही कर पाये,उनके उसी अदा और शैली की आज दुनिया दिवानी है”अमेरिका जैसी विश्व शक्ति वाले देश के राष्ट्रपति को भी अपने यहाँ के चुनाव मे मोदी-मोदी कहना पड़ा और उस नाम कि महिमा का सिक्का भी वहाँ चला और ट्रम्प वहाँ के राष्ट्रपति चुनकर आये”। हमने तमाम किस्से और कहानिया बचपन मे सुनी व पढ़ी कि महाराजा विक्रमादित्य के दरबार मे नौ-रत्न थे या फिर अकबर की हुकूमत मे भी नौ-रत्न थे उसके बाद मै तिसरी बार एैज ऐ गवाह अपने समय की एक जिंदा कहानी को जीवित देखने का सुअवसर पा रहा हूं अर्थात मोदी जी की भी सत्ता मे हर विधा के एक से बढ़कर एक रत्न दिख रहे है।उनकी सबसे बड़ी और बेशकिमती अदा है किसी भी हद तलक जा देश हित मे लिये … Read more

सबसे सुंदर दिखने की दौड़ – आखिर हल क्या है?

             आप के सामने आज  का अखबार पड़ा है | हत्या मार –पीट डकैती की खबरों पर उडती –उडती नज़र डालने के बाद आप की नज़र टिक जाती है विज्ञापन पर जिसमें लिखा है दस दिन में वजन १० किलो कैसे घटाए या आप  अपने चेहरे के मुताबिक़ इयरिंग्स कैसे चुने | क्या आप ने कभी सोचा है ऐसा क्यों ? हम देश के संभ्रांत नागरिक की जगह  जीवन शैली के जूनून की हद तक बाई  प्रोडक्ट हो गए हैं | हममें  से ज्यादातर का ध्यान देश की समस्याएं नहीं बल्कि टी वी के १००चैनल, फैशन मैगजीन्स व् कपड़ों पर लिखे कुछ खास ब्रांडेड नेम्स खींचते हैं |             और इस क्यों का केवल एक ही जवाब हैं हम अपने को या अपने किसी हिस्से को बदलना चाहते हैं | क्योंकि हम उसको या शायद खुद को नापसंद करते हैं |  यह एक बीमार सामाजिक मानसिकता का प्रतीक है |  हम ऐसे समाज का हिस्सा हो गए हैं जो अवास्तविक मापदंडों पर दूसरों की और खुद की सुन्दरता को तौलता है | इसलिए हम सब पसंद किये जाने या नापसंद किये जाने के भय से ग्रस्त रहते हैं |           अगर महिलाओ की बात की जाए तो उनकी स्तिथि ओर भी ज्यादा गंभीर है | स्वेता और स्नेहा उम्र २० वर्ष , टी वी पर किसी हेरोइन का ऐड देख कर आह क्या फिगर है कह कर अपनी शारीरिक संरचना से असंतुष्ट हो जाती है | | वही दोनों किसी और पार्टी की फोटो में उसी हेरोइन को उसी ड्रेस में देखती हैं | अब रूप रंग फिगर सब सामान्य नज़र आता है | वो जानती हैं की वो  फोटो शॉप की गयी तस्वीर थी जानते समझते हुए भी उन पर से  उस फोटो शॉप की गयी तस्वीर का नशा और उसके जैसा बनने का जूनून नहीं उतरता है |  यह असंतुष्टि उन्हें पढाई का कीमती समय बर्बाद कर जिम जाने के लिए महंगे ब्यूटी प्रोडक्ट खरीदने के लिए विवश करती है | ये मेकअप  की परतें उन्हें थोड़ी देर के लिए कुछ और होने का अहसास कराती हैं पर अन्दर से वो अपनी असलियत जानती हैं | इसलिए आत्मविश्वास कम होता जाता है | इतना कम की वो सुबह उठ कर शीशे में अपना मेक अप विहीन चेहरा  देखना नहीं पसंद करती हैं | वो समझ ही नहीं पाती की वो मेक उप के बिना भी सुन्दर हैं | ये खुद को पसंद करना नहीं खुद को अस्वीकार करना हैं |           ये हकीकत  है की मॉडल जैसा फिगर पाने की चाहत में लडकियाँ बेजरूरत डाइटिंग करती हैं | कमजोरी के कारण चक्कर खा कर गिरती हैं | कुछ तो अनिरोक्सिया नेर्वोसा नामक मानसिक बीमारी से ग्रस्त हो कर खाना इस कदर छोड़ देती हैं की मात्र कंकाल रह जाती हैं | खुद को नापसंद करना इस हद तक की जीवन ही खत्म हो जाए | ऐसे होंठ , ऐसी नाक ऐसे आँखे ऐसे पलके और ब्रांडेड कपडे क्या इसी में ख़ुशी छिपी है | याद होगी बचपन की एक कहानी जब एक राजा  ने “ हैप्पी मैन “ खोजने के लिए भेजा तो सिपाहियों को पूरे राज्य में केवल एक ही आदमी मिला | पर अफ़सोस उसके पास शर्ट ही नहीं थी |                   सबसे पहले हमें यह समझना होगा जो जैसा है वह उसी तरह से सुन्दर है | अपूर्णता में भी एक सुन्दरता है जो हमें भीड़ से अलग करती है | जरा सोचिये अगर सब फोटो शॉप की गयी तस्वीर की तरह एक जैसे हो जाए तब  क्या हमें कोई सुन्दर दिखेगा | भिन्नता में ही सुन्दरता है | दूसरा हमें यह समझना होगा की ब्यूटी इंडस्ट्री आप के दोषों को छिपा कर आप को सुन्दर या परफेक्ट नहीं बना रही है अपितु आप का धयान आपकी अपूर्णताओ पर दिला कर आप के अन्दर हीन भावना या खुद को अस्वीकार करने की भावना पैदा कर रही हैं | इसी पर सारा सौन्दर्य उद्योग टिका है | वो आपके आत्मविश्वास को तोड़ता है | और आप नए –नए उत्पाद इस्तेमाल करके शीशे से पूंछतें हैं “ बता मेरे शीशे सबसे सुन्दर कौन ,और स्नो वाइट की माँ की तरह निराश होते हैं |          क्लिनिकल साइकोलोजी और पोजिटिव साइकोलोजी में सकारात्मक  रहने के लिए खुद को स्वीकार करना जरूरी है | पर आज की मीडिया एरा ने परफेक्ट दिखने का जिन्न बोतल से निकाल दिया है | आत्म  विश्वास के लिए आप का परफेक्ट दिखना जरूरी है | अगर आप परफेक्ट नहीं दिखते हैं तो कम से कम अपनी अपूर्णताओ को छिपाइए व् परफेक्ट महसूस करिए |   कभी –कभी मेक अप कर लेना बुरा नहीं है पर  जूनून की हद तक खुद को बदलने की इच्छा  रखना वो परजीवी है जो सुख चैन को भी खा जाता है | अंत में मैं इतना ही कहना चाहूँगी  …  अपने को पसंद करिए , स्वीकार करिए | अपनी  हिम्मत बढ़ाइए , क्योंकि अपने को स्वीकार करके आप ज्यादा बहादुर सिद्ध होते हैं | याद रखिये खुद को पसंद करना सबसे बेहतरीन सौन्दर्य प्रसाधन है जो आप इस्तेमाल कर सकते हैं | वंदना बाजपेयी सोंच समझ कर खर्च करें तन की सुन्दरता में आकर्षण , मन की सुन्दरता में विश्वास आखिर क्यों फ़ैल रहा है बाजारवाद चलो चलें जड़ों की ओर

कहीं आपको फेसबुक का नशा तो नहीं ?

                        ऍफ़ बी  या फेस बुक  विधाता कि बनाई दुनियाँ के अन्दर एक और दुनियाँ ……… जीती जागती सजीव …कहते है कभी भारतीय ऋषि परशुराम ने विधाता कि सृष्टि के के अन्दर एक और सृष्टि बनाने कि कोशिश कि थी …. नारियल  के रूप में |उन्होंने आखें ,मुंह बना कर चेहरे का आकार दे दिया था ……. पर किसी कारण वश उस काम को रोक दिया | पर युगों बाद मार्क जुकरबर्ग ने उसे पूरा कर दिखाया फेस बुक या मुख पुस्तिका के रूप में | बस एक अँगुली का ईशारा और प्रोफाइल पिक के साथ  पूरी जीती –जागती दुनियाँ आपके सामने हाज़िर हो जाती है |भारत ,अमरीका ,इंगलैंड या पकिस्तान सब एक साथ एक ही जगह पर आ जाते हैं और वो जगह होती है आप के घर में आपका कंप्यूटर ,लैपटॉप या मोबाइल | कितना आश्चर्य जनक कितना सुखद | इंसान का अकेलापन दूर करने वाली ,लोगों को लोगों से जोड़ने वाली साइट इतनी लोकप्रिय होगी इसकी कल्पना तो शायद मार्क जुकरबर्ग ने भी नहीं कि थी | आज फेस बुक दुनियाँ कि सेकंड नम्बर कि विजिट की  जाने वाली साइट है |पहली गूगल है | इसकी लोकप्रियता का आलम यह है कि आज इसके लगभग एक बिलियन रजिस्टर्ड यूजर्स हैं | यानी कि दुनियाँ का हर सातवाँ आदमी ऍफ़ बी पर है ……….. आप भी उन्हीं में से एक हैं ,हैं ना ? आज अगर आप किसी से मिलते हैं तो  औपचारिक बातों के बाद उसका पहला प्रश्न यही होता है “क्या आप ऍफ़ बी  पर हैं और अगर आप नहीं कहते हैं तो अगला आप को ऊपर से नीचे तक ऐसे देखता है “ जैसे आप सामान्य मनुष्य नहीं हैं बल्कि चिड़ियाघर से छूटे कोई जीव हों |                        अब आप अगर सामान्य मनुष्य है ,चिड़ियाघर से छूटे  जानवर नहीं तो इतना तो तय है कि आप भी ऍफ़ बी यूज( इस्तेमाल ) कर रहे होंगे |पर सोचने वाली बात यह है  कि आप ऍफ़ बी इस्तेमाल   कर रहे हैं या जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं| यहाँ ओवर यूज से मेरा मतलब है आप दिन भर में एक घंटे से ज्यादा ऍफ़ बी यूज तो नहीं कर रहे हैं ….. यहाँ केवल वही  समय नहीं देखना है जो आप ऑनलाइन रहते है बल्कि वो समय भी जोड़ना है जब आप ऍफ़ बी ,उसके लाइक कमेंट ,स्टेटस के बारे में सोचने में बिताते हैं और मानसिक रूप से ऍफ़ बी पर ही रहते हैं क्योंकि वस्तुतः हम वहीँ होते हैं जहाँ हमारा मन होता है | ऐसे समय में हाथों से किया जाने वाला काम प्रभावित होता है |और अगर ऐसा है तो सतर्क हो जाइए क्योंकि  अकेलापन दूर करने वाली ,लोगों को लोगों से जोड़ने वाली इस साइट का एक खतरनाक असर भी है …….. कि ये बहुत जल्दी ही आप को एडिक्ट बना लेती है | क्या मैं ऍफ़ बी एडिक्ट हूँ –                      ऊपर कि पंक्तियाँ पढ़ कर जरूर आप के मन में यह सवाल उठा होगा | आप जानना चाहते होंगे कि कहीं मैं ऍफ़ बी एडिक्ट तो नहीं हो गया | उत्तर आसान है ……… जैसे हर बीमारी के सिमटम्स होते हैं वैसे ही ऍफ़ बी एडिकसन  के कुछ सिमटम्स हैं | जरा गौर करिए कहीं आप में इनमें से कोई चिन्ह तो नहीं है | *आप के हाथ कहीं भी व्यस्त हो आपके दिमाग में एक अजीब सी बेचैनी रहती है कि मैंने आज जो स्टेटस डाला था उस पर कितने लाइक कमेंट आये होंगे | * आप बार –बार अपने मित्रों के स्टेटस और अपने स्टेटस में होने वाले लाइक कमेंट कि तुलना करते रहते हैं…. अपने स्टेटस पर कम लाइक कमेंट देख कर आप का मूड उखड जाता हैं और आप बच्चों और घरवालों पर बेवजह झल्लाने लगते हैं | *आप कहीं भी हों कुछ भी कर रहे हो थोड़ी –थोड़ी देर में मोबाइल खोल कर देख लेते हैं कहीं कुछ नया स्टेटस तो नहीं आया है ? *अगर आप का इंटरनेट नहीं चल रहा है तो या तो आप पास पड़ोस में जाकर ऍफ़ बी देखते हैं या अपने दोस्तों से फोन कर –कर के पूंछते हैं कि आपके स्टेटस पर कितने लाइक कमेंट हैं | * रात को सोते समय आप ऍफ़ बी देख कर ही सोते हैं और कोशिश करते हैं कि गुड नाईट का स्टेटस डाल दे * सुबह आँख खुलने के बाद आप सबसे पहले ऍफ़ बी देखते हैं * आप को अपने आस –पास कि घटनाओं से उतना फर्क नहीं पड़ने लगता जितना ऍफ़ बी कि घटनाओं से *आप को लगने लगता है कि अब अप दुनियाँ के सबसे व्यस्त इंसान हो गए हैं जिसके पास अब अपने जिगरी दोस्त से बात करने के लिए १० मिनट भी नहीं हैं जिसके साथ कभी आपकी घंटों बातें ही ख़त्म नहीं होती थी | * और सबसे खतरनाक आप टॉयलेट में भी मोबाइल ले जाकर  स्टेटस चेक करने लगे हैं |                       अगर आप में इनमें से कोई लक्षण है तो सावधान  आप ऍफ़ बी एडिक्ट हो गए हैं | वैसे भी अगर मोटे तौर पर देखा जाए जो लोग एक घंटे से ज्यादा ऍफ़ बी प्रयोग करते हैं उन सब में एडिक्ट होने कि प्रबल संभावना रहती है |इस नियम में केवल उन लोगों को छूट है जो व्यावसायिक तौर पर ऍफ़ बी का प्रयोग करते हैं …. जैसे अपने सामान के  प्रचार के लिए , किसी सामाजिक कारण के लिए या किसी मुद्दे पर जन जागरण के लिए …  आपके ऍफ़  बी अडिक्ट होने कि संभावना ज्यादा है अगर …… क )अगर आप ने जीवन में कोई लक्ष्य नहीं बनाया है                            इन्हें आप घुमंतू भी कह सकते हैं | इनमें से ज्यादातर वो किशोर व् युवा आते हैं जो  लक्ष्य विहीन सिर्फ पास होने के लिए पढ़ रहे है ….. जाहिर है वो इम्तिहान के आस –पास ही पढेंगे बाकी समय कुछ मौज –मस्ती करने कि इरादे से ऍफ़ बी पर आते हैं और फिर यही के हो कर रह जाते हैं | ख ) जो दूसरों का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं                           आप इन्हें हीन भावना ग्रस्त या कुछ हद तक अवसाद में भी कह सकते … Read more

स्कूलों में बच्चों को ‘यौन शिक्षा’ के स्थान पर दी जाए ‘योग’ एवं ‘आध्यात्म’ की शिक्षा

27 सितंबर, 2014 को प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा में प्रस्ताव पेश किया था कि संयुक्त राष्ट्र को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की शुरुआत करनी चाहिए। संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने पहले भाषण में मोदी ने कहा था कि ‘‘भारत के लिए प्रकृति का सम्मान अध्यात्म का अनिवार्य हिस्सा है। भारतीय प्रकृति को पवित्र मानते हैं।’’ उन्होंने कहा था कि ‘‘योग हमारी प्राचीन परंपरा का अमूल्य उपहार है।’’ यूएन में प्रस्ताव रखते वक्त मोदी ने योग की अहमियत बताते हुए कहा था, ‘‘योग मन और शरीर को, विचार और काम को, बाधा और सिद्धि को ठोस आकार देता है। यह व्यक्ति और प्रकृति के बीच तालमेल बनाता है। यह स्वास्थ्य को अखंड स्वरूप देता है। इसमें केवल व्यायाम नहीं है, बल्कि यह प्रकृति और मनुष्य के बीच की कड़ी है। यह जलवायु परिवर्ततन से लड़ने में हमारी मदद करता है।’’ स्कूलों में बच्चों को ‘यौन शिक्षा’ के स्थान पर दी जाए ‘योग’ एवं ‘आध्यात्म’ की शिक्षा  संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 21 जून, 2014 को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाने को मंजूरी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रस्ताव के मात्र तीन महीने के अंदर दे दी। इसी के साथ भारत की सेहत से भरपूर प्राचीन विद्या योग को वैश्विक मान्यता मिल गई थी। भारत में वैदिक काल से मौजूद योग विद्या एक जीवन शैली है जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने नया मुकाम दिलाया। संयुक्त राष्ट्र महासभा के 69वें सत्र में इस आशय के प्रस्ताव को लगभग सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया था। भारत के साथ रिकार्ड 177 सदस्य देश न केवल इस प्रस्ताव के समर्थक बने बल्कि इसके सह-प्रस्तावक भी बने। इस मौके पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने कहा था कि, ‘‘इस क्रिया से शांति और विकास में योगदान मिल सकता है। यह मनुष्य को तनाव से राहत दिलाता है।’’  बान की मून ने सदस्य देशों से अपील की कि वे योग को प्रोत्साहित करने में मदद करें। यहाँ उल्लेखनीय है कि भारत में इससे पहले 2011 में हुए एक योग सम्मेलन में 21 जून को विश्व योग दिवस के तौर पर घोषित किया गया था। इस दिन को इसलिए चुना गया क्योंकि 21 जून साल का सबसे लंबा दिन होता है और समझा जाता है कि इस दिन सूरज, रोशनी और प्रकृति का धरती से विशेष संबंध होता है। इस दिन को किसी व्यक्ति विशेष को ध्यान में रख कर नहीं, बल्कि प्रकृति को ध्यान में रख कर चुना गया है।  योग स्वास्थ्य के लिए जरूरी :- वैश्विक स्वास्थ्य और विदेश नीति के एजेंडा के तहत स्वीकार किए गए इस प्रस्ताव में कहा गया है कि योग स्वास्थ्य के लिए आवश्यक सभी जरूरी ऊर्जा प्रदान करता है। श्री मोदी ने सितंबर 2014 में महासभा के सत्र में इसी आशय की बात कही थी। 21 जून को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित करने के अलावा प्रस्ताव में कहा गया है कि योग के फायदे की जानकारियां फैलाना दुनिया भर में लोगों के स्वास्थ्य के हित में होगा। योग केवल आसान और मुद्राओं तक सीमित नहीं है। यह तो एक आदर्श जीवन शैली है, जो मानवीय उत्थान की ओर ले जाती है। आज के समय लोगों ने भौतिक जगत में बहुत ऊंचाई हासिल कर ली है, लेकिन अपने अंदर झांकने का मौका केवल भारतीय संस्कृति ही देती है। योग और ध्यान न केवल हमारा स्वास्थ्य संवर्धन करते हैं बल्कि हमें आंतरिक और मानसिक बल भी प्रदान करते हैं। काफी समय से ऋषि परंपरा और आध्यात्म को बढ़ाने के प्रयास हो रहे हैं। वास्तव में योग एवं आध्यात्म की शिक्षा में पूरी मानवता को एकजुट करने की शक्ति है। योग में ज्ञान, कर्म और भक्ति का समागम है। अदूरदर्शितापूर्ण निर्णय:- एक दैनिक समाचार पत्र में ‘स्कूलों में यौन शिक्षा अनिवार्य बनाए जाने की सिफारिश’ शीर्षक से एक समाचार प्रकाशित किया गया था। इस समाचार के अनुसार गठित की गई समिति ने स्कूलों में नाबालिगों को दुष्कर्म और यौन उत्पीड़न की घटनाओं से बचाने के लिए सुझाव पेश किए हैं। इसके तहत यौन शिक्षा को स्कूली पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा बनाए जाने की सिफारिश की गई है, जो कि आने वाले समय में देश की बाल एवं युवा पीढ़ी को गलत दिशा में ही ले जाने का ही काम करेंगी। हमारा मानना है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर को मनुष्य की ओर से अर्पित की जाने वाली समस्त सम्भव सेवाओं में से सर्वाधिक महान सेवा है – (अ) बच्चों की उद्देश्यपूर्ण शिक्षा, (ब) उनके चरित्र का निर्माण तथा (स) उनके हृदय में परमात्मा की शिक्षाओं को जानकर उन पर चलने का बचपन से अभ्यास कराना न कि स्कूलों में यौन शिक्षा देकर बच्चों को तन तथा मन का रोगी बनाना।  यौन शिक्षा के अनिवार्य होने से विदेशों में बढ़ी हैं समस्यायें:- अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रान्स जैसे देशों से स्कूली बच्चों को यौन शिक्षा देने के परिणाम बुरे आ रहे हैं। इन देशों में अब यह स्पष्ट हो चुका है कि यौन शिक्षा से एच.आई.वी., एड्स आदि जैसे अनेक रोगों पर तो काबू नहीं पाया जा सका है अपितु इन देशों की बाल एवं युवा पीढ़ी पर इसका उल्टा असर हुआ है। इन देशों में यौन शिक्षा के कारण माता-पिता के जीवित रहते हुए भी लाखों बच्चे अनाथ होकर उन्मुक्त जीवन जीने को विवश हैं, जो कि एड्स जैसे महारोग को बढ़ाने का मुख्य कारण है। इसके अलावा इन देशों में विवाहित जोड़ों में दूसरी स्त्रियों तथा पुरूषों से अवैध संबंध बढ़ाने की प्रवृत्ति जोर पकड़ चुकी है। इन सभ्य कहे जाने वाले पश्चिमी देशों की नकल करने में भारत भी बिना सोचे-विचारे लगा है। उन्मुक्त सेक्स की तरफ बढ़ती प्रवृत्ति के कारण विवाह जैसी पवित्र संस्था का अस्तित्व ही खतरे में पड़ता जा रहा है।  आधुनिकता के नाम पर भारत में भी पांव पसार रही हैं समस्यायें:- भारत में भी आज कल सभी टी.वी. चैनलों एवं समाचार पत्रों में आधुनिकता के नाम पर युवक-युवतियों द्वारा बिना विवाह के लिव-इन-रिलेशन में साथ रहने के कारण युवतियों के गर्भवती होने व भ्रण हत्या करवाने आदि की घटनायें लगातार सामने आती जा रहीं हैं। इसके बावजूद भी विद्यालयों में यौन शिक्षा देने की तैयारी की जा रही है। हमारा मानना है कि बच्चों की मनः स्थिति का आंकलन किये वगैर बाल एवं युवा पीढ़ी को यौन … Read more

अनूठी है शिखा शाह की कारीगरी

            सेंट्रल पाॅल्यूशन कंट्रोल बोर्ड आॅफ इंडिया के फरवरी 2015 के आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रतिदिन 1.4 लाख टन कचरा उत्पन्न होता है। इस कचरे में बहुत सा हिस्सा बोतलों, गत्ते, डिब्बे, प्लास्टिक का सामान, विभिन्न उद्योगों से निकले कबाड़ का भी होता है। शहरों में इन सबके ढेर के ढेर लगे देखना कोई नई बात नहीं है। यह जानते हुए भी कि इस तरह हर दिन इकट्ठा होता कचरा एक दिन हमारे घर के सामने तक पहुंच जाएगा, हम इसमें बढ़ोतरी करते जाते हैं। पर, बनारस की शिखा शाह की परवरिश और शिक्षा कुछ ऐसी हुई कि उन्हें इस बढ़ती समस्या से अनजान बने रहना मंजूर ना हुआ और उन्होंने एक सार्थक पहल की। स्क्रैपशाला की शुरूआत             इस तरह शुरू हुआ उनका छोटा सा स्टार्टअप, जिसका नाम रखा गया स्क्रैपशाला। शिखा की राय में लगातार बढ़ते कबाड़ से निजात तभी मिलेगी जब हम उसे कम करने की सोचें। कचरे का दोबारा उपयोग करने के तरीके खोजने होंगे उसे रिसाइकल करना होगा। इसके लिए वह अपने स्टार्टअप के जरिए कोशिश में लगी हैं। उनकी यह अनोखी सोच कई लोगों के लिए प्रेरणा बनी है। छोड़ दी कमाऊ नौकरी             पर्यावरण विज्ञान से मास्टर्स करने के बाद शिखा को अपने प्रोजेक्ट्स और नौकरियों की वजह से गांवों की समस्याओं के बारे में करीब से जानने का मौका मिला। आईआईटी, मद्रास में अपनी नौकरी के दौरान वह कई छोटे-बड़े उद्यमियों से मिलीं और स्टार्टअप की चुनौतियों को समझने का मौका मिला। वहां से कुछ अपना और सार्थक करने का विचार आया। वह नौकरी छोड़कर अपने शहर बनारस आ गई और स्क्रैपशाला शुरू करने की योजना बनाई। शिखा बताती हैं कि बचपन से ही उन्होंने अपनी मां को चीजों को रिसाइकल करते देखा था। वह कबाड़ कम से कम निकालने पर जोर देती थीं और कई बार घर के पुराने हो रहे सामान को सजा-धजाकर नया कर देतीं। यह सब शिखा के लिए उनकी स्टार्टअप की प्रेरणा बने और स्क्रैपशाला में अपसाइकलिंग का काम शुरू हुआ। कम नहीं थी चुनौतियां             शिखा बताती हैं, ‘स्क्रैपशाला के काॅन्सेप्ट को लेकर घर में किसी ने तुरंत हां नहीं की थी। शुरूआत में थोड़ी असहमति थी। लेकिन मां मेरे साथ आई और मेरी सहेली भी और एक बार शुरूआत होने पर सभी का सपोर्ट मिला। पुराने सामान और कचरे को नए रूप में लाना भी आसान काम नहीं होता। उसे साफ करना, डिजाइन करना भी एक चुनौती होती है। कचरे को लेकर वैसे भी लोगों में एक पूर्वधारणा होती है। तैयार सामान को लेकर लोगों में पहले डाउट था। फिर जब प्रोडक्ट्स पसंद किए गए, तो अब सबका सहयोग मिल रहा है।’             चुनौतियां और भी थीं, जैसे जगह, कारीगर और मैटीरियल। मां मधु शाह और सहेली कृति सिंह के साथ शिखा ने अपने घर से शुरूआत की। आज उनके पास पूरी टीम है। अपसाइकलिंग यानी पुरानी चीजों को नया रूप देने के लिए चीजें शुरूआत में उनके घर से ही मिलीं। शिखा बताती हैं कि अब पड़ोसियों, दोस्तों और परिचितों… सबको ध्यान रहता है। शिखा कहती हैं, ‘अब तो लोग कूरियर से भी मुझे चीजें भेज देते हैं। दोस्त कोई बेकार सामान फेंकने से पहले पूछ लेते हैं।’ कई लोगों के लिए गढ़ा रोजगार             शिखा की टीम में आज कई लोग हैं। हालांकि वे खुद भी डिजाइन करती हैं, लेकिन उनकी टीम के कारीगर भी अपने तरीके से इसमें योगदान देते हैं। वे बताती हैं, ‘अब हमारी बड़ी टीम है। इसमें आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के भी लोग हैं। उन्हंे यहां एक नियमित आय मिल रही है और सबको अपने ढंग से क्रिएटिव वर्क की पूरी छूट है।’ क्या हैं उत्पाद             आज शिखा की स्क्रैपशाला बनारस ही नहीं, पूरे देश में एक जाना-पहचाना नाम है। यहां पुराने टायर से खूबसूरत फर्नीचर, चाॅकलेट-बिस्किूट के रैपर से बने खूबसूरत बैग्स, शीशे की बोतलों से लैंपशेड्स, प्लास्टिक की बोतलों से गमले, पुरानी केतली का सजावटी रूप और पुराने गत्ते से वाॅल डेकोरेशन के आइटम्स जैसी कई चीजें बनाई जा रही हैं। उनके प्रोडक्ट्स आॅफलाइन और आॅनलाइन उपलब्ध हैं। इसे और आगे ले जाने की योजना है। घर में करें यूं कबाड़ कम             शिखा बताती हैं कि उनके घर में कचरा ना के बराबर निकलता है। इसके लिए वे कुछ टिप्स देती हैं- 1. प्लास्टिक की बोतलों में पानी भरने पर अगर गर्मी हो, तो उसमें हानिकारक तत्व बनते हैं। इसलिए, घर में साॅस, शर्बत बगैरह की शीशे की बोतलें खाली हों तो उन्हें साफ करके पानी भरकर फ्रिज में रखें। 2. घर में टूथब्रश प्लास्टिक के ना लेकर आप लकड़ी के लें। ये मार्केट में उपलब्ध हैं। इससे आपको उन्हें रिसाइकल करने में आसानी होगी। 3. साबुन, शैंपू वगैरह के रीफिल पैक लेंगी, तो बोतलों का कचरा कम निकलेगा। 4. गीले कचरे को कंपोस्ट (खाद) बना दें। 5. कबाड़ को संस्थाओं को दान कर दें। उसे रिसाइकल कैसे करें, इसकी वर्कशाॅप में जाएं। प्रस्तुति: प्रतिभा पाण्डेय साभार: हिन्दुस्तान संकलन – प्रदीप कुमार सिंह

सेहत का जूनून – क्या आप भी न्यूट्रीशनल वैल्यू पढ़ कर खाद्य पदार्थ खरीदते हैं |

स्मिता शुक्ला एक आम घर का दृश्य देखिये | पूरा परिवार खाने की मेज पर बैठा है | सब्जी रायता , चपाती , गाज़र का हलवा और टी .वी हाज़िर है | कौर तोड़ने ही जा रहे हैं कि टी वी पर ऐड आना शुरू होता है बिपाशा बसु नो शुगर कहती नज़र आती हैं | परिवार की १७ वर्षीय बेटी हलवा खाने से मना कर देती है | घर का मुखिया फलां ब्रांड का पनीर लाने को कहता है क्योंकि उसमें कैल्सियम ज्यादा है | वहीँ बेटा विज्ञापन देख कर ६ पैक एब्स बनाने के लिए एक ख़ास पॉवर पाउडर की जिद कर रहा है | जिसमें आयरन मैग्नीशियम की ख़ास मात्रा है | सासू माँ अपने तमाम टेस्ट करवाने का फरमान जारी कर देती हैं की उन्हें भी तो पता चले की उनके शरीर में क्या –क्या कमी है |खाने का मजा सेहत के तनाव ने ले लिया | क्या आप का घर भी उनमें से एक है ? ये सच है कि आज स्वास्थ्य के प्रति क्रेज दिनों दिन बढ़ रहा है | इसमें कुछ गलत भी नहीं है | अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना और स्वस्थ रहना अच्छी बात है | परन्तु नए ज़माने के साथ स्वाथ्य का औद्योगीकरण हो चुका है | आज विभिन्न देशी विदेशी कम्पनियाँ स्वास्थ्य बेच रहीं हैं | इसके लिए तरह -तरह के लुभावने विज्ञापन हैं , टॉनिक हैं जो पूरी तरह फिट रहने की गारंटी देते हैं , जिम हैं , हाईट वेट चार्ट हैं , प्लास्टिक सर्जरी है | और एक पूरे का पूरा मायाजाल है जो सेहत के प्रति जागरूक लोगों कि जेबें ढीली करने को चारों तरफ फैला है | शहर तो शहर गाँवों में भी दूध मट्ठा छोड़ कर हर्बल पिल्स खाने का चलन बढ़ गया है |अभी कुछ दिन पहले की ही बात है कि एक गाँव की रिश्तेदार मुझे ** कम्पनी की तुलसी खाने की सलाह दे रही थी |जब मैंने कहा की तुलसी तो घर में लगी है उसी की पत्ती तोड़ कर न खा लूं | तो मुंह बिचकाकर बोली , ” आप को न खानी है तो न खाओ , अब टी वी में दिखाते हैं , उसमें कुछ तो ख़ास होगा ये सारा उद्योग रोग भय पर टिका है| बार -बार संभावित रोग का भय दिखा कर अपने उत्पाद बेंचने का प्रयास हैं |लोग ओरगेनिक फ़ूड पसंद कर रहे हैं , जिम जा रहे हैं , हेल्थ मॉनिटर करने वाला एप डाउन लोड कर रहे हैं, कैलोरी गिन गिन कर खा रहे हैं स्वास्थ्य और पोषण को लेकर आजकल पूरी दुनिया पर एक तरह का पागलपन सवार है। यह पागलपन अमेरिका से शुरू हुआ और फिर धीरे-धीरे पूरी दुनिया में फैल गया। आज हर कोई पोषण और पौष्टिक आहार को लेकर पागल है, लेकिन फिर भी लोगों को सही पोषण नहीं मिल रहा। ऐसे में हो यह रहा है कि लोग ढेर सारी गोलियां सुबह -शाम ले रहे हैं । आज-कल यह फैशन चल पड़ा है कि कोई भी चीज खाने से पहले आप खाद्य पदार्थों के पैकेट पर महीन अक्षरों में लिखा हुआ लेबल पढ़ते हैं और तब उसे खाने में प्रयोग करते हैं। खासतौर पर यह पता लगाने के लिए कि उसमें मैग्नीशियम कितने मिलीग्राम है,आयरन और काल्सियम कितना है , उसमें कैलरी आदि की मात्रा कितनी है। अकसर लोग यह कहते मिलेंगे, ‘नहीं, नहीं, मुझे जितने मैग्नीशियम की जरूरत है, इसमें तो उससे 0.02 मिलीग्राम ज्यादा मैग्नीशियम है। इसलिए मुझे यह नहीं, वह चाहिए। यह सब पागलपन नहीं तो और क्या है! इस धरती का हर जीव अच्छी तरह जानता है कि उसे क्या खाना चाहिए। बस इंसान को ही नहीं मालूम कि उसे क्या खाना है, जबकि वह इस धरती की सबसे बुद्धिमान प्रजाति होने का दावा करता है। इस इंसान की बुद्धिमानी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आप उसे बेकार से भी बेकार चीज बेच सकते हैं, अगर आपके अंदर बेचने की कला हो।| कभी –कभी लगता है अगर मैगी की तरह रोटी का विज्ञापन आता तो हमारे बच्चे रोटी –रोटी कर के उछलते | सिर्फ आपके सोचने भर से आपको पोषण नहीं मिलेगा और न ही इसके बारे में खूब पढ़ने या ढेर सारी बातें करने से मिलेगा। आपको पोषण का मिलना इस बात पर निर्भर करता है कि जो कुछ भी आपके शरीर के भीतर जा रहा है, उसे ग्रहण करने की आपकी क्षमता कैसी है। पोषण सिर्फ खाने में नहीं है। पोषण तो आपकी उन चीजों को अवशोषित करने की क्षमता है, जो आपके शरीर के भीतर जाती हैं। अपने देश में बेहद साधारण खानपान से भी लोगों ने लंबे समय तक स्वस्थ जीवन जिया है। मेरे एक रिश्तेदार जो ९५ वर्ष की आयु तक जिए वो सत्तू या मक्का का सेवन करते। हफ्ते में एक-दो बार चावल ले लेते थे। इन चीजों के साथ थोड़ी हरी सब्जियां लेते। ये सामान्य सी हरी सब्जियां होती थीं, जिन्हें लोग ऐसे ही यहां-वहां से तोड़ लेते हैं। इसके अलावा, चना, लोबिया या दाल का भी सेवन कर लेते थे। बस यही सब उनका भोजन था। अगर किसी आहार विशेषज्ञ की राय ली जाए तो निश्चित तौर से वह यही कहेगा कि इस भोजन में यह नहीं है, वह नहीं है। इस तरह के आहार पर आप जी नहीं सकते, जबकि सच्चाई यह है कि इसी आहार की बदौलत वह ९५ साल तक जीवित रहे। समझने की बात यह है की कि मानव तंत्र सिर्फ रसायन भर नहीं है। यह सच है कि शरीर में रसायन महत्वपूर्ण हैं, लेकिन वही सब कुछ नहीं हैं। इसका एक दूसरा पहलू भी है और वह है ‘पाचन शक्ति’। अगर वह ठीक है, तो सब ठीक है। दरअसल, चीजों को खाने से ज्यादा जरूरी है उनका पचना और शरीर में लगना। आपने देखा होगा कि एक ही तरह का भोजन लेने वाले सभी लोगों को एक जैसा पोषण नहीं मिल पाता। यह तथ्य तो मेडिकल साइंस भी मानता है। आप वो सब खायेंगे जो अब्सोर्ब ही नहीं होता तो उस कैल्शियम और आयरन का कोई मतलब नहीं है | शरीर जानता है उसे क्या और कितना पचता है | उसकी आवाज़ सुनिए और सच्ची भूख लगने पर ही वो … Read more

इंटरनेट के द्वारा वैश्विक स्तर पर सामाजिक परिवर्तन का जज्बा उभरा है

– प्रदीप कुमार सिंह, शैक्षिक एवं वैश्विक चिन्तक             आज हम इंटरनेट तथा सैटेलाइट जैसे आधुनिक संचार माध्यमों से लैस हैं। संचार तकनीक ने वैश्विक समाज के गठन में अहम भूमिका अदा की है। हम समझते हैं कि मानव इतिहास में यह एक अहम घटना है। हम एक बेहद दिलचस्प युग में जी रहे हैं। आओ, हम सब मिलकर एक अच्छे मकसद के लिए कदम बढ़ाएं। पिछले कुछ साल से विभिन्न देशों की दर्दनाक घटनाएं इंटरनेट के जरिये दुनिया के सामने आ रही हैं। इनसे एक बात तो तय हो गई कि चाहे हम दुनिया के किसी भी कोने में हों, हम सब एक ही समुदाय का हिस्सा हैं। इंटरनेट ने मानव समुदाय के बीच मौजूद अदृश्य बंधनों को खोल दिया है। दरअसल हम सबके बीच धर्म, नस्ल और राष्ट्र से बढ़कर आगे भी कोई वैश्विक रिश्ता है और वह रिश्ता नैतिक भावना पर आधारित है। यह नैतिक भावना न केवल हमें दूसरों का दर्द समझने, बल्कि उसे दूर करने की भी प्रेरणा देती है। यह भावना हमें प्रेरित करती है कि अगर दुनिया के किसी कोने में अत्याचार और जुल्म हो रहा है, तो हम सब उसके खिलाफ खड़े हों और जरूरतमंदों की मदद करें।             आज हम पलक झपकते दुनिया भर के लोगों तक अपनी बात पहुँचा सकते हैं। हमारा संवाद बेहद आसान हुआ है। दुनिया भर की जानकारियाँ हमारी पहुँच में हैं। हमें इन संचार माध्यमों का इस्तेमाल मानवीय भलाई के लिए करना होगा। हमारे लिए ऐसे लोगों को बारे में जानना और समझना आसान हुआ है, जिनसे हम कभी नहीं मिले। हमारे पास संवाद के ऐसे माध्यम उपलब्ध हैं, जिनकी मदद से हम घर बैठे दुनिया भर के लोगों की आपस में मानव जाति की भलाई के लिए संगठित कर सकते हैं। हम आपसी सहयोग से अहम मसलों पर संयुक्त प्रयास कर सकते हैं। आज से सौ साल पहले यह मुमकिन नहीं था। संकल्प शक्ति : आदमी सोंच तोले उसका इरादा क्या है             हम एक विलक्षण युग में जी रहे हैं। आज से दो सौ साल पहले की घटना को याद कीजिए, जब ब्रिटेन में गुलामों के व्यापार को लेकर जबर्दस्त विरोध-प्रदर्शन हुए थे। उस आंदोलन को जनता का पूरा समर्थन मिला था, लेकिन ऐसा होने में 24 साल का लंबा वक्त लगा। काश! उस जमाने में उनके पास आज की तरह ही आधुनिक संचार माध्यम होते। लेकिन पिछले एक दर्शक में बहुत कुछ बदला है। वर्ष 2011 में फिलीपींस में करीब दस लाख लोगों ने वहां की भ्रष्ट सरकार के खिलाफ मोबाइल पर संदेश भेजकर विरोध किया और सरकार को जाना पड़ा। इसी तरह जिम्बाॅब्वे में चुनाव के दौरान वहां की सत्ता के लिए धांधली करना मुश्किल हो गया, क्योंकि जनता के हाथ में मोबाइल फोन था, जिसकी मदद से वे मतदान केंद्रों की तस्वीरें लेकर कहीं भी भेज सकते थे। बर्मा के लोगों ने ब्लाॅगों के जरिये दुनिया को अपने देश के हालात से अवगत कराया। तमाम कोशिशों के बावजूद वहां की सत्ता आंग सान सू की की आवाज को दबा नहीं पाई।             समस्याओं के हल के लिए सिर्फ संस्थाएं बनाने से बात नहीं बनेगी। हमें लोगों के व्यवहार और सोच को बदलना होगा। हमें देशों के बीच जिम्मेदारी और नैतिकता का भाव जगाना होगा। हमें अमीर और गरीब देशों के बीच स्वस्थ साझेदारी विकसित करनी होगी। हमें देखना होगा कि गरीब देशों के कृषि क्षेत्र में निवेश बढ़े, ताकि उनकी अर्थव्यवस्था सुधर सके, ताकि अफ्रीका जैसे देश हमेशा के लिए अनाज के आयातक बनकर न रह जाएं। कृषि की स्थिति सुधरे, ताकि अफ्रीका भी अनाज का निर्यात कर सके। दुनिया के कई देश मानवाधिकार हनन की त्रासदी से जूझ रहे हैं, हमें इस दिशा में पहल करनी होगी। हम आधुनिक सूचना व संवाद के साधनों से लैस हैं। हमें यह अवसर नहीं खोना चाहिए। हमें एकजुट होकर इन समस्याओं के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए। साहसी महिलाएं हर क्षेत्र में बदलाव की मिसाल कायम कर रही हैं             हमारा मानता है कि आधुनिक तकनीक ने हमें वैश्विक रूप से एकजुट होने की ताकत प्रदान की है। यह पहला अवसर है, जब आम लोगों को दुनिया को बदलने की ताकत मिली है। अब चंद शक्तिशाली लोग मनमाने ढंग से अपने देश की नीति तय नहीं कर सकते। नीतितय करते समय उन्हें लोगों की भावनाओं का ध्यान रखना होगा, जो इंटरनेट के जरिये बाकी दुनिया से जुडे़ हैं। समय के साथ समस्याओं का स्वरूप बदला है। दो सौ साल पहले हमारे सामने दासता से छुटकारा पाने का मुद्दा था, 150 साल पहले ब्रिटेन जैसे देश में बच्चों को शिक्षा का अधिकार देने जैसा मुद्दा छाया था, सौ साल पहले यूरोप के ज्यादातर देशों में राइट टू वोट का मुद्दा गूंज रहा था। पचास साल पहले सामाजिक सुरक्षा व कल्याण का मुद्दा गरम था। पिछले पचास-साठ वर्षों के दौरान हमारा सामना नस्लवाद और लिंगभेद जैसी समस्याओं से हुआ।             आज का मुद्दा अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद तथा शरणार्थियों की बढ़ती संख्या है। साथ ही गुणात्मक शिक्षा एवं सारे विश्व की एक न्यायपूर्ण तथा युद्धरहित विश्व व्यवस्था बनाने का है। संयुक्त राष्ट्र संघ को लोकतांत्रिक विश्व संसद का रूप प्रदान करके यह साकार किया जा सकता है। अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को हल करने के लिए सभी देशों के सहमति विश्व सरकार, प्रभावशाली विश्व न्यायालय तथा गुणात्मक शिक्षा आज की आवश्यकता है। इन मद्दों पर अभियान वे लोग चला रहे है, जिनके अंदर दुनिया को बदलने का जज्बा है। आओ, हम सब मिलकर एक अच्छे मकसद के लिए कदम बढ़ाएं।

बस्तों के बोझ तले दबता बचपन

                जब सुकुमार छोटे बच्चों को बस्ते के बोझ से झुका स्कूल जाते देखतीं हूँ तो सोचती हूँ कि देश मेरांआजाद हो गया पर भारतीय मानस अभी तक परतन्त्र है क्योंकि अंग्रेज भारत छोड़ गये लेकिन अभिभावकों में अपने बालक को सीबीएसई स्कूल में पढ़ा अव्वल कहलाने की चाह स्वतंत्र भारत में भी पूर्णरूपेण जिंदा है । नौनिहालों को देख बरबस ये पंक्तियां फूट पड़ती है ——-       आज  शिक्षा निगल रही बचपनबोझ बस्ते का कमर तोड़ रहा       क्यों करते हो इनसे अत्याचारभरने दो अब हिरनों सी कूदाल                  मानव संसाधन विकास मंत्रालय के द्वारा बनाई गई आठ सदस्यों की समिति बनाई जिसकी अध्यक्षता शिक्षाविद् प्रो .यशपाल कर रहे थे इसका उद्देश्य “स्कूली बोझ” का अध्ययन करना ही था इस समिति ने विभिन्न स्कूलों का सर्वे कर  पाया कि “बच्चों के साथ बस्ते के बोझ से भी बुरी जो बात है वह यह कि वे उस बोझ को समझ नहीं पाते है ।                    उधम , शैतानी की उम्र में किताबों का एक बोझ उन पर लाद दिया जाता है । बालसुलभ मन के एकाकी पन , छटपटाहट एवं खौफ को इस रिपोर्ट में देखा जा सकता है । रिपोर्ट में सुझाव भी दिये गये थे लेकिन उन सभी  सुझावों को सरकार के द्वारा इमानदारी से स्वी�कृत नहीं किया गया ।                   बच्चों पर जो बोझ है इसके लिए माँ बाप भी कम उत्तरदायी नहीं । कक्षा में अव्वल आने की चाह बच्चों से ज्यादा माँ – बाप को होती है इसलिए जो उम्र खेल-कूद की होती है उसमें बच्चे बस्ते  के बोझ तले होते है प्राय : दूसरी -तीसरी कक्षा से ही अच्छे अंक लाने के लिए पुस्तकों के साथ युद्ध लड़ने लगते है ।                  केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने भी स्कूल बैग के भार को कम करने की जरूरत के विषय में कहा है कि कक्षा एक या दो के छात्रों को गृहकार्य न दिया जाए और उच्च कक्षाओं में भी समय सारणी के अनुरूप ही केवल जरूरी पुस्तकें लाना सुनिश्चित किया जाए। तथा संचार -प्रौधोगिकी के माध्यम से शिक्षण पर बल दिया जाए।                   माता -पिता की इन्हीं महत्वाकांक्षाओं का फायदा उठा कर उत्कृष्ट शिक्षा देने की आड़ में स्कूल वाले ज्यादा से ज्यादा वसूलने में लगे रहते है और मनमाफिक पब्लिशर्स से किताबें खरीद बच्चों को देते है या नाम बताकर उसी दुकान सेखरीदने को बाध्य करते है और भरपूर मुनाफाखोरी करते है । स्कूल प्रशासकों के लिए यह धन्धाखोरी का नया साधन है ।                  एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक जे एस राजपूत ने इस सम्बन्ध में कहा कि प्राइवेट स्कूलों को अपनी किताबें चुनने का हक तो मिल गया है, लेकिन यह अच्छा व्यापार बन कर बच्चों के शोषण का जरिया बन गया है। स्कूल अधिक मुनाफा कमाने की दोड़ में बच्चों का बस्ता भारी करते जा रहे हैं।                   इस सम्बन्ध में सुझाव के तौर पर नये विद्यालयों को मान्यता देना बन्द करना चाहिए और तीस पर एक शिक्षक का अनुपात होना चाहिये । लेकिन सरकारी विद्यालयों में भी ऐसा नहीं है ।               एसोचैम के सर्वे के अनुसार,  “बस्ते के बढ़ते बोझ के कारण बच्चों को नन्ही उम्र में ही पीठ दर्द जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इसका हड्डियों और शरीर के विकास पर भी विपरीत असर होने का अंदेशा जाहिर किया गया है।”                   बस्ते के बोझ को कम करने के लिए प्रि -स्कूल समाप्त कर आरम्भिक कक्षा में साक्षात्कार की प्रक्रिया को बन्द कर देना चाहिए । प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों को केवल तनख्वाह से ही मतलब न रख छात्रों को पढाना भी चाहिए । इस स्तर पर मोमवर्क का भी बोझ नहीं होना चाहिए , बच्चों को उन्मुक्त वातावरण में जीने देना चाहिए । डॉ मधु त्रिवेदी 

उ त्तर प्रदेश के कारागार मंत्री बलवंत सिंह रामूवालिया से ओमकार मणि त्रिपाठी की विशेष बातचीत

उ त्तर प्रदेश के कारागार मंत्री बलवंत सिंह रामूवालिया से विशेष साक्षात्कार पदों का संक्षिप्त ब्यौरा महासचिव- स्टूडंेट फेडरेशन आॅफ इंडिया (1963.64) अध्यक्ष-अखिलभारतीय सिख छात्र संघ (1968 .1972) व पंजाबी भलाई मंच प्रचार सचिव-शिरोमणि अकाली दल (1975.77. 1980 .82) महासचिव-शिरोमणि अकाली दल (1985.87) नेता शिरोमणि अकाली दल ग्रुप-आठवीं लोकसभा केन्द्रीय मंत्री-समाज कल्याण विभाग (1996-98) राजनीतिक सफर बलवंत सिंह रामूवालिया का जन्म 15 मार्च, 1942 को पंजाब के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। उनके पिता श्री करनैल सिंह पारस एक सुविख्यात कवि थे। पिता से विरासत में मिला भावुक हृदय बचपन से ही लोगों के दुःख-दर्द को देखकर व्यथित हो जाता। गरीब, बेसहारा और बेबस लोगों के लिए कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए, ये बात उन्हें हर पल बेचैन करती और इसके लिए उन्होंने राजनीति का वो मार्ग चुना, जो त्याग और सेवा के रास्ते पर चलता है। श्री रामूवालिया ने अपने राजनैतिक कॅरियर की शुरुआत अपने छात्र जीवन में ही कर दी थी। 1963 में उन्हें स्टूडंेट फेडरेशन आॅफ इंडिया का महासचिव चुना गया। तत्पश्चात वे अखिल भारतीय सिख छात्र संघ में सम्मिलित हुए और 1968 से 1972 तक उसके अध्यक्ष रहे। बाद में उन्होंने अकाली दल की सदस्यता ग्रहण की और दो बार फरीदकोट व संगरूर से सांसद चुने गये। अकाली दल छोड़ने के पश्चात 1996 में वह राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए व केन्द्रीय मंत्री बने। उन्होंने ”लोक भलाई पार्टी“ नामक अपनी एक पार्टी भी बनायी थी, जिसका 2011 में अकाली दल में विलय हो गया। वर्तमान में वे उत्तरप्रदेश सरकार में जेल मंत्री हैं। विचारों में मानवीय भावनाओं-संवेदनाओं की झलक स्वभाव से वे मितभाषी और मृदुभाषी हैं, लेकिन जब बात मानवाधिकारों की आती है, तो वे काफी मुखर हो जाते हैं। समाज के शोषित-वंचित तबके की वेदना और आम आदमी की व्यथा उन्हें मानवाधिकारों की रक्षा हेतु संघर्ष के लिए प्रेरित करती है। राजनीति के शुष्क धरातल पर एक लम्बे सफर के बावजूद उनके विचारों में मानवीय भावनाओं-संवेदनाओं की झलक साफ दिखाई देती है। सत्ता को वे साध्य नहीं, बल्कि एक ऐसा साधन मानते हैं, जिसके माध्यम से समाज के उत्थान को नए आयाम दिए जा सकते हैं। जी हां! हम बात कर रहे हैं उत्तर प्रदेश के कारागार मंत्री बलवंत सिंह रामूवालिया की, जिन्हें पंजाब से बुलाकर उत्तर प्रदेश में मंत्री बनाया गया है और पदभार संभालने के बाद से वे लगातार जेल सुधार और बंदीगृहों में मानवाधिकारों का उल्लंघन रोकने के लिए प्रयासरत हैं। हाल ही में ‘अटूट बंधन’ के प्रधान संपादक ओमकार मणि त्रिपाठी ने श्री रामूवालिया से उनके आवास पर विशेष मुलाकात करके विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर उनका मन टटोलने की कोशिश की। साक्षात्कार के दौरान श्री रामूवालिया ने पूछे गए हर सवाल के जवाब में बड़े ही बेबाक ढंग से अपनी राय स्पष्ट की। सहज एवं सरल जीवनशैली उनके व्यक्तित्व के हर पहलू में प्रतिबिंबित होती है। 74 वर्षीय श्री रामूवालिया इससे पहले पंजाब व केन्द्र सरकार में भी कई महत्वपूर्ण पदों को सुशोभित कर चुके हैं। प्रस्तुत हैं साक्षात्कार के प्रमुख अंश। उत्तर प्रदेश के कारागार मंत्री के रूप में आपकी प्राथमिकताएं क्या हैं? मेरा स्पष्ट मानना है कि सत्ता किसी के भी हाथ में हो, सरकार किसी की भी हो, लेकिन न्याय का शासन होना चाहिए। सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को आम लोगों की समस्याओं के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। सत्ता की चैखट पर कमजोर से कमजोर व्यक्ति को भी इंसाफ मिलना चाहिए। कारागार मंत्री के रूप में मेरी सर्वोच्च प्राथमिकता यही है कि जेलों में किसी भी कीमत पर कैदियों के मानवाधिकारों का उल्लंघन न होने दिया जाए। जो लोग विभिन्न कारागारों में बंद हैं, वे भी इसी देश के ही नागरिक हैं। जेल में बंद किसी भी कैदी के साथ ऐसा कोई व्यवहार नहीं होना चाहिए, जिसे अमानवीय या अमानुषिक कहा जा सके। पदभार संभालने के बाद से मैं लगातार जेल व्यवस्था में सुधार के लिए प्रयासरत हूँ। आपको पंजाब से बुलाकर उत्तर प्रदेश में मंत्री बनाया गया है। उत्तर प्रदेश आपको कैसा लगा? उत्तर प्रदेश की जो बात मुझे सबसे ज्यादा अच्छी लगी, वह है ज्यादातर लोगों में सामाजिक व सांप्रदायिक सद्भाव की भावना। यहां सिख समुदाय के लोगों और हिन्दुओं में जो भाईचारा देखने को मिलता है, वह काफी काबिले तारीफ है। आपकी नजर में इस समय समाज की प्रमुख समस्याएं क्या हैं और उनके समाधान किस तरह तलाशे जा सकते हैं। हमारा समाज वैसे तो कई समस्याओं का सामना कर रहा है, लेकिन दहेज व्यवस्था अभी भी हमारे समाज के लिए एक बड़ी समस्या बनी हुई है। दूध में आप जितनी शक्कर डालोगे, दूध उतना ही मीठा हो जाएगा, लेकिन शादी में आप जितना दहेज डालोगे, शादी उतनी ही कड़वी हो जाएगी। शादी-ब्याह खुशी के माध्यम बनने चाहिए, लेकिन दहेज की वजह से कई शादियां झगड़े की पतीली का रूप धारण कर ले रही हैं। बात सिर्फ दहेज तक ही सीमित नहीं है, शादियों में बेतहाशा खर्च की बढ़ती प्रवृत्ति भी समाज के लिए शुभ संकेत नहीं है। आज लगभग हर समुदाय की 95 प्रतिशत शादियों में यही देखने को मिलता है कि क्षमता से अधिक खर्च किया जा रहा है। कहीं-कहीं लड़के वालों की तरफ से लड़की वालों पर पंचसितारा होटलों में शादी समारोह आयोजित करने के लिए दबाव तक डाला जाता है। इस तरह की खर्चीली शादियां किसी के भी हित में नहीं हैं। यह धन की बर्बादी तो है ही, साथ ही संबंधों की बर्बादी भी है। फिजूलखर्ची और आडंबर की बुनियाद पर अच्छे रिश्तों की इमारत नहीं खड़ी की जा सकती। आजकल सहिष्णुता-असहिष्णुता को लेकर देश में बहुत चर्चा हो रही है। इस संबंध में आपकी क्या राय है? यह मुल्क सहिष्णु मुल्क है। भारतीय संस्कृति विविधता पर आधारित है। समन्वय तथा सामंजस्य भारतीय समाज की विशेषता है, लेकिन कुछ लोग सिर्फ अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए असहिष्णुता को बढ़ावा दे रहे हैं, जो देश और समाज के हित में नहीं है। इससे विघटनकारी और विभाजनकारी तत्वों को बढ़ावा मिलता है। अनेकता में एकता हमारी खासियत है, इसलिए हमें उन मुद्दों को तवज्जो नहीं देनी चाहिए, जिनसे पारस्परिक विश्वास और सद्भाव बिगड़ता हो। देशभक्ति भी आजकल राजनीतिक मुद्दा बना हुआ है? इस संबंध में आप क्या कहना चाहेंगे? यह देशभक्ति का मुद्दा सिर्फ वोट बटोरने के लिए उछाला … Read more