निराश लोगो के लिए आशा की किरण लेकर आता है वसंत

जनवरी की कडकडाती सर्दी फरवरी में धीरे-धीरे गुलाबी होने लगती है.इसी महीने में ऋतुराज वसंत का आगमन होता है और वासंती हवा जैसे ही तन-मन को स्पर्श करती है,तो समस्त मानवता शीत की ठिठुरी चादर छोड़कर हर्षोल्लास मनाने लगतीहै,क्योंकि जिस तरह से यौवन मानव जीवन का वसंत है,उसी तरह से वसंत इस सृष्टि का यौवन है,इसीलिये वसंत ऋतु का आगमन होते ही प्रकृति सोलह कलाओ में खिल उठती है. पौराणिक कथाओ में वसंत को कामदेव का पुत्र कहा गया है. शायद इसीलिये रूप और सौन्दर्य के देवता कामदेव के पुत्र का स्वागत करने के लिए प्रकृति झूम उठती है.पेड़ उसके लिए नवपल्लव का पालना डालते हैं,फूल वस्त्र पहनाते हैं,पवन झुलाती है और कोयल उसे गीत सुनकर बहलाती है.   वसंत ऋतु निराश लोगो के लिए आशा की किरण लेकर भी आती है.पतझड़ में वृक्षों के पत्तो का गिरना और सृष्टि का पुन नवपल्लवित होकर फिर से निखर जाना निराशा से घिरे हुए मानव को यह सन्देश देता है कि इसी तरह वह भीअपने जीवन में से दुःख और अवसाद के पत्तो को झाड़कर फिर से नवसृजन कर सकता है.जिन्दगी का हर पतझड़ यह इंगित करता है कि पतझड़ के बाद फिर से नए पत्ते आयेंगे,फिर से फल लगेंगे और सुखो की बगिया फिर से लहलहा उठेगी.  फरवरी का दूसरा सप्ताह आते-आते वेलेंटाइन डे का शोर भी मच जाता है.वेलेंटाइन डे के पक्ष-विपक्ष में तर्कों-दलीलों का संग्राम सा छिड़ जाता है.युवाओ का एक वर्ग इसे अपनी आजादी से जोड़कर देखता है,तो वही समाज का एक वर्ग इसे भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात मानता है.कोई इसे आधुनिक संस्कृति कहता है,तो कोई पाश्चात्य विकृति.कुल मिलाकर  भारतीय संस्कृति हो या पाश्चात्य संस्कृति,लेकिन फरवरी माह प्रेमोत्सव से जुड़ा हुआ है. प्रेम शब्द इतना व्यापक है कि इसे पूरी तरह से परिभाषित कर पाना किसी के लिए भी मुश्किल है,लेकिन दुर्भाग्य से मशीनीकरण और बाजारवाद के आज के इस दौर में प्रेम शब्द की व्यापकता धीरे-धीरे संकीर्ण होकर सिमटती जा रही है. महान दार्शनिक ओशो के अनुसार आदमी के व्यक्तित्व के तीन तल हैं: उसका शरीर विज्ञान, उसका शरीर, उसका मनोविज्ञान, उसका मन और उसका अंतरतम या शाश्वत आत्मा। प्रेम इन तीनों तलों पर हो सकता है लेकिन उसकीगुणवत्ताएं अलग होंगी। प्रेम जब सिर्फ शरीर  के तल पर होता है,तो वह प्रेम नहीं महज कामुकता होती है,लेकिन आजकल ज्यादातर इसी दैहिक आकर्षण को ही प्रेम समझा जा रहा है,जिसकी वजह से प्रेम शब्द अपना मूल अर्थ खोता जा रहाहै.प्रेम की वास्तविक परिभाषा उसके मूल स्वरुप पर चर्चा के लिए ही हमने अटूट बंधन का फरवरी अंक प्रेम विशेषांक के रूप में निकालने का निर्णय लिया है.पत्रिका के लिए यह गौरव का विषय है कि अपने तीसरे पड़ाव पर ही पत्रिका का जनवरी अंक देश के प्रमुख महानगरो के 56 बुकस्टालों पर पहुँच गया और फरवरी अंक लगभग 100 से ज्यादा बुकस्टालों पर उपलब्ध रहने की उम्मीद है.हमें पूरी उम्मीद है कि पहले के तीन अंको की तरह ही इस अंक को भी आप सबका अपार स्नेह और आशीर्वाद मिलेगा. ओमकार मणि त्रिपाठी  यह भी पढ़ें …. निराश लोगों के लिए आशा की किरण ले कर आता है वसंत अपरिभाषित है प्रेम प्रेम के रंग हज़ार -जो डूबे  सो हो पार                                                         आई लव यू -यानी जादू की झप्पी आपको  लेख   “निराश लोगो के लिए आशा की किरण लेकर आता  है वसंत ” कैसा लगा    | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

अपरिभाषित है प्रेम

संसार में तरह-तरह के व्यक्ति हैं … सभी में अलग अलग कुछ विशेष गुण होते हैं….. जिसे व्यक्तित्व कहते हैं….. कुछ विशेष व्यक्तित्व विशेष व्यक्ति को अपनी तरफ आकर्षित करता है….. यही आकर्षण जब एक दूसरे के विचारों में मेल, पाता है….. एक-दूसरे के लिए त्याग का भाव अनुभव करता है , एक-दूसरे के लिए समर्पित हो जाना चाहता है…. एक दूसरे के प्रसन्नता में प्रसन्नता अनुभव करता है….. एक दूसरे का साथ पाकर सुरक्षित तथा प्रसन्न अनुभव करता है……एक दूसरे पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देना चाहता है…. उसका एक दूसरे से सिर्फ सिर्फ़ शारीरिक या मानसिक ही नहीं आत्मा का आत्मा से मिलन हो जाता वही प्रेम है..! , प्रेम हृदय की ऐसी अनुभूति है जो जन्म के साथ ही ईश्वर से उपहार स्वरूप प्राप्त हुआ है..! या यूँ कहें कि माँ के गर्भ में ही प्रेम का भाव पल्लवित एवं पुष्पित हुआ है..! चूंकि संतानें अपने माता-पिता के प्रेम की उपज हैं तो यह भी कहा जा सकता हैं कि माँ के गर्भ में आने से पूर्व ही प्रेम की धारा बह रही होगी जो रक्त में प्रवाहित है…! प्रेम अस्तित्व है.. अवलम्ब है… समर्पण है… निः स्वार्थ भाव से चाहत है…. जिसे हम सिर्फ अनुभव कर सकते हैं..प्रेम अपने आप में ही पूर्ण है..जिसे . शब्दों में अभिव्यक्त करना थोड़ा कठिन है… फिर भी हम अल्प बुद्धि लिखने चले हैं प्रेम की परिभाषा..! प्र और एम का युग्म रुप प्रेम कहलाता है जहां प्र को प्रकारात्मक और एम को पालन कर्ता भी माना जाता है..! प्रेम में लेन देन नहीं होता… प्रेम सिर्फ देकर संतुष्ट होता है…! शरीर , मन और आत्मा प्रेम के सतह हैं…प्रेम किसे किस सतह पर होता है यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है..! दार्शनिक आत्मा और परमात्मा के प्रेम का वर्णन करते हैं.. तो महा कवियों के संवेदनशील मन ने हृदय की सुन्दरता को महसूस कर प्रेम का चित्रण अपने अंदाज में किया है..! आम तौर पर हर रिश्तों में अलग अलग भाावनाएं जुड़ी होती हैं उन भावनाओं की अनुभूति भी प्रेम के प्रकार हैं..! उम्र के साथ साथ प्रेम का भाव भी बदलता रहता है..! जब व्यक्ति अपने बालपन की दहलीज को लांघ किशोरावस्था के लिए कदम बढ़ाता है तब उसे शारीरिक और मानसिक स्तर पर कई प्रकार के परिवर्तन का सामना करना पड़ता है.. और वह विपरीत लिंग के प्रति आकर्षित होता है…और आकर्षण को जब शरीर मन और आत्मा आत्मसात कर लेता है उसी प्रक्रिया को ही हम प्रेम कह सकते हैं..! प्रेम एक दूसरे को देकर संतुष्ट होता है..! राधा कृष्ण के प्रेम सच्चे प्रेम का उदाहरण है..! आज से पहले हमारे यहाँ प्रेम को खुली छूट नहीं मिली थी लैला मजनू , हीर रांझा के प्रेम को समाज की की मान्यता नहीं मिली और प्रेम के लिए उन्होंने अपनी जान की बाजी लगा दी थी ….. वहीं आज प्रेम बहुत ही आसानी से टूट और जुड़ रहे हैं..! आज लोग दिल की अपेक्षा दिमाग से काम ले रहे है.. समाज भी प्रेम को स्वीकार कर रहा है यही वजह है कि आज कल प्रेम विवाह की संख्या तेजी से बढ़ रही है…! आज पश्चिमी सभ्यताका का अन्धानुकरण ने प्रेम का अंदाज ही बदल दिया है..! आजकल का प्रेम जीवन जीवान्तर तक का न होकर कुछ वर्षों में ही टूट और जुड़ रहा है… प्रेमी प्रेमिका बड़ी आसानी से एक-दूसरे के प्रेम बन्धन से मुक्त होकर अन्य प्रेमी प्रेमिका ढूंढ ले रहे हैं…. और बड़ी आसानी से अपने अपने पुराने प्रेमी प्रेमिका को कह देते हैं कि अब हम सिर्फ दोस्त हैं …! कुछ लोग विवाहेत्तर सम्बन्धों को भी प्रेम की संज्ञा देते हैं..उनके अनुसार प्रेम अंधा होता है वह उचित और अनुचित नहीं देखता..सिर्फ़ प्रेम करता है….. अंधा…….. वह अपने तरह-तरह के कुतर्को द्वारा अपने प्रेम को सही साबित करने का प्रयास करता है ! विवाहेत्तर सम्बन्धों का दुष्परिणाम कभी कभी बहुत ही भयावह होता है..! मर्यादित प्रेम यदि जीवन में सुधा की रसधार है तो अमर्यादित प्रेम विष का प्याला..और आग का दरिया है…… इस लिए प्रेम में मर्यादा का होना आवश्यक है..! ****************** किरण सिंह निराश लोगों के लिए आशा की किरण ले कर आता है वसंत                                              नगर ढिढोरा पीटती कि प्रीत न करियो कोय प्रेम के रंग हज़ार -जो डूबे  सो हो पार                                                         आई लव यू -यानी जादू की झप्पी आपको  लेख   “अपरिभाषित है प्रेम ” कैसा लगा    | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

वैलेंटाइन डे युवाओं का एक दिवालियापन

                                                                        लेखक:- पंकज प्रखर प्रेम शब्दों का मोहताज़ नही होता प्रेमी की एक नज़र उसकी एक मुस्कुराहट सब बयां कर देती है, प्रेमी के हृदय को तृप्त करने वाला प्रेम ईश्वर का ही रूप है| एक शेर मुझे याद आता है की….                                      “बात आँखों की सुनो दिल में उतर जाती है                                        जुबां का क्या है ये कभी भी मुकर जाती है ||” इस शेर के बाद आज के लेख की शुरुआत एक कहानी से करता हूँ कहते है किसी देश में कोई राजा हुआ जिसने अपनी सेना को सशक्त और मजबूत बनाने के लिए अपने सैनिकों के विवाह करने पर रोक लगा दी थी जिसके कारन समाज में व्यभिचार फैलने लगा सैनिक अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को अनैतिक रूप से पूरा करने लगे जिसका समाज पर बुरा प्रभाव पढने लगा ऐसे में उस राज्य में एक व्यक्ति हुआ अब वो संत था या क्या था इसका इतिहास कहीं नही मिला लेकिन हाँ उसने उस समय प्रताड़ित किये गये इन सैनिकों की सहायता की और समाज को नैतिक पतन से बचाने के लिए सैनिकों को चोरी छिपे विवाह करने के लिए उत्साहित किया. उसका  परिणाम ये हुआ की राजा नाराज़ हो गया और उसने उस व्यक्ति की हत्या करवा दी तब से ही पश्चिम के लोग उस मृतात्मा को याद करने के लिए इस दिवस को वलेंतिन डे के रूप में मनाते है . जिसका हमारी तरफ से कोई विरोध नही है लेकिन इस दिवस के नाम पर बाज़ारों में पैसे की जो लूट होती है या कहें भारतीय संस्कारों का पतन होता है, अश्लीलता और फूहड़ता के जो दृश्य उत्पन्न होते है उनसे हमारा विरोध है | अब सोचने वाली बात ये है की भारतीय संस्कृति में ये प्रदुषण आया कैसे हम भारतीय इतने मुर्ख कैसे हो गये की किसी और देश में घटने वाली घटना से सम्बंधित तथाकथित पर्व हमने अपनी संस्कृति में घुस आने दिया | एक ऐसा देश जो राधा और कृष्ण के निर्विकार निश्चल प्रेम का साक्षी रहा हो जिसने समूची सृष्टि को प्रेम के वास्तविक रूप से अवगत कराया हो वहां के युवाओं द्वारा ये वैलेंटाइन डे मनाकर के अपनी संस्कृति का ह्रास करना ,फूहड़ता और अश्लीलता का प्रदर्शन करना कहां तक जायज़ है. हमारी संस्कृति में पहले से ही बसंत पंचमी, होली जैसे सार्थक, उद्देश्यपरक त्यौहार है. जिनमे पूरा समाज मिलजुल कर खुशियाँ मनाता है.जब इस प्रकार के सामूहिक उल्लास के पर्व है तो हमारे युवाओं को उधार के उद्देश्यहीन और अश्लीलता से भरे ये पर्व है न जाने क्यों आकर्षित करते है. लार्ड मैकाले की बड़ी इच्छा थी की वो शरीर से भारतीय और मानसिकता से अंग्रेजी सोच वाले लोगों को तैयार करे उसके इस स्वप्न को आज हमारे युवा साकार करते नजर आते है | सात दिवस पहले से ही बाहों में बाहें डाले फूहड़, बेतुके कपड़े पहने आपको ऐसे बरसाती मेंडक सडकों पर घुमते हुए आसनी से मिल सकते है. जो इन सात दिनों तक एक दूसरे के लिए पागल रहते है और सच मानिए ऐसे दिखावा करने वालो का प्रेम अगले सात दिनों तक भी नही चलता .क्यों ? क्योंकी ये प्रेम के सच्चे स्वरूप को नही जानते एक दूसरे से लिपटना चिपटना प्रेम नही है ये तो केवल हवस और सेक्स है जिसे हमारे युवा प्रेम समझ बैठते है और एक दुसरे के प्रति आकर्षण खत्म हो जाने के बाद ये प्रेम भी तिरोहित हो जाता है बचता है तो तनाव और मानसिक अशांति | प्रेम ईश्वर के होने का एहसास है प्रेम वो भावना है जो हमारे अंदर ईश्वर की उपस्थिति दर्शाती है प्रेम एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा हम किसी भी व्यक्ति को अपना बना सकते है सच्चे और निर्विकार प्रेम के आगे तो स्वयं भगवान् भी हाथ बांधे अपने प्रेमी के सामने खडे नज़र आते है. आज जिस प्रकार के प्रेम की बात की जाती है और वो अनेको विकृतियों से भरा हुआ है. निश्चित रूप से वो प्रेम की परिभाषा भारत की तो नही हो सकती हम भारतीय इस उधार की संस्कृति को अपनाकर अपने देश की छवि को धूमिल करने में लगे है | भारतीय प्रेम किसी एक दिवस का मोहताज़ नही है भारयीय संस्कृति में हर दिवस ही प्रेम दिवस है . हम आज भी मानसिक रूप से अंग्रेजों के गुलाम है. अफ़सोस की आज़ादी के पहले इतने काले अँगरेज़ नहीं थे जितने आज़ादी के बाद बन गए हैं | क्या आप अपने आपको वैज्ञानिक बुद्धि का कहते हो क्या कभी जानने की कोशिश की के जो कर रहे हैं इसके पीछे का सच क्या है वास्तव में सच ये है की इस प्रकार से भारतीय युवाओं को वैलेंटाइन डे जैसे दिनों के प्रति आकर्षित करके भारत के रूपये पैसे को खीचना है इन साथ दिनों में करोड़ो रूपये विदेशी तिजोरियों में चले जाते है अब एक प्रश्न है भारतीय युवाओं से क्या वो जिस व्यक्ति को प्रेम करते है वो इतना लालची है की इन दिनों जब तक आप उसे कोई उपहार नही देंगे तब तक वो आपके प्रेम को स्वीकार नही करेगा | क्या इन दिनों में विशेष कोई गृह दशा होती  है की इन दिनों ही अपने साथी को चोकलेट खिलाओ, फूल दो, गुड्डा गुडिया दो, तो उसके प्रभाव स्वरुप वो आपके प्रेम को स्वीकार कर लेगा | निश्चित रूप से आप कहेंगे ऐसा नही है फिर ये निराधार  वेलेंटाइन डे का दिवालियापन क्यों ? एक और पक्ष भी है मेरे पास कई तथाकथित बुद्धिजीवी भी इस की प्रशंशा के गीत गाते नज़र आते है उनका कहना ये होता है की इस दिवस को आप इतना गलत तरीके से क्यों लेते हो इस दिवस को आप अपने परिवार अपने माता पिता ,बहन.भाई के साथ मना सकते है तो भाई में ये पूछना चाहता हूँ की जिस घटना का और घटना से सम्बन्धित इतिहास का भारत से कोई लेना देना ही नही है उसे यहाँ मनाने की आवश्यकता ही क्या है इस सप्ताह में एक दिवस आता किस डे (kiss Day) अब मनाओ अपनी माता- बहनों  के साथ कैसे सम्भव है ये अश्लीलता ? भारत के … Read more

एक महानसती थी “पद्मिनी”

लेखक:-पंकज प्रखर एक सती जिसने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया उसकी मृत्यु के सैकड़ोंवर्ष बाद उसके विषय में अनर्गल बात करना उसकी अस्मिता को तार-तार करना कहां तक उचित है | ये समय वास्तव में संस्कृति के ह्रास का समय है कुछ मुर्ख इतिहास को झूठलाने का प्रयत्न करने में लगे हुए है अब देखिये एक सर फिरे का कहना है अलाउद्दीन और सती पद्मिनी में प्रेम सम्बन्ध थे जिनका कोई भी प्रमाण इतिहास की किसी पुस्तक में नही मिलता| लेकिन इस विषय पर अब तक हमारे सेंसर बोर्ड का कोई भी पक्ष नही रखा गया है वास्तव में ये सोचनीय है |रानी पद्मिनी का इतिहास में कुछ इस प्रकार वर्णन आता है की “पद्मिनी अद्भुत सौन्दर्य की साम्राज्ञीथी और उसका विवाह राणा रतनसिंह से हुआ था एक बार राणा रतन सिंह ने अपने दरबार से एक संगीतज्ञ को उसके अनैतिक व्यवहार के कारण अपमानित कर राजसभा से निकाल दिया | वो संगीतज्ञ अलाउद्दीन खिलजी के पास गया और उसने पद्मिनी के रूप सौन्दर्य का कामुक वर्णन किया | जिसे सुनकर अलाउद्दीन खिलजी प्रभावित हुआ और उसने रानी पद्मिनी को प्राप्त करने की ठान ली | इस उद्देश्य से वो राणा रतन सिंह के यहाँ अतिथि बन कर गया राणा रतन सिंह ने उसका सत्कार कियालेकिनअलाउद्दीन ने जब रतनसिंह की महारानी पद्मिनी से मिलने की इच्छा प्रकट की तो रत्न सिंह ने साफ़ मना कर दिया क्योंकि ये उनके वंश परम्परा के अनुकूल नही था | लेकिनउस धूर्त ने जब युद्ध करने की बात कही तो अपने राज्य और अपनी सेना की रक्षा के लिए रतनसिंह ने पद्मिनी को सीधा न दिखाते हुए उसके प्रतिबिंब को दिखाने के लिए राज़ी हो गया जब ये बात पद्मिनी को मालूम पड़ी तो पद्मिनी बहूत नाराज़ हुईलेकिनजब रतनसिंह ने इस बात को मानने का कारण देश और सेना की रक्षा बताया तो उसने उनका आगृह मानलिया | 100 महावीर योद्धाओं और अन्य कई दास दासियों ओरपने पति राणा रत्न सिंह  के सामने पद्मिनी ने अपना प्रतिबिम्ब एक दर्पण में अलाउद्दीन खिलजी को दिखाया जिसे देख कर उस दुष्ट के मन में उसे प्राप्त करने की इच्छा और प्रबल हो गयीलेकिनये अलाउद्दीन खिलजी के लिए भी इतना सम्भव नही था |रतन सिंह ने अलाउद्दीन के नापाक इरादों को भांप लिया था | उसने अलाउद्दीन के साथ भीषण युद्ध किया राणा रतन सिंह की आक्रमणनीति इतनी सुदृणथी की अल्लौद्दीन छ: महीने तक किले के बाहर ही खड़ा रहालेकिनकिले को भेद नही सका अंत में जब किले के अंदर पानी और भोजन की सामग्री ख़त्म होने लगी तो मजबूरन किले के दरवाजे खोलने पडे राजपूत सेना नेकेसरिया बाना पहनकर युद्ध कियालेकिनअलाउद्दीन खिलजी ने रतन सिंह को बंदी बना लिया और चित्तौड़गढ़ संदेसा भेजा की यदि मुझे रानी पद्मिनी दे दी जाए तो में रतनसिंह को जीवित छोड़ दूंगा जब पद्मिनी को ये पता चला तो उन्होने एक योजना बनाकर अलाउद्दीन खिलजी के इस सन्देश के प्रतिउत्तर स्वरुप स्वीकृति दे दीलेकिनसाथ ये भी कह भिजवाया की उनके साथ उनकी प्रमुख दासियों का एक जत्था भी आएगा अलाउद्दीनइसके लिए तैयार हो गया | पद्मिनी की योजना ये थी की उनके साथ दासियों के भेस में चित्तौड़गढ़ के सूरमा और श्रेष्ठ सैनिक जायेंगे ऐसा ही हुआ जैसी ही अल्लुद्दीन के शिविर में डोलियाँ पहुंची उसमे बैठे सैनिकों ने अल्लौद्दीन खिलजी की सेना पर धावा बोल दिया उसकी सेना को बड़ी मात्र में क्षति हुई और राणा रतनसिंह को छुड़ालिया गया | इसका बदला लेने के लिए अलाउद्दीन ने पुन: आकरमण किया |जिसमे राजपूत योद्धाओं में भीषण युद्ध किया और देश की रक्षा के लिए अपने प्राण आहूत कर दिए उधर जब रानी पद्मिनी को मालुम पढ़ा की राजपूत योद्धाओं के साथ राणा रतन सिंह भी वीरगति को प्राप्त हुए है तो उन्होंने अन्य राजपूत रानियों के साथ एक अग्नि कुंद में प्रवेश करजोहर(आत्म हत्या ) कर अपनी अस्मिता की रक्षा हेतु प्राण दे दिए लेकिनजीते जी अपनी अस्मिता पर अल्लौद्दीन का साया तक भी नही पडने दिया |” ये इतिहास में उद्दृत हैलेकिनआज के तथा कथित लोग अपने जरा से लाभ के लिए इस महान ऐतिहासिक घटना को मनमाना रूप देने पर आमादा है |इसके लिए सरकार को और हमारे सेंसर बोर्ड को उचित कदम उठाने चाहिए और सिनेमा क्षेत्र से जुडे लोगों को जो भी ऐतिहासिक फिल्मी बनाना चाहते है उनके लिए ये अनिवार्यकरदेना चाहिए की वो इतिहास से जुडे उस व्यक्ति विशेष के बारे में विश्वसनीय दस्तावेजों का अध्ययन करे और फिर उन्हे लोगों के सामने प्रस्तुत करें क्यौंकी इतिहास से जुडे किसी भी घटना या व्यक्ति के विषय में मन माना कहना या गड़ना उचित नही है इसका समाज और राष्ट्र पर नकारात्मक प्रभाव जाता है और देश की ख्याति धूमिल होती है |

हम सबकी जिम्मेदारी, मिलकर बनाये दुनियाँ प्यारी

           प्रदीप कुमार सिंह ‘पाल’, शैक्षिक एवं वैश्विक चिन्तक   मानव जाति के अन्नदाता किसान को जमीन को कागजी दांव-पेच से आगे एक महान उद्देश्य से भरे जीवन की तरह देखना चाहिए। कागजी दांव-पेच को हम एक किसान की सांसारिक माया कह सकते हैं, लेकिन अब जमीन पर पौधे लगाने की योजना है, ताकि हमारा सांसारिक मोह केवल जमीनी कागज का न रहे, बल्कि जीवन का एक मकसद बनकर अन्नदाता तथा प्रकृति-पर्यावरण से भी जुड़ा रहे। किसान को अपने उत्तम खेती के पेशे का उसे पूरा आनंद उठाना है। सब्सिडी का लोभ और कर्ज की लालसा किसान को कमजोर करती है। जमीन बेचने की लत से छुटकारा तभी मिलेगा, जब हम धरती की गोद में खेलेंगे, पौधे लगाएंगे। जमीन-धरती हमारी माता है। परमात्मा हमारी आत्मा का पिता है। केवल धरती मां के एक टूकड़े से नहीं वरन् पूरी धरती मां से प्रेम करना है। धरती मां की गोद में खेलकूद कर हम बड़े होते हैं। धरती मां को हमने बमों से घायल कर दिया है। शक्तिशाली देशों की परमाणु बमों के होड़ तथा प्रदुषण धरती की हवा, पानी तथा फसल जहरीली होती जा रही है।                      अक्सर हमारी पूरी उम्र गुजर जाती है और यह तय ही नहीं कर पाते कि हम यहां हैं क्यों? इससे हमारी जीवन की गुणवत्ता दोयम दर्जे की हो जाती है। गुणवत्ता सुधारनी है, तो हमें पहले-पहल बस इतना करना चाहिए कि इसका एक उद्देश्य तय करें। इतने भर से जीवन में आमूल-चूल बदलाव आ सकता है। पैसा, करियर आदि चीजों से हटकर बस हम इतना ठान लें कि कुछ ऐसा कर गुजरेंगे कि उसके पूरा होने के बाद शांति और तसल्ली के साथ मर पाएं, तो समझिए जीवन यात्रा ठीक होगी। जीवन का मकसद सदैव हमारे सामने होने से राह की बाधायें परेशान नहीं करती हैं वरन् वे जीवन के सफर में एक नया अनुभव छोड़ जाती है। प्रत्येक क्षण में मनुष्य के लिए बहुत कुछ अच्छा है। वर्ष में 1 जनवरी का केवल एक दिन ही नया नहीं है वरन् प्रत्येक सुबह एक नया दिन तथा रात्रि में मृत्यु की गोद में सोने का अहसास लेकर आती है।             ओलंपिक में नौका रेस के मुकाबले के दौरान नाविक प्रतियोगी लाॅरेन्स एकाएक अपने घायल प्रतियोगी की मदद के लिए रूक गए। नतीजा यह हुआ कि वह रेस में सबसे पीछे रहे। उन्होंने जीतने की इच्छा से अधिक दूसरे के जीवन को महत्व दिया, इसलिए उनके लिए सबसे अधिक तालियां बजी। उन्होंने वह हासिल कर लिया, जो जीतने वाले के लिए एक सपना होता है। बर्तोल्त ब्रेख्त अपनी कविता में कहते हैं- हमारा उद्देश्य यह न हो कि हम एक बेहतर इंसान बने, बल्कि यह हो कि हम एक बेहतर समाज से विदा ले। रवीन्द्र नाथ टैगोर कहते है कि मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन को समय के किनारे पड़ी हुई ओस की भांति हल्के-हल्के नाचने दे। यह नाच तभी हो सकता है, जब हमारा मन ओस की तरह हल्का हो। शुद्ध, दयालु तथा प्रकाशित हृदय हो। हृदय में परहित के लिए जगह हो। आध्यात्मिक गुरू तेजश्री कहते है कि दुनिया वैसी नहीं है जैसी हमें दिखाई देती है वरन् दुनिया वैसी है जिस दृष्टिकोण-विचार से हम उसे देखते हैं।             पंजाब केसरी के वरिष्ठ नागरिक केसरी क्ल्ब की चेयरपर्सन श्रीमती किरण चैपड़ा के अनुसार पिछले दिनों मैंने काॅफी टेबल बुक ‘बेटिया’ लांच की, जिसमें देश के हर फील्ड से प्रसिद्ध बेटियां, चाहे वह राजनीतिक, स्पोट्र्स, एक्टिंग, सामाजिक, पत्रकारिता क्षेत्र को शामिल किया, जिसका उद्देश्य था कि देश की हर आम-खास बेटी जाने कि वह किसी से कम नहीं, वह भी उनकी तरह हर क्षेत्र में आगे बढ़ सकती है। आज भ्रूण हत्या करने वाले भी सोच लें कि बेटी है तो परिवार, समाज, देश है। श्रीमती किरण चैपड़ा के नारियों तथा वरिष्ठ नागरिकों को आगे बढ़ाने के उत्कृष्ट जज्बे को लाखों सलाम।             बुढ़ापा जीवन का एक अटूट सत्य है। बुढ़ापा और गरीबी से जिंदगी अभिशाप बन जाती है। हम बुजुर्गों का ऐसा सहारा बनें, ताकि उन्हें बुढ़ापा अभिशाप नहीं अनुभवों का खजाना महसूस हो। आओ ऐसा संसार बसाएं जहां सुखी-दुखी लोग अपने आपको अकेला, असहाय न महसूस करें और आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन करें। वृद्धजनों का सम्मान होना चाहिए। सरकारी तथा निजी संस्थाओं को ओल्ड ऐज होम अधिक से अधिक बनाना चाहिए। ताकि वरिष्ठ नागरिक अपने हम उम्र के लोगों के साथ मजे से हर पल जीवन जीते  हुए संसार से विदा हो।             23 साल की उम्र में रितेश बनें अरबपति। छोटी सी उम्र सिम कार्ड बेचकर गुजारा करने वाले रितेश अग्रवाल आज भारत के सफलतम उद्यमियों में से एक हो गए हैं। एक समय रितेश इंजीनियरिग की परीक्षा देना चाहते थे परंतु आज मात्र 22 वर्ष की उम्र में वे देश के नामी अरबपतियों में से एक हैं। वह ओयो रूम्स के संस्थापक है। कुदरत में भरपूर है। जैसा हम चाहते हैं तथा वैसा करते हैं तो सफलता हमारे कदम चूमती है। सकारात्मक दृष्टिकोण का भी सफलता में काफी श्रेय है। श्रेष्ठ भावना यह है कि कैसे करें ईश्वर की नौकरी? रितेश की कहानी एक जिम्मेदार इंसान की कहानी है समझ मिलने के बाद। बड़बोले बनने से अच्छा है कि सच्चे कर्मयोगी बनने की कला सीखे।             असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर के पद पर चयनित हुए उपदेश कुमार वत्स का कहना है कि सिर्फ आगे देखेंगे, तभी आगे बढ़ पाएंगे। मैनेज करना आपके हाथ में होता है। यह बस इस पर निर्भर करता है कि आपकी मानसिकता तैयारी को लेकर कितनी सकारात्मक है। एक समय मेरे मन में जाॅब छोड़कर तैयारी करने का विचार आया, लेकिन फिर लगा कि मैं मैनेज कर सकता हूं और करके रहंूगा। आप किसी परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं, तो पूरे मन से करें। फोकस के अभाव में की गई तैयारी, आपको पुनः उसी जगह खड़ा कर देती है, जहां से आपने शुरूआत की थी। कोशिश करने वालों की हार नहीं होती, लहरों से डरकर नैया पार नहीं होती।             बहादुर बच्चों से मुखातिब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि उन्हें मन की शक्ति मजबूत बनाने की जरूरत है। इस दौरान पीएम ने 25 बच्चों को गणतंत्र दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय वीरता सम्मान … Read more

तन की सुंदरता में आकर्षण, मन की सुंदरता में विश्वास

सुंदर काया और मोहक रूप क्षणिक आकर्षण पैदा कर सकते हैं लेकिन आंतरिक सुंदरता सामने वाले के मन को हमेशा के लिए वशीभूत कर लेती है। जो लोग रूप पर टिके रह जाते हैं वे अपनी आंतरिक क्षमताओं की तलाश नहीं कर पाते। रूप उनके लिए एक ऐसा जाल बन जाता है जिसे तोडऩा आसान नहीं होता। इसके उलट शरीर से निर्विकार रह कर मन की ताकत पर एकाग्र रहने वाले लोग महानता के शिखर चढ़ जाते हैं।  शक्‍ल से खूबसूरत लोग दिल से भी खूबसूरत हों, ऐसा जरूरी नहीं है। आत्‍मा की सुंदरता पाने के लिए तो व्यक्ति में गुणों का होना जरूरी है। दिखने में बुरा होते हुए भी अगर कोई गुणवान और प्रतिभावान हो तो उसे कामयाब होने से कोई नहीं रोक सकता है, क्योंकि जीवन की लंबी दौड़ में साँझ की तरह ढलते रूप की नहीं, बल्कि सूरज की तरह अँधेरे में उजालों को रोशन करने वाले गुणों की कद्र होती है। चरि‍त्र अच्‍छा हो और सीधा-साधा मन हो तो आप सबको जीत सकते है। हमारे संस्कार हमें अंदर से सुंदर बनाते हैं और इन संस्कारों के बि‍ना तो ऊपरी सुंदरता कि‍सी काम की नहीं है। मन विचार करता है और संकल्प लेता है। अच्छे संकल्प मन को शुद्ध करते हैं और शक्तिशाली बनाते हैं। अच्छे विचार और अच्छे संकल्प मन को लगातार निर्मल करते रहते हैं। मन की सुंदरता के लिए ऐसा करना बहुत ज़रूरी है। जिस तरह  शरीर तभी तक सेहतमंद और सुंदर रह सकता है जब तक कि उसके अंदर का मैल बाहर निकलता रहे,उसी तरह मन की सुन्दरता के लिए भी यह जरूरी है कि मन का मेल बाहर निकलता रहे. हमारे भीतर बहुत से नकारात्मक और फ़ालतू विचार जमा हो जाते हैं और प्रायः वही हमारे मन में घूमते रहते हैं,जिससे मानसिक सौंदर्य प्रभावित होता है.इसलिए हमें निरंतर कुविचारो से मुक्ति के लिए प्रयासरत रहना चाहिए.  जीवन को सुंदर बनाने के लिए सुंदर मन की आवश्यकता है। यदि मन पवित्र, स्वस्थ्य तथा मजबूत है तो जीवन स्वयं ही सुंदर और आनंदमय बन जाता हैं। मन शरीर को नियंत्रित करता है और इस प्रकार हमारे कर्मो को निर्धारित करता है। हमारा व्यवहार ही प्रशंसा व निंदा का कारण बनता है। गुरू, पीर, पैगम्बरों तथा धार्मिक ग्रंथों ने अपना संदेश मन को ही दिया है। मन वाहन में स्टेयरिंग की भांति है। मन ही मानव को इधर-उधर घुमाता है अथवा सुरक्षित रूप से लक्ष्य पर  पहुंचाता है। जब मन को पथ का ज्ञान हो जाता है, तब लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य ही हो जाती है। वाह्य सौंदर्य भ्रामक है, वास्तविक सौंदर्य तो आंतरिक है। यही वजह है कि भगवान श्रीराम ने शबरी को भामिनी कहकर संबोधित किया था। भामिनी का भाव सुंदर स्त्री से है। जबकि यह सभी जानते हैं कि शबरी की बाहरी नहीं बल्कि आंतरिक सुंदरता की ख्याति है। बाहरी सौंदर्य तो क्षणभंगुर है। आयु के साथ-साथ ढल जाता है। लेकिन मन की सुंदरता हमेशा बनी रहती है। प्राचीन काल में सौंदर्य की परिभाषा संतुलित थी लेकिन आधुनिकता के दौर में इसका पैमाना भी बदल गया है। सभी ने सादा जीवन और उच्च विचार वाली गरिमयी पद्घति को छोड़कर भौतिकतावादी शैली को गले लगा लिया है। आजकल सुंदरता के मायने ही बदल गए हैं। वाह्य सुंदरता की होड़ में आंतरिक सुंदरता अपना स्थान खोती जा रही है.तन को सुन्दर बनाने की दौड़ में मन का सौंदर्य लोग भूलते जा रहे है,जबकि मन की सुन्दरता सिर्फ दूसरो के लिए ही नहीं ,बल्कि खुद के लिए भी आनंददायी होती है . ओमकार मणि त्रिपाठी 

सहानुभूति नहीं समानुभूति रखें

क्यों न हम लें मान, हम हैं चल रहे ऐसी डगर पर, हर पथिक जिस पर अकेला, दुख नहीं बँटते परस्पर, दूसरों की वेदना में वेदना जो है दिखाता, वेदना से मुक्ति का निज हर्ष केवल वह छिपाता; तुम दुखी हो तो सुखी मैं विश्व का अभिशाप भारी! क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी? क्या करूँ? सुप्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्चन की यह पंक्तियाँ संवेदनाओं के व्यापार की पर्त खोल कर रख देती हैं | सदियों से कहा जाता है की दुःख कहने सुनने से कम हो जाता है पर क्या वास्तव में ? शायद नहीं | वो बड़े ही सौभाग्यशाली लोग होते हैं जिनको दुःख बांटने के लिए कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाता है जो उनके साथ समानुभूति रखता हो |वहाँ शायद कह लेने से दुःख बांटता हो | परन्तु ज्यादातर मामलों में यह बढ़ जाता है | संवेदनाओं का आदान -प्रदान को महज औपचारिक रह गया है | दुख कहने-सुनने से बंटता है। डिप्रेशन के खिलाफ कारगर हथियार की तरह काम करने वाली यह सूक्ति अभी के समय में ज्यादा बारीक व्याख्या मांगती है। आम दायरों में कहने-सुनने के दो छोर दिखाई पड़ते हैं। एक तरफ कुछ लोग खुद को लिसनिंग बोर्ड मान कर चलते हैं। आप उनसे कुछ भी कह लें, किसी लकड़ी के तख्ते की तरह वे सुनते रहेंगे। इस क्रिया से आप हल्के हो सकें तो हो लें, लेकिन यह उम्मीद न करें कि आपके दुख से दुखी होकर वे आपके के लिए कुछ करेंगे। मैनेजमेंट के सीवी में यह एक बड़ी योग्यता मानी जाती है। परन्तु आप की तकलीफ को कोई राहत नहीं देती है | दूसरी तरफ कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो पहला कंधा मिलते ही उस पर टिक कर रोना शुरू कर देते हैं। इसके थोड़ी ही देर बाद आप उन्हें प्रफुल्लित देख सकते हैं, भले ही जिस कंधे का उपयोग उन्होंने रोने के लिए किया था, उस पर रखा सिर पूरा दिन उनकी ही चिंता में घुलता रहेे। अंग्रेजी में ऐसे लोगों को साइकोपैथ कहते हैं | ये लोग आप को भावनाओं का पूरा इस्तेमाल करना जानते हैं | इनका शिकार भावुक व्यक्ति होते हैं | जिनको ये अपना दुखड़ा सुना कर अपने बस में कर लेते हैं और मुक्त हो जाते हैं | और बेचारा शिकार दिन -रात इनको दुखों से मुक्त करने की जुगत में लगा रहता है | ये दोनों छोर दिखने में संवेदना जैसे लगते हैं, लेकिन सम-वेदना जैसा इनमें कुछ नहीं है। संवेदना किसी वेदना में बराबर की साझेदारी है। जहां यह अनुपस्थित हो, वहां कहने-सुनने से दुख क्या बंटेगा? ओमकार मणि त्रिपाठी – प्रधान संपादक अटूट बंधन एवं सच का हौसला

अपनों की पहचान बुरे समय में नहीं अच्छे समय में भी होती है

आम तौर पर यही माना जाता है कि जो बुरे वक्त में विपदा के समय साथ दे,वही सच्चा मित्र या हितैषी होता है.यह बात कुछ हद तक सही भी है,लेकिन तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है.कई बार ऐसा भी होता है कि जब आप परेशान या दुखी होते हैं,तो लोग सहानुभूतिवश भी आपके साथ खड़े हो जाते हैं.कई बार तो ऐसा भी होता है कि आपको सख्त रूप से नापसंद करने वाले लोग भी बुरे समय में आपके साथ सहानुभूति जताने लगते हैं,लेकिन जैसे ही आपका बुरा समय दूर हुआ और अच्छा समय आने लगा ,तो वही लोग फिर विरोध का झंडा उठा लेते हैं. आपने अक्सर देखा होगा कि राह चलते किसी के साथ कोई दुर्घटना हो जाये,तो कुछेक लोगो को छोड़कर उस रास्ते से गुजर रहे लगभग सभी लोगो उसकी सहायता के लिए आगे आ जाते हैं और जिससे जितना संभव हो पाता है,वह उतनी मदद बिना कहे करता है.कोई बीमार हो जाये,कोई दुर्घटनाग्रस्त हो जाये,कोई किसी आपदा का शिकार हो जाये या किसी के घर पर मौत का मातम हो,तो उसके साथ सहानुभूति जताने वालो की कमी नहीं होती.लोग कुछ मदद करे या न करें,सहानुभूति तो जता ही देते हैं.सिर्फ परिचित ही नहीं ,अपरिचित लोग भी पुण्य या यश कमाने के लिए दुखी लोगो की मदद के लिए आगे आ जाते हैं अब जरा तस्वीर का दूसरा पहलू देखिये.कोई प्रगति की राह पर चलने लगा,किसी ने कोई सफलता हासिल कर ली,किसी पर सुखो की बरसात होने लगी,तो अपने होने का दावा करने वाले ज्यादातर लोग उससे दूर होने लगते हैं.कुछ तो मन ही मन और कुछ सार्वजनिक तौर पर उसकी निंदा या आलोचना शुरू कर देते हैं.ऐसे में सहयोग की बात तो दूर है,ज्यादातर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से असहयोग करना शुरू कर देते हैं.इसका मुख्य कारण ईर्ष्या होती है,जिसका मूल आधार यह भाव होता है कि जो हम नहीं कर सके,वह इसने कैसे कर लिया या जिसके लिए हम रात दिन प्रयास करते रहे,जिसके सपने देखते रहे,वह इसे कैसे मिल गया.इर्ष्य एक मानसिक विकार है। यह विकार इतना तीव्र और खतरनाक होता है कि व्यक्ति अपना विवेक भी खो लेता है। यह एक ऐसा रोग है जो दूसरों के लिये तो हानिकारक है ही, स्वयं के लिये भी खतरनाक है। ईर्ष्याभाव एक विष है जो तन और मन दोनों को नष्ट कर देता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति को पर निन्दा में सुख की अनुमति होने लगती है.हिन्दू जीवन दृष्टि में ईर्ष्या और द्वेष जैसे तत्त्वों को राक्षसी दोषों में रखा गया है। इसीलिए कभी –कभी सफलता मिलने के बाद आप अपने को बिलकुल अकेले खड़ा पाते है आप को लगता है की आपने सफलता के लिए अपनों का प्यार खो कर भारी कीमत चुकाई है और अपनी सफलता की ख़ुशी नहीं मना पाते |यह सच है की चोटी पर आदमी अकेला होता है पर उसे अपनों के प्यार और सहारे की सदैव आवश्यकता होती है और सफलता मिलने के पश्चात अचानक से उन लोगों का साथ छोड़ देना जो आपके सपने देखने के समय उसके भागीदार थे मन को अजीब निराशा से भर देता है | मानव मन की इस गुत्थी को समझने के लिए आप को मन कड़ा कर के अपनी सफलता व् खुशियों को अपनों के सच्चे स्नेह के एक लिटमस टेस्ट की तरह समझना चाहिए अच्छे समय में ही अपनों की सही पहचान होती है.दुःख के समय दुखी होने वाले ,सहानुभूति जताने वाले तो आसानी से मिल जाते हैं ,लेकिन आपके सुख से सुखी होने वाले,आपकी खुशिओ से खुश होने वाले बहुत मुश्किल से मिलते हैं और यही लोग आपके सच्चे हितैषी होते हैं. आपकी खुशियों में खुश होने वाले ही वास्तव में आप से निस्वार्थ प्रेम करते हैं जो दुःख –सुख में एक सामान हैं एक कहावत है कि हर पिता अपने बेटे से हारना चाहता है क्योंकि पिता का अपने पुत्र के प्रति निस्वार्थ प्रेम होता है |जो वास्तव में सच्चा प्रेम रखते हैं वह हर सफलता व् ख़ुशी में ख़ुशी व् संतोष का अनुभव करते हैं ,और लिटमस परीक्षा में पास हो जाते हैं |जो निकट सम्बन्धी इस परिक्षण में पास नहीं हो पाते उनके लिए आप को समझ लेना चाहिए की वो केवल निराशा की अवस्था में सहानभूति दिखा कर हीरो बनना चाहते थे |ऐसे रिश्तों के खोने पर दुःख नहीं करना चाहिए अपितु ईश्वर का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि आप को सफलता मिलने पर अपने निकट के रिश्तों के भावों के सही उद्देश्य की पहचान हो गयी तस्वीर का दूसरा रुख यह भी है कि सफलता के साथ बहुत से ऐसे लोग भी जुड़ जाते हैं,जिनका किसी न किसी तरह का स्वार्थ होता है , इस दशा में आपको अपने को अचानक से अकेलापन महसूस कर उन लोगों से भावनात्मक रिश्ते नहीं बना लेने चाहिए अन्यथा बार –बार पछताना पड़ता है|यह सही है कि रिश्ते दिल से बनते हैं पर अगर विवेक से काम लेंगे तो निराशा में नहीं डूबना पड़ेगा | अपने सफलता के पथ पर आगे बढे तो आप देखेंगे देर सवेर सिर्फ और सिर्फ वही साथ रह जाते हैं ,जो आपको सच्चे मन से चाहते थे और आपको सफल और खुश देंखना चाहते थे. जिनके लिए आपकी हँसी से मिलने वाली ख़ुशी बेशक़ीमती होती है,अनमोल सी लगती है. जो आपकी ख़ुशी में अपनी ख़ुशी देखते और तलाशते हैं,जिनके पास आपकी ख़ुशी को समेटने वाला मन और दामन होता है.जिनका प्यार, अपनापन, परवाह और मासूमियत अपने आप दस्तक देती है. कुछ लम्हों के लिए ठहरती है. बातें करती है. हाल-चाल पूछती है. ख़ामोशी से अपनी बात कहती है. सामने वाले को उसकी आवाज़ में सुनती है और अपनी राह चल देती है. वही आपके सच्चे हितैषी होते हैं.ये लोग दुःख में सहानुभूति जताने के आकांक्षी नहीं होते,क्योंकि ये वो लोग होते हैं,जो आपको दुखी देखना ही नहीं चाहते,बल्कि हर समय आपकी सफलता और आपके चेहरे पर खिली हुई मुस्कराहट की कामना करते हैं.ऐसे रिश्ते अनमोल होते हैं इन्हें हर हालत में बचा कर रखिये ओमकार मणि त्रिपाठी – प्रधान संपादक अटूट बंधन एवं सच का हौसला

सुख -दुःख के पार है आनंद

दुख को कोई नहीं चाहता। हर कोई सुख की खोज में भटकता रहता है। यह मान लिए गया है कि दुख के लिए कोई प्रयास करने जरूरत नहीं होती है। वह तो हमारे आसपास ही रहता है, उसे देखने के लिए गर्दन उठाने की भी जरूरत नहीं है। लेकिन भारतीय परंपराएं, शास्त्र और दर्शन इससे सहमत नहीं हैं। वे इस बारे में कुछ और ही कहते हैं। ज्यादातर ग्रंथ एक स्वर से कहते हैं कि सुख हमारा स्वभाव है। वह कहीं बाहर नहीं है। अष्टावक्र ने तो यहां तक कहा है कि ‘हमेशा सुख से जियो, सुख से उठो और बैठो, तब दुनिया जिसे दुख कहती है, उसे भी सुख की तरह महसूस करने लगोगे।’ हमारा मन जिस सुख के पीछे पागल है, उसके पीछे धन-संपत्ति का बोध है। ऐश्वर्य उसका लक्ष्य है। हम यह भूल जाना चाहते हैं कि सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दुख को भूलने और नकारने की क्षमता अपने अंदर पैदा करना चाहते हैं। तभी तो ओशो ने कहा था, ‘सुख की खोज एक बुनियादी भूल है। दुख को अस्वीकार कर सुख को तलाशना गलत है, क्योंकि सुख दुख का ही हिस्सा है। जो ऐसी भूल करते हैं, वे उन लोगों में हैं, जो जन्म खोजते हैं और मरना नहीं चाहते, जवानी तो खोजते हैं, मगर बूढ़ा होना नहीं चाहते। ’ भगवान कृष्ण ने गीता का उपदेश देते हुए अर्जुन से कहा-‘जो मनुष्य इस लगातार बदलते रहने वाले सृष्टि चक्र के हिसाब से व्यवहार नहीं करता, वह इंद्रियों के वश में ही जीवन काटने वाले प्यासे के समान बिना उद्देश्य का जीवन जीता है।’ आपने ध्यान दिया होगा कि जब हम प्रेमभाव में होते हैं, तब मन और इन्द्रियां तृप्त रहती हैं। वैसे तो जो भी हमारे पास है, हम उसी में संतुष्ट रहते हैं लेकिन यह अवस्था कुछ देर के लिए ही होती है। इंसान के पास भले ही कितना भी सुख और वैभव हो जाए, उसको कम ही लगता है और ज्यादा की तलाश बनी रहती है। यही कारण है कि सुख नहीं मिल पाता। यदि जीवन में सुख चाहिए तो संतुष्टि भाव में आना ही होगा, वर्ना बहुत कुछ होने पर भी सुख नहीं मिलेगा। एक बार सोच कर देखिए कि जब कुछ देर प्रेम में आने से ही संतुष्टि मिलती है तो यदि हम हमेशा प्रेमभाव में रहें तो कितना आनंद मिलेगा! हमेशा प्रेमभाव और एकरस की भावना के साथ रहना ही आत्मा में रहना होता है। इस तरह आत्मा के भाव से कोई भी काम करने से उसे खुद करने का भाव नहीं आता और इंसान कर्म के बंधन से मुक्त हो जाता है। वह इंसान सिर्फ होने वाले सभी कर्मों का माध्यम बन कर रह जाता है। अगर हमें परमात्मा मिल जाए तो हम उससे निश्चय ही अपना शाश्वत सुख न मांग कर धन, संपदा और समृद्धि ही मांगेंगे या छोटे-छोटे दुखों के निवारण की ही याचना करेंगे। वह इसलिए कि अनेक अभावों, दुर्भावों और प्रभावों में असहनीय कष्ट झेलते हुए भी हमें संपत्ति में ही सलामती के दर्शन होते हैं। सत्ता को ही हम अपना सुरक्षा-कवच मानते हैं। स्वजनों के शिकवे-शिकायतों में ही शांति का अनुभव करते हैं। उपयोगिता के आधार पर बने संबंध ही हमें ऊष्मा और प्रेम के दर्शन कराते हैं। संसार के मायावी जाल में ही हमें स्वर्ग-सुख की अनुभूति होती है। उस आखिरी कैदी की सम्यक सोच की तरह इस दुखमय संसार से मुक्ति की अनुपम सौगात मांगने का सुविचार और साहस हमारे अंदर आएगा ही नहीं। क्योंकि हम इस भ्रम में हैं कि जैसे सूर्य की रश्मियों से रात का अंधकार गायब हो जाता है, वैसे ही हम अपने कृत्रिम अनुसंधानों से अपने अंदर छाई कलुषता को दूर कर लेंगे। बस यही हमारी सबसे बड़ी भूल है। भौतिक सुख और प्राप्तियां तो सदा ही अपना रंग-रूप बदलती हैं। एक इच्छा पूरी हुई तो दस जरूरतें और पैदा हो गईं। सुख के संभावित मार्गों पर जितना चले, उतना दुख ही हाथ लगा। इसका एकमात्र कारण यह है कि हम पथ से भटक कर उस अलौकिक प्रकाश को भुला बैठे हैं जिसके संबल से अर्जुन ने विजय का वरण किया था। महाभारत के समय अर्जुन के पास भी मांगने के कई विकल्प थे। लेकिन, उन्होंने सब विकल्पों को छोड़कर केवल श्री कृष्ण को मांग लिया और अकेले उनको मांग कर सब कुछ प्राप्त कर लिया। प्राय: हम सभी को सुख की तलाश होती है। हम सभी सुख के लेन-देन के लिए कोई भी कीमत चुकाने को सदैव तत्पर रहते हैं। स्वयं को सुखी बनाने की चेष्टा के साथ ही अपने परिजनों को भी सुखी बनाने की चेष्टा चलती रहती है। मां-बाप संतान को और संतान माता-पिता को, पति पत्नी को, पत्‍‌नी पति को सुखी करने की चेष्टा करती है, किंतु सुखी कोई नहीं होता। इसके विपरीत हाथ में दुख का खुरदरा दामन ही आता है और सुख के क्षणों को पकड़कर रोके रखने की हमारी चेष्टा धूल-धूसरित होकर रह जाती है, तो हमें आश्चर्य होता है। हम वास्तव में सुख-दुख में से सुख का चयन करते वक्त यह भूल जाते हैं कि ये संपूर्ण सृष्टि परिवर्तन और विनाश के मूलाधार पर टिकी है। इसलिए सुख-दुख सभी परिवर्तन शील क्षण भंगुर है। वास्तव में सुख-दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सिक्के का एक वांछित पहलू हाथ में लेते ही दूसरा पहलू स्वत: हमारे हाथ में आ जाता है। सुख-दुख रूपी गतिमान पहियों में से हम सुख के पहिए को बड़ा करने की चेष्टा करते हैं तो दुख का पहिया स्वत: बड़ा हो जाता है तो हम दंग रह जाते हैं। हमें उस समय इस बात का स्मरण भी नहीं रहता कि असमान पहियों पर गाड़ी नहीं चलती। पहियों को समान होना पड़ता है। यही करण है कि बड़े आदमी का सुख भी बड़ा होता है तो दुख भी बड़ा होता है, जबकि छोटे आदमी के सुख दुख दोनों छोटे होते हैं। सुख-दुख कालचक्र की वाह्य परिवर्तनशील परिधि-परिस्थिति होते हैं। यही कारण है कि सुख व दुख दोनों हमारे जीवन में उत्तेजना लाते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि जब सुख-दुख दोनों उत्तेजनाएं हैं, तो फिर सुख दुख के पार क्या है? सुख दुख के पार ही आनंद है। … Read more

क्‍या सिखाता है कमल का फूल?

कमल के फूल को योग और अध्‍यात्‍म में एक प्रतीक के रूप में देखा जाता है। योगिक शब्दावली में बोध व अवबोधन के अलग- अलग पहलुओं को हमेशा से कमल के तरह-तरह के फूलों से तुलना की गई है। शरीर के सात मूल चक्रों के लिए कमल के सात तरह के फूलों को प्रतीक चिह्न माना गया है। कमल के फूल को एक प्रतीक के रूप में इसलिए चुना गया है क्योंकि जहां कहीं कीचड़ और दलदल बहुत गाढ़ा होता है वहां कमल का फूल बहुत अच्छी तरह से खिल कर बड़ा होता है। जहां कहीं पानी गंदा हो और मल-कीचड़ से भरा हो, कमल वहीं पर सबसे बढ़िया उगता है। जीवन ऐसा ही है। आप दुनिया में कहीं भी जायें, और तो और अपने मन के अंदर भी, हर तरह की गंदगी और कूड़ा-करकट भरा मिलेगा। अगर कोई कहे कि उसके अंदर मैल नहीं है तो फिर या तो उसने अपने अंदर नहीं झांका या फिर वह सच नहीं बोल रहा है, क्योंकि मन तो आपके वश में है ही नहीं। इसने वह सब-कुछ बटोर लिया है जो उसके रास्ते आया है। आपके पास यह विकल्प तो है कि आप इसका इस्तेमाल कैसे करें लेकिन यह विकल्प नहीं है कि आपका मन क्या बटोरे और क्या छोड़े। आपके मन में जमा हो रही चीजों को ले कर आपके पास कोई विकल्प नहीं है। आप बस यही तय कर सकते हैं कि आप किस तरह से अपने मन की जमापूंजी का इस्तेमाल करें। दुनिया में हर तरह की गंदगी और कूड़ा-करकट है और यह सारा मैल, यह सारा कूड़ा आपके मन में समाता ही रहता है। मल और कूड़ा-करकट देखने से कुछ लोगों को एलर्जी हो जाती है। उनको गंदगी और कूड़ा-करकट गवारा नहीं होता इसलिए वे खुद को इन सब चीजों से दूर ही रखते हैं। वे सिर्फ उन्हीं दो-तीन लोगों के साथ मिलते-जुलते, उठते-बैठते हैं, जिनको वे एकदम सही मानते हैं और बस यही लोग उनकी जिंदगी में रह जाते हैं। आज दुनिया में बहुत लोग ऐसा कर रहे हैं क्योंकि उनको सारी गंदी, सारी निरर्थक चीजों से एलर्जी है। वे एक कोठरी में बंद जिंदगी-सी जी रहे हैं। कुछ दूसरे तरह के लोग ऐसे हैं जो सोचते हैं कि “दुनिया मल-दलदल और कूड़े-करकट से भरी-पटी है तो चलो मैं भी इस कीचड़ का ही हिस्सा बन जाता हूं” और फिर वे भी उसी दलदल में मिल जाते हैं। लेकिन एक और भी संभावना है और वह यह कि आप इस कूड़े-करकट और मल-दलदल को खाद की तरह इस्तेमाल करें और खुद को एक कमल के फूल की तरह खिलायें। कमल के फूल ने इस मल, गंदगी और कूड़े-करकट को किस तरह एक सुंदर और सुगंधित फूल में रूपांतरित कर दिया है! आपको एक कमल के फूल की तरह बनना होगा और गंदे हालात से अनछुए बाहर निकल कर कमल के फूल की तरह खिलना होगा। गंदे-से-गंदे हालात में होने के बावजूद आपको अपनी खूबसूरती और खुशबू बरकरार रखने के काबिल बनना होगा। अगर किसी के पास ऐसी कला है तो वह अपने जीवन-दुख के दलदल में बिना डुबे, उससे बिल्‍कुल अछूता उपर-उपर निकल जाएगा और जो व्यक्ति इस काबिलियत को पहचान कर उसको नहीं तराशता उसको यह जिंदगी जाने कितने तरीकों से तोड़-मरोड़ कर खत्म कर देती है। हर इंसान के अंदर कमल के फूल की तरह खिलने और जीने की काबिलियत होती है। ओमकार मणि त्रिपाठी