करवाचौथ और बायना

   जीवन की आपाधापी में, भागते-दौड़ते हुए जीवन को जीने के संघर्ष में अपने ये त्योहार जब आते हैं तो मन को कितनी शांति और संतोष प्रदान करते हैं ये उन्हें मनाने के बाद ही पूर्णरूपेण पता चलता है। त्योहारों को मनाने की तैयारियों में घरों की साफ़-सफ़ाई से लेकर शुरू हुआ ये सिलसिला भैया दूज मनाने के बाद ही थमता है।  करवाचौथ और परंपरा  शरद पूर्णिमा की रात को बरसे अमृत से पूर्ण खीर का आस्वदन करने के बाद जिस त्योहार की गूँज घर की देहरी पर सुनाई देती है वह दाम्पत्य जीवन को सुदृढ़ता-गहनता प्रदान करने वाला करवाचौथ का त्योहार है, जिसके लिए बाज़ार सज गये हैं, मेहँदी लगाने वाले-वाली  जगह-जगह महिलाओं के झुंड से घिरे मेहँदी लगाने में लगे हुए हैं,तो कुछ घर-घर जाकर लगा रहें हैं। हर सुहागिन साड़ी से लेकर मैचिंग चूड़ियों और गहने पहनने की योजना बना चुकी होंगी। बाज़ारों की रौनक़ और घर की चहल-पहल देखते ही बनती है। कहीं अपनी ओर बहू की सरगी की तैयारी, तो कहीं बेटी के पहले करवाचौथ पर उसे भेजे जाने वाले “ सिंधारे “ की तैयारी, कहीं करवाचौथ की पूर्व संध्या पर होने वाले आयोजन…ऐसे में मन आनंदित क्यों नहीं होगा भला! करवाचौथ क्वीन भी तो सभी बनना चाहेंगी। वैसे सभी अपने-अपने पतियों की क्वीन तो हैं ही न!             भले ही आज हमारे सभी त्योहार टी वी और फ़िल्मों के बढ़ते प्रभाव से ग्लैमरस और तड़क-भड़क से भरपूर हो गये हैं, पर मुझे तो अपनी नानी-दादी और माँ के समय के भारतीय परम्परा के वो भोले-भाले, सादगी से मनाये जाने वाले रूप ही भाते हैं। यह भो हो सकता है कि आधुनिकता की दौड़ में में अपनी पुरानी सोच ही लिए चल रही हूँ।              सुबह-सुबह नहाना-धोना,शाम को चार बजे अपनी मोहल्ले की सखियों के साथ सज-धज कर करवाचौथ की कथा सुनना, फिर रात के व्यंजनों को बनाने की तैयारी, रात को पूजा करके सास या जिठानी के लिए बायना निकालना, चंद्रमा के उदित होने पर दीप जला कर छलनी से पहले चंद्रमा को और उसके बाद पति को निहारना, अर्ध्य देकर हाथों पानी पीकर व्रत तोड़ना, बायना देकर अपने बड़ों से आशीर्वाद लेना और फिर घर में बड़ों, पति तथा बच्चों की पसंद के अपने हाथों से बनाये खाने को सबके साथ मिल कर खाना….कितना आनंद आता है, शब्दों में व्यक्त कर पाना मुश्किल है। करवाचौथ और बायना              अब बात आती है बायने की। अपने आसपास देखे-सुने बायने देने वालियों की कई बातें इस समय मेरी स्मृतियों में उमड़-घुमड़ रही हैं…..   *“ हर साल का झंझट है यह बायने का भी। कुछ भी, कैसा भी दे दो…मेरी सास को पसंद ही नहीं आता। मैं तो पैसे और मिठाई देकर छुट्टी करती हूँ।”  * “ क्या यार! सारे साल तो सास-ससुर की सेवा में रहते ही हैं,अब इस दिन भी  इस बायने के नियम की कोई तक है?” *    जॉब के कारण बाहर रहते हैं, इसलिए जब आना होता है तब पैसे दे दिए और काम ख़त्म।”   *    एक घर की दो बहुओं ने तो बायने को एक प्रतिस्पर्धा का ही रूप दे डाला था। डोनो में होड़ रहती कौन दूसरी से ज़्यादा देगा! आज आलम यह है की दोनों में बातचीत तक नहीं होती। बायना है प्यार की सौगात              बायना देना हमारी भारतीय परंपरा में अपने बड़ों को आदर-सम्मान देने की एक चली आ रही रीत है।माना हम अपने बड़ों के लिए रोज़ करते ही हैं,पर अपनी परंपरा में आस्था-विश्वास रखते हुए हम उन्हें कुछ विशेष अनुभव कराएँ और यह अहसास दिलायें कि वे हमारे लिए कितने विशेष हैं तो इसमें क्या बिगड़ता है और क्या जाता है? अपने जिस पति के लिए हम व्रत करते हैं,उसकी लम्बी आयु  की कामना करते हैं…वह पति सास-ससुर की ही तो देंन  है और वे उसके लिए लिए ही तो हमें ब्याह कर, घर की लक्ष्मी बना कर घर में लाते हैं, तो हमारा भी तो  कर्तव्य बनता है कि हम उनके लिए किसी पर्व पर विशेष रूप से कुछ करें। करवाचौथ अपनी सास,उनकी और अपनी सहेलियों के साथ एक साथ मिल कर मनायें,न कि अलग-अलग मना  कर पीढ़ियों के अंतराल को और हवा दें। करवाचौथ पर बायना देते समय ध्यान  रखने योग्य बातें  *आपकी सास युवा है तो आप बायने में जो भी देंगी वह सब कुछ खाएँगी, पर यदि आपकी सास कुछ बीमार रहती हैं, दवाइयाँ लेती है, पथ्य-परहेज़ का पालन करती हैं तो उनके नियम को मानते हुए स्वास्थ्य के अनुसार चीज़ें बायने में रखें ताकि उन्हें खाने में उन्हें कोई परेशानी न हो।        *   मेरी एक परिचित आंटी बता रही थी किमेरी बहू बायने में अपनी पसंद की तली-भुनी चीज़ें ही इतनी रखती है जो मेरे स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं होती हैं, इसलिए लेकर मैं थाली में कुछ उपहार रख कर उसे ही दे देती हूँ कि लो ये सब तुम्हीं खाओ। अगर बहू मेरे खा सकने लायक चीज़ें रखे तो मुझे वापस देना ही न पड़े।पर वो न कुछ पूछती है न सुनती है…..इसलिए जैसा चल रहा है वो चलता रहेगा।         *    इसी तरह उस घर की दोनो बहुएँ यदि मेल मिला कर, विचार-विमर्श करके बायना दें तो तीनों ख़ुश रह सकते हैं। तब कटुता तो पास फटक भी नहीं सकती।     *      हम जो दें मन से दें, पसंद को देखते हुए दें। कपड़ों में भी, खाने में भी उपयोग में आने वाली चीज़ें दें ….जिसे पाकर हमारे बड़े प्रसन्नता का अनुभव करें। जब हम अपने लिए अपनी पसंद का सब कुछ लाते-खाते हैं तो बड़ों की पसंद का भी पूरा  ध्यान रखें। मिल कर मनाएं त्यौहार                पर्व-त्योहार पर कहीं बाहर जाने की योजना बनती है  और हम अपने सास-ससुर के साथ रहते हैं तो उन्हें शामिल किए बिना या उन्हें छोड़ कर कोई बाहर का कार्यक्रम न बने तो बेहतर होता है। त्योहार की रौनक़ साथ मिल कर मनाने में होती है, अलग होकर मनाने में केवल आत्मतुष्टि प्राप्त हो सकती है।संतोष और प्रसन्नता तो … Read more

करवाचौथ : एक चिंतन

   हमारा देश एक उत्सवधर्मी देश है। अपने संस्कारों, परम्पराओं, रीति-रिवाजों का संवाहक देश ! पूरे वर्ष कोई न कोई उत्सव, इसलिए पूरे वर्ष खुशियों का जो वातावरण बना रहता है उसमें डूबते-उतराते हुए जीवन के भारी दुःख उत्सवों के द्वारा मिलने वाली छोटी-छोटी खुशियों में बहुत हल्के लगने लगते हैं। यही है हमारे उत्सवों की सार्थकता।    प्रेम ! एक शाश्वत सत्य है। जहाँ प्रेम है वहां भावनाएँ हैं और जहाँ भावनाएँ हैं वहां उनकी अभिव्यक्ति भी होगी ही। मीरा, राधा ने कृष्ण से प्रेम किया। दोनों के प्रेम की अभिव्यक्ति भक्ति और समर्पण के रूप में हुई। प्रेम की पराकाष्ठा का भव्य रूप ! हनुमान ने राम से प्रेम किया तो सेवक के रूप में और सेवा भक्ति के रूप में अपने प्रेम को अभिव्यक्ति दी। लक्ष्मण को अपने भाई राम से इतना प्रेम था की उसकी अभिव्यक्ति के लिए वे आज्ञाकारी भाई बन, अपनी पत्नी को छोड़ कर राम के साथ वन गए  और भरत, उन्होंने अपने प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए त्याग का माध्यम चुना। तो इसका अर्थ ये हुआ की जहाँ प्रेम है, भावनाएँ हैं उनकी अभिव्यक्ति भी होनी उतनी ही आवश्यक है जितना जीवन में प्रेम का होना आवश्यक है।       जीवन में प्रेम है तो संबंध भी होंगे और हमारा देश संबंधों के मामले में बहुत धनी है। इतने संबंध, उनमें भरी ऊष्मा, ऊर्जा और प्रेम ! अपने पूर्वजों के प्रति आदर और श्रद्धा प्रकट करने के लिए श्राद्ध पर्व तो माँ का अपने बच्चों के प्रति प्रेम जीवित पुत्रिका,अहोई अष्टमी ,संकट चौथ व्रत, तो भाई -बहन के लिए रक्षाबंधन और भैयादूज और पति-पत्नी के प्रेम के लिए तीज और करवाचौथ। यहाँ तक कि गाय रुपी धन के  लिए भी गोवर्धन पूजा का विधान है।      इन संबंधों की, उत्सवों की सार-संभाल करने, उन्हें अपनी भावनाओं  से गूँथ कर पोषित करने में स्त्री की सबसे बड़ी भूमिका होती है। घर की लक्ष्मी कहलाती है इसी से घर के सभी व्यक्तियों के संबंधों को सहेजते हुए अपने प्रेम, त्याग, कर्तव्य से उन्हें ताउम्र संभाल कर रखती है। पति-पत्नी का सम्बन्ध, उनका प्रेम जितना खूबसूरत है उसका प्रतीक करवाचौथ का उत्सव भी उतना ही खूबसूरत है। सभी संबंध प्रतिदिन के है और उनमें प्रेम व भावनाओं की अभिव्यक्ति भी होती रहती है, पर उत्सवों के रूप में अपने प्रेम और भावनाओं की अभिव्यक्ति से इन्हें नवजीवन, ऊष्मा और ऊर्जा मिलती है और प्रेम जीवंत बना रहता है।उसी प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए पत्नी करवाचौथ का व्रत करती है।  एक-दो दिन पहले से ही उसकी तैयारियों में जुट जाती है, मेहंदी लगाती है, निराहार रह कर व्रत करती है। शाम को पूर्ण श्रृंगार करके अपनी सखी-सहेलियों के साथ व्रत की कथा सुनती है। पति और घर में अन्य सभी की पसंद का खाना बना कर चाँद के उदय होने की प्रतीक्षा करती है। रात को चलनी से चंद्र-दर्शन कर,अर्ध्य देकर, अटल सुहाग का वर मांगते हुए अपना व्रत खोलती है। बड़ों के पाँव छूकर, आशीर्वाद लेकर अपनी सास को, उनके न होने पर जिठानी की बायना देती है जिसमें श्रृंगार के सामान के साथ ड्राई फ्रूट्स, मिठाई और साड़ी और शगुन के रूप में कुछ रुपए भी होते हैं। इस दिन सुई से कुछ भी न सिलने का प्रावधान होता है। इसके पीछे शायद यह भावना हो कि सुई से सिलना मानो सुई चुभा कर पीड़ा देने के समान है, इसीलिए यह नियम बनाया गया होगा।       कहीं पर व्रत के दिन सुबह सरगी, विशेषकर पंजाबियों में, खाने का चलन है तो कहीं पूरी तरह निराहार रहकर व्रत करने का चलन है। कई स्त्रियां पूजा करते समय हर वर्ष अपने विवाह की साड़ी ही पहनती हैं तो कई हर बार नई साड़ी लेती हैं और अपने-अपने मन के विश्वास पर चलती हैं।       आज इस अटल सुहाग के पर्व का स्वरुप बदला-बदला लगने लगा है। फिल्मों और टी.वी.सीरियल्स ने सभी उत्सवों को ग्लैमराइज कर इतनी चकाचौंध और दिखावे से भर दिया है की उसमें वास्तविक प्रेम और भावनाओं की अभिव्यक्ति दबने सी लगी है। पहले प्रेम की अभिव्यक्ति मर्यादित और संस्कारित थी, अब इतनी मुखर है की कभी-कभी अशोभनीय हो जाती है। उपहार और वह भी भारी-भरकम हो, पहले से ही घोषित हो जाता है। व्रत से पहले खरीददारी होगी ही। बाज़ार ने अपने प्रभाव से संबंधों को भी बहुत हद तक प्रभावित करना शुरू कर दिया है। निराहार व्रत की कल्पना नई पीढ़ी को असंभव और पुरानी लगती है।खाना बाहर खाना है,उसके बाद फ़िल्म देखनी है आदि-आदि। और पर्व के बाद मुझे उपहार में यह मिला, तुम्हें क्या? और जिसे नहीं मिला वह सोच में रहेगी कि मैं तो यूँ ही रह गयी बिना उपहार के….       मैं यह नहीं कहती कि यह सब गलत है।सोचने की बात मेरी दृष्टि से सिर्फ इतनी है कि ग्लैमर और दिखावे की चकाचौंध में प्रेम और भावनाएँ कहीं पीछे छूटतीचली जा रहीं हैं और जो छूट रहा है उसकी ओर किसी का ध्यान क्यों नहीं जा रहा है? क्या यह बात समझनी इतनी कठिन है कि प्रेम और प्रेम की अभिव्यक्ति सार्वजानिक रूप से प्रदर्शन की चीज नहीं है और जिसका प्रदर्शन होता है वह वास्तविकता से कोसों दूर  केवल दिखावा है। शायद दिखावे का ये अतिरेक किसी दिन समझ में आए तो वही इन उत्सवों की सार्थकता होगी। ~~~~~~~~~~~~~~~~~डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई फोटो क्रेडिट – wikimedia से साभार यह भी पढ़ें … करवाचौथ पर विशेष

बेगम अख्तर- मल्लिकाएं-ए-ग़ज़ल को सलाम

मल्लिकाएं ग़ज़ल पदम् श्री और पदम् विभूषण से सम्मानित बेगम अख्तर का असली नाम अख्तरी बाई फैजाबादी था | वो भारत की प्रसिद्द ग़ज़ल व् ठुमरी गायिका थीं | जिनकी कला के  जादू ने सरहदें पार कर पूरे विश्व को अपनी स्वर लहरियों में बाँध लिया |इस साल ग़ज़ल की महान गायिका बेगम अख्तर की जन्मशती मनाई जा रही है | गूगल ने भी डूडल बना कर उनको सम्मानित किया है | ठुमरी की सम्राज्ञी बेगम अख्तर के जीवन के उतार चढाव के  बारे में बहुत कम लोग जानते हैं |आइये हमारे साथ कुछ करीब से जानते हैं बेगम अख्तर को … बेगम अख्तर का जीवन परिचय ___________________________ बेगम अख्तर का जन्म 7  अक्टूबर 1914 को उत्तरप्रदेश के फैजाबाद जिले में हुआ था |उनकी माता का नाम मुश्तरी बाई व् पिता का नाम असगर हुसैन था |उनके पिता वकील थे व् कहीं और शादी शुदा थे  | मुस्तरी बाई प्रसिद्द गायिका व् तवायफ थीं |जिन्हें उनके पिता ने दूसरी बेगम के रूप में अपनाया था | अपने स्वरों से रूहानी प्रेम को उत्पन्न करने वाली बेगम अख्तर अपनी माता – पिता के अलहदा प्रेम के फलस्वरूप अपनी जुड़वां बहन के साथ दुनिया में आई थीं | बेगम अख्तर का शुरूआती बचपन __________________________________ बेगम अख्तर का बचपन का नाम बिब्बी व् उनकी बहन का नाम जोहरा था | कहते हैं की दो बेटियाँ पैदा होने के बाद उनके पिता ने माँ व् बेटियों  को छोड़ दिया | उनकी माँ मुश्तरी बाई  बच्चियों के साथ संघर्ष मय जीवन जीने को अकेली रह गयीं | तभी दुःख का एक पहाड़ और टूटा | जब बच्चियों ने बचपन में ही भूल वश कुछ जहरीला खा लिया | बिब्बी तो बच गयीं पर जोहरा अल्लाह को प्यारी हो गयीं | अब बिब्बी अकेले ही माँ की जिम्मेदारी और माँ का सहारा बन गयीं | बचपन में चुलबुली थीं बेगम अख्तर ______________________________ जीवन संघर्ष कितना भी क्यों न हों पर बचपन की मासूमियम और चुलबुलापन बेगम अख्तर से कोई चुरा नहीं पाया | फूल तोड़ कर छुप जाना , तितलियाँ पकड़ना और शरारतें करना नन्ही  बिब्बी का शगल था | अलबत्ता पढाई में उनका मन नहीं लगता था | उनका मन लगता था ग़ज़ल और ठुमरी में जिसे वो घंटों सुना करती थीं |उनकी  माँ जरूर उन पर पढाई का दवाब बनाती पर बिब्बी कैसे न कैसे कर बच निकलती | एक बार तो उन्होंने मास्टर जी की चोटी ही काट ली | अब तो मुश्तरी बाई परेशांन  हों गयीं | उन्होंने बिब्बी से पूंछा तुम क्या करना चाहती हो | तो उन्होंने संगीत सीखने की इच्छा जाहिर की | हालांकि मुश्तरी बाई इसके पक्ष में नहीं थीं पर उनके चचा ने उनकी दिली ख्वाइश का साथ दिया और सात साल की उम्र में उनकी संगीत शिक्षा प्रारंभ  हो गयी | उन्होंने चन्द्राबाई थियेटर ज्वाइन किया | मामूली शिक्षित बेगम अख्तर का ग़ज़ल ठुमरी का ज्ञान आकाश की ऊँचाइयों की और बढ़ने लगा | बड़ा कठिन था बेगम अख्तर का शुरूआती सफ़र ______________________________________ बिब्बी ने गाना सीखना तो शुरू कर दिया | पर उनका शुरूआती सफ़र बहुत कठिन था |बेगम अख्तर पर किताब लिखने वाली रीता गांगुली ने एक जगह लिखा है की उनके गुरु ने गाना सीखाते समय कुछ गलत हरकत करने की कोशिश की |बेगम अख्तर ने उसका माकूल जवाब दिया | व् अन्य  छात्राओ को संगठित किया | सबने अपने दर्द बयान किये | फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी |  उन्होंने संगीत को कई उस्तादों से सीखा |  जब गुरु ने कहा मेरी बहादुर बिटिया हार नहीं मानेगी ——————————————————————– एक बार का वाकया  है की वो कोई सुर नहीं लगा पा रही थीं | गुरु बार – बार समझा रहे थे | पर उनसे सुर लग ही नहीं रहा था | आखिरकार वो रोने लगीं और बोली मैं कभी भी गाना नहीं सीख पाऊँगी | उनके गुरु ने उनको डाँटते हुए कहा बस अभी से हार मान गयी | फिर स्नेहपूर्ण शब्दों में बोले ,”मेरी बहादुर बिटिया हार नहीं मानेगी” | इन शब्दों का उन पर जादुई असर हुआ और वो फिर रियाज करने लगीं | तेरह साल की उम्र में बिब्बी अख्तरी बाई हो गयीं | इसी बीच उनका मन नाटकों की और आकर्षित हुआ | वो पारसी थियेटर से भी जुड़ गयीं | नाटक ज्वाइन करने के कारण उनके गुरु अता उल्ला खां उनसे नाराज़ हो गए | और उनसे कहा तुम नाटक करने लगी हो अब तुम संगीत नहीं सीख सकतीं | अख्तरी बाई ने गुरु से गुजारिश की ,कि वो एक बार आकर नाटक देख तो लें | फिर आप जो कहेंगे मै करुँगी |  गुरु अता उल्ला खान उनका नाटक देखने गए | वहां पर जब उन्होंने चल री मोरी नैया गाना गया तो गुरु की आँखों में आंसूं आ गए और वे बोले ,” तुम सच्ची अदाकारा हो | तुम चाहे जो करो तुम्हें आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता | हालांकि एक अकेली स्त्री होने के नाते उनका उनका उनका संघर्ष बहुत कठिन था | वह कई बार छेड़छाड़ की शिकार हुई | शोषण भी हुआ | उनके जीवन के यह दर्द भरे पन्ने बाद में कई मैगजींस में प्रकाशित हुए | संघर्ष कितने भी कठिन हों पर अख्तरी बाई ने हर संघर्ष से टकराकर नदी की तरह आगे बढ़ने की ठान ली और पीछे मुड  कर नहीं देखा | बेगम अख्तर की पहली स्टेज परफोर्मेंस ____________________________________________________ 15 साल की मासूम उम्र में बेगम अख्तर ने अख्तरी बाई फैजाबादी के नाम से पहली बार पहली बार स्टेज पर उतरीं | यह कार्यक्रम बिहार के भूकंप पीड़ितों के लिए कोलकाता में हुआ था | इसमें भारत कोकिला सरोजिनी नायडू भी आयीं थीं | कहतें हैं की उनकी आवाज़ में उनकी जिन्दगी भर का दर्द उतर आता था | ऐसा रूहानी माहौल बनता था की श्रोता मन्त्र मुग्ध हो जाते थे | उनको सामने से सुनने वाले बताते हैं की उनका गाना  सुनने के बाद न जाने कितनी आँखें भीग जाती थीं | फ़िल्मी  कैरियर की शुरुआत ________________________ बतौर अभिनेत्री बेगम अख्तर ने अपने फ़िल्मी कैरियर की शुरुआत फिल्म “ फिल्म एक दिन का बादशाह से की | फिल्म असफल रही | उनका कैरियर भी रुक … Read more

बनाए रखे भाषा की तहजीब

यूँ तो भाषा अभिव्यक्ति का एक माध्यम भर है |पर शब्द चयन , बोलने के तरीके व् बॉडी लेंग्वेज तीनो को मिला कर यह कुछ ऐसा असर छोडती है की या तो कानों में अमृत सा घुल जाता है या जहर | सारे रिश्ते बन्ने बिगड़ने की वजह भी ये भाषा ही है | कुछ बोलना ही नहीं सही तरीके से बोलना भी जरूरी है |           एक स्कूल टीचर होने के कारण सदा से बच्चो को ये पढ़ाती रही कि अच्छे शब्द और प्रेम भरी वाणी से आप न केवल खुद आनंदित होते हैं अपितु दूसरों को भी भावनाओं के सागर में डुबो देते हैं | सुबह के समय किसी के द्वारा चेहरे पर एक मीठी मुस्कान के साथ कहा गया “गुड मॉर्निंग “ एक ताज़ा हवा के झोंके की तरह पूरे दिन को सुगंधित  कर देता है | अक्सर सोचती हूँ क्या जाता है किसी का इतना सा कहने में जो किसी का दिन बना दे | पर हकीकत कुछ अलग ही है | क्या आपने कभी लोगों की भाषा पर ध्यान दिया है ? अभद्र और अश्लील भाषा का प्रयोग रोजमर्रा की जिंदगी का अंग बन गया है | बात –बात पर एक दूसरे को गाली देना एक लकाब  जैसा बन गया  है | पुरुष अनौपचारिक बातचीत करते समय अभद्र भाषा का प्रयोग बहुतायत से करते हैं | पर क्या ये सही  समाज का आइना है ?          गुस्सा ,तनाव या रोज़मर्रा की परेशानियाँ  कब नहीं थी| इनकी ढाल बना कर अभद्र भाषा के प्रयोग को सही नहीं सिद्ध किया जा सकता | मेरे विचार से तो इसमें घरों में पीढ़ी दर  पीढ़ी चली आ रही अभद्र भाषा के प्रयोग का योगदान हैं | बच्चा पहले घर से सीखता है | माता –पिता पहले शिक्षक होते  हैं | अगर वो सही भाषा का प्रयोग करेंगे तो बच्चे भी सही भाषा ही सीखेंगे |  मुझे एक वाकया याद आ रहा है | हमारे पड़ोस में एक भरा –पूरा परिवार रहता था | उस परिवार के मुखिया बात –बात पर अभद्र भाषा का प्रयोग करते थे |घर की छोटीबड़ी महिलाओं को भद्दी गालियाँ देकर आवाज़ लगाते थे | लगातार सुनते –सुनते एक दिन परेशान होकर मैं उनकी धर्मपत्नी से  पूँछ ही बैठी कि ऐसी भाषा आप के यहाँ क्यों बोली जाती है | वह बड़ी सरलता से हँसते हुए बोली “अरे छोड़ न ! टू क्यों टेंशन लेती है | इनकी तो आदत है हमारे घर में गालियाँ देकर ही बात की जाती है और कोई बुरा भी नहीं मानता | मैं उनका उत्तर सुन कर अवाक् रह गयी क्योंकि किसी संभ्रात परिवार में ऐसी वीभत्स  भाषा का प्रयोग नहीं किया जाता| नतीजा यह हुआ कि उनके घर में छोटे बड़े बच्चे जब भी आपस में  लड़ते तो एक दूसरे को जी भर के गालियाँ देते | मुझे तो भय लगने लगा कि उनकी आने वाली नस्ल भी अपनी तोतली जुबान में ऐसी ही गन्दी भाषा का प्रयोग करेगी …… “अले मम्मी टुम टो  बिकुल …..”     मेरा परिवार तेरा परिवार कह कर हम इस प्रकार की भाषा को उचित नहीं ठहरा सकते | मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है हमारी बात व्यवहार  का असर हमारे बच्चों पर ,और उनसे दूसरे बच्चों पर पड़ता है |  अभद्र भाषा किसी संक्रामक बिमारी की तरह बढती है | इसे अपने स्तर पर ही रोक लेना बहुत जरूरी है नहीं तो एक मछली पूरे तालाब को गन्दा करती  है की तर्ज़  पर  एक व्यक्ति की अभद्र भाषा पूरे समाज को प्रदूषित  कर सकती है |  समाज में   स्वस्थ और मिठास  से ओत –प्रोत  भाषा को संचालित करना हमारा परम कर्तव्य होना चाहिए | इसकी शुरुआत तो घर से ही हो सकती है | बात करते समय सभी का सम्मान करना चाहिए चाहे वो परिचित हो या अपरिचित | हम जब भी बोले शालीनता से बोले |यदि हम अच्छी भाषा का प्रयोग आज और अभी से करेंगे तो पायेंगे कि इसका  सुनहरा जादू पूरे समाज में खुशबू की तरह फ़ैल गया है |     गुस्से और तनाव को परे धकेलकर ,ठन्डे दिमाग से सोच समझ कर बातचीत का प्रयोग सुन्दर सभी व् शालीन भाषा में करे तो हमारे जीवन के मायने ही बदल जायेंगे और मुंह का जायका भी बदल जाएगा | भाषा के जादुई असर इ रिश्ते –नाते भी मज़बूत हो जायेंगे | याद रखिये अगर आपकी भाषा रोशोगुल्ला ( रसगुल्ला ) की तरह मीठी –मीठी हो तो देखिएगा लोग कैसे मखियों की तरह आप के आस –पास मंडराएंगे | क्यों न हम प्राण लें कि हम सदा मीठी वाणी का ही प्रयोग करेंगे  ,साथ ही धयान दे कि हमारे आस –पास कोई गलत भाषा का प्रयोग तो नहीं कर रहा है | अगर ऐसा है तो उसे प्यार से समझाए |और समझाइये की भाषा की कोयल और कौवे में फर्क होता है |सही तरीके से बोलेन ताकि रिश्तों में काँव  – कांव की जगह कुहू कुहू के मीठे स्वर गूंजे |  श्रीमती स .सेनगुप्ता  यह भी पढ़ें … अतिथि देवो भव – तब और अब आखिर हम इतने अकेले क्यों होते जा रहे हैं ? आज गंगा स्नान नहीं गंगा को स्नान करने की आवश्यकता है क्या आप जानते है की आप के घर का कबाड़ बढ़ा सकता है आप का अवसाद

‘अहिंसा’ के विचार से ही ‘जय जगत’ की अवधारणा साकार होगी!

गांधी जयंती व अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस (2 अक्टूबर) पर विषेष लेख  1) संयुक्त राष्ट्र संघ ने महात्मा गांधी के जन्मदिवस को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस घोषित किया है |   अहिंसा की नीति के जरिये विष्व भर में शांति के संदेष को बढ़ावा देने के महात्मा गांधी के योगदान को स्वीकारने के लिए ही ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ ने महात्मा गांधी के जन्मदिवस 2 अक्टूबर को विष्व भर में प्रतिवर्ष ‘अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय वर्ष 2007 में लिया गया। मौजूदा विष्व-व्यवस्था में अहिंसा की सार्थकता को स्वीकार करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा में भारत द्वारा रखे गये इस प्रस्ताव को बिना वोटिंग के ही सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया। इस प्रस्ताव को भारी संख्या में सदस्य देषों का समर्थन मिलना विष्व में आज भी गांधी जी के प्रति सम्मान और उनके विष्वव्यापी विचारों और सिद्धांतों की नीति की प्रासंगिकता को दर्षाता है। (2) आज मानव जाति को जय जगत के नारे को बुलन्द करने की आवश्यकता है:-  15 अगस्त, 1947 को महात्मा गाँधी के नेतृत्व में देश 300 वर्षों की अग्रेजों की गुलामी से आजाद हुआ था। भारतवासियों के हृदय में देशभक्ति की भावना गांधी जी ने भरी और फिर अंग्रेजों को भारत छोड़ने को उन्होंने ही विवश किया। इसके साथ ही सरदार पटेल ने भारत के 552 देशी राज्यों को अत्यन्त ही शान्तिपूर्वक समाप्त कर भारत को एक सुदृढ़ तथा संगठित राष्ट्र बनाया। भारत की आजादी से प्रेरणा लेकर विश्व के 54 देश अंग्रेजी साम्राज्य की गुलामी से आजाद हो गये थे। गाँधी जी ने अपने शिष्य विनोबा भावे से भारत देश के आजाद होते ही कहा था कि अभी तक हमारा लक्ष्य अंग्रेजी साम्राज्य की गुलामी से देश को आजाद करने के लिए ‘जय हिन्द’ के नारे को बुलन्द करना था। देश के आजाद होने के साथ ‘जय हिन्द’ का हमारा लक्ष्य पूरा हो गया है और अब हमें सारे विश्व को गरीबी, अन्याय, भूख, बीमारी, अशिक्षा तथा युद्धों से बचाने के लिए ‘जय जगत’ अर्थात ‘सारे विश्व की जय हो के’ नारे को बुलन्द करने के लिए कार्य करना है। (3) दो अरब तथा चालीस करोड़ बच्चों का भविष्य आज की समस्या:- 21वीं सदी के युग में व्याप्त विश्वव्यापी समस्याओं को समाप्त करने के लिए महात्मा गाँधी के विचारों को अमल में लाने की आवश्यकता है। महात्मा गाँधी भारत जैसे महान राष्ट्र को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराने के लिए उठ खड़े हुए थे और वह देश को आजादी दिलाने में सफल भी हुए। यदि महात्मा गाँधी इस युग में जीते होते तो वह हमारे ग्लोबल विलेज को गरीबी, अशिक्षा, आतंक, एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र को परमाणु शस्त्रों के प्रयोग की धमकियों तथा विश्व के दो अरब बच्चों के सुरक्षित भविष्य को सुनिश्चित करने के लिए जुझ रहे होते। महात्मा गाँधी ने महापुरूषों से प्रेरणा ली किन्तु अपने सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए देश की गुलामी की समस्या को हल किया। तथापि विश्व के 54 देशों को गुलामी से मुक्त होने की ऊर्जा तथा विश्वास दिया। (4) ‘जय जगत’ की भावना से ही पूरे विश्व में ‘एकता एवं शांति की स्थापना संभव:- संत विनोबा भावे से किसी ने पूछा कि दो राष्ट्रों के बीच झगड़ा होने से कोई एक राष्ट्र हारेगा तथा कोई एक राष्ट्र जीतेगा। सारे जगत की जीत कैसे होगी? बच्चों के सुरक्षित भविष्य की खातिर यदि विश्व के सभी देश यह बात हृदय से स्वीकार कर लें कि आपस में युद्ध करना ठीक नहीं है तो सारे विश्व में ‘जय जगत’ हो जायेगा। अर्थात यदि दो राष्ट्र मिलकर ‘जय जगत’ की भावना से आपसी परामर्श करें तो किसी एक की हार-जीत नहीं वरन् दोनों की जीत होगी। इस प्रकार प्रत्येक राष्ट्र को सारे विश्व में ‘जय जगत’ की भावना के अनुरूप एकता एवं शांति की स्थापना के लिए अपने-अपने राष्ट्रीय हितों के साथ ही सारे विश्व के देशों के हितों को ध्यान में रखकर भी संयुक्त राष्ट्र संघ को शक्ति प्रदान कर विश्व संसद के रूप में विकसित करना होगा। (5) महात्मा गांधी ने विष्व में वास्तविक शांति की स्थापना के लिए बच्चों को सबसे सषक्त माध्यम बताया:- राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का मानना था कि विष्व में वास्तविक शांति लाने के लिए बच्चे ही सबसे सषक्त माध्यम हैं। उनका कहना था कि ‘‘यदि हम इस विश्व को वास्तविक शान्ति की सीख देना चाहते हैं और यदि हम युद्ध के विरूद्ध वास्तविक युद्ध छेड़ना चाहते हैं, तो इसकी शुरूआत हमें बच्चों से करनी होगी।’’ इस प्रकार महात्मा गाँधी के ‘जय जगत’ के सपने को साकार करने के लिए हमें प्रत्येक बच्चे को बाल्यावस्था से ही भौतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक तीनों की संतुलित षिक्षा के साथ ही सार्वभौमिक जीवन-मूल्यों की शिक्षा देकर उन्हें ‘विश्व नागरिक’ बनाना होगा। (6) गांधी जी ने आधुनिक विष्व की समस्याओं के लिए एक स्वतंत्र राष्ट्रों की महासंघ की वकालत की:-  गांधी जी का कहना था कि भविष्य में शांति, सुरक्षा और निरन्तर प्रगति के लिए संसार के सभी स्वतंत्र राष्ट्रों को एक महासंघ की आवश्यकता है, इसके अलावा आधुनिक विश्व की समस्याओं को हल करने का कोई अन्य माध्यम नहीं है। एक ऐसे ही विश्व महासंघ के द्वारा उसके घटक देशों की स्वतंत्रता, एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र पर किये जाने वाले आक्रमण एवं शोषण से बचाव, राष्ट्रीय मंत्रालयों की सुरक्षा, सभी पिछड़े क्षेत्रों एवं लोगों की उन्नति, विकास एवं सम्पूर्ण मानव जाति की भलाई के लिए विश्व भर के संसाधनों के एकत्रीकरण जैसे कार्य सुनिश्चित किये जाने चाहिए। (7) सारा संसार एक नवीन विश्व-व्यवस्था की ओर बढ़ रहा है:- आज जब हम महात्मा गांधी के जीवन तथा शिक्षाओं को याद करते हैं तो हम उनके सत्यानुसंधान एवं विश्वव्यापी दृष्टिकोण के पीछे अपनी प्राचीन संस्कृति के मूलमंत्र ‘उदारचारितानाम्तु वसुधैव कुटुम्बकम्’ (अर्थात पृथ्वी एक देश है तथा हम सभी इसके नागरिक है) को पाते हैं। इन मानवीय मूल्यों के द्वारा ही सारा संसार एक नवीन विश्व सभ्यता की ओर बढ़ रहा है। गांधी जी ने भारत की संस्कृति के आदर्श उदारचरित्रानाम्तु वसुधैव कुटुम्बकम् को सरल शब्दों में ‘जय जगत’ (सारे विश्व की भलाई अर्थात जीत हो) के नारे के रूप में अपनाने की प्रेरणा अपने प्रिय शिष्य संत विनोबा भावे को दी जिन्होंने इस शब्द का व्यापक प्रयोग कर आम लोगों में … Read more

पैसा बहुत कुछ है लेकिन सब कुछ नही

वर्तमान मनुष्य पैसे के लिए पागल हुआ घूम रहा है| जिसे देखो अधिक से अधिक पैसा कमाकर अमीर बनने और अपने जीवन को अधिक सुविधायुक्त बनाने की धमाल चौकड़ी में लगा हुआ है | ये प्रवृत्ति आज के युवाओं की मानसिकता का एक हिस्सा है और हो भी क्यों न क्योंकि हम उन्हें बचपन से ही ये सिखाते है बेटा अच्छा पड़ेगा तो अच्छी नौकरी लगेगी ,अच्छी नौकरी लगेगी तो अच्छा पैसा मिलेगा, अच्छा पैसा मिलेगा तो जीवन में अच्छी सुविधाएं आएँगी, बस फिर तो लाइफ सेट है| ये पाठ आज के हर माता पिता अपने बच्चे को पढ़ाने में लगे है | माता-पिता वो सब काम अपने बच्चों से करवाना चाहते है जिन्हें करने में वे स्वयं असफल रहे है |  महाभारत की एक घटना याद आती है |एक दिन धृतराष्ट बहुत दुखी बैठा था क्योंकि दुर्योधन ने भरी सभा में साफ़ कह दिया था की वो सुई की नोक के बराबर की भूमि भी पांडवों को नही देगा तब विदुर ने धृतराष्ट से पूछा भैया पांडव और कौरव एक ही वंश के है ,उनके गुरु भी एक ही है जिनसे उन्होंने शिक्षा पायी है और हम भरतवंशियों ने उनमे बिना भेदभाव किये दोनो को ही समान स्नेह और प्रेम दिया है फिर भी पांडव इतने विनम्र और सदाचारी जबकि दुर्योधन इतना अहंकारी और क्रोधी है| ऐसा क्यों है तब धृतराष्ट ने जो उत्तर दिया वास्तव में वो बहुत महत्वपूर्ण है |उसने कहा दुर्योधन मेरी महत्वाकांक्षाओं का प्रतिबिम्ब है जो मैं अपने जीवन में हांसिल नही कर पाया वो मै हमेशा दुर्योधन से प्राप्त करवाना चाहता था |मैंने उसे अपनी अपूर्ण महत्वाकांक्षाओं का विष पिला–पिला कर पाला है | आज के माता-पिता की स्थिति भी ये ही है | मनुष्य धन संगृह के लिए रोज़ नई-नई तिकड़म लगाता रहता है| जिसमे उसके जीवन का एक बढ़ा भाग खो जाता है| पैसे के लिए वो अपने परिवार और रिश्तेदारों से कटता चला जाता है| उसे मालुम ही नही पढता की समय कैसे निकल गया जब उसे होश आता है तब तक उसके अपने उसके लिए अपनापन खो चुके होते है | इसका मतलब ये बिलकुल भी नही है की पैसे का संगृह नही किया जाए| पैसे का संगृह किया जाना चाहिए लेकिन ज़रुरत से ज्यादा किसी भी वस्तु का संगृह दुखदायी ही होता है| एक समय था जब एक कमाता था और दस खाते थे मोटा कपड़ा पहनते थे और सब बड़े ही प्रेमभाव से जीवन जीते थे| हाँ घर में सुविधाओं की वस्तुं का आभाव था | लेकिन मानसिक शांति थी छिनझपट जैसी मानसिकता के कुछ ही उदाहरण मिलते थे| पिता के बाद परिवार में बढ़े भाई को बाप के समान दर्जा दिया जाता था और भाभी मां की भूमिका अदा करती थी| मां भूखी सो जाती थी लेकिन अपने बच्चों को रोटी खिलाती थी| विपत्ति के समय में पिता बेटे के कंधे पर हाथ रखता और कहता की सब ठीक जो जायेगा लोग एक दुसरे से जुढ़े हुए थे| हाँ पैसा तो इतना नही होता था लेकिन जीवन आसानी से एवं शांति से बसर हो जाता था | पैसे से ही परिवार और व्यक्ति सुखी हो सकता है यह सत्य नही है | इस संसार में ऐसे अनेक मनुष्य थे जिनकी जेब में एक पैसा नहीं था या कहें जिनकी जेब ही नहीं थी, फिर भी वे धनवान थे और इतने बड़े धनवान कि उनकी समता दूसरा कोई नहीं कर सकता। वैसे भी जिसका शरीर स्वस्थ है, हृदय उदार है और मन पवित्र है, यथार्थ में वही बड़ा धनवान है। स्वस्थ शरीर चाँदी से कीमती है, उदार हृदय सोने से मूल्यवान है और पवित्र मन की कीमत रत्नों से अधिक है। जिसके पास पैसा नहीं, वह गरीब कहा जायगा, परन्तु जिसके पास केवल पैसा है, वह उससे भी अधिक कंगाल है। क्या आप सद्बुद्धि और सद्गुण को धन नहीं मानते? अष्टावक्र आठ जगह से टेड़े थे और गरीब थे, पर जब जनक की सभा में जाकर अपने गुणों का परिचय दिया तो राजा उनका शिष्य हो गया। द्रोणाचार्य जब धृतराष्ट्र के राज दरबार में पहुँचे, तो उनके शरीर पर कपड़े भी न थे, पर उनके गुणों ने उन्हें राजकुमारों के गुरु का सम्मान पूर्ण पद दिलाया। हम कह सकते है कि यदि व्यक्ति पैसे कि हाय को छोड़कर अपने जीवन को सादगी एवं सरलता से जीये तो वो जीवन को मानसिक शांति के साथ ढंग से जी सकता है जिसका आज चहुंओर आभाव दिखाई देता है सारे मत पंथ, धर्म शास्त्र ये कहते नही थकते की जीवन में कितना भी धन, सम्पत्ति, पुत्र, परिवार इकट्ठा कर लो लेकिन एक दिन खाली हाथ ही जाना पढ़ता है तो क्यों न मैं धन संगृह की बेकार मजदूरी से दूर होकर ऐसा काम करूं जिसका फल और यश में अपने साथ ले जा सकूं | एक बार सोचियेगा ज़रूर………………………. पंकज ‘प्रखर’ कोटा राज. यह भी पढ़ें …………….. घुटन से संघर्ष की ओर धन उपार्जन और आपका विवेक खराब रिजल्ट आने पर बच्चों को कैसे रखे पोजिटिव सफल व्यक्ति – आखिर क्या है इनमें ख़ास

दशहरा-असत्य पर सत्य की विजय का पर्व

दशहरा हमारे देश का एक प्रमुख त्योहार है।  इसे असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है। इसीलिये इस दशमी को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। (1) दशहरा पर्व हर्ष और उल्लास का त्योहार है:- दशहरा हमारे देश का एक प्रमुख त्योहार है। अश्विन (क्वार) मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को इसका आयोजन होता है। भगवान राम ने इसी दिन रावण का वध किया था। इसे असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है। इसीलिये इस दशमी को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। इस दिन जगह-जगह मेले लगते हैं तथा रामलीला का आयोजन होता है। रावण का विशाल पुतला बनाकर उसे जलाया जाता है। यह हर्ष और उल्लास तथा विजय का पर्व है। व्यक्ति और समाज में सत्य, उत्साह, उल्लास एवं वीरता प्रकट हो इसलिए दशहरे का उत्सव रखा गया है। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों-काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है। दशहरे का सांस्कृतिक पहलू भी है। भारत कृषि प्रधान देश है। जब किसान अपने खेत में सुनहरी फसल उगाकर अनाज रूपी संपत्ति घर लाता है तो इस प्रसन्नता के अवसर को वह भगवान की कृपा मानता है और उसे प्रकट करने के लिए वह उनका पूजन करता है। (2) दशहरा पर्व का सन्देश है कि अहंकार के मद में चूर व्यक्ति का अंत बुरा होता है:- इस दिन भगवान राम ने राक्षस रावण का वध कर माता सीता को उसकी कैद से छुड़ाया था और सारा समाज भयमुक्त हुआ था। इस दिन कुछ लोग शारीरिक आरोग्यता तथा आध्यात्मिक विकास के लिए व्रत एवं उपवास करते हैं। कई स्थानों पर मेले लगते हैं। रामलीला का आयोजन भी किया जाता है। दशहरा अथवा विजयादशमी राम की विजय के रूप में मनाया जाए अथवा दुर्गा पूजा के रूप में, दोनों ही रूपों में यह हर्ष, उल्लास तथा विजय का पर्व है। देश के कोने-कोने में यह विभिन्न रूपों से मनाया जाता है, बल्कि यह उतने ही जोश और उल्लास से दूसरे देशों में भी मनाया जाता है जहां प्रवासी भारतीय रहते हैं। यह दिन हमें प्रेरणा देता है कि हमें अंहकार नहीं करना चाहिए क्योंकि अंहकार के मद में डूबा हुआ व्यक्ति एक दिन अवश्य असफल हो जाता है। रावण चारों वेदों का ज्ञाता और महावीर व्यक्ति था परन्तु उसका अंहकार ही उसका तथा उसके कुटुम्ब के विनाश कारण बना। यह त्योहार जीवन को हर्ष और उल्लास से भर देता है, साथ ही यह जीवन में कभी अंहकार न करने की प्रेरणा भी देता है। रोशनी का त्योहार दीवाली, दशहरा के बीस दिन बाद मनाया जाता है। किसी ने सही ही कहा है कि बुराई का होता है विनाश, दशहरा लाता है उम्मीद की आस। (4) राम के समक्ष सबसे बड़ा संकट कब पैदा हुआ?  पिता की पहली आज्ञा सुनकर राम आनंदित हो गये कि मुझे अपने पूज्य पिता जी की आज्ञा पालन करने का सुअवसर प्राप्त होने के साथ ही साथ मुझे वन में संत-महात्माओं के दर्शन करने एवं उनके प्रवचन सुनकर अपने जीवन में प्रभु की आज्ञाओं के जानने का सुअवसर मिलेगा तथा मुझे ईश्वर की आज्ञाओं का ज्ञान होगा एवं उन पर चलने का अभ्यास करने का सुअवसर प्राप्त होगा। किन्तु पिता की दूसरी आज्ञा सुनकर कि प्रिय राम तुम वन में न जाओ और यदि तुम वन गये तो मैं प्राण त्याग दूँगा। इससे राम के मन में द्वन्द्व उत्पन्न हो गया कि पिता की इन दो आज्ञाओं में से किस आज्ञा को माँनू? क्या करूँ, क्या न करूँ? मैं पिता की पहली आज्ञा मानकर वन में जाऊँ या पिता की दूसरी आज्ञा मानकर और वन न जाकर अयोध्या का राजा बन जाऊँ? (5) राम का संकट कैसे दूर हुआ?  राम ने अपने ऊपर आये इस संकट की घड़ी में हाथ जोड़कर परम पिता परमात्मा से प्रार्थना की और पूछा कि मैं क्या करूँ? पिता की पहली आज्ञा माँनू या दूसरी? राम को परमात्मा से उत्तर मिल गया। परमात्मा ने राम से कहा, तू तो मनुष्य है और हमने मनुष्य को विचारवान बुद्धि दी है। मनुष्य उचित-अनुचित का विचार कर सकता है। मनुष्य यह विचार कर सकता है कि मेरे किसी भी कार्य का अंतिम परिणाम क्या होगा? पशु यह विचार नहीं कर सकता। क्या तू अपनी विचारवान बुद्धि का प्रयोग करके उचित और अनुचित का निर्णय नहीं कर सकता? राम का द्वन्द्व उसी पल दूर हो गया। राम को यह विचार आया कि यदि राजा दशरथ के वचन की मर्यादा का पालन करने के लिए मैं वन में न गया तो पूरे समाज में चर्चा फैल जायगी कि राजा अपने वचन से मुकर गया है। एक राजा के इस अमर्यादित व्यवहार के कारण समाज अव्यवस्थित हो जायगा। अतः मुझे वन अवश्य जाना है। (6) दशरथ तथा राम की सोच में क्या अंतर था?  राम ने प्रभु इच्छा को जानकर दृढ़तापूर्वक वन जाने का निर्णय कर लिया। राम ने यह निर्णय इस आधार पर लिया कि यदि राजा की 14 वर्ष वन जाने की आज्ञा के पालन तथा वचन की लाज एक बेटा नहीं रखेगा तो समाज में क्या सन्देश जायेगा? परमात्मा द्वारा निर्मित मानव समाज परमपिता परमात्मा का अपना निजी परिवार है तथा इस सृष्टि के सभी मनुष्य उसकी संतानें हैं। मित्रों, आप देखे, दशरथ की दृष्टि अपने प्रिय पुत्र के प्रति अगाध भौतिक प्रेम व अति मोह एवं स्वार्थ से भरी होने के कारण उनका राम को कई तरीके से वन न जाने की सीख देना तथा यदि फिर भी राम वन चले जाय तो प्राण त्यागने तक का निर्णय कर लेना परमात्मा एवं उसके समाज के व्यापक हितों के विरूद्ध है। वहीं दूसरी ओर उनके बेटे राम की दृष्टि आध्यात्मिक होने के कारण पिता की अतिवेदना की बिना परवाह किये हुए ही उनका वन जाने का निर्णय समाज को मर्यादित होने की सीख देने वाला था। मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने अपने जीवन से समाज को यह सीख दी कि मानव की एक ही मर्यादा या धर्म या कत्र्तव्य है कि यदि अपनी और अपने पिता की इच्छा और परमात्मा की इच्छा एक है तो उसे मानना चाहिये किन्तु यदि हमारी और हमारे शारीरिक पिता की इच्छा एक हो … Read more

गुरु कीजे जान कर

गुरु कीजिये जानी के , पानी पीजे छानी ,  बिना विचारे गुरु करे , परे चौरासी खानी ||                                                         कबीर दास किरण सिंह  गुरु नहीं बहुरूपिये करते हैं संत परंपरा को बदनाम  कभी-कभी मनुष्य की परिस्थितियाँ इतनी विपरीत हो जाती हैं कि आदमी का दिमाग काम करना बंद कर देता है और वह खूद को असहाय सा महसूस करने लगता है ! ऐसे में उसे कुछ नहीं सूझता ! निराशा और हताशा के कारण उसका मन मस्तिष्क नकारात्मक उर्जा से भर जाता है! ऐसे में यदि किसी के द्वारा भी उसे कहीं छोटी सी भी उम्मीद की किरण नज़र आती है तो वह उसे ईश्वर का भेजा हुआ दूत या फिर ईश्वर ही मान बैठता है ! ऐसी ही परिस्थितियों का फायदा उठाया करते हैं साधु का चोला पहने ठग और उनके चेले ! वे मनुष्य की मनोदशा को अच्छी तरह से पढ़ लेते हैं और ऐसे लोगों को अपनी मायाजाल में फांसने में कामयाब हो जाते हैं ! ये बहुरूपिये हमारी पुरातन काल से चली आ रही संत समाज को बदनाम कर रहे हैं ! संत हमेशा से ही सुख सुविधाओं का स्वयं त्यागकर योगी का जीवन जीते हुए मानव कल्याण हेतु कार्य करते आये हैं! माता सीता भी वन में ऋषि के ही आश्रम में पुत्री रूप में  रही थीं ! आज भी कुछ संत निश्चित ही संत हैं लेकिन ये बहुरूपिये लोगों की आस्था के साथ इतना खिलवाड़ कर रहे हैं कि अब तो किसी पर भी विश्वास करना कठिन हो गया है !  गुरु पर मेरा निजी अनुभव  आज से करीब उन्तीस वर्ष पूर्व मुझे भी एक संत मिले जो झारखंड राज्य , जिला – साहिबगंज, बरहरवा में पड़ोसी के यहाँ आये हुए थे! मुझे तब भी साधु संत ढोंगी ही लगते थे इसीलिए मैं उनसे पूछ बैठी..  बाबा  किस्मत का लिखा तो कोई टाल नहीं सकता फिर आप क्या कर सकते हैं ? तो गुरू जी ने बड़े ही सहजता से कहा कि भगवान राम ने भी शक्ति की उपासना की थी…  जैसे तुमने दिया में घी तो भरपूर डाला है लेकिन आँधी चलने पर दिया बुझ जाता है यदि उसका उपाय न किया जाये तो ! जीवन के दिये को भी आँधियों से बचा सकतीं हैं ईश्वरीय शक्तियाँ! फिर मैंने पूछा कि हर माता पिता की इच्छा होती है कि अपने बच्चों की शादी विवाह करें आप अपने माता-पिता का तो दिल अवश्य ही दुखाए होंगे न इसके अतिरिक्त साधु बनना तो एक तरह से अपने सांसारिक कर्तव्यों से पलायन करना ही हुआ न!  इसपर उन्होंने बस इतना ही कहा कि मेरी माँ सौतेली थी!  इस प्रकार का कितने ही सवाल मैनें दागे और गुरू जी ने बहुत ही सहजता से उत्तर दिया!  सच्चे गुरु भौतिक सुखों से दूर रहते हैं  गुरू जी खुद कोलकाता युनिवर्सिटी में इंग्लिश के हेड आफ डिपार्टमेंट रह चुके थे लेकिन साधु संतों की संगति में आकर उनसे प्रभावित हुए और भौतिक सुख सुविधाओं का त्याग कर योगी का जीवन अपना लिये थे!  कभी-कभी गुरु आश्रम के महोत्सव में हम सभी गुरु भाई बहन सपरिवार पहुंचते थे जहाँ हमें एक परिवार की तरह ही लगता था! सभी को जमीन पर दरी बिछाकर एक साथ खाना लगता था ! गुरु जी भी सभी के साथ ही खाते थे ! बल्कि कभी-कभी तो सभी के थाली में कुछ कुछ परोस भी दिया करते थे! वे स्वयं को भगवान का चाकर ( सेवक ) कहते थे खुद को भगवान कहकर कभी अपनी पूजा नहीं करवाई ! बल्कि कोई बीमार यदि अपनी व्यथा कहता तो उसे डाॅक्टर से ही मिलने की सलाह दिया करते थे!  तब उनका आश्रम बंगाल के साइथिया जिले में एक कुटिया ही था जिसे कुछ अमीर गुरु भाई बहन खुद बनवाने के लिए कहते थे लेकिन गुरु जी मना कर दिया करते थे! बल्कि गरीब गुरु भाई बहनों के बेटे बेटियों की शादी में यथाशक्ति मदद करवा दिया करते थे हम सभी से ! अब तो गुरू जी की स्मृति शेष ही बच गई है!  गुरु कीजे जान कर                                                                     लिखने का तात्पर्य सिर्फ़ इतना है कि किसी एक के खराब हो जाने से उसकी पूरी प्रजाति तथा विरादरी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता !आवश्यकता है अपने दिमाग को प्रयोग करने की , सच और झूठ और पाप पुण्य की परिभाषा समझने की , स्वयं को दृढ़ करने की !  कोई मनुष्य यदि स्वयं को ईश्वर कह रहा है तो वह ठगी कर रहा है! हर मानव में ईश्वरीय शक्तियाँ विराजमान हैं आवश्यकता है स्वयं से साक्षात्कार  की! यह भी पढ़ें … रोहिंग्या मुसलमानों का समर्थन यानी तुष्टिकरण का मानसिक कैंसर वाद चमत्कार की तलाश में बाबाओं का विकास फेसबुक -क्या आप दूसरों की निजता का सम्मान करते हैं ? टाइम है मम्मी

रोहिंग्या मुसलमानों का समर्थन यानी तुष्टिकरण का मानसिक कैंसरवाद

रंगनाथ द्विवेदी। जौनपुर(उत्तर-प्रदेश) आज म्याँमार से भगाये गये लाखो लाख रोहिंग्या मुसलमान इतने शरीफ़ और साधारण नागरिक वहाँ के नही रहे,अगर रहे होते तो उन्हें आज इस तरह के हालात से दो-चार न होना पड़ता और उन्हें सेना लगाकर जबरदस्ती वहाँ से न निकाला गया होता।वहाँ के अमन चैन के जीवन मे ये आतंकियो की तरह अंदर ही अंदर एक दूषित इस्लाम( इस्लामी आतंकवाद ) का बारुद बिछाना शुरु कर दिये थे जिसकी परिणति या प्रतिफल उन्हें इस तरह भुगतना पड़ रहा हैं । चार लाख के करीब रोहिंग्या आज बांग्लादेश के शिविरो मे भयावह शरणार्थियो की तरह पड़े हुये है,जबकि बांग्लादेश की खुद की जनसंख्या की एक चौथाई के करीब संख्या तथाकथित रुप से भारत के अधिसंख्य राज्यो मे चोरी-छिपे रह रहे है।या किसी राज्य विशेष मे तथाकथित राजनैतिक पार्टी ने इन्हें इस देश की संम्मानित नागरिकता भी दिलवा दी है “एैसे महान राज्य की लिस्ट मे एक सर्वोपरि राज्य बंगाल यानि कि कोलकाता है जहाँ की मुख्यमंत्री को महज ममता बनर्जी कहना न्यायोचित न होगा—उन्होनें बंगाल को राज्य नही अपितु एक बारुद बना रंखा है जो दंगे के रुप मे अक्सर फटता रहता है”। इन्हीं महान मुख्यमंत्री के कारण——“आज बंगाल आई.यस.आई.यस(I S I S) जैसी आतंकी संस्था का खूनी इराक लगने लगा है”। आज चालीस हजार रोहिंग्या मुसलमान बिना किसी आधिकारिक बीजा के हमारे देश मे चोरी-छिपे घुस आये है,जबकि हमारे देश की खुफिया एजेन्सी लगातार ये कह रही है कि इन्हें किसी भी तरह देश मे शरण न दिया जाये—-ये देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये खतरनाक है,क्योंकि एैसे तमाम सबूत व प्रमाण मिले है कि ये आतंकी ट्रैनिंग के साथ आतंकी गतविधियो में भी संलिप्त रहे है।इनका संबंध पाकिस्तान व इराक के आतंकी संगठनो से भी है,हमारे देश की वर्तमान सरकार भी इन्हें शरण देने को तैयार नही यहाँ तलक कि हमारे गृहमंत्री आदरणीय राजनाथ सिंह ने दो टूक व स्पष्ट कहाँ है कि हम इन्हें कतई अपने यहाँ शरण नही देंगे और आशा करते है कि हमारा सुप्रीम न्यायालय भी इस बात को समझेगा। इस सबके बावजूद हमारे देश के तथाकथित मुसलमान मुस्लिम तुष्टिकरण की उनकी जो कैंसरवादी सोच है उसी के तहत वे रोहिंग्या मुसलमानो को सह व संरक्षण देने की पुरजोर वकालत कर रहे है।इतना ही नही कल तो कोलकाता के एक मुसलमान मौलवी ने तो हद ही कर दी और इस हद को अगर पुरी दुनिया मे कोई देश इस बहादुरी और निर्लज्जता से बर्दाश्त कर सकता है तो वे एकलौता देश हमारा भारत है,यहाँ अभिव्यक्ति की आजादी की पराकाष्ठा ये है कि—–“भारत माँ को गाली देकर भी सगर्व रहा जा सकता है”। कल कोलकाता के मौलवी ने बड़ी बहादुरी के साथ कहाँ कि—“रोहिंग्या महज़ मुसलमान नही हमारे भाई है इस दुनिया मे कही भी रह रहा मुसलमान पहले मुसलमान है क्योंकि उसका हमारा कुरान एक है,उसका रसुल हमारा रसुल एक है इंशा अल्लाह हम इनकी खातिर लाखो गरदने काट देंगे”।अघोषित रुप से उसने गुजरात के पूर्व-मुख्यमंत्री और भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सीधे तौर पे कहाँ कि—“ये तुम्हारा गुजरात नही बंगाल है जहाँ हजारो मुसलमान लाखो हिन्दुओ का कत्लोगारद कर सकते है”। इस अभिव्यक्ति से स्पष्ट लगा कि जैसे बंगाल भारत का राज्य नही अपितु एक शत्रु राष्ट्र हो इनके समर्थन मे बोल रहे कुछ आस्तीन के जहरिले साँपो ने राष्ट्रवादी मुसलमानो की जमात को शर्मिंदा किया है—“काश हमारा देश एैसे जहरिले मुसलमान साँपो का उन्मूलन कर पाता”।इन मुसलमानो को रोहिंग्या का मुसलमान दिख रहा है जो बाहर देश से जबरदस्ती हमारे देश मे घुस आये है,इनके लिये ये अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार की बात कर रहे कोर्ट मे इनके लिये पैरवी व इनके पक्ष मे वकील करके तमाम गैर-जिम्मेदाराना दलीले दी जा रही। जबकि हमारे अपने ही देश मे तमाम कश्मीरी पंडित आज कई सालो-साल से अत्यंत कष्टदायी और भयावह जीवन शरणार्थी शिविरो में जीने को बाध्य है जिन्हें आज भी ये आस और उम्मीद है कि वे एकदिन फिर अपने पुरुखो के उस कश्मीर मे पहले की तरह रह पायेंगे।इनके लिये मानवाधिकार गौण है,इनके लिये किसी मुस्लिम संगठन के होंठ नही खुलते। मुझे ये नही समझ आता कि आखिर हम क्यू एैसे बेवफ़ा और गद्दार रोहिग्या मुसलमानो को झेले जिन्हें अपने इस मादरे वतन की मिट्टी से मोहब्बत नही,ये सच है कि—“एैसे भी हमारे मुल्क मे मुसलमान है जो हमारे हिन्दुतान के माथे पे कोहिनूर की तरह चमकते है जिन्हें हमारी हर साँस सलाम करती है”।मुझे बखूबी एक मुसलमान शायर कि लिखि वे एक लाइन अब तलक याद है जिसमें वे कहता है कि मेरी आखिर ख्वाहिश है कि—“मुझे कुछ मत देना,चादर,चराग,उर्स,कौवाली हाँ अगर मुझसे जरा भी मोहब्बत करना तो—-मेरी कब्र के सिरहाने मुट्ठी भर मेरे वतन की मिट्टी रख देना”।लेकिन आज हालत ये है कि हम रफ्ता-रफ्ता कहाँ से कहाँ पहुँच गये सच तो ये है कि—–“ रोहिंग्या मुसलमानो का समर्थन तथाकथित मुसलमानो   गलिज़ सोच का एक भयावह मानसिक कैंसरवाद है”। यह भी पढ़ें ………. अलविदा प्रद्युम्न – शिक्षा के फैंसी रेस्टोरेंट के तिलिस्म में फंसे अनगिनत अभिवावक जिनपिंग हम ढाई मोर्चे पर तैयार हैं आइये हम लंठों को पास करते हैं शिवराज सिंह चौहान यानी मंदसौर का जनरल डायर पोस्ट में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं | अटूट बंधन संपादक मंडल का इनसे सहमत होना जरूरी नहीं है |

चमत्कार की तलाश में बाबाओ का विकास

वंदना बाजपेयी डेरा सच्चा सौदा के राम – रहीम की गिरफ्तारी के बाद जिस तरह से भीड़ पगलाई और उसने हिंसा व् आगजनी का सहारा लिया |उससे तो यही लगता है की बाबा के भक्त आध्यात्मिक तो बिलकुल नहीं थे | आध्यात्म तो सामान्य स्वार्थ से ऊपर उठना सिखाता है | आत्म तत्व को जानना सिखाता है | जो सब में मैं की तलाश करता है वो तो चींटी को भी नहीं मार सकता |फिर इतनी हिंसा इतनी आगज़नी |  इस बात की परवाह नहीं की जिसे हिंसा की भेंट चढ़ाया जा रहा है उससे उनकी कोई निजी दुश्मनी भी नहीं है | ये आध्यत्मिक होना नहीं आतंक फैलाना है | अपनी बात शांति पूर्वक रखने के कई तरीके थे | पर भीड़ ने वो तरीका अपनाया जो अनुयायी होने के आवरण के अंदर सहज रूप से उसके रक्त में प्रवाहित था | हिंसा क्रोध और उन्माद का | आज उन तमाम बाबाओं पर अँगुली उठ गयी है जो आध्यात्म का नाम ले कर अपनी दुकाने चला रहे हैं | वो दुकाने जो धीरे – धीरे उनकी सत्ता में परिवर्तित हो जाती हैं | जहाँ “ नेम , फेम और पावर का गेम चलता है |  प्रश्न ये उठता है की सब समझते हुए सब जानते हुए आखिर लोग क्यों इन बाबाओं के अनुयायी बन जाते हैं | सच्चाई ये है की इन बाबाओं की दुकानों पर जाने वाला आम आदमी एक डरा हुआ कमजोर आदमी है | जी हाँ , ये डरे हुए आम आदमी जिनमें खुद अपनी समस्याओं के समाधान की हिम्मत नहीं हैं | तलाशते हैं कोई बाबा कोई , संत कोई फ़कीर , जो कर दे चमत्कार , चुटकियों में हो जाए हर समस्या का सामाधान …  हो जाए बेटी की शादी , कहाँ से लाये दहेज़ की रकम | बरसों हो गए जिसके लिए योग्य दूल्हा ढूंढते , ढूंढते | बड़का की नौकरी लग जाए | क्या है की बाबूजी रिटायर होने वाले हैं | घर कैसे चलेगा ? छुटकू  का मन पढने में लग जाए | पास हो जाए बस | ब्याही बिटिया को दामाद चाहने लगे | जोरू का गुलाम हो जाए |कोई जंतर मंतर कोई तावीज कहीं कोई चमत्कार तो हो जाए | इन्हीं चमत्कारों  की तालाश में आम आदमी खुद ही उगाते हैं बाबाओं की फसल | आध्यात्म के लिए नहीं चमत्कार के लिए |                     ये बाबा भी जानते हैं की समस्याएं चमत्कार से नहीं पावर से खत्म होती हैं |इसलिए ये अपनी पावर बढाने में लग जाते हैं | राजनैतिक कनेक्शन बनाते हैं | ताकि उनके व् उनके तथाकथित भक्तों के हितों का समर्थन होता रहे | बाबा के पास जैसे ही अनुयायी बढ़ने लगते हैं | उन्हें सरकारी मदद से आश्रम के नाम पर जमीने मिलने लगती हैं | हर चीज पर सब्सिडी मिलने लगती है | फिर क्यों न उनका साम्राज्य फले फूले | दरसल इन बाबाओं का आध्यत्म से कुछ लेना देना नहीं होता है | ये स्वयं अपनी समस्याओं से हार कर अध्यात्म की और पलायन करे हुए लोग होते हैं जो मौका मिलते  ही अपना मुखौटा उतार कर अपनी पूरी महत्वाकांक्षाओ के साथ शुद्ध व्यापारी रूप में आ जाते हैं | जो निज हित में आध्यात्म का सौदा करते हैं , धर्म का सौदा करते हैं | धर्म की आड़ में सारे अधार्मिक  काम करते हैं | ये सिर्फ नाम के आध्यात्मिक बाबा हैं | अपनी  वेशभूषा को छोड़कर ये पूरा आलिशान जीवन जीते हैं |महंगी गाड़ियों में घूमना , फाइव स्टार होटलों में रुकना इनका शगल है |                          ये बाबा जानते हैं की कभी न कभी इनको पकड़ा जा सकता है | इसलिए ये एक ऐसी शुरूआती भीड़ की व्यवस्था भी कर के रखते हैं की पकडे जाने पर उत्पात मचा सके | उन्हें पता है की भीड़ भीड़ को फॉलो करती हैं | उन्हें देख कर और अनुयायी जुड़ ही जायेंगे | और भीड़ भी बुद्धि को ताक  पर रख कर चल देती है इन बाबाओं के पीछे – पीछे | न जाने कितने बाबा पकडे जा चुके हैं | फिर भी बाबाओं की नयी फ़ौज रोज आ रही है | रोज नए अनुयायी बन रहे हैं | जय बाबा – जय बाबा का उद्घोष चल रहा है | और क्यों न हो … हम डरे हुए आम आदमी चमत्कार की तलाश में न जाने कितने लोगों को बाबाओं की गद्दी पर सुशोभित करेंगे | जो नेम फेम और पावर गेम से हमारा ही शोषण करेंगे | कुछ पकडे जायेंगे , कुछ छिपे रहेंगे | और हम नाच – नाच कर गाते रहेंगे |                      “ जय बाबा XXX “ यह भी पढ़ें …….. संवेदनाओं का मीडीयाकरण -नकारात्मकता से अपने व् अपने बच्चों के रिश्तों को कैसे बचाएं आखिर हम इतने अकेले क्यों होते जा रहे हैं ? क्यों लुभाते हैं फेसबुक पर बने रिश्ते क्या आप भी ब्लॉग बना रहे हैं ? आत्महत्या किसी समस्या का समाधान नहीं