संघर्ष पथ

वंदना बाजपेयी

वंदना बाजपेयी की कविता संघर्ष पथ संघर्ष पथ  सुनो स्त्री अगर बढ़ चली हो सशक्तता की ओर तो पता न चलने देना आँसुओं का ओर-छोर माना की रोने के अधिकार से कर वंचित बचपन से पुरुष बनाए जाते हैं  समाज द्वारा सशक्त स्वीकृत पर संघर्षों से तप कर आगे बढ़ती स्त्री के हाथ भी कर दिए जाते हैं आँसुओं से रिक्त जाने कब किसने सबके अवचेतन में कर दी है नत्थी सशक्तता की अश्रु विरोधी परिभाषा रो सकती हो तुम खुलकर  मात्र है शब्दों का झांसा एक बार सशक्त घोषित हो जाने के बाद नहीं रखना स्त्री और आँसुओं के संबंधों को याद कि तुम्हारे कमजोर पड़ जाने के क्षणों को भी नाम दिया जाएगा विक्टिम कार्ड तब तुम्हारे कोमल मन को नहीं देगा संरक्षण तुम्हारी देह पर लिपटा सिक्स यार्ड यहाँ तक कि कुछ समझ कर तुम्हें अंदर से कमजोर बेचारा डाल देंगे तुम्हारे आगे चारा दूर ही रहना इन शातिरों की चाल से पद के साथ और भी फँसोगी जंजाल में दाँव पर लगेगी तुम्हारी निष्ठा जा भी सकता है पद और प्रतिष्ठा   सही या गलत सच या झूठ पर सशक्तता का अलाप बस एक राग गाता कि तोड़ना होगा उसे आँसुओं से नाता भले ही हर अगली सीढ़ी पर पाँव धरती अकेली डरती-सहमती उतनी ही आकुल-व्याकुल है तुम्हारे अंदर की अबला पर दिखाकर आँसुओं को और मत चटका लेना अपने भीतर की दरारें ओ संघर्षों की राह पर आगे बढ़ती सबला पुरुष नहीं हो तुम पर अपेक्षाएँ वही हैं जो उनके लिए नहीं वो तुम्हारे लिए भी नहीं है और आज के पुरुष भी रो सकते हैं के इस झूठे शोर में मत आ जाना प्रचार के विभोर में संघर्ष का पथ होता है जटिल हर अगली सीढ़ी पर समाज हो जाता है और कुटिल माना की आँसू है इंसानियत की निशानी भावनाओं का वेग होता है तूफ़ानी बह ही जाए गर भावावेश में तो रोक लेना पल विशेष में माना कि आँसू नहीं हैं कमजोरी के प्रतीक पर निकाले जाएंगे अर्थ तुम्हारी सोच के विपरीत फिर से कहती हूँ बार-बार हर किसी को मत देना अपने आँसुओं को देखने का अधिकार वंदना बाजपेयी  

काव्य कथा – वो लड़की थी कुछ किताबी सी

काव्य कथा -वो लड़की थी कुछ किताबी सी

काव्य कथा, कविता की एक विधा है, जिसमें किसी कहानी को कविता में कहा जाता हैं l काव्य कथा – वो लड़की थी कुछ किताबी सी में गुड्डो एक किताबी सी लड़की है , जिसे दुनिया की अच्छाई पर विश्वास है l उसकी दुनिया सतरंगी पर उसके प्रेमी को उसके सपने टूट जाने का डर है l सपने और हकीकत की इस लड़ाई में टूटी है लड़की या उसका प्रेमी या कि पूरा माजरा ही अलग है l आइए जाने इस काव्य कथा में …   काव्य कथा – वो लड़की थी कुछ किताबी सी   दिन रात किताबों में घिरी रहने वाली वो लड़की थी कुछ किताबी सी ऐसा तो नहीं था कि उसके रोने पर गिरते थे मोती और हंसने पर खिलते थे फूल पर उसकी दुनिया थी सतरंगी किसी खूबसूरत किताब के कवर जितनी हसीन उसे भरोसा था परी कथाओं पर भरोसा था दुनिया कि अच्छाई और सच्चाई पर उसे लगता था एक दिन दुनिया सारे अच्छे लोग सारे बुरे लोगों को हरा देंगे शायद वो देखती थी यही सपने में और सोते समय एक मुस्कुराहट तैरती थी उसके ज़रा से खुले गुलाबी होंठों पर उसके चेहरे पर आने-जाने वाला हर रंग पढ़ा जा सकता था किसी सूफियाना कलाम सा किसी मस्त मौला फ़कीर की रुबाइयों सा रामायण की चौपाइयों सा और दिन में, उसकी कभी ना खत्म होने वाली बातों में होती थी जादू की छड़ी होती थी सिंडरेला टेम्पेस्ट की मिरिंडा फूल, धूप, तितलियाँ और बच्चे गुड्डो, गुड़िया, स्वीटी, पिंकी यही नाम उसे लगते थे अच्छे और हाँ! कुछ बेतकल्लुफ़ी के इज़हार से गुड्डो,  नाम दिया था मैंने उसे प्यार से झूठ नहीं कहूँगा मुझे उसकी बातें सुनना अच्छा लगता था घंटों सुनना भी अच्छा लगता था पर… मुझे कभी-कभी डर लगता था उससे उसके सपनों से उसके सपनों के टूट जाने से इसलिए मैं जी भर करता था कोशिश उसे बताने की दुनिया की कुटिलताओं, जटिलताओं की और हमेशा अनसुलझी रह जाने वाली गुत्थियों की ये दुनिया है, धोखे की, फरेब की, युद्ध की मार-पीट, लूट-पाट, नोच-खसोट की कि धोखा मत खाना चेहरों से वो नहीं होते हैं कच्ची स्लेट से कि हर किसी ने पोत रखा है अलग-अलग रंगों से खुद को छिपाने को भीतर का स्याह रंग और हर बार वो मुझे आश्चर्य से देखती अजी, आँखें फाड़-फाड़ कर देखती और फिर मेरी ठुड्डी को हिलाते हुए कहती धत्त ! ऐसा भी कहीं होता है फिर जोर से खिलखिलाती और भाग जाती भागते हुए उसका लहराता आँचल धरती से आसमान तक को कर देता सतरंगी फिर भी हमारी कोशिशे जारी थीं एक दूसरे से अलग पर एक दूसरे के साथ वाली दुनिया की तैयारी थी जहाँ जरूरी था एक की दुनिया का ध्वस्त होना सपनों का लील जाना हकीकत को या हकीकत के आगे सपनों का पस्त होना जानते हैं… पिछले कई महीनों से सोते समय उसके होंठों पर मुस्कुराहट नहीं थिरकी है और एक रात … एक रात तो सोते समय दो बूंद आँसू उसके गालों पर लुढ़क गए थे होंठों को छूकर घुसे थे मुँह में और उसने जाना था आँसुओं का खारा स्वाद शायद तभी… तभी उसने तय कर लिया था सपनों से हकीकत का सफ़र उसकी सतरंगी दुनिया डूब गई थी और उसके साथ डूबकर मेरी गुड्डो भी नहीं रही थी जो थी साथ… मेरे आस-पास वो थी उसकी हमशक्ल सी पुते चेहरे वाली, भीतर से बेहद उदास जी हाँ ! कद-काठी रूप रंग तो था सब उसके जैसा पर ओढ़े अज़नबीयत की चद्दरें बदल गई थी जैसे सर से पाँव तक वो दिन है… और आज का दिन है गुड्डो की वीरान आँखों में नहीं हैं इंद्रधनुष के रंग उसकी बातों से उड़ गए हैं खुशबुएँ और तितलियाँ खेत और खलिहान भी उसकी जगह आ बैठी हैं गगनचुंबी ईमारतें, बड़े-बड़े मॉल और मंगल यान अब हमारी दुनिया एक थी और हम एक-दूसरे से अलग एक अजीब सी बेचैनी मेरे मन पर तारी थी मैंने जीत कर भी बाजी हारी थी और पहली बार… शायद पहली बार ही महसूस किया मैंने कि उस रात मुझसे अपरिचित मेरी भी एक दुनिया डूब गई थी मेरे साथ मैं नहीं किया तैरने का प्रयास जैसे मैंने नहीं किया था उसके विश्वास पर विश्वास आह!! क्यों लगा रहा उसे दिखाने में स्याह पक्ष क्यों नहीं की कोशिश उसके साथ दुनिया को सतरंगी बनाने की क्यों पीड़ा के झंझावातों में नीरीह प्रलापों में अब भी डराते हैं मुझे गुड्डो के नए सपने किसी खूबसूरत ग्रह-उपग्रह के वहाँ बस जाने के अबकी बार… इस ग्रह को उजाड़ देने के बाद आज़ जब गुड्डो में नहीं बची है गुड्डो मेरे भीतर दहाड़े मार कर रोती है गुड्डो अजीब बेचैनी में खुला है ये भेद कि दुनिया का हर व्यावहारिक से व्ययहारिक कहे जाने वाले इंसान के भीतर उससे भी अपरिचित कहीं गहरे धँसी होती है गुड्डो एक अच्छी दुनिया का सपना पाले हुए जो टिकी होती है दो बूंद आँसू पर … बस जीतने ही तो देना होता है भीतर अपनी गुड्डो को और पूरी दुनिया हारती है बाहर से मैंने उठा ली हैं उसकी बेतरतीब फैली किताबें मेरे अंदर फिर से हिलोर मार रही है गुड्डो वो किताबी सी लड़की दुनिया की सच्चाई पर विश्वास करती सतरंगी सपनों वाली… पगली और मैं चल पड़ा हूँ दुनिया को बदलने की कोशिश में और हाँ ! आपको कहीं मिले गुड्डो वो सपनों में पगी लड़की तो बताइएगा जरूर जरूर बताइएगा अबकि मैं उसे जाने नहीं दूँगा वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें काव्य कथा -गहरे काले रंग के परदे वंदना बाजपेयी की कविता -हमारे प्रेम का अबोला दौर अब तो बेलि फैल गई- जीवन के पछतावे को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कथा   आपको ‘काव्य कथा – वो लड़की थी कुछ किताबी सी’कैसी लगी ? हमें अपने विचारों से अवश्य अवगत कराए l अगर आपको हमारा काम अच्छा लगता है तो कृपया साइट को सबस्कराइब  करें व अटूट बंधन फेसबूक पेज लाइक करें l

वंदना बाजपेयी की कविता -हमारे प्रेम का अबोला दौर

हमारे प्रेम का अबोला दौर

  आजकल हमारी बातचीत बंद है, यानि ये हमारे प्रेम का अबोला दौर है l  अब गृहस्थी के सौ झंझटों के बीच बात क्या थी, याद नहीं पर इतना जरूर है कि कोई बड़ी बात रही होगी जो उस बात के बाद नहीं मन हुआ बात करने का और हमारे मध्य शुरू हो गया “कन्डीशंड एप्लाइड वाली बातचीत बंद का एक नया अध्याय प्यार का एक रंग रूठना और मनाना भी है l प्यार की एव तक्ररार बहुत भारी पड़ती है l कई बार बातचीत बंद होती है , कारण छोटा ही क्यों ना हो पर अहंकार फूल कर कुप्पा हो जाता है जो बार बार कहता है कि मैं ही क्यों बोलूँ ? लेकिन दिल को तो एक एक पल सालों से लगते हैं l फिर देर कहाँ लगती है बातचीत शुरू होने में …. इन्हीं भावों को पिरोया है एक कविता के माध्यम से l सुनिए … वंदना बाजपेयी की यह कविता आप को अपनी सी लगेगी l हमारे प्रेम का अबोला दौर ——————————– आजकल हमारी बातचीत बंद है अब गृहस्थी के सौ झंझटों के बीच बात क्या थी, याद नहीं पर इतना जरूर है कि कोई बड़ी बात रही होगी जो उस बात के बाद नहीं मन हुआ बात करने का और हमारे मध्य शुरू हो गया “कन्डीशंड एप्लाइड वाली बातचीत बंद का एक नया अध्याय माने गृहस्थी की जरूरी बातें नहीं होती हैं इसमें शामिल ना ही साथ में निपटाए जाने वाले वाले काम-काज रिश्तेदारों के आने का समय नहीं जोड़ा जाता इसमें ना ही शामिल होता है डायरी से खंगाल कर बताना गुड्डू जिज़्जी की बिटिया की शादी में दिया था कितने रुपये का गिफ्ट या फिर अखबार वाले ने नहीं डाला है तीन दिन अखबार हाँ, कभी पड़ोसन के किस्से या ऑफिस की कहानी सबसे पहले बताने की तीव्र उत्कंठा पर भींच लिए जाते हैं होंठ पहले मैं क्यों ? अलबत्ता हमारे प्रेम के इस अबोले दौर में हम तलाशते हैं संवाद के दूसरे रास्ते लिहाजा बच्चों के बोलने कि लग जाती है डबल ड्यूटी ‘पापा’ को बता देना और ‘मम्मी’ से कह देना के नाम पर आधी बातें तो कह-समझ ली जाती हैं बर्तनों की खट- खट या फ़ाइलों कि फट- फट के माध्यम से ऐसे ही दौर में पता चलता है कौन कर रहा था बेसब्र इंतजार कि दरवाजे की घंटी बजने से पहले ही मात्र सीढ़ियाँ चढ़ते हुए पैरों की आहट से खुल जाता है मेन गेट और रसोई में मुँह से जरा सा आह-आउच निकलते ही पर कौन चला आया दौड़ता हुआ और पास में रख जाता है आयोडेक्स या मूव पढ़ते-पढ़ते सो जाने पर चश्मा उतार कर रख देने, लाइट बंद कर देने जैसी छोटी-छोटी बातों से भी हो सकता है संवाद बाकी आधी की गुंजाइश बनाने के लिए मैं बना देती हूँ तुम्हारा मनपसंद व्यंजन और तुम ले आते हो मेरी मन पसंद किताबें तुम्हारे घर पर होने पर बढ़ जाता है मेरा राजनीति पर बच्चों से डिस्कसन और तुम उन्हें सुनाने लगते हो कविताएँ रस ले-ले कर नाजो- अंदाज से गुनगुनाते हुए किसी सैड लव सॉन्ग का मुखड़ा ब्लड प्रेशर कि दवाई सीधा रखते हो मेरी हथेली पर और मैं अदरक और शहद वाला चम्मच तुम्हारे मुँह में ऐसे में कब कहाँ शुरू हो जाती है बातचीत याद नहीं रहता जैसे याद नहीं रहा था बातचीत बंद करने का कारण हाँ ये जरूर है कि हर बार इस अबोले दौर से गुजरने के बाद याद रह जाते हैं ये शब्द यार, कुछ भी कर लो पर बोलना बंद मत किया करो ऐसा लगता है जैसे संसार की सारी आवाजें रुक गई हों l वंदना बाजपेयी #lovesong #love #lovestory #poetry #hindisong #valentinesday #valentine यह भी पढ़ें – जरूरी है प्रेम करते रहना – सरल भाषा  में गहन बात कहती कविताएँ तपते जेठ में गुलमोहर जैसा -प्रेम का एक अलग रूप प्रेम कभी नहीं मरेगा आपको वंदना बाजपेयी की कविता -हमारे प्रेम का अबोला दौर कैसी लगी ? अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराए l अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ अच्छी लगती हैं तो कृपया अटूट बंधन की साइट को सबस्करीब करें व अटूट बंधन फ़ेसबुक पेज लाइक करें l  

वो छोड़कर चुपचाप चला जाए तो क्या करें ?

वो छोड़कर चुपचाप चला जाए

शायरी काव्य की बहुत खूबसूरत विधा है l रदीफ़, काफिया, बहर से सजी शायरी दिल पर जादू सा असर करती है l यूँ तो शायरी में हर भाव समेटे जाते हैं पर प्रेम का तो रंग ही अलग है l प्रेम, प्रीत प्यार से अलहदा कोई और रंग है भी क्या ? प्रेम में सवाल पूछने का हक तो होता ही है l  लेकिन जब प्यार करने वाला ये हक दिए बिना अचानक से छोड़ कर चला जाए, कोई सुध ही ना ले…मन किसी तरह खुद को समझ कर जीना सीख जाए , फिर उसके लौट कर आने के बाद भी जीवन की बदल चुकी दिशा कहाँ बदलती है l कुछ ऐसे ही भावों को प्रकट करती गजल वो छोड़कर चुपचाप चला जाए तो क्या करें ?     वो छोड़ कर चुपचाप चला जाए तो क्या करें ? गुलशन में पल में खार नजर आए तो क्या करें ?   हर शख्स में नजर आता था जो शख्स हर दफा उसमें भी कहीं वो ना नजर आए तो क्या करें?   दिया कब था हमें उसने सवाल पूछने का हक अब जवाबों पर एतबार ना आए तो क्या करें ?   पलकों पर ठहरी नमी की जो पा सका ना थाह अब  समुन्दर भी नाप कर आए तो क्या करें ?   कुछ भी कहा ना जिसने बहुत मिन्नतों के बाद अब लफ्जों का यूँ अंबार लगाए  तो क्या करें?   जब मुड़ ही चुके हों पाँव, गईं बदल हो मंजिलें अब पीछे से आ के पुकार लगाए तो क्या करें ?   वक्त की आँधी में दफन कर-कर  शिकायतें अब ‘वंदना’ खामोश नज़र आए तो क्या करें ?   वंदना बाजपेयी   यह भी पढ़ें मुन्नी और गाँधी -एक काव्य कथा प्रियंका ओम की कहानी बाज मर्तबा जिंदगी सुनो घर छोड़ कर भागी हुई लड़कियों बचपन में थी बड़े होने की जल्दी   आपको गजल “वो छोड़कर चुपचाप चला जाए तो क्या करें” कैसी लगी ? अपनी प्रतिक्रियाओं से हमें अवश्य परिचित कर कराए l अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबूक पेज को लाइक करें l

बचपन में थी बड़े होने की जल्दी

बचपन में होती है बड़े होने की जल्दी और बड़े होने पर बचपन ढूंढते हैं ...मानव मन ऐसा ही है, जो पास होता है वो खास नहीं लगता lइसी विषय पर एक कविता  .. बचपन में थी बड़े होने की जल्दी 

बचपन में होती है बड़े होने की जल्दी और बड़े होने पर बचपन ढूंढते हैं …मानव मन ऐसा ही है, जो पास होता है वो खास नहीं लगता lइसी विषय पर एक कविता  ..   बचपन में थी बड़े होने की जल्दी  कभी-कभी ढूंढती हूँ उस नन्हीं सी गुड़िया को जो माँ की उल्टी सीधी-साड़ी लपेट खड़ी हो आईने के सामने दोहराती थी बार-बार “लो हम टो मम्मी बन गए” या नाराज़ हो माँ की डाँट पर छुप कर चारपाई के नीचे लगाती थी गुहार “लो जा रहे हैं सुकराल” माँ के मना करने बावजूद अपनी नन्ही हथेलियों में जिद करके थामती थी बर्तन माँजने का जूना और ठठा कर हँसता था घर हाथों में संभल ना पाए गिरते बर्तनों की झंकार से और अपनी गुड़िया को भी तो पालती थी बिलकुल माँ की तरह करना था सब वैसे ही चम्मच से खिलाने से लेकर डॉक्टर को दिखाने तक दोनों हाथों से पकड़ कर बडी सी झाड़ू हाँफते-दाफ़ते जल्दी-जल्दी बुहार आती थीबचपन घर के आँगन से आज उम्र की किसी ऊंची पायदान पर खड़ी हो लौट जाना चाहती है उस बचपन में जब थी जल्दी बड़े होने की सदा से यही रहा है हम सब का इतिहास कुछ और पाने की आशा में जो है आज इस पल हमारे पास वो कभी नहीं लगता खास वंदना बाजपेयी   आपको कविता “बचपन में थी बड़े होने की जल्दी” कैसी लगी ? अपनी राय से हमें अवश्य अवगत कराए l अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती है तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व फेसबुक पेज लाइक करें l

पिता पुराने दरख़्त की तरह होते हैं-पिता पर महेश कुमार केशरी की 9 कविताएँ

पिता पुराने दरख्त होते हैं

अगर माँ धरती है तो  पिता आसमान, माँ घर है की नीव है तो पिता उसकी छत, माँ धड़कन है तो पिता साँसे l माता और पिता से ही हर जीव हर संतान आकार लेता है और आकार लेती हैं भावनाएँ l ऐसे में माँ के लिए व्यक्त उद्गारों में पिता कैसे अछूते रह सकते हैं l अटूट बंधन में पढिए महेश कुमार केशरी जी की  पिता पर लिखी ऐसी ही भावप्रवण 9 कविताएँ … पिता पुराने दरख़्त की तरह होते हैं-पिता पर महेश कुमार केशरी की 9 कविताएँ   पिता दु:ख को समझते थें ! “””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””” पिता गाँव जाते तो पुराने समय में घोड़ेगाड़ी का चलन था l स्टेशन के बाहर प्राय: मैं इक्के वाले और उसके साथ खड़े घोड़े को देखता लोग इक्के से स्टेशन से अपने गाँव तक आते -जाते थें इन घोड़ों की आँखें किचियाई होतीं घोड़वान के चेहरे पर हवाईयाँ उड़तीं पिताजी के अलावे अन्य सवारियों को देखकर ही इक्के वाले की आँखें खुशी से चमकने लगती l घोड़े को लगता कि आज उसे खूब हरी घास खाने को मिलेगी l इक्के वाला हफ्तों से उपवास चूल्हे में आग जलती देखता उसकी आँखों में नूमायाँ हो जाती रोटी और तरकारी जरूर उसने आज किसी भले आदमी का चेहरा देखा होगा तभी तो दिख रहीं हैं सवारियाँ पिता साधारण इंसान थें मरियल घोड़े पर सवार होना उन्हें , यातना सा लगता लगता उन्हें सश्रम कारावास की सजा मिल रही है वो , परिवार के सारे लोगों को इक्के पर बैठने को कहते लेकिन , वो खुद घोड़े के बगल से पैदल – पैदल ही चलते माँ , बार -बार खिजती कि कैसा भोंभड़ है मेरा बाप लेकिन , पिता घोड़े के दु:ख को समझते थें तभी तो समझते थे , वो रिक्शेवाले के दु:ख को भी परिवार के सारे लोग रिक्शे पर चढ़ते लेकिन पिता पैदल ही रिक्शे के साथ चलते .. चाहे दूरी जितनी लंबी हो कभी – कभी दु:ख को समझने के लिये घोड़ा या इक्के वाला नहीं होना पड़ता बस हमें नजरों को थोड़ा सीधा करने की जरूरत होती है l लोगों का दु:ख हमारे साथ – साथ चल रहा होता है l ठीक हमारी परछाई की तरह ही लोगों का भोंभड़ या मूर्ख संबोधन पिता को कभी विचलित नहीं कर सका था l वो जानते थें कि मूर्ख होने का अर्थ अगर संवेदन हीन होना नहीं है तो , वो मूर्ख ही ठीक हैं मूर्ख आदमी कहाँ जानता है दुनिया के दाँव पेंच ! इससे पिता को कोई फर्क नहीं पड़ता था लोग पिता के बारे में तरह – तरह की बातें करते कहतें पिता सनकी हैं लेकिन , मैं हमेशा यही सोचता हूँ कि पिता , घोड़े और रिक्शेवाले का दु:ख समझते थें l मुझे ये भी लगता है कि हर आदमी को जानवर और आदमी के दु:खों को पढ़ लेना चाहिये या कि समझ लेना चाहिये जो इस दुनिया में सबसे ज्यादा दु:खी हैं l पिता समझते थे या सोचते थें घोड़े की हरी घास की उपलब्धता के बारे में इक्के वाले के बिना धु़ँआये चूल्हे के बारे में हमें भी समझना चाहिये सबके दु:खों को ताकि हम बेहतर इंसान बन सकें l “””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””” (2)कविता-परिणत होते पिता ‘”””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””” जीवण की तरूणाई वाली सुबह पिता हट्टे- कठ्ठे थे। गबरू और जवान उनकी एक डाँट पर हम कोनों में दुबक जाते उनका रौब कुछ ऐसा होता जैसे तूफान के बाद का सन्नाटा दादा जी और पिताजी की शक्ल आपस में बहुत मिलती थी l जहाँ दादाजी , सौम्य , मृदु भाषी थें वहीं..पिता , कठोर .. कुछ , समय बाद दादाजी नहीं रहे .. अब , पिता संभालने लगे घर जो , पिता बहुत धीरे से हँसते देखकर भी हमें डपट देते थे वही पिता , अब हमारी , हँसी और शैतानियों को नजर अंदाज करने लगे धीरे – धीरे पिता कृशकाय होने लगे वो ,नाना प्रकार के व्याधियों से ग्रसित हो गये… बहुत , दुबले -पतले और कमजोर पिता कुछ- ज्यादा ही खाँसनें लगे बहुत- बाद में हमेशा हँसते- मुस्कुराते रहनेवाले पिता और घर के सारे फैसले अकेले लेने वाले पिता अब खामोश रहने लगे वे अलग -थलग से अपने कमरे में पड़े रहते उन्होंने अब निर्णय लेने बंद कर दिये थे… अपनी अंतिम अवस्था से कुछ पहले जैसे दादा जी को देखता था ठीक , वैसे ही एक दिन पिताजी को मोटर साइकिल पर कहीं बाहर जाते हुए पीछे से देखा हड्डियों का ढ़ाँचा निकला हुआ आँखों पर मोटे लेंस का चश्मा मुझे पता नहीं क्यों ऐसा ..लगा दादाजी के फ्रेम में जड़ी तस्वीर में धीरे – धीरे परिणत होने लगें हैं..पिता .. “””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””” (3) तहरीर में पिता.. “””””””””””””””””‘””””””‘””””””””””””””””””””””””””””””” ये कैसे लोग हैं ..? जो एक दूधमुँही नवजात बच्ची के मौत को नाटक कह रहें हैं… वो, तहरीर में ये लिखने को कह रहे हैं कि मौत की तफसील बयानी क्या थी…? पिता, तहरीर में क्या लिखतें… ? अपनी अबोध बच्ची की , किलकारियों की आवाजें… या… नवजात बच्ची… ने जब पहली बार… अपने पिता को देखा होगा मुस्कुराकर… या, जन्म के बाद जब, अस्पताल से बेटी को लाकर उन्होंने बहुत संभालकर रखा होगा… पालने.. में… और झूलाते… हुए… पालना… उन्होंने बुन रखा होगा… उस नवजात को लेकर कोई…. सपना.. वो तहरीर में उन खिलौनों के बाबत क्या लिखते..? जिसे उन्होंने.. बड़े ही शौक से खरीदकर लाया था.. वो तहरीर में क्या लिखतें…. ? कि जब, उस नवजात ने दम तोड़ दिया था बावजूद… इसके वो अपनी नवजात बेटी में भरते रहे थें , साँसें… ! मैं, सोचकर भी काँप जाता हूँ कि कैसे, अपने को भ्रम में रखकर एक बाप लगातार मुँह से भरता रहा होगा अपनी बेटी में साँसें…! किसी नवजात बेटी का मरना अगर नाटक है… तो, फिर, आखिर एक बाप अपनी तहरीर में बेटी की मौत के बाद क्या लिखता…? “””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””” (4)कविता..किसान पिता.. “”””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””””” पिता, किसान थे वे फसल, को ही ओढ़ते और, बिछाते थे.. बहुत कम पढ़े- लिखे थे पिता, लेकिन गणित में बहुत ही निपुण हो चले थे या, यों कह लें कि कर्ज ने पिता को गणित में निपुण बना दिया था… वे रबी की बुआई में, टीन बनना चाहते घर, के छप्पर के लिए.. या फिर, कभी तंबू या , तिरपाल, … Read more

फिर भी-केंट एम कीथ की दार्शनिक कविता ऐनीवे का हिंदी अनुवाद

कविता

सुप्रसिद्ध लेखक kent m keith की दार्शनिक कविता Anyway में जीवन दर्शन समाया है l समस्त मानवीय वृत्तियों जैसे ईर्ष्या, क्रोध, जलन , सफलता, खुशियाँ आदि में हम दूरों की राय से सहजता से प्रभावित हो जाते हैं l  अक्सर झगड़ों की वजह और खुल कर ना जी पाने की वजह भी यही होती हैं l  कई बार प्रेम भरे रिश्तों में भी शीत युद्ध की दीवार खींची रहती है l परनातू ये युद्ध हमारे  और उनके बीच होता ही नहीं, ये होता है … कविता का हिंदी अनुवाद किया है वंदना बाजपेयी ने l आइए पढ़ें कविता फिर भी…   फिर भी.. होते हैं लोग अक्सर समझ से परे चिड़चिड़े और आत्मकेंद्रित करना क्षमा उन्हें फिर भी… अगर बह रहा हो दया का सागर हृदय में तुम्हारे तब भी नवाजे जा सकते हो तुम स्वार्थी मतलबी के उपालंभों से करते रहना दया फिर भी… अगर कहूं रही है सफलता कदमों को तुम्हारे तो मिलेंगे राह में कुछ घटक शत्रु और कुछ विश्वास घाती मित्र भी होना सफल फिर भी… अगर हो तुम अटल और ईमानदार चले जाओगे कदम-कदम पर अपने और बेगानों के द्वारा रहना ईमानदार फिर भी… जीवन के बरसों-बरस लागाने के बाद हुआ होगा दृश्यमान तुम्हारी रचनात्मकता से जो कुछ सकते हैं गिर कुछ आओने और बेगाने लोग उसे बने रहना रचनात्मक फिर भी… अगर जीवन के अरण्य में खोजने पर मिल जाए तुम्हें शांति और  खुशियाँ तो ईर्ष्या की कनाते साज जाएगी कुछ मनों में रहना खुश फिर भी… जो किया है आज तुमने अच्छा वो भूल दिया जाएगा कल तलक करते रहना अच्छा फिर भी… बोते रहना अच्छाई के बीज मनों की धरती पर जानते हुए कि तृप्त नहीं होगी धरा मात्र कुछ छींटों से देते रहना फिर भी… देखना, अपने आखिरी भी खाते में थोड़ा झांक कर एक बार ये सारा खेल तो ठा बस तुम्हारे और ईश्वर के मध्य ये नहीं था तुम्हारे और उनके मध्य कभी भी… अनुवाद वंदना बाजपेयी   मूल कविता  पाठकों के लिए यहाँ पर प्रस्तुत है मूल कविता anyway Anyway  “People are often unreasonable, irrational, and self-centered. Forgive them anyway. If you are kind, people may accuse you of selfish, ulterior motives. Be kind anyway. If you are successful, you will win some unfaithful friends and some genuine enemies. Succeed anyway. If you are honest and sincere people may deceive you. Be honest and sincere anyway. What you spend years creating, others could destroy overnight. Create anyway. If you find serenity and happiness, some may be jealous. Be happy anyway. The good you do today, will often be forgotten. Do good anyway. Give the best you have, and it will never be enough. Give your best anyway.” You see, in the final analysis, it is between you and your God. It was never between you and them anyway. Anyway Poem was written by Kent M Keith यह भी पढ़ें … माँ से झूठ मंदिर-मस्जिद और चिड़िया जन्माष्टमी पर 7 काव्य पुष्प आपको “फिर भी-केंट एम कीथ की दार्शनिक कविता ऐनीवे का हिंदी अनुवाद” कैसा लगा ? अपनी राय से हमें अवश्य अवगत कराए l  अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबूक पेज को लाइक करें l

सुमन केशरी की कविताएँ

सुमन केशरी की कविताएँ

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर अटूट बंधन पर प्रस्तुत हैं वरिष्ठ कवि-कथा नटी सुमन केशरी दी की कुछ स्त्री विषयक कविताएँ | इन कविताओं में स्त्री मन की पीड़ा, कन्डीशनिंग से बाहर आने की जद्दोजहद और अपनी बेटी के लिए खुले आकाश में उड़ान सुरक्षित कर देने की अदम्य इच्छा के  विभिन्न रूप चित्रित हैं | चाहे वो स्त्री आज की हो या पौराणिक काल की | एक दिन ऐसा आता है जब स्त्री उठ खड़ी होती है, उन सारी बातों के विरुद्ध जो उस पर आरोपित की गईं हैं | वो.. वो सब कुछ कर लेना चाहती है जो उससे कहा गया था  की तुम नहीं कर सकतीं |  शायद वही दिन होता है जब उसकी अपनी दृष्टि विकसित होती है | वो दुनिया को अपने नजरिए से देखना शुरू करती है, याज्ञवल्क्य से प्रश्न पूछती है, द्रौपदी के आक्रोश को सही ठहराती है .. और उसे दिन वो पुरुष में अपना मालिक नहीं साथी तलाशती है, उसे मोनालिसा की रहस्यमयी मुस्कान में उसका दर्द दिखाई देने लगता है, दिखने लगता है राम के यशोगान में सीता के समग्र अस्तित्व का विलय और वो सुरक्षित कर लेना चाहती है आकाश का एक कोना अपनी बेटी के लिए | सुमन केशरी की  कविताएँ (1) मैंने ठान लिया है   मैंने ठान लिया है कि मैं वह सब करूँगी जिसे मैंने मान लिया था कि मैं कर नहीं सकती मसलन कविता करना शब्दों के ताने बाने गूँथ कुछ ऐसा बुनना जिसे देखा नहीं सुना जा सके महसूसा जा सके   तुमने मुझे बंद कर दिया था रंग-बिरंगे कमरे में और मैं तुम्हारी उंगली थामे उसमें से बाहर निकल तुम्हारी आँखों से दुनिया देखती तुम्हारी भाषा में बतियाती चहकती गाती फिर उस कमरे में जा बैठती थी अपने पंख मैंने खुद ही काट दिए थे   मुझे  ताज्जुब होता था जाबाला का उत्तर सुनकर द्रौपदी का आक्रोश देखकर और याज्ञवल्क्य का व्यवहार सहज जान पड़ता था   कि एक दिन अचानक सपने में मुझे गार्गी का अट्टहास सुनाई पड़ा तड़प रही थी तब से अब तक मुक्ति की तलाश में मुझे देख विद्रूप से मुस्काई और आगे बढ़ गई उसकी हिकारत के कोड़े के घाव से अब भी रिस रहा है खून फट गया है माथा और अब तक की सारी आस्थाएँ विचार और सपने चूर चूर हो गए हैं एक हवा का झोंका दरारों के रास्ते रक्त की शिराओं में जा घुसा है और झिंझोड़ कर रख दिया है पूरे शरीर को मय चेतना के   इन दिनों मैंने घर के सारे खिड़की दरवाजे खोल दिए हैं   बड़ा मजा आता है बच्चों के संग कागजी जहाज उड़ाने और नाव चलाने में चट्टानों पर चढ़ कर कूदने में दूर तक दौड़ कर चंदा को साथ साथ चलाने छकने-छकाने में   प्रिय! अब मैं तुमसे दोस्ती करना चाहती हूँ चाहती हूँ कि तुम मेरे संग सूर्यदेश की यात्रा पर चलो   और हाँ पिछले दिनों याज्ञवल्क्य से चलते चलते हुई मुलाकात एक लंबी बहस में बदल गई है क्या तुम मेरे संग उलझोगे याज्ञवल्क्य से बहस में?     (2) मोनालिसा   क्या था उस दृष्टि में उस मुस्कान में कि मन बंध कर रह गया   वह जो बूंद छिपी थी आँख की कोर में उसी में तिर कर जा पहुँची थी मन की अतल गहराइयों में जहाँ एक आत्मा हतप्रभ थी प्रलोभन से पीड़ा से ईर्ष्या से द्वन्द्व से…   वह जो नामालूम सी जरा सी तिर्यक मुस्कान देखते हो न मोनालिसा के चेहरे पर वह एक कहानी है औरत को मिथक में बदले जाने की कहानी….   (3) सुनो बिटिया……..   सुनो बिटिया मैं उड़ती हूँ खिड़की के पार चिड़िया बन   तुम देखना खिलखिलाती ताली बजाती उस उजास को जिसमें चिड़िया के पर सतरंगी हो जायेंगे कहानियों की दुनिया की तरह   तुम सुनती रहना कहानी देखना चिड़िया का उड़ना आकाश में हाथों को हवा में फैलाना और पंजों को उचकाना इसी तरह तुम देखा करना इक चिड़िया का बनना   सुनो बिटिया मैं उड़ती हूँ खिड़की के पार चिड़िया बन तुम आना…..     (4) ऋतंभरा के लिए….   जब जब मैंने नदी का नाम लिया बेटी दौड़ी आई पूछा तुमने मुझे पुकारा माँ?     जब जब मैंने हवा का नाम लिया मेरी पीठ पर झूम-झूम कहा उसने तुमने मुझे पुकारा और लो मैं आ गई   जब जब मैंने सूरज को देखा किरणों की आभा लिए उतरी वह मेरे अंतस्तल का निविड़ अंधेरा मिटाने     जब जब मैंने मिट्टी को छुआ वह हँस दी मानो बीज बो रही हो खुशियों  के मेरे आंगन में   जब जब मैंने आकाश को निहारा वह तिरने लगी बदरी बन बरसी झमाझम सूखी धरा पर     जब जब मैंने क्षितिज की ओर ताका वह मेरा आंचल थाम खड़ी थी कहती मैं हूँ न तुम्हारे पास…     (5) औ..ऋत   डर एक ऐसा पर्दा है जिसके पीछे छिपना जितना आसान उतना ही मुश्किल   कहा था जोगी ने उस रात जिस रात मैंने उसे बादलों के बाहर देखा था निरभ्र आकाश में   डर हमारे बीच पर्दे-सा तना था सांस की आवाज़ तक उसे कंपा जाती थी इतना झीना इतना महीन   डर क्या है धरती-सी बैठी औरत ने पूछा   डर आँधी है उड़ा ले जाता है अपने संग सब-कुछ योगी बुदबुदाया   अच्छा!   डर बाढ़ है बहा ले जाता है सब कुछ…   अच्छा!!   डर तूफान है सब कुछ छिन्न-भिन्नकर देता है     अच्छा!!!   औरत ने कहा और लेट गई…   बिछ गई धरती पर वह हरियाली-सी.. बहने लगी जल की धार-सी स्वच्छ सुंदर.. हवा के झौंके-सी भर ली सुगंध उसने नासापुटों में… बादलों में बूंदों-सी समा तिरने लगी आकाश के सागर में निर्द्वंद…   जोगी ने देखा सब डर के पर्दे के पीछे छिपे छिपे… अब जोगी था और डर था   और था ऋत विस्तृत…     (6) सीता सीता रात के अंधेरे में द्वार के पार आंगन में आंगन पार पेड़ों के झुड़मुटों से घास के मैदान से और उसके भी पार बहती नदी के बूंद बूंद जल से किनारो पर इकठ्ठी रेत के कण कण से नदी पार फैले पहाड़ों की चट्टानों से जिस पर … Read more

स्त्रीनामा -भगवती प्रसाद द्विवेदी की स्त्री विषयक कविताएँ

भगवती प्रसाद द्विवेदी

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, “कविता से मनुष्य के भावों की रक्षा होती है | यह हमारे मनोभावों को उच्छ्वसित करके हमारे अंदर एक नया जीव डाल देती है |सृष्टि के पदार्थ या व्यापार विशेष को कविता इस तरह से व्यक्त करती है कि वो नेत्रों के सामने मूर्तिमान दिखाई देने लगते हैं |वस्तुतः कविता मनोवेगों को उत्तेजित करने कए एक उत्तम साधन है |” बेटियाँ कविता का वीडियो लिंक …….. स्त्रियों को लेकर भी कवियों द्वारा समय -समय पर कविताएँ लिखी गई | जब राष्ट्र कवि मैथली शरण गुप्त जी कहते हैं कि अबला,जीवन,हाय, तुम्हारी,यही,कहानी, आंचल, में है,दूध,और, आंखों,में,पानी तो उनका उद्देश्य स्त्री की करूण  दशा को दिखाना रहा होगा | संवेदना भी अपने उच्च स्तर पर पहुँच कर परिवर्तन की वाहक बनती  है |कुछ परिवर्तन समाज में दृष्टिगोचर भी हुए हैं |  पर स्त्री उसी स्थान पर बैठी तो नहीं रह सकती उसे  आँसू पोछ कर खड़ा होना होगा, समय और परिस्थिति से लड़ना होगा और समाज में अपनी जगह बनानी होगी | आज स्त्रीनामा में आदरणीय भगवती प्रसाद द्विवेदी जी की जो रचनाएँ हम लाए हैं वो स्त्रियों को उसी स्थान पर बैठ कर सिसकने की हिमायती नहीं हैं |ये कविताएँ उन्हें उनके गौरव का स्मरण करा कर ना केवल उनका आत्मसम्मान  जगाने की चेष्टा करती हैं अपितु अपने अधिकारों के लिए सचेतकर उनके संघर्ष में उनके साथ खड़ी  होती हैं | आईये पढ़ते हैं आदरणीय भगवती प्रसाद द्विवेदी जी का … स्त्रीनामा  स्त्रीनामा के अंतर्गत तीन कविताओं को पढ़ेंगे ……… अस्मिता, अस्तित्वबोध और बेटियाँ .. बेटियाँ इतिहास रचती रहें, कुछ ऐसा करें । खुलेपन की हिमायत भी जकड़बंदी भी वही, बने हाथी-दाँत कब तक रहेंगे, शिकवा यही, खलबली चहुँओर मचती रहे,कुछ ऐसा करें । तीनों ही कविताओं का मुख्य स्वर एक है जो समाज के स्त्री के प्रति दोमुँहे  चेहरे को समझने और प्रकृति द्वारा प्रदत्त अपनी सशक्तता को पहचान पर संघर्ष करने का आवाहन कर रही हैं | ** अस्मिता आखिर क्या हो तुम? आँगन की तुलसी फुदकती-चहकती गौरैया पिंजरे में फड़फड़ाती परकटी मैना अथवा किसी बहेलिए के जाल में फँसी बेबस कबूतरी? तुम्हारे माथे पर दहकता हुआ सिन्दूर है भट्ठे की ईंट है टोकरियों का बोझ है या काला-कलूटा पहाड़? पहाड़ जिसे तुम ढोती हो अपने माथे पर अनवरत जीवन पर्यन्त ! पहाड़ सरीखी तुम्हारी ज़िन्दगी में उग आये हैं अनगिनत फौलादी हाथ झाड़ू-बुहारू करते हाथ चाय-बागान से पत्तियाँ चुनते हाथ स्वेटर बुनते हाथ किचन में जूझते हाथ कंप्यूटर पर मशीनी अक्षर उगलते हाथ कलम की जादूगरी दिखाते हाथ हाथ,जो होम करते जल उठते हैं । सिरजती हो तुम्हीं छातियों से अमृतस्रोत मगर भरता है तुम्हारा पेट बची-खुची जूठन से उस खाद्य से जिसकी निर्मात्री खुद तुम्हीं हो ढोता है तुम्हारा पेट बीज को वृक्ष में तब्दील होने तक मनुजता का भार उस कुटिल मनुजता का भार जिसे बखूबी आता है लात मारना तुम्हारे ही पेट पर । तुम्हारे केले के थंब सरीखे पाँव खड़े हैं तुम्हारी सगी पृथ्वी के वक्षस्थल पर, पर कराया जाता है तुम्हें अहसास कि तुम्हारे पाँव अड़े हैं किसी की बैसाखी पर दादी!नानी!माँ!दीदी! पत्नी!बेटी!पोती! जरा झटककर तो देखो अपने -अपने पाँवों को , कहीं ये सचमुच किसी की बैसाखी पर तो नहीं खड़े? क्या तुम हो सिर्फ सिर, हाथ,पेट व पाँव वाली मशीनी रोबोट? नहीं, नहीं! किसी के इशारे पर कदमताल करती कतई नहीं हो तुम आदेशपाल रोबोट लहराता है तुममें भावनाओं का समुंदर उठते हैं इंद्रधनुषी सपनों के ज्वार जिन्हें कर दिया जाता है तब्दील आँसुओं के भाटे में सिकुड़ जाता है तुम्हारा अस्तित्व मुनाफे और घाटे में । तुम्हें पहचानना होगा पंक में धँसे रक्तकमल-से अपने आप को अपनी अस्मिता को उबारना होगा स्वयं को कीचड़ की सड़ाँध से कराना होगा तुम्हें अपने होने का अहसास ताकि महमहा उठे तुम्हारे पहाड़-से जीवन में भावना, फूल और खुशबुओं का सपनीला उजास । ** अस्तित्वबोध तुम्हारा आना आते ही खूब हुलसना-अगराना मगर तुम्हारे आने की ख़बर सुन सबका मुँह झवाँ जाना, हुलास-उछाह का जहाँ का तहाँ तवाँ जाना, नौ माह से अनवरत जलते-बलते आस के अनगिन दीपकों का भभककर एकाएक बुझ जाना और तुम्हारा अचरज में डूबकर रट लगाना– केआँ-केआँ! यह क्या हुआ?कैसे हुआ? तुम उठकर लगीं बढ़ने अमरबेल-सी ऊपर चढ़ने न जाने कहाँ से लेकर रस होनहार बिरवा के हरे पत्ते-सा किन्तु बूँट-मटर के साग की नाईं टूसा लगा बार-बार खोंटाने भला कैसे दिया जाता तुम्हें गोटाने! अँखिगर बनने की तुम्हारी कामना थी जरूर, मगर तभी तुम्हें सिखाया जाने लगा शऊर क्या तुम्हें नहीं है पता?यहाँ तो है सुकुमार सपनों को धुआँने का दस्तूर! लगा दी गयीं पगों में आबरू की बेडियाँ कतर दिये गये उड़ने वाले रेशमी पंख और दिखाई जाने लगी बात-बेबात तुम्हें लाल-पीली आँख । तुम्हारे सुबकने-सिसकने पर दादी माँ पुचकारने-पोल्हाने लगीं राजकुमारी फुलवा की कथा सुनाने लगीं उस फुलवा की कथा दर्द और व्यथा जिसका कर लिया था एक दरिंदे ने चहेटकर अपहरण मगर आख़िर में एक राजकुमार ने मुक्ति दिलवाई थी, जीवन में फिर सुख की सुधामयी नदी लहराई थी । कल तुम्हें भी एक दरिंदे के हाथ में सौंप दिया जाएगा डगमगाएगी धरती भूकंप आएगा वह बूढ़े बाघ-सा ठठाकर हँसेगा करैत साँप बनकर डँसेगा और जब सदा-सदा के लिए बाएगा मुँह तो ननद-श्वसुर-सास सभी तुम्हें कोंच-कोंचकर बनाएँगे रूपकुँवर जलाएँगे जिन्दा अथवा मौत के घाट उतारेंगे रोज-रोज मगर कथा का मुक्ति दिलवाने वाला राजकुमार कभी नहीं आएगा तुम्हारी ज़िन्दगी में । आख़िर कब चेतोगी तुम? चेतो,आज ही चेतो जिससे वह भयावह कल कभी न आने पाए और वह दरिंदा तुम्हें बेजान वस्तु बनाकर मत भरमाने-फुसलाने पाए नहीं है तुम्हें सिर्फ रेंड़ी-सा चनकना तुम्हें तो है लुत्ती बनकर धनकना धनको, जिससे फटे पौ सोझिया का मुँह चाटने के लिए फिर कोई कुत्ता पास न फटके धनको, ताकि छिटके दिनकर की रश्मियों-सी तुम्हारे अस्तित्व की लौ और यह हो जाए साबित कि आगर है यह धरती जौ-जौ ।   बेटियाँ बेटियाँ इतिहास रचती रहें, कुछ ऐसा करें । खुलेपन की हिमायत भी जकड़बंदी भी वही, बने हाथी-दाँत कब तक रहेंगे, शिकवा यही, खलबली चहुँओर मचती रहे,कुछ ऐसा करें । फूल-कलियों, तितलियों की खुशबुओं की चाह हो, पर चमन की हिफाज़त की ही नहीं परवाह हो! पुतलियों-सी मगन नचती रहें कुछ ऐसा करें । पढ़ें बेटी, बढ़ें बेटी तुंग शिखरों पर चढ़ें , हम सभी … Read more

मम्मा हमको ब्वाय बना दो

मम्मा हमको बॉय बना दो

मासूम  प्यारी सी बच्ची  जिसको दखकर मन स्वत: ही स्नेह से भर जाता है | जरा उसकी दर्द भरी  गुहार को सुनिए |तब  स्त्री और पुरुष  की बराबरी की बातें बेमानी हो जाती हैं |  बेमानी हो जाती है ये बात कि शिक्षा और कैरियर में स्त्री पुरुष का संघर्ष बराबर है जब उन्हें घर के बाहर ही नहीं अंदर भी खतरा हो | कब मासूम बच्ची इस खतरे को समझती है और अपनी माँ से कहती है “मम्मा  मुझको भी बॉय बना दो ” |सौरभ दीक्षित मानस जी की एक मार्मिक कविता .. मम्मा हमको ब्वाय बना दो मम्मा हमको ब्वाय बना दो अब बाहर डर लगता है। छोटे बच्चों के संग भी दुष्कर्म हो सकता है।। सबसे पहले आप कटा दो, काले लंबे बाल घने। ये ही सबसे बड़ी मुसीबत, ये जी का जंजाल बने।। भइया अंकल दादा जैसे, गंदी हरक़त करते हैं, सुनती हो ना, अखबारों में ये ही सब तो छपता है। मम्मा हमको ब्वाय बना दो अब बाहर डर लगता है। जैसे जैसे बड़ी हो रही सबको चिंता होती जाती। क्या होगा स्कूल में मेरे किस रास्ते से मैं हूँ आती।। अंकल बाहर बोल रहे थे अब बकरी भी नहीं सुरक्षित, मार जिसे खाते थे पहले उसकी इज्ज़त आज लूटी है। मूक यहां सरकार बनी है क्या कौन यहाँ कर सकता है। मम्मा हमको ब्वाय बना दो अब बाहर डर लगता है। तुम मेरी बेटी कह लेती हो, वो बेटी अब किसे बताये? जिनके घर में रहती हो वो, रक्षक भी भक्षक बन जाये। खेल खिलौने की आयु में उसके तन को नोच रहे। वो भी होंगे बाप किसी के तनिक न ऐसा सोच रहे।। टीवी चैनल में दिखता है अखबारों में छपता है आ बेटी मैं ब्वाय बना दूँ अब बाहर डर लगता है। …….#मानस यह भी पढ़ें .. मै भी गाऊँ सांग प्रभु ऐ, सुनो ! मैं तुम्हारी तरह 6 साल के बच्चे का अपने सैनिक पिता को फोन….. आज के साहित्यकार आपको कविता “मम्मा हमको बॉय बना दो” कैसी लगी ? अपनी राय से हमें अवश्य अवगत कराएँ | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो साइट को सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन का  फेसबुक पेज लाइक करें | ReplyForward