नादान सी वो लड़की – प्रिया मिश्रा की कवितायें

प्रिया मिश्रासतना म.प्र. 1)नादान सी वो लड़की  कब हो गई सयानी नादान सी वो लड़की पत्तो से खेलती थी पेड़ो पे झूलती थी हर रोज थी जो गढ़ती कोई नई सी कहानी कब हो गई सयानी? नादान सी वो लड़की। जुल्फे थी मानो उसकी जैसे कोई घटाये हरपल में संग रहती सभी की दुआएँ; कब हो गई सयानी नादान सी वो लड़की। तितली के पीछे भागे बंदरो सी कूदे- फान्दे नदियो सी थी वो शीतल हवाओ जैसी चंचल रोके से भी रुके न ऐसी थी वो दीवानी कब हो गई सयानी नादान सी वो लड़की। हर बात पे झगड़ती संग सबके लड़ती रहती पल भर में रूठ जाती और झट से मन जाती हर दम ही करती रहती  बच्चों सी नादानी बक -बक न थी रूकती बस बोलती ही जाती बातो में तो थी वो हम सभी की नानी कब हो गई सयानी नादान सी वो लड़की। नानी की थी वो प्यारी नाना की दुलारी पहले थी जो न सहती एक बात भी किसी की अब चुप हो सह रही है हर बात हर किसी की कब हो गई सयानी नादान सी वो लड़की गर्म रोटी बिन घी के जो न खाती ससुराल में ठंडी रोटी, भी वो खा रही है कब हो गई सयानी नादान सी वो लड़की। परियो सी पली थी बाबा की लाड़ली थी अब बन गई है बीबी और बहू वो किसी की हर बात पे नादानी शैतान की थी नानी अब हो गई सयानी नादान सी वो लड़की अब न रही शैतानी बन गई है वो नानी हर बात जानती है जबसे माँ बनी है हाँ हो गई सयानी नादान सी वो लड़की। नानी जो बन गई है तो और खिल गई है अब हो गई सयानी नादान सी वो लड़की। 2) “इंसान चाहिए” चारो तरफ लुटेरे है; अब और नहीं शैतान चाहिये, अपनी मातृभूमि पर  मुझको अब केवल इंसान चाहिए। चारो ओरे है गुंडागर्दी ; अब और न गुंडा राज चाहिए , अपनी मातृभूमि पर मुझको अब केवल इंसान चाहिए। भाई भाई के खून का प्यासा ; ऐसा न नर संहार चाहिए, अपनी मातृभूमि पर मुझको अब केवल इंसान चाहिए। नारी पल पल मरती हो जहाँ ; ऐसा न मकान चाहिए, अपनी मातृभूमि पर  मुझको अब केवल इंसान चाहिए। माता पिता बोझ हो जिसको ; ऐसी न संतान चाहिए, अपनी मातृभूमि पर मुझको अब केवल  इंसान चाहिए। कन्या हत्या करके पाये; ऐसा न अभिमान चाहिये, अपनी मातृभूमि पर मुझको अब केवल इंसान चाहिए। भ्रष्टाचार चतुर्दिक फैला; ऐसी न सरकार चाहिए, अपनी मातृभूमि पर  मुझको अब केवल इंसान चाहिए। 3) “तकलीफ़” आख़िर कब होती है तकलीफ़? क्या तब जब कोई अपना रूठ जाए या तब जब कोई अनजाना छूट जाए? या तब जब देश के रक्षक ही भक्षक बन जाए? या तब जब हमारे गुनाहों की सजा कोई और भोगता है? या तब जब बिना कुछ कहे ही कोई हमे छोड़ जाए? या तब जब जनमो का साथी पल भर भी साथ ना निभाए? या तब जब किसानों की मौत पर उसकी विधवा सिर्फ़ चंद रुपयों का मुआवजा पाए? या फिर तब जब कोई मासूम बच्ची की लाज के साथ खेल जाए? या तब जब सबकुछ जानकर भी कोई जुबा ना हिलाए? “आख़िर कब होती है तकलीफ़?” क्या तब जब सरे राह नारी को छेड़ कोई जाए? और मूक बधिर जनता कोई आवाज़ न उठाए ; या तब जब नन्ही सी बच्ची की जान ली है जाती कभी कोख मार दी है जाती तो कभी मंदिरों के बाहर फेंक दी है जाती! या तब दहेज के लोभी जलाकर है मार देते; या फिर तब जब बड़ा होके बेटा माँ-बाप को ही ना निहारे; “कब होती है तकलीफ़?” क्या तब जब कोई मेहनत कर के भी मोल न पाए , या तब जब रुपयों के दम पर कोई मिनिस्टर बन जाएँ! या तब होती है तकलीफ़ जब कोई चालीस करोड़ एक साडी पे उडाए और कोई औरत अपना तन ढकने को एक वस्त्र भी न पाए! या तब होती है तकलीफ़ जब कोई ऊँच-नीच,ग़रीबी-अमीरी का पाठ है पढाए! या तब जब मजहब या धर्म के नाम भाई -भाई बँट है जाए! हाँ होती है तकलीफ़ !बहुत ज्यादा ,पर क्या कभी मिटा सकेंगे हम ये तकलीफ़? 4)गीत मिलकर संग पाप मिटाने चलो ओ साथी साथ चलें हर मुश्किल को संग मिटाने चलो ओ साथी साथ चलें गांव-शहर को स्वच्छ बनाने चलो ओ साथी साथ चलें आजादी का अर्थ बताने चलो ओ साथी साथ चलें भष्ट्राचार को जड़ से मिटाने चलो ओ साथी साथ चलें बच्चों को बचपन से मिलाने चलो ओ साथी साथ चलें शिक्षा का दीप जलाने चलो ओ साथी साथ चलें सोन चिरैया खोज के लाने चलो ओ साथी साथ चलें ऊंच-नीच का भेद मिटाने चलो ओ साथी साथ चलें लिंग भेद का भेद मिटाने चलो ओ साथी साथ चलें हर जुर्म को जड़ से मिटाने  चलो ओ साथी साथ चलें बंजर मे हरियाली लाने चलो ओ साथी साथ चलें अपने देश को स्वर्ग बनाने चलो ओ साथी साथ चलें नशे की जड़ को हटाने चलो ओ साथी साथ चले युवाओ को राह दिखाने  चलो ओ साथी साथ चले नेताओं को राह दिखाने  चलो ओ साथी साथ चले बुजुर्गो को सम्मान दिलाने चलो ओ साथी साथ चले “लिख रही हूँ” लिख रही हूँ तो लगता है जी रही हूँ अभी, अपनी धड़कन को साँसों मे पिरो रही हूँ कही! लिख रही हूँ तो मानो कोई बंधन नहीं, न लिखूँ तो लगता है जकडी हूँ जंजीरो मे कई! मन होता है जो उदास कभी, लिख देती हूँ मै हर ग़म को तभी! फिर न होती उदासी न मुश्किल कही लिखती हूँ क्योंकि यहीं है चाहत मेरी, हर मंज़िल मेरी, हर तमन्ना मेरी! न लिखूँ  तो लगे; हूँ अधूरी अभी ! लिखती हूँ क्योंकि ,वो ही है पूरक मेरी! लिखती हूँ तभी जी रही हूँ अभी……… परिचय:- मेरा परिचय नाम -प्रिया मिश्रा शिक्षा –b.com (c.a.) प्रकाशित रचनाएँ–लघुकथाएँ,कवितायेँ एवं लेख देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओ में प्रकाशित (रचना प्रकाशित अखबारो के नाम-दैनिक भास्कर सतना प्लस, जनसंदेस ,राजस्थान पत्रिका “सृजन” ,भोपाल लोकजंग ,झाँसी लोकमत एवं महानगर मेल मुम्बई आदि )

एक माँ से मिले हो ?- रश्मि प्रभा जी की पांच कवितायें

वरिष्ठ लेखिका रश्मि प्रभा जी की कलम में जादू है | उनके शब्द भावनाओं के सागर में सीधे उतर जाते हैं | आज हम रश्मि प्रभा जी की पांच कवितायें आपके लिए ले कर आये हैं जो पाठक को ठहर कर पढने पर विवश कर देती हैं | एक माँ से मिले हो ? तुम एक स्त्री से अवश्य मिले होगे  उसके सौंदर्य को आँखों में घूँट घूँट भरा भी होगा  इससे अलग क्या तुम सिर्फ और सिर्फ  एक माँ से मिले हो ? उसकी जीवटता, उसकी जिजीविषा का अद्भुत सौंदर्य  बिना किसी अगर-मगर के देखा है  समझा है ?  उसका आंतरिक, मानसिक वेग और उससे परे उसका शांत झील सा चेहरा  और उसकी सम्पूर्णता में समाहित  गीता को पढ़ा है ? एक माँ के अस्तित्व में ही जीवन का कुरुक्षेत्र छिपा होता है  वही अर्जुन,वही कर्ण  वही अभिमन्यु होती है  सारथि कृष्ण का रूप धर  कई दुर्योधन दुःशासन को मारती है  कुंती से मुँह फेरकर  राधा का सम्मान करती है ! बच्चे के लिए  एक नहीं कई समंदर उसके भीतर होते हैं  ऊँची उठती लहरों पर भी वह अद्भुत संतुलन साधती है  बहती है उसके अंदर त्रिवेणी  जहाँ अदृश्य लगती सरस्वती के आगे  वह आशीषों के बोल रखती है  जो धरती-आकाश की कौन कहे  पाताल तक रक्षा करती है  …  एक माँ में  सम्पूर्ण तीर्थस्थलों सी शक्ति होती है  ….  माँ बनते  एक स्त्री के सारे उद्देश्य बदल जाते है  सोच की दिशा बदल जाती है  कुछ न होकर भी वह एक मशाल बन जाती है  प्रकाश का अदम्य स्रोत  सामर्थ्य, परिवेशीय स्थिति से निर्विकार  वह अपमान में भी सम्मान के अर्थ भरती है  अपने बच्चे के लिए संजीवनी बन  उसके रास्तों को निष्कंटक बनाती है  …  उसके चेहरे में उसे देखना  उसे पाना  बहुत मुश्किल है  सतयुग से लिखी जा रही वह  वह कथा है  जो सिर्फ उसी की कलम से लिखी जा सकती है ! चलो चलें जड़ों की ओर  माँ और पिता हमारी जड़ें हैं और उनसे निर्मित रिश्ते गहरी जड़ें जड़ों की मजबूती से हम हैं हमारा ख्याल उनका सिंचन … पर, उन्नति के नाम पर आधुनिकता के नाम पर या फिर तथाकथित वर्चस्व की कल्पना में हम अपनी जड़ों से दूर हो गए हैं दूर हो गए हैं अपने दायित्वों से भूल गए हैं आदर देना … नहीं याद रहा कि टहनियाँ सूखने न पाये इसके लिए उनका जड़ों से जुड़े रहना ज़रूरी है अपने पौधों को सुरक्षित रखने के लिए अपने साथ अपनी जड़ों की मर्यादा निर्धारित करनी होती है लेकिन हम तो एक घर की तलाश में बेघर हो गए खो दिया आँगन पंछियों का निडर कलरव रिश्तों की पुकार ! ‘अहम’ दीमक बनकर जड़ों को कुतरने में लगा है खो गई हैं दादा-दादी नाना-नानी की कहानियाँ जड़ों के लिए एक घेरा बना दिया है हमने तर्पण के लिए भी वक़्त नहीं झूठे नकली परिवेशों में हम भाग रहे गिरने पर कोई हाथ बढ़ानेवाला नहीं आखिर कब तक ? स्थिति है, सन्नाटा अन्दर हावी है , घड़ी की टिक – टिक……. दिमाग के अन्दर चल रही है । आँखें देख रही हैं , …साँसें चल रही हैं …खाना बनाया ,खाया …महज एक रोबोट की तरह ! मोबाइल बजता है …,- “हेलो ,…हाँ ,हाँ , बिलकुल ठीक हूँ ……” हँसता भी है आदमी ,प्रश्न भी करता है … सबकुछ इक्षा के विपरीत ! ………………. अपने – पराये की पहचान गडमड हो गई है , रिश्तों की गरिमा ! ” स्व ” के अहम् में विलीन हो गई है ……… सच पूछो, तो हर कोई सन्नाटे में है ! ……..आह ! एक अंतराल के बाद -किसी का आना , या उसकी चिट्ठी का आना …….एक उल्लसित आवाज़ , और बाहर की ओर दौड़ना ……, सब खामोश हो गए हैं ! अब किसी के आने पर कोई उठता नहीं , देखता है , आनेवाला उसकी ओर मुखातिब है या नहीं ! चिट्ठी ? कैसी चिट्ठी ? -मोबाइल युग है ! एक वक़्त था जब चिट्ठी आती थी या भेजी जाती थी , तो सुन्दर पन्ने की तलाश होती थी , और शब्द मन को छूकर आँखों से छलक जाते थे ……नशा था – शब्दों को पिरोने का ! …….अब सबके हाथ में मोबाइल है …………पर लोग औपचारिक हो चले हैं ! ……मेसेज करते नहीं , मेसेज पढ़ने में दिल नहीं लगता , या टाइम नहीं होता ! फ़ोन करने में पैसे ! उठाने में कुफ्ती ! जितनी सुविधाएं उतनी दूरियाँ समय था …….. धूल से सने हाथ,पाँव, माँ की आवाज़ ….. “हाथ धो लो , पाँव धो लो ” और , उसे अनसुना करके भागना , गुदगुदाता था मन को ….. अब तो !माँ के सिरहाने से , पत्नी की हिदायत पर , माँ का मोजा नीचे फ़ेंक देता है बेटा ! क्षणांश को भी नहीं सोचता ” माँ झुककर उठाने में लाचार हो चली है ……” …….सोचने का वक़्त भी कहाँ ? रिश्ते तो हम दो ,हमारे दो या एक , या निल पर सिमट चले हैं …… लाखों के घर के इर्द – गिर्द -जानलेवा बम लगे हैं ! बम को फटना है हर हाल में , परखचे किसके होंगे -कौन जाने ! ओह !गला सूख रहा है …………. भय से या – पानी का स्रोत सूख चला है ? सन्नाटा है रात का ? या सारे रिश्ते भीड़ में गुम हो चले हैं ? कौन देगा जवाब ? कोई है ? अरे कोई है ? जो कहे – चलो चलें अपनी जड़ो की ओर … जिजीविषा का सिंचन जारी है ……. अपनी उम्र मुझे मालूम है मालूम है कि जीवन की संध्या और रात के मध्य कम दूरी है लेकिन मेरी इच्छा की उम्र आज भी वही है अर्जुन और कर्ण सारथि श्री कृष्ण बनने की क्षमता आज भी पूर्ववत है हनुमान की तरह मैं भी सूरज को एक बार निगलना चाहती हूँ खाइयों को समंदर की तरह लाँघना चाहती हूँ माथे पर उभरे स्वेद कणों की अलग अलग व्याख्या करना चाहती हूँ आकाश को छू लेने की ख्वाहिश लिए आज भी मैं शून्य में सीढ़ियाँ लगाती हूँ नन्हीं चींटी का मनोबल लेकर एक बार नहीं सौ बार सीढ़ियाँ चढ़ी हूँ गिरने पर आँख भरी तो है पर सर पर कोई हाथ रख दे इस चाह … Read more

जापानी तेल लगाओ—-राधे माँ

रचयिता—-रंगनाथ द्विवेदी। जौनपुर(उत्तर-प्रदेश) तुम भी अब स्वर्ण-भस्म और शीलाजीत सी——- कोई दवाई खाओ—राधे माँ। बर्दाश्त नही हो रहा आशाराम और राम-रहिम से, स्याह कोठरी का खालीपन, किसी बगल की बैरक मे कैसे भी हो——- तुम आ जाओ–राधे माँ। स्त्री-गामी संसर्गो का स्वर्ग छिना, नरक हो गया जीवन, इस जीवन की रति-सुंदरी कि काया का—— कुछ तो दरस कराओ–राधे माँ। हम बाबाओ के अच्छे दिन चले गये, मालिश,काजू ,पिस्ता सब ख्वाब हुआ, आश्रम मे पोर्न बहुत देखा, कही नपुंसक न हो जाये हम बाबा, अपने प्रेम का कुछ दिन ही सही, तुम आके यहाँ गुजारो–राधे माँ। सारे आसन कामुकता के फिर से जीवित हो, तुम भरके हथेली मे अपने थोड़ा सा, ये जापानी तेल लगाओ–राधे माँ।

गाँव के बरगद की हिन्दी छोड़ आये

रंगनाथ द्विवेदी। शर्मिंदा हूं—————- सुनूंगा घंटो कल किसी गोष्ठी में, उनसे मै हिन्दी की पीड़ा, जो खुद अपने गाँव मे, शहर की अय्याशी के लिये——– अपने पनघट की हिन्दी छोड़ आये। गंभीर साँसे भर, नकली किरदार से अपने, भर भराई आवाज से अपने, गाँव की एक-एक रेखा खिचेंगे, जो खुद अपने बुढ़े बाप के दो जोड़ी बैल, और चलती हुई पुरवट की हिन्दी छोड़ आये। फिर गोष्ठी खत्म होगी, किसी एक बड़े वक्ता की पीठ थपथपा, एक-एक कर इस सभागार से निकल जायेंगे, हिन्दी के ये मूर्धन्य चिंतक, फिर अगले वर्ष हिन्दी दिवस मनायेंगे, ये हिन्दी के मुज़ाहिर है एै,रंग——— जो शौक से गाँव के बरगद की हिन्दी छोड़ आये। @@@आप सभी को हिन्दी दिवस की ढ़ेर सारी बधाई। रंगनाथ द्विवेदी का रचना संसार अलविदा प्रद्युम्न – शिक्षा के फैंसी रेस्टोरेंट के तिलिस्म में फंसे अनगिनत अभिवावक जिनपिंग – हम ढाई मोर्चे पर तैयार हैं आइये हम लंठों को पास करते हैं

मै लिखता हूँ कोई गीत

रंगनाथ द्विवेदी। जौनपुर (उत्तर-प्रदेश)। जब बेचैन कर देता है———— मेरे अंदर का मरुस्थल मुझको, तब मै लिखने बैठता हूँ कोई गीत। जब———— शब्द के होंठ पे चुभती है कोई नागफनी, तब मै लिखने बैठता हूँ कोई गीत। जब पथ की रेत पे———– चलता जाता हूँ दूर पथिक सा और फूट जाते है पाँव के छाले, तब मै लिखने बैठता हूँ कोई गीत। जब———— बहुत सन्नाटा मेरे भीतर का, उधेड़ता है मुझको——— तब मै लिखने बैठता हूँ कोई गीत। बोता हूँ रेत पे कुछ शब्द, पर कटिले वृक्ष के विरवे ही पनपते है, उन्ही वृक्षो की———— खरोंच जब आ जाती है बन के पीर, तब मै लिखता हूँ कोई गीत।

शाश्वत प्रेम

कृष्ण और राधा के शाश्वत प्रेम पर एक खूबसूरत कविता  किरण सिंह  सुनो कृष्ण  यूँ तो मैं तुममें हूँ  और तुम मुझमें  बिल्कुल सागर और तरंगों की तरह  या फिर  तुम बंशी और मैं तुम्हारे बंशी के स्वर की तरह  शब्द अर्थ की तरह  आदि से अनंत तक का नाता है  मेरा और तुम्हारा  मैं हूँ तेरी राधा  हमारा प्रेम कभी कामनाओं पर आधारित नहीं था  क्यों कि हमारी भावनायें सशक्त थीं  हम दोनों तो दो आत्माएँ हैं  हम दोनों में प्रियतमा और प्रियतम का भेद है ही नहीं।  बस मिलन की तीव्र जिज्ञासा  पैदा करती है अभिलाषा  हम दोनों को एकाकार कर दिया  जो शरीर से अलग होने के बाद भी  अलग नहीं हुए कभी  इसलिए मुझे कभी वियोग नहीं हुआ  तुमसे अलग होने पर भी  लेकिन तुमने अपना बांसुरी त्याग दिया था  मथुरा जाते समय  अपना गीत, संगीत, सुर, साज  क्यों कि तुम कर्म योगी थे  तुम्हें कई लक्ष्य साधने थे  मैनें अपने प्रेम को तुम्हारे लक्ष्य में  कभी बाधक नहीं बनने दिया  प्रेम को अपना शक्ति बनाया  कमजोरी नहीं  अरे हमने ही तो प्रेम को परिभाषित किया है   तभी तो स्थापित है हम  साथ-साथ मन्दिरों में  भजे जाते हैं  भजन कीर्तनों में  कि प्रेम शक्ति है कमजोरी नहीं  प्रेम त्याग है स्वार्थ नहीं  हम तो  हर दिलों में धड़कते हैं  बनकर  शाश्वत प्रेम  © किरण सिंह Attachments area किरण सिंह जी का रचना संसार

बकरा

रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर,जौनपुर(उत्तर-प्रदेश) पालने वाले मालिक से खरीदकर, जब कसाई—————– जबरदस्ती पकड़े ले चलेगा बकरे को उस गाँव,उस गली से जहां वे इतने दिन पला बढ़ा है, तो में में में कर रोता जायेगा वे रास्ते भर। गर रास्ते में कही देखेगा वे बकरी का मेंमना, तो सोचेगा————— कि देखो कितना उछल कुद रहा, गले में घंटी और घुँघरू पहने, अपने अंजाम से बेखबर, कितना खुश है ये मेंमना! यही जब बड़ा हो जायेगा तो इसको भी खरीदने, फिर इसी गाँव और गली में आयेगा एक कसाई! ले जायेगा फिर में में में करते हुये बकरे को, फिर कसाई उसे तमाम बकरो में खड़ा कर, खू से तरबतर ———– जब इसको भी काटने की तरफ बढ़ेगा, तो एक मर्तबा फिर बकरे को———- वे गाँव,वे गली,वे मालिक याद आयेगा। फिर कसाई———— गले को बेरहमी से काटेगा रेतेगा, और में में में में कर तड़पड़ा के, अपने ही खून में कुछ देर के बाद, हमेशा के लिये शांत हो जायेगा बकरा।

राम-रहीम से बलात्कारी बाबा बढ़ रहे

रंगनाथ द्विवेदी बाबाओ को गदराई दैहिकता ललचा रही———– औरत इन्हें भी हमारी तरह भा रही। सारे प्रवचन भुल रहे, बिस्तर पर हर रात एक यौवन का सेवन, तन्दुरुस्ती एैसी कि एक जवान से ज्यादा——- औरत की जिस्म पे बाबा जी झूल रहे। कामोत्तेजना के तमाम आसन कोई इनसे पुछे, दाँतो तले पहरे पे खड़े सेवक अपनी अँगूली दबा रहे, साठ के बाबा जी के क्या कहने कि बीना शिलाजीत खाये, इनके कमरे की हर ईट से जैसे कामसूत्र चीखे। सभी बाबा एक-एक कर फँस रहे, जेल मे आशाराम बापू आह भर रहे, सीडी किंग नित्यानंद, जेल मे चोरी-चोरी अश्लील किताब मंगा, अपना अंग विशेष पकड़े———– बड़ी समाधिस्त अवस्था मे मस्तराम को पढ़ रहे, फिर भी इन चरित्रहीनो के भक्त है, कि मानते नही, पुलिस,पैरामिलट्री,कर्फ्यू तक लगाना पड़ रहा, लेकिन वाह रे इन गलिजो के भक्त, इतनी निकृष्ट गुरुता का अंधापन, कि पंजाब और हरियाणा के बलात्कारी को बचाने के लिये, अपने ही राज्य के बेटे लड़ रहे, शायद इसी से एै “रंग”, अब हमारे देश मे राम-रहीम से———- बलात्कारी बाबा बढ़ रहे। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर–प्रदेश)। तुम धन्य हो इस देश के तथाकथित बलात्कारी बाबाओ जो इतना इस देश की आस्था का श्री वर्द्धनकर आप चार चाँद लगा रहे।

विघ्न विनाशक

डॉ मधु त्रिवेदी हर विघ्न के विनाशक सारे जहाँ में जोदेवता गणेश जी की इनायत हमें भी है कारज सफल करे अब कोई न चूक होकिरपा बनी रहे ये इजाजत हमें भी है हर वक्त हम संभल कर आगे बढ़े सदाहो जब विषम परिस्थिति राहत हमें भी है वरदान ईश्वर का हमेशा हमें मिलासारी हकीकते ये खिलाफत हमें भी है कोई दुखी न हो न परेशान दीन होदे दे खुशी सभी को नसीहत हमें भी है झगड़े कभी न हो हर मजहब का मान होझण्डा ऊँचा रहेगा हिफाजत हमें भी है चाहे पूजे रहीम या पूजे वो राम कोमकसद सभी का एक अदालत हमें भी है

तलाक था..

-रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर–प्रदेश)। औरतो की खूशनुमा जिंदगी मे जह़र की तरह है तलाक——- औरत आखिर बगावत न करती तो क्या करती, जिसने अपना सबकुछ दे दिया तुम्हें, उसके हिस्से केवल सादे कागज़ पे लिखा—— तीन मर्तबा तुम्हारा तलाक था। इस्लाम और सरिया की इज़्ज़त कब इसने नही की, फिर क्यू आखिर—————- केवल मर्दो के चाहे तलाक था। मै हलाला से गुजरु और सोऊ किसी गैर के पहलु, फिर वे मुझे छोड़े, उफ! मेरे हिस्से एै खुदा———- कितना घिनौना तलाक था। महज़ मेहर की रकम से कैसे गुजरती जिंदगी, दो बच्चे मेरे हिस्से देना, आखिर मेरे शौहर का ये कैसा इंसाफ था, मै पुछती बताओ मस्जिदो और खुदा के आलिम-फा़जिल, कि आखिर मुझ बेगुनाह को छोड़ देना——— कुरआन की लिखी किस आयत का तलाक था। पढ़िए ………..रंगनाथ द्विवेदी का रचना संसार