लज्जा

शरबानी  सेनगुप्ता वह कोयले के टाल  पर बैठी लेकर हाथ में सूखी रोटी संकुचाई सिमटी सी बैठी पैबंद लगी चादर में लिपटी  मैली फटी चादर को कभी वह इधर से खींचती उधर से खींचती न उसमें है रूप –रंग ,और न कोई सज्जा सिर्फ अपने तन को ढकना चाहती क्योंकि उसे आती है लज्जा || अरे ! देखो वो कौन है जाती ? इठलाती और बलखाती अपने कपड़ों पर इतराती टुकड़े –टुकड़े वस्त्र को फैशन कहती और समझती सबसे अच्छा क्योंकि उसे न आती लज्जा लज्जा का यह भेदभाव मुझे समझ न आता कौन सी लज्जा निर्धन है और कौन धनवान कहलाता यह सोच सोच कर मन में लज्जा भी घबराती वस्त्रहीन लज्जा को देखकर लज्जा भी शर्माती

हे श्याम सलोने

©किरण सिंह ************ हे श्याम सलोने आओ जी  अब तो तुम दरस दिखाओ जी  राह निहारे यसुमति मैया  तुम ठुमक ठुमक कर आओ जी  आओ मधु वन में मुरलीधर प्रीत की बंशी बजाओ जी दबा हुआ बच्चों का बचपन  अब राह नई दिखलाओ जी  पुनः द्रौपदी चीख रही है  अस्मत की चीर बचाओ जी  राग द्वेष से मुक्त करो हमें  गीता का पाठ पढ़ाओ जी  मति हीन हम सब मूरख हैं  अपना स्वरूप दिखलाओ जी  जन्म ले लिये कृष्ण मुरारी  सखियाँ सोहर गाओ जी 

देश भक्ति के गीत

डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई, देहरादून, उत्तराखंड जय गान करें ———————– भारत का जय गान करें आओ हम अपने भारत की नई तस्वीर गढ़ें भारत का…. अपनी कीमत खुद पहचाने हम क्या हैं खुद को भी जाने अपने मूल्यों और संस्कृति की एक पहचान बनें भारत का…. जो खोया वो फिर पाना है जो छीना वो फिर पाना है अपनी धरोहर की रक्षा में नहीं किसी से डरें भारत का…. अपनी गलती से सीखें हम उसको कभी न दोहराएं हम हिंदुत्व अपने में लेकर हम हर एक कदम धरें भारत का… ———————————— –कुछ इस तरह ———————— जिऊँ कुछ इस तरह देश मेरे कुछ ऋण तुम्हारा उतार सकूँ सोचूँ  कुछ इस तरह देश मेरे जीवन में तुम्हें बसा सकूँ गाऊँ कुछ इस तरह देश मेरे गीतों में तुम्हें गुनगुना सकूँ लिखूं कुछ इस तरह देश मेरे शब्दों में तुम्हें बाँध सकूँ उड़ूँ कुछ इस तरह  देश मेरे तिरंगा अपना लहरा सकूँ देखूँ कुछ इस तरह  देश मेरे हरदम तुम्हें हिय में बसा सकूँ मैं रोऊँ-गाऊँ कुछ भी करूँ देश मेरे जब चाहूँ तुमको बुला सकूँ।        मरुँ कुछ इस तरह देश मेरे मिट्टी में मिल तुझमें समा सकूँ। —————————- मेरा भारत महान ~जय हिन्द  Attachments are

पिजड़े से आजादी

यूँही नही मिली एै दोस्त————– गुलाम भारत के पिजड़े की चिड़ियाँ को आजादी। यूँही नही इसके पर फड़फड़ाये खुले आकाश—– बहुत तड़पी रोई पिजड़े मे इसके उड़ने की आजादी। इसने देखा है——– गोली सिने मे लगी घिसटता रहा खोलने पिजड़े को, लेकिन खोलने से पहले दम तोड़ गया, इस आस मे कि मै तो न खोल सका, पर कोई और खोलेगा एकदिन और दुनिया देखेगी—- इस बंद पिजड़े के चिड़ियाँ की आजादी। जश्ऩ मे डुबी सुबह होगी तिरंगे फहरेंगे, जलिया,काकोरी,आजाद,विस्मिल की गाथाये होंगी, हाँ ! आँख भिगोये देखेगी वही पिजड़े की चिड़ियाँ, क्योंकि बड़ी मुश्किलो से पाई है एै “रंग”———- इस चिड़ियाँ ने उस पिजड़े से आजादी। @@@रचयिता—-रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर–प्रदेश)। मेरा भारत महान ~जय हिन्द

गीता के कर्मयोग की काव्यात्मक व्याख्या

गीता का तीसरा अध्याय कर्म योग के नाम से भी जाना जाता है प्रस्तुत है गीता के  कर्मयोग  की सरल काव्यात्मक व्याख्या /geeta ke karmyog ki saral kaavyaatmak vyakhya  श्रीमती एम .डी .त्रिपाठी ( कृष्णी राष्ट्रदेवी )  अर्जुन ने प्रभु से  कहा  सुनिए करुणाधाम  मम मन में संदेह अति  निर्णय दें घनश्याम  ज्ञान अगर अति श्रेष्ठ है  कर्मों से दीनानाथ  लगा रहे हो घोर फिर  कर्मों में क्यों नाथ   कहा प्रभू ने पार्थ सुनो  ये दो निष्ठाएं जग में हैं  ज्ञान योग व् कर्म योग में  कुछ भी तो भेद नहीं है  कोई भी नर एक क्षण भी तो  नहीं कर्म किये बिना रह सकता है  यदि तन से नहीं तो मन से ही  वह कर्म का चिंतन करता है  इसलिए कर्म को त्यागना  संभव नहीं है पार्थ  हर क्षण में है कर्म का  नर जीवन में साथ  हठ पूर्वक रोक जो इन्द्रियों को  जो कर्म का चिंतन करता है  ऐसा नर निश्चय ही अर्जुन  मिथ्याचारी कहलाता है  इन्द्रियों को जो वश में रख के  आसक्ति रहित हो कर्म करे  वही श्रेष्ठ पुरुष कहलाता है  जो शास्त्र विहित कर्तव्य करे  कर्तव्य कर्म का करना ही  सब भांति मनुज के हित में है  निष्काम कर्म करने से ही  कल्याण जीव का होता है  जो शास्त्र विहित हैं कर्म सभी  वे यज्ञ स्वरुप हो जाते हैं  फिर अनासक्त हो जाने से  बंधन भी सब छुट जाते हैं  प्रभु अर्पण यदि तुम कर्म करो  सब इच्छित फल पा जाओगे  आसक्ति भाव से कर्म किया  तो बंधन में बंध जाओगे  इसलिए निरंतर हे अर्जुन  आसक्ति रहित तू कर्म करे  दो लोक बनेगे तब तेरे  किंचित फल की आशा न करे  आरभ सृष्टि के ब्रह्मा ने  है प्रजा की रचना यज्ञ से की  तुम अनासक्त हो कर्म करो  निज प्रजा को भी यह आज्ञा दी  हे पार्थ सुनो सम्पूर्ण जीव की  उत्पत्ति अन्न से होती है  अरु अन्न की उत्पत्ति वर्षा से  वर्षा कर्म यज्ञ से होती है  जीवन उसका ही धनी की जो  प्रभु हित कर्तव्य कर्म करता  जो स्वार्थ युक्त हो कर्म करे  वो पाप अन्न ही खाता है  जनकादिक सभी ज्ञानियों ने  आसक्ति रहित ही कर्म किये  फिर लोक कल्याण को पा कर के  है अंत मोक्ष को प्राप्त किये  त्रैलोक्य में भी मुझको अर्जुन  कुछ भी कर्तव्य है शेष नहीं  परलोक हितार्थ सदा ही तो  कर्तव्य कर्म से दूर नहीं  परवश स्वाभाव से हो प्राणी  कर्मों को करता रहता है  ” मैं करता हूँ ” अपने में  भावना यह धारण करता है  यह ही बंधन का कारण है  इससे ही दुःख उठाते हैं  इस गुण विभाग के तत्वों को  ज्ञानी जन खूब जानते हैं  कामना रहित कर्मों द्वारा  आचरण शुद्ध  हो जाएगा  बस अनासक्त हो जाने से  बंधन भी सब छुट जाएगा  इस काम रूप बैरी का ही  हे अर्जुन प्रथम विनाश करो  जो सर्वशक्ति आत्मा तेरी  उस पर अटल विशवास करो || लेखक परिचय : श्रीमती एम डी त्रिपाठी , हिंदी की व्याख्याता रहने के बाद प्रभु श्रीकृष्ण के चरणों  की सेवा में पूर्ण रूप से लग गयी | उन्होंने श्री कृष्ण भक्ति पर अनेकों पुस्तके लिखी है | प्रस्तुत रचना संक्षिप्त गीतामृतम से है |हम श्रीमती त्रिपाठी जी का हार्दिक अभिनन्दन करते हैं |  यह भी पढ़ें …….. पवित्र गीता सभी को कर्तव्य व् न्याय के मार्ग पर चलने का सन्देश देती है जन्माष्टमी पर विशेष झांकी _ जय कन्हैया लाल की                                            

पन्द्रह अगस्त

15 अगस्त पर एक खूबसूरत कविता —रंगनाथ द्विवेदी अपनो के ही हाथो——— सरसैंया पे पीड़ाओ के तीर से विंधा, भीष्म सा पड़ा है——पन्द्रह अगस्त। सड़को पे द्रोपदी के रेप के दृश्यो ने, फिर भर दी है आजाद देश के उन तमाम शहीदो की आँखे, और उनकी रुह के सामने! शर्म से खड़ा है—-पन्द्रह अगस्त। बहुत बिरान है मजा़रे कही मेला नही लगता, ये सच है——————- कि हम शहिदो की शहादत के दगाबाज है, फिर भी एै,रंग————- ये लहराते तिरंगे कह रहे, कि हमारी तुम्हारी सोच से भी कही ज्यादा, विशाल और बड़ा है—–पन्द्रह अगस्त। यह भी पढ़ें ….. क्या है स्वतंत्रता का सही अर्थ भारत बनेगा फिर से विश्व गुरु आइये स्वतंत्रता दिवस पर संकल्प ले नए भारत के निर्माण का स्वतंत्रता दिवस पर आधी आबादी जाने अपने अधिकार भावनात्मक गुलामी भी गुलामी ही है स्वतंत्रता दिवस पर विशेष : मैं स्वप्न देखता हूँ एक ऐसे स्वराज्य के मेरा भारत महान ~जय हिन्द  Attachments area

अस्पताल गोरखपुर

गोरखपुर के उन बह रहे तमाम आँसुओ को समर्पित एक पीड़ा——- चालीस बच्चो की मौत पे भी शिकन नही——- बड़ी मोटी है तेरी सियासी खाल गोरखपुर। आॅक्सीजन की सप्लाई रुक गई, अभी तलक आजाद है सी.ऐम.ओ.(C.M.O.), मुझे तो शक है कि, इन बच्चो की मौत के है——— यही दलाल गोरखपुर। योगी यही के है इसी से मिट्टी डल रही है, लेकिन जल गई है धुनी—— अब आयेंगे काग्रेंस,सपा,बसपा के लोग, और बजायेंगे कुछ दिन नकली संवेदना लिये—– अपने-अपने सियासी गाल गोरखपुर। लेकिन वे आँखे भरी रहेंगी जिन आँखो में अभी तलक, अपने बच्चे के खेलने, और कानो को सुनने की किलकारियाँ थी, शायद कभी नही भरेंगे, उन बच्चो के खोने के ये घाव, रुह कांप जायेगी इनकी ता उम्र, और हमेशा इनकी जेहन मे रहेगा—— एक दर्द बनके तेरा अस्पताल गोरखपुर। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर–प्रदेश)।

चोटी काटने वाले से दुखी हूँ

रंगनाथ द्विवेदी औरतो की कट रही चोटी पे एक लेखकीय सहानुभूति कुछ औरतो के चोटी कटने की खबर सुन—— मेरी लुगाई भी सदमे मे है। वे सोये मे भी उठ जा रही बार-बार, फिर चोटी टटोल सो जा रही, अभी कल ही तो उसने——- एक तांत्रिक के बताये कुछ सामान मंगवा के, अपनी पुरी चोटी का तीन चक्कर लगा, घर मे सुलगाई अंगीठी मे, काला तील,लोबान,कपुर सब डाल कर, आँख मुद अपनी चोटी के रक्षार्थ, उस काले-कलुटे तांत्रिक के बताये, उट-पटांग सा श्लोक पढ़, फिर अपनी चोटी मे——- 15 से 20 मिनट तक नींबू और हरी मिर्च टांग, अनमने मन से एक कप चाय लाती है। उसके इस हाल पे हँसी और तरस दोनो आ रहा, क्या करु पति हूँ————– इसलिये मै उस चोटी काटने वाले से दुःखी हूँ। @@@रचयिता——रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)।

शिखरिणी छंद

शिखरिणी छंद—रक्षाबंधन पर डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई देहरादून, उत्तराखंड 1– रेशम सूत्र बनता नेह डोर संबंध गूढ़। —— 2– भाई बहन प्रफुल्लित हैं दोनों राखी पहन। —– 3– शीश चंदन सजती हाथ राखी भाई मगन। —– 4– सजाए थाली रोली चावल राखी बैठी बहना। —– 5– चाहे बहना रहे समृद्धि प्रेम भाई अँगना। —— 6– रहे मायका बना सदा भाई से चाहे बहना। —— 7– हों भाई भाभी बच्चे भी साथ तभी रक्षाबंधन। ——- 8– मिटें दूरियाँ रक्षा सूत्र पहुँचे लेकर नेह। —— 9– बदला रूप खिले रक्षासूत्र ले नई पहचान। —— 10– न हो सीमित संबंध बनें सब स्नेह बँधन। —— 11– भुलाएँ सब आपसी वैमनस्य मनाएँ राखी। —– 12– अभयदान दें प्रकृति को बाँध रेशम सूत्र। —– 13– रक्षा संकल्प लेकर सभी जन हों कटिबद्ध। ——– 14– कहे त्योहार रखना सदा याद प्रेम अपार। —— 15— राखी का मोल भावनाएँ जिसमें भरी अमोल। ——————————

रेप के घाव

@@@रचयिता—-रंगनाथ दुबे। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर। थाने पे——– एक गरीब की बिटिया, अपनी सलवार उतारे——— जगह-जगह हुये रेप के घाव दिखा रही है। दरोगा———- बार-बार थप थपाके देख रहा, दाँत और नाखून चुभे——— उरोजो को बार-बार। लड़की सिहर उठी—उसी रेप के छुअन कासा, ऐहसास हुआ उसे! वे समझ गई आँख भर-भरा आई उसकी, कि अब एक रात और चीखेगी थाने पे, फिर हरे हो जायेंगे————— ना भरने के लिये उसकी उरोजो पे ताजिंदगी, एै,रंग———–ये रेप के घाव।