आया राखी का त्यौहार – भाई बहन पर कवितायें

बहन की राखी  ईमेल एसएमएस की दुनिया में डाकिये ने पकड़ाया लिफाफा 22 रुपए के स्टेम्प से सुसज्जित भेजा गया था रजिस्टर्ड पोस्ट पते के जगह, जैसे ही दिखी वही पुरानी घिसी पिटी लिखावट जग गए, एक दम से एहसास सामने आ गए, सहेजे हुए दृश्य वो झगड़ा, बकबक, मारपीट सब साथ ही दिखा, प्यार के छौंक से सना वो मनभावन, अलबेला चेहरा उसकी वो छोटी सी चोटी, उसमे लगा काला क्लिप जो होती थी, मेरे हाथों कभी एक दम से आ गया सामने उसकी फ्रॉक, उसका सैंडल ढाई सौ ग्राम पाउडर से पूता चेहरा खूबसूरत दिखने की ललक एक सुरीली पंक्ति भी कानों में गूंजी “भैया! खूबसूरत हूँ न मैं??” हाँ! समझ गया था, लिफाफा में था मेरे नकचढ़ी बहना का भेजा हुआ रेशमी धागे का बंधन था साथ में, रोली व चन्दन थी चिट्ठी….. था जिसमे निवेदन “भैया! भाभी से ही बँधवा लेना ! मिठाई भी मँगवा लेना !!” हाँ! ये भी पता चल चुका था आने वाला है रक्षा बंधन आखिर भाई-बहन का प्यारा रिश्ता दिख रहा था लिफाफे में …… सिमटा हुआ………..!!! मुकेश कुमार सिन्हा  चिट्ठी भाई के नाम*************** भैया  पिछले रक्षाबंधन पर  जैसे ही मैंने नैहर की  चौकठ पर  रखा पांव बड़े नेह से भौजाई लिए खड़ी थी हांथो में थाल सजाकर जुड़ा हमारा  हॄदय खुशी से आया नयन भर हमने दिया आशीष  मन भर सजा रहे भाई का आंगन भरा रहे भाभी का आँचल रहे अखंड सौभाग्य हमारा नैहर रहे आबाद भैया तुम रखना भाभी का खयाल कभी मत होने देना उदास भाभी तेरे घर की लक्ष्मी है और तुम हो घर के सम्राट माँ भी हैं तेरे साथ  उन्हें भी देना मान  सम्मान  सिर्फ़ तुमसे है  इतना आस  पापा का बढ़ाना  नाम  ********************* ©कॉपीराइट किरण सिंह ‎_भैया_लौटे_हैँ‬ भैया लौटे हैँ लौटी हैँ माँ की आँखेँ पिता की आवाज मेँ लौटा है वजन बच्चोँ की चहक लौटी है भाभी के होँठो पर लौट आई लाली बहुत दिन बाद हमारी रसोई मेँ लौटी खुशबू आँगन मेँ लौटा है परिवार नया सूट पाकर मैँ क्योँ न खुश होऊँ बहन हूँ शहर से मेरे भैया लौटे हैँ.! _गौरव पाण्डेय ‘रक्षा -बंधन ; एक भावान्जलि  ” एक थी , छोटी सी अल्हड़  मासूम बहना। …  छोड़ आई अपना बचपन ,तेरे अँगना , बारिश की बूंदो सी  पावन स्मृतियाँ ,  नादाँ आँखे उसकी  उन्मुक्त  भोली हँसी, …. क्या भैया !   तुमने उसे देखा है कही ,………… ! छोटी सी फ्राक की छोटी सी जेब में , पांच पैसे की टाफी की छीना -छपटी  में , मुँह फूलती उसकी ,शैतानी हरकते  स्लेट के  अ आ  के  बीच ,मीठी शरारते  क्या ?… तुम उसे याद करते हो कभी ,…. ! दिनभर, अपनी कानी गुड़िया संग खेलती , माँ की गोद  में पालथी मारे बैठती , ,जहा दो चोटियों संग माँ गूंथती , हिदायतों भरी दुनियादारी की बातें , बोलो भैया ,!वो मंजर भूल तो नहीं जाओगे कभी.… ,! आज तेरे उसी घर – आँगन में, ठहर जाये ,वैसी ही मुस्कानों की कतारे , हंसी -ठहाकों की लम्बी महफिले , हम भाई-बहनो के यादो से भींगी बातें , और ख़त्म ना हो खुशियो की ये सौगाते कभी भी,…  ! राखी के सतरंगे धागो में गूँथे हुए अरमान , तुमने दिए ,मेरे सपनो को अनोखे रंग , और ख्वाईशों को दिए सुनहरे पंख , और अब सफेद होते बालो के संग , स्नेह की रंगत कम न होने देना कभी.… ! माथे पर तिलक सजाकर ,नेह डोर बांधकर, भैया मेरे ,राखी के बंधन को निभाना , छोटी बहन को ना भुलाना , इस बिसरे गीत के संग , अपनी आँखे नम न करना कभी   …. !  आँखों में , मीठी यादो में बसाये रखना, इस पगली बहना का पगला सा प्यार  , यही याद दिलाने आता है एक दिन , बूंदो से भींगा यह प्यारा  त्यौहार, बस ,भैया तुम मुझे भूला ना देना, कभी। ….  ”’ ई. अर्चना नायडू  जबलपुर  पक्के रंग  कितनी खुश थी मैं जब माँ ने बताया था की परी रानी आधी रात कोदे गयी है मुझे एकअनोखा उपहारकोमल सा नाजुक साजिसे अपनी नन्ही गोद में लिटाघंटों खेलतीहाँ ! भैया तुम मेरी गुडियाँ में तब्दील हो गए कब वो नन्हे -नन्हे हाँथ-पाँव बढ़ने लगे शुरू हो गया संग खेलना मेज के नीचे घर का बनाना मिटटी के बर्तन में खाना रूठना -मानना तकिये के नीचे टॉफ़ी छिपाना हाँ ! भैया तुम मेरे दोस्त में तब्दील हो गए जब बढ़ गया तुम्हारा कद मेरे कद से तो हो गए जैसे बड़े उम्र में सजग -सतर्क रखने लगे मेरा ख़याल कॉलेज ले जाना, लाना मेरा हाथ बटाना मेरी छोटी -छोटी खुशियों का ध्यान हां भैया ! तुम मेरे संरक्षक में तब्दील हो गए और उम्र के इस दौर में जब मेरे दर्द पर भर आती है तुम्हारी आँखें निभाते हो जिम्मेदारियाँ फेरते हो सर पर स्नेहिल हाँथ मौन ही कह जाते हो चिंता मत करो” मैं हूँ तुम्हारे साथ “ कब ! पता नहीं कब ? मेरे भाई ! तुम मेरे पिता में तब्दील हो गए आज तुमको भेजते हुए राखी बार -बार कह रहा है मन मेरी गुड़ियाँ , मेरे भाई , संरक्षक , मेरे पिता बड़ा अनमोल है अपना यह रिश्ता क्योंकि कुछ धागों के रंग कभी कच्चे नहीं होते समय बीतने के साथ साल दर साल यह और मजबूत और गहरे और पक्के होते जाते हैं :वंदना बाजपेयी

नंदा पाण्डेय की कवितायें

 तुम ही हो ———————————————आज फिर तुम्हारी यादों नेमेरे मन के दरवाजे परदस्तक दी है…….. फिर उदास हो गई ये शाम……क्या कहुँ तुमको…….अजीब असमंजस की सीस्थिति है…….एक तरफ “दिल”मुझे तुम्हारी ओर खींचता है … तोदूसरी तरफ किसी कीनजर में न आ जाऊं का डरक़दमों की बेड़ियां बन  मुझेरोक लेता है…..!!!न तो एक झलकदेख पाने के लोभ कासंवरण किया जा सकता है….!!!और न ही लोक-लाज के भयको ही त्यागने का साहस…..!!मुद्दत हुईन भुला गया वो चेहरादोष मेरा हैक्या करूँ मन कोबेखुदी में जो कुछ भी लिखाबसबब मैंने…….वास्ता तुमसे ही हैक्या पता है तुमको……?????खुद भी न कभीखुद को समझालगा बस तुम ही हो “”खुदा”””तुम ही हो खुदा…….!!!!!                                                 आखिर क्या है ये———————————————-कितनी भी दशा और दिशाएंतय कर लूँये “मन” तुम्हारे हीइर्द-गिर्द घूमता है…..कितनी भी खाइयाँक्युं न बना लूँहमारे बीच फिर भीये “मन”गोल-गोल चक्करलगाते हुएतुम तक पहुँच ही जाता है……आखिर क्या हैतुम्हारा और मेरा रिश्ता……????प्यार..???? , स्नेह…????, दोस्ती …???या इन सबसे कहीं ऊपरएक दूसरे को जानने समझने की इच्छा…..???क्या रिश्ते को नाम देना जरुरी है????रिश्ते तो “मन” के होते हैंसिर्फ “मन ” के …….!!!!!                                                 हम – तुम———————————बहुत महीन था वह बंधनबंधे थे जिसमें“हम-तुम”न जाने कब….. क्यों…. और कैसे …????पड़ गई उनमें छोटी-छोटी गांठे…..पता ही नहीं चलासमझ ही न पाये “हम -तुम”जब घेरती हैं पुरानी यादेंबहुत दर्द देती हैं वो यादेंरिसती रहती है धीरे-धीरेचलो आज मिलकर खोलते हैंउन सारी गांठों को…..!!!!सुलझाते हैं उन धागों कोजिसके खूबसूरत बंधन से बंधे थे “हम-तुम”गांठों से मुक्त करते हैंअपने बीच के बंधन कोपिरोते हैं उसमें अतीत केखुबसूरत फूल……और खो जाते हैंउसकी खुशबु में  “हम-तुम”                                               संबंध          ************** तुम्हारा मेरा “संबंध”….माना की भूल जाना चाहिए था,मुझे अब तक……! पर लगता है एक शून्य अब भी है,जो बिना कहे सुने पल रहा हैहमारे बीच……! आज वही शून्य मुझसे कह रहा है,कीवह सब यदि मुझे भुला नहीं ,तोभूल जाना चाहिए अवश्यएकदम अभी, आज ही, इसी वक़्त.. पर उन यादों को मिटाना क्या आसान है….???जो नागफनी की तरहमेरे “मन” के हर कमरे मेंफर्श से लेकर दीवारों तक फैले हैं…जिसका दंश रह-रह कर शूल साचुभता रहता है…!! याद है…?तुम हमेशा कहा करते थे नागफनी तो सदाबहार होती है…!————————–शायद इसलिए सदाबहार की तरह छाये रहते हो मेरे मन- मस्तिष्क पर ..। -नंदा पाण्डेयरांची (झारखंड)

वेदना का पक्ष

संजय वर्मा”दृष्टी” स्त्री की उत्पीड़न की  आवाज टकराती पहाड़ो पर और आवाज लौट  आती साँझ की तरह  नव कोपले वसंत मूक बना  कोयल फिजूल मीठी  राग अलापे  ढलता सूरज मुँह छुपाता  उत्पीड़न कौन  रोके  मौन  हुए बादल  चुप सी हवाएँ  नदियों व्  मेड़ो के पत्थर  हुए मौन   जैसे उन्हें साँप  सूंघ गया  झड़ी पत्तियाँ मानो  रो रही  पहाड़ और जंगल कटते गए  विकास की राह बदली  किन्तु उत्पीड़न की आवाजे  कम नहीं हुई स्त्री के पक्ष में  वासन्तिक  छटा में टेसू को  मानों आ रहा हो  गुस्सा  वो सुर्ख लाल आँखे दिखा  उत्पीडन  के उन्मूलन हेतू  रख रहा हो दुनिया के समक्ष  वेदना का पक्ष  संजय वर्मा”दृष्टी” मनावर जिला धार (म प्र )

महबूब के मेंहदी की रस्म है

रोऊँगा नही मै——————- आज मेरी महबूब के मेंहदी की रस्म है। भीच लुंगा होंठ को दाँतो से कुचलकर, एै खुदा चढ़े- —————— उसकी हथेली पे इतनी सुर्ख मेंहदी, कि सारा शहर कहे—————– किसी भी हथेली पे आज तलक इतनी मेंहदी नही चढ़ी। रोऊँगा नही मै—————- आज मेरी महबूब के मेंहदी की रस्म है। वे शरमा के हथेली से जब ढ़के चेहरा, एै आह!मेरी उसको न देना बददुआ, वे महबूब थी मेरी और महबूब रहेगी, मै मरके भी दुआ दुंगा——– महबूब को अपने। एै,रंग——-रोऊँगा नही मै आज मेरी महबूब के मेंहदी की रस्म है।

#NaturalSelfi ~ सुंदरता की दुकान या अवसाद का सामान

                                                   #NaturalSelfi,ये मात्र एक शब्द नहीं एक अभियान हैं | पिछले कुछ दिनों से इस हैशटैग से महिलाएं  फेसबुक पर अपनी तसवीर पोस्ट कर रहीं  हैं| यह मुहीम बाजारवाद के खिलाफ है |  इस मुहिम की शुरुआत की है  गीता यथार्थ यादव ने |   बाजार जिस तरह सौंदर्यबोध को प्रचारित कर रहा है और मेकअप प्रोडक्ट बेचे जा रहे हैं, उसके खिलाफ यह महिलाओं को ऐलान है कि वे बिना मेकअप के भी सुंदर हैं |                             सुन्दरता के इस चक्रव्यू में महिलाओं को फंसाने का काम सदियों से चला आ रहा है |आज भी ये शोध का विषय है की क्लियोपेट्रा  किससे  नहाती थी | आज भी सांवली लड़की पैदा हिते ही माता – पिता के चेहरे उतर जाते हैं की उसका ब्याह कैसे करेंगे | योग्य वर कैसे मिलेगा ? बचपन से ही उसका आत्मसम्मान बुरी तरह कुचल दिया जाता है | और शुरू होता है लड़की को स्त्री बनाने की साजिश | उसमें मुख्य भूमिका अदा करता है उसका सौन्दर्य |  यह माना जाता रहा है की सुन्दरता स्त्री के अन्य गुणों के ऊपर है या कम से कम साथ तो है ही | दुर्भाग्य है की स्त्री शिक्षा व् जागरूकता के साथ – साथ  एक नया कांसेप्ट आया ब्यूटी विद ब्रेन का | बाजारवाद  ने इसको हवा दे दी | मतलब स्त्री ब्रेनी है तो भी  उसके ऊपर ख़ूबसूरती बनाये रखने का दवाब भी है | ये दवाब है खुद को नकारने का , बाज़ार के मानकों में फिट होने का , ऐसी स्किन , ऐसे हेयर और ऐसी फिगर …. इन सब  के बीच अपना करियर , अपनी प्रतिभा अपना हुनर बचाए रखने की जद्दोजहद |                                           एक तरफ हम सुखी जीवन जीने के लिए self love को प्रचारित करते हैं | वहीँ मेकअप कम्पनियां स्त्री को खुद को कमतर समझने और हीन भावना भरने की जुगत में लगी  रहती हैं |  ये आई ब्रो के बाल तोड़ने से पहले आत्मविश्वास तोड़ने का काम करती हैं | ये ख़ुशी की बात हैं की आज महिलाएं खुद आगे आई हैं | उन्होंने न सिर्फ इस जाल को समझा है बल्कि उसे नकारना भी शुरू किया है |                                                                      बहुत पहले  इसी विषय पर कविता लिखी थी … ” सुन्दरता की दु कान या अवसाद का सामान ” | आज ये #NaturalSelfi अभियान उसी दर्द का मुंहतोड़ जवाब है |  देश की राजधानी में  हर छोटी -बड़ी गली नुक्कड़ में  कुकुरमुत्ते की तरह उगी हुई हैं  सौंदर्य  की दुकाने जो सुंदरता के पैकेट में  बेचती हैं अवसाद का सामान  असंतोष तुलना और हीनभावना  यहाँ आदमकद शीशों के सामने  बैठी मिल ही जाती है  सात से सत्तर साल की  स्नोवाइट की अम्माएं  पल -प्रतिपल पूँछती  बता मेरे शीशे “सबसे सुन्दर कौन “ शीशे के मुँह खोलने से पूर्व  आ जाती हैं परिचारिकाएं  कहती हैं मुस्कुराते हुए  ठहरो……….  मैं बनाती हूँ तुम्हें “सबसे सुन्दर “ भौहों को तराशती  चेहरे नाक ठोढ़ी  की मसाज करती  पिलाती जाती हैं घुट्टी  धीरे -धीरे  देह के आकर्षण की  कितना आवश्यक है सुन्दर दिखना  कि खूबसूरत चेहरा है  एक चुम्बक  प्रेम की पहली पायदान  कमजोर -सबल शिक्षित -अशिक्षित महिलाओं के मन में  गुथने  लगते हैं  प्रेम के दैहिक मापदंड  बिकने लगते हैं  महंगे “सौंदर्य प्रसाधन “ पार्लर मायाजाल में जकड़ी मासूम  महिलाएं  दे बैठती हैं वरीयता  दैहिक सुंदरता  को  आत्मिक और बौद्धिक सुंदरता के ऊपर नहीं रह जाता चर्चा का केंद्र  मंगल अभियान  प्रधानमंत्री का भाषण  कश्मीर की बाढ़  रह जाती हैं चर्चा  सिमिट कर मात्र  तेरी कमर २८ तो मेरी ३२ कैसे ? आती है सहज ईर्ष्या  दौड़ती ट्रेड मिल पर  गिनती एक -एक कैलोरी  चेहरे का एक पिम्पल कभी नाक का आकर  कभी कोई तिल   तोड़ कर रख देता है सारा आत्मविश्वास जिंदगी सिमट कर रह जाती है देह के मापदंडों में  खरीदती हैं नया प्रसाधन  साथ में आ जाता है नया अवसाद  वो पांच साल की गुड़ियाँ  खेलती है बार्बी डॉल से  जो मासूम बच्चों के मन में गढ़ती है  देह के सौंदर्य की परिभाषा  आह !खो गया है गुड़ियाँ का  बचपन  इसीलिए तो बड़ी अदा से  तरण-ताल में  उतरती है “टू पीस “में  शायद दिखना चाहती है जवान उम्र से पहले  क्योंकि नन्ही उम्र जान गयी है व्यर्थ है बच्चा दिखना   जवान ही हैं आकर्षण का केंद्र  अ आ इ  ई सीखने से पहले  सीखा दी  है माँ ने दैहिक आकर्षण की परिभाषा  सोलह से बीस साल की चंचला ,स्वीटी ,पिंकी  इस उम्र में कैरियर की जगह  करती है फ़िक्र “जीरो फिगर की “ इतनी इस कदर कि  कंकाल मात्र देह  लगने लगती है वज़नी  शिकार हैं “एनोरोक्ज़िआ नर्वोसा” की  बैठा लिया है गणित खाने व् वज़न के बीच  खाना कहते ही करती हैं उलटी  जैसे पाप  है अन्न खाना  सूखी देह में पड़ गयी है झुर्रियाँ  बंद हो गया है मासिक चक्र  दिमाग में बेवजह की उलझन  बस एक ही भय  कहीं वज़न न बढ़ जाये उनके लिए   कृशकाय होना ही सुंदरता है  एक बड़े मॉल में  आँखों में आंसूं भर एक महिला  परिचारिका से करती है बहस कि  ट्रायल रूम में  अन्तःवस्त्रों की फिटिंग देखने जाने दिया जाये  उसके पति को  बड़े घरों की हंसती -मुस्कुराती दिखती यह महिलाएं  भयंकर अवसाद ग्रस्त हैं  जिन्होंने देह की सुंदरता को ही प्रेम का आधार मान लिया है  दिन -रात डरती  हैं  सौंदर्य के ढलने से  अस्वीकृत होने से  युवावस्था के  खोने के भय से  प्रौढ़ महिलाएं  उम्र से कम दिखने के असफल प्रयास में डालती हैं  एफ बी पर सुबह -शाम   अनेकों मुद्राओं में फोटो   झूठी वाह -वाह और लाइक  और पीछे हँसते लोग  कहाँ पढ़ पाते हैं उनका अवसाद  की बाज़ार के पढ़ाने पर  सौंदर्य को ही माना था अब तक थाती  अब रिक्त हांथों में भर रहा है   दुःख और अवसाद सौंदर्य के बाज़ार वाद … Read more

अगर सावन न आइ (भोजपुरी )

रंगनाथ द्विवेदी हे!सखी पियरा जाई हमरे उमरियाँ क धान——- अगर सावन न आई। रहि-रहि के हुक उठे छतियाँ मे दुनौव, लागत हऊ निकल जाई बिरहा में प्रान——- अगर सावन न आई। हे!सखी पियरा जाई हमरे उमरियाँ क धान—— अगर सावन न आई। ऊ निरमोही का जाने कि कईसे रहत थौ, बिस्तर क पीड़ा ई कईसे सहत थौ, टड़पत थौ सगरौ उमर क मछरियाँ, बाहर के घेरे न बरसे सखी! जबले पिया से हमरे मिलन के न घेरे बदरियाँ, तब ले न हरियर होये सखी! ई उमरियाँ क धान, अगर सावन न आई। हे!सखी पियरा जाई हमरे उमरियाँ क धान—– अगर सावन न आई। हे!सखी का होई रुपिया अऊ दौलात, का होई गहना, ई है सब रही कमायल-धयामल, बस बीत जाई हमन के उमरियाँ——- बाहर कई देईहै दुनऊ परानी के ले लेईही बेटवा, मरी-मरी बनावल ई सारा मकान, फिर बाहर खूब बरसे——— लेकिन न भीगे तब तोहरे चहले ई शरिरियाँ बुढ़ान, हे!सखी पियरा जाई हमरे उमरियाँ क धान——- अगर सावन न आई।

बरसने की जरुरत न पड़े

रंगनाथ द्विवेदी या खुदा————– उसके रोने से धुल जाये मेरी लाश इतनी, कि बदलियो को घिर-घिर के बरसने की जरुरत न पड़े। वे तड़पे इतना जितना ना तड़पी थी मेरे जीते, ताकि मेरी लाश पे किसी गैर के तड़पने की जरुरत न पड़े। या खुदा———- वे मेहंदी और चुड़ियो से इतनी रुठ जाये, कि शहर मे उसको बन-सँवर के निकलने की जरुरत न पड़े। एै हवा उड़ा ला उसके सीने से दुपट्टे को, और ढक दे मेरी लाश को———— ताकि मेरी लाश पे किसी गैर के कफ़न की जरुरत न पड़े। या खुदा———— वे जला के रखे एक चराग हर रात उस पत्थर पे, जहाँ बैठते थे हम संग उसके, ताकि एै”रंग”——– मेरी रुह को भटकने की जरुरत न पड़े। या खुदा——— उसके रोने से धुल जाये मेरी लाश इतनी, कि बदलियो को घिर-घिर के बरसने की जरुरत न पड़े। रचयिता——रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)।

अनार से महंगा टमाटर खा रहा हूं ( हास्य – व्यंग कविता )

रंगनाथ द्विवेदी अनार से महंगा टमाटर खा रहा हूं। आ गये अच्छे दिन——— मै इलू-इलू गा रहा हूं, अनार से महंगा टमाटर खा रहा हूं। मार्केट से सभी सब्ज़ियाँ तो ले ली, पर टमाटर को लेने मे लग गये घंटो, क्योंकि सभी एक से भाव मे बेच रहे थे, यहाँ तलक कि टमाटर को बिना मतलब छुने से रोक रहे थे, थक-हार एक ठेले वाले को पटा रहा हूं—— बड़ी मुश्किल से घर टमाटर ला रहा हूं, अनार से महंगा टमाटर खा रहा हूं। बीबी भी सबसे पहले सब्ज़ियो के झोले से, टमाटर टटोल कर निकालती है, और पुछती है क्या भाव पाये, कैसे कहु कि हे!भाग्यवान तुम अपने टमाटर खाने का शौक, काश सस्ते होने तलक टाल पाती, लेकिन नही,तुम नही टाल पाओगी, तुम्हारे इसी न टालने के नाते, अपनी एक महिने की सेलरी का तीस पर्सेंट खर्च कर, बस मै तुम्हारे लिये टमाटर ला रहा हूं। आ गये अच्छे दिन——- मै इलू-इलू गा रहा हूं, अनार से महंगा टमाटर खा रहा हूं। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)।

छुट्टी का दिन

नीलम गुप्ता आज छुट्टी का दिन है ……… आज  बच्चे देर से उठेंगे तय नहीं है कब नहायेंगे नहायेंगे भी या नहीं घर भर में फ़ैल जायेंगी किताबें , अखबार के पन्ने , मोज़े , कपडे , यहाँ वहां इधर – उधर सारा दिन चलेगा  टीवी , मोबाइल और कम्प्यूटर देखी  जायेगी फिल्म , होगी चैट खेले जायेंगे वीडियो गेम आज छुट्टी का दिन जो है … आज साहब उठेंगे देर से बिस्तर पर ही पियेंगे चाय फिर घंटो पढेंगे अखबार जमेगी दोस्तों की महफ़िल लगेंगे कहकहे करेंगे तफरी बुलायेंगे उसे पास ना नुकुर पर हवा में उछाल देंगे वही पुराना जुमला ” आखिर तुम सारा दिन करती क्या रहती हो आज छुट्टी का दिन जो है ………. वो उठेगी थोडा जल्दी कामवाली ने ले रखी है छुट्टी निपटा लेगी बर्तन सबके उठने से पहले बदल देगी रसोई के अखबार आज धुलेंगे ज्यादा कपडे पूरी करने है कुछ अच्छा बनाने की फरमाइश लानी है हफ्ते भर की सब्जी तरकारी बनाना है बच्चों का टाइम टेबल आज ही टाइम है सजाना है करीने से घर आज छुट्टी का दिन जो है……..

राधा कृष्ण “अमितेन्द्र ” जी की कवितायें

******स्थिति और परिस्थिति****** स्थिति और परिस्थिति सभी को अपने ढ़ंग से नचाता है…. कोई याद रखता है , कोई भूल जाता है ! जो काम स्थिति वश  बहुत अच्छा होता है….. वही काम परिस्थिति वश बहुत बुरा बन जाता है…. इंसान के सोचने का नजरिया अलग-अलग होता है… कोई खरा-खोटा और तो कोई खोटा-खरा होता है….. स्थिति और परिस्थिति से मजबूर होकर…. न चाहते हुए भी जो करना पड़ता है….. वो तुम करते हो…. तो फिर….. दूसरे से शिकवा और शिकायत क्यो ???? उसकी भी मजबूरियों का ख्याल क्यों नही करते हो !! बस तुम रूठ जाते हो  यूँ ही…………                कभी -कभी !!!!!!!!!!!                                                       ————————————————–               ******समझौते का मकान****** बहुत कुछ…… न चाहकर भी करना पड़ता है लोगो को…. इस जिन्दगी में….. बहुत कुछ ….. न चाहकर भी सहना पड़ता है लोगो को…. इस जिन्दगी में……. जिन्दगी क्या है ?????? एक समझौते का मकान…… ! जिसे घर बनाना….. चाहकर भी …. नही बना पाता है इंसान…….. ! फिर भी….. प्रसन्नता का मुखड़ा  पहन कर….दर्द पीकर…… अपनी कुछ न कह कर सब की सुन कर खो देता है…….स्वाभिमान स्व…………. जो उसका है……. ! उसे ही भुला देता है……… और……….. भावना के भंवर जाल मे फँस कर……… अपना सब कुछ लुटा देता है……… !!!!!!!!!                       राधा कृष्ण “अमितेन्द्र “