शराब नही लेकिन

-रंगनाथ द्विवेदी। तेरी सरिया मे शराब नहीं लेकिन———– हम पीने वालो के लिये खराब नही लेकिन। हम बाँट लेते है अक्सर नशे मे जूठन भी—– यहाँ के पंडित और मियाँ का जवाब नही लेकिन, तेरी सरिया मे शराब नही लेकिन। ना वे गीता जानता है और न मै कुरान की आयत, जबकि उसका घर मंदिर की तरफ है, और मेरा घर मस्जिद की तरफ है, हमारे लिये जुम़ा और मंगलवार एक सा है, हम पीते है,किसी दिन का हमारे पास एै”रंग”—– कोई हिसाब नही लेकिन। तेरी सरिया मे शराब नही लेकिन, हम पीने वालो के लिये खराब नही लेकिन—- तेरी सरिया मे शराब नही लेकिन। @@@रचयिता—-रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)।

तुम्हीं से है……..

सुमित्रा गुप्ता  तुम्हीं से है…….. कभी शिकवा शिकायत हैकभी मनुहार इबादत हैमेरे प्यारे, मेरे भगवन, मेरे बंधु,तुम्हीं से है, तुम्हीं से है पायी तेरी इनायत है करी तेरी इबादत है तू सामने हो या ना भी हो मुझे तेरी जरूरत है  मेरेे प्यारे, मेरे भगवन, मेरे बंधु तुम्हीं से है, तुम्हीं से है जग में बहुत ही नफरत है जग में बहुत ही गफलत है तेरे दर पे ही शराफत है तेरे दर पे ही नजाकत हैमेरे प्यारे, मेरे भगवन, मेरे बंधु तुम्हीं से है, तुम्हीं से है सखी’ने चाहा मुद्दत सेसखी’ ने चाहा शिद्दत सेछोड़ कर दुनियां के नातेलगायी प्रीत दिलबर सेनिभाते सभी रिश्तों कोप्रभु तुझसे ही मोहब्बत है मेरे प्यारे, मेरे भगवन, मेरे बंधुतुम्हीं से है, तुम्हीं से है……..

चंद्र मौलि पाण्डेय की कवितायें

जूनून  छत की मुंडेर पर खड़ी वो कभी हाथ हिलाती तो कभी गले से स्कार्फ उतारकर उसको लहराती लग रहा था कि कहीं  उसके अंतर्मन में आजादी का कोई कीड़ा रेंग रहा है  जो उसे प्रेरित कर रहा है या उकसा रहा है  कुछ ऐसा जुनून पैदा करने के लिए जो उसके आत्मसम्मान को हिमालय की चोटियों से भी  ऊँचा पहुंचा सके अल सुबह टूटे हाथ के साथ  देख रहा हूँ उसे स्कूल जाते हुए  शायद शाम को मुंडेर से गिर गई थी वो मगर चेहरा  ताजमहल का संगमरमर दमकता हुआ  सीमा पर तैनात जवानों जैसा आत्मविश्वास सालों बाद आज उसे फिर देखा सिगरेट के अधजले टुकड़ों और  शराब की टूटी बोतलों के बीच  लाशों के ढेर के पास खड़ी  वो तलाश रही थी  अपने बाप की लाश जो आज  उसी  के हाथों मारा गया ख़त्म कर दिया था उसने  आतंकवाद का एक अध्याय माँ को विधवा कर  कई महिलाओं को बचाया होने से विधवा सपने में भी देखा था उसने एक सपना अपने खून से भी बढ़ कर है देश अपना जूनून जारी था उसका  आत्मविश्वास  अब हिमालय को भी पिघला रहा था.. निराशा ——— आज बाँट रहा था खाना उसने कहा बेटा  रोज रोज यहाँ ना आना, तुम कर दोगे शायद मुझे कमज़ोर हो गई थी मैं पूरी तरह कठोर, नहीं छेड़ना चाहती  वो दिल के पुराने तार जब कभी था उस पूत के लिए  इस अबला माँ का प्यार, बंद कर ली हैं मैंने  अपनी इच्छाएं और संवेदनायें नहीं चाहती की कोई  अवचेतन मन मे भी उसे जगाये, तेरी चाहत और तेरा प्यार कहीं खोल ना दे प्यार का द्वार, और ..मैं कहीं फिर ठगी ना जाऊँ पुत्र शब्द ही हमेशा के लिए भूल जाऊँ विनाश  तेज़ हवा की धुन पर  नाच रहा था समुन्दर अठखेलियां करती लहरें  मदहोश कर रही थीं  अट्टालिकाओं को झूमने के लिए नतमस्तक हो गईं थीं वे लहरों की मादकता मे बारिश की घुड़की से  भाग रहे थे बड़े बड़े पत्थर नदी भी अपने पूरे यौवन पर थी प्रेमी पत्थर डूब रहे थे इस यौवन मे दरख़्त भी मदहोशी मे  खो चुके थे अपनी जड़ें प्रकृति थी गुस्से मे  कर रही थी तांडव नृत्य आईना दिखा रही थी बता रही थी हमारे कृत्य सुनामी हो या भूकंप मच जाता हर तरफ हड़कम्प प्रकृति है जीवन की सांस छेड़ोगे तो होगा विनाश  चंद्र मौलि पाण्डेय                          उप वन संरक्षक                                भोपाल              chandrapandey@yahoo.com

बाँध लेता प्यार सबको देश से

डॉ मधु त्रिवेदी बाँध लेता प्यार सबको देश से              द्वेष से तो जंग का आसार है लांघ सीमा भंग करते शांति जो              नफरतों से वो जले अंगार है होड़ ताकत को दिखाने की मची               इसलिये ही पास सब हथियार है सोच तुझको जब खुदा ने क्यों गढ़ा                पास उसके खास ही औजार है जिन्दगी तेरी महक  ऐसे गयी                 जो तराशे इस जहाँ किरदार है शाम होते लौट घर को आ चला                  बस यहाँ पर साथ ही में सार है हे मधुप बहला मुझे तू रोज यूँ                   इस कली पर जो मुहब्बत हार है संक्षिप्त परिचय————————— . पूरा नाम : डॉ मधु त्रिवेदी पदस्थ : शान्ति निकेतन कालेज आॅफबिजनेस मैनेजमेंट एण्ड कम्प्यूटर साइंस आगरा प्राचार्या,पोस्ट ग्रेडुएट कालेज आगरा  मधु त्रिवेदी के अन्य लेख  बस्ते के बोझ तले दबता बचपन बहू बेटी की तरह होती है , कथनी सत्य है या असत्य अंधेर नगरी चौपट राजा बाल परिताक्त्या

रंगनाथ द्विवेदी की कलम से नारी के भाव चित्र

                             कहते हैं नारी मन को समझना देवताओं के बस की बात भी नहीं है | तो फिर पुरुष क्या चीज है | दरसल नारी भावना में जीती है और पुरुष यथार्त में जीते हैं | लेकिन भावना के धरातल पर उतरते ही नारी मन को समझना इतना मुश्किल भी नहीं रह जाता है | ऐसे ही एक युवा कवि है रंगनाथ द्विवेदी | यूँ तो वो हर विषय पर लिखते हैं | पर उनमें  नारी के मनोभावों को बखूबी से उकेरने की क्षमता है | उनकी रचनाएँ कई बार चमत्कृत करती हैं | आज हम रंगनाथ द्विवेदी की कलम से उकेरे गए नारी के भाव चित्र  लाये हैं |                                        प्रेम और श्रृंगार                                      स्त्री प्रेम का ही दूसरा रूप है यह कहना अतिश्योक्ति न होगी | जहाँ प्रेम है वहाँ श्रृंगार तो है ही | चाहें वो तन का हो , मन का या फिर काव्य रस का रंगनाथ जी ने स्त्री के प्रेम को काव्य के माध्यम से उकेरा है  शमीम रहती थी  कभी सामने नीम के——— एक घर था, जिसमें मेंरी शमीम रहती थी। वे महज़——— एक खूबसुरत लड़की नही, मेंरी चाहत थी। बढ़ते-बढ़ते ये मुहल्ला हो गया, फिर काॅलोनी बन गई, हाय!री कंक्रिट——– तेरी खातिर नीम कटा, वे घर ढ़हा——– जिसमें मेरी शमीम रहती थी। अब तो बीमार सा बस, डब-डबाई आँखो से तकने की खातिर, यहाँ आता हूँ! शुकून मिल जाता है इतने से भी, ऐ,रंग———– कि यहाँ कभी, मेरे दिल की हकिम रहती थी! कभी सामने नीम के——– एक घर था, जिसमें मेरी शमीम रहती थी।   पतझड़ की तरह रोई  बहुत खूबसूरत थी मै लेकिन——– रोशनी में तन्हा घर की तरह रोई। कोई ना पढ़ सका कभी मेरा दर्द—— मै लहरो में अपने ही,समंदर की तरह रोई। सब ठहरते गये—————- अपनी अपनी मील के पत्थर तलक, मै पीछे छुटते गये सफर की तरह रोई। लोग सावन में भीग रहे थे, ऐ,रंग—–मै अकेली अभागन थी जो सावन में पतझड़ की तरह रोई।         सखी हे रे बदरवा  तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा, करे छेड़खानी सखी छेड़े बदरवा। सिहर-सिहर जाऊँ शरमाऊँ इत-उत, मोहे पिया की तरह सखी घेरे बदरवा, तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा। चुम्बन पे चुम्बन की है झड़ी, बुँद-बुँद चुम्बन सखी ले रे बदरवा, तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा। अँखियो को खोलु अँखियो को मुँदू, जैसे मेरी अँखियो में कुछ सखी हे रे बदरवा, तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा। मेरी यौवन का आँचल छत पे गिरा, मेरी रुप का पढ़े मेघदुतम सखी हे रे बदरवा, तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा। पपीहा मुआ  मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ, वे भी तो तड़पे है मेरी तरह, वे पी पी करे और मै पी पी पिया। मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ। वे रोये है आँखो से देखे है बादल, मै रोऊँ तो आँखो से धुलता है काजल, वे विरहा का मारा मै विरहा की मारी, देखो दोनो का तड़पे है पल-पल जिया, मेरी बढ़ाये पपीहा मुँआ। हम दोनो की देखो मोहब्बत है कैसी? वे पीपल पे बैठा मै आँगन में बैठी, की भुल हमने शायद कही पे, या कि भुल हमने जो दिल दे दिया, मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ। चल रे पपीहे हुई शाम अब तो, ना बरसेगा पानी ना आयेंगे ओ, मांगो ना अब और रब से दुआ, मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ।                                उन्होंने मुझको चाँद कहा था  पहले साल का व्रत था मेरा—– उन्होनें मुझको चाँद कहा था। तब से लेकर अब तक मै—– वे करवा चौथ नही भुली। मै शर्म से दुहरी हुई खड़ी थी, फिर नजर उठाकर देखा तो, वे बिलकुल मेरे पास खड़े थे, मैने उनकी पूजा की——- फिर तोड़ा करवे से व्रत! उन्होनें अपने दिल से लगा के—– मुझको अपनी जान कहा था। पहले साल का व्रत था मेरा—– उन्होनें मुझको चाँद कहा था। बनी रहु ताउम्र सुहागिन उनकी मै, यूँही सज-सवर कर देखू उनको मै, फिर शर्मा उठु कर याद वे पल, जब पहली बार पिया ने मुझको—- छत पर अपना चाँद कहा था। पहले साल का व्रत था मेरा—- उन्होनें मुझको चाँद कहा था। चूड़ियाँ ईद कहती है चले आओ———- कि अब चूड़ियाँ ईद कहती है। भर लो बाँहो मे मुझे, क्योंकि बहुत दिन हो गया, किसी से कह नही सकती, कि तुम्हारी हमसे दूरियाँ—- अब ईद कहती है। चले आओ——— कि अब चूड़ियाँ ईद कहती है। सिहर उठती हूं तक के आईना, इसी के सामने तो कहते थे मेरी चाँद मुझको, तेरे न होने पे मै बिल्कुल अकेली हूं , कि चले आओ——– अब बिस्तर की सिलवटे और तन्हाइयां ईद कहती है। चले आओ——— कि अब चूड़ियाँ ईद कहती है। तीन तलाक पर एक रिश्ता जो न जाने कितनी भावनाओं से बंधा था वो महज तीन शब्दों से टूट जाए तो कौन स्त्री न रो पड़ेगी | पुरुष होते हुए भी रंग नाथ जी यह दर्द न देख सके और कह उठे बेजा तलाक न दो  ख्वा़हिशो को खाक न दो! एै मेरे शौहर———– सरिया के नाम पे, मुझे बेजा तलाक न दो। बख्श दो——— कहा जाऊँगी ले मासुम बच्चे, मुझ बेगुनाह को——- इतना भी शाॅक न दो, बेजा तलाक न दो। न उड़ेलो कान में पिघले हुये शीशे, मुझ बांदी को सजा तुम——– इतनी खौफ़नाक न दो, बेजा तलाक न दो। न छिनो छत,न लिबास खुदा के वास्ते रहने दो, मेरी बेगुनाही झुलस जाये——- मुझे वे तेजाब न दो, बेजा तलाक न दो। सी लुंगी लब,रह लुंगी लाशे जिंदा, लाके रहना तुम दु जी निकाहे औरत, मै उफ न करुंगी! बस मेरे बच्चो की खुशीयो को कोई बेजा, इस्लामी हलाक न दो——- बेजा तलाक न दो। तीन मर्तबा तलाक  एक औरत——— किसी सरिया के नाम पे कैसे हो सकती है मजाक। कैसे———– लिख सकता है कोई शौहर, अपनी अँगुलियो से इतनी दुर रहके, मोबाइल के वाट्सप पे——— तीन मर्तबा तिलाक। नही अब … Read more

डॉ मधु त्रिवेदी की पांच कवितायें

मैं व्यापारी हूँ  झूठ फरेब झोले में रखतासच सच बातें बोलतासत्य हिंसा को मैं रोदतासाँच में आँच लगातामैं व्यापारी हूँ संस्कृति हरण का पापीगर्त की ओर ले जातामिथ्या भाषण करता हूँचार छ:रोज सटकातामैं व्यापारी हूँ अशुद्ध परिहास करता हूँनकली बेकार कहता हूँसच्चाई का गला घोटता हूँसाफ साफ हिसाब देता हूँबेजोड हेर फेर करता हूँसदा असत्य कहता हूँमैं व्यापारी हूँ हाँ जीयहाँ मैं बेचता हूँआप भी खरीद लोफ्री में बिकती है झूठ मक्कारीवादों की नहीँ कीमत है यहाँरोज हजार दम तोड़ते यहाँवादा मेरा मैं साथ दूँगानिर्लज्जता सीखा दूँगामैं व्यापारी हूँ हर जगह जगह मेराबोलबाला हैजनमन कैसा बेचारा हैटेडेमेडे लोग सबल हैअन्न जल से निर्बल हैलाज शर्म रोती हैबेशर्मी पनपती हैमैं व्यापारी हूँ बेशर्मी का नंग नाच करतादुर्जनों पर रोज हाथ साफ करताहत्या , रेप , लूटपाट , डकैतीयहीं सब मेरे आचार हैमैं व्यापारी हूँ 1………. हे माँ सीते !दीवाली पर आ जानाहे माँ सीते ! विनती है मेरीघर दीवाली पर आ जानाराम लखन बजरंगी सहितजन – जन के उर बस जाना हे माँ सीते ! मेरा हर धामचरणों में तेरे रोज बसता हैदीवाली की यह जगमगाहटतेरे ही तेज से मिलती है माँ सीते ! आकर उर मेरेप्यार फुलझड़ी जला जानाहर जन को रोशन करकेअँधेरा दिल का मिटा जाना हे मा सीते! आशीष अपनादुष्ट जनों पर बरसा जानाबन कर दीप चाहतों का तुमनवयौवन का अंकुर फूटा जाना हे माँ सीते ! दिलो में आकरलोगों को सब्र का पाठ पढ़ानाजैसे तुम बसी हो उर राम केवैसे प्रिय प्रेम का दीप जला जाना हे माँ ! लक्ष्मण प्रिय भक्त तेरेभाव हर भाई में यह जगानान हो बँटवारा भाई -भाई मेंदीप वह जला माँ तुम जाना हे माँ सीते! खील खिलोने कीहर गरीब जनों पर बारिशें होहृदय में मधु मिठास को घोलशब्द शब्द को मधु बना जाना दीप जलते अनगिनत दीवाली परराकेट जैसे जाता है दूर गगन तकजाति-पाति धर्म की खाई को पाटसबके हृदय विशाल बना जाना 2………………… लाज अपने देश की सबको बचाना है लाज अपने देश की सबको बचाना हैदुश्मनों के आज मिल छक्के छुड़ाना है बार हर मिल कर मनाते प्रव गणतंत्र काइसलिये अब प्रतिज्ञा हमको कराना है याद वीरों की दिला कर के यहीं गाथामान भारत भूमि का अब बढ़ाना है कोन जाने यह कि आहुति कितनी दी हमनेयाद वो सारी हमें ही तो दिलाना है माँग उजड़ी पत्नियों की ही यहाँ पर क्योंबात बच्चों को यही समझा बताना है खो दिये है लाल अपने तब यहाँ पर जोफिर पुरानी आपसे दुहरा जताना है आबरू माँ की बचाने के लिए हम अबगर पडे़ मौका शीश अपना भी कटाना है 3………… जाया भारतभूमि ने दो लालों कोवो गाँधी और लाल बहादुर कहलायेबन अलौकिक अनुपम विभूतिभारत और विश्व की शान कहलाये दो अक्टूबर का यह शुभ दिन आयाविश्व इतिहास में पावन दिवस कहलायाराष्टपिता बन गाँधी ने खूब नाम कमायालाल ने विश्व में भारत को जनवाया सत्य अहिंसा के गाँधी थे पुजारीजनमन के थे गांधी शांति दातादीन हीनों के थे गाँधी भाग्य विधाताबिना तीर के थे गाँधी अस्त्रशस्त्र चल के गाँधी ने साँची राह परदेश के निज गौरव का मान बढायादो हजार सात वर्ष को अन्तर्राष्टीयअहिंसा दिवस के रूप में मनवाया शांति चुप रहना ही उनका हथियार थाभटकी जनता को राह दिखाना संस्कार थाबन बच्चों के बापू उनके प्यारे थेतो मेरे जैसों की आँखों के तारे थे लालबहादुर गांधी डग से डगमिलाकर चला करते थेएक नहीं हजारों को साथ ले चलते थेराह दिखाते हुए फिरंगियों को दूर करते फिरंगी भी भास गये इस बात कोअन्याय अनीति नही अब चलने वालाअब तो छोड़ जाना होगा ही करहवाले देश गाँधी जी को ही गाँधी जी नहीं है आज हमारे बीचफिर हम रोज कुचल देते है उनकीआत्मा और कहलाते है नीचआत्मा है केवल किताबों में बन्द अपना कर गाँधी बहादुर का आदर्शहम देश को बचा सकते हैघात लगाये गिद्ध कौऔं से लुटनेसे हमेशा बचा सकते है 4…….. शहर के मुख्य चौराहे परठीक फुटपाथ परले ढकेल वह रोजखड़ा होता थालोगो को अपनी बारीका इन्तजार रहताजब कभी गुजरना होताघर से बाहरमैं भी नहीं भूलतीखाना पानी पूरीबस पानी पूरीखाते खातेआत्मीयता सी होगई थी मुझेजब कभी मेराजाना होतातो वह भी कहने सेना चूकता थाआज बहुत दिन बाद—– वक्त बीतता गयाजीवन का क्रम चलता रहाअनायास एक दिन वहफेक्चर का शिकारहो गयातदन्तर अस्पताल मेंसुविधाएं भी पैसे वालों केलिए होती है ———पर वो बेचाराजैसे तैसे ठीक हुआबीमारी ने आ घेराएक दिन बस शून्य मेंदेखते ही देखतेकाल कवलितहो गयाफिर बस केवलसंवेदनाएं ही संवेदनाबस स़बेदनाबची सबकी जीवन का करूणांततदन्तरआत्मनिर्भर परिवारिक जनों कीदो रोज की रोटी नेएक गहरी चिंतन रेखाखींच दी पर मैं और मेरीआत्मीयता बाकी हैआज भीक्योंकि व्यक्ति जाता हैजहां सेउसकी नेकी लगावआसक्ति रह जाती हैबाकीपर वक्त छीन देता हैउसे भीऔर घावों को भर देता है

एक गुस्सैल आदमी

उसे बात – बात पर गुस्सा आता था क्योंकि उसे लगता था कुछ भी ठीक नहीं है वह टकराना चाहता था व्यवस्था से यहाँ तक की ईश्वर से जिसने किया है इतना भेद – भाव आदमी और आदमी में जब हुंकारता व्यवस्था के खिलाफ उसके चारों और खड़ी  हो जाती एक भीड़ जिसे यकीन था की एक दिन वो सब बदल देगा पर भीड़ बदलना चाहती उसका गुस्सा वो उसे दुलराती – पुचकारती , समझाती काना वही सब बस कम कर दो अपना गुस्सा वो फिर हुंकारता , नकारता और चल पड़ता अपने लक्ष्य की ओर पीछे – पीछे चल पड़ती भीड़ उसकी अनुगामी बन कर व्यवस्था को बदलने के लिए एक दिन उसने समझा गुस्से का अर्थ शास्त्र और त्याग दिया गुस्सा अब वो शांति से बात करता कुछ बढ़ा कर कुछ घटा कर बीच – बीच में जोड़ देता कुछ जुमले जो साबित कर देते की उसमें भी है विनोदप्रियता सुना है अब उसके चारों ओर की भीड़ छंटने लगी उसके गुस्से में एक आग थी जिससे लोगों को आस थी उसका गुस्सा खत्म होते ही खत्म हो गया लोगों का यकीन व्यवस्था परिवर्तन पर सुना है अब वो फिर से सीख रहा है गुस्सा करना और भीड़ फिर से ढूंढ रही है एक गुस्सैल आदमी जिसके गुस्से में छिपा हो यकीन व्यवस्था परिवर्तन का स्व . ओमकार मणि त्रिपाठी                                               रिलेटेड पोस्ट ….. ओमकार मणि त्रिपाठी की सात कवितायें जिंदगी कुछ यूँ तनहा होने लगी है सच की राहो में देखे है कांटे बहुत इंतज़ार

उर्दू शायर शुजाअ ‘ख़ावर’ की चुनिंदा शायरी

आलेख, संकलन, लिप्यंतरण एवं प्रस्तुति: सीताराम गुप्ता दिल्ली  जीवन परिचय  पूरा नाम: शुजाउद्दीन साजिद पैदाइश: 24 दिसंबर सन् 1946 को दिल्ली में  वालिद का नाम: जनाब अमीर हुसैन तख़ल्लुस: शुजाअ ‘ख़ावर’  मुलाज़मत: पहले दिल्ली के एक काॅलेज में अंग्रेज़ी के लेक्चरर मुकर्रर हुए और बाद में आई.पी.एस. इम्तिहान पास करने के बाद 20 साल तक पुलिस में आला अफसर के रूप में काम किया। वफ़ात: 19 जनवरी सन् 2012 को दिल्ली में  पैदाइश और मिज़ाज के ऐतिबार से ही नहीं, ज़बान और उस्लूब के ऐतिबार से भी शुजाअ ‘ख़ावर’ ठेठ दिल्ली की ख़ूबसूरत टकसाली ज़बान के शायर हैं। उनकी शायरी में अल्फाज़ और मुहावरों का इस्तेमाल देखते ही बनता है। क्योंकि शुजाअ ‘ख़ावर’ के यहाँ ज़बान और बयान में किसी क़िस्म का बनावटीपन नहीं है इसलिए उनकी शायरी को न सिर्फ आम पाठक पसंद करते हैं बल्कि शायरी की ख़ास समझ रखने वाले भी उस पर उतनी ही तवज्जो देते हैं। उनके कुछ शेर देखिए: पहुँचा हुज़ूरे-शाह,  हर एक रंग का फक़ीर, पहुँचा नहीं जो, था वही पहुँचा हुआ फक़ीर। कहाँ से इब्तिदा कीजे, बहुत मुश्किल है दरवेशो! कहानी उम्र भर की और जलसा रात भर का है। हालात न बदलें तो इस बात पे रोना, बदलें तो बदलते हुए हालात पे रोना। गुज़ारे के लिए हर दर पे जाओगे ‘शुजाअ’ साहब अना का फ़लसफ़ा दीवान में  रह जाएगा लिखा। कुछ नहीं बोला तो मर जाएगा अंदर से शुजाअ, और अगर बोला तो फिर, बाहर से मार जाएगा। थोड़ा सा बदल जाए तो  बस ताज हो और तख़्त, इस दिल का मगर क्या करें सुनता नहीं कमबख़्त। इस सर की ज़रूरत कभी उस सर की ज़रूरत, पूरी  नहीं  होती   मिरे  पत्थर  की  ज़रूरत। मरके भी देखा जाए दो इक दिन, कब तक  ऐसे  ही ज़िंदगी कीजे। ‘शुजाअ’ मौत से पहले ज़रूर जी लेना, ये काम भूल न जाना  बड़ा ज़रूरी है। ये दुनियादारी और इर्फान का दावा  शुजाअ ख़ावर, मियाँ  इर्फान  हो  जाए  तो  दुनिया छोड़ देते हैं। तुझ पर है श्हर भर की नज़र इन दिनों शुजाअ, क्यों  बोलता  नहीं  किसी इर्शाद के ख़िलाफ। इस तरह ख़ामोश रहने से तो ये मिट जाएगा, सोचिए इस शहर के बारे मंे बल्कि  बोलिए। यहाँ  तो  क़ाफिले  भर को  अकेला छोड़ देते हैं, सभी चलते हों जिस पर हम वो रस्ता छोड़ देते हैं। मुझको तो मरना है इक दिन ये मगर ज़िंदा रहे, कारीगर की मौत का क्या है,  हुनर ज़िंदा रहे। सर को ख़म कीजे तो दस्तार बंधे सर पे शुजाअ, बोलिए क्या है अज़ीज़ आपको  दस्तार कि सर? शब्दार्थ: हुज़ूरे-शाह = शाह की सेवा में उपस्थिति इब्तिदा = प्रारंभ अना = मैं/अहंकार दीवान = ग़ज़लों का संकलन इर्फान = विवके/ब्रह्मज्ञान/तमीज़ ख़म करना = झुकाना दस्तार = पगड़ी/सम्मान इर्शाद = हिदायत/हुक्म/आज्ञा रिलेटेड पोस्ट बहादुर शाह जफ़र के अंतिम दिन -इतिहास की एक उदास ग़ज़ल मीना कुमारी की बेहतरीन गजलें

दोस्ती बनाम दुश्मनी~कुछ चुनिंदा शेर

संकलन, लिप्यंतरण एवं प्रस्तुति: सीताराम गुप्ता दिल्ली-110034      बहुत कठिन है डगर पनघट की। पनघट की तरह ही दोस्ती की भी। जिसे हम दोस्ती कहते हैं कई बार वो एक बेहद ख़ुदग़र्ज़ रिश्ते से ज़्यादा कुछ नहीं होता। वफ़ा और बेवफ़ाई की तरह दोस्ती के अनेक रूप देखने को मिलते हैं। पुरातन काल से आज तक जितने भी कवि, कलाकार लेखक, विचारक हुए हैं शायद ही उनमें से कोई ऐसा हो जिसने इस विषय पर लेखनी न चलाई हो। प्रस्तुत हैं दोस्ती व दुश्मनी पर कुछ प्रसिद्ध उर्दू शायरों के अश्आर: कहाँ की दोस्ती  किन दोस्तों की  बात  करते हो, मियाँ दुश्मन नहीं मिलता कोई अब तो ठिकाने का।          -वसीम बरेलवी दिन एक सितम  एक  सितम  रात  करो हो, वो दोस्त हो दुशमन को भी तुम मात करो हो।   -कलीम आजिज़  माना  कि दोस्तों को नहीं  दोस्ती का पास, लेकिन ये क्या कि ग़ैर का एहसान लीजिए। -शहरयार मिलना-जुलना  दोस्तों से बारहा  टलता  रहा, इस तरह भी दोस्ती का सिलसिला चलता रहा।             -हबीब कैफ़ी  तेरे क़रीब आ के  बड़ी उलझनों में हूँ, मैं दुश्मनों में हूँ, कि  तेरे दोस्तों में हूँ।             -अहमद फ़राज़ दुश्मनों की भीड़ में कुछ दोस्त भी मौजूद हैं, देखते रहना करेगा मुझपे पहला  वार  कौन?    -मंज़र मजीद दुश्मनी लाख सही ख़त्म न कीजे  रिश्ता, दिल मिले या न मिले हाथ मिलाते रहिए।     -‘निदा’ फ़ाज़ली क़त्अ  कीजे न  तअल्लुक़ हमसे, कुछ नहीं है तो अदावत ही सही।          -मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ मंज़िले-हस्ती में दुश्मन को भी अपना दोस्त कर, रात हो जाए तो दिखलावें  तुझे  दुश्मन  चिराग़।           -‘आतिश’ कोई  सूरत तो दिल को  शाद  करना, हमें  दुश्मन समझ  कर  याद  करना।         -असग़र अली ख़ाँ देहलवी यूँ लगे  दोस्त तेरा  मुझसे  ख़फ़ा  हो जाना, जिस तरह फूल से ख़ुशबू का जुदा हो जाना।  -क़तील शिफ़ाई कुछ दोस्तों से वैसे  मरासिम नहीं  रहे, कुछ दुश्मनों से वैसी अदावत नहीं रही।          -दुष्यंत कुमार तीर कब  दुश्मन  चलाएगा  हमें मालूम था, इसलिए तो दोस्ती से  दुश्मनी अच्छी लगी।             -‘क़मर’ जलालाबादी दोस्तों  से  इस  क़दर  सदमे उठाए जान  पर, दिल से दुश्मन की अदावत का गिला जाता रहा।           -‘आतिश’ ग़म बढ़े आते हैं क़ातिल की निगाहों की तरह, तुम छुपा लो मुझे  ऐ दोस्त  गुनाहों की तरह।   -सुदर्शन फ़ाकिर वो दुश्मनों की तरह मुझपे वार करता है, मगर गिरोह में अपने  शुमार  करता  है।       -डाॅ अतीक़ुल्लाह ‘ताबिश’ तू दश्ना-ए-नफ्रत को ही लहराता रहा है, तूने कभी दुश्मन से लिपटकर नहीं देखा।                     -अहमद फ़राज़ दोस्ती और किसी ग़रज़ के लिए, वो तिजारत है दोस्ती  ही  नहीं।        -इस्माईल मेरठी रिलेटेड पोस्ट ….. ये दोस्ती न टूटे कभी की तू जहाँ भी रहे तू मेरी निगाह में है

जी.यस.टी. GST

रंगनाथ द्विवेदी। लाख विरोध करे——— काग्रेंस,यस.पी.(SP),बी.यस.पी.(BSP), लेकिन इस देश के आखिरी शख्स़़ के—– हित मे है जी.यस.टी(GST)। आओ हम सपोर्ट करे, क्योंकि हमी तो खरीदते है——- रोज आटा,चावल,घी, जी.यस.टी.(GST)। बनिये,स्वर्णकार,व्यापार मंडल की बंदी विरोध मजबूरी है, ये फैंसी चोर है, जिसने हमेशा कर चुरा के इस देश, सरकार और आम आदमी की—– गाढ़ी कमाई की क्षति बहुत की, जी.यस.टी.(GST)। आओ हम सब एक स्वर-एक कर, के पक्ष मे ध्वनिमत से कहे, कि स्वागत है तुम्हारा— मेरे देश में जी.यस.टी.(GST)