तुफानों का गजब मंजर नहीं है

सुशील यादव 122२  1222 १22 तुफानों का गजब मंजर नहीं है इसीलिए खौफ में ये शहर नहीं है तलाश आया हूँ मंजिलो के ठिकाने कहीं मील का अजी पत्थर नहीं है कई जादूगरी होती यहाँ थी कहें क्या हाथ बाकी हुनर नहीं है गनीमत है मरीज यहाँ सलामत अभी बीमार चारागर नहीं है दुआ मागने की रस्म अदायगी में तुझे भूला कभी ये खबर नही है

पिता को याद करते हुए

डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई ——————————– कल बहुत दिनों बाद सुबह मिली  खिली खिली बोली उदास होकर तुम्हारे पिता मुझसे रोज़ मिला करते थे गेट का ताला खोल कर इधर-उधर देश-समाज साहित्य, घर-संसार और तुम्हारी कितनी ही बातें करने के बाद तब तुम्हारी माँ सँग सुबह की चाय पिया करते थे फिर बरामदे में बैठ सर्दियों की गुनगुनी धूप में गर्मियों की सुबह-सुबह की ठंडक में साहित्य-संवाद किया करते थे बारिश होने पर बरामदे में आई बूँदों और ओलों को देख अपनी नातिन को पुकारते फ़ोटो खींचने और कटोरी में ओले  भरने को जब बन जाते धीरे-धीरे वे पानी तब वो पूछती ओले कहाँ गए “चैकड़ी पापा” उन दोनों की बालसुलभ सरल बातें सुन मैं भी मन ही मन मुस्काती उनके सँग बैठी रहती थी पर अब मैं रोज़ आती हूँ गेट भी खुलता है पर वो सौम्य मुस्कान लिए चेहरा नज़र नही आता तुम्हीं बताओ अब किसके सँग बैठूँ किससे कहूँ अपना दुख-सुख मुझसे मिलने अब कोई नही आता जो आते है वे सब कुछ करते हैं पर मुझसे बोलते तक नहीं बताओ सही है क्या भला यह! कभी अपने पिता की तरह मुझसे मिलने “उत्तरगिरि” में आओ न सुबह-सुबह। ————————–

अपने पापा की गुड़िया

फादर्स डे पर  एक बेटी की अपने पापा की याद को समर्पित कविता। अपने पापा की गुड़िया दो चुटिया बांधे और फ्रॉक पहने, दरवाजे पे-खड़ी रहती थी——— घंटो कभी अपने पापा की गुड़िया। फिर समय खिसकता गया, मै बड़ी होती गई! मेरे ब्याह को जाने लगे वे देखने लड़के, फिर ब्याह हुआ, मै विदा हुई पापा रोये नही, पर मैने उनके अंदर———- के आँसूओ का गीलापन महसूस किया, पीछे छोड़ आई सब कुछ अपने पापा की गुड़िया। सुना था बहुत दिनो तक, पापा तकते रहे वे दरवाज़ा,  शायद ये सोच—————- कि यही खड़ी रहती थी कभी, उनके इंतज़ार में घंटो,  फ्रॉक पहने दो चुटिया बांधे इस पापा की अपने गुड़िया। फिर आखिरी मर्तबा उन्हे बीमारी मे देखा, वे चल बसे! अब यादो में है——————-  कुछ फ्रॉक दो चुटिया और तन्हा खड़ी—————–  दरवाजे के उस तरफ, आँखो में आँसू लिये—————- अपने पापा की गुड़िया।  ### रंगनाथ द्विवेदी, यह भी पढ़ें ……. डर -कहानी रोचिका शर्मा एक दिन पिता के नाम -गडा धन आप पढेंगे ना पापा लघुकथा -याद पापा की आपको  कविता  “    पूरक एक दूजे के “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under- father’s day, papa, father-daughter, memoirs, parents

मां

कवि मनोज कुमार रूठने पर झट से मना लेती थी मां दवा से ज्यादा दुआ देती थी कुछ बात थी उसके हाथों में जो भूख ही पेट से वो चुरा लेती थी चोट कितनी भी गहरी लगी क्यों न हो फूंक कर झट से वो भगा देती थी मां पढ़ी कम थी मेरी मगर हर मर्ज की वो दवा देती थी आंख से आंसू निकलते नहीं थे आंचल वो झट से फिरा देती थी कुछ कहता न था मैं लब से मगर खिलौना वही वो दिला देती थी मुंह अंधेरे भी निकलूं जो घर से अगर उठ कर खाना वो झट से बना देती थी बहस कितनी भी कर लूं उससे मगर मुस्कुरा कर सब वो भुला देती थी मां दवा से ज्यादा दुआ देती थी। परिचय: श्री मनोज कुमार यादव प्रणवीर सिंह इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैंIउन्होंने मैकेनिकल इंजीनियरिंग में ऍम.टेक की उपाधि प्राप्त की है एवं विगत पंद्रह वर्ष से अध्यापन कार्य में संलग्न हैंIइंजीनियरिंग क्षेत्र में होने के बावजूद साहित्य में रूचि होने के कारण श्री मनोज कुमार ने हिंदी कविता के क्षेत्र में बहुत ही उल्लेखनीय कार्य किया है तथा विभिन्न सामाजिक एवं राजनैतिक मुद्दों पर अपनी कविताओं के माध्यम से समाज में जन जागरण का कार्य किया हैI

राग झुमर सुन रहा हूँ

रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी मै उसके कान की बाली का राग झुमर सुन रहा हूं, कंगन,बिछुवे,चुड़ियां संगत कर रही, कोई घराना नही दिल है———– जिससे मै राग चाहत सुन रहा हूं, मै उसके कान की बाली का राग झुमर सुन रहा हूं। उसका इस कमरे,उस कमरे आना-जाना, एक सुर,लय,ताल का मिलन है उस मिलन से उपजी———– मै राग पायल सुन रहा हूं, मै उसके कानो की बाली का राग झुमर सुन रहा हूं। कपकंपाते होंठ सुर्खी गाल की, तील जैसे लग रही उसकी सखी, और कर रही छेड़छाड़ भर बदन, उफ!उसकी उम्र के उन्माद का—— मै राग काजल सुन रहा हूं, मै उसकी कान की बाली का राग झुमर सुन रहा हूं। घन-गरज है,बिजलियाँ है काँधे पे वे श्वेत आँचल लग रहा कि मछलियाँ है, उन मछलियो के प्रेम की——– मै राग बादल सुन रहा हूं, मै उसके कानो की बाली का राग झुमर सुन रहा हूँ रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)।

मैं गंगा

फ़ोटो क्रेडिट::::अभिषेक बौड़ाई मैं गंगा जानते हैं सभी बहती आई हूँ सदियों से अपनों के लिए इस पावन धरा पर अलग-अलग रूप लिए अलग-अलग नाम से उमड़ता है एक प्रश्न मथता है मनो-मस्तिष्क मेरे अपने मेरे अस्तित्व को बचाए रखने को बनाई योजनाएँ अमल में लाते क्यों नही? हर जन जब स्वयं अपने से आरंभ करे प्रयत्न मुझे सुरक्षित रखने का तभी मेरा अस्तित्व अक्षुण्ण रह पाएगा सोचो, करो, देखो तुम सबका प्रयास व्यर्थ नहीं जाएगा वादा मेरा मैं इस धरा पर बहने के साथ साथ बहूँगी सर्वदा तुम सबके भीतर नए विश्वास के साथ। ———————————- डॉ . भारती वर्मा ‘बौड़ाई ‘ डॉ . भारती वर्मा ;बौड़ाई ‘ की अन्य रचनाएँ पढने के लिए क्लिक करें

रंडी—एक वीभत्स और भयावह यथार्थ

“अँधेरी रात मे——- वे शहर की स्ट्रिट लाइट से टेक लगा, अपना आधे से अधिक वक्षस्थल खोले, किसी ग्राहक को रिझाने और लुभाने का प्रयास करती है, किसी रात जब काफी प्रयासो के इतर, कोई ग्राहक आता और रिझता नही दिखता, तो अपनी निदाई आँखो की निद दुर करने को, वे गाढ़ी और सुर्ख लिपस्टिक के उस तरफ, अक्सर बीड़ी पीने से सँवलाये होंठो के बीच, एक बीड़ी दबा————– बड़ी अश्लीलता और निर्लज्जता से वे अपने हाथो को, अपने अधखुले वक्षस्थल मे डाल, चारो तरफ जलाने को दियासलाई टटोलती है, उस टटोलने मे स्त्रियोचित कोई संवेदना नही, बल्कि बेरहमी से दियासलाई निकाल बीड़ी जला—– कुछ तगड़े-तगड़े सुट्टे ले जब अपने नथुनो से धुआँ निकालती है, तो उस धुँये की धुँध उसे अपनी एकलौती जीवन सखी लगती है, कभी-कभी जब एकाध कस की शुरुआत मे ही किसी ग्राहक को आता देखती है, तो उसे रोज अपनी तरह जली बीना बुझाये फेक, कुछ इस तरह झुकती है, कि उसके अधखुले वक्षस्थल थोड़ा और गहरे खुल, ग्राहक को यौन मदांध कर बाबले और उतावले कर देते है, उसकी इस झुकन की कलात्मकता ने ही उसे अब तक, ज्यादा ग्राहक दिये है! वे हर रात अपने ग्राहक को शिशे मे उतार, इस स्ट्रिट लाइट की कुछ दुरी पे बने अपने उस दो कमरे की सिलन की बदबू से रचे बसे कोठरी मे ले जाती है, और उसी कमरे की एक जर्जर तखत पे सो जाती है, कभी इसी तखत पे दुल्हन की तरह सोने आई थी, और इसी तखत पे सोने के लिये, माँ-बाप का घर छोड़———- प्रेमी के साथ भाग आई थी ये शायद उन्हिं की पीड़ा का श्राप है, कि सुहाग तखत पे रंडी बन रह गई। फिर समय के साथ मैने ख़ुदकुशी न की, हाँ उस शरीर और अंग से बदला जरुर लेती हूँ, जिसे अगर कुछ दिन और संभाल लेती तो एक औरत होने का, संम्पुर्ण ऐहसास करती, मै बलात भागी थी उसी बलात भागने ने जीवन नर्क कर दिया। हर रात उसका ग्राहक तृप्त हो जब ये जुमले कहता है कि—– तेरे अर्धखुले वक्षस्थल ब्लाउज मे तो सुंदर थे ही, और आजाद हुये तो और कयामत व सुंदर हो गये, ये सुन उसने हमेशा की तरह अपने ग्राहक को मन ही मन मादरजात गाली दे, फिर अपने उस ब्लाउज को उठा एक रुटीन की तरह, बीना किसी कोमलता के जबरदस्ती इधर-उधर ठुस, और उस ठुसने की रगड़ को, वे राड़ कह खूब हँसती है वे हँसी अपने को और पीड़ित करने की होती है, फिर उसी तखत पे अस्त-ब्यस्त लेट, एक रंडी की तरह पुरा दिन बीता उठती है, नहा धुलकर,गाढ़ी लिपस्टिक लगा चल पड़ती है, एक बीड़ी होठ पे लगाये उसी स्ट्रिट लाइट की तरफ, वैसे ही खड़ी हो फिर किसी ग्राहक को, अपने अधखुले ब्लाउज से रोज की तरह दिखाने अपना, अाधे से अधिक खुला वक्षस्थल।

कतरा कतरा पिघल रहा है

 साधना सिंह कतरा कतरा पिघल रहा है   दिल नही मेरा संभल रहा है  ||  हवा भी ऐसे सुलग रही है  और ये सावन भी जल रहा है || कि एक तेरे जाने से देखो,  कैसे सबकुछ बदल रहा है ||  फूल लग रहा शूल सरीखा  नमक जले पर मल रहा है || अब चाँद अखरता है मुझको  क्यों आसमान मे निकल रहा है || जाने वाला तो जायेगा ही,   नियति का नीयत अटल रहा है ||  पर दिल नही मेरा संभल रहा है,  ये कतरा कतरा पिघल रहा है ||  ________________

स्मृति – पिता की अस्थियां ….

सुशील यादव पिता , बस दो दिन पहले आपकी चिता का अग्नि-संस्कार कर लौटा था घर …. माँ की नजर में खुद अपराधी होने का दंश सालता रहा … पैने रस्म-रिवाजों का आघात जगह जगह ,बार बार सम्हालता रहा …. @@ आपके बनाया दबदबा,रुतबा,गौरव ,गर्व अहंकार का साम्राज्य , होते देखा छिन्न-भिन्न, मायूसी से भरे पिछले कुछ दिन… खिंचे-खिंचे से चन्द माह , दबे-दबे से साल गुजार दी आपने बिना किसी शिकवा बिना शिकायत दबी इच्छाओं की परछाइयां न जाने किन अँधेरे के हवाले कर दी @@ एक  खुशबु पिता की  पहले छुआ करती थी दूर से विलोपित हो गई अचानक, न जाने कहाँ …? न जाने क्यों  मुझसे अचानक रहने लगे खिन्न >>> आज इस मुक्तिधाम में मैं अपने अहं के ‘दास्तानों’ को उतार कर चाहता हूँ तुम्हे छूना … तुम्हारी अस्थियों में, तलाश कर रहा हूँ उन उंगलियों को…. छिन्न-भिन्न ,छितराये समय को टटोलने का उपक्रम पाना चाहता हूँ एक बार … फिर वही स्पर्श जिसने मुझे उचाईयों तक पहुचाने में अपनी समूची  ताकत झोक दी थी पता      नहीं  कहाँ कहाँ झुके थे लड़े थे …. मेरे पिता मेरी खातिर …. अनगिनत बार >>> मेरा बस चले तो सहेज कर रख लूँ तमाम उँगलियों के पोर-पोर हथेली ,समूची बांह कंधा …उनके  कदम … जिसने मुझमें  साहस का ‘दम’जी खोल के भरा >>> पिता जाने-अनजाने आपको इस ठौर तक अकाल ,नियत- समय से पहले ले आने का अपराध-बोध मेरे दिमाग की कमजोर नसें हरदम महसूस करती रहेगी

दो स्तन

ये महज कविता नही वरन रोंगटे खड़े करता एक भयावह यथार्थ है। रंगनाथ द्विवेदी कुछ भिड़ झुरमुट की तरफ देख, अचानक मै भी रुक गया——– और जैसे ही मेरी नज़र उस झुरमुट पे पड़ी, उफ!मेरे रोंगटे खड़े हो गये, एक पैत्तीस साल की औरत का———– विभत्स बलात्कार मेरे सामने था, उसके गुप्तांग जख्मी थे, और उससे भी कही ज्यादा जख्मी थे—– उसके वे दो खुले स्तन। जिसपे पशुता के तमाम निशान थे, नोचने के,खसोटने के,दाँतो के बहुत मौन थे, लेकिन ये मौनता एक पिड़ा की थी, क्या?इसिलिये ईश्वर ने दिया था, इस औरत को———- कि कोई अपनी पशुता से छिन ले,मसल दे इसके दो स्तन। जब पहली मर्तबा इसके बलात्कारी ने भी पिया होगा, अपनी नर्म हाथो से बारी-बारी——- अपनी माँ का दो स्तन! तब इनमे दुध उतरा था, क्यूं ?नहीं दिखा आखिर—– मसलते,कुचलते,नोचते वक़्त, शायद देखता तो कांप जाता, क्योंकि इसकी अपनी माँ के भी थे—– यही दो स्तन। इतना ही नही गर कल्पना करता, तो इसे दिखता———— अपने ही घर मे अपनी बुआ,अपनी चाची और सीने पे दुपट्टा रंखे अपनी बहन के– इसी बलात्कार की गई औरत की तरह, दुपट्टे के उस तरफ भी तो लटके है एै”रंग”—– यही दो स्तन। @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर।