मदर्स डे : माँ को समर्पित सात स्त्री स्वर

                                 वो माँ भी है और बेटी भी |इस अनमोल रिश्ते में अनमोल प्रेम तो है ही पर जहाँ एक और उसके ह्रदय में अपनी माँ के प्रति कृतज्ञता का भाव है वहीँ अपने बच्चों के प्रति कर्तव्य  का बोध | कैसे संभाल पाती है एक स्त्री  स्नेह के इन दो सागरों को एक साथ | तभी तो छलक जाती हैं बार बार आँखें , और लोग कहतें हैं की औरतें रोती बहुत हैं | आज मदर्स डे के अवसर पर हम लाये हैं एक साथ सात स्त्री स्वर , देखिये कहीं आप की आँखें भी न छलक पड़ें | इसमें आप पढेंगें वंदना गुप्ता , संगीता सिंह ” भावना “, डॉ . किरण मिश्रा , आभा खरे , सरस दरबारी , डॉ . रमा द्विवेदी और अलका रानी की कवितायें  कब आओगी तुम  माँ कहाँ हो तुम ? जाने से पहले यूँ भी न सोचा तुम्हारे बाद मेरा क्या होगा? कौन मुझे चाहेगा? कौन मुझे दुलारेगा ? मेरे होठों की हँसी के लिए कौन तड़प -तड़प जाएगा मेरी इक आह पर कौन सिसक- सिसक जाएगा पिता ने तो अपनी नई दुनिया बसा ली है अब तो नई माँ की हर बात उन्होंने मान ली है तुम ही बताओ अब कहाँ जाऊँ मैं किसे माँ कहकर पुकारूँ मैं यहाँ पग-पग पर ठोकर और गाली है तुम्हारी लाडली के लिए अब कोई जगह न खाली है माँ , कहाँ हो तुम ? क्या मेरे दर्द को नही जानती क्या अब तुम्हें दर्द नही होता अपनी बेटी की पीड़ा से क्या अब तुम्हारा दिल नही रोता क्यूँ चली गई जहान छोड़कर मुझे भरी दुनिया में अकेला छोड़कर किससे अपने सुख दुःख बाटूँ कैसे मन के गुबार निकालूं? कौन है जो मेरा है ? ये कैसा रैन-बसेरा है ? जहाँ कोई नही मेरा है अब तो घुट-घुट कर जीती हूँ और खून के आंसू पीती हूँ जिस लाडली के कदम जमीं पर न पड़े कभी वो उसी जमीं पर सोती है और तुम्हारी बाट जोहती है इक बार तो आओगी तुम मुझे अपने गले लगाओगी तुम मुझे हर दुःख की छाया से कभी तो मुक्त कराओगी तुम बोलो न माँ कब आओगी तुम ? कब आओगी तुम? वंदना गुप्ता अनुपम कृति है …..’माँ ‘ मैं भी लिखना चाहती हूँ माँ पर कविता , माँ यशोदा की तरह प्यारी न्यारि …… लिखती हूँ जब कागज के पन्नों पर , एक स्नेहिल छवि उभरती है शायद…….संसार की सबसे अनुपम कृति है …..’माँ ‘ जब भी सोचती हूँ माँ को , हर बार या यूं कहें बार-बार माँ के गोद की सुकून भरी रात और साथ ही ,,,,,, नरमी और ममता का आंचल और भी बहुत कुछ प्यार की झिड़की ,तो संग ही दुवाओं का अंबार ऐसा होता है माँ का प्यार ……. हर शब्द से छलक़ता ,,,,, प्यार ही प्यार … सच तो यह है कि, माँ की ममता का नेह और समर्पण , ही पहचान है ,उसकी अपनी तभी तो इस जगत में, ”माँ” महान है …….!!! संगीता सिंह ”भावना” माँ का सबक  जब उड़ने लगती है सड़क पर धूल और नीद के आगोश में होता है फुटपाथ तब बीते पलों के साथ मैं आ बैठती हूँ बालकनी में , अपने बीत चुके वैभव को ,अभाव में तौलती अपनी आँखों की नमी को बढाती पीड़ाओं को गले लगाती । तभी न जाने कहां से आ कर माँ पीड़ाओं को परे हटा हँस कर , मेरी पनीली आँखों को मोड़ देती है फुटपाथ की तरफ और बिन कहे सिखा देती है अभाव में भाव का फ़लसफा । मेरे होठों पर , सजा के संतुष्टि की मुस्कान मुझे ले कर चल पडती है पीड़ाओं के जंगल में जहाँ बिखरी पडी हैं तमाम पीड़ायें मजबूर स्त्रियां मजदूर बचपन मरता किसान इनकी पीड़ा दिखा सहज ही बता जाती हैं मेरे जीवन के मकसद को अब मैं अपनी पीड़ा को बना के जुगनू खोज खोज के उन सबकी पीड़ाओं से बदल रही हूँ माँ की दी हुई मुस्कान और सार्थक कर रही हूँ माँ के दिए हुए इस जीवन को। डॉ किरण मिश्रा माँ को समर्पित  बढ़ती उम्र के साथ अब मै माँ तुम जैसी लगने लगी हूँ.. इतराती हूँ और ख़ुद को तुम जैसी ख़ूबसूरत कहने लगी हूँ.. तेरी बिंदिया और पायल पहन मैं और भी सजने संवरने लगी हूँ… चुराकर तेरी मुस्कान की खुश्बू हरसिंगार सी महकने लगी हूँ .. मेरे हाथों में हो तेरे हांथों का हुनर ईश्वर से ये दुआ मांगने लगी हूँ… उतरा है यूँ तेरा नूर मुझपर तेरी तरह बच्चों के नखरे सहने लगी हूँ… दूर होकर भी तू होती है पास मेरे जबसे सितारों से दोस्ती करने लगी हूँ…!!! आभा खरे तूने मुझे शर्मसार किया  ‘पुत्रवती भव’ रोम रोम हर्षित हुआ था – जब घर के बड़ों ने – मुझ नव-वधु को यह आशीष दिया था – कोख में आते ही – तेरी ही कल्पनाओं में सराबोर! बड़ी बेसब्री से काटे थे वह नौ महीने … तू कैसा होगा रे- तुझे सोच सोच भरमाती सुबह शाम! बस आजा तू यही मनाती दिन रात …… गोद में लेते ही तुझे- रोम रोम पुलक उठा था – लगा ईश्वर ने मेरी झोली को आकंठ भर दिया था !! ————- आज….. तूने …मेरी झोली भर दी ! शर्म से… उन गालियों से- जो हर गली हर मोड़ पर बिछ रही हैं … उस धिक्कार से – जो हर आत्मा से निकल रही है … उस व्यथा से – जो हर पीडिता के दिल से टपक रही है … उन बददुआओंसे – जो मेरी कोख पर बरस रही हैं ….! मैंने तो इक इंसान जना था – फिर – यह वहशी ! कब ,क्यूँ , कैसे हो गया तू … आज मेरी झोली में नफरत है – घृणा है – गालियाँ हैं – तिरस्कार है – जो लोगों से मिला – ग्लानि है – रोष है – तड़प है- पछतावा है- जो तूने दिया !!! जिसे माँगा था इतनी दुआओंसे – वही बददुआ बन गया ! तूने सिर्फ मुझे नहीं – ‘ माँ’ – शब्द को शर्मसार किया … सरस दरबारी माँ के आंचल को मैं तरसती रही… मेरी सांसों … Read more

मदर्स डे : माँ को समर्पित कुछ भाव पुष्प ~रंगनाथ द्विवेदी

जहाँ एक तरफ माँ का प्यार अनमोल है वही हर संतान अपनी माँ के प्रति भावनाओं का समुद्र सीने में छुपाये रखती है | हमने एक आदत सी बना रखी है ” माँ से कुछ न कहने की ” खासकर पुरुष एक उम्र के बाद ” माँ मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ ” कह ही नहीं पाते | मदर्स डे उन भावनाओं को अभिव्यक्त करने का अवसर देता है | इसी अवसर का लाभ उठाते हुए रंगनाथ द्विवेदी जी ने माँ के प्रति कुछ भाव पुष्प अर्पित किये हैं | जिनकी सुगंध हर माँ और बच्चे को सुवासित कर देगी | माँ की दुआ आती है मै घंटो बतियाता हूं माँ की कब्र से, मुझे एैसा लगता है कि जैसे——- इस कब्र से भी मेरी माँ की दुआ आती है। नही करती मेरी सरिके हयात भी ये यकिने मोहब्बत, कि इस बेटे से मोहब्बत के लिये, कब्र से बाहर निकल———- मेरे माँ की रुह यहां आती है। जब कभी थकन भरे ये सर मै रखता हू, कुछ पल को आ जाती है नींद, किसी को क्या पता?———– कि मेरी माँ की कब्र से जन्नत की हवा आती है। एै,रंग—-ये महज एक कब्र भर नही मेरी माँ है, जिससे इस बेटे के लिये अब भी दुआ आती है। ठंड मे माँ———– जिस जगह गीला था वहाँ सोयी थी।ठंड-दर-ठंड———तू कितना बडा हो गया बेटे,कि तू हफ्तो नही आता अपनी माँ के पास।देख आज भी गीला है———माँ का वे बीस्तर!बस फर्क है इतना कि पहले तू भीगोता था,अब इसलिये भीगा है रंग———-कि माँ रात भर रोयी थी।ठंड मे माँ—————जिस जगह गीला था वहाँ सोयी थी। माँ पर लघु कवितायें १——-मै घंटो बतियाता हूँ माँ की कब्र से,ऐ,रंग—-ऐसा मुझे लगता है कि!जैसे इस कब्र से भी—————मेरे माँ की दुआ आती है। २————–भूखी माँ सुबह तलक—-भूख से बिलबिलाती बेटी के लिये,लोरी गाती रही।पड़ोसीयो ने कहा बेटी मर गई,ऐ,रंग—-वे इस सबसे बे-खबर!कहके चाँद को रोटी गाती रही। ३———–माँ—————मै आज ढ़ेरो खाता हूँ,पर तेरी चुपड़ी रोटी की भूख रह जाती है।आज सब कुछ है———–स्लिपवेल के गद्दे,एसी कमरे,पर नींद घंटो नही आती है।ऐ,रंग—-यादो मे!माँ की गोद और लोरी रह जाती। ४———–बचपन होता बचपन की चोरियाँ होती,माँ मै चैन से सोता————–इस पत्थर के शहर में,गर तू होती और तेरी लोरीयाँ होती। रंगनाथ दुबे

निर्भया को न्याय है

रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर। ये महज़ फाँसी नहीं————— उस निर्भया को न्याय है। जो चीखी,तड़पी,छटपटाई तेरी विकृत कुंठा के डाले गये वे सरिये, कितने घृणित थे! काश तुम्हारी माँ ने कहा होता, या तुमने———– अपनी सगी बहन के वे गुप्तांग याद किये होते, तो तुम्हारा ज़मीर कहता कचोटता, कि ये पाप है,अन्याय है और तुम कांप जाते! हां तुम्हारी पशुता व अमानवियता से, वे कुछ ही दिनो मे मर गई, लेकिन तुम तभी से मर रहे हो तील-तील, सच गलिजो़————– आज निर्भया की रुह खुश होगी, उसका गला रुंध आया होगा, ये तुम्हें महज़ फाँसी नही बेगैरतो बल्कि—— उस मासुम और बेगुनाह लड़की, निर्भया को न्याय है।

जाने क्यूँ मुझको मेरी माँ मेरी बेटी लगती है !

उषा लाल                              जाने क्यूँ मुझको मेरी माँ                            मेरी बेटी लगती है ! घड़ी घड़ी जिज्ञासित हो करबहुत प्रश्न वह करती है भर कौतूहल आँखों मेंहर नई वस्तु को तकती है ! बात बात पर घूम घूम फिरवही सवाल उठाती हैउत्तर पा कर , याददाश्त कोवह दोषी ठहराती है ! जोश वही है उनका अब भीचाहे पौरुष साथ न देसब कुछ करने को आतुर वहघर में जो भी काम दिखे ! निद्रामग्न रहें जब बेसुधशिशु समान वह दिखतीहैवयस तिरासी बिता चुकी हैलेकिन दो ही लगती है ! बचपन में मुझको अम्माँ , इकआटे की चिड़िया दे करचौके में बैठा लेती थीखेल कूद में उलझा कर! जी करता है मैं भी उनकोकुछ वैसे ही बहलाऊँछोटे छोटे बर्तन ला करचूल्हा – चौका करवाऊँ ! ईश्वर दया दिखाना इतनीउन्हें सुरक्षित तुम रखनाहाथ -पाँव सब स्वस्थ रहेंबस बोझ किसी पर मत करना! बिना दाँत का भोला मुखड़ाकितनी प्यारी दिखती हैजाने क्यूँ मुझको मेरी माँ मुझको मेरी बेटी लगती है  indianvoice से साभार

घूंघट वाली औरत और जींस वाली औरत

आँखें फाड़ – फाड़ कर देखती है घूंघट  वाली औरत पड़ोस में आकर बसी जींस पहनने वाली औरत को याद आ जाते हैं वो दो गज लम्बे दुप्पटे जिन्हें भी तहा  कर रख आई थी माँ की संदूक में की अब बस साड़ी ही पहननी है यही ससुराल का ड्रेस कोड है इसके इतर कुछ पहनने पर लग जायेंगे उसके संस्कार पर प्रश्न चिन्ह ? नाप दिए जायेंगे बाप – दादा पर वो , कैसे पहन पाती है जींस फिर अपने ही प्रश्न को पलट देती है , तवे पर रोटी के साथ फुर्सत में सोंचेगी पहले सबको खाना तो खिला दे बड़ी हसरतों से देखती है घूँघट वाली औरत सुबह कपडे धोते  हुए जींस वाली औरत को फोन पर अंग्रेजी में गपियाते हुए याद आ जाती हैं वो किताबें वो स्कूल का जीवन वो अधूरी शिक्षा जो पिता के  जल्दी कन्यादान कर गंगा नहाने की इच्छा में आंसुओं में बह गयी पर वो …. कैसे पढ़ पायी फिर बहा देती है अपने ही प्रश्न को कपडे के मैल  के साथ भीगी  पलकों से झरोखे से निहारती है घूँघट वाली औरत कार चला कर बाहर जाती जींस वाली औरत को अचानक खिड़की के जिंगले गड़ने लगते हैं सीने में  बढ़ा देती है कदम वो भी बाहर जाने को की ठीक दरवाजे की चौखट के आगे सुनाई पड़ती है खखारते  ससुर की आवाज़ भले घर की औरतें अकेली बाहर नहीं जाती भरती है आह फिर याद आ जाती है विदाई के समय माँ की शिक्षा की उस घर से अर्थी ही जाए पी जाती है अपनी ही चाह को अपने आंसुओं के साथ बड़े गुस्से से देखती है घुंघट वाली औरत जींस वाली औरत को की उसका पति आजकल घर के वरामदे में ज्यादा मंडराया करता है तुलना करता है उसकी जींस वाली औरत से और बात – बात पर देता है उसे गंवार की उपाधि   पर वो …. वो तो भाव नहीं देती उसके पतिको जानती है वो न उसे  बाहर जाने को मिलेगा न उस पर लगा गंवार का लेवल हटेगा इस बार नहीं पलट पाती अपने ही प्रश्न को न तवे पर रोटी के साथ न कपड़ों के साथ न आंसुओं के साथ दिन रात मंथन करती है घूंघट वाली औरत जींस वाली औरत के कारण अनायास  ही उपजी समस्या का पतिव्रता , घर के बाहर कह नहीं सकती है पति के खिलाफ एक भी शब्द साथ जो निभाना है जीवन भर सुना है आजकल उसने घर – बाहर कहना शुरू कर दिया है जींस वाली औरत के बारे में निर्लज्ज है , बेहया ,संस्कारहीन न जाने कैसे कपडे पहनती फिरती है सुना है  सुन – सुन कर आजिज़ आ चुकी जींस वाली औरत भी पुकारने लगी है उसे पिंजड़े की मैना जो दूसरे पर अँगुली उठाने से पहले काबू में न रख पायी अपने पति को मेरे , आप के हम सबके मुहल्ले में है घूँघट वाली औरत और जींस वाली औरत में तनातनी अंगुलियाँ उठ रही हैं दोनों ओर से इस बीच एक तीसरा पक्ष भी है जो लगता है दोनों पर सरेआम आरोप कुछ नहीं “ औरत ही औरत की दुश्मन है “ स्वीकृति में हिलते सरों के बीच कहीं  कोई प्रश्न नहीं उठता “ आखिर औरत को औरत की दुश्मन बनाया किसने “ वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें … काव्य जगत में पढ़े – एक से बढ़कर एक कवितायें रूचि भल्ला की कवितायें वीरू सोनकर की कवितायेँ आभा दुबे की कवितायें बातूनी लड़की आपको  कविता  “.घूंघट  वाली औरत और जींस वाली औरत .“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

बिकते शब्द

शब्द  मीठे /कडवे  बनाओं तो बन जाते   शस्त्र  तीखे बाण /कानों को अप्रिय  आदेश  हौसला ,ढाढंस ऊर्जा बढ़ाते  मौत को टोक कर  रोक देते उपदेशो से कर देते  अमर  शब्दों का पालन  भागदौड़ भरी दुनिया से परे  सिग्नल मुहँ चिढा रहे  बिन बोले  सौ बका और एक लिखा  कैसे वजन करें  इंसाफ की तराजू  शब्द झूट के  हो जाते विश्वास की कसमो में  बेवजह तब्दील  चंद  रुपयों की खातिर  अनपढ़ों को मालूम   शब्द बिकते    पढ़े लिखे बने अंजान  वे खोज रहे शब्दकोश  जहाँ से बिन सके  बिकने वाले सत्य  और मीठे शब्द  संजय वर्मा “दृष्टी “

स्वागत है ऋतुराज

                     वसंत ऋतू की शोभा अनुपम है .. इसी लिए इसे ऋतुराज भी कहा जाता है | चरों ओर खिली हुई सरसों जब प्रकृति का श्रृंगार करती है तो क्यों न मन भी वसंती हो जाए | वसंत ऋतू में वासंती हुए मन में निखर ही जाता है प्रीत का रंग |  आइये करें ऋतुराज का स्वागत                                   आइये हम वसंत ऋतू का स्वागत कुछ  कविताओं के साथ करें … “वसंत ऋतु “ फिर पद चाप  सुनाई पड़ रहे  वसंत ऋतु के आगमन के  जब वसुंधरा बदलेगी स्वेत साडी करेगी श्रृंगार उल्लसित वातावरण में झूमने लगेंगे मदन -रति और अखिल विश्व करने लगेगा मादक नृत्य सजने लगेंगे बाजार अस्तित्व में आयेगे अदृश्य तराजू जो फिर से तोलने लगेंगे प्रेम जैसे विराट शब्द को उपहारों में अधिकार भाव में आकर्षण में भोग -विलास में और विश्व रहेगा अतृप्त का अतृप्त फिर सिसकेगी प्रेम की असली परिभाषा क्योकि जिसने उसे जान लिया उसके लिए हर मौसम वसंत का है जिसने नहीं जाना उसके लिए चार दिन के वसंत में भी क्या है ? आइये ऋतुराज  आगमन हो रहा है वसंत का कर लिया है प्रकृति ने श्रृगार आरंभ हो गया है मदन -रति का नृत्य मैंने भी  निकाल लिए है कुछ सूखे लाल गुलाब जो तुम्हारे स्पर्श से पुनः खिल जायेगे वो पुरानी बिंदिया जो तुम्हारी दृष्टि पड़ते ही सुनहरी हो जायेगी और सिल ली है वो पायल जिसकी छन -छन सीधे तुम्हारे ह्रदय में जायेगी हर वसंत की तरह इस बार भी पुनः और दृढ हो जायेगा हमारे रिश्ते का वृक्ष जिसे वर्ष भर असंख्य जिम्मेदारियों और व्यस्तताओ के बीच धीरे -धीरे ,चुपके -चुपके सींच रहे थे हम -तुम “स्वागत है ऋतुराज” लाल गुलाब आज यूं ही प्रेम का उत्सव मनाते लोगों मेंलाल गुलाबों केआदान-प्रदान के बीचमैं गिन रही हूँवो हज़ारों अदृश्यलाल गुलाबजो तुमने मुझे दिए तब जब मेरे बीमार पड़ने पर मुझे आराम करने की हिदायत देकर रसोई में आंटे की लोइयों से जूझते हुए रोटी जैसा कुछ बनाने की असफल कोशिश करते हो तब जब मेरी किसी व्यथा को दूर ना कर पाने की विवशता में अपनी डबडबाई आँखों को गड़ा देते हो अखबार के पन्नो में तब जब तुम “मेरा-परिवार ” और “तुम्हारा-परिवार” के स्थान पर हमेशा कहते हो “हमारा-परिवार” और सबसे ज़यादा जब तुम झेल जाते हो मेरी नाराज़गी भी और मुस्कुरा कर कहते हो “आज ज़यादा थक गई हैं मेरी मैडम क्यूरी “ नहीं , मुझे कभी नहीं चाहिए डाली से टूटा लाल गुलाब क्योंकि मेरा लाल गुलाब सुरक्षित है तुम्हारे हिर्दय में तो ताज़ा होता रहता है हर धड़कन के साथ। वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें ……… वाणी वंदना मायके आई हुई बेटियाँ काहे को ब्याही ओ बाबुल मेरे बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए आपको  कविता  “..स्वागत है ऋतुराज “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

सतरंगिनी – ओमकार मणि त्रिपाठी की सात कवितायें

1… आखिर  कब तक….?  डूबे रहोगे  सिर्फ बौद्धिक व्यभिचार में वक्त पुकार रहा हैसमस्याओं के उपचारकी बाट जोह रहे हैं लोगअब मिथ्याचार नहीं,बल्कि समाधान के आधार तलाशो २… कई बार ऐसा होता है   रख दिए जाते हैं  संवेदना के स्रोतों के ऊपर यथार्थ के पत्थर ढंक दिया जाता है संवेदना कोमर जाती हैसंवेदना की स्रोतस्विनीडर जाती हैक़ाली हकीकतों को देखकर ३…… मीत अगर कहलाना है,तो बातों से मत बहलाना, मैं भी खुद को खो दूंगा,तुम भी खुद को खो देना। वीणा का तार हो जाउंगा,करुणा का भाव तुम बन जाना। काजल हूं रात का मैं,भिनसार की झलक तुम,शबनम हूं भोर की मैं,मधुबन की भूमिका तुम,प्रणयी का गीत हूं मैं,बिसरा अतीत हूं मैं,मैं छेडूंगा राग सारे,बस तुम गीत गुनगुनाना। 4…. जब मुखर होता है , मौन  शब्द चुक जाते है | तब अहसासों की प्रतीती में , पुनः  जन्म लेती है वाणी 5……… भूलूं तुझे अगर तो लोग बेवफा कहें…..रखूं अगर जो याद तो परछाइयां डसें।खोलूं अगर जो होंठ तो रुसवाई हो तेरी…..चुप रहूं तो चीखती सच्चाइयां डसें।घर में रहूं या बाजार में रहूं…….भीड में भी मुझे तन्हाइयां डसें।तेरी बेवफाई से गिला कोई नहीं,मगर……..मुझको मेरे मिजाज की अच्छाइयां डसें। ६ …….. भावों ने भिगोया जिन्हें नहीं, बरसात की कीमत क्या जानें। बस,बातों के जो सौदागर, जज्बात की कीमत क्या जानें।दिल-दिमाग जिनके बंजर,तन ही सब कुछ,मन क्या जानें।जग को ठगकर भी जो भूखे,उपवास की कीमत क्या जानें।खुदगर्जी जिनकी फितरत है,अहसास की कीमत क्या जानें।खून भरोसे का जो करते,विश्‍वास की कीमत क्या जानें। ७……… ……क्योंकि दुखडे सुनाने की आदत न थी हम अंदर ही अंदर सुलगते रहे फिर भी हमें देखकर लोग जलते रहे ……क्योंकि दुखडे सुनाने की आदत न थी।वैसे दुश्मन किसी को बनाया नहींलेकिन,दोस्तों ने कमी वो भी खलने न दी….क्योंकि झूठी तारीफें करने की आदत न थी।सीढी बने हम और चढाया जिन्हेंचिढाकर हमें वो भी चलते बने….क्योंकि बदला चुकाने की आदत न थी।खुद बिखरते रहे,खुद सिमटते रहेसब सिसकियों पर ठहाके लगाते रहे…..क्योंकि हमें गिडगिडाने की आदत न थी।बस दिया ही दिया,कुछ लिया न कभीपर,लेने वाले भी आंखें दिखाते रहे…क्योंकि हमें दिल दुखाने की आदत न थी। 8…… मीत जबसे तुम मिले हो,ख्वाब फिर सजने लगे हैं,निर्जीव मन में नूतन सृजन के भाव फिर जगने लगे हैं.द्वंद्व मन का मेरा सब काल-कवलित हो गया है,हसरतों की रोशनी में सारा अंधेरा खो गया है.जंगल-जंगल वीरानों में मन का साथी ढूंढ रहा था,साथ तुम्हारा हुआ है जबसे,फूल खिलने फिर लगे हैं. ९ ………

शिक्षक दिवसपर विशेष : गुरू चरण सीखें

बैठ कर हम  गुरू चरण सीखे सभी मान दे कर गुरू को सदा पूजे सभी ज्ञान की नई विधा  सीख लें रोज हम आज शिक्षक दिवस हम मनाये सभी हम रहेंगे गुरू के हमेशा ऋणी हो बड़े आज हम ऋण चुकाये सभी आपका नाम रौशन करे शिष्य ही शीश हम गुरू को फिर नवाये सभी प्रण करूँ काम ऐसा न कोई करूँ आज हम फिर गुरू को  हसाये सभी डॉ मधु त्रिवेदी 

कुछ चुनिन्दा शेर

मेरा मशवरा है यही  की तोड़ दो उसे  जिस आईने में ऐब अपने दिखाई न दें  कहती है मेरे साथ कब्र में भी जायेगी  इतना प्यार करती है मुझसे तन्हाई मेरी शिकवे , गिले और साजिशों का , दौर जिंदगी |न ये तेरी , न ये मेरी , हैं बस , खेल जिंदगी | वो अपने फायदे की खातिर फिर आ मिले थे हमसे;हम नादाँ समझे कि हमारी दुआओं में असर बहुत है! सांसों के सिलसिले को न दो जिंदगी का नाम  जीने के बावजूद भी  मर जाते हैं कुछ लोग  ये भी एक दुआ है खुदा से, किसी का दिल न दुखी मेरी वज़ह से, मेरी ये आदत नहीं किसी को हाले दिल सुनाऊ  पर तकलीफ बहुत मिलती है राजे दिल छुपाने से  एहसास अगर हो तो मोहोब्बत करो महसूस…हर बात का इजहार जरूरी नहीं लब से…. कभी पत्थर की ठोकरों से भी आती नहीं खराश  कभी जरा सी बत से इंसान बिखर जाता है  आँधियों में जो दिया जलता हुआ मिल जायेगा  उस दिए से पूँछना मेरा पता मिल जाएगा  कुछ चाहतों के दिए … कब के बूझ गए होते  कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता  है  मुझे खैरात में मिली खुशियाँ अच्छी नहीं लगती  मैं अपने गम में रहता हूँ नवाबों की तरह