पंखुरी सिन्हा की कवितायें

युवा कवियत्री पंखुरी सिन्हा की कलम जब चलती है सहज ही प्रभावित करती है | वह अनूठे विषयों को उठाकर अपने सहज प्रस्तुतीकरण के माध्यम से उन्हें और भी अद्वितीय बना देती हैं | प्रस्तुत हैं उनकी कुछ अनुपम कवितायें …. साँझ काजल लगाये और लगा था कि छोटे शहर के उस बगीचे वाले घर में चले जाने के बाद दम ही न घुट जाए कि खुलता तो है सूर्योदय की दिशा में पर खुलता किधर है ये दरवाज़ा कौन सी हैं परछाइयाँ यहाँ किसकी कैसा अँधेरा घिर आता है यहाँ आनन फानन जल्दी जल्दी साँझ काजल लगाये सबसे पहले ठुमकती यहीं चली आती है इस अचानक नीचे से हो गए घर में कुछ इस तरह बढ़ गया है शहर का कद पास के सारे खेतों से खुदी हुई मिटटी बिछाकर मानो खेती के लिए बहुत ढेर सारी मिटटी अछूती छोड़ देने की कोई परंपरा न हो…………………….. यह कविता कुमार अनिल जी और दैनिक भास्कर पटना की उन तमाम बहुत प्रबुद्ध साहित्यिक बहसों को समर्पित है, जिनमे से कुछ में मुझे भी शामिल होने का मौका मिला—— शब्द और मौसम वसंत इन दिनों बहुत खूबसूरत एक शब्द है कुछ फूल पत्तों का बना हुआ भयानक धूल और गर्त के बीच सरकारी इमारतों के उद्यानों के गमलों में कैद और कुछ तो लटक ही जाता है मौसम लोगों के घर की चहरदीवारियों से ज़्यादातर आम और लीची की शक्ल में शहर अब ईंट की एक भट्ठी है जहाँ शायद राजनीतिक भाषणो के लिए बचे हैं एक आध मैदान, जिनकी रौंदी हुई भूरी होती घास में कोई सम्भावना नहीं लहलहाने की वसंत तो अधूरा ही रहेगा बिना घास के खुले मैदानों के हाँ, घास में भी खिलते हैं फूल और इतनी हैं विविधताएँ घास की कि अपरिचित रह जाती हैं तमाम ज़िंदगियाँ अखबारी बहसों में आता और जाता है वसंत और वसंत के साथ घास के मैदानों की संधि से चकित रह जाते हैं लोग भूकम्प के एक नवीन झटके के बाद भी………………… ये मेरी पहली राजनैतिक कविता है, जिसमे मैंने किसी नेता का नाम लिया है———- खुली जगहें ऐसा जनसंहार नहीं होता भूकम्प में अगर संजय गांधी ज़िंदा होता ये त्राहि, त्राहि ये त्राहि माम इसलिए क्योंकि विस्फोट की तरह है जनसंख्या का बढ़ना चार से भी ज़्यादा बच्चे प्रति दम्पति जनम और पल रहे हैं झुग्गियों में सुर्खी और गिलावे से जोड़ी जा रही हैं कमज़ोर ईटों की दीवारें यह तिरस्कार नहीं है उनका जो उठ नहीं पाये हैं गरीबी रेखा से ऊपर न मूल्यों की अवमानना यह एक रणनीति है भूकम्प को कम भयावह बनाने की तीसरी दुनिया को इस तरह हिलाने वाली आपदा से बच निकलने की…………………. सहमत करना पुरुषों को कि हो रहे हैं पुरुषों के भी बलात्कार जाने किस क्रांति की उम्मीद में उन सज्जन से कह दिया था मैंने की यों समझते हुए भूकंप का कहर कुछ नहीं कर पाना और अगर दहशत में नहीं जीना तो ये जानते कि निकट कहीं बहुतों ने जानें भी गवाईं हैं और हाथ पाँव भी बस सह लेना ये सबकुछ और कहना नहीं अरोकी जनसँख्या वृद्धि पर एक भी शब्द लगातार एक बलात्कार के साथ जीना है मुझे लगा था वो सहमत हो जाएँगे पर नहीं बहुत मुश्किल होता है पुरुष को सहमत करना ये स्वीकारने के लिए कि धर्र्ल्ले से हो रहे हैं पुरुषों के जवान होते लड़कों के बलात्कार वो मान लेते कि ये मिली जुली लड़ाई है तो आसान होता स्त्री मुक्ति के झंडे तले असल मुद्दों की बातें करना……………… —————— पंखुरी सिन्हा

नव वर्ष पर हार्दिक शुभकामनाओ के साथ कविताओ का गुलदस्ता

मंगलमय हो नव वर्ष  पूरब सेउतरी नव किरणेंप्रदीप्त हुआ प्रभाकर नवीनआज प्रभात के घाट परपरिदृश्य हैं नवनीत शरद ने शृंगार कियाधरा बनी दुल्हनपुष्प कीरीट से शोभित क्यारीहर्षित है चंपा की डालीइंद्रधनुष के रंग भरप्रकृति मनाए उत्कर्षभाव भरे जनकल्याण कानवनिर्माण कासृजन का और विकास काकहें सभी सहर्षमंगलमय हो नववर्ष हेमेंद्र जर्मा दिलों में हो फागुन, दिशाओं में रुनझुनहवाओं में मेहनत की गूँजे नई धुनगगन जिसको गाए हवाओं से सुन-सुनवही धुन मगन मन, सभी गुनगुनाएँ।नव वर्ष की शुभकामनाएँ ये धरती हरी हो, उमंगों भरी होहरिक रुत में आशा की आसावरी होमिलन के सुरों से सजी बाँसुरी होअमन हो चमन में, सुमन मुस्कुराएँ।नव वर्ष की शुभकामनाएँ न धुन मातमी हो न कोई ग़मी होन मन में उदासी, न धन में कमी होन इच्छा मरे जो कि मन में रमी होसाकार हों सब मधुर कल्पनाएँ।नव वर्ष की शुभकामनाएँ – अशोक चक्रधर नव प्रभाती  नव-प्रभाती गुनगुनाकर जो किरण उतरी धरा पर, मैं उसी के नाम लिखने जा रही हूं नव सृजन को। भोर से ही दे रहा आहट नया उत्कर्ष कोई। या कि फिर आया जगाने नित्य नूतन पर्व कोई। हर ऋचा की मांगलिकता इन दिशाओं से उतर कर, दे रही हैं सूचनाएँ भारती को, हर भुवन को। सूर्य फिर करने लगा है इस धरा पर दस्तकारी। और केसर की किरण करने लगी है चित्रकारी। शस्य- श्यामल प्रकृति के फिर गीत गाने लग गई है, हवा दुलराने लगी अठखेलियाँ करते सपन की। आज हम हर कंकरी को फूल का आकार दे दें। हर कली को भ्रमर-दल जैसा,मधुर गुंजार दे दें। आज जन-जन को समर्पित हैं सकल शुभ- कामनाएँ, और वह जो शेष है,अर्पित मनुजता की लगन को। भीतरी कलमष हटाकर  रोशनी के शब्द जोडें।  जो घटा अपने विगत में भूल जाएं और छोड़ें। आज हम जो रच रहे हैं, वह बने इतिहास कल का, बाँसुरी बन दे सुनाई लेखनी अपने गगन की। निर्मला जोशी फिर भी आएगा नया साल साल कीपहली तारीख को छपने वाली पत्रिकाओं मेंभरी है उबासी और थकानसाल के अंतिम दिन-सी। डर भरे हैं जेबों में,किशमिशऔर चिलगोज़ों की जगहकोई फौज लड़ती नहींअकेलेपन औरअपसंस्कृति के विरुद्धबारिशों में बरसती नहींशुभकामनाओं की मछलियाँ।थोड़ी सी भीखुशियाँ जमा नहीं हुई बैंक मेंकि मनाया जा सकेनए साल का उत्सव। सब सोये हैंअपनी अपनी बेबसी से बुनेथुल्मे ओढ़ेबिछे हैं आडंबरों के कालीनज़मीन की सच्चाई परअब पाँव रखे नहीं जाते।कोई लिखता नही खुशी के गीत नया साल फिर भी आएगाचुपचापआँखें झुकाए, बदन सिकोड़ेनिकल जाएगा बिना बात किएजिसकी अगवानी को तुमनेनहीं उबाला दूधवो बाहें खोलतुम्हें आशीष कैसे देगा? –पूर्णिमा वर्मन नयी सुबह   चलो,पूरी रात प्रतीक्षा के बादफिर एक नई सुबह होगीहोगी न,नई सुबह?जब आदमियत नंगी नहीं होगीनहीं सजेंगीं हथियारों की मंडियानहीं खोदी जायेगीं नई कब्रेंनहीं जलेंगीं नई चिताएँआदिम सोच, आदिम विचारों सेमिलेगी निजातहोगी न,नई सुबह?सब कुछ भूल करहम खड़े हैंहथेलियों में सजायेफूलों का बगीचा,पूरी रात जाग करफिर एक नई सुबह के लिएहोगी ननई सुबह? कुँअर रवीन्द्र कलेन्डर~~~~~~~ यादों का पुलिन्दा पकड़ाते हुए पुराना साल नए साल के कानों में चुपके से कह गया! ये  इंसानो की बस्ती हैं सभल कर रहियो आकाश जैसा कलेजा और धरती जैसा धैर्य रखियों तबै साल भर टिक पइयो! साल पुजते पुजते तुम्हारा रोम रोम कलंक,अपवाद,अत्याचार, बलात्कार,और प्राकृतिक आपदाओं से भर जायेगा! फिर भी लोगो को चैन नही आयेगा! तो कुछ नई बिमारियों का नाम भी तुम्हारे साथ जुड़ जायेगा! तुम्हारी धंजियाँ उड़ाने में धरती का बन्दा बन्दा बाज नही आयेगा! और जब तुम्हारा रोम रोम उसके नाम हो जायेगा तो  कुछ नही बदलेगा सिर्फ कलेन्डर में सन सम्वत बदल जायेगा! कंचन आरज़ू हैप्पी न्यू इयर  नया साल आने वाला है सब खुश है सबने तैयारी कर ली हैइस उम्मीद के साथशायदजाग जाये सोया भाग्य उसने भी जिसने आपने फटे बस्ते में रखी फटी किताब को सिल लिया है इस उम्मीद के साथ शायद कर सके काम के साथ विद्याभ्यास उसने भी जिसने असंख्य कीले लगी चप्पल में फिर से ठुकवा ली है नयी कील इस उम्मीद के साथ शायद पहुँच जाए चिर -प्रतिच्छित मंजिल के पास उसने भी जसने ठंडे पड़े चूल्हे और गीली लकड़ियों को पोंछ कर सुखा लिया है इस उम्मीद के साथ शायद इस बार बुझ सके पेट की आग और उन्होंने भी जो बड़े-बड़े होटलों क्लबों में जायेगे पिता-प्रदत्त बड़ी-बड़ी गाड़ियों में सुन्दर बालाओं के साथ नशे में धुत चिंता -मुक्त जोर से चिलायेगे हैप्पी न्यू इयर इस विश्वास के साथ बदल जायेगी अगले साल यह गाडी और यह……. वंदना बाजपेयी 

बाल दिवस पर विशेष कविता : पढो और बढ़ो :डॉ भारती वर्मा बौड़ाई

पढ़ो, बढ़ो, जीवन के दुर्गम पर्वत चढ़ो। मिलें बाधाएँ रौंद उन्हें नव पथ गढ़ो। दिखे कहीं अन्याय, सहो न आगे बढ़ लड़ो। पथ अपना चुन, उस पर अकेले ही बढ़ो। अँधियारा, डरना कैसा? अपना दीपक आप बनो। रंग भले ही हों कितने भी बस भोलापन चुनो। ———————— कॉपीराइट@डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई।

दीपावली पर हायकू व् चोका

जपानी विधा *हाइकु (5/7/5) ; कविता लेखन का जिस तरह एक विधा है 1. दीया व बाती दम्पति का जीवन धागा व मोती। 2 लौ की लहक सीखा दे चहकना जो ना बहके। 3 पथिकार है हरा दुर्मद तम अतृष्ण दीप । 4 मिटे न तम भरा छल का तेल बाती बेदम। 5 पलते रहे नयनों के सपने तम में जीते। 6 लौ की लहक सिखा दे चहकना जो ना बहके। 7 हँस पड़ती पथ दिखाती ज्योति सहमी निशा। 5 नभ हैरान तारे फीके क्यूँ लगे दीप सामने । 6 बत्ती की सख्ती अमा हेकड़ी भूली अंधेर मिटा । 7 मन के अंधे ज्ञान-दीप से डरे अंह में फँसे 8 सायास जीव देहरी मांगे ज्योति दीये जो गढ़े ~~ ठीक उसी तरह तानका (5/7/5/7/7) अकेला जल सहस्र जलाता है सहस्रधी है जीयें हम जीवन दीप जैसा सीख लें सेदोका (5/7/7/5/7/7) तमिस्रा मिटा प्रकाशमान होता सच्चा दीपक वही नव्य साहस संचरण करता विकल्प सूर्य का हो ~~ और चोका (5/7/5/7/5/……अनगिनत…… 7/7) कविता लेखन विधा है चोका 1. इक कहानी चार दीप थे दोस्त फुसफुसाते गप्प में मशगुल एक की इच्छा बड़ा बनना था मायूस रोया था वो लोल का टेढ़ा छोटा दीया था बाती फक्क बुझती दूजे आकांक्षा भव्य मूर्ति बनना शोभा बढ़ाना अमीर घर सज्जा ना जा सका वो मिट्टी विद्युत होड़ी हुआ हवन तीजे महोत्वाकांक्षा पैसे का प्यासा गुल्लक तो बनता भरा रहता खनक सुनता वो चांदी सोने की न यंत्रणा सहता आकंठ डूबा बातें सुन रहा था चौथा दीपक संयमी विनम्र था हँसता हुआ वो आया बोला आपको हूँ बताता राज की बात छूटा भवन ठाठ  सब ना रूठा सोचो साथ ईश का हमें जगह मिली  पूजा घर में तम डरा हराए  उजास फैला हम  दीपो का पर्व सब करे खरीदारी  दीवाली आई क्यूँ बने हम सब रोने वाला चिराग आस जगायें राह दिखाने वाले मंजिल पहुंचायें विभा रानी श्रीवास्तव  ~~~ यह भी पढ़ें ……. दीपावली पर जलायें विश्व एकता का दीप दीपावली पर 11 नयें शुभकामना संदेश धनतेरस दीपोत्सव का प्रथम दिन मनाएं इकोफ्रेंडली दीपावली लक्ष्मी की विजय

कवितायें -रोचिका शर्मा

      अटूट बंधन के दीप महोत्सव ” आओ जलायें साहित्य दीप के अंतर्गत आज पढ़िए रोचिका शर्मा की तीन कवितायें बलात्कार : एक सवाल , बाल श्रम व् आओ नयी एक पौध लगायें |  बलात्कार  ! एक सवाल आज फिर अख़बार था चीखता , हो गया बलात्कार कहीं कोई ओढ़ कर चादर बेहयाई की , अपनी हवस बुझा गया फिर कोई नारेबाज़ी शुरू हो गयी , बैठे संगठन अनशन पे लगे उछालने कीचड़ नेता , विपक्ष दलों के दामन पे कहीं हो रही कानाफूसी , क्यूँ लड़की को दी थी छूट इतनी कर रहे टिप्पणी पहनावे पर, वह पहनती  थी स्कर्ट मिनी सबने अपने मन की गाई , बिन जाने हालात हादसे के नुची देह मीडिया ने दिखाई , न दिखे चिथड़ेउसकी  रूह के घिनौने सवाल अदालत ने पूछे , दिल का दर्द न पूछे कोई थक कर मात-पिता  भी कोसें , तू पैदा इस घर क्यूँ होई क्यूँ लगती न झड़ी इन प्रश्नों की , न उठती उंगली उस वहशी पर क्यूँ अदालत रहे उसे बचाती, झूठे वकीलों की दलीलों पर ये कैसा अँधा क़ानून है , जो पैरवी उसकी करता है आँखों पे पट्टी बाँध के वो, बलात्कार दूसरा करता है क्या एसी कोई पुस्तक है, जो जंगल राज को न माने मानवता का पाठ पढ़ा दे , नारी को इंसान सा जाने फिर कैसे किसी विक्षिप्त मस्तिष्क में , बलात्कार के भाव उठें बहिन-बेटियों पर बुरी नज़र से, रोम-रोम भी काँप उठे ए ! न्याय के रखवालों जागो ,साहित्यकार तुम कलम उठाओ लिख दो क़ानून  किताबें एसी , बलात्कार पर सवाल उठाओ  बाल-श्रम आसमान में टूटा तारा,देख-देख सब ने कुछ माँगा मेरी आस का तारा  टूटा ,ग्रहण  मेरे जीवन में लागा                                                   साया पिता कारहा न सर पे, करे न दया दौलत का समाज रोटी,कपड़ा,मकान को तरसा,बचपन ,उदास गीतों का साज़ एक ग़रीब की दुखियारी माँ,लगी काम बच्चों को छोड़ छूटी पढ़ाई ,रोटी न मिलती,महँगाई बढ़ रही दम तोड़ सुन रुदन छोटी बहना का, रहा गया न मुझसे आज सोचूँ घुट-घुट अँधियारे में ,क्यूँ न करूँ मैं भी कुछ काज निकल पड़ा हूँ खोज में मैं ,हो जाए गर कुछ जुगाड़ रोटी मिले दो वक़्त की मुझको,छोटी का जीवन उद्धार फिरता हूँ मैं मारा-मारा, सड़कों, चौराहों ,दुकानों में आज तड़प रहा हूँ भूख ,प्यास से,हे ईश्वर क्या तू नाराज़ ? भूखे-नंगों का न कोई सहारा, कटे पंख,न चढ़े परवाज़ बाल-मजूरी बहुत बुरी है,फिर भी मुझको प्यारी आज अरमानों का गला घोंट लूँ, बुझती ज्यूँ दीपक से ज्योति जूते पोंछूँ या बोझ उठाऊं ,चिंता सुबहो-शाम सताती आओ मिल जाएँ हम सब,करें जहाँ का नव-निर्माण कोई बच्चा न भूखा जग में,शिक्षा ग़रीब-अमीर समान पढ़ा-लिखा बढ़ाएँ आगे, देश का ऊँचा नाम उठाएँ इक-इक बूँद भर जाए सागर,बाल श्रमिक कानाम मिटाएँ                              चलो इक पौध नयी लगायें                                                 सत्य, अहिंसा के बीज से रोपित सदाचार की धार से सिंचित मानवता की खाद से पोषित प्रेम भाव के पुष्पों से शोभित चलो इक पौध नयी लगाएँ विभिन्न जाति की कलमों का संगम दया-धर्म के संस्कार का बंधन बैर-भाव के काँटों की न चुभन अपने-परायों की शाख का खंडन चलो इक पौध नयी लगाएँ भारत भूमि में जड़ें फैलाती हिमालय तक शाख पहुँचती शांति की छाँव जो देती बापू के स्वपनों की खेती चलो इक पौध नयी लगाएँ स्वदेशी  की फसल लहलहाए ईमानदारी की खुश्बू मह्काये भाईचारेकी कोंपल फूटे अमन-चैन के फल बरसाए चलो इक पौध नयी लगाएँ रोचिका शर्मा                                   

करवाचौथ का उपवास

करवाचौथ … क्या ये उपवास लोटा सकता है ? उस विधवा के मांग का सिंदूर जो कुछ दिन पहले सीमा के पास रह रहे उस नवेली दुल्हन की सितारो वाली चुंदङी उङा कर ले गये क्या ये उपवास लोटा सकता है? उस सुहागन का मांग टीका जो बिना किसी कारण शिकार  बना उन दंगो का जिससे उसका दूर दूर तक कुछ लेना देना भी न था क्या ये उपवास लोटा सकता है? उस औरत का विश्वास जो किसी परनारी पर आंख रख बेठे अपने पति की वफादारी को पढ भी नही पाती क्या ये उपवास लोटा सकता है उस बहन का सुहाग जो गल्ती से पेट की खातिर सीमा पार कर चल पङे पर सालो साल बंदी रहे बिना किसी अपराध घुट घुट…तिल तिल कर मरे क्या ये उपवास लोटा सकता है? उस बहन का सिंदूर जो सीमा पर लङने हेतु भेज गई अपने सिदूंर को ताकि महफूज रहै लाखो बहनो का सिंदूर करते तो हम सभी है इस उपवास पर विश्वास पर … क्या ये उपवास लोटा सकता है? वो अधूरी आस जिसके लिये न भूख लगे ना प्यास बस जिवित रहता है एक अहसास …कि ना छुटे विश्वास एकता सारदा सूरत (गुजरात)

अटल रहे सुहाग : (करवाचौथ स्पेशल ) – रोचिका शर्मा की कवितायें

“एक झलक चंदा की “ ए, बदली तुम न बनो चिलमन हो जाने दो दीदार दिख जाने दो एक झलक उस स्वर्णिम सजीले चाँद की दे दूं मैं अरग और माँग लूँ  संग मेरे प्रिय का यूँ तो हर दिन माँग लेती हूँ साथ उनका जन्म-जन्मान्तर तक किंतु आज की रात है अनूठी की है मैं ने तपस्या लगा मेहंदी ,पहन चूड़ा , कर सौलह सृंगार , हो जाने दो पूरी इसे मत डालो तुम अड़चन हो जाने दो मेरी शाम सिंदूरी , महक जाने दो मेरे मन की कस्तूरी एसा नहीं कि तुम पसंद नहीं मुझे तुम्हारा है अपना विशेष स्थान तुम भी हो उतनी ही प्रिय किंतु बस आज मत लो इम्तहान मेरे धैर्य का सुन लो मेरी अरज क्यूँ कि बिन चंदा के दर्शन के तपस्या है अधूरी न लूँगी अन्न का दाना मुख में जब तक न देखूं उसकी छवि तुम छोड़ दो हठ और ले लो इनाम क्यूँ कि किया है व्रत मेरे सजना ने भी  करवा चौथ का…..    2 …………….               ए  चाँद ए  चाँद , तुम कर लो अपनी गति कुछ मद्धम ठहरो क्षण भर को आसमान में न छुप जाना बादलों की ओट में क्यूँ कि , मेरा चाँद कर रहा है सौलह शृंगार उसके छम-छम पायल का संगीत देता है सुनाई मुझे उसके पद्चापो संग और हाँ तुम कर लो बंद द्वार अपने नयनों की खिड़की के क्यूँ कि उसके स्वर्णिम मुख की आभा  देख कहीं तुम भर न जाओ ईर्ष्या से या लग न जाए तुम्हारी नज़र उसे ले लो राई-नून तुम अपने हाथों में ताकि उँवार सको उसके उपर , बस चन्द लम्हों  की प्रतीक्षा उठ जाने दो घूँघट उसका वह भी रखे है व्रत देनी है उसे भी अरग और करनी है तुम्हारी पूजा एक तुम ही तो हो उसकी आस जब मैं न हूँ आस-पास लेती है तुम्हें निहार और भर लेती है कुछ पल अपनी अंजूरी में आगमन के एहसास के और तकने लगती है राहें मेरी………                    रोचिका शर्मा,चेन्नई डाइरेक्टर,सुपर गॅन ट्रेडर अकॅडमी

अटल रहे सुहाग : ,किरण सिंह की कवितायें

                      करवाचौथ पर विशेष ” अटल रहे सुहाग ” में  आइये आज पढ़ते हैं किरण सिंह की कवितायें …….. आसमाँ से चाँद आसमाँ से चाँद फिर लगा रहा है कक्षा देना है आज हमें धैर्य की परीक्षा सोलह श्रॄंगार कर व्रत उपवास कर दूंगी मैं  तुझे अर्घ्य मेरी माँग पूरी कर उग आना जल्द आज प्रेम का साक्षी बन बड़ी हठी हैं हम तोड़ूंगी नहीं प्रण अखंड सौभाग्य रहे तू आराध्य रहे परीक्षा में पास कर हे चंदा पाप हर अटल रहे सुहाग हमारा  ****************** सुनो प्रार्थना चांद गगन के रूप तेरा नभ में यूं चमके बिखरे चांदनी छटा धरा पर माँग सिंदूर सदा ही दमके पूजन करे संसार तुम्हारा अटल रहे…………………. तू है साक्षी मेरे प्रेम की दिया जलाई नित्य नेह की अर्घ्य चढ़ाऊंगी मैं तुझको करो कामना पूरी मन की जग में हो तेरा जयकारा अटल रहे…………………. पति प्रेम जीवन भर पाऊँ सदा सुहागन मैं कहलाऊँ सोलह श्रृंगार कर मांग भरे पिया जब मैं इस दुनियां से जाऊँ पुष्प बरसाए सितारा अटल रहे………………… भूखी प्यासी मैं रही हूँ शीत तपन को मैं सही हूँ चन्द्र दया कर उगो शीघ्र नभ क्षमा करना यदि गलत कही हूँ मेरा पति है तुझसे प्यारा अटल रहे………………… किरण सिंह .

मीना कुमारी की बेहतरीन गजलें

                                        ट्रेजिडी क्वीन मीना कुमारी जी के अभिनय का भला कौन मुरीद न होगा | पर परदे  की ट्रेजिडी क्वीन मीना कुमारी की निजी जिंदगी भी दुखों से भरी थी | इन्हीं ग़मों को जब वो कागज़ पर उतारती जो जैसे हर शब्द आँसुओ से भीगा हुआ लगता | उनकी वेदना पढने वाले को अन्दर तक झकझोर देती | ये कहना  अतिश्योक्ति नहीं होगी की वो जितनी अच्छी अदाकारा थी उतनी ही अच्छी ग़ज़ल कारा भी | आज हम उनकी कुछ चुनिन्दा गजलें आप के लिए लाये हैं …….. पढ़िए और शब्दों की गहराई में डूब जाइए  चाँद तन्हा है आसमान तन्हा चाँद तन्हा है आसमान तन्हा  दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हा  बुझ गई आस छुप गया तारा   थर-थराता रहा धुंआ तन्हा ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं जिस्म तन्हा है और जान तन्हा  हमसफ़र कोई गर मिले भी कहीं  दोनों चलते रहे तन्हा तन्हा  जलती बुझती सी रौशनी के परे सिमटा सिमटा सा एक मकान तन्हा राह देखा करेगा सदियों तक  छोड़ जायेंगे ये जहां तन्हा यूं तेरी रहगुज़र से दीवानावार गुज़रे   यूं तेरी रहगुज़र से दीवानावार गुज़रे काँधे पे अपने रख के अपना मज़ार गुज़रे   बैठे रहे हैं रास्ता में दिल का खंडहर सजा कर   शायद इसी तरफ से एक दिन बहार गुज़रे   बहती हुई ये नदिया घुलते हुए किनारे   कोई तो पार उतरे कोई तो पार गुज़रे   तू ने भी हम को देखा, हमने भी तुझको देखा   तू दिल ही हार गुज़रा, हम जान हार गुज़रे  पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है   रात खैरात की सदके की सहर होती है   सांस भरने को तो जीना नहीं कहते या रब   दिल ही दुखता है न अब आस्तीन तर होती है   जैसे जागी हुई आँखों में चुभें कांच के ख़्वाब   रात इस तरह दीवानों की बसर होती है   गम ही दुश्मन है मेरा, गम ही को दिल ढूँढ़ता है   एक लम्हे की जुदाई भी अगर होती है   एक मरकज़ की तलाश एक भटकती खुश्बू   कभी मंजिल कभी तम्हीद-ए-सफ़र होती है   मायने: मरकज़=फोकस करना; तम्हीद=आरम्भ  हाँ, कोई और होगा हाँ, कोई और होगा तूने जो देखा होगा हम नहीं आग से बच-बचके गुज़रने वाले न इन्तज़ार, न आहट, न तमन्ना, न उम्मीद ज़िन्दगी है कि यूँ बेहिस हुई जाती है इतना कह कर बीत गई हर ठंडी भीगी रात सुखके लम्हे, दुख के साथी, तेरे ख़ाली हात हाँ, बात कुछ और थी, कुछ और ही बात हो गई और आँख ही आँख में तमाम रात हो गई कई उलझे हुए ख़यालात का मजमा है यह मेरा वुजूद कभी वफ़ा से शिकायत कभी वफ़ा मौजूद जिन्दगी आँख से टपका हुआ बेरंग कतरा तेरे दामन की पनाह पाता तो आँसू होता सुबह से शाम तलक सुबह से शाम तलक दुसरों के लिए कुछ करना है जिसमें ख़ुद अपना कुछ नक़्श नहीं रंग उस पैकरे-तस्वीर ही में भरना है ज़िन्दगी क्या है, कभी सोचने लगता है यह ज़हन और फिर रूह पे छा जाते हैं दर्द के साये, उदासी सा धुंआ, दुख की घटा दिल में रह रहके ख़्याल आता है ज़िन्दगी यह है तो फिर मौत किसे कहते हैं? प्यार इक ख़्वाब था, इस ख़्वाब की ता‘बीर न पूछ क्या मिली जुर्म-ए-वफ़ा की ता‘बीर न पूछ ये रात ये तन्हाई  ये रात ये तन्हाई  ये दिल के धड़कने की आवाज़  ये सन्नाटा  ये डूबते तारों की   खामोश ग़ज़ल-कहानी  ये वक़्त की पलकों पर  सोती हुई वीरानी  जज़्बात-ए-मुहब्बत की   ये आखिरी अंगडाई    बजती हुई हर जानिब  ये मौत की शहनाई  सब तुम को बुलाते हैं  पल भर को तुम आ जाओ  बंद होती मेरी आँखों में  मुहब्बत का  इक ख़्वाब सजा जाओ  टुकड़े-टुकड़े दिन बीता टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्जी-धज्जी रात मिली जिसका जितना आँचल था, उतनी ही सौगात मिली रिमझिम-रिमझिम बूँदों में, ज़हर भी है और अमृत भी आँखें हँस दीं दिल रोया, यह अच्छी बरसात मिली जब चाहा दिल को समझें, हँसने की आवाज़ सुनी जैसे कोई कहता हो, ले फिर तुझको मात मिली मातें कैसी घातें क्या, चलते रहना आठ पहर दिल-सा साथी जब पाया, बेचैनी भी साथ मिली होंठों तक आते आते, जाने कितने रूप भरे जलती-बुझती आँखों में, सादा-सी जो बात मिली       आबलापा कोई इस दश्त में आया होगा  आबलापा कोई इस दश्त में आया होगा   वरना आंधी में दिया किस ने जलाया होगा   ज़र्रे ज़र्रे पे जड़े होंगे कुंवारे सजदे   एक एक बुत को खुदा उस ने बनाया होगा   प्यास जलते हुए काँटों की बुझाई होगी   रिसते पानी को हथेली पे सजाया होगा   मिल गया होगा अगर कोई सुनहरी पत्थर   अपना टूटा हुआ दिल याद तो आया होगा   खून के छींटे कहीं पोछ न लें राहों से   किस ने वीराने को गुलज़ार बनाया होगा  आबलापा=जिसके पैरो में छाले हो, दश्त=जंगल  समस्त चित्र गूगल से  प्रस्तुत सभी शायरी गुलज़ार द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘मीना कुमारी की शायरी‘ से साभार ली गयी है.

अंतरराष्ट्रीय वृद्ध जन दिवस परिचर्चा में शामिल कवितायों की लड़ी

                                                 अटूट बंधन ने अंतरराष्ट्रीय वृद्ध जन दिवस पर एक परिचर्चा आयोजन किया था | परिचर्चा का विषय था ” चलो चले जड़ों की ओर ” | इसमें   भाग लेने वाले सभी रचनाकारों की कविताओ को हमने एक लड़ी में पिरोकर एक भावविभोर कर देने वाली माला का निर्माण किया है | इसमें आप पढेंगे ………रश्मि प्रभा , विनीता शुक्ला ,शैल अग्रवाल , भावना सिन्हा , चन्द्रकान्ता सिवाल ,विभा रानी श्रीवास्तव , डॉली अग्रवाल ,डॉ भारती वर्मा बौड़ाई ,प्रकाश प्रलय , अनीता मिश्र , विवेक सिसौदिया , एकता शारदा , अल्पना हर्ष , रमा द्विवेदी ,तुकाराम वर्मा, डिंपल गौड़ ‘ अनन्या ‘ दीपिका कुमारी दीप्ति ,  रोचिका शर्मा व् वंदना बाजपेयी की कवितायें ……….. माँ और पिता हमारी जड़ें हैं और उनसे निर्मित रिश्ते गहरी जड़ें जड़ों की मजबूती से हम हैं हमारा ख्याल उनका सिंचन … पर, उन्नति के नाम पर आधुनिकता के नाम पर या फिर तथाकथित वर्चस्व की कल्पना में हम अपनी जड़ों से दूर हो गए हैं दूर हो गए हैं अपने दायित्वों से भूल गए हैं आदर देना … नहीं याद रहा कि टहनियाँ सूखने न पाये इसके लिए उनका जड़ों से जुड़े रहना ज़रूरी है अपने पौधों को सुरक्षित रखने के लिए अपने साथ अपनी जड़ों की मर्यादा निर्धारित करनी होती है लेकिन हम तो एक घर की तलाश में बेघर हो गए खो दिया आँगन पंछियों का निडर कलरव रिश्तों की पुकार ! ‘अहम’ दीमक बनकर जड़ों को कुतरने में लगा है खो गई हैं दादा-दादी नाना-नानी की कहानियाँ जड़ों के लिए एक घेरा बना दिया है हमने तर्पण के लिए भी वक़्त नहीं झूठे नकली परिवेशों में हम भाग रहे गिरने पर कोई हाथ बढ़ानेवाला नहीं आखिर कब तक ? स्थिति है, सन्नाटा अन्दर हावी है , घड़ी की टिक – टिक……. दिमाग के अन्दर चल रही है । आँखें देख रही हैं , …साँसें चल रही हैं …खाना बनाया ,खाया …महज एक रोबोट की तरह ! मोबाइल बजता है …,- “हेलो ,…हाँ ,हाँ , बिलकुल ठीक हूँ ……” हँसता भी है आदमी ,प्रश्न भी करता है … सबकुछ इक्षा के विपरीत ! ………………. अपने – पराये की पहचान गडमड हो गई है , रिश्तों की गरिमा ! ” स्व ” के अहम् में विलीन हो गई है ……… सच पूछो, तो हर कोई सन्नाटे में है ! ……..आह ! एक अंतराल के बाद -किसी का आना , या उसकी चिट्ठी का आना …….एक उल्लसित आवाज़ , और बाहर की ओर दौड़ना ……, सब खामोश हो गए हैं ! अब किसी के आने पर कोई उठता नहीं , देखता है , आनेवाला उसकी ओर मुखातिब है या नहीं ! चिट्ठी ? कैसी चिट्ठी ? -मोबाइल युग है ! एक वक़्त था जब चिट्ठी आती थी या भेजी जाती थी , तो सुन्दर पन्ने की तलाश होती थी , और शब्द मन को छूकर आँखों से छलक जाते थे ……नशा था – शब्दों को पिरोने का ! …….अब सबके हाथ में मोबाइल है …………पर लोग औपचारिक हो चले हैं ! ……मेसेज करते नहीं , मेसेज पढ़ने में दिल नहीं लगता , या टाइम नहीं होता ! फ़ोन करने में पैसे ! उठाने में कुफ्ती ! जितनी सुविधाएं उतनी दूरियाँ समय था …….. धूल से सने हाथ,पाँव, माँ की आवाज़ ….. “हाथ धो लो , पाँव धो लो ” और , उसे अनसुना करके भागना , गुदगुदाता था मन को ….. अब तो !माँ के सिरहाने से , पत्नी की हिदायत पर , माँ का मोजा नीचे फ़ेंक देता है बेटा ! क्षणांश को भी नहीं सोचता ” माँ झुककर उठाने में लाचार हो चली है ……” …….सोचने का वक़्त भी कहाँ ? रिश्ते तो हम दो ,हमारे दो या एक , या निल पर सिमट चले हैं …… लाखों के घर के इर्द – गिर्द -जानलेवा बम लगे हैं ! बम को फटना है हर हाल में , परखचे किसके होंगे -कौन जाने ! ओह !गला सूख रहा है …………. भय से या – पानी का स्रोत सूख चला है ? सन्नाटा है रात का ? या सारे रिश्ते भीड़ में गुम हो चले हैं ? कौन देगा जवाब ? कोई है ? अरे कोई है ? जो कहे – चलो चलें अपनी जड़ो की ओर … रश्मि प्रभा जीवन की संध्या में एकाकीपन ढोते हँसते हँसते यूँ ही दो आंसू रो देते सघन झुर्रियों मेंअवसादों की छाया हैबोझिल सी सांसों मेंजीने की माया हैतिनके तिनके बिखरेनीड़ कहीं छूट गयासपने बुनते- बुनतेहर सपना रूठ गयासुधियों के स्पंदन हीदिल की धड़कन हैं.इनकी बेजारी सेखुशियों की अनबन हैदीन हीन वृद्ध यहाँ हैंसुख दुःख के साथीअस्त व्यस्त भेस,इन्हें बेतरतीबी भातीचरमरा रहा हड्डी काजर्जर ढांचा हैचांदी से केशों नेसब विषाद बांचा हैछलिया रिश्तों से टूटाजुड़ाव इनका हैवृद्धाश्रम ही अबअंतिम पड़ाव इनका है विनीता शुक्ला  जड़ों के बिना जीवन नहीं, फलना फूलना नहीं जानें जबतक अक्सर जड़ें सूख जाती हैं एक बार फिर से जीना सीखा है मां-बाप के जाने के बाद एक एक बात में याद बनकर वे रहते सदा मेरे साथ।। निरंतर बूढ़ी कांपती आवाज बुलाती थी रोज दूर बहुत दूर से और रोज ही चुपचाप… मन सात समंदर उड़ता चरणों तक हो आता था बहुत मन दुखाया पर तुमने सदा गले लगाया धूप छांव सा यह रिश्ता आज भी तो छतरी–सा ही तना आशीष, एक याद बना निरंतर छांव देता… तुम थे, हो मेरे साथ ! -शैल अग्रवाल मां,,,,,,, सूनो ना सूनो ना मांकहां हो तुमआज स्कूल में ,,,,,,,,,स्कुल से वापस आते ही खोजती है बेटी मुझकोऔर —फिर शुरू होती हैघंटो तक ना खत्म होने वा्लीउसके दोस्तों की मीठी मीठी बातदरअसल , बच्चे चाहते हैं करनाहमसे अपनी भावनाओं का सम्प्रेषणरोज रोजव्यस्त दिनचर्या मेंहमारे पास भीकहां होता इतना वक्तउसकी नादान बातों के लियेभेज देती हूंदादाजी के पास जी हां ! दादाजी जिनके पास है ज्ञान और अनुभव का है विशाल भंडार या यूं कहें दादाजी हैं विकिपीडीया! गणित का कोई कठिन प्रश्न हो या दोस्तों के संग लड़ाई झगड़े के मसले दादाजी धैर्य पूर्वक सुनते हैं और ढुंढ ही लेते हैं सभी समस्याओं का हल यूं भी आधुनिक जीवन शैली ने … Read more