पंखुरी सिन्हा की कवितायें
युवा कवियत्री पंखुरी सिन्हा की कलम जब चलती है सहज ही प्रभावित करती है | वह अनूठे विषयों को उठाकर अपने सहज प्रस्तुतीकरण के माध्यम से उन्हें और भी अद्वितीय बना देती हैं | प्रस्तुत हैं उनकी कुछ अनुपम कवितायें …. साँझ काजल लगाये और लगा था कि छोटे शहर के उस बगीचे वाले घर में चले जाने के बाद दम ही न घुट जाए कि खुलता तो है सूर्योदय की दिशा में पर खुलता किधर है ये दरवाज़ा कौन सी हैं परछाइयाँ यहाँ किसकी कैसा अँधेरा घिर आता है यहाँ आनन फानन जल्दी जल्दी साँझ काजल लगाये सबसे पहले ठुमकती यहीं चली आती है इस अचानक नीचे से हो गए घर में कुछ इस तरह बढ़ गया है शहर का कद पास के सारे खेतों से खुदी हुई मिटटी बिछाकर मानो खेती के लिए बहुत ढेर सारी मिटटी अछूती छोड़ देने की कोई परंपरा न हो…………………….. यह कविता कुमार अनिल जी और दैनिक भास्कर पटना की उन तमाम बहुत प्रबुद्ध साहित्यिक बहसों को समर्पित है, जिनमे से कुछ में मुझे भी शामिल होने का मौका मिला—— शब्द और मौसम वसंत इन दिनों बहुत खूबसूरत एक शब्द है कुछ फूल पत्तों का बना हुआ भयानक धूल और गर्त के बीच सरकारी इमारतों के उद्यानों के गमलों में कैद और कुछ तो लटक ही जाता है मौसम लोगों के घर की चहरदीवारियों से ज़्यादातर आम और लीची की शक्ल में शहर अब ईंट की एक भट्ठी है जहाँ शायद राजनीतिक भाषणो के लिए बचे हैं एक आध मैदान, जिनकी रौंदी हुई भूरी होती घास में कोई सम्भावना नहीं लहलहाने की वसंत तो अधूरा ही रहेगा बिना घास के खुले मैदानों के हाँ, घास में भी खिलते हैं फूल और इतनी हैं विविधताएँ घास की कि अपरिचित रह जाती हैं तमाम ज़िंदगियाँ अखबारी बहसों में आता और जाता है वसंत और वसंत के साथ घास के मैदानों की संधि से चकित रह जाते हैं लोग भूकम्प के एक नवीन झटके के बाद भी………………… ये मेरी पहली राजनैतिक कविता है, जिसमे मैंने किसी नेता का नाम लिया है———- खुली जगहें ऐसा जनसंहार नहीं होता भूकम्प में अगर संजय गांधी ज़िंदा होता ये त्राहि, त्राहि ये त्राहि माम इसलिए क्योंकि विस्फोट की तरह है जनसंख्या का बढ़ना चार से भी ज़्यादा बच्चे प्रति दम्पति जनम और पल रहे हैं झुग्गियों में सुर्खी और गिलावे से जोड़ी जा रही हैं कमज़ोर ईटों की दीवारें यह तिरस्कार नहीं है उनका जो उठ नहीं पाये हैं गरीबी रेखा से ऊपर न मूल्यों की अवमानना यह एक रणनीति है भूकम्प को कम भयावह बनाने की तीसरी दुनिया को इस तरह हिलाने वाली आपदा से बच निकलने की…………………. सहमत करना पुरुषों को कि हो रहे हैं पुरुषों के भी बलात्कार जाने किस क्रांति की उम्मीद में उन सज्जन से कह दिया था मैंने की यों समझते हुए भूकंप का कहर कुछ नहीं कर पाना और अगर दहशत में नहीं जीना तो ये जानते कि निकट कहीं बहुतों ने जानें भी गवाईं हैं और हाथ पाँव भी बस सह लेना ये सबकुछ और कहना नहीं अरोकी जनसँख्या वृद्धि पर एक भी शब्द लगातार एक बलात्कार के साथ जीना है मुझे लगा था वो सहमत हो जाएँगे पर नहीं बहुत मुश्किल होता है पुरुष को सहमत करना ये स्वीकारने के लिए कि धर्र्ल्ले से हो रहे हैं पुरुषों के जवान होते लड़कों के बलात्कार वो मान लेते कि ये मिली जुली लड़ाई है तो आसान होता स्त्री मुक्ति के झंडे तले असल मुद्दों की बातें करना……………… —————— पंखुरी सिन्हा