तृप्ति वर्मा की कवितायेँ

1 –   मेरी वृद्ध माँ        -×-×-×-×-×-×- उम्र के सारे पद चिन्हों को पार कर आँखो में आशाओं के अश्रु लिए माँ कहती …। मेरे वो हरे भरे बागीचे सूख रहे जिन्हें रोपती, सींचती थी मैं..। रंग बिरंगे फूलों से सजाती बदलते मौसम से बचाती थी मैं…। अब उन पंछियों ने भी अपना बसेरा कही ओर बना लिया, जो कभी शाखाओं पर चहचहाया करते थे । अब पेडों पर लगा वो फल ताकता मुझे सन्नाटे से । अब बागीचे में लगा वो झूला कभी हँसता नहीं । अब द्वार पर सजती रंगोली, दीप की जगह बैठी मैं ताकती ..। मैं पूछतीं, माँ ऐसा क्यों ? माँ आशाओं से भरे स्वर में कहती, जो सूख रहा बागीचा, वो मेरा परिवार है, जिसे सींचा था मैंने वर्षो लगन से । जो बसेरा बदलते पंछी, वे मेरे बेटे , जो लुप्त हुए बाहुल्य लोभ में…। वे रंग बिरंगे फूल मेरे नाती पोते, जो खिलते थे मेरी दुलार से…। अब झुलसते है प्रतिष्पर्धा के ताप से….। जिन फलों पर कभी वे लपकते थे, वे फल ताक रहे सन्नाटे से…। वे झूले जो स्पर्श से ही हस देते, खडे आज उदासी से…। इसलिए मैं ताकती द्वार पर, उस सावन की आश में , जिसकी बूँदे हरियाली दे, मेरे सूखते परिवार में…।                                  2- मन की उत्सुकता       -×-×-×-×-×-×-×-×- मैं अपने घर के चौखट पर खडी, खुद को बाहर निहारती और खोजती…। क्या हूँ मैं, कहा हूँ मैं…? अपने अस्तित्व को तलाशती, पूछती क्या मैंने वो पाया जो चाहा….। तभी एक आवाज आती, वो था मेरा मन, जो व्याकुलता से मेरी आँखों से झांक रहा था, जो खुद को बांधे, चौखट पर खडा बाहर निकलने को उत्सुक था । मैं जैसे ही मन को लिए बाहर आती, कुटुम्ब की आहट मुझे रोक लेती, मानो अनेको जिम्मेवारी, कर्तव्य, पहरेदार बने चौखट पर खडे हो….। मैं मन को आँखों में कैद कर लेती, खुद को चौखट के भीतर समेट लेती, मानो उडने की उत्सुकता लिए नवजात पंछी, जो गिरने के भय से घोसले में छिप जाता…..।                                                                     3 – चिंगारी    -×-×-×-×- हम फूल ना बने, फूलों में लगा वो कांटा बने. …। हम पत्थर नहीं उनकी रगड से पैदा वो चिंगारी बने…। हम वो बेटी बने जो कुरबानी दे परिवार के लिए….। हम वो पत्नी बने, जो चले पति की परछाई बन. …। हम वो बेटी की माँ बने जो सिखाएं उन्हें निर्भयता, संस्कार, हिम्मत, और आत्मविश्वास …। हम वो बेटों की माँ बने, जो सिखाएं उन्हें  संस्कार ,संवेदनशीलता , सम्मान देना….। ताकि बने वो जब भाई, पति, दोस्त या उच्चाधिकार, तो ना करें किसी महिला के साथ दुराचार. …। जब भी बात हो महिला दुराचार की पुरूष ही बनता मुख्य किरदार. …। क्यो ना हम उस जड में जाए जब जन्मे माँ पुत्र तो कानो में प्रभु के नाम से पहले महिला सम्मान के मंत्र सुनाएँ…..। क्योंकि जब महिला सम्मान हैं जाता, तो प्रभु भी वहां अदृश्य हो जाता. …।                                            4 – हाँ मुझे प्रेम है    -×-×-×-×-×-×-×- जब नारी अधिवेशन किसी मंच पर, असंख्य लोगों के बीच. …। छिपा ना सके नारी अपने भाव और बोले बेबाक….। तभी तंग विचार ग्रस्त हस्ताक्षेप करे मानों बिन बुलाए मेहमान. …। बांधे नारी लाज, हद, परिचय की गठरी, बरसाए ज्ञान मेह बिन तुफान. …। तभी तीव्र वेग बहते नारी के भाव, उडा ले जाती मेह की छीटों को, और कहती …….।        हाँ मुझे प्रेम हैं नारी के स्वतंत्र उडान से,        हाँ मुझे प्रेम हैं नारी के बेबाक अंदाज से,          हाँ मुझे प्रेम हैं नारी के मीरा, झाँसी की         रानी शैली से ,        हाँ मुझे प्रेम हैं नारी के वात्सल्य रूप से,        हाँ मुझे प्रेम हैं….। प्रेम हैं….। प्रेम हैं. …।                                                                                                                                                                        5 –  मेरी सुलह      -×-×-×-×-×-     जब भी तुम्हे सोच उठती हूँ ,     जरा तुमसे बात कर लूँ ,     पर शब्द गुम हो जाते,     उंगलियां खुद ही उठती ,     तुम्हें संदेश लिखने को,     पर वे थम से जाते…..।     अब जब भी तुमसे बात     करने का ख्याल आता,     दिल सहम जाता….।     वह पहले दिन की मुलाकात से     आज तक के संवाद में,     मैं केवल व्यंग पाती अपने लिए….।     तुम्हें व्यंग लगता मेरा प्रेम,     जो फूटता है तुम्हारे शब्दों से,     जो असहनीय हो चला मेरे लिए,     तुम्हारे सम्मुख होना मेरे खुद     के अंत का सबब ना बने,     क्योंकि एकतरफा प्रेम मेरा हैं     तुम्हारे लिए. …।     इसलिए तुम्हें अपने ख्वाबों,     ख्यालों में बसा लिया. ….।     वहीं तुमसे बाते, मुलाकातें कर     लेती हूँ क्योंकि वहाँ मैं बोलतीं    और तुम अनुरागी नैनो से निहारते     मुझे, कम से कम ये भ्रम तो मुझे     जीने की वजह देती हैं. …।     यही सुलह मैंने की है तुमसे…..।                                           तृप्ति वर्मा atoot bandhan editor.atootbandhan@gmail.com      

अनुपमा सरकार की कवितायें

                                                                                                                                                                                                 तब्दीली यूं ही बैठे-बैठे ख्याल आया क्या हो गर बर्फ की चादर बिछ जाए उस तारकोल की सड़क पर क्या हो गर वो सूरज भूल जाए रोज़ पूरब से खिलखिलाना चांद न चमके पूनम पर तारों का खो जाए फसाना शिवली झरना छोड़ दे बरगद की दाढ़ी बढ़ना बंद हो जाए पीपल पर फूल खिलें गुलमोहर के पत्ते खो जाएं थम जाए नदियां तालाब बहने लगे ज्वालामुखी शीतल हो जाए बादल आग उगलने लगे क्या हो गर भूल कर अपना पता दरवाज़े चलने लगें दीवारों के पंख लग जाएं पंछी छतों पर जम जाएं जंगल शहर में बस जाएं गाँव टापुओं में बदल जाएं शायद तबाही कहोगे तुम इसे पर क्यों भला केवल नाम ही तो बदले हैं दुनिया चलती रहेगी वैसी ही कहीं कोई तब्दीली नहीं ! 2.       आज़ाद ये ऊंची दीवारें लोहे के जंगले घुमावदार सीढियां क्या महानगर में बस यही बचा दड़बों में ठूंसा इंसान दम तोड़ती जीने की आशा सोच रही थी कैसी आज़ादी कैसा जश्न कैसा ये तमाशा यही विचारते आंगन में चली आई तुलसी के खिलते बीज देख हौले से मुस्काई यकायक नज़र गई आसमान पे उड़ रहे थे वहां असंख्य घोड़े उन्मुक्त गगन में सफेद पंख फैलाए बिन आहट बिन चिल्लाहट जैसे आक्रमण करने चले आए पर ध्यान से देखा तो शांतिदूत थे पवन की शीतल मलहम भी साथ लाए धीमे धीमे से चहलकदमी करते पत्ते मधुर सा संगीत कानों में उड़ेलने लगे ढहने लगी दीवारें जंगले पिघलने लगे और वो घुमावदार सीढ़ियां चमक उठीं मानो चांद के ही पार जाने को हो बनीं समय वही जगह वही बस नज़र फर्क हो गई आज़ाद है प्रकृति स्वतंत्र ये मन ये बात आज पुख्ता हो गई ये बात आज पुख्ता हो गई 3.       बादल बिजली बादलों संग चमचमाती बिजलियाँ भूल जाती हैं अक्सर परस्पर साथ रहते भी दोनों जुदा हैं हमसफर नहीं बस हमनुमा हैं! बादल धुआं-धुआं बन बिखरने को बने हैं कभी हवा संग मदहोश आवारा से कभी बूंदों संग अल्हड़ बरखा से गरजते बरसते पल-पल जगह बदलते। रूप रंग आकार विभिन्न पर नियति बस वही भाव विभोर हो बह जाना भाव विहीन हो उड़ जाना! चंचल दामिनी इससे ठीक उलट बस पल भर की मेहमान यकायक चमकती फिर हो जाती फना जैसे न कोई वज़ूद था न होगा क्षण भर का जीवन फिर लापता। बस मेघों को चिटकाने ही आती हो ज्यों फिर न अस्तित्व न विचार बस शून्य में गुम! संगिनी होकर भी जुदा शक्ति होते भी अर्थहीन बादल-बिजली हमेशा आसपास पर संग कभी नहीं। 4.       सागर सा आसमां सागर सा लगा आज आसमां बादलों की लहरों से छितरा। कभी अपने पास बुलाता कभी भोले मन को डराता। अजब उफान था रूई के उन फाहों में सिमट रहा हो दिनकर ज्यों कोहरे की बांहों में। धुंआ सा फैला चहुँ ओर उम्मीदों का अरमानों का और.. और शायद आने वाले तूफानों का आखिर, आसमां में कश्ती चलाना कोई आसां तो नहीं! अनुपमा सरकार  नाम :     अनुपमा सरकार इमेल :    anupamasarkar10@gmail.com वेबसाइट : www.scribblesofsoul.com पत्रिकाएं व् समाचारपत्र   :  उपासना समय, भोजपुरी पंचायत,डिफेंडर, भोजपुरी जिनगी, आकाश        हम शिक्षा के मंदिरों में, कई वर्षों की साधना के बाद भी जो ज्ञान अर्जित नहीं कर पाते, कभी कभी किसी किताब के कुछ पन्नों में ही पा जाते हैं। मुंशी प्रेमचन्द जी की ‘निर्मला‘ मेरे लिए जीवन का सही रूप दिखाने वाला ऐसा ही दर्पण साबित हुआ।टैगोर और शरतचंद्र के उपन्यासों ने पढ़ने समझने की चाहत को हवा दी और जाने अनजाने मैं भी कविताएँ कहानियाँ गढ़ने लगी। अपने इस शौक की पूर्ति के लिए विगत 4 सालों से scribblesofsoul.com नाम का ब्लॉग भी चला रही हूँ। लेखन में कितनी त्रुटियाँ हैं, नहीं जानती पर शब्दों और भावों से प्रेम कूट कूट कर भरा है।  atoot bandhan

डायरियाँ – कविता ( वंदना बाजपेयी )

डायरियाँ जब -जब मैं दर्द और वेदना से भर उठी मेरी आह और कराह ढल गयी शब्दों में और किसी गहरे समुन्दर के मानिंद डूब गयी नीली डायरी के पन्नों में जो गहराता गया समय के साथ हर दर्द ,हर आह ,हर शब्द के साथ उसका रंग और ,और ,और नीला होता गया २ ) जब-जब मैं ख़ुशी और उत्साह से भर उठी मेरी हर मुस्कान ढल गयी शब्दों में और किसी ताज़ा गुलाब के मानिंद बिखर गयी लाल डायरी के पन्नों में जो महकता गया ,हर ख़ुशी के साथ उसका रंग और और और लाल होता गया ३) अक्सर देखती थी लोगों को लिखते हुए सुनहरी डायरी के पन्नों में लुभाती थी शब्द रचना जो सज जाती थी हर पन्ने पर किसी सुनहरे वर्क की तरह पर आह! घोर आश्चर्य कि शब्द चूर – चूर हो जाते छूते ही ये मायावी सुनहरी डायरियाँ रचती हैं तिलिस्म किसी सिंड्रेला की कथा का पर अफ़सोस कि यहाँ जूता ढूँढता राजकुमार नहीं होता होते सिर्फ जुते छोटे,बड़े,उससे बड़े, सबसेबड़े जिसमें फिट होती सुनहरी डायरियाँ होती पदोन्नति छोटे जूते से सब से बड़े तक मंजिल तक पहुँचते -पहुँचते रह जाता सिर्फ रंग वर्क से सजे शब्द कब के कुचल गए होते ४) भय से पलट कर देखती हूँ अपनी नीली व् लाल डायरियों को धैर्य से लेती हूँ एक लम्बी साँस उसमें लिखा एक- एक शब्द सुरक्षित है वो सुरक्षित रहेगा रहती दुनिया तक या शायद उसके बाद भी तैरेगा गैलेक्सियों के मध्य क्योंकि चमक फीकी पड़ सकती है पर भावनाएं …………………………… कभी नहीं वंदना बाजपेयी चित्र गूगल से अटूट बंधन

हाय रे ! प्याज ……. वंदना बाजपेयी

हैलो भईया। हाल ना पूछो मेरा भईया कैसे तुम्हें बताऊँ सब्जी मंडी में खड़ी हुई हूँ चक्कर खा गिर ना जाऊं। ठेले में सब्जी को देखकर आहें मैं भरती हूँ बचपन के वो प्याज भरे दिन याद किया करती हूँ। अस्सी  रूपये किलो प्याज हो गया एक सौ बीस  में सेब है आता इस दोनों में हो गया जैसे भाई – बहन का नाता। तन्खवाह तो बढती है भैया पर खर्च और बढ़ जाता इसीलिए तो आम आदमी आम ही रह जाता। सही कह गए ऋषि – मुनि  वेद  ऋचा में गाकर धर्म भ्रष्ट मत करना अपना प्याज लहसुन खाकर। दूरदर्शी थे वो पहले से ही  सब जानते थे प्याज की कीमत के भविष्य को सतयुग में भी पहचानते थे। अब पछताती हूँ क्यों मैंने बात ना उनकी मानी जाने कैसे शुरू हुई ये प्याज से प्रेम कहानी। ऐसा धोखा देगा मुझको समझ नहीं मैं पायी पहले काटने पर था रुलाता अब देख आँख भर आई। अबकी भईया रक्षा बंधन में जब मेरे घर आना तोहफे  के बदले साथ में अपने कुछ प्याज लेते आना। दो मुझको आशीर्वाद की रोज़ प्याज मैं खाऊं प्याज पकोड़े, प्याज की चटनी प्याज़ की दाल पकाऊं। अब रखती हूँ  भैया मुझको वापस घर भी है जाना खाली थैले से निकाल कर कुछ है आज पकाना। वंदना बाजपेयी  अटूट बंधन

आधी आबादी :कितनी कैद कितनी आज़ाद (कुछ कवितायेँ )

                         आधी आबादी :कितनी कैद कितनी आज़ाद में पढ़िए नारी की मन : स्तिथि को उकेरते कुछ स्वर ……..इसमें आप पढेंगे  छवि निगम ,किरण सिंह ,रमा द्विवेदी ,संगीता पाण्डेय ,एस एन गुप्ता व् नीलम समनानी चावला की ह्रदय को उद्वेलित करती रचनायें  एक संदेश: एक कविता            —– लो भई,दी तुम्हे आज़ादी ,सच में लो की तुम पर मेहरबानी कितनी सर झुका रक्खो,औरआगे बढो़ न जाओ, जी लो तुम भी थोड़ा बहुत सच में अहसान किया ये तुम पर,ये सनद रहे। चलो दौड़ो छोड़ा तुम्हें सपाट दबोचती सडकों पर आज़ादी के पाट पग बाँधे ठिठको  तो मत अब ज़रा भी देखो पीठ पर कस कर चाबुक पड़े जो सह लो समझो तो जरा हैं तुम्हारे ही भले को ये, कसम से ऐसे ही तो रफ्तार बढ़े साँसे ले लो हाँ बिलकुल लेकिन जरा हिसाब से। दमघोंटू दीवारों में ही रह कसमसाओ सम्भाल के सुरक्षित रहना जरूरी है, समझो तो तुम धुएं के परदे  में छिपकर रहो उगाहो रौशनी वहीं सहेजो जा कर,जाओ तो तुम्हारे हिस्से की अगर कहीं कुछ होती हो तो। किसी नुकीले पत्थर पर पटक दी जाओ कभी पड़ी रहो चुपचाप करो बर्दाश्त सारी हैवानियते आराम से ,बेआवाज़… चीर दी भी जाओ तो क्या मरती रहो इंच दर इंच खामोशी से.. मरती रहो या फिर यूँ ही जीती रहो हौसले से.. जीती रहो का आशीष तुम्हारे नाम हुआ ही कब कहो? हाँ,अग्निपरीक्षा पर सदा का हक तुम्हारा हे सौभाग्यवती रास्ता कोई और कभी रहा ही नहीं पर सदा ही चौकस रहना इज्जत  हमेशा बची रहे कहीं कोई नाम न उछलने पाए किंचित भी ऐसा न हो कि फिर तुम बस एक चालू मुद्दा चौराहे की चटपटी गप्प बहसबाजी का चटखारा और आखिरकार… एक उबाऊ खबर बन कर ही रह जाओ। बेस्वाद बासी खबर की रद्दी सी बेच दी जाओ.. कि फिर केवल याद आओ तब जब भी  कहीं कोई और गुस्ताख कभी दरार से झांके, कुछ सांस ले थोड़ा सा लड़खड़ाये पर चले क्षीण सी ही, पर आवाज़ करे कालिख में नन्हा सा रौशनी का सूराख करे यूं कि फिर से नया एक मुद्दा बने। -डा0 छवि निगम २…………….. स्वयं ही रणचंडी बनना होगा -कविता  स्त्री के मन को इस देश में  कोई न समझ पाया है ? कितना गहरा दर्द ,तूफ़ान समेटे  है ?  अपने गर्भ में ,मस्तिष्क में  उसकी उर्वर जमीन में  बीज बोते समय  तुमने न उसे खाद दी  न जल से सींचा  अपने रक्त की हर बूँद से  उसने उसे पोसा  असंख्य रातें जगी  दुर्धर पीड़ा सहकर  उसने तुम्हें जन्मा  किन्तु उसे ही  कोई न समझ पाया ? जिसने मानव को बनाया ?  बीज काफी नहीं है  अगर भूमि उर्वरा न हो  तो बीज व्यर्थ चला जाता है  उसके तन -मन -ममत्व की आहुति से  कहीं एक शिशु जन्मता है  पोषती है अपने दुग्ध से  असंख्य रातें जागकर  अनेक कष्ट सहकर ,तब  उस शिशु को आदमी बनाती है फिर क्यों समाज में  उसे ही नाकारा जाता है ?  रसोई और बिस्तर तक ही  उसके अस्तित्व को सीमित कर  उसे `कैद ‘ कर दिया जाता है ।  खुली हवा में सांस लेने का  उसे अधिकार नहीं  आसमान का एक छोटा टुकड़ा भी  उसके नाम नहीं ,क्यों ? ??  यह पुरुष जिसकी हर सांस  उसकी ही दी हुई है  वही उसकी अस्मिता से  हर पल खेलता है   कभी दहेज़ की बलि चढ़ा कर ? कभी बलात्कार करके ?  कभी बाज़ार में बेच कर ?  कभी कोठे में बिठा कर ? कभी भ्रूण हत्या करके ?  क्या हमारे देश के पुरुष  इतने कृतघ्न हो गए हैं ?  कि  अपने समाज की स्त्रियों की  रक्षा भी नहीं कर सकते ? जब रक्षक ही भक्षक बन जाए  तब रक्षा का दूसरा उपाय ही क्या है ?  जब स्थिति इतनी विकट  हो  तब नारी को स्वयं ही  रणचंडी बनना  होगा  येन -केन -प्रकारेण  उसे स्वयं ही  अपनी अस्मिता की रक्षा करनी होगी  क्योंकि इस देश में  हिजड़ों की संख्या में  निरंतर वृद्धि हो रही है  और हिजड़ों की  कोई पहचान नहीं होती ।      —————– डॉ रमा द्विवेदी  संपादक -पुष्पक ,साहित्यिक पत्रिका  हैदराबाद ,तेलंगाना  नारी  संवेदनाएं मृत हुईं  मनुजता का आधार क्षय होने लगा  संताप हिम सम जमे हैं  तूफ़ान में फंसा अस्तित्व है  बंधनों से कब ये मौन निकलेगा  वेदना में कली हैं पुष्प भी हैं  रिश्तों की धार है कोमल  गरल पीती हैं सुधा देती रही हैं  युगों युगों से गंग की लहरें  धारा समय की बहती आई हैं  शैल खण्डों में उहापोह नहीं  भावों में कालिमा सी छाई हैं  सहमती श्वास हैं उजालों में  अपनी सी लगने वाली आँखें भी  चुभती लगती हैं वासनाओं में  बन पराई सी तकने लगती हैं  अर्थ शब्दों के बदले बदले हैं  गालियां रिश्तों को बताती हैं  सहारे ढूंढने की कोशिश में  आस के पत्ते झरने लगते हैं  द्युति पर तिमिर की विजय है  न्याय को तरसती हैं रूहें  सृष्टि की सृजना का देह मंदिर  पापी उश्वासों से दहकता हैं  दग्ध होती हैं मूर्ति करुणा की  गरिमा का चन्द्र ह्रास होता हैं  प्रतीक्षा हैं युग युगांतर से  नारी का कब प्रभास मुखरित हो  विवशता यामिनी की मिट जाए  धूम्र रेखा के वलय खंडित हों !! एस एन गुप्ता शाहदरा, दिल्ली -11032 निशचय मुझे मेरे कदम निर्धारित करने दो क्यो तुमसे कहूँ मन की वेदना पंख मेरे भी है उड़ना है या चलना ये मुझे सोचने दो तुम बहुत तय कर चुके सीमा मेरा लिए अब मुझे असीमित आसमान चुनने दो मुझे मेरे कदम निर्धारित  करने दो पाप पुण्या की परिभाषा से दूर अच्छी बुरी विशेषताओं से परे मुझे इंसान रहने दो मुझे मेरे कदम निर्धारित करने दो नीलम समनानी चावला  xxx !!!! गृह लक्ष्मी हूँ !!!! गृह लक्ष्मी हूँ गृह स्वामिनी हूँ  साम्राज्ञी हूँ और अपने सुखी संसार में खुश भी हूँ फिर भी असंतुष्ट हूँ स्वयं से बार बार झकझोरती अंतरात्मा मुझसे पूछती है क्या घर परिवार तक ही सीमित है तेरा जीवन ? कहती है तुम ॠणी हो पॄथ्वी ,प्रकृति और समाज की और तब  हॄदय की वेदना शब्दों में बंधकर छलक आती है अश्रुओं की तरह सस्वर आवरण उतार चल पडती है लेखनी लिखने को व्यथा मेरी आत्मकथा किरण सिंह  उड़ने तो दो दृश्य को दृष्टा बन  , नाना मिथक गढ़ने … Read more

स्वतंत्रता दिवस पर विशेष : मैं स्वप्न देखता हूँ एक ऐसे स्वराज्य के

swatantrta divas par vishesh kavita / main swpn dekhta hoon ek aise swarajy ke  मैं स्वप्न देखता हूँ एक ऐसे स्वराज्य के जहाँ कोई माँ भूख से बिलबिलाते बेबस लाचार बच्चे के आगे पानी भर परात में न उतारे चंदा यूँ बहलाते हुए कि चुप हो जा बेटा देख तेरी रोटी गीली हो गयी है खा लेना जब सूख जाए अपलक उसे ताकते ताकते सो जाए नन्हा बच्चा थक हार कर २ मैं स्वप्न देखता हूँ एक ऐसे स्वराज्य के जहाँ लाला के होटल में  बर्तन मलता भीखू घरों में झाड़ू कटका करती छमिया फेंक कर झाड़ू और जूना उठा लें किताबें चल दे स्कूल की ओर कि यही बस यही उपाय है उत्पीडन से निकलने का ३ मैं स्वप्न देखता हूँ ,एक ऐसे स्वराज्य के जहाँ मान के गर्भ में न असुरक्षित रहे बेटियां डॉ की सुई से छिपने का असफल प्रयास करते हुए न निकाली जाए टुकड़े -टुकड़े कर अपितु सहर्ष जन्म लेकर करे उद्घोष कि लिंग के आधार पर नहीं छीना जा सकता जन्म लेने का अधिकार ३ मैं स्वप्न देखता हूँ ,एक ऐसे स्वराज्य के जहाँ कोई निर्भया सड़क पर न फेंकी जाए रौंद कर झोपडी में रहने वाला ननकू न हार जाए मुकदमा घूस न दे पाने की वजह से जहाँ सफाई अभियान में न सिर्फ शहर अपितु तन ,मन और विचारों की भी हो स्वक्षता जहाँ अपने -अपने ईश्वर को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए तलवारे थाम कर न नेस्तनाबूत कर दी जाए मानवता ४ मैं स्वप्न देखता हूँ हाँ ! मैं रोज स्वप्न देखता हूँ मेरी पूरी पीढ़ी स्वप्न देखती है एक ऐसे स्वराज्य की जहाँ हम अपनी जड़ों को सीचते हुए पुराने दुराग्रहों कुटिलताओ और वैमनस्यता को भूलकर रचेंगे एक नया भारत पर ये मात्र स्वप्न ही नहीं है ये उद्घोष है कि ये स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे ले कर रहेंगे शिवम् मेरा भारत महान ~ जय हिन्द

चन्द्र गुप्त की लम्बी कविता …………… आहटें

                                       आहटें  सन्नाटे की ………वह खौफनाक रेंगती अभी भी चली आती हैं सन ४५ के आणविक मौत की बारिश के बाद बेआवाज़ तड़पते निरीह बच्चे महिलाएं पुरुष मौत को तरसते लाखों लोग चुपचाप जो परमाणु में बिखरे पड़े हैं हमें घेरे चीखे गूँजी थी जो उनके ह्रदय से कूट सन्नाटे में से चीत्कारती अति भयावाह मौत निगलते लाखों लोगों की हरपल दबे पाँव २ ………. खबरे जिन्दा अभी तक मृत अख़बारों में बोलती है आपबीती इनके -उनके जवान होते पंगु बच्चों में वह सन्नाटा -प्रलयंकारी सन्नाटे  में बेचैन आहटे आहटों में दबी चीखे चीखों में उबला लहू सुर्ख स्याह सन्नाटा वह सन ४५ का ३ ………. किससे पूँछोंगे कैसे पूँछोंगे मित्र और क्यों ये कई बार दुनिया खत्म  करने का तर्क स्वयं से मेरे मेरे मित्र या उनसे जो राजनीति कूटनीति  विज्ञ महामना -व्हाइट हॉउस या सोसलिस्ट -क्रेमलिन दुर्ग कितनी बार दुनियां को खटन करने का तर्क खत्म हो जाए दुनियाँ , जब एक बार में कुछ मुट्ठी भर अणुओं -परमाणुओ के उत्खलन से क्यों है जरूरी खत्म करना दूनियाँ कई बार एक बार के बाद किससे  पूँछोंगे कैसे पूँछोंगे मित्र शायद राजनीति -कूटनीति की किताबों पर चल गट निर्गुट सम्मेलनों की दीवार पर चढ़ या खड़े हो संयुक्त राष्ट्र की प्राचीरों पर विस्फोट की दुनियाँ इतनी बार एक परमाणु अस्त्र में ही जब सिमिट सकती है पूरी  दुनियाँ तुम्हारी -मेरी छोटी सी दुनियां मानव का अपनी धरती पर अपने हाथों मानव स्खलन बेवजह हो जाए ये दुनियाँ भस्म लोग अपांग ,अधडंग बचे जो कुछ लाइलाज रोगी कोढ़ी मौत को तरसते बांटते -छोड़ते अपने बच्चों में आने वाले उनके बच्चों में और फिर उनके और उनके बच्चों में सदा निरंतर ४………. ठहरो रुको जरा सोचो देखो सुनाई दें रही है चीखे पुकारे दर भरी चीत्कार कोने कोने से असंख्य ,अनगिनत ढेरों मृत ,अपंग अजीवित होने को किसी भी क्षण किसी भी पल हमारे अपनों द्वारा हमारे ही प्रति संभावित उस आणविक -विभीषिका के विस्फोट से डरी चन्द्र गुप्त साहित्यकार ,पत्रकार चित्र गूगल से साभार atoot bandhan ……… हमार फेस बुक पेज 

किरण सिंह की कवितायेँ

                    पटना की किरण सिंह जी  ने जरा देर कलम थामी पर जब से थामी तब से लगातार एक से बढ़कर एक कवितायों की झड़ी लगा दी | अतिश्योक्ति नहीं होगी कि प्रतिभा को बस अवसर मिलने की जरूरत होती है फिर वो अपना रास्ता स्वयं खोज लेती है | सावन में जब पूरी धरती क्या मानव ,क्या पशु -पक्षी ,क्या पेड़ -पौधे सब भीगते  है  तो कवि मन न भीगे ऐसा तो हो ही नहीं सकता | ऐसी ही सावन की बारिश से भीगती किरण सिंह जी की  कविताएं हम आज ‘अटूट बंधन ” ब्लॉग पर ले कर आये हैं ………. जहाँ विभिन्न मनोभाव बड़ी ही ख़ूबसूरती से पिरोये  गए हैं | तो आइये भीगिए भावनाओ की बारिश से ………… आया सावन बहका बहका************************************** बीत गए दिन रैन तपन .के आया सावन बहका बहका झेली बिरहन दिन रैन दोपहरी अग्नि समीर का झटका खत्म हो गई कठिन परीक्षा भीगत तन मन महका आया सावन…………….. आसमान का हृदय पसीजा अश्रु नयन से छलका प्रिय के लिए सज गई प्रिया हरी चूनरी घूंघट लटका आया सावन………………. देख प्रणय धरती अम्बर का बदरी का मन चहका बीच बदरी के झांकते रवि का मुख मंडल  भी दमका आया सावन…………………… रिमझिम बारिश की बूंदो में भीगी लता संग लतिका झुक धरणी को नमन कर रहीं खुशी से खुशी मिले हैं मन का आया सावन………………. चली इठलाती पवन पुरवैया तरु नाचे कमरिया लचका रुनक झुनुक पायलिया गाए संग संग कंगन खनका आया सावन…………….. इन्द्रधनुष का छटा सुहाना सतरंगी रंग ….छलका हरियाली धरती पर बिखरी अम्बर का फूटा मटका आया सावन………………….. …………………………………………. मन आँगन झूला पड़ गयो रे******************************** हरित बसन पहन सुन्दरी बहे बयार उड़ जाए चुन्दरी गिरत उठत घूंघट पट हट गये सजना से नयना लड़ गयो रे मन आँगन…………………….. लतिकाएं खुशी से झूम उठीं झुकी झुकी धरती को चूम उठीं मेघ गरज कर शंख नाद कर मिलन धरा अम्बर भयो रे मन आँगन……………………. पीहु पीहु गाए पपीहरा मन्त्रमुग्ध भये जुड़ गए जियरा पुरवाई भी बहक रही छम छम बरखा बरस गयो रे मन आँगन……………………….. ********************** सखि सावन बड़ा सताए रे*************************** जबसे उनसे लागि लगन म्हारो तन मन में लागि अगन नयन करे दिन रैन प्रतीक्षा अब दूरी सहा नहीं जाए रे सखि सावन………………… भीग गयो तन भी मन भी उर की तपन रह गई अभी भी बहे पुरवाई लिए अंगड़ाई अचरा उड़ी उड़ी जाए रे सखि सावन………………….. बगियन में झूला डारी के सखि संग झूलें कजरी गाई के रिमझिम बरखा बरस बरस नैनों से कजरा बही बही जाए रे  सखि सावन बड़ा……………….  ******************* आज फिर से मन मेरा……********************* आज फिर से मन मेरा भीग जाना चाहता है तोड़ कर उम्र का बन्धन छोड़कर दुनिया का क्रंदन गीत गा बरखा के संग संग नृत्य करना चाहता है आज फिर से मन मेरा…………………. पगडंडियों पर चलो चलें अपने कुछ मन की करें सज संवर सजना के संग मन फिसल जाना चाहता है आज फिर से मन मेरा……………. सपनों का झूला लगाकर बहे पुरवाई प्रीत पिया संग सखियों के संग सुर सजाकर संग कजरी गाना चाहता है आज फिर से मन मेरा…………….. ************************** !!! बूँदें और बेटियाँ !!!****************** बारिश की बूंदो और बेटियों में कितनी समानता है वो भी तो बिदा होकर बादलों को छोड़ चल पड़ती हैं नैहर से सिंचित करने पिया का  घर बेटियों की तरह अपने पलकों में स्वप्न सजाकर सुन्दर और सुखद उनका भी भयभीत मन सोंचता होगा कैसा होगा पीघर डरता होगा बेटियों की तरह मिले सीप सा अगर पिया का घर ले लेती हैं बूंदें आकार मोतियों का और इठलाती हैं अपने भाग्य पर बेटियों की तरह पर यदि दुर्भाग्य से कहीं गिरती हैं नालों में खत्म हो जाता उनका भी अस्तित्व वो भी रोतीं हैं अपने भाग्य पर बेटियों की तरह किरण सिंह  संक्षिप्त परिचय ……………… साहित्य , संगीत और कला की तरफ बचपन से ही रुझान रहा है ! याद है वो क्षण जब मेरे पिता ने मुझे डायरी दिया.था ! तब मैं कलम से कितनी ही बार लिख लिख कर काटती.. फिर लिखती फिर……… ! जब पहली बार मेरे स्कूल के पत्रिका में मेरी कविता छपी उस समय मुझे जो खुशी मिली थी उसका वर्णन मैं शब्दों में नहीं कर सकती  ….! मेरा विवाह    १८ वर्ष की उम्र जब मैं बी ए के द्वितीय वर्ष में प्रवेश ही की थी कि १७ जून १९८५ में मेरा विवाह सम्पन्न हो गया ! २८ मार्च १९८८ में मुझे प्रथम पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई तथा २४ मार्च १९९४ में मुझे द्वितीय पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई..! घर परिवार बच्चों की परवरिश और पढाई लिखाई मेरी पहली प्रार्थमिकता रही ! किन्तु मेरी आत्मा जब जब सामाजिक कुरीतियाँ , भ्रष्टाचार , दबे और कुचले लोगों के साथ अत्याचार देखती तो मुझे बार बार पुकारती रहती थी  कि सिर्फ घर परिवार तक ही तुम्हारा दायित्व सीमित नहीं है …….समाज के लिए भी कुछ करो …..निकलो घर की चौकठ से….! तभी मैं फेसबुक से जुड़ गई.. फेसबुक मित्रों द्वारा मेरी अभिव्यक्तियों को सराहना मिली और मेरा सोया हुआ कवि मन  फिर से जाग उठा …..फिर करने लगी मैं भावों की अभिव्यक्ति..! और मैं चल पड़ी इस डगर पर … छपने लगीं कई पत्र पत्रिकाओं में मेरी अभिव्यक्तियाँ ..! पुस्तक- संयुक्त काव्य संग्रह काव्य सुगंध भाग २ , संयुक्त काव्य संग्रह सहोदरी सोपान भाग 2 ************ atoot bandhan ………हमारा फेस बुक पेज 

“एक दिन पिता के नाम “…….. तात नमन (कविता -इंजी .आशा शर्मा )

                                                                          तात नमन समझ न पाया प्यार पिता का, बस माँ की ममता को जाना पुत्र से जब पिता बना मैं, तब महत्ता इसकी पहचाना लम्हा-लम्हा यादें सारी, पल भर में मैं जी गया तुम्हे रुलाये सारे आंसू घूँट-घूँट मैं पी गया जब भी मुख से मेरे कड़वे शब्द कोई फूटे होंगे जाने उस नाज़ुक मन के कितने कौने टूटे होंगे अनुशासन को सज़ा मान कर तुमको कोसा था पल-पल इसी आवरण के भीतर था मेरा एक सुनहरा “कल” लोरी नहीं सुनाई तो क्या, रातों को तो जागे थे मेरे सपने सच करने, दिन-रात तुम्हीं तो भागे थे ममता के आंचल में मैंने, संस्कारों का पाठ पढ़ा हालातों से हार न माने, तुमने वो व्यक्तित्व गढ़ा जमा-पूँजी जीवन भर की मुझ पर सहज लुटा डाली फूल बनता देख कली को, खाली हाथ खिला माली आज नहीं तुम साथ मेरे तब दर्द तुम्हारा जीता हूँ सच्ची श्रध्दा सुमन सहित, तात नमन मैं करता हूँ इंजी .आशा शर्मा  अटूट बंधन ………….. हमारा फेस बुक पेज 

“एक दिन पिता के नाम “……कवितायें ही कवितायें

अटूट बंधन परिवार द्वारा आयोजित “एक दिन पिता के नाम ‘श्रंखला में  आप सब ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया इसके लिए हम आप सब रचनाकारों का ह्रदय से धन्यवाद करते हैं | हमारी कोशिश रही कि हम इस प्रतियोगिता में अच्छी से अच्छी रचनाओं को ब्लॉग पर प्रकाशित करे …. जिससे पाठकों को एक एक स्थान पर श्रेष्ठ सामग्री पढने को मिले | वैसे पिता के प्रति हर भाव अनमोल है हर शब्द अनूठा है हर वाक्य अतुलनीय है | ……… हम अपने आधार पर किसी भी भावना को कम या ज्यादा घोषित नहीं कर कर सकते थे पर लेखन कौशल और भावों की विविधता को व् रचनाकार के विजन को देखते हुए हमने ब्लॉग पर प्रकाशित की जाने वाली रचनाओं का चयन किया है | हमें प्राप्त होने वाली ५० से अधिक कविताओं में से हमने ७ का चयन किया है| आज प्रतियोगिता के अंतिम दिन आप संजना तिवारी , इंजी .आशा शर्मा ,तृप्ति वर्मा ,दीपिका कुमारी ‘दीप्ति ‘डॉ भारती वर्मा बौड़ाई ,रजा सिंह व् एस .एन गुप्ता की कवितायें पढेंगे | इस प्रतियोगिता के सफलता पूर्वक आयोजन के लिए “अटूट बंधन “परिवार रचनाकारों ,पाठकों व् निर्णायक मंडल के सदस्यों का ह्रदय से आभार व्यक्त करता है |  पापा मैं आप जैसी क्या इन यादों के लिए कोई शब्द भी हैं ? या इस पीड़ा के लिए कोई मरहम ?? मैं आपको खोजती हूँ जाने कहाँ – कहाँ ?? आप मृत्यु शया पर सज कर कब के जा चुके हो !! ये यकिन दिलाऊं भी तो खुद को कैसे ?? आईना देखती हूँ तो पाती हूँ —– वही आँखे…. हाँ ” पापा ” आपकी वही आँखे …… जिनसे नजरें मिलाना मुझे पाप लगता था आज चिपकी हैं मेरी ही आँखों पे ….। खुद को मुस्कुराते देखती हूँ तो…. महसूस होता है जैसे जैसे…. ये वही हुबहू चेहरा है आपका !!!!!! मुस्कुराता चेहरा ….।। जब कभी बच्चों को झिड़कती हूँ झूठे तो लगता है ये डांट…..?? ये तो वही डांट है जो कई बार आपने मुझे सुनाई थी झिड़कियों में ….।। मैं आपकी एक झलक नहीं पूर्ण व्यक्तित्व बन चुकी हूँ मेरे हाथ -पैर .. और उनकी सूजन भी…. उठना – बैठना – चलना और खीजना भी….. हाँ आप ही तो हैं मेरे भीतर -मेरे भीतर साँसे ले रहे हैं …. हैं ना ????? जानते हैं ” पापा ” नहीं देखती हूँ मैं खुद को रोते हुए क्योंकि आपकी ये लाडो नहीं देख पाएगी आपको खुद में रोते हुए…… नहीं देख पाउंगी मैं आपको रोते हुए ……. संजना तिवारी याद है मुझे पापा एक अटूट बंधन है  पिता का पुत्री से , माँ जननी तो पिता भाग्यविधाता, पिता की यादें वो खुशियाँ मानो ऊसर भूमि पर हरियावल। याद है मुझे पिता की सारी बातें बिताए गए उनके साथ वो पल -पल की हँसी, खेल, तमाशे,  मेरा रूठ जाना उनका मनाना,  मेरी एक एक जङता को पूरा करना। याद है मुझे मेरे वो तोहफे फ्रॉक, गाडियाँ व मिठाइयाँ,  जिसे छिपा देते तकिये के नीचे और ताकते दूर से, मानो खोज रहे मेरे चेहरे की खुशियाँ। याद है मुझे  पिता के जीवन की पहली कामयाबी, उनका बाइक खरीदना और  मुझे पहले बैठा घुमाना । याद हैं मुझे दिन भर खेल गर दुख जाते पैर  मेरे तो पिता का उन्हें सहलाना। याद हैं मुझे हर रात खेल कही भी सो जाती मैं पर आँखे खुलती तो पिता को ही पास पाती मैं।                    तृप्ति वर्मा तात नमन समझ न पाया प्यार पिता का, बस माँ की ममता को जाना पुत्र से जब पिता बना मैं, तब महत्ता इसकी पहचाना लम्हा-लम्हा यादें सारी, पल भर में मैं जी गया तुम्हे रुलाये सारे आंसू घूँट-घूँट मैं पी गया जब भी मुख से मेरे कड़वे शब्द कोई फूटे होंगे जाने उस नाज़ुक मन के कितने कौने टूटे होंगे अनुशासन को सज़ा मान कर तुमको कोसा था पल-पल इसी आवरण के भीतर था मेरा एक सुनहरा “कल” लोरी नहीं सुनाई तो क्या, रातों को तो जागे थे मेरे सपने सच करने, दिन-रात तुम्हीं तो भागे थे ममता के आंचल में मैंने, संस्कारों का पाठ पढ़ा हालातों से हार न माने, तुमने वो व्यक्तित्व गढ़ा जमा-पूँजी जीवन भर की मुझ पर सहज लुटा डाली फूल बनता देख कली को, खाली हाथ खिला माली आज नहीं तुम साथ मेरे तब दर्द तुम्हारा जीता हूँ सच्ची श्रध्दा सुमन सहित, तात नमन मैं करता हूँ इंजी. आशा शर्मा पिताजी प्रथम पुज्य भगवान (कविता)मेरे सर पर उनकी साया है वे हैं मेरा आसमान।मेरे लिए मेरे पिताजी  हैं प्रथम पुज्य भगवान।।ऊंगली पकड़ के चलना सिखाया,जीवन का हर मतलब समझाया,मेरे मंजिल का उसने राह बताया,आगे बढ़ने का मुझमें जोश जगाया,उनके आशिर्वाद से हम पा लेंगे हर मकाम।मेरे लिए मेरे पिताजी हैं प्रथम पुज्य भगवान।।प्यार से भी कभी नहीं डाँटा,बचपन में भी कभी न मारा,कैसा है सौभाग्य ये मेरा,बाबुल रुप में भगवान मिला,इनके पावन चरणों में ही मेरा है  चारो धाम।मेरे लिए मेरे पिताजी हैं प्रथम पुज्य भगवान।।अपनी चाहत कभी न जताया,धैर्य का उसने भंडार पाया,वृक्ष बन देते शितल छाया,स्वर्ग से सुंदर  घर बनाया,मेरी यही तमन्ना है मैं बढ़ाऊं इनकी शान।मेरे लिए मेरे पिताजी हैं प्रथम पुज्य भगवान।।– दीपिका कुमारी दीप्ति (पटना) सबसे बड़ा उपहार होता है पिता का  ये दुनिया जो उनके घर जन्म लेकर मिलता है हर बेटी को। दुनिया दिखा कर ऊँगली थामे चलना सिखाये बचपन की शरारतों में  साथ देकर  माँ की डाँट से बचाये कैशौर्य की उड़ानों में करे सावधान युवावस्था के सपनों में मार्गदर्शक बन  चले साथ-साथ सुख की छाया में भले ही दूर से देखे चुपचाप पर दुःख की धूप में समाधान लिए बने छायादार वृक्ष, टूटते-गिरते क्षणों में रखे कंधे पर हाथ और कहे धीरे से कानों में ‘तू चल, मैं हूँ तेरे साथ’ माँ के साथ भी और माँ के बाद भी  दिलाये मायके के होने का सुदृढ़ अहसास, उस बेटी का पिता जब चला जाए अचानक, तब, एक दिन तो क्या  पूरा जीवन भी कम है  पिता के लिए। –डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई– पिता  पिता एक शब्द नहीं एक सम्पूर्ण संसार है एक सुरक्षा है आश्वासन है कर्तव्य है अधिकार है। एक छाया है जिसके तले महफूज़ है बेफिक्र है। पिता का जो कुछ है अपना है ,नहीं है कुछ उसकाजो संतान का है। उसकी श्रम ,सम्पति और अधिकारअपने जाये के लिए है। माँ का सुहाग हैपिता ,उसकी … Read more