आयुष झा “आस्तीक ” की स्त्री विषयक कवितायें
आयुष झा “आस्तीक ” ने अल्प समय में कवितों के माध्यम से अपनी पहचान बना ली है | वह विविध विषों पर लिखते हैं | विषयों पर उनकी सोच और पकड़ काबिले तारीफ़ है | आज कल स्त्रियों पर बहुत लिखा जा रहा है एक तरफ जहाँ स्त्रियों के लेखन में उनका भोग हुआ यथार्थ है वही जब पुरुष स्त्रियों के बारे में लिखते हैं तो अंतर्मन की गहराइयों में जाकर स्त्री मन की संवेदनाओं को पकड़ने का प्रयास करते हैं | और काफी हद तक सफल भी होते हैं | आज हम” अटूट बंधन “आयुष झा “आस्तीक की कुछ स्त्री विषयक कवितायें लाये हैं |जिसमें उन्होंने नारी मनोभावों को चित्रित करने का प्रयास किया है | वो इसमें कहाँ तक सफल है ….पढ़ कर देखिये ससूराल की ड्योढी पर प्रथम कदम रखते ही नींव डालती है वो घूंघट प्रथा की /जब अपनी अल्हडपन को जुल्फों में गूँठ कर/ सहेज लेती है वो अपने आवारा ख्यालों को घूंघट में छिपा कर ….. अपनी ख्वाहिशों को आँचल की खूट में बाँध कर वो जब भी बुहारती है आँगन एक मुट्ठी उम्मीदें छिडक आती है वो कबूतरों के झूंड में …. मूंडेर पर बैठा काला कलूटा कन्हा कौआ अनुलोम-विलोम .उपवास रखने वाली जिद्दी तुनकमिजाज औरतें ______________________ अविवाहीत लडकी से संपुर्ण स्त्री बनने का सफर सात कदमों का होता है लेकीन प्रत्येक कदम पर त्याग सर्मपण और समझौता के पाठ को वो रटती है बार-बार …. मायके से सीख कर आती है वो हरेक संस्कार पाठ जो माँ की परनानी ने सीखलाया था उनकी नानी की माँ को कभी … ससूराल की ड्योढी पर प्रथम कदम रखते ही नींव डालती है वो घूंघट प्रथा की /जब अपनी अल्हडपन को जुल्फों में गूँठ कर/ सहेज लेती है वो अपने आवारा ख्यालों को घूंघट में छिपा कर ….. अपनी ख्वाहिशों को आँचल की खूट में बाँध कर वो जब भी बुहारती है आँगन एक मुट्ठी उम्मीदें छिडक आती है वो कबूतरों के झूंड में …. मूंडेर पर बैठा काला कलूटा कन्हा कौआ अनुलोम-विलोम करता है तब /जब कौआ की साँसे परावर्तित होती है स्त्री की पारर्दशी पीठ से टकरा कर …. जीद रखने वाली अनब्याही लडकीयां होती है जिद्दी विवाह के बाद भी/ बस जीद के नाम को बदल कर मौनव्रत या उपवास रख दिया जाता है / अन्यथा पुरूष तो शौख से माँसाहार होते हैं स्त्रीयों के निराहार होने पर भी.. सप्ताह के सातो दिन सूर्य देव से शनी महाराज तक का उपवास/ पुजा अर्चना सब के सब बेटे/पति के खातीर …. जबकी बेटी बचपन से ही पढने लगती है नियम और शर्तें स्त्री बनने की ! और पूर्णतः बन ही तो जाती है एक संपुर्ण स्त्री वो ससूराल में जाकर…. आखीर बेटे/पति के लिए ही क्युं ? हाँ हाँ बोलो ना चुप क्युं हो ? बेटीयों के चिरंजीवी होने की क्यूं नही की जाती है कामना… अगर उपवास रखने से ही होता है सब कुशल मंगल ! तो अखंड सौभाग्यवती भवः का आर्शीवाद देने वाला पिता/मंगल सूत्र पहनाने वाला पति आखीर क्युं नही रह पाता है एक साँझ भी भूखा…. सुनो , मेरी हरेक स्त्री विमर्श कविता की नायिका कहलाने का हक अदा करने वाली जिद्दी तुनकमिजाज औरतों ! देखो ! हाँ देखो , तुम ना स्त्री-स्त्री संस्कार-संस्कार खेल कर अब देह गलाना बंद करो …. मर्यादा की नोंक पर टाँक कर जो अपनी ख्वाहिशों के पंख कतर लिए थे तुमने/ अरी बाँझ तो नही हो ना ! तो सुनो ! इसे जनमने दो फिर से….. स्त्री होने के नियम शर्तों को संशोधित करके/ बचा लो तुम स्त्रीत्व की कोख को झूलसने से पहले ही …… लडकियों के शयनकक्ष में __________________ लडकियों के शयनकक्ष में होती है तीन खिडकियां दो दरवाजे तीन तकिए और तीन लिफाफे भी … दो लिफाफे खाली और तिसरे में तीन चिट्ठीयां … पहले लिफाफ में माँ के नाम की चिट्ठी डाल कर वो पोस्ट करना चाहती है ! जिसमें लडकी भागना चाहती है घर छोड कर … दुसरे खाली लिफाफे में वो एक चिट्ठी प्रेयस के नाम से करती है प्रेषीत… जिसमें अपनी विवशता का उल्लेख करते हुए लडकी घर छोडने में जताती है असमर्थता …. तीसरे लिफाफे के तीनों चिट्ठीयों में वो खयाली पुलाव पकाती है अपने भूत-वर्तमान और भविष्य के बारे में … अतीत को अपने चादर के सिलवटों में छुपा कर भी वो अपने प्रथम प्रेम को कभी भूल नही पाती है शायद … जो उसे टीसती है जब भी वो लिखती है एक और चिट्ठी अपने सपनों के शहजादे के नाम से…. उनके सेहत,सपने और आर्थीक ब्योरा का भी जिक्र होता है उसमें … अचानक से सामने वाले दरवाजे से भांपती है वो माँ की दस्तक । तो वही पिछले दरवाजे पर वो महसूसती है प्रेयस के देह के गंध को ….. लडकी पृथक हो जाती है अब तीन हिस्से में ! एक हिस्से को बिस्तर पर रख कर, माथा तकिए पर टीकाए हुए , दुसरा तकिया पेट के नीचे रख कर वो ढूँढती है पेट र्दद के बहाने ….. तीसरे तकीए में सारी चिट्ठीयां छुपा कर अब लडकी बन जाती है औरत …. जुल्फों को सहेज कर मंद मंद मुस्कुराते हुए वो लिपटना चाहती है माँ से … तीसरे हिस्से में लडकी बन जाती है एक मनमौजी मतवाली लडकी ! थोडी पगली जिद्दी और शरारती भी… वो दिवानी के तरह अब बरामदे के तरफ वाली खिडकी की सिटकनी खोल कर ख्वाहिशों की बारीश में भींगना चाहती है …… प्रेयस चाॅकलेटी मेघ बन कर जब भी बरसता है खिडकी पर ! वो लडकी पारदर्शी सीसे को अनवरत चुमते हुए मनचली बिजली बन जाती है ….. अलंकृत होती है वो हवाओं में एहसास रोपते हुए । चालीस पार की हुनरमंद औरतें ________________ इतनी हुनरमंद होती है ये औरतें कि भरने को तो भर सकती हैं ये चलनी में भी टटका पानी। मगर घड़ा भर बसिया पइन से लीपते पोतते नहाते हुए यह धुआँ धुकर कर बहा देती है स्वयं की अनसुलझी ख्वाहिशें। रेगिस्तान को उलीछ कर सेर- सवा सेर माछ पकड़ने के लिए तत्पर रहती है ये औरतें! कभी बाढ़ कभी सुखाड़ मगर उर्वर रहती है ये औरतें। ख्वाहिशों की विपरीत दिशा में मन मसोस कर वृताकार पथ पर गोल गोल चक्कर लगाती हुई … Read more