आयुष झा “आस्तीक ” की स्त्री विषयक कवितायें

आयुष झा “आस्तीक ” ने अल्प समय में कवितों के माध्यम से अपनी पहचान बना ली है | वह विविध विषों पर लिखते हैं | विषयों पर उनकी सोच और पकड़ काबिले तारीफ़ है | आज कल स्त्रियों पर बहुत लिखा जा रहा है एक तरफ जहाँ स्त्रियों के लेखन में उनका भोग हुआ यथार्थ है वही जब पुरुष स्त्रियों के बारे में लिखते हैं तो अंतर्मन की गहराइयों में जाकर स्त्री मन की संवेदनाओं को पकड़ने का प्रयास करते हैं | और काफी हद तक सफल भी होते हैं | आज हम” अटूट बंधन “आयुष झा “आस्तीक की कुछ स्त्री विषयक कवितायें लाये हैं |जिसमें उन्होंने नारी मनोभावों को चित्रित करने का प्रयास किया है | वो इसमें कहाँ तक सफल है ….पढ़ कर देखिये ससूराल की ड्योढी पर प्रथम कदम रखते ही नींव डालती है वो घूंघट प्रथा की /जब अपनी अल्हडपन को जुल्फों में गूँठ कर/ सहेज लेती है वो अपने आवारा ख्यालों को घूंघट में छिपा कर ….. अपनी ख्वाहिशों को आँचल की खूट में बाँध कर वो जब भी बुहारती है आँगन एक मुट्ठी उम्मीदें छिडक आती है वो कबूतरों के झूंड में …. मूंडेर पर बैठा काला कलूटा कन्हा कौआ अनुलोम-विलोम .उपवास रखने वाली जिद्दी तुनकमिजाज औरतें ______________________ अविवाहीत लडकी से संपुर्ण स्त्री बनने का सफर सात कदमों का होता है लेकीन प्रत्येक कदम पर त्याग सर्मपण और समझौता के पाठ को वो रटती है बार-बार …. मायके से सीख कर आती है वो हरेक संस्कार पाठ जो माँ की परनानी ने सीखलाया था उनकी नानी की माँ को कभी … ससूराल की ड्योढी पर प्रथम कदम रखते ही नींव डालती है वो घूंघट प्रथा की /जब अपनी अल्हडपन को जुल्फों में गूँठ कर/ सहेज लेती है वो अपने आवारा ख्यालों को घूंघट में छिपा कर ….. अपनी ख्वाहिशों को आँचल की खूट में बाँध कर वो जब भी बुहारती है आँगन एक मुट्ठी उम्मीदें छिडक आती है वो कबूतरों के झूंड में …. मूंडेर पर बैठा काला कलूटा कन्हा कौआ अनुलोम-विलोम करता है तब /जब कौआ की साँसे परावर्तित होती है स्त्री की पारर्दशी पीठ से टकरा कर …. जीद रखने वाली अनब्याही लडकीयां होती है जिद्दी विवाह के बाद भी/ बस जीद के नाम को बदल कर मौनव्रत या उपवास रख दिया जाता है / अन्यथा पुरूष तो शौख से माँसाहार होते हैं स्त्रीयों के निराहार होने पर भी.. सप्ताह के सातो दिन सूर्य देव से शनी महाराज तक का उपवास/ पुजा अर्चना सब के सब बेटे/पति के खातीर …. जबकी बेटी बचपन से ही पढने लगती है नियम और शर्तें स्त्री बनने की ! और पूर्णतः बन ही तो जाती है एक संपुर्ण स्त्री वो ससूराल में जाकर…. आखीर बेटे/पति के लिए ही क्युं ? हाँ हाँ बोलो ना चुप क्युं हो ? बेटीयों के चिरंजीवी होने की क्यूं नही की जाती है कामना… अगर उपवास रखने से ही होता है सब कुशल मंगल ! तो अखंड सौभाग्यवती भवः का आर्शीवाद देने वाला पिता/मंगल सूत्र पहनाने वाला पति आखीर क्युं नही रह पाता है एक साँझ भी भूखा…. सुनो , मेरी हरेक स्त्री विमर्श कविता की नायिका कहलाने का हक अदा करने वाली जिद्दी तुनकमिजाज औरतों ! देखो ! हाँ देखो , तुम ना स्त्री-स्त्री संस्कार-संस्कार खेल कर अब देह गलाना बंद करो …. मर्यादा की नोंक पर टाँक कर जो अपनी ख्वाहिशों के पंख कतर लिए थे तुमने/ अरी बाँझ तो नही हो ना ! तो सुनो ! इसे जनमने दो फिर से….. स्त्री होने के नियम शर्तों को संशोधित करके/ बचा लो तुम स्त्रीत्व की कोख को झूलसने से पहले ही …… लडकियों के शयनकक्ष में __________________ लडकियों के शयनकक्ष में होती है तीन खिडकियां दो दरवाजे तीन तकिए और तीन लिफाफे भी … दो लिफाफे खाली और तिसरे में तीन चिट्ठीयां … पहले लिफाफ में माँ के नाम की चिट्ठी डाल कर वो पोस्ट करना चाहती है ! जिसमें लडकी भागना चाहती है घर छोड कर … दुसरे खाली लिफाफे में वो एक चिट्ठी प्रेयस के नाम से करती है प्रेषीत… जिसमें अपनी विवशता का उल्लेख करते हुए लडकी घर छोडने में जताती है असमर्थता …. तीसरे लिफाफे के तीनों चिट्ठीयों में वो खयाली पुलाव पकाती है अपने भूत-वर्तमान और भविष्य के बारे में … अतीत को अपने चादर के सिलवटों में छुपा कर भी वो अपने प्रथम प्रेम को कभी भूल नही पाती है शायद … जो उसे टीसती है जब भी वो लिखती है एक और चिट्ठी अपने सपनों के शहजादे के नाम से…. उनके सेहत,सपने और आर्थीक ब्योरा का भी जिक्र होता है उसमें … अचानक से सामने वाले दरवाजे से भांपती है वो माँ की दस्तक । तो वही पिछले दरवाजे पर वो महसूसती है प्रेयस के देह के गंध को ….. लडकी पृथक हो जाती है अब तीन हिस्से में ! एक हिस्से को बिस्तर पर रख कर, माथा तकिए पर टीकाए हुए , दुसरा तकिया पेट के नीचे रख कर वो ढूँढती है पेट र्दद के बहाने ….. तीसरे तकीए में सारी चिट्ठीयां छुपा कर अब लडकी बन जाती है औरत …. जुल्फों को सहेज कर मंद मंद मुस्कुराते हुए वो लिपटना चाहती है माँ से … तीसरे हिस्से में लडकी बन जाती है एक मनमौजी मतवाली लडकी ! थोडी पगली जिद्दी और शरारती भी… वो दिवानी के तरह अब बरामदे के तरफ वाली खिडकी की सिटकनी खोल कर ख्वाहिशों की बारीश में भींगना चाहती है …… प्रेयस चाॅकलेटी मेघ बन कर जब भी बरसता है खिडकी पर ! वो लडकी पारदर्शी सीसे को अनवरत चुमते हुए मनचली बिजली बन जाती है ….. अलंकृत होती है वो हवाओं में एहसास रोपते हुए । चालीस पार की हुनरमंद औरतें ________________ इतनी हुनरमंद होती है ये औरतें कि भरने को तो भर सकती हैं ये चलनी में भी टटका पानी। मगर घड़ा भर बसिया पइन से लीपते पोतते नहाते हुए यह धुआँ धुकर कर बहा देती है स्वयं की अनसुलझी ख्वाहिशें। रेगिस्तान को उलीछ कर सेर- सवा सेर माछ पकड़ने के लिए तत्पर रहती है ये औरतें! कभी बाढ़ कभी सुखाड़ मगर उर्वर रहती है ये औरतें। ख्वाहिशों की विपरीत दिशा में मन मसोस कर वृताकार पथ पर गोल गोल चक्कर लगाती हुई … Read more

बोनसाई

                        बोनसाई हां ! वही बीज तो था मेरे अन्दर भी जो हल्दिया काकी ने बोया था गाँव की कच्ची जमीन पर बम्बा के पास पगडंडियों के किनारे जिसकी जड़े गहरी धंसती गयी थी कच्ची मिटटी में खींच ही लायी थी तलैया से जीवन जल मिटटी वैसे भी कहाँ रोकती है किसी का रास्ता कलेजा छील  के उठाती है भार तभी तो देखो क्या कद निकला है हवाओ के साथ झूमती हैं डालियाँ कभी फगवा कभी सावन गाते कितने पक्षियों ने बना रखे हैं घोंसले और सावन पर झूलो की ऊँची –ऊँची पींगे हरे कांच की चूड़ियों संग जुगल बंदी करती बाँध देती हैं एक अलग ही समां और मैं … शहर में बन गयी हूँ बोनसाई समेटे हुए हूँ अपनी जड़े कॉन्क्रीट कभी रास्ता जो नहीं देता और पानी है ही कहाँ ? तभी तो ऊँची –ऊँची ईमारते निर्ममता से   रोक लेती है किसी के हिस्से की मुट्ठी भर धूप पर दुःख कैसा ? शहरों में केवल बाजार ही बड़े हैं अपनी जड़े फैलाए खड़े हैं चारों तरफ अपनी विराटता पर इठलाते  अट्हास करते  बाकी सब कुछ बोनसाई ही है बोनसाई से घर घरों में बोनसाई सी बालकनी रसोई के डब्बो में राशन की बोनसाई बटुए में नोटों की बोनसाई रिश्ते –नातों में प्रेम की बोनसाई और दिलो में बोनसाई सी जगह इन तमाम बोंनसाइयों के मध्य मैं भी एक बोनसाई यह शहर नहीं बस  बोंनसाइयों का जंगल  है जो आठो पहर अपने को बरगद सिद्ध करने पर तुले हैं वंदना बाजपेई   atoot bandhan………क्लिक करे 

बैसाखियाँ

                                                                           बैसाखियाँ  जब जीवन के पथ पर  गर्म रेत सी लगने लगती   दहकती  जमीन जब बर्दाश्त के बाहर हो जाते  है दर्द भरी लू  के थपेड़े संभव नहीं दिखता  एक पग भी आगे बढ़ना और रेंगना बिलकुल असंभव तब ढूढता है मन बैसाखियाँ २ ) ठीक उसी समय बैसाखियाँ ढूंढ रही होती हैं लाचार लाचारों  के बिना खतरे में होता है उनका वजूद आ जाती हैं देने सहारा गड जाती हैं बाजुओं में एक टीभ सी उठती है सीने के बीचो -बीच विवशता है सहनी ही है यह गडन  लाचारी  ,और बेबसी से भरी नम आँखें बहुधा नजरंदाज करती हैं बैसाखियाँ ३ ) मानता है अपंग लौटा नहीं जा सकता अतीत में न मांग कर लाये जा सकते हैं दबे कुचले  पाँव जीवन है तो चलना है गर जारी रखनी है यात्रा आगे की तरफ तो जरूरी है लेना बैसाखियों का सहारा ४ ) बैसाखियाँ कभी हौसला नहीं देती वो  देती है सहारा कराती हैं अहसास अपाहिज होने का जब आदत सी बन जाती हैं बैसाखियाँ तब मुस्कुराती हैं अपने वजूद पर कि कभी -कभी भाता  है उनको देखना गिरना -पड़ना और रेंगना की बढ़ जाता है उनका कुछ कद साथ ही बढ़ जाती है लाचार के बाजुओ की गडन ५ ) बैसाखियाँ प्रतीक हैं अपंगता की बैसाखियाँ प्रतीक हैं अहंकार की बैसाखियाँ प्रतीक हैं शोषण की फिर भी आज हर मोड़ पर मिल जाती हैं बैसाखियाँ बिना किसी रंग भेद के बिना किसी लिंग भेद के देने को सहारा या एक दर्द भरी गडन जो रह ही जाती है ताउम्र ६ ) बैसाखियाँ सदा से थी ,है और रहेंगी जब -जब भावुक लोग महसूस करेगे अपने पांवों को कुचला हुआ तब -तब वजूद में आयेगी  बैसाखियाँ इतरायेंगी  बैसाखियाँ सहारा देकर स्वाभिमान छीन  ले जायेंगी बैसाखियाँ जब तक भावनाओं  के दंगल में हारा ,पंगु हुआ पथिक अपने आँसू खुद पोछना नहीं सीख जाएगा तब तक बैसाखियों का कारोबार यूँ ही फलता -फूलता जाएगा वंदना बाजपेई atoot bandhan  ………कृपया क्लिक करे 

मदर्स डे पर माँ को समर्पित भावनाओ का गुलदस्ता

                                                                                                                                 माँ एक ऐसा शब्द है जो अपने आप में पूरे ब्रह्माण्ड को समेटे हुए है ।माँ कहते ही भावनाओं का एक सागर उमड़ता है,स्नेह का अभूतपूर्व अहसास होता है ,………और क्यों न हो ये रिश्ता तो जन्म से पहले जुड़ जाता है  निश्छल और निस्वार्थ प्रेम का साकार रूप है  ….   मदर्स डे पर कुछ लिखने से पहले मैं अपनी माँ को और संसार की समस्त माताओ को सादर नमन करती हूँ। ……….  हे माँ  अपने चरणों में  स्वीकार करो  नमन मेरा । धन वैभव इन सबसे बढ़कर,है अनमोल आशीष तेरा ॥  ,                                                                    कहते हैं  माँ के ऋण से कोई उऋण नहीं हो सकता । सच ही है उस निर्मल निस्वार्थ ,त्यागमयी प्रेम की कहीं से किसी से  भी तुलना नहीं हो सकती ।   कोई लेखक हो या न हो , कवि हो या न हो शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसने कभी न कभी अपनी  माँ के प्रति भावनाओं को शब्दों में पिरोने की कोशिश न की हो ।पर शायद   ही संसार की कोई ऐसी कविता हो , लेख हो ,कहानी हो जो माँ के प्रति हमारी भावनाओं को पूरी पूरी तरह से व्यक्त कर सकती हो । शब्द बौने पड  जाते हैं । भावनाएं शब्दातीत हो जाती है । माँ पर मैंने अनेकों कविताएं लिखी है पर जब आज” मदर्स डे ” जब कुछ शब्दों पुष्पों  के द्वारा  माँ के प्रति अपने स्नेह को व्यक्त करने का प्रयास किया…तो बस इतना ही लिख पायी  .    माँ ,क्या तुमको मैं आज दूं । तुमसे निर्मित ही तो मैं हूँ ॥ कुछ दिया नहीं बस पाया है । आज भी कुछ मांगती हूँ ॥ जाने -अनजाने अपराधों की । बस क्षमा मांगती हूँ तुमसे । बस क्षमा मांगती हूँ तुमसे  ॥                           माँ का भारतीय संस्कृति में सदा से सबसे ऊंचा स्थान रहा है । यह सच है की माँ के लिए अपनी भावनाएं व्यक्त करने के लिए समस्त जीवन ही कम है । पर ये दिन शायद इसी लिए बनाये जाते हैं की कि उस दिन हम सामूहिक रूप से भावनाओं का प्रदर्शन करें  ।  …………भाई बहन का त्यौहार रक्षा बंधन , पति के लिए करवाचौथ ,या संतान के लिए अहोई अष्टमी इसका उदाहरण है। “अटूट बंधन ” परिवार ने पूरा सप्ताह माँ को समर्पित करा है । जिसमें आप सब ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया । उसके लिए हम आप सब का धन्यवाद करते हैं । आज मदर्स डे  पर “माँ कोई तुझ जैसा कहाँ ” श्रृंखला की  सातवी व् अंतिम कड़ी के रूप में हम  आप के लिए माँ पर लिखी हुई कवितायेँ लाये हैं ।  वास्तव में यह कविताएं नहीं हैं भावनाओं का गुलदस्ता है। जिसमें अलग -अलग रंगों के फूल हैं । जो त्याग और ,निश्वार्थ प्रेम की देवी  ,घर में ईश्वर का साकार रूप माँ के चरणों में समर्पित हैं                                     वंदना बाजपेयी  मैं भी लिखना चाहती हूँ  माँ पर कविता , माँ यशोदा की तरह प्यारी न्यारि …… लिखती हूँ जब कागज के पन्नों पर , एक स्नेहिल छवि उभरती है                                         शायद…….संसार की सबसे अनुपम कृति है …..’माँ ‘ जब भी सोचती हूँ माँ को , हर बार या यूं कहें बार-बार माँ के गोद की सुकून भरी रात और साथ ही ,,,,,, नरमी और ममता का आंचल और भी बहुत कुछ प्यार की झिड़की ,तो संग ही दुवाओं का अंबार ऐसा होता है माँ का प्यार ……. हर शब्द से छलक़ता ,,,,, प्यार ही प्यार … सच तो यह है कि, माँ की ममता का नेह और समर्पण , ही पहचान है ,उसकी अपनी तभी तो इस जगत में, ”माँ” महान है …….!!!          संगीता सिंह ”भावना”   माँ आज समझ सकती हू माँ तेरा वो भीगी पलकों में तेरा मुस्कुराना हसकर सब सहते हुए भी अपने सारे दर्द छुपाना न बताना किसी को कुछ अपनों से भी अपने ज़ख्म छुपाना जब दे कर जोर पूछती मैं तो यही होता हरदम तुम्हारा जवाब न बताना किसी को दुःख अपने यह दुनिया है बड़ी ख़राब यह सब सामने तो सुनती पर पीठ पीछे हसती है न बता सकते हम दुःख माँ बाप को क्योंकि बेटियो में उनकी जान बसती है वो भी दुखी होते है बेटियो के साथ न देख पाते है बेटियो के टूटे ख्वाब न कर पायेगे वो फिर इज़्ज़त दामाद की देखेगे जब उनको तो याद आएगी बेटी के टूटे हुए अरमानो की पर इतना याद रखना मेरी बच्ची तुम भी एक औरत हो कल तुम्हे भी ब्याह कर किसी के घर जाना है जो न करवा पाती अपने पति कि इज़्ज़त उनकी भी इज़्ज़त कहा करता यह ज़माना है ! दर्द हो जो भी उसे अपने अंदर समेट के रखना लेकिन हद से ज्यादा ज्यादतियां भी कभी न तुम बर्दाश्त करना थोड़ी बहुत कहासुनी हर घर में होती है कभी न उसे झगड़े का रूप तुम देना !!! गर्व होता अब मुझे खुद पर मैं भी तुम्हारी तरह हो गई हूँ माँ तुम्हारी ही तरह झूठी जिंदगी जीना मैं भी अब सीख गई हूँ माँ भीगी पलकों से अब मैं भी मुस्कुराती हू किसी को न अपना दर्द सुनाती हू गर हो गई कभी इंतेहा दर्द की तो आँखे बंद कर सपनो में मैं तुम्हारी गोद में सो जाती हू मन ही मन बता देती हू तुम्हे सारे दर्द अपने सर पर तुम्हारे हाथो का प्यार भरा स्पर्श तब पाती हू आ जाती है एक नयी … Read more

मई दिवस पर विशेष : एक दिन मेहनतकशों के नाम

                                         एक विशालकाय थिएटर में फिल्म चल रही है | गहरे अन्धकार में केवल “सिल्वर स्क्रीन” पर प्रकाश है| दर्शकों की सांसे थमी हुई हैं | मजदूर संगठित हो कर अपना हिस्सा मांग रहे हैं | गीत के स्वर चारों ओर गुंजायमान है ………………….. हम मेहनतकश इस दुनिया से गर अपना हिस्सा मांगेंगे  एक बाग़ नहीं, एक खेत नहीं, हम सारी  दुनिया मांगेंगे                                                         तालियों की गडगडाहट से हाल गूंज उठता हैं | हम नायक ,नायिका फिल्म की चर्चा करते हुए बाहर आ जाते हैं , और बहार आ जाते हैं उन संवेदनाओं से जिन्हें हम कुछ देर पहले जी रहे होते हैं | तभी तो कड़क कर जूते  पोलिश करवाते हुए  १२ साल के ननकू को डपटते हैं ” सा*******, क्या हुआ है तेरे हाथ को ,जूता चमक ही नहीं रहा | बुखार में तपती कामवाली बाई को घुड़की  देते हैं “देखो कमला रोज -रोज ऐसे नहीं चलेगा ,टाइम पर आना होगा ,नहीं तो पैसे काट लूँगी | शान से बूढ़े रिक्शेवाले  को  उपदेश देते हैं “जब इतना हाँफता है तो चलाता क्यों है रिक्शा ?और सबसे बढ़कर कालिया जो हमारे घर का सीवर साफ़ करने मेन  होल में घुसा है उसे देख कर घिन से त्योरिया चढ़ा लेते हैं |                                                 मई दिवस के नारे ,श्रम का महत्व पर भाषण से तब तक कुछ भी नहीं होगा जब तक समाज की कथनी और करनी में अंतर रहेगा | काम कोई भी छोटा या बड़ा नहीं होता | लाखों करोड़ों मजदूर जो हमारा घर बनाते हैं ,जूते  पोलिश करते हैं , सीवर साफ़ करते हैं , घर -घर जा कर सब्जी बेचते हैं ………… और वो सब काम करते हैं जो हम खुद अपने लिए नहीं कर सकते | पूरा समाज उनका ऋणी है| बात सिर्फ मजदूरी देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेने की नहीं हैं | जरूरत है उनके दर्द ,तकलीफ को समझने की ,जरूरत है उनका शोषण न होने देने की ……….. और ज्यादा नहीं तो कम से कम उनके साथ मानवीय व्यवहार करने की | समाज  एक दिन में नहीं बदलता  पर किसी समस्या  पर जिस दिन से हम विचार करने लगते हैं उसी दिन से उसके  समाधान के रास्ते निकल आते हैं |                                                         अटूट बंधन आज मई दिवस के अवसर पर आप के लिए कुछ ऐसी ही कवितायें लाया है जो कहीं न कहीं आपकी संवेदनाओं को झकझोरेंगी | इनमें डूबते -उतराते आप अवश्य उस पीड़ा को महसूस करेंगे जो मजदूर झेलते हैं | पर ये मात्र  उस दर्द को श्रधांजलि देने के लिए नहीं हैं बल्कि सोचने समझने और श्रम का सम्मान करने के लिए खुद को बदले का  आवाहन भी है                                  वह तोड़ती पत्थर  वह तोड़ती पत्‍थर; देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर- वह तोड़ती पत्‍थर। कोई न छायादार पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्‍वीकार;श्‍याम तन, भर बँधा यौवन, नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन, गुरू हथौड़ा हाथ, करती बार-बार प्रहार :-सामने तरू-मालिका अट्टालिका, प्राकार। चढ़ रही थी धूप; गर्मियों के दिन दिवा का तमतमाता रूप; उठी झुलसाती हुई लू,रूई ज्‍यों जलती हुई भू, गर्द चिनगी छा गयीं, प्राय: हुई दुपहर :-वह तोड़ती पत्‍थर। देखते देखा मुझे तो एक बार उस भवन की ओर देखा, छिन्‍नतार; देखकर कोई नहीं, देखा मुझे उस दृष्टि से जो मार खा रोई नहीं, सजा सहज सितार, सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर, ढुलक माथे से गिरे सीकर, लीन होते कर्म में फिर ज्‍यों कहा – ‘मैं तोड़ती पत्‍थर।’ सूर्य कान्त त्रिपाठी “निराला “ घिन तो नहीं आती  पूरी स्पीड में है ट्राम खाती है दचके पै दचके सटता है बदन से बदन पसीने से लथपथ । छूती है निगाहों को कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान बेतरतीब मूँछों की थिरकन सच सच बतलाओ घिन तो नहीं आती है? जी तो नहीं कढता है? कुली मज़दूर हैं बोझा ढोते हैं, खींचते हैं ठेला धूल धुआँ भाप से पड़ता है साबका थके मांदे जहाँ तहाँ हो जाते हैं ढेर सपने में भी सुनते हैं धरती की धड़कन आकर ट्राम के अन्दर पिछले डब्बे मैं बैठ गए हैं इधर उधर तुमसे सट कर आपस मैं उनकी बतकही सच सच बतलाओ जी तो नहीं कढ़ता है? घिन तो नहीं आती है? दूध-सा धुला सादा लिबास है तुम्हारा निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने बैठना है पंखे के नीचे, अगले डिब्बे मैं ये तो बस इसी तरह लगाएंगे ठहाके, सुरती फाँकेंगे भरे मुँह बातें करेंगे अपने देस कोस की सच सच बतलाओ अखरती तो नहीं इनकी सोहबत? जी तो नहीं कुढता है? घिन तो नहीं आती है? नागार्जुन  अखबारवाला  धधकती धूप में रामू खड़ा है  खड़ा भुलभुल में बदलता पाँव रह रह  बेचता अख़बार जिसमें बड़े सौदे हो रहे हैं ।  एक प्रति पर पाँच पैसे कमीशन है,  और कम पर भी उसे वह बेच सकता है  अगर हम तरस खायें, पाँच रूपये दें  अगर ख़ैरात वह ले ले ।  लगी पूँजी हमारी है छपाई-कल हमारी है  ख़बर हमको पता है, हमारा आतंक है,  हमने बनाई है  यहाँ चलती सड़क पर इस ख़बर को हम ख़रीदें क्यो ?  कमाई पाँच दस अख़बार भर की क्यों न जाने दें ?  वहाँ जब छाँह में रामू दुआएँ दे रहा होगा  ख़बर वातानुकूलित कक्ष में तय कर रही होगी  करेगी कौन रामू के तले की भूमि पर कब्ज़ा । रघुवीर सहाय  अच्छे बच्चे  *************************** कुछ बच्चे बहुत अच्छे होते हैं वे गेंद और ग़ुब्बारे नहीं मांगते मिठाई नहीं मांगते ज़िद नहीं करतेऔर मचलते तो हैं ही नहीं बड़ों का कहना मानते हैं वे छोटों का भी कहना मानते हैं इतने अच्छे होते हैं इतने अच्छे बच्चों की तलाश में रहते हैं हम और मिलते … Read more

अम्बरीश त्रिपाठी की कवितायें

                       कहते हैं साहित्य सोचसमझकर  रचा नहीं जा सकता  बल्कि जो मन के भावों को कागज़ पर आम भाषा में उकेर  दे वही साहित्य बन जाता है …… कई नव रचनाकार अपनी कलम से अपने मनोभावों को शब्दों में बंधने का प्रयास कर रहे हैं …… उन्हीं में से एक हैं अम्बरीश त्रिपाठी जो पेशे से सॉफ्टवेर इंजिनीयर हैं पर पर उनका  मन साहित्य में भी सामान रूप से रमता है | उन के शब्दों में उनके मासूम भाव जस के तस बिना किसी लाग लपेट के कागज़ पर उतरते हैं  …. और पाठक के ह्रदय को उद्वेलित करते हैं | अटूट बंधन का प्रयास है की नयी प्रतिभाओ को सामने लाया जाए इसी क्रम  में आज अटूट बंधन ब्लॉग पर पढ़िए …….. अम्बरीश त्रिपाठी की कवितायें  आज थोडा परेशान हूँ मैं आज थोड़ा परेशान हूँ मैं कहीं अंधेरो मे निकलते हुए पाया की अभी भी बाकी कहीं थोड़ा इंसान हूँ मैं सुबह की दौड़ मे भागती कोई जान हूँ मैं अपने ही बीते हुए कल की छोटी सी पहचान हूँ मैं कभी अपनो के दिल मे बसा सम्मान हूँ मैं तो कभी किसी का रूठा हुआ कोई अरमान हूँ मैं देखता हूँ आज जब जिंदगी को मुड  के पीछे तो पाता हूँ बस इतना की कागज के टुकड़ो से बना कोई भगवान हूँ मैं गिरता संभलता हाथो मे पड़ता किसी भिक्षा मे दिया हुआ कोई दान हूँ मैं कभी बच्चे की कटी पतंग के जैसे आकाश मे लहराती कोई उड़ान हूँ मैं खुदा को समझने मे बिता के पूरी ज़िंदगी आख़िर मे है बस इतना पाया की मस्जीदो मे गूँजती अज़ान हूँ मैं पेडो से पत्तो से पौधो से उगते कुछ महकते हुए फूलो की मुस्कान हूँ मैं तारो सितारों के जहाँ से कई आगे ब्रह्मांड मे चमकता कोई वरदान हूँ मैं लिख के इतने अल्फ़ाज़ जो वापस मैं आया तो पाया की वापस वीरान हूँ मैं माँ  जब भी उठता था सुबह,चाय ले के मेरे सामने होती थी रात में मुझे खिला के खाना,सबको सुला के ही सोती थी बीमार जो होता कभी मै,तो घंटो गीली पट्टियां मेरे सिर पे रखती थी मेरी हर उलटी सीधी जिद को बढ़ चढ़ के पूरा करती थी बचपन में स्कूल जाते वक़्त ,मै उससे लिपट के रोया करता था रात को अँधेरे के डर से,उसके हाथ पे सिर रख के सोया करता था छुट्टी के दिन भी कभी उसकी छुट्टी नही हो पाती थी पूछ के हमसे मनपसंद खाना,फिरसे किचन में जुट जाती थी सरिद्यों में हमे अपने संग धूप में बिठा लेती थी अलग अलग रंग के स्वेटर हमारे लिए बुना करती थी सुबह के नाश्ते से रात के दूध तक बस मेरी ही चिंता करती है ऐसी है मेरी माँ,जो हर दुआ हर मंदिर में बस मेरी ख़ुशी माँगा करती है कहने को बहुत दूर आ गया हूँ मै,पर हर वक्त उसका दुलार याद आता है खाना तो महंगा खा लेता हूँ बाहर,पर उसके हाथ का दाल चावल याद आता है घूम लिए है देश विदेश,पर उसके साथ सब्जी लेने जाना याद आता है स्कूल से आ के बैग फेक के उसके गले लग जाना बहुत याद आता है आज भी जब जाता हूँ घर,फिरसे मेरी पसंद के पराठे बना देती है मेरे मैले कपड़ो को साफ़ करके ,फिरसे तहा देती है जब जा रहा होता हूँ वापस,फिर से उसकी आंखे नम हो जाती है सच कहता हूँ माँ ,अकेले में रो लेता हूँ पर मुझे भी तू बहुत याद आती है सच को मैंने अब जाना है एक फांस चुभी है यादो की , हर राह बची है आधी सी  कुछ नज्मे है इन होठो पर,आवाज़ हुई है भरी सी  सांसो में ये जो गर्मी है ,आँखों में ये जो पानी है  है रूह भी मेरी उलझी सी,राहे भी मेरी वीरानी है  इस चेहरे पे एक साया है,जो खुद से ही झुंझलाया है  मुड़ के देखा है जब भी वो,कुछ सहमाया घबराया है  फिर से उठना है मुझको अब,शायद फिर से कुछ पाना है  एक आइना है साथ मेरे,बस खुद से नज़रे मिलाना है  बचपन के कुछ चर्चे भी है,यौवन के कुछ पर्चे भी है है साथ मेरे अब भी वो पल,कुछ मासूम से खर्चे भी है कुछ सपने है इन पलकों पर,वो अपने है फिर फलको पर दौलत ओहदे सब ढोंग ही है,जीवन चलते ही जाना है खोजा है सच को मैंने जब,पाया है खुद को तब से अब वो आज दिखा है आँखों में,उसको मैंने पहचाना है अल्ला मौला सब एक ही है,ना राम रहीम में भेद कोई जाती पाती में पड़ना क्या,ये मुद्दा ही बचकाना है मंदिर मस्जिद जा कर भी तो,बस दौलत शोहरत मांगी है जो दिया हाथ किसी बेबस को,तो खुद से क्या शर्माना है कहता है ये ‘साहिल‘ भी अब,कुछ देर हो गयी जगने में जाने से पहले दुनिया में,एक हस्ती भी तो बनाना है इतना कहूंगा दोस्तों तुम्हारे बिना आज भी रात नहीं होती ये तो न सोचा था कभी कि इतना आगे आ जाऊंगा मै सोच कर पुराने हसीँ लम्हे,अकेले में कहीं मुस्कुराऊंगा मै याद आते है सारे पल उस शहर के,उनमे क्या फिरसे खो पाउँगा मै वो छोटी से पटरी पे प्लास्टिक कि गाड़ी,अब न कभी उसे चला पाउँगा मै वो गर्मी कि छुट्टी , वो भरी हुई मुठ्ठी  वो पोस्टमैन का आना और गाँव कि कोई चिठ्ठी मोहल्ले के साथी और क्रिकेट के झगड़े वो बारिश के मौसम में कीचड वाले कपड़े वो पापा का स्कूटर और दीदी कि वो गाड़ी वो छोटे से मार्केट से माँ लेती थी साड़ी भैया कि पुरानी किताबो में निशान लगे सवाल वो होली कि हुडदंग  में उड़ता हुआ गुलाल दीवाली के पटाखे और दशहरे के मेले काश साथ मिल कर हम फिर से वो खेले स्कूल के वो झगड़े और कॉलेज के वो लफड़े वो ढाबे की चाय और लड़कियों के कपड़े सेमेस्टर के पेपर और रातों की पढाई आखिर का सवाल था बंदी किसने पटाई हॉस्टल के किस्से और जवानियों के चर्चे वो प्रक्टिकल में पाकेट में छुपाये हुए पर्चे वो सिगरेट का धुआं और दारू की वो बस्ती आज भी चल रही है उधर पे ये कश्ती आज … Read more

  अशोक कुमार जी कि कविताओं में एक तड़प है ,एक बैचैनी है जैसे कुछ खोज रहे हो … वस्तुत मानव मन कि अतल गहराइयों कि खोज ही किसी को कवि बनाती है ……… उनकी हर कविता इसी खोज का हिस्सा है जो बहुत गहरे प्रहार करती है…. आइये पढ़ते हैं वो अपनी खोज में कितने सफल हुए हैं बीत जाती पीढियाँ ________________ बस कुछ संवत्सर बीत जाते थे पहले कहने को लोकते थे फिर करने को लोकते थे कहने और करने को लोकने के खेल में गिरते थे कई सीढियाँ बस बीत जाती थीं कुछ पीढियाँ. भूल ____ मैंने कल जो कहा था आज सच कहता हूँ वह एक भूल थी मैं आज जो कह रहा हूं कल बताऊँगा वह भी क्या फिर एक भूल होगी. बवंडर _______ नदियों में भँवर थे और डूबने का खतरा था मुझे तैरना कहाँ आता था चलना आता था मुझे तलमलाते पाँव से पर मैदान में चल रहे थे बवंडर जान गया था गोल घूमती हैं हवायें चूँकि गोल उड़ रहे थे सूखे पत्ते और यह भी कि खेत भूत नहीं जोत रहे थे. परेशानी ____________ हमारे कस्बे में सीधा मतलब निकालते थे लोग बातों का परेशानी का सबब था कि हवाओं में जुमले तैर रहे थे.  उद्दण्डता ‘ उसकी भाषा समृद्ध न थी इसलिये वह चुप था वह मेरी साफ चमकीली पोशाक से सहम कर चुप था मेरे भव्य घर की दीवारों से डर कर वह चुप था मुझे बड़ा मानता था वह इसलिये भी चुप था मैं भी तो सहमा था उससे जैसा वह मुझसे मैं जानता हूँ जिस दिन वह अपनी भाषा दुरुस्त कर लेगा बोलेगा वह और मेरी धज्जियाँ उड़ा देगा . चौखटे _________ चौखटे पहले ही बना दिये गये थे बरसों पहले सही कहें तो अरसे पहले जब सदियाँ करवटें बदल रही थीं किसी नदी के किनारे चौखटे हदें टाँक चुकी थीं कुरते पर टाँकी बटनों की तरह और कुरते के फैलाव के भीतर ही हम दम फुलाते थे चौखटे की सरहदें थीं और आग उसके भीतर ही सुलगती थी अलाव में दहकते अंगारे किसी लाल आँखों की तस्वीर भर थी जहाँ आँच आँख की कोरों के बाहर नहीं छलकती चौखटे दिमाग के फ्रेम बन गये थे जिसमें टांग दी गयी थी अरसे पहले उकेरी गयी उदास रंगों वाली एक तस्वीर चौखटे श्रद्धा और आस्था के पवित्र खाँचे बन गये थे जिसके बाहर जाना आज भी निषिद्ध था चौखटे के भीतर पैदा हुए थे वे लोग भी जो चौखटे के बाहर सिर निकालते थे यह जानते हुए भी कि चौखटे के बाहर लोहे की नुकीली कीलें ठुकी हुई हैं जो उनके सिर फोड़ सकती हैं. किताबों में ____________ किताबें पढ़ रहे थे सब और किताबें थीं जो चेहरों पर टंग गयी थीं हाथों से छूट कर फड़फड़ा कर किताबें तो उन चेहरों पर भी थे जो बस में मिले थे सड़क पर दफ्तर से लौटते हुए पर झुँझला कर मैं लौट आता था माथे पर पड़ी शिकन की पहली परत से किताबें वहाँ थीं जहाँ एक भरी- पूरी दुनिया थी पर उनमें खुशहाली की तीखी खुशबू थी जब कोई सूँघता पीले पन्ने मैं सुनता था जंगल बढ़ रहा था टेलिविजन पर और धर्म और स्त्रियों पर अपने राज की लतायें पसार रहा था दोनों सिर्फ जिन्दा रखे जा रहे थे पीढ़ियों के लिये जंगल रोज सुबह अखबारों में पढता था मैं और चाय का स्वाद जुबान पर जाकर चिपक जाता था जब समझ नहीं आता था कि सचमुच के जंगल में बाघों की बढती संख्या पर कैसी प्रतिक्रिया दूँ हसूँ रोऊँ जंगल का जंगल में होना जरूरी था जंगल में बाघ का होना जरूरी था मैं अपनी किताबों को लेकर परेशान था जहाँ जंगल पसरे जा रहे थे बेतहाशा और जिनमें बाघों की संख्या बढ़ती जा रही थी किताबों में घटते हुए आदमियों से हताश था मैं किताबों में जंगल पसर रहे थे बाघ बढ़ रहे थे. ‘ कारण _______________ ठंड के मौसम में भी कुछ लोग मरे थे गरमी के मौसम में भी भूख भी एक सदाबहार ऋतु थी उस देश की जहाँ लोग मरते थे सालों भर मौत का कारण न ठंड थी न लू और न भूख बस कुछ ठंडी पड़ी संवेदनायें थीं जहाँ तर्क जम जाते थे बर्फ की अतल गहराईयों में दबी हुई थी करुणा जो तलाशे जा रहे कारणों से दूर पड़ी थी . एलम्नी मीट ____________ कोई मोटा हो गया था कोई गंजा किसी के बाल पक गये थे किसी की मूँछें वह खूबसूरत तो थी पर युवा नहीं रह गयी थी कोई छरहरी गुलथुल हो गयी थी किसी की आँखों के नीचे गढ़े काले पड़ गये थे किसी के चेहरे पर झुर्रियों के आने की सूचना थी समय फासले मिटा रहा था बरसों की समय फैसले सुना रहा था बरसों बाद. अशोक कुमार काल इंडिया में कार्यरत समस्त चित्र गूगल से साभार अटूट बंधन ………हमारा फेस बुक पेज

संगीता पाण्डेय कि कवितायें

                                      नाम – संगीता पाण्डेय सम्प्रति :अध्यापन शैक्षिक योग्यता – अंग्रेजी , शिक्षाशास्त्र तथा राजनीती विज्ञानं में परास्नातक ,  शिक्षाशास्त्र विषय में नेट परीक्षा उत्तीर्ण , पी एच डी हेतु नामांकित।  मेरा परिचय ………….  साहित्य प्रेमी माता – पिता की संतान होने के कारण बचपन से ही मेरा भी रुझान साहित्य में रहा। कवि सम्मेलनों में जाना और काव्य पाठ  सुनना ही कवितायेँ लिखने हेतु मेरी प्रेरणा के स्रोत  बने।  अंग्रेजी  साहित्य में परास्नातक करते समय कवितायेँ लिखने का श्री गणेश हुआ। वैसे तो प्रकृति में व्याप्त प्रत्येक वस्तु  मुझे आकर्षित करती है।  किन्तु मानव स्वाभाव तथा मानवीय सम्बन्ध  मेरी जिज्ञासा   का विषय रहें हैं। उपकरणीय जटिलताओं और विद्रूपताओं ने  मानवीय संबंधों के समीकरण को यांत्रिक बना दिया। सबकुछ स्थायी एवं सुविधापूर्ण बनाने की लालसा ने मानवीय संवेदनाओं को बुरी तरह से प्रभावित किया। मुझे ऐसी परिस्थितियां सदैव कुछ कहते रहने को विवश करती रहीं।                             भावुक ह्रदय  संगीता पाण्डेय दिल से लिखती हैं उनका लेखन हृदयस्पर्शी होता है। आज हम अटूट बंधन पर उनकी उन रचनाओं को पढ़ेंगे जिसमें उन्होंने नारी के मनोभावनाओं  को खूबसूरती से उकेरा है  विकल्प अस्पताल का बिस्तर,  अनंत को चीरती,  शून्य को निहारती , निस्तेज आखें , अस्सी / नब्बे प्रतिशत भुना शरीर। आज, क्या कुछ, नहीं , याद आ रहा , पापा ने ताउम्र सिखाया , विकल्पों में से ,उचित चयन।   उसने सीखा ही था ,सुन्दर चुनना  पापा लाते ,दो बहनो की ,दो गुड़िया  नीली और काली आँखों वाली,  वो चुनती नीली आँखों वाली , अपने खातिर। गुलाबी और पीले फ्रॉक , वो चुनती गुलाबी , अपने खातिर। विवाह के लिए ,कई तस्वीरें  पर, उसके पास था ,एक राजकुमार  ” सबका विकल्प।” किन्तु, ये विकल्प नहीं भाया ,किसी को भी…  क्यूंकि, ये विकल्प लोगों ने जो नहीं दिए थे  बस, समाप्त हो गया, चुनने का क्रम  थोपा जाने लगा ,सभी कुछ।  जब कुछ दिन कुछ साल गए  नए राजकुमार ने जाना , पुराने राजकुमार का किस्सा  हाँ ! उसने किया था  ” प्रेम अपराध ” प्रारम्भ हो गया नया सफ़र.।  जैसे, इस अमावस की , सुबह कभी न होगी  प्रश्न ,प्रताड़ना ,प्रत्यारोप   ” व्याकुल प्रारब्ध ”  प्रतिदिन ,प्रतिक्षण। यूँ भी चुनने की आदत अब शेष न थी  किन्तु, ऐसे जीवन के विकल्प में , उसने चुन ही  लिया, मृत्यु को  नीली आखें ,गुलाबी फ्रॉक , गोद वाला डेढ़ बरस का गुड्डा,  सब बेमानी। आखो से बहते गर्म लहू , अब घावों को दुःख देते थे.।  आज भी भोले मन को , निश्छल सी प्रतीक्षा थी , एक विकल्प की।  काश, कोई कहता कहो क्या चाहिए , ” जीवन या मृत्यु ? ” किन्तु, जीवन हर साँस के संग , डूबने को आतुर – व्याकुल। ये अंतिम युद्ध भी कैसा था !!!!! जिसमे _____ हार -जीत का कोई विकल्प ही न था।  ”परिणाम, पूर्वघोषित ” हाँ !  क्यूंकि, ” विकल्पों का अस्तित्व “ जीवन के साथ हुआ करता है, किन्तु, जीवन का विकल्प  होकर भी  ” साथ नहीं चलता।” तुमने कहा था हाँ , तुमने कहा था  इसीलिए बस  जला दिये वो  सारे ख़त  जो तुमने भेजे थे। क्या हुआ ? गर उनमे सपने रीते थे , यादें बसती थी , सांसें रमती थी। धुआं धुआं था , मन भीगा था , बचपन  की कुछ  यादें थी , कुछ नटखट सी बातें थीं, तुम भी थे और हम भी थे। कुछ चिनगारी बन कर उड़ गए  कुछ लपटों  संग भीतर  उतरे  कुछ उड़े  तो दूर तलक थे   लौटे आकर,  गोद में गिरे   लपटे थोड़ी ठहर गयी जब  जब थोड़ी सी तन्द्रा लौटी  सारे भस्म समेटे मैंने    नहीं करेंगे तर्पण इसका  सोच लिया था . अब  तुमने जो नहीं कहा था , इसीलिए बस  हमने  तर्पण नहीं किया  जब तक  हूँ  ये संग रहेंगे  नहीं  रह सके गर तुम ,तो क्या ? हाँ , तुमने कहा था  इसीलिए बस  जला दिये वो  सारे ख़त  जो तुमने भेजे थे। .  . हाँ की वो पत्नी ही थी…!!!!!  आज अक्षर मूक था , विष्मय  था . दर्द था , चिलचिलाती धूप थी, हृदय में स्पंदन था,  किन्तु लय विलुप्त था। चारो तरफ तृष्णा थी, रस था रंग था , खरीद- फ़रोख्त थी …..संवेदनाओ की …… ज़िस्म था , बज़्म था , जीस्त थी , तश्नगी थी , अलग ही कयास थे कितभी   फिर ये कैसा शोर था ?  किसी की वेदना थी या की खोखलेपन की गूँज …? कुछ शेष था, तो बस छल था . लोग थे किन्तु प्राण हीन से . तभी एक सुबह, सड़को की धूल फाकते वक़्त मैंने सहसा उसको देखा ………!!!!! पति के कलाई में ग्लूकोज की ड्रिप थी उसके हाथो में थी ग्लूकोज की बोतल वो लटकाए पीछे चलती आज दिखी थी तलब थी बीड़ी की, खरीद रहा था ठेले से वह बस एक अनुगामिनी चिर मौन संग चली जा रही लगा था की पत्नी ही थी ….. सहचरी की….. शायद जीवनसंगिनी थी हाँ की वो पत्नी ही थी …!!!!! शिकायत   उफ्फ़ ……!!  तुम्हे तो हमेशा शिकायतें, मुझे याद है.………  जब कम बोलते थे  तुम कहते  ” कुछ कहती ही नहीं ” ” ये तो चन्दन है जंगल का ” और अब  कहते हो  ” कभी तो शांत रहा करो ” ” कितना किट किट करती हो” अब भी  तुम्हे  बस  शिकायते ही हैं  उफ्फ़….!! मगर ……… !! एक बात जो मुझे पता है , तुम्हे नहीं पता………….  कह दूँ , कह ही दूँ  अब जिस दिन मैं  न बोलूंगी  उस दिन तुम ……. तुम छोड़ दोगे………  शिकायत ही …… !! माँ ! मेरी क्या खता थी ? हम दोनों तुझसे ? ये सोच , तेरे प्यार में तुझसे , मुझको दूर कर दिया। माँ ! साल बीते तो मैंने तेरी माँ को अपनी माँ समझा और तेरे पिता को अपना पिता। माँ ! कुछ सालों  के बाद तेरी माँ ने फिर से मुझसे मेरी माँ छीन ली , ये कहकर कि , मैं  तो तेरी बेटी हूँ माँ ! मैं भीतर तक टूट गयी थी, माँ ! रद्दी  के पन्ने सा वज़ूद लगा था। पता है माँ ! तब मैंने तेरी ओर हाथ बढ़ाया था तुझको पाने को ,तुझको छूने को। पर माँ ! … Read more

मायके आई हुई बेटियाँ

मायके आई हुई बेटियाँ , फिर से अपने बचपन में लौट आती है , और जाते समय आँचल के छोर में चार दाने चावल के साथ बाँध कर ले जाती है थोडा सा स्नेह जो सुसराल में उन्हें साल भर तरल बनाये रखने के लिए जरूरी होता है |  कविता -मायके आई हुई बेटियाँ  (१ ) बेटी की विदाई के बाद  अक्सर खखोरती है माँ  बेटी के पुराने खिलौनो के डिब्बे  उलट – पलट कर देखती है  लिखी -पड़ी  गयी  डायरियों के हिस्से  बिखेरकर फिर  तहाती है पुराने दुपट्टे  तभी तीर सी  गड जाती हैं  कलेजे में   वो  गांठे  जो बेटियों के दुप्पटे पर   माँ ही लगाती आई हैं  सदियों  से  यह कहते हुए  “बेटियाँ तो सदा पराई होती हैं ”   (२ ) बेटी के मायके आने की  खबर से  पुनः खिल उठती है   बूढी बीमार माँ  झुर्री भरे हाथों से  पीसती है दाल  मिगौड़ी -मिथौरी  बुकनू ,पापड ,आचार  के सजने लगते हैं मर्तबान  छिपा कर दुखों की सलवटे  बदल देती हैं  पलंग की चादर  कुछ जोड़ -तोड़ से  खाली कर देतीं है  एक कोना अलमारी का  गुलदान में सज जाते है  कुछ चटख रंगों के फूल  भर जाती है रसोई  बेटी की पसंद के  व्यंजनों की खशबू से  और हो जाता है  सब कुछ पहले जैसा  हुलस कर मिलती चार आँखों में  छिप जाता है  एक झूठ  (३ ) मायके आई हुई बेटियाँ  नहीं माँगती हैं  संपत्ति में अपना हिस्सा  न उस दूध -भात  का हिसाब  जो चुपके से  अपनी थाली से निकालकर  रख दियाथा भाई की थाली में  न दिखाती हैं लेख -जोखा  भाई के नाम किये गए व्रतों का  न करनी होती है वसूली  मायके की उन चिंताओं की  जिसमें काटी होती हैं  कई रातें  अपलक  आसमान निहारते हुए  मायके आई हुई बेटियाँ  बस इतना ही  सुनना चाहती है  भाई के मुँह से   जब मन आये चली आना  ये घर   तुम्हारा अपना ही है  (४ ) अकसर बेटियों के  आँचल के छोर पर  बंधी रहती है एक गाँठ  जिसमें मायके से विदा करते समय माँ ने बाँध दिए थे  दो चावल के दाने    पिता का प्यार  और भाई का लाड  धोते  पटकते निकल जाते है ,चावल के दाने  परगोत्री घोषित करते हुए   पर बंधी रह जाती है  गाँठ  मन के बंधन की तरह  ये गाँठ  कभी नहीं खुलती  ये गाँठ  कभी नहीं खुलेगी  (५ ) जब भी जाती हूँ  मायके  न जाने कितने सपने भरे आँखों में  हुलस कर दिखाती हूँ  बेटी का हाथ पकड़  ये देखो  वो आम का पेड़  जिस पर चढ़कर  तोड़ते थे कच्ची अमियाँ  खाते थे डाँट  पड़ोस वाले चाचा की  ये देखो  बरगद का पेड़  जिसकी जटाओं  पर बांधा था झूला  झूलते थे  भर कर लम्बी -लम्बी पींगें  वो देखो खूँटी पर टँगी  बाबूजी की बेंत  जिसे अल -सुबह हाथो में पकड़  जाते थे सैर पर  आँखें फाड़ -फाड़ कर देखती है बिटियाँ  यहाँ -वहाँ ,इधर -उधर  फिर झटक कर मेरा  हाथ  झकझोरती है जोर से  कहाँ माँ कहाँ  कहाँ है आम का पेड़ और ठंडी छाँव  वहां खड़ी है ऊँची हवेली  जो तपती  है धूप  में  कहाँ है बरगद का पेड़  वहां तो है  ठंडी बीयर की दुकान  जहाँ झूलते नहीं झूमते हैं  और नाना जी की बेंत  भी तो नहीं वहां टंगी है एक तस्वीर  पहाड़ों की  झट से गिरती हूँ मैं पहाड़ से  चीखती हूँ बेतहाशा  नहीं है ,नहीं है  पर मुझे तो दिखाई दे रही है साफ़ -साफ़  शायद नहीं हैं  पर है …. मेरी स्मृतियों में  इस होने और नहीं होने की कसक  तोड़ देती है मुझे  टूट कर बिखर जाता है सब  फिर समेटती हूँ  तिनका -तिनका  सजा देती हूँ जस का तस  झूठ ही सही  पर !हाँ  … अब यह है  क्योंकि इसका होना  बहुत जरूरी है  मेरे होने के लिए  वंदना बाजपेयी   atoot bandhan…… हमारे फेस बुक पेज पर भी पधारे  कैंसर कच्ची नींद का ख्वाब ये इंतज़ार के लम्हे सतरंगिनी आपको “ मायके आई हुई बेटियाँ  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- maaykaa, Poetry, Poem, Hindi Poem, Emotional Hindi Poem, girl, 

सुशांत सुप्रिय की कवितायेँ

सुशांत सुप्रिय की कवितायेँ  1. खो गई चीज़ें                                वे कुछ आम-सी चीज़ें थींजो मेरी स्मृति में सेखो गई थींवे विस्मृति की झाड़ियों मेंबचपन के गिल्ली-डंडे कीखोई गिल्ली-सी पड़ी हुई थीं वे पुरानी ऐल्बम में दबेदाग़-धब्बों से भरेकुछ श्वेत-श्याम चित्रों-सी दबी हुई थींवे पेड़ों की ऊँची शाखाओं मेंफड़फड़ाती फट गईपतंगों-सी अटकी हुई थींवे कहानी सुनते-सुनते सो गएहम बच्चों की नींद मेंअधूरी-सी खड़ी हुई थींकभी-कभी जीवन की अंधी दौड़ मेंहम उनसे यहाँ-वहाँ टकरा जाते थेतब हम अपनी स्मृति केकिसी ख़ाली कोने कोफिर से भरा हुआ पाते थे …खो गई चीज़ेंवास्तव में कभी नहीं खोती हैंदरअसल वे उसी समयकिसी और जगह पर मौजूद होती हैं                           ———-०———-                             2.  स्वप्न                            ————-                                               वह एक स्वप्न थामेरी नींद मेंआना ही चाहता था किटूट गई मेरी नींदकहाँ गया होगा वह स्वप्न —भटक रहा होगा कहींया पा ली होगी उसनेकिसी की नींद में ठौरडर इस बात का है कियदि किसी की भी नींद मेंठिकाना न मिला उसे तोकहीं निराश हो करआत्म-हत्या न कर लेआज की रातएक स्वप्न                               ———-०———-                                  3. वे जो वग़ैरह थे                                ———————                                                                वे जो वग़ैरह थेवे बाढ़ में बह जाते थेवे भुखमरी का शिकार हो जाते थेवे शीत-लहरी की भेंट चढ़ जाते थेवे दंगों में मार दिए जाते थेवे जो वग़ैरह थेवे ही खेतों में फ़सल उगाते थेवे ही शहरों में भवन बनाते थेवे ही सारे उपकरण बनाते थेवे ही क्रांति का बिगुल बजाते थेदूसरी ओरपद और नाम वाले हीसरकार और कारोबार चलाते थेउन्हें भ्रम था कि वे ही संसार चलाते थेकिंतुवे जो वग़ैरह थेउन्हीं में सेक्रांतिकारी उभर कर आते थेवे जो वग़ैरह थेवे ही जन-कवियों कीकविताओं में अमर हो जाते थे …                            ———-०———-                                  4. जब तक                                —————                                                        – जब तक स्थिति परक़ाबू पानेपुलिस आती हैजल चुके होते हैंदर्जनों घर आगज़नी मेंजब तकफ़्लैग-मार्च के लिएसेना आती हैमर चुके होते हैंदर्जनों लोग दंगों मेंजब तकशांति-वार्ता कीपहल की जाती हैआ चुकी होती हैएक बड़ी दरार मनों मेंजब तकसूरज दोबाराउगता हैअँधेरा लील चुका होता हैइंसानियत को … प्रेषकः सुशांत सुप्रिय          A-5001,          गौड़ ग्रीन सिटी ,          वैभव खंड ,           इंदिरापुरम ,           ग़ाज़ियाबाद -201010          ( उ. प्र. ) मो: 8512070086 ई-मेल: sushant1968@gmail.com समस्त चित्र गूगल से                              ———-0——-––atoot -bandhan हमारे फेस बुक पेज पर भी पधारे  आपको    “सुशांत सुप्रिय की कवितायेँ      “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita