गिरीश चन्द्र पाण्डेय “प्रतीक” की कवितायें
अब रेखाएं नहीं अब तो सत्ता तक पहुचने का कुमार्ग बन चुकी हैं हर पाँच साल बाद फिर रँग दिया जाता है इन रेखाओं को अपने-अपने तरीके से अपनी सहूलियत के रँग में कभी दो गज इधर कभी दो गज उधर बनी रहती है रेखा जस की तस गिरीश चन्द्र पाण्डेय जी की कवितायें मैं तक सीमित नहीं हैं उनकी कवितायों में सामाजिक भेद भाव के प्रति गहरी संवेदनाएं हैं ….. कवि मन कई अनसुलझे सवालों के उत्तर चाहता है …. कहीं निराश होता है कहीं आशा का दामन थामता है…. आज के सन्दर्भ में स्त्री मुक्ति आन्दोलन है उसे वो भ्रमित करने वाला बताते हैं ….भ्रम में दोनों हैं स्त्री भी ,पुरुष भी ………. कही बुजुर्ग माता -पिता की विवशता दिखाती हैं …. कुल मिला कर गिरीश जी की कवितायें अनेकों प्रश्न उठाती हैं और हमारी संवेदनाओं को झकझोरती हैं गिरीश चन्द्र पाण्डेय “प्रतीक” की कवितायें ●●असमान रेखाएँ●● एक रेखा खींची है हमने अपने मनोमस्तिष्क में नाप लिया है हमने इंच दर इंच अपने पैमाने से क्या नापा और कैसे नापा हमने ये बताना मुश्किल है अगम ही नहीं अगोचर भी है वो रेखा जो खिंच चुकी है हजारों वर्ष पहले उसको मिटाने की जद्दो जहद आज कल खूब चल रही है बड़े बड़े लोग उनकी बड़ी बड़ी बातें पर काम वही छोटे सोच वही संकीर्णता के दल-दल में फँसी और धँसी हुई रेखा जस की तस और गहरी और विभत्स होती हुई और लम्बाई लेते हुए दीवार को गिराना आसान है पर दिलों में पड़ी दरार को पाटना बहुत मुश्किल जातियों वर्गों के बीच की काली रेखाएं अब रेखाएं नहीं अब तो सत्ता तक पहुचने का कुमार्ग बन चुकी हैं हर पाँच साल बाद फिर रँग दिया जाता है इन रेखाओं को अपने-अपने तरीके से अपनी सहूलियत के रँग में कभी दो गज इधर कभी दो गज उधर बनी रहती है रेखा जस की तस अपनी जगह पर हाँ कुछ वर्षौ से एक छटपटाहट देखी गयी है रेखा के आर-पार मिटाने की कवायद जारी है वर्षौ से खिंची रेखा को मिटाने लगेंगे वर्षौ ये कोई गणित के अध्यापक की रेखागणित नहीं जिसे जब चाहो वर्ग बनालो जब चाहो आयत बना लो जब कब चाओ त्रिभुज बनालो जब चाहो वृत बनालो ये तो अदृश्य है समाज के इस छोर से उस छोर तक अविकसित से विकसित तक हर जगह व्याप्ति है इसकी ये रेखाएं जल,जमीन,जंगल सब जगह इसको मिटाना ही होगा हम सबको अपने दिलों से दिमाग से समाज से आओ सब मिल संकल्प लें इस नये वर्ष में दूरियाँ कुछ कम करें ●गत को भूल स्वागत है तेरा● मुश्किल है समेटना हर पल विपल को और उस बीते हुए कल को घड़ी की सुई ही दे सकती है हिसाब और परिभाषित कर सकती है हर क्षण को मुझमें तो क्षमता है नहीं कि में लिख सकूँ उन अँधेरी रातों की आहट जिन्दगी की छटपटाहट ख्वाबों से लड़ता नौजवान इंसान को काटता इन्सान कैसे लिखूँ उस विभीषिका को जिसने लूट लिया उस विश्वास को जो था उस परम आत्मा पर उस इन्सान को इन्सान कह पाना मुश्किल है जिसने हैवानियत की हद पार कर दी हो कैसे बांचा जा सकता है सत्ता के गलियारों का स्याह पहलु कौन उकेर पायेगा उस माँ का दर्द जिसने खो दिया हो अपने लाल को और अपने सुहाग को कैसे पिघलेगा मोम सा दिल जब रौंद दिया गया हो दिल के हर कोने को बना दिया गया हो नम आंखों को सूखा रेगिस्तान कैसे होगा संगम दिलों का,सीमाओं का,जातियों का उन भावों को जो सरस्वती सी लुप्त हो चुकी नदि से हैं बहुत कुछ चीख रहा है उन पाहनों के नीचे दबा कुचला बचपन सिसक रही हैं आत्माएं अनगिनत दुराचारों की काल कोठरियों में कैसे कहूँ की में शिक्षित हो गया हूँ अभी भी अशिक्ष असंख्य मस्तिष्क हैं यहाँ डिग्रियां छप रहीं है होटलों के कमरों में बिक रहा है ईमान कौड़ी के मोल कैसे परिभाषित करूँ खुद को एक पुरुष के रूप में एक मानव के चोले में बहुत कुछ लुट चूका है वजूद भाग रहा हूँ पैसों की अंधी दौड़ में न जाने क्या पा जाऊंगा और कितनी देर के लिए कुछ पता नहीं है कुर्सी महंगी ही नहीं मौत का आसन भी है फिर भी दौड़ रहा हूँ खाई की तरफ दौड़ रहा हूँ मरुस्थल की ओर जानता हु ये मृगमरीचिका है फिर भी दौड़ रहा हूँ बुला रहा हूँ सामने खडी मौत को कैसे लिखूं उस सुबह को जिसने मुझे जगाने का प्रयास किया उस हर किरण को जिसने तमस को दूर किया उस उर्जा के पुंज को जिसने एक नव ऊर्जा का संचार किया ओह उस भविष्य को पकड नहीं सकता जो मेरे कदम से एक कदम आगे है बस उसके पीछे चल रहा हूँ रास्ते के हर मोड़ को जीते हुए जरा सम्हाल कर जरा सम्हल कर चलना है इंतजार है उस सुबह का जो एक नए उत्साह को लायेगी जिसके सहारे वक्त को जी पाऊंगा वक्त पर जो थोडा मुश्किल होगा पर ना मुमकिन नहीं ●नदी से भाव● बह रही थी नदीपाहनों से टकराते हुए,छलकते हुएकुछ ऐसे ही थे मेरे भावजो टकरा रहे थेउन बिडंबनाओं सेउन रुढियों सेजो मुझे मानव होने से रोकती हैंदेखता हूँ इस नदी की गतीजो बह रही हैअपनी चाल परपर कुछ किनारे बदल रहे थेउसकी ढालमजबूर कर रहे थेरास्ता बदलने कोजैसे मुझसे कोई कह देतेरा रास्ता तू नहींकोई और बनाएगानदी चली जा रही है।बिना किसी की परवाह करेअगले पड़ाव को पार करने की होड़हर जल बिंदु मचल रही हो जैसेसागर में समा जाने को।उस सागर मेंजहां उसका अस्तित्व ,ना के बराबर होगा।फिर भी चाहिए उसे मंजिलअपने को समर्पित कर देनाआसान नहीं हैमेरे लिए तो बिल्कुल नहींनदी का वेग बढ़ता चला गयाज्यो ज्यों घाटी नजदीक आने लगीकुछ यों ही मेरे भाव भी उतावले थेउस समतल को पाने के लिएजहाँ सब समान होंजहाँ कोई … Read more