गिरीश चन्द्र पाण्डेय “प्रतीक” की कवितायें

अब रेखाएं नहीं अब तो सत्ता तक पहुचने का कुमार्ग बन चुकी हैं हर पाँच साल बाद फिर रँग दिया जाता है इन रेखाओं को अपने-अपने तरीके से अपनी सहूलियत के रँग में कभी दो गज इधर कभी दो गज उधर बनी रहती है रेखा जस की तस गिरीश चन्द्र पाण्डेय जी की कवितायें मैं तक सीमित नहीं हैं उनकी  कवितायों में सामाजिक भेद भाव के प्रति गहरी संवेदनाएं हैं ….. कवि मन कई अनसुलझे   सवालों के उत्तर चाहता है …. कहीं निराश होता है कहीं आशा का दामन थामता है…. आज के सन्दर्भ में स्त्री मुक्ति आन्दोलन है उसे वो भ्रमित करने वाला बताते हैं ….भ्रम में दोनों हैं स्त्री भी ,पुरुष भी  ………. कही बुजुर्ग माता -पिता की विवशता दिखाती हैं …. कुल मिला कर गिरीश जी की कवितायें अनेकों प्रश्न उठाती हैं और  हमारी संवेदनाओं को झकझोरती हैं  गिरीश चन्द्र पाण्डेय “प्रतीक” की कवितायें                           ●●असमान रेखाएँ●● एक रेखा खींची है हमने अपने मनोमस्तिष्क में नाप लिया है हमने इंच दर इंच अपने पैमाने से क्या नापा और कैसे नापा हमने ये बताना मुश्किल है अगम ही नहीं अगोचर भी है वो रेखा जो खिंच चुकी है हजारों वर्ष पहले उसको मिटाने की जद्दो जहद आज कल खूब चल रही है बड़े बड़े लोग उनकी बड़ी बड़ी बातें पर काम वही छोटे सोच वही संकीर्णता के दल-दल में फँसी और धँसी हुई रेखा जस की तस और गहरी और विभत्स होती हुई और लम्बाई लेते हुए दीवार को गिराना आसान है पर दिलों में पड़ी दरार को पाटना बहुत मुश्किल जातियों वर्गों के बीच की काली रेखाएं अब रेखाएं नहीं अब तो सत्ता तक पहुचने का कुमार्ग बन चुकी हैं हर पाँच साल बाद फिर रँग दिया जाता है इन रेखाओं को अपने-अपने तरीके से अपनी सहूलियत के रँग में कभी दो गज इधर कभी दो गज उधर बनी रहती है रेखा जस की तस अपनी जगह पर हाँ कुछ वर्षौ से एक छटपटाहट देखी गयी है रेखा के आर-पार मिटाने की कवायद जारी है वर्षौ से खिंची रेखा को मिटाने लगेंगे वर्षौ ये कोई गणित के अध्यापक की रेखागणित नहीं जिसे जब चाहो वर्ग बनालो जब चाहो आयत बना लो जब कब चाओ त्रिभुज बनालो जब चाहो वृत बनालो ये तो अदृश्य है समाज के इस छोर से उस छोर तक अविकसित से विकसित तक हर जगह व्याप्ति है इसकी ये रेखाएं जल,जमीन,जंगल सब जगह इसको मिटाना ही होगा हम सबको अपने दिलों से दिमाग से समाज से आओ सब मिल संकल्प लें इस नये वर्ष में दूरियाँ कुछ कम करें                                              ●गत को भूल स्वागत है तेरा● मुश्किल है समेटना हर पल विपल को और उस बीते हुए कल को घड़ी की सुई ही दे सकती है हिसाब और परिभाषित कर सकती है हर क्षण को मुझमें तो क्षमता है नहीं कि में लिख सकूँ उन अँधेरी रातों की आहट जिन्दगी की छटपटाहट ख्वाबों से लड़ता नौजवान इंसान को काटता इन्सान कैसे लिखूँ उस विभीषिका को जिसने लूट लिया उस विश्वास को जो था उस परम आत्मा पर उस इन्सान को इन्सान कह पाना मुश्किल है जिसने हैवानियत की हद पार कर दी हो कैसे बांचा जा सकता है सत्ता के गलियारों का स्याह पहलु कौन उकेर पायेगा उस माँ का दर्द जिसने खो दिया हो अपने लाल को और अपने सुहाग को कैसे पिघलेगा मोम सा दिल जब रौंद दिया गया हो दिल के हर कोने को बना दिया गया हो नम आंखों को सूखा रेगिस्तान कैसे होगा संगम दिलों का,सीमाओं का,जातियों का उन भावों को जो सरस्वती सी लुप्त हो चुकी नदि से हैं बहुत कुछ चीख रहा है उन पाहनों के नीचे दबा कुचला बचपन सिसक रही हैं आत्माएं अनगिनत दुराचारों की काल कोठरियों में कैसे कहूँ की में शिक्षित हो गया हूँ अभी भी अशिक्ष असंख्य मस्तिष्क हैं यहाँ डिग्रियां छप रहीं है होटलों के कमरों में बिक रहा है ईमान कौड़ी के मोल कैसे परिभाषित करूँ खुद को एक पुरुष के रूप में एक मानव के चोले में बहुत कुछ लुट चूका है वजूद भाग रहा हूँ पैसों की अंधी दौड़ में न जाने क्या पा जाऊंगा और कितनी देर के लिए कुछ पता नहीं है कुर्सी महंगी ही नहीं मौत का आसन भी है फिर भी दौड़ रहा हूँ खाई की तरफ दौड़ रहा हूँ मरुस्थल की ओर जानता हु ये मृगमरीचिका है फिर भी दौड़ रहा हूँ बुला रहा हूँ सामने खडी मौत को कैसे लिखूं उस सुबह को जिसने मुझे जगाने का प्रयास किया उस हर किरण को जिसने तमस को दूर किया उस उर्जा के पुंज को जिसने एक नव ऊर्जा का संचार किया ओह उस भविष्य को पकड नहीं सकता जो मेरे कदम से एक कदम आगे है बस उसके पीछे चल रहा हूँ रास्ते के हर मोड़ को जीते हुए जरा सम्हाल कर जरा सम्हल कर चलना है इंतजार है उस सुबह का जो एक नए उत्साह को लायेगी जिसके सहारे वक्त को जी पाऊंगा वक्त पर जो थोडा मुश्किल होगा पर ना मुमकिन नहीं                                                  ●नदी से भाव● बह रही थी नदीपाहनों से टकराते हुए,छलकते हुएकुछ ऐसे ही थे मेरे भावजो टकरा रहे थेउन बिडंबनाओं सेउन रुढियों सेजो मुझे मानव होने से रोकती हैंदेखता हूँ इस नदी की गतीजो बह रही हैअपनी चाल परपर कुछ किनारे बदल रहे थेउसकी ढालमजबूर कर रहे थेरास्ता बदलने कोजैसे मुझसे कोई कह देतेरा रास्ता तू नहींकोई और बनाएगानदी चली जा रही है।बिना किसी की परवाह करेअगले पड़ाव को पार करने की होड़हर जल बिंदु मचल रही हो जैसेसागर में समा जाने को।उस सागर मेंजहां उसका अस्तित्व ,ना के बराबर होगा।फिर भी चाहिए उसे मंजिलअपने को समर्पित कर देनाआसान नहीं हैमेरे लिए तो बिल्कुल नहींनदी का वेग बढ़ता चला गयाज्यो ज्यों घाटी नजदीक आने लगीकुछ यों ही मेरे भाव भी उतावले थेउस समतल को पाने के लिएजहाँ सब समान होंजहाँ कोई … Read more

राधा क्षत्रिय की कवितायेँ

      प्रेम मानव मन का सबसे  खूबसूरत अहसास है प्रेम एक बहुत ही व्यापक शब्द है इसमें न जाने कितने भाव तिरोहित होते हैं ये शब्द जितना साधारण लगता है उतना है नहीं इसको समझ पाना  और शब्दों में उतार पाना आसान नहीं है फिर भी यही वो मदुधुर अहसास है  जो  जीवन सही को अर्थ देता है, आज हम अटूट बंधन पर राधा क्षत्रिय जी  प्रेम  विषय पर लिखी हुई कवितायेँ  पढ़ेंगे   फ़र्क  मोहब्बत ओर इबादत में, फ़र्क बस इतना जाना है! मोहब्बत में खुद को खोकर चाहत को पाना है, इबादत में खुद को खोकर, पार उतर जाना है!  तन्हाईयाँ तुमसे मिलने के बाद, तन्हाईयों से, प्यार हो गया हमें—- जहाँ सिवा तुम्हारे, और मेरे ,कोई नहीं आता—— बूँदों का संगीत बारिश का तो, बहाना है, तुम्हारे ओर करीब , आना है! रिम-झिम गिरती, बूंदों का, संगीत बडा, सुहाना है! तुम साथ, हो मेरे, मुझे अंर्तमन तक, भीग जाना है ! ख्वाब  सारी रात वो मुझको  ख्वावों में बुना करता है और हर सुबह एक नयी ग़जल लिखा करता है “निगाहें” जब पहली बार उनसे  निगाहें मिलीं पता  नहीं क्या हुआ हमने शरमा कर पलकें झुका ली जब हमने पलकें उठाई तो वो एकटक हमें ही देखे जा रहे थे और जब निगाहें निगाहों से मिली हम अपना दिल  हार गये पता नहीं क्या जादू कर दिया था उन्होने हम पर हमें तो पूरी दुनीयाँ  बदली-बदली नजर  आने लगी फ़िर महसूस हुआ बिना उनके प्यार  के जिदंगी कितनी अधूरी थी… ” दिल”  जब तन्हाँ बैठे तो तुम्हारा ख्याल आया और दिल आया हमारी नजरों की ओस  से भीगी यादें दर -परत-दर खुलती चली गई और दिल भर आया जो अफ़साने अंजाम  तक न पहूँचें और दिल में दफ़न हो गये जेहन में दस्तक दे उठे वो एहसास फ़िर मचल उठे और दिल भर आया बहुत कोशिश की दिल के बंद दरवाजे न खोलें पर नाकाम रहे जो वादा तुमसे किया था वो टूट गया और दिल भर आया— हमसफ़र  तुम हमसफर क्या बने जहाँ भर की खुशियाँ हमार नसीब बन गयीं जिदंगी फूलों की  खुशबू की तरह  हसीन ,साज पर छिड़े संगीत की तरह सुरीली तितलीयों के पंखों जितनी रंगीन बन गई उस पर तुम्हारी बेपनाह मोहब्बत हमारा नसीब बन गई. रात एक हसीन ख्बाब  की तरह चाँद तारों से सज गई. हवाओं में तुम्हारे प्यार की खुशबू बिखर गई हम पर तुम्हारी  मोहब्बत का नशा इस कदर छा गया हमने खुदा को भी भुला दिया और तुम्हें अपना खुदा बना लिया तुम्हारी चाहत ही  हमारी इबादत  बन गई— रिश्ते  प्यार और रिश्तों का तो, जन्म से ही साथ होता है ! वक्त की आँच पर तपकर, ये सोने की तरह निखर उठता है! पर कुछ रिश्ते , सब से जुदा होते हैं ! इन्हें किसी संबधों में, परिभाषित नहीं किया जा सकता ! इनका संबध तो सीधा , अंर्तमन से होता है ! ये तो मन की डोर से , बँधे होते हैं ! अपनेपन का एहसास इनमें, फूलों सी ताजगी भर देता है ! ऊपर वाले से माँगी हुई, हर दुआ जैसे, जो हौंसलों का दामन , हमेशा थामके रखते हैं ! और उनकी माँगी हुई दुआओं पर, खुदा भी नज़रे -इनायत करता है ! और मांझी विपरीत बहाव में भी, नाव चलाने का साहस कर लेता है !    प्यार के पंख  मेरी ख्वाईशें क्यों , इस कदर मचल रही हैं! जैसे कोई बरसाती नदिया! जो तोड़ अपने तटों को, तीव्र गति से, बहना, चाहती हो! हृदय सरिता , प्यार की बर्षा से तट तक , भर गयी है! सरिता का जल, रोशनी से झिलमिल और हवा से छ्प-छप कर रहा है! अरमानों को पंख, लग गये हैं! मन पूरा अंबर , बाँहों मैं, लेने को आतुर है! दिल की धड़कनें, बेकाबू हो, मचल रही हैं! लगता है मेरी, ख्वाईशों मैं, तुम्हारे प्यार के पंख लग गये हैं! … भूल  हमने उनको इस कदर  टूटकर चाहा कि खुद  को ही भूल गये अगर हमें पता होता  किसी को चाहना हमें हमसे जुदा  कर देगा तो हम भूल से भी ये भूल न करते पर जब भूल  से ये भूल हो गयी तो इस भूल की सजा भी हमको ही मिली अब तो ये आलम हे  कि आईने में भी अपनी पहचान  भूल गये बस उनकी ही सूरत  हमारी आँखों में है और हम उनकी  आँखों में खो गये सर्वप्रथमप्रकाशित रचना..रिश्तों की डोर (चलते-चलते) ।  स्त्री, धूप का टुकडा , दैनिक जनपथ हरियाणा ।  ..प्रेम -पत्र.-दैनिक अवध  लखनऊ । “माँ” – साहित्य समीर दस्तक वार्षिकांक।  जन संवेदना पत्रिका हैवानियत का खेल,आशियाना, करुनावती साहित्य धारा ,में प्रकाशित कविता – नया सबेरा. मेघ तुम कब आओगे,इंतजार. तीसरी जंग,साप्ताहिक ।  १५ जून से नवसंचार समाचार .कॉम. में नियमित ।  “आगमन साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समूह ” भोपाल के तत्वावधान में साहित्यिक चर्चा कार्यक्रम में कविता पाठ ” नज़रों की ओस,” “एक नारी की सीमा रेखा” आगमन बार्षिकांक काव्य शाला में कविता प्रकाशित​.. आपको    “राधा क्षत्रिय की कवितायेँ     “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita

भावनाएं

                                                                     स्त्री या पुरुष दोनों को कहीं न कहीं यह शिकायत रहती है कि अगला उनकी भावनाएं नहीं समझ पा रहा है …… यह भावनाएं कहाँ पर आहत हैं यह समझने के लिए हम दो स्त्री ,दो पुरुष स्वरों को एक साथ लाये हैं ….. आप भी पढ़िए अटूट बंधन पर आज :भावनाएं (स्त्री और पुरुष की )  एक इच्छा  अनकही  सी …. किरण आचार्य  तुम …. दीपक गोस्वामी  तुम मेरे साथ हो …..डिम्पल गौर  ढूढ़ लेते हैं …..डॉ  गिरीश चन्द्र पाण्डेय  एक इच्छा अनकही सी आज फिर गली से निकलाऊन की फेरी वालासुहानें रंगों के गठ्ठर सेचुन ली है मैनेंकुछ रंगों की लच्छियाँएक रंग वो भीतुम्हारी पसंद कातुम पर खूब फबता है जोबैठ कर धूप मेंपड़ोसन से बतियाते हुए भीतुम्हारे विचारों में रतअपने घुटनों पर टिकाहल्के हाथ से हथेली पर लपेटहुनर से अपनी हथेलियों कीगरमी देकर बना लिए हैं गोलेफंदे फंदे में बुन दिया नेहतुम्हारी पसंद के रंग का स्वेटरटोकरी में मेरी पसंदके रंग का गोला पड़ाबाट देखता है अपनी बारी कीऔर मैं सोचती हूँअपनी ही पसंद काक्या बुनूँकोई नहीं रोकेगाकोई कुछ नहीं कहेगापर खुद के लिए ही खुद ही,,,एक हिचक सीपर मन करता हैकभी तो कोई बुनेमेरी पसंद के रंग के गोलेलो फिर डाल दिए हैनए रंग के फंदेटोकरी में सबसे नीचेअब भी पड़ा हैंमेरी पसंद के रंग का गोलालेखिका किरन आचार्यआक्समिक उद्घोषकआकाशवाणीचित्तौड़गढAdd – B-106 प्रतापनगर चित्तौड़गढ (राज.)               तुम जब भी सोचता हूँ तुम्हारे बारे में भावनाएं एक कविता कहती है कभी निर्झर हो गिरते है आवेश मेरे तो कभी मुझसे तुम तक तुमसे मुझ तक एक अछूती, अनदेखी शांत सरिता बहती है। जब भी सोचता हूँतुम्हारे बारे में भावनाएं एक कविता कहती है अक्सर घंटो बतियाते है आवेग मेरे दिनों तक निर्वात रखता है व्यस्त मुझे महीनों में खुद के हाथ नही आता वर्षो मेरे अस्तित्व की संभावनाएं वनवास सहती है जब भी सोचता हूँतुम्हारे बारे में भावनाएं एक कविता कहती है। दीपक गोस्वामी  कविता –तुम मेरे साथ हो —————————–यादों के झरोंखों में देखूं तोतुम बस तुम ही नजर आते होकुछ खोए खोए गुमसुम सेनजर आते होकोलाहल के हर शोर मेंस्वर तुम्हारे सुनते हैंरेत के बने घरोंदों मेंनिशाँ तुम्हारे दीखते हैंहर विशाल दरख्त की छायाअहसास तुम्हारा कराती हैतुम हो मेरे आसपास हीमन में यही आसजगाती है——————————-–—————————डिम्पल गौर ‘ अनन्या ‘  ●●●●●●●ढूँढ़ लेते हैं●●●●●●●●● बहुत कमियाँ हैं मुझमें,आजा ढूँढ लेते हैंबहुत खामियाँ हैं मुझमें,आजा ढूँढ़ लेते हैं कोई चाहिए मुझे, जो बदल दे मेरी जिन्दगीबहुत गुत्थियाँ हैं मुझमें,आजा खोल लेते हैं आज तक जो मिला,बस आधा ही मिला हैबहुत खूबियाँ हैं मुझमें,आजा खोज लेते हैं जो दिखता हूँ मैं,वो अक्सर  होता ही नहींबहुत दूरियाँ हैं मुझमें,आजा कम कर लेते हैं चाँद भी कहाँ पूरा है बहुत दाग देखे हैं मैंनेबहुत कमियाँ हैं मुझमें,प्रतीक मान लेते हैं डॉ गिरीश चन्द्र पाण्डेय प्रतीकडीडीहाट पिथोरागढ़ उत्तराखंडमूल-बगोटी ,चम्पावत09:57am//07//12//14रविबार आपको    ”  भावनाएं    “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita

अरविन्द कुमार खेड़े की कवितायेँ

                    अरविन्द जी की कविताओं में एक बेचैनी हैं ,जहाँ वो खुद को व्यक्त करना चाहते हैं।  वही उसमें एक पुरुष की समग्र दृष्टि पतिबिम्बित होती है ,”छोटी -छोटी खुशियाँ “में तमाम उत्तरदायित्वों के बोझ तले  दबे एक पुरुष की भावाभिव्यक्ति है. बिटिया में  सहजता से कहते हैं की बच्चे ही माता -पिता को  वाला सेतु होते हैं। ………कुल मिला कर अपनी स्वाभाविक शैली में वो  कथ्य को ख़ूबसूरती से व्यक्त कर पाते हैं। आइये आज “अटूट बंधन” पर पढ़े अरविन्द खड़े जी की कविताएं ……………   अरविन्द कुमार खेड़े की कवितायेँ    1-कविता–पराजित होकर लौटा हुआ इंसान —————————————— पराजित होकर लौटे हुए इंसान की कोई कथा नहीं होती है न कोई किस्सा होता है वह अपने आप में एक जीता–जागता सवाल होता है वह गर्दन झुकाये बैठा रहता है घर के बाहर दालान के उस कोने में जहॉ सुबह–शाम घर की स्त्रियां फेंकती है घर का सारा कूड़ा–कर्कट उसे न भूख लगती न प्यास लगती है वह न जीता है न मरता है जिए तो मालिक की मौज मरे तो मालिक का शुक्रिया वह चादर के अनुपात से बाहर फैलाये गए पाँवों की तरह होता है जिसकी सजा भोगते हैं पांव ही.                        2-कविता–तुम कहती हो कि….. ——————————— तुम कहती हो कि तुम्हारी खुशियां छोटी–छोटी हैं ये कैसी छोटी–छोटी हैं खुशियां हैं जिनकी देनी पड़ती हैं मुझे कीमत बड़ी–बड़ी कि जिनको खरीदने के लिए मुझे लेना पड़ता है ऋण चुकानी पड़ती हैं सूद समेत किश्तें थोड़ा आगा–पीछा होने पर मिलते हैं तगादे थोड़ा नागा होने पर खानी पड़ती घुड़कियां ये कैसी छोटी–छोटी हैं खुशियां हैं कि मुझको पीनी पड़ती है बिना चीनी की चाय बिना नमक के भोजन और रात भर उनींदे रहने के बाद बड़ी बैचेनी से उठना पड़ता है अलसुबह जाना पड़ता है सैर को ये कैसी छोटी–छोटी हैं खुशियां हैं कि तीज–त्योहारों उत्सव–अवसरों पर मैं चाहकर भी शामिल नहीं हो पाता हूँ और बाद में मुझे देनी पड़ती है सफाई गढ़ने पड़ते हैं बहानें प्रतिदान में पाता हूँ अपने ही शब्द ये कैसी छोटी–छोटी हैं खुशियां हैं कि बंधनों का भार चुका  नहीं पाता हूँ दिवाली आ जाती है एक खालीपन के साथ विदा देना पड़ता है साल को और विरासत में मिले नए साल का बोझिल मन से करना पड़ता है स्वागत भला हो कि होली आ जाती है मेरे बेनूर चेहरे पर खुशियों के रंग मल जाती है उन हथेलियों की गर्माहट को महसूसता हूँ अपने अंदर तक मुक्त पाता हूँ अपने आप को अभिभूत हो उठता हूँ तुम्हारे प्रति कृतज्ञता से भार जाता हूँ शुक्र है मालिक कि तुम्हारी खुशियां छोटी–छोटी हैं                                               3-कविता–जब भी तुम मुझे ————————- जब भी तुम मुझे करना चाहते हो जलील जब भी तुम्हें जड़ना होता है मेरे मुंह पर तमाचा तुम अक्सर यह कहते हो– मैं अपनी हैसियत भूल जाता हूँ भूल जाता हूँ अपने आप को और अपनी बात के उपसंहार के ठीक पहले तुम यह कहने से नहीं चुकते– मैं अपनी औक़ात भूल जाता हूँ जब भी तुम मुझे नीचा दिखाना चाहते हो सुनता हूँ इसी तरह उसके बाद लम्बी ख़ामोशी तक तुम मेरे चेहरे की ओर देखते रहते हो तौलते हो अपनी पैनी निगाहों से चाह कर भी मेरी पथराई आँखों से निकल नहीं पाते हैं आंसू अपनी इस लाचारी पर मैं हंस देता हूँ अंदर तक धंसे तीरों को लगभग अनदेखा करते हुए तुम लौट पड़ते हो अगले किसी उपयुक्त अवसर की तलाश में. 4-कविता–उस दिन…उस रात…… ——————————– उस दिन अपने आप पर बहुत कोफ़्त होती है बहुत गुस्सा आता है जिस दिन मेरे द्वार से कोई लौट जाता है निराश उस दिन मैं दिनभर द्वार पर खड़ा रहकर करता हूँ इंतजार दूर से किसी वृद्ध भिखारी को देख लगाता हूँ आवाज देर तक बतियाता हूँ डूब जाता हूँ लौटते वक्त जब कहता है वह– तुम क्या जानो बाबूजी आज तुमने भीख में क्या दिया है मैं चौंक जाता हूँ टटोलता हूँ अपने आप को इतनी देर में वह लौट जाता है खाली हाथ साबित कर जाता है मुझे कि मैं भी वही हूँ जो वह है उस दिन अपने आप पर…… उस रात मैं सो नहीं पाता हूँ दिन भर की तपन के बाद जिस रात चाँद भी उगलता है चिंगारी खंजड़ी वाले का करता हूँ इंतजार दूर से देख कर बुलाता  हूँ करता हूँ अरज– ओ खंजड़ी वाले आज तो तुम सुनाओ भरथरी दहला दो आसमान फाड़ दो धरती धरा रह जाये प्रकृति का सारा सौंदर्य वह एक लम्बी तान लेता है दोपहर में सुस्ताते पंछी एकाएक फड़फड़ा कर मिलाते है जुगलबंदी उस रात…….                          ५ बिटिया ——– बिटिया मेरी, सेतु है, बांधे रखती है, किनारों को मजबूती से, मैंने जाना है, बेटी का पिता बनकर, किनारे निर्भर होते हैं, सेतु की मजबूती पर.                            –अरविन्द कुमार खेड़े. ——————————————————————————————— 1-परिचय… अरविन्द कुमार खेड़े  (Arvind Kumar Khede) जन्मतिथि–  27 अगस्त 1973 शिक्षा–  एम.ए. प्रकाशित कृतियाँ– पत्र–पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित सम्प्रति–प्रशासनिक अधिकारी लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग मध्य प्रदेश शासन. पदस्थापना–कार्यालय मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी, धार, जिला–धार म.प्र. पता– 203 सरस्वती नगर धार मध्य प्रदेश. मोबाईल नंबर– 9926527654 ईमेल– arvind.khede@gmail.com  आत्मकथ्य– ”न मैं बहस का हिस्सा हूँ…न मुद्दा हूँ….मैं पेट हूँ….मेरा रोटी से वास्ता है….” ……………………………………………………………………………………………………………. आपको    ”  अरविन्द कुमार खेड़े की कवितायेँ   “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita

रूचि भल्ला की कवितायेँ

जब मुझे लगता है कि किसी बात पर अपने तरीके से कुछ कहना चाहिए तो मेरी लेखनी चल जाती है और कोरे कागज़ पर कविता की सूरत में बदल जाती है।मेरे लिए कविता दुखों से साक्षात्कार और सुखों से अनुभव है।सांसारिक, राजनैतिक, प्राकृतिक और मानसिक संवेदनाओं की अभिव्यक्ति से शब्द पुंज का सृजन करना ही मेरे लिए कविता लिखना है।…. रूचि भल्ला  रूचि भल्ला  की कवितायेँ  1) महानगर में हाईटेक सोसायटी में 11वें माले पर एक मौत हो जाती है और खबर दिखती है लिफ़्ट के दरवाज़े पर लिखे एक नोटिस में न रोना-धोना न चीख-चिल्लाहट राम नाम सत्य की कोई गूँज नहीं चार कंधों की भी दरकार नहीं शव-वाहिका चुपचाप आती है और लाश बिना किसी को डिस्टर्ब किए सोसायटी से बाहर हो जाती है। २.…… आदमी जब तलक जंगल में रहा आदमी रहा जंगल से बाहर क्या निकला उसने खो दी अपनी आदमीयत और अब वो पहचाना जाता है सभ्य-शिष्ट समाज में हिन्दू -मुस्लमां के तौर पर दूर खड़ा जंगल ये सब देख कर मुस्कराता है और इतराने लगता है अपने जंगली पंछी -जानवरों की मासूमियत पर                                                     3) आई जब मेरी विदा की बेला मेरी थाली – मेरी कुर्सी को मैंने सूनी होते हुए देखा मनी -प्लांट मेरी बेगनवेलिया को खुद से लिपटते देखा जाते-जाते जो भाग कर गयी मिलने गंगा-जमुना से उन आँखों में उतर आया एक और दरिया देखा चौक की गलियां सिविल लाइन्स की सड़कें स्कूल का चौराहा मेरा मोहल्ला सबको मैंने खूब पुकारा मैं रोती रही बेतरह कभी माँ के गले लग कभी सहेलियों के संग जो मुड़ कर देखा शहर को दूर तलक मैंने हाथ हिलाते देखा 4) कैंसर के साथ हुई लड़ाई के बाद ——————————————– श्रद्धांजलि में लोग बहुत थे हाॅल चहल-पहल से भरा हुया रंग-बिरंगे फूलों से सजा हुया हर चेहरे पर मुस्कुराहट थी खास तौर से वो एक चेहरा अपने फ़ोटो- फ़्रेम में सबसे ज़्यादा मुस्कराहट बिखेरता हुया पत्नी व्यस्त थी मिलने-जुलने वालों के स्वागत में बच्चे सब से कह रहे थे मेरे पिता की मृत्यु नहीं हुई उनका Transition हुया है हाॅल भी सब देख रहा था सुन रहा था और सबसे हाथ जोड़ कर विनती कर रहा था मुस्कराते रहिए ये शोक सभा नहीं है।                                              5) जीसस ————- काश ! कि कोई अपना तुम्हें भी मिल जाता जो उतारता घड़ी भर को तुम्हारे कंधे से सलीब रख देता उतार कर तुम्हारे सर से काँटों का ताज करता तुम्हारे ज़ख्मों की मरहम-पट्टी और पूछता प्यार से तुम्हारा भी हाल काश ! इतनी बड़ी दुनिया में कहीं किसी कोने में मिल जाता तुम्हें तेरी फ़िक्र में डूबा बैठा एक अदद आदमी 6) दीवार पर छिपकली देखते ही एक भय हममें उतर आता है खूब जानते हैं हम हमें इससे कोई खतरा नहीं बस घृणा ही है और इस खातिर इस निरीह जीव को मार दिया जाता है नाहक इसके जीवन का अंत कर दिया जाता है।                                                     7) जब वो आती है सुबह -सवेरे मुझे दिक्कत होने लगती है चाय – नाश्ता बनाने में उसकी निगाह नहीं होती है गैस के चूल्हे की तरफ़ जूठे बर्तनों में ही उलझी रहती है पर मैं बचती रहती हूँ उससे मिलाने में अपनी नज़र कभी तवे पर अंडा फ्राई करते हुए परांठे पर घी ……….. दूध में बॉर्नवीटा मिलाते हुए नहीं मिला सकती उससे नज़र और जल्द से जल्द निकल आती हूँ रसोई से उसे नाश्ते की प्लेट थमा कर 8) उम्र की सीढ़ी जो नीचे उतरती तो दौड़ कर मिल आती अपने बचपन से खरीदती रंग-बिरंगे पाॅपिन्स उड़ाती हवा में गुब्बारे तैराती पानी में कागज़ की नाँव रटती ज़ोर से पहाड़े सहेजती काॅपी – किताबें जाती फ़िर से स्कूल पहन कर अपनी यूनिफ़ाॅर्म                                               9) फुटपाथ पर सो जाते हैं थक- हार कर वे मैले -कुचैले जो दिन भर लिए हाथ में कटोरे दौड़ती-भागती गाड़ियों के पीछे देते हैं अपनी गूंगी दस्तक वे हर बार वहीं लाल बत्ती चौराहे पर मिल जाते हैं वे पात्र हैं हमारी नई-पुरानी कवितायों के हम उन पर लिखते हैं खूब छपते हैं और वे हमें देने के लिए अनगिनत कवितायें खुद चौराहे पर खड़े रह जाते हैं 10) राजपथ को गयी लड़की…… पीपल का पेड़ रहता होगा उदास तेरे घर की खिड़की को रहती होगी तेरे आने की आस छत पर टूट-टूट कर बिखरती होगी धूप की कनी जहाँ तुम खेला करती थी नंगे पाँव चाँद को आती होगी तुम्हारी याद घर का कोना होगा खाली तुम्हारे होने के लिए एक रात मेरी नींद में उतर कर मेरे राष्ट्राध्यक्ष ने बतलाया तारकोल का काला – कलूटा राजपथ रोता रहा कई दिन कई रात तुम्हें निगलने के बाद – रुचि भल्ला नाम :रुचि भल्ला जन्म :25 फरवरी 1972 प्रकाशन: विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में  कवितायें प्रकाशित प्रसारण : इलाहाबाद -पुणे आकाशवाणी से कवितायें प्रसारित ई. मेल ruchibhalla72@gmail.com आपको    ”  रूचि भल्ला की कवितायें    “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita

काहे को ब्याही …. ओ बाबुल मेरे

                                  विवाह जन्म -जन्मान्तर का रिश्ता होता है ………पर गरीबी दहेज़ की कुप्रथा और कहीं न कहीं कन्या को बोझ मानने की प्रवत्ति विवश कर देती है बाबुल को अपनी लाडली का हाथ उन हांथों में………..जहाँ विवाह के बाद नहीं लिखी जाती है प्रेम की स्वर्ण -गाथा अपतु समझोता दर समझौता जीवन जिया जाने लगता है मात्र जीने के लिए ……………..बेटियाँ जानती है पिता की विवशता ,चढ़ती हैं डोलियाँ आँखों के आंसूओं में छिपाए यक्ष प्रश्न ……….मात्र हाथ पीले करने के किये “काहे को ब्याही विदेश “और पिता अपने  आँखों में आंसूओं में छिपा लेते है ………..ज़माने भर के दर्द   काहे को ब्याही—–ओ बाबुल मेरे                                                       बाबुल   मैं ही तो थी तुम्हारे  आँगन की चिरइया  फुदकती मुंडेर पर चुगती दाना ची -ची की सरगम छेड़ कर  गुंजायमान करती  उस  घर का हर कोना -कोना जहाँ मेरे जन्म के साथ ही  तय कर दिया था  समाज ने  किसको मिलेगा मुझे डोली  और अर्थी में बिठाने का अधिकार  आज विदाई  की बेला में  लाल साडी  लाल चुनर  एडी महावर  और हांथों की मेहँदी में  अपना बचपन समेटे  जा रही हूँ  आखों के आँसूंओ  में  छिपाए एक यक्ष प्रश्न मुझे बोझ समझ   येन केन प्रकारेण केवल हाथ पीले करने के लिए  काहे को ब्याही ………ओ बाबुल मेरे  ?                                                   १  बाबुल  मैं ही तो थी  तुम्हारी मुनमुन  उम्र ही क्या थी मेरी  खड़ी किशोरावस्था की देहरी पर  देखे थे मात्र पंद्रह वसंत  अपरिपक्व तन ,अपरिपक्व मन  नहीं जानती   विवाह का अर्थ  हर ले गए  मेरा बाल मन  मात्र नए गहने व् कपडे जब आप ने  सौप दिया  मेरा हाथ  चालीस वर्षीय विधुर के हाथ  जिसे नहीं चाहिए थी जीवन संगिनी  चाहिए थी कच्ची कली  मात्र रौंदने को पवित्र अग्नि और मंत्रोच्चार के मध्य  बन बैठी मैं  दो किशोर संतानों की माँ  और पड गए  बचपन से सीधे अधेडावस्था में कदम  आज विदा हो रही हूँ   आँखों में आँसूओ  में   छिपाए यक्ष प्रश्न  ?                                                           २………. बाबुल  मैं ही तो थी  तुम्हारी नफीसा  अपनी छ :बहनों में सबसे  बड़ी  पाक जिस्म में समेटे  पाक रूह  जली थी तिल -तिल  गरीबी की आँच  में सबके साथ   फांके कर काटे थे  मुफलिसी के दिन  नहीं की थी उफ़ ! टाट -पट्टी पर सोकर  पैबंद लगे फ्रॉक पहनकर  जब सौप दिया  तुमने मेरा हाथ  दूर देश में  अरब के शेख के हाथ  जिसकी कई बीबियों के मध्य  बन कर रह जाऊँगी  बस एक संख्या  जो तालाशेगा मुझमें  खजुराहो का बेजान सौन्दर्य  और  सिसकेगी मेरी पाक रूह  तुम  भले ही छिपा लो  नोटों की गड्डी में  गरीबी ,लाचारी से उपजी बेरहमी  पर मैं  आज विदा हो रही हूँ   आँखों में आँसूओ  में   छिपाए  यक्ष प्रश्न  ?                                                    ३  बाबुल  मैं ही तो थी  तुम्हारी लाडो  जिसके मन में बोये थे तुमने  अनगिनत सपने  समझाया था असंभव नहीं है  इन्द्रधनुष को छू  लेना  फिर क्यों कुंडलियों के फेर में  राहू ,केतू और मंगल बिठाते -बिठाते  जब पड़ गए तुम्हारे पैर में छाले  तो थक हार कर  सौप दिया मेरा हाथ  वहाँ  जहाँ गुनाह है स्त्री -शिक्षा  परम्पराओं और वर्जनाओं की कब्रों में  दफ़न है औरतों के स्वप्न  जहाँ घूँघट  में ही देखना है आसमान  घर का मुख्य द्वार है  लक्ष्मण -रेखा  जिसको पार करके  कभी वापस नहीं आ पाती है सीता   विवाह के अग्नि -कुंड में  जला अपने स्वप्नों की चिता  आज विदा हो रही हूँ   आँखों में आँसूओ  में   छिपाए  यक्ष प्रश्न  ?                                                   ४  बाबुल  मैं ही तो थी तुम्हारी चंदनियां  जिसके स्यामल मुख चन्द्र पर  बचपन की महामारी ने  सजा दिए थे कई सितारे  जिन्हें धोने के लिए  मैं इकठ्ठी करती रही  डिग्रियों पर डिग्रियाँ और गृहकार्य -दक्षता के प्रमाण पत्र  सुनती रही समाज के ताने  सत्ताईस बरस की  “लड़की घर बैठी है “ झेलती रही एक के बाद एक अपने रंग -रूप की अवहेलना के दंश  मुझ वस्तु को देखने आने वाले  भावी वर -परिवारों द्वारा    तभी  किंचित अपनी बैठी नाक को खड़ा करने के लिए  तुमने सौप ही  दिया मेरा हाथ  एक अंगूठा छाप के हाथ  जिसकी रगीन शामें कटती हैं  पान की दुकानों पर पीक थूकते  चौराहों पर गुंडागर्दी करते  जिसे चाहिए  ऐसी पत्नी  जो ना करे कोई प्रश्न  अपनी काली छाया समेटे  बस निभाये कर्तव्य  अपने रूप -रंग के तिरिस्कार के साथ  आज विदा हो रही हूँ   आँखों में आँसूओ  में   छिपाए  यक्ष प्रश्न ?                                                           ५  बाबुल  मैं ही तो थी  तुम्हारी रूपा  यथा नाम तथा गुण  मासूम सा था मेरा मन  अपने पंखों को देने के लिए विस्तार  अर्जित कर रही थी उच्च शिक्षा  जब एक वहशी ने  धर -दबोचा   दुःख की गठरी बन   आई तुम्हारे पास  तो तुम्हें मेरी दुर्दशा से ज्यादा  सताई  नाक की चिंता  किये भागीरथी प्रयत्न  जल्दी से जल्दी सडांध आने से पहले  हटाने को  मेरी लाश  आखिरकार मिल ही गया तुम्हें  झूठा -भात खाने को तैयार  एक मानसिक विकलांग जिसे चाहिए थी  पत्नी नहीं एक सेविका और मैं  भिक्षा में मिले सिन्दूर  दूसरे के अपराध की सजा में मिली डोली में    आज विदा हो रही हूँ   आँखों में आँसूओ  में   छिपाए यक्ष प्रश्न ?                    … Read more

अनामिका चक्रवर्ती की कवितायें

अनामिका

                                                                       एक  स्त्री कितना कुछ भोगती है जीवन में ……….. बहुत जरूरी है उस पीड़ा उस कसक को सामने लाना ,आज साहित्य में इसे स्त्री विमर्श का नाम दिया गया है ,जिस पर पुरुष भी लिख रहे हैं ……..परंतू जब स्त्री लिखती है तो वो उसका भोगा  हुआ सच होता है ,जो मात्र शब्दों तक सीमित नहीं रहता अपितु मन की गहराइयों में उतरता है ……..कुछ हलचल उत्पन्न करता है और शायद एक इक्षा भी की कुछ तो बदले यह समाज ……..इन विषयों  पर अनामिका चक्रवर्ती जी जब कलम चलाती  हैं तो वह दर्द महसूस होता है ……… अपनी कविता घूंघट में वो परदे के पीछे छिपी स्त्री के दर्द के सारे परदे हटा देती हैं, कहीं वो याचना करती है मैं माटी  जब रिश्तों की नदी में बह जाऊ  तो दरख्त बन अपनी जड़ों में समां लेना ………लेकिन उनकी यात्रा यहीं तक सीमित नहीं है वो किसान  के दर्द को भी महसूस करती है ……….आज अनामिका जी को पढे  और जाने उनके शब्दों में छिपे गहरे भावों को   हर बार कुछ नई बनती गई, प्रकृति थी जो सर्वशक्ति थी। जो अबला ना थी । हर वक़्त जीती रही औरत होने का सच पर जी ना पाई कभी औरत होने को ।  अनामिका चक्रवर्ती की कवितायें  1-   ” घूँघट ” दाँतो तले दबाये रखती, कई बार छूटता जाता । पर सम्भाल लेती । अब तक सम्भाल ही तो रही है। सर पर रखे घूँघट को । याद नहीं पहली बार कब रखा। पर खुद को आड़ में रख लिया हमेंशा के लिये। कभी बालो को हवा से खेलने न दिया। ना कभी गालो पर धूप पड़ने दी। आँखो ने हर रंग धुंधलें देखे । देखा नहीं कभी बच्चे को खिलखिलाते , हाँ सुनती जरूर थी। माथे से आँखो तक खींचती रहती, गोद से चाहे बच्चा खिसकता रहा। साँसे बेदम होती सपने बैचेन। इच्छाये सिसकती रहीं, दिल किया कई बार, बारिश में खुद को उघाड़ ले, बूंदो को चूम ले, ये पाप कर न सकी। घूँघट का मान खो न सकी। चौखट पर चोट खाती, उजालो के अंधेरे में रहती। बालो की काली घटा, जाने कब चाँदी हो गई, मगर घूँघट टस से मस ना हुआ।                                                         2- औरत हर वक़्त जीती रही औरत होने का सच पर जी ना पाई कभी औरत होने को रिस्तों के साँचे में, हर बार,  कितनी बार ढाला गया। हर बार कुछ नई बनती गई, प्रकृति थी जो सर्वशक्ति थी। जो अबला ना थी । हर वक़्त जीती रही औरत होने का सच पर जी ना पाई कभी औरत होने को ।                                     3 -”किसान” जल मग्न पाँव किये कुबड़ निकालें सुबह से साँझ किये। गीली रहीं हाथो की खाल हरदम। दाने दाने का  मान किये। धूप सर पर नाचती रहीं। गीली मिट्टी तलवो को डसती रहीं। भूख निवाले को तरसती रहीं। धँसे पेट जाने कितनो के निवाले तैयार किये। धान मुस्काती रहीं लहलहाती रहीं। साँसे कितनी उखड़ती रहीं। हरा सोना पक कर हुआ खाटी। पर दरिद्र किसान ताकता रहा दो जून की रोटी आत्ममुग्ध सरकार से।                                      4- दरख़्त जब रिश्तों  की नदीं में बह जाऊँ फ़र्ज़ की आँधी में , मिट जाऊँ। बन जाना तब तुम एक दरख़्त जिससे लिपट के मैं सम्भल जाऊँ बहने न देना ,मिटने न देना बस मिट्टी बना कर समा लेना , खुद की जड़ो में, मै जी जाऊँगी सदा के लिये 5- नियती है बहना शायद मैं सुन सकती तुम्हारी आवाज़ अंधेरे से निकलती हुई एक आह बनकर मेरे अंतस में उतरती हुई जबकी ये जानती हूँ मैं , प्रेम यथार्त में नहीं बस एक तिलिस्म है । खत्म होने के डर के साथ, नियती है बहना । बनकर धारा बह रही हूँ।                                                                 6- मील का पत्थर लम्बी सड़कों के तट पर, सदियों से खड़ा है। सीने में अंक और नाम टाककर , कि मुसाफिर भटक न जाये। पर मुसाफिर भटकते है फिर भी, क्योंकि भटकने से पहले , नहीं दिखता उन्हें कोई मील का पत्थर। या देखने से बचना चाहते है, उठाना चाहते है भटकने का आनंद। उन्हें ठोकर का एहसास ही नहीं होता, बड़े बेपरवाह होते है ये मुसाफिर। मील के पत्थर की आवाज, उसके भीतर पत्थर में ही तब्दील हो जाती है। मुसाफिर और मील के पत्थर का रिश्ता , आँखों का होता है। इशारों ही इशारों में कर लेते है बातें नहीं आती उन्हें कोई बोली। मगर होती है उनकी भी आवाज़, जो दिशाएँ बताती है। रास्तों को मंजिल तक ले जाती है। अनामिका चक्रवर्ती ”अनु”    –परिचय  अनामिका चक्रवर्ती  ‘अनु‘ जन्म स्थान : सन् 11/2/1974  जबलपुर (म.प्र.) प्रारंभिक शिक्षा : भोपाल म.प्र. स्नातक : गुरू घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर छत्तीसगढ़  एवं PGDCA प्रकाशन : विभिन्न राज्यों के पत्र पत्रिकाओ में रचनाएँ और लेख प्रकाशित। एवं एक साझा म्युज़िक एलवम प्रतिति के लिये गीत लिखे संप्रति : स्वतंत्र लेखन संपर्क : अनामिका चक्रवर्ती अनु  वार्ड न.- 7 नॅार्थ झगराखण्ड मनेन्द्रगढ़ कोरिया  छत्तीसगढ़ – 497446 ई-मेल : anameeka112@gmail.com यह भी पढ़ें …. पिंजड़े से आज़ादी बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाय आपको    ” अनामिका चक्रवर्ती की कवितायें    “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita

वीरू सोंनकर की कवितायेँ

                                                                                                          कानपुर निवासी वीरू सोनकर जी आज किसी परिचय के मोहताज़ नहीं है। कम उम्र में ही उन्होंने कविता की गहन समझ का परिचय दिया है। उनकी लेखनी विभिन्न विषयों पर चलती है.………… पर मुख्यत :वो समाज की विसंगतियों व् विद्रूपताओं पर प्रहार करते हैं। …………… मानवीय भावनाओं को वो सूक्ष्मता  से पकड़ते हैं.………। उनकी कलम आम आदमी की पीड़ा को बहुत सजीवता  से रेखांकित करती है ,कही वो शब्दों के मकड़जाल में  न फंस कर समाधान को वरीयता देते हैं। …………. उनकी लम्बी कविता प्रतिशोध सताई गयी लड़कियों के प्रति सहानभूति जागाते हुए भयभीत भी काराती है “सामाज अभी भी सुधर जाओ वो लडकियां वापस आयेगी प्रतिशोध लेने ……… हमारे और आपके घरों में ………….  – तीनो लडकियाँ मरने के बाद, ऊपर आसमानों पर मिलती है और वह अब पक्की सहेलियाँ बन गयी है वह फिर से जन्मना चाहती है एक साथ— फिर से किसी इस्लामिक देश में, लेनिनग्राद वाली लड़की का फैसला है वह देश इस्लामिक ही होगा ! तीनो लड़कियों के लड़ने का फैसला अटल है और शायद जीत जाने का भी—————– तैयार रहिये ! वह लडकियाँ वापस आ रही है शायद हमारे और आपके ही घरो में ! शब्द  मैंने कहा “दर्द” संसार के सभी किन्नर, सभी शूद्र और वेश्याएँ रो पड़ी ! मैंने शब्द वापस लिया मैंने कहा “मृत्यु” सभी बीमार, उम्रकैदी और वृद्ध मेरे पीछे हो लिए ! मैंने शर्मिन्दा हो कर सर झुका लिया मैंने कहा “मुक्ति” सभी नकाबपोश औरते, विकलांग और कर्जदार मेरी ओर देखने लगे ! अब मैं ऊपर आसमान में देखता हूँ और फिर से, एक शब्द बुदबुदाता हूँ “वक्त” ! कडकडाती बिजली से कुछ शब्द मुझ पर गिर पड़े— “मैं बस यही किसी को नहीं देता !” मैं अब अपने सभी शब्दों से भाग रहा हूँ आवाजे पीछे-पीछे दौड़ती है— अरे कवि, ओ कवि ! संसार के सबसे बड़े भगोड़े तुम हो ! उम्मीदों से भरे तुम्हारे शब्द झूठे है ! मैं अपने कान बंद करता हूँ ! मैं अपने समूचे जीवन संघर्ष के बाद, सबके लिए बोलना चाहूँगा, बस एक शब्द—- “समाधान” अब से, अभी से, यही मेरी कविताओ की वसीयत है ! अब से, अभी से, मेरी कविताये सिर्फ समाधान के लिए लड़ेंगी ! मैंने मेरी कविताओ का वारिस तय किया— सबको बता दिया जाये…………………………………….. .                                                                  २। ……… रेहाना  अपनी इस फ़ासी पर, रेहाना कतई नहीं रोती है ! वह जागती है और इंतज़ार करती है—— वह अपने माँ-पिता या भाई को नहीं सोचती, भविष्य के सपने भी नहीं याद करती, रेहाना अपने अंगूठे से जमीन भी नहीं कुरेदती, खुद की आजादी के लिए तो वह सोचती तक नहीं— बहुत ही शांत चेहरे के साथ, जैसे रेत में घिरी कोई पहाड़ी धुप में चमकती है वैसे ही रेहाना जल्दी में रहती है ! चाहती है उस पर कुछ न लिखा जाये, वह अपनी फाँसी पर दुनिया के देशो के महासम्मलेन भी नहीं चाहती, संयुक्त राष्ट्र संघ के विरोध पत्र, या नारी मुक्ति की बहस में भी उसको नहीं पड़ना, रेहाना को किसी से शिकवा नहीं रेहाना किसी से गुस्सा भी नहीं ! रेहाना सोचती है ! वह गलत जगह आ गयी थी, ये दुनिया उसकी गलती ठीक कर रही है ! फ़ासी पर चढ़ती रेहाना ! दुनिया की शुक्रगुजार रहती है और चाँद सितारों के पार देखती है वही, जहाँ उसे जाना है————————-                                                                                            ३। ………… .सुनी -सुनाई    हम– एक अंधी गहरी गुफा में, बढ़ाते है कुछ सामूहिक कदम ! और लड़खड़ाते है गिरते है फिर-फिर सँभलते है—- और आगे बढ़ते है ! हमने सुन रखा है आगे ! बहुत आगे जा कर, जहाँ / गुफा ख़त्म होती है वहाँ रौशनी मिलती है हमने सुन रखा है______ ४। …………।  प्रतिशोध  1— लेनिनग्राद की पक्की सड़क पर एक बच्ची तेज़ी से जाती है अपने स्कूल की ओर,वह बिलकुल लेट नहीं होना चाहतीऔरवह नहीं जानती isis क्या होता है— हाँ , उसने मलाला युसुफजई का नाम सुना है टीचर कहती है उसे उसके जैसा ही बहादुर बनना है ! 2— एक तालिबानी लड़की भी चलती है गॉव की कच्ची सड़क पर, और उसे कोई जल्दी नहीं स्कूल पहुचने की, वह देखती है रोज के रोज अपनी सोचो में बुनी खुद की एक सहेली, जो बिलकुल, उस जैसी दिखती है वह लड़की रोज स्कूल तक जाती है झूट मुठ की अपनी सहेली को वहीँ छोड़ आती है लड़की को सपने वाली सहेली के भविष्य की बहुत चिंता होती है— 3—- एक इराकी-यहूदी लड़की अब स्कूल नहीं जाती ! वह अब यहूदी भी नहीं रही, और लड़की भी नहीं रही, वह 3 बार बिक चुकी है अपने ही स्कूल के बाहर के औरत-बाजार में, लड़की कोशिश करती है हालात समझने की— बस एक महिना पहले, जब वह रोज स्कूल जाती थी अपने पिता के संग, और स्कूल के गेट पर थमा देती थी अपनी फरमाईशों की लिस्ट पापा भूलियेगा नहीं ! और पिता कभी नहीं भूलता था अब लड़की, अपने पिता को नहीं भूलती ! वह खुद के हर खरीदार में अपना पिता तलाशती है फिर से किसी स्कूल तक जाने के लिए— और उसका सपना हर रात तोड़ दिया जाता है ! ———————— तीनो लडकियाँ मरने के बाद, ऊपर आसमानों पर मिलती है और वह अब पक्की सहेलियाँ बन गयी है वह फिर से जन्मना चाहती है एक साथ— फिर से किसी इस्लामिक देश में, लेनिनग्राद वाली लड़की का फैसला है वह देश इस्लामिक ही होगा ! तीनो लड़कियों के … Read more

आभा दुबे की कवितायेँ

                                                      आभा दुबे जी नारी मनोभावों को पढने में सिद्धहस्त हैं। बड़ी ही सहजता से वो एक शिक्षित नारी को परिभाषित करती हैं ,वो रो नहीं सकती चीख नहीं सकती घुटन अन्दर ही अन्दर दबाती है। ………क्योंकि जहीन औरतों को यही तालीम दी जाती है। नारी जीवन की कठोरता को ओ निराश लड़की में व्यक्त करती हैं। …… कहीं न कहीं आभा जी को पढना मुझे खुद को पढने जैसा लगा ,एक नारी को पढने जैसा लगा। वो अपने प्रयास में कितना सफल हो पाई हैं ,पढ़िए और जानिए  आभा दुबे की कवितायेँ  1….तालीम का  सच….————– पढ़ी-लिखी सर्वगुणसंपन्न ,जहीन, घरेलू औरतें , रोतीं नहीं, आंसू नहीं बहातीं  बंद खिड़की दरवाजों के पीछे , अन्दर ही अन्दर घुटती हैं,सिसकती हैं कि आवाज बाहर ना चली जाये कहीं,हाँ, सच तो है ,ऐसी औरतें भी भला रोती हैं कहीं? शेयर करती हैं सुबह की  चाय सबके  साथ…ओढ़ के चौड़ी,नकली,मुस्कराहट,बारी -बारी देखती हैं सबकी आँखों में खुद को ,पढ़ ले ना कोई चेहरे से,बंद कमरे की रात की कहानी,डूबी रहती हैं अंदेशे में,किसी ने चेहरे को पढ़ा तो नहीं? अगर किसी ने पूछ लिया,है ये माथे पे निशां कैसा ?देंगी वही घिसा-पिटा जवाब ,हंस के कहेंगी, ओह ये….! रात वाशरूम में पांव स्लिप कर गया था ,या…सीढियां उतरते पैर फिसल गया था, …अब कौन बताये इन्हें …आये दिन, एक ही तरह के हादसे , होते हैं भला  कहीं? ऐसे ही मसलों से दो चार होती औरतें,सोचती रहती हैं मन ही मन ,अच्छा होता हम अनपढ़ और जाहिल ही रहतीं !कम से कम बुक्का फाड़के , चिल्ला के, रो तो सकतीं थीं !दिल तो हल्का हो जाता !अपनी ही तालीम बोझ तो नहीं लगती…!तालीम ही ऐसी मिली कि हर बात पे सोचो….लोग क्या कहेंगे बड़े मसले होते हैं इन पढ़ी-लिखी, घरेलू, जहीन औरतों के पास ,कुछ दिखाने के , कुछ छिपाने के,पर करें भी क्या ?…..तालीम ही ऐसी मिली….! 2….देह …!देह …! __________ एक देह में छिपी है कितनी देह एक पिंजरा कितनी उड़ानों को  कर सकता है कैद ? एक ही घर में  कितने लोग   उनका अपना – अपना अकेलापन   घर के भीतर कई  मकान होते हैं कितने आंसू ? उन  आँखों के समंदर  में ..? एक औरत हमेशा ही  सहती है सितम  फिर  भी पहनती है इच्छाओं  की  चूड़ियाँ  देखती है सपने  लेकिन उसका होना, सबके होने में होना होता है  इस तरह वह अक्सर  छिपा लेती है   अपने मन और तन का सच एक देह मरती है तो कितने देह की मौत हो जाती है …? 3…..वो पागल …! वो पागल ! ____________ उसके पास दिमाग नहीं है याददाश्त भी कमजोर है एक हद तक भूलने की बीमारी जैसा वो तर्क नहीं करती हाजिर रहती है , हर आवाज पर हाथ बंधे, सर झुकाए आज भी, जिसने जिस रूप में देखना चाहा, आती है वो  नजर बदले में तैयार रहता है एक संबोधन उसके लिए, पागल … सुना है, कि… प्रेम से बोलने वाला , प्रेम में बोलनेवाला , सबसे खूबसूरत शब्द होता है ये– पागल पर पागलपन में ही सही वो नहीं भूल पाती,  अपने औरतपन को , हर हाल  याद रहता है उसे कि, प्रकृति को संतुलन प्रदान करती और जीवों की तरह, हाड़-मांस, रक्त-मज्जा, अस्थियों के मेल से बनी है वो भी उन्ही के जैसी भावनाओं से लदी-फदी पर, जब वो मिलती है , नारी छवियों की आड़ में , छवियों को भंजाते-भुनाते, लोगों से, खुद-जैसी ही छवियों की कैदी औरतों से , तब वो करती है स्त्री-विमर्श जो बनती है सुर्खियाँ, अखबारों की और मैं देखती हूँ ख़बरों में छाई हुई  पागल के उम्दा पागलपन को, मैं खुश होती हूँ कि वो पागल, औरत है और औरत ही रहेगी… क्यूंकि उसके पास दिमाग नहीं है….! 4…..तलाश ….. बाज़ार में खड़ी हूँ  यकीन खरीद रही हूँ  इच्छाओं की बुझी राख में  ढूंढ रही हूँ जिंदगी के अवशेष  रौशनी को छूने की कोशिश में  जलें हैं हाथ बार बार  दरअसल  मेरा जीना  मेरे होने के खिलाफ एक अलिखित  समझौता है निभाना है जिसे, रहती सांसों तक…. 5…..ओ ! निराश लड़की … ______________ बहुत ही कम है तुममें , धैर्य और सहिष्णुता और तुम पढ़ती हो निराशा के क्षणों में , पाब्लो नरूदा की कविताएँ … डर है मुझे … कहीं फिर ना हो जाये नरूदा, किसी, आत्महत्या का जिम्मेदार क्यूंकि.तुम …. पहले कविता पढ़ती हो फिर शब्दों से सपने  बुनती हो बना देती हो  कविता में सपनों की  कहानी ढूंढती हो एक ऐसा सच, जैसा तुम चाहती हो जीने लगती हो पात्र बनकर  उन कविताओं के आसपास  ही कहीं बसा लेती हो एक मायावी संसार उनमें ही अंत में उलझ जाती हो हकीकत की कठोर धरातल और सपनों के सतरंगी मायाजाल में नतीजा …. आत्मसात कर लेती हो मृत्यु का सच  हार जाता है कविताओं के बिम्ब से उभरे रंगीन जीवन का दुह्स्वप्न …. और जीत जाता है नरूदा खुद के भावों  को तुम्हारे मन से जोड़ने में ऐ निराश लड़की …. मत बुनो मत ढूंढो कविताओं के आसपास जीवन और मृत्यु का ताना-बाना कविताएँ बहुत ही कोमल, नर्म, मखमली हुआ करती हैं और जीवन ? कठोर  …..इसके रास्ते …. बहुत ही पथरीले ….. मेरा परिचय…. नाम — आभा दुबे  शिक्षा –स्नातक (मनोविज्ञान) मूल निवास —पटना  वर्तमान पता …. विद्या विहार , नेहरु नगर पश्चिम  भिलाई (छत्तीसगढ़) भावनावों को शब्दों में ढालना अच्छा लगता है.. संगीता पाण्डेय की कवितायें भावनाएं आपको    “  आभा दुबे की कवितायें   “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita,