कविता सिंह जी की कवितायें

कविता सिंह

कविता लिखी नहीं जाती है …आ जाती है चुपचाप कभी नैनों के कोर से बरसने को, कभी स्मित मुस्कान के बीच सहजने को तो कभी मन की उथल पुथल को कोई व्यवस्थित आकार देने को | जहाँ कहानी में किस्सागोई का महत्व है वहीँ कविता में बस भाव में डूब जाना ही पर्याप्त है | कहानी हो या कविता शिल्पगत प्रयोग बहुत हो रहे हैं होते रहेंगे| कभी कच्ची पगडण्डी पर चलेंगे तो कभी सध कर राजपथ में भी बदलेंगे  पर भाव की स्थिरता ही कविता को जमीन देती है | आज कविता सिंह जी की कुछ ऐसी ही कवितायें लेकर आये हैं जहाँ कहीं मन की उलझन है तो कहीं प्रेम का अवलंबन तो कहीं स्त्री सुलभ कोमल भावनाएं … कविता सिंह जी की कवितायें छटपटाहट अक्सर ही आती है वो रात के सन्नाटे में, झकझोरती है मुझे, जब मैं होती हूँ मीठी सी नींद में, बुन रही होती हूँ कुछ मधुर सपने, तभी कानों में पड़ती है जानी पहचानी एक सिसकी, खोलती नहीं आँखें मैं कहीं चली ना जाए वो, बोलती नहीं वो, सिर्फ सिसकती है, पता है मुझे क्या चाहती है वो मुझसे!! मैं लिखना चाहती हूँ उसे उसकी पीड़ा को, अपनी कविता और कहानियों में, पर हर बार चूक जाती हूँ शब्दों में पिरोने से उसे, सोचती हूँ कुछ नये शब्द गढ़ लूँ जो व्यक्त कर सकें उसे, पर नहीं गढ़ पाती, और अक्सर ही लथपथ होकर उठ बैठती हूँ, आप पूछेंगे कौन है वो, नहीं बता सकती, बस इतना जानती हूँ, जब से खुद से परिचय हुआ तब से जानती हूँ उसे, जानती हूँ उसकी तलाश को, उसकी तकलीफ को भी, मुझसे अछूती नहीं इच्छाएं भी उसकी!! पर लिख पाऊंगी कभी मैं उसकी बेचैनी, उसकी तड़प? या फिर यूँ ही नींद में अचानक सुनकर उसे छटपटाती रहूँगी मैं?? कामवाली_बाई# वो घर-घर जाकर धुलती है जूठे बर्तन रगड़-रगड़कर, जैसे मांज रही हो लिखा भाग्य, या अपने बच्चों का आने वाला कल!! झाड़ती है जालें और बुहारती पोछती है फर्श हौले से, धीरे-धीरे जैसे, रह न जाये उसकी किस्मत के बिखरे टूटे कोई भी कण!! फिंचती है मैले कपड़े पटक-पटककर, धोती है दाग धब्बे, जैसे मिटा रही हो रात में पड़ी मार के निशान,और आत्मा पर पड़े गालियों के दाग!! जानती है वो, चलती रहेगी जिंदगी यूँ ही लगातार, ना मंजेगा भाग्य, ना ही फिकेंगे किस्मत के बिखरे कण और ना ही मिटेंगे तन मन पे पड़े घाव के निशान….. तो फिर झटकारती है कपड़ों के संग सपने भी और टांग देती अलगनी पर…..     ——–#कविता_सिंह#——— मन_गौरैया# तन की कोठरी में चहकती फुदकती मन गौरैया कभी पंख फड़फड़ाती कभी ची- ची करती भर जाती पुलक से नाचती देहरी के भीतर। उड़ना चाहती पंख पसार उन्मुक्त गगन में देखना चाहती ये खूबसूरत संसार…. नहीं पता उसे ये लुभावने संसार के पथरीले धरातल, और छद्म रूप धरे, मन गौरैया के पर कतरने ताक में बैठे शिकारी… हर बार कतरे जाते सुकोमल पंख कभी मर्यादा, कभी प्रेम, कभी संस्कार, कभी परम्परा की कैंची से!!! और फिर! अपने रक्तरंजित परों को फड़फड़ाना भूल वो नन्हीं गौरैया समेट कर अपना वजूद, दुबक जाती अपने भीत आँखो को बन्दकर अपनी अमावस सी अँधेरी कोठरी में। फिर एक किरण आशा की करती उजियारा धीरे -धीरे मन गौरैया खोलती हैं आँखें अपने उग आये नए परों को खोलती अपने दुबके वजूद को ढीला छोड़ दबे पांव शुरू करती फिर फुदकना। पर पंख कतरने का भय नहीं छोड़ता पीछा.. और उस भय से डरी-सहमी गौरया आहिस्ता-आहिस्ता हो जाती है विलुप्त!! अंततः रह जाता है सिर्फ अवशेष अंधेरी कोठरी का!! …………कविता सिंह………… जिन्दगी  जिंदगी तू इतनी उलझी – उलझी सी क्यों है?? कभी आशा कभी निराशा कभी हो निष्क्रिय विचरती सी क्यों है?? कभी खुशी कभी दुःख कभी भावों से विमुक्त रिक्ती सी क्यों है?? कभी शोर कभी सन्नाटा कभी वीरानों में भटकती आत्माओं सी क्यों है?? कभी अपना कभी पराया कभी साहिल की रेत सरीखी उड़ती सी क्यों है?? कभी अतीत कभी भविष्य कभी आज से भी पीछा छुड़ाती सी क्यों है?? कभी सपनों कभी ख्वाहिशों कभी अवसाद में डुबती – उतराती सी क्यों है?? कभी बंधती कभी बांधती कभी हो उन्मुक्त खुशबू बिखेरती सी क्यों है?? कभी ठहरती कभी भागती कभी हर  गति से परे तिरस्कृत सी क्यों है??? बता ना जिंदगी तू इतनी उलझी उलझी सी क्यों है???            ………………..कविता सिंह                “सर्मपण” आओ ना एक बार, भींच लो मुझे उठ रही एक कसक अबूझ – सी रोम – रोम प्रतीक्षारत आकर मुक्त करो ना अपनी नेह से। आओ ना एक बार, ढ़क लो मुझे, जैसे ढ़कता है आसमां अपनी ही धरा को बना दो ना एक नया क्षीतिज । आओ ना एक बार, सांसो की लय से मिला दो अपनी सांसों की लय को प्रीत हमारी नृत्य करे धड़कनों के अनुतान पर रोम  रोम में समा लो ना मुझे। आओ ना एक बार, सुनाई दे ध्वनि शिराओं में प्रवाहित रक्त की, स्वेद की बूंदें भी हो जाएं अमृत जकड़ो ना मेरी देह को। आओ ना एक बार, बन जाते हैं पथिक उस पथ का जिसकी यात्रा अनंत हो, कर दो ना निर्भय विभेदन के भय से। आओ ना एक बार, करो ऐसा यज्ञ जिसमें अनुष्ठान हो मिलन की आहुति हो प्रेम की करो ना हवन जिसमें मंत्र हों समर्पण, समर्पण और अंततः समर्पण।। हां आओ ना एक बार……. —–कविता सिंह हां!  हो तुम     हां!  हो तुम हृदय में , जैसे मृग के कुंडल में स्थित कस्तूरी, आभामंडल सा व्याप्त है तुम्हारे अस्तित्व का गंध, जो जगाए रखता है निरंतर एक प्यास मृगतृष्णा सी, हां मृगतृष्णा सी -…. एक अभिशप्त तृष्णा जो जागृत रखती है अपूर्णता के एहसास को मृत्युपर्यंत ….. हां ये अपूर्णता ही तो परिपूर्ण करती है जीवनचक्र, नहीं होना मुक्त इस एहसास से, बस यूं ही कस्तूरी सा बसे रहो हृदय तल में, जिसकी गंध से अभिभूत एक विचरण जो जीवित रख सके मृत्यु तक…. —-कविता सिंह——–      #अव्यक्त भाव की पीड़ा# ऐसा प्रायः क्यों होता है व्यतिथ हृदय दग्ध चित्त व्यग्र मन शब्दों का अवलम्ब ले उतर जाना चाहते हैं किसी पन्ने पर.. प्रायः ऐसा होता है कि शब्द गायब हो शुन्य में विलीन होते … Read more

अनामिका चक्रवर्ती की स्त्री विषयक कवितायें

अनामिका

अनामिका चक्रवर्ती आज कविता में एक सशक्त हस्ताक्षर हैं | यूँ तो वो हर विषय पर कवितायें लिखती हैं पर उनकी कलम से स्त्री का दर्द स्वाभाविक रूप से ज्यादा उभर कर आता है | आज आपके लिए उनकी कुछ ऐसी ही स्त्री विषयक कवितायें लेकर आये हैं |इन कविताओं को पढ़ते हुए कई बार लोकगीत “काहे को ब्याही विदेश” मन में गुंजायमान हो गया | कितनी पीड़ा है स्त्री के जीवन में जब उसे एक आँगन से उखाड़कर दूसरे में रोप दिया जाता है | पर क्या पराये घर में उसे अपनी बात कहने के अधिकार मिल पाते हैं उड़ने को आकाश मिल पाता या स्वप्न देखने को भरपूर नींद | आधुनिक पत्नी में वो कहती हैं .. क्योंकि जमाना बदल गया है औरतों के पास कई कई डिग्रियाँ होती हैं कुछ डिग्रियों की तख़्तियाँ उनके ड्राइंग रूम की शान होती है साक्षरता के वर्क से सजी हुई लड़की पढ़ी लिखीं चाहिए समाज को दिखने के लिए पर उसकी डिग्री ड्राइंग रूम का शो केस बन कर रह जाती हैं |किस तरह से पति गृह में बदलती जाती है एक स्त्री | कहीं पीड़ा की बेचैनी उनसे कहलवाती है कि औरतें तुम मर क्यों नहीं जाती तो कहीं वो क पुरुष कहकर पुरुष को ललकारती हैं | समाज में हाशिये से भी परे धकेली गयीं बदनाम औरतों पर लिखी उनकी रचनायें उनके ह्रदय की संवेदना पक्ष को उजागर करती है | कम से कम स्त्री तो सोचे उनके बारे में …जिनके बारे में ईश्वर  भी नहीं सोचता | अनामिका चक्रवर्ती की स्त्री विषयक कवितायें आधुनिक_पत्नी जमाना बदल गया है तकनीकी तौर पर गाँवों का भी शहरीकरण हो चुका है कच्ची सड़कों पर सीमेंट की वर्क बिछा दी गई है और सड़क की शुरूआत में टाँग दी गई है एक तख्ती उस सड़क के उदघाटन करने वाले किसी मंत्री का नाम पर क्योंकि जमाना बदल गया है औरतों के पास कई कई डिग्रियाँ होती हैं कुछ डिग्रियों की तख़्तियाँ उनके ड्राइंग रूम की शान होती है साक्षरता के वर्क से सजी हुई तकनीकी तौर पर ये आज की आधुनिक औरतें कामकाजी कहलाती हैं मगर इनका अपनी ही जेबों पर खुद का हक़ नहीं होता इनको महिने भर की कमाई का पूरा पूरा हिसाब देना पड़ता है अपने ही आजाद ख्यालात परिवारों को घर के बजट में ही होता है शामिल उसके खर्चों का भी बजट जबकि उसके कंधे भी ढोते हैं बजट भार की तमाम जिम्मेदारी मगर उन कंधों को देखा जाता है केवल आंचल संभालने की किसी खूंटी की तरह ये औरतें भी गाँव की उन कच्ची सड़कों जैसी होती हैं जिनपर बिछा दी जाती हैं सीमेंट की वर्क जिनका उदघाटन उनके पतिनुमा मंत्री ने किया होता है और परिवार के शिलालेख पर लिखा होता है आधुनिक पत्नी के आधुनिक पति का नाम। बदलाव  उसे लहसुन छीलना आसान लगता था प्याज काटना तो बिलकुल पसंद नहीं था रह-रहकर नहीं धोती थी मुँह अपना जबकि सूख जाता था चेहरे पर ही पसीना आँखें तो रगड़कर पोछना बिलकुल पसंद नहीं था पीते पीते पानी ठसका भी नहीं लगता था न होती थी नाक लाल बीच में चाहे कुछ भी कर ले बातें चुप रहना तो बिलकुल पसंद नहीं था उसे अब प्याज काटना बहुत पसंद है मुँह भी धोती है रह-रहकर पोछती है आँखें रगड़कर पीते पीते पानी लग जाता है अक्सर अब ठसका जबकि चुपचाप ही पीती है नाक भी दिख जाती है लाल वो अब भी बहुत बोलती है अब तो खत्म होने लगा है जल्दी काजल भी पसंद करने लगी है मगर चुप रहना….. वेश्याएँ आखिर कितनी वेश्या ? मोगरे की महक जब मादकता में घुलती है शाम की लाली होंठों पर चढ़ती है वेश्यायें हो जाती है पंक्तियों में तैयार कुछ लाल मद्धम मद्धम रोशनी में थिरकती हैं दिल के घाव पर मुस्कराहट के पर्दे डालकर झटकती है वो जिस्मों के पर्दों को जिसमें झाँक लेना चाहता है हर वो मर्द जिसने कुछ नोटों से अपना जमीर रख दिया हो गिरवी और कुछ चौखटों पर दिखती हैं तोरण सी सजी अपने अपने जिस्म को हवस की थाली में परोसने के लिए लगाती है इत्र वो अपनी कलाइयों में उस पर बाँधती है चूड़ा मोगरे का आँखों के कोने तक खींचती है वो काजल और काजल के पर्दे से झाँकती है औरत होने की असिम चाह जिनके नसीब में सुबह भी काली होती है मगर जिस्म बन कर रह जाती हर बार हवस की थाली लिये मर्द नामर्द हवस के भूखे भेड़िये नहीं होते क्योंकी भेड़िया हवस का भूखा नहीं होता वे होते है किसी के खसम, भाई, दद्दा, बेटा जो घर की औरतों को इज्जत का ठेका देते हैं और बाजारों में अपनी हवस मिटाने का लेते है ठेका फिर भी नहीं मिटती उनकी भूख कभी न देते है औरत को औरत होने का हक़ कभी आस मिटती नहीं, आँखें छलकती नहीं फिर हर बार बनती है वो वेश्या सजती सवँरती है लगाती है इत्र फिर गजरे बालों में बांधती रखती गालो में पान ऐसे श्रृगाँर से रखना चाहती दूर वह अपनी बेटीयों को, जिनके नसो में बहता नाजायज बाप का खून मगर सर पर साया नहीं रहता कभी न होते है जन्मप्रमाण पत्र पर हस्ताक्षर कोई औरत न होने की पीड़ा लिये जीती है ऐसी माएँ वेश्या की आड़ में तब तक झुर्रियाँ उसकी सुरक्षा का कवच न बन जाए जब तक ।  सच है, स्त्रियाँ नहीं कर सकतीं पुरुष की बराबरी क्या हुआ अगर उसी ने जन्म दिया है पुरुषों को कोई हक़ नहीं उसे अपनी भूख को मिटाने का खाने का आखिरी निवाला भी वह पुरुष की थाली में ही परोस देती है चाहे फिर उसे भूख से समझौता ही क्यों न करना पड़े खाने के साथ साथ अपनी कामनाओं से भी कर लेती है समझौता बेहद जरूरी होता है पुरुष का पेट भरना, मन भरना जब तक कि उसको न दोबारा भूख लगे क्यों हर भूख को मिटाना पुरुष के लिये ही होता है परन्तु भूख तो स्त्रियों की भी उतनी ही होती है पुरुष की संतुष्टि से तृप्त नहीं होतीं स्त्रियाँ मगर वह खुशी से जीती हैं अपनी ज़िन्दगी अपनी असंतुष्टि और अतृप्त पीड़ा को लेकर नहीं करतीं वह बातें इस … Read more

बदल दें

किरण आचार्य

क्या इतिहास को बदला जा सकता है | हालांकि ये ये संभव नहीं है फिर भी कवी मन ऐतिहासिक पात्रों से गुहार लगा उठता है कि वो अपने निर्णयों को बदल दें | खासकर तब जब उनके निर्णय की अग्नि में स्त्री का अतीत और वर्तमान झुलस रहा हो | क्योंकि इतिहास की कोख से ही भविष्य जन्म लेता है | तो क्या संभव है कि हम उन निर्णयों को बदल दें | आइये पढ़ें किरण आचे जी की खूबसूरत कविता … बदल दें  समुद्र तट पर अग्नि परीक्षा के लिए चढ़ रही चिता पर वह समुद्र भी नहीं लाता कोई लहर चिता बुझाने को मौन सब नहीं करता कोई विरोध वह स्वयं भी नहीं रूको देवी …… देवी की तरह नहीं मनुष्य की भाँति करो व्यवहार कहो ,तट पर खड़े हर एक बुद्धिमना से मेरे हृदय के सत्य को ठुकरा कर ले रहे हो देह की परीक्षा हृदय तो जल चुका अविश्वास के ताप में पलट जाओ उतर आओ उल्टे पैर नहीं तो युगों तक हर एक नारी से माँगी जाएँगी ये परीक्षा तुम्हारा नाम ले कर कड़ा करो मन को कहो कि मेरी पवित्रता है मेरे शब्दों में नहीं जो हूँ स्वीकार तो वन में जा रहूँगी वैसे भी अंत में है यही मेरी नियति भरी उस सभा में थामती तुम चीर अपना हर किसी से माँगती न्याय की दुहाई किससे गूँगों की भीड़ से रूको देवी जो खींचते घसीटते तुम्हें लाए हैं निर्ल्लजता से तनिक वो देखो खड्ग उठा कर काट दो वो हाथ और फिर ग्रीवा रोक दो ये अट्टाहस सिंहनी बन होना है इसी क्षण हो जाए महाभारत क्यों वर्षों तक उलझे केश तेरे करे लहू स्नान  की प्रतीक्षा बढ़ो आगे बढ़ो नहीं तो युगों तक बना रहेगा इनका रहेगा पशु व्यवहार क्या पता उन निर्णयों की गूँज नारी को बल दे यूँ पूछ रहा है मन कहाँ बुना जाता है समय का ताना बाना कहाँ रखा जाता है अतीत के पन्नों को पात्रों को वहीं ले चलो उस काल की कुछ घटनाओं को बदल दें २ एक इच्छा अनकही सी आज फिर गली से निकला ऊन की फेरी वाला सुहानें रंगों के गठ्ठर से चुन ली है मैनें कुछ रंगों की लच्छियाँ एक रंग वो भी तुम्हारी पसंद का तुम पर खूब फबता है जो बैठ कर धूप में पड़ोसन से बतियाते हुए भी तुम्हारे विचारों में रत अपने घुटनों पर टिका हल्के हाथ से हथेली पर लपेट हुनर से अपनी हथेलियों की गरमी देकर बना लिए हैं गोले फंदे फंदे में बुन दिया नेह तुम्हारी पसंद के रंग का स्वेटर टोकरी में मेरी पसंद के रंग का गोला पड़ा बाट देखता है अपनी बारी की और मैं सोचती हूँ अपनी ही पसंद का क्या बुनूँ कोई नहीं रोकेगा कोई कुछ नहीं कहेगा पर खुद के लिए ही खुद ही,,, एक हिचक सी पर मन करता है कभी तो कोई बुने मेरी पसंद के रंग के गोले लो फिर डाल दिए है नए रंग के फंदे टोकरी में सबसे नीचे अब भी पड़ा हैं मेरी पसंद के रंग का गोला लेखिका किरन आचार्य आक्समिक उद्घोषक आकाशवाणी चित्तौड़गढ मंगत्लाल की दीवाली रिश्ते तो कपड़े हैं सखी देखो वसंत आया नींव आपको  कविता   “बदल दें “   लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under-poem, hindi poem, history, sita, draupdi  

आज के साहित्यकार

एक प्रश्न बार -बार उठता है कि क्या आज के साहित्यकार भी उतने ही संवेदनशील व् मेहनती है जितने पहले हुआ करते थे | कहीं ऐसा तो नहीं कि नाम और शोहरत उन्हें शोर्ट कट की तरफ मोड़ रहा हो | इसी चिंतन -मनन प्रक्रिया में एक ऐसी ही रचना सौरभ दीक्षित ‘मानस’ जी की … आज के साहित्यकार   आज कोई प्रेमचंद भूखा नहीं मरता। आज किसी निराला को, पत्थर तोड़ती स्त्री की पीड़ा नहीं दिखती। आज कोई महादेवी मंच की शोभा बनने से ऐतराज नहीं करती क्योंकि…. बदल गया है समय बदल गया है परिवेश आज के प्रेमचंद अवसर देते हैं नवोदितों को, लेकर एक मुश्त राशि या बनाने लगे हैं कहानीकार, कथाकार रचनाकार या साहित्यकार मिलकर, एक रात होटल के कमरे में…. आज के निराला देखते हैं, गोरी चमड़ी जो कर दे उन्हें आनंदित, अपने स्पर्श से उनके लिए आवश्यक है सुंदरता, योग्यता से अधिक…. आज की महादेवी होती है गौरवान्वित सम्मिलित होकर मंचों पर दस कवियों के बीच एक मात्र कवियत्री बनकर…. हाँ!!!! बदल गया है समय और साहित्यकार होने की परिभाषा भी….. सौरभ दीक्षित ‘मानस’ आपको रचना आज के साहित्यकार कैसी लगी | अपने विचार हमें अवश्य बताये |  

कैलाश सत्यार्थी जी की कविता -परिंदे और प्रवासी मजदूर

नोबेल शांति पुरस्‍कार से सम्‍मानित विश्व प्रसिद्ध बाल अधिकार कार्यकर्ता श्री कैलाश सत्‍यार्थी लॉकडाउन से बेरोजगार हुए प्रवासी मजदूरों और उनके बच्चों को लेकर चिंतित हैं। उनकी मदद के लिए व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास के साथ-साथ वे इसके लिए लगातार सरकार और कोरपोरेट जगत के लोगों से बातचीत कर रहे हैं। पिछले दिनों अपने गांवों की तरफ लौटते भूख से तड़पते प्रवासी मजदूरों को देखकर श्री सत्‍यार्थी इतने व्‍यथित हुए कि उन्‍होंने अपनी व्‍यथा और संवेदना को शब्दों में ढाल दिया। वे घर लौट रहे दिहाड़ी मजदूरों की व्‍यथा को इस कविता में प्रतीकात्‍मक अंदाज में व्‍यक्‍त करते हैं। इस कविता के जरिए वह भारत के भाग्‍य विधाता और सभ्‍यताओं के निर्माता इन मजदूरों प्रति असीम कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए यह उम्मीद भी जताते हैं कि एक दिन उनके जीवन में सब कुछ अच्छा होगा…   परिंदे और प्रवासी मजदूर-कैलाश सत्यार्थी मेरे दरवाज़े के बाहर घना पेड़ था, फल मीठे थे कई परिंदे उस पर गुज़र-बसर करते थे जाने किसकी नज़र लगी या ज़हरीली हो गईं हवाएं   बिन मौसम के आया पतझड़ और अचानक बंद खिड़कियां कर, मैं घर में दुबक गया था बाहर देखा बदहवास से भाग रहे थे सारे पक्षी कुछ बूढ़े थे तो कुछ उड़ना सीख रहे थे   छोड़ घोंसला जाने का भी दर्द बहुत होता है फिर वे तो कल के ही जन्मे चूज़े थे जिनकी आंखें अभी बंद थीं, चोंच खुली थी उनको चूम चिरैया कैसे भाग रही थी उसका क्रंदन, उसकी चीखें, उसकी आहें कौन सुनेगा कोलाहल में   घर में लाइट देख परिंदों ने शायद ये सोचा होगा यहां ज़िंदगी रहती होगी, इंसानों का डेरा होगा कुछ ही क्षण में खिड़की के शीशों पर, रोशनदानों तक पर कई परिंदे आकर चोंचें मार रहे थे मैंने उस मां को भी देखा, फेर लिया मुंह मुझको अपनी, अपने बच्चों की चिंता थी   मेरे घर में कई कमरे हैं उनमें एक पूजाघर भी है भरा हुआ फ्रिज है, खाना है, पानी है खिड़की-दरवाज़ों पर चिड़ियों की खटखट थी भीतर टीवी पर म्यूज़िक था, फ़िल्में थीं   देर हो गई, कोयल-तोते, गौरैया सब फुर्र हो गए देर हो गई, रंग, गीत, सुर, राग सभी कुछ फुर्र हो गए   ठगा-ठगा सा देख रहा हूं आसमान को कहां गए वो जिनसे हमने सीखा उड़ना कहां गया एहसास मुक्ति का, ऊंचाई का और असीमित हो जाने का   पेड़ देखकर सोच रहा हूं मैंने या मेरे पुरखों ने नहीं लगाया, फिर किसने ये पेड़ उगाया? बीज चोंच में लाया होगा उनमें से ही कोई जिनने बोए बीज पहाड़ों की चोटी पर दुर्गम से दुर्गम घाटी में, रेगिस्तानों, वीरानों में जिनके कारण जंगल फैले, बादल बरसे चलीं हवाएं, महकी धरती   धुंधला होकर शीशा भी अब, दर्पण सा लगता है देख रहा हूं उसमें अपने बौनेपन को और पतन को   भाग गए जो मुझे छोड़कर कल लौटेंगे सभी परिंदे मुझे यक़ीं है, इंतजार है लौटेगी वह चिड़िया भी चूज़ों से मिलने उसे मिलेंगे धींगामुश्ती करते वे सब मेरे घर में सभी खिड़कियां, दरवाज़े सब खुले मिलेंगे आस-पास के घर-आंगन भी बांह पसारे खुले मिलेंगे। यह भी पढ़ें … रेप से जैनब मरी है डायरी के पन्नों में छुपा तो लूँ बदनाम औरतें नए साल पर पांच कवितायें -साल बदला है हम भी बदलें आपको कविता ” परिंदे और प्रवासी मजदूर”   “कैसी लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |   filed under-lock down, kailash satyarthi, hindi poem, labourer, corona

यामिनी नयन गुप्ता की कवितायें

कविता मानस पर उगे भाव पुष्प है | मानव हृदय की भावनाएं अपने उच्चतम बिंदु पर जा कर कब कैसे कविता का रूप ले लेती हैं ये स्वयं कवि भी नहीं जानता|भाव जितने ही गहरे होंगे पुष्प उतना ही पल्लवित होगा | आज हम पाठकों के लिए यामिनी नयन गुप्ता की कुछ  ऐसी ही कुछ कवितायें लायें हैं जो भिन्न भिन्न भावों के पुष्पमाला की तरह है |आइये पढ़ते हैं … प्रणय के रक्तिम पलाश  फिर वही फुर्सत के पल फिर वही इंतजार , खिलना चाहते हैं हरसिंगार अब मैंने जाना ___क्यों तुम्हारी हर आहट पर मन हो जाता है सप्तरंग ; मैं लौट जाना चाहती हूं अपनी पुरानी दुनिया में देह से परे ___ प्रकृति की उस दुनिया में फूल हैं ,गंध है , फुहार है, रंग हैं , बार-बार तुम्हारा आकर कह देना यूं ही __ मन की बात बेकाबू जज़्बात , मेरे शब्दों में जो खुशबू है तुम्हारी अतृप्त बाहों की गंध है , इन चटकीले रंगों में नेह के बंध हैं इंद्रधनुषीय रंग में रंगे हुए मेरी तन्मयता के गहरे पल हैं , बदल सा गया हर मंजर यह भी रहा ना याद बह गया है वक्त ____ लेकर मेरे हिस्से के पलाश हां ____ मेरे रक्तिम पलाश ।          यामिनी नयन गुप्ता 2 .                   मां के आंगन का बसंत मां के आंगन का वृक्ष था वह हरा-भरा छितराया मन भर हरसिंगार इतना महका एक बार कि पीछे बाग को जाती पगडंडी  छुप गई थी मां बोली ” जा बिटिया ‼️ बीनकर ले आ कुछ हरसिंगार अपनी बिटिया और उसकी गुड़िया के लिए मैं बनाऊंगी छोटे-छोटे गजरे “ मैं जाकर झट से चुन लायी मन भर हरसिंगार अपनी  फ्रॉक  के सीमित वितान में। जिस सुबह एक बार जागकर पुनः चिर निद्रा में लीन हो गई थीं मां रोया नहीं था वो वृक्ष हरियाले तने हो गए थे काजल से स्याह खिलखिलाते पत्ते  हो गए धूल-धूसरित निर्जीव हो गयीं सफेद फूलों की नारंगी डंडियां , शायद अब कभी लौट कर नहीं आएगा इस आंगन में बसंत । मुक्ति द्वार में जाते समय भी मां को याद रहा होगा पिता का अकेलापन ; या कि मेरे बचपन की यादें या कि मां को भी याद आया होगा अपनी मां का चेहरा , मेरे शब्दों में रहती हैं वो कविता का नेपथ्य बनकर मां मैं  होना चाहती हूं तेरी रोशनाई । यामिनी नयन गुप्ता 3 .                  एक बसंत अपना भी ___                  जब एक पुरूष लगाता है स्त्री पर आक्षेप , अपनी श्रेष्ठता का सिद्ध करने के लिए करता है स्त्री अस्मिता का हनन , प्रथम दृष्ट्या प्रतिक्रिया स्वरुप काठ हो जाती है औरत नजर नीची किए साड़ी के पल्ले को घुमाती है उंगलियों की चारों तरफ और याद करती है सप्तपदी के वचन मन से भी तेज गति होती है अपमान की , वो हो जाती है अवाक् , निर्वाक् और तुम समझते हो __ विजयी हो गए ? जब तुम कहते हो , ” मूर्ख स्त्री !! तुम चुप नहीं रह सकतीं ?” यह महज़ एक तिरस्कार नहीं है उपेक्षा नहीं हैं यह है एक स्त्री को उसकी औकात बताने का उपक्रम स्त्री भला कब अपनी तरह से जीने को हुई स्वतंत्र एक स्वाभिमानी स्त्री को  नीचा दिखाने का है यह षड्यंत्र; जिस घर में होता है स्त्रियों का रुदन वह दहलीज हो जाती है बांझ श्मशान हो जाता है आंगन उस घर की बगिया से बारहोमास का हो जाता है पतझड़ का लगन  ; बुरे से बुरे अपशब्दों का समाज कर देता है सामान्यीकरण अरे !!  कुल्टा !! कुलक्ष्नी कह दिया तो क्या हुआ है तो भरतार ही , और एक दिन भर जाता है घडा़ अपमान का लबलबाकर उफन जाती है नदी वेदना की खंडित स्वाभिमान की चीखों से मौन हो जाता है भस्म , उधड़ चुकी मन की भीतरी सीवन से झर-झर जाती हैं निष्ठाएं , रेशे-रेशे जोडी़ महीन बुनावट  के ढीले पड़ जाते हैं बंधन पीले पड़ते पत्तों का कोरस ही नहीं हैं ये खांटी औरतें इनके जीवन में भी एक दिन आएगा अपना एक बसंत । यामिनी नयन गुप्ता नाम : यामिनी नयन गुप्ता जन्मतिथि : 28/04/1972 जन्मस्थान : कोलकाता शिक्षा : स्नातकोत्तर ( अर्थशास्त्र ) लेखन विधा : कविताएं , हास्य-व्यंग्य , लघुकथाएं काव्य संकलन : आज के हिंदी कवि (खण्ड१)                         दिल्ली पुस्तक सदन द्वारा                         तेरे मेरे शब्द ( साझा)                        शब्दों का कारवां ( साझा)                        मेरे हिस्से की धूप ( साझा )                        काव्य किरण  (साझा )                     चाटुकार कलवा 2020                       व्यंग्य संग्रह ( साझा )        एकल काव्य संग्रह ( अस्तित्व बोध) संप्रति : व्यवसायिक प्रतिष्ठान में कार्यरत सम्मान : काव्य संपर्क सम्मान              नवकिरण सृजन सम्मान  पाखी में प्रकाशित हुई हैं कविताएं एवं कथाक्रम में कहानी “कस्तूरी “      4th अगस्त समाचार पत्र जनसत्ता रविवारीय एवं जून की यथावत् में प्रकाशित हुई हैं कविताएं।        प्रतिष्ठित साहित्यिक समाचार पत्र जनसत्ता ,अमर उजाला एवं साहित्यिक पत्रिका आलोक पर्व , कथाक्रम सेतु ,मरू नवकिरण, अवधदूत ,  दैनिक युगपक्ष , ककसाड़ , सरिता , वनिता ,रूपायन व अन्य राष्ट्रीय स्तर के पत्र- पत्रिकाओं में कविताएं , लघुकथाएं , हास्य-व्यंग्य प्रकाशित । विषय  : नारी व्यथा ,विरह ,प्रेम..पर मैं लिखती हूं।साथ ही          वर्तमान परिपेक्ष्य में स्री् कशमकश ,जिजीविषा और          मनोभावों को कविता में उकेरने का प्रयास रहता है ।              yaminignaina@gmail.com मर्द के आँसू रिश्ते तो कपड़े हैं सखी देखो वसंत आया नींव आपको   “यामिनी नयन गुप्ता की कवितायेँ  “ कैसी   लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under-poem, hindi poem, mother, palash, yamini

सांता का गिफ्ट

क्रिसमस से संता का करिश्मा भी जुड़ा है | दुनिया भर के बच्चे क्रिसमस के दिन संता का इंतज़ार करते हैं | सफ़ेद दाढ़ी वाला ये दयालु आदमी स्लेज से आकर चुपके से लोगों के घरों में गिफ्ट छोड़ जाएगा | क्या क्रिसमस से एक रात पहले संता क्लाज गिफ्ट देते हैं और अगर देते हैं तो वो क्या है ? सांता का गिफ्ट  सुबह -सुबह जब बच्चे चमकती आँखों के साथ गले लग कर कहते हैं  ‘मेरी क्रिसमस “ तो मुझे याद आ जाती है उनकी बचपन की वो क्रिसमस जब दिसंबर की सर्द रातों में वो बेसब्री से किया करते थे सांता का इंतज़ार जो आधी रात को आएगा अपनी स्लेज में बैठकर और चुपके से खिड़की से डाल देगा उनकी पसंद का कोई उपहार चॉकलेट, पेंसिल, केक या उनके पसंद की कोई किताब कितनी सर्द रातों में उनींदी पलकों के कोरों झप जाने से रोकने की की थी असफल कोशिश नींद के आगोश में जाने से पहले नहीं बंद करने दी थी खिड़की भले ही ठिठुरते रहे  सब पर सांता को खिड़की नहीं मिलनी चाहिए बंद सांता यानी चमत्कार मनचाही मुराद पूरी होने का द्वार उम्र के जाने किस पायदान पर जब नहीं झपकने लगीं थी उनकी पलकें वो कर सकते थे इंतज़ार १२, १, २ बजे तक भी फिर भी खिड़की रहने लगी थी बंद ऐसा नहीं कि अब उन्हें संता पर विश्वास नहीं रहा या क्रिसमस  पर ख़ुशी का अहसास नहीं रहा हर क्रिसमस पर सुबह -सुबह उनकी चमकती आँखें देती हैं गवाही कि कल रात भी आया था सांता लम्बी सफ़ेद दाढ़ी के साथ अपनी स्लेज पर सवार हो कर और फिर  से दे गया है वही उपहार जो है चॉकलेट, खिलौनों और कपड़ों से भी कीमती जिसको लेने के लिए नहीं है जरूरत खिड़की खुली रखने की जरूरत है बस समझने की कि मनचाही मुराद पाने के लिए जरूरी है नींदों की कुरबानी कि जागती आँखों के कोरों को मेहनत की दिशा में झोंक देने से ही पूरा होता है मुरादों का सफ़र मुरादों के पूरा होने का सफ़र वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … सेंटा क्लॉज आयेंगे क्रिसमस पर 15 सर्वश्रेष्ठ विचार जीवन को दिशा देते बाइबिल के अनमोल विचार आपको  कविता “ सांता का गिफ्ट    “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  keywords; CHIRTMAS, CHRISTMAS TREE, SANTA CLAUS

बलात्कार के खिलाफ हुँकार

 हम उसी देश के वासी हैं जहाँ कभी कहा जाता था कि ,”यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता” आज उसी देश में हर १५ मिनट पर एक बलात्कार हो रहा है | ये एक दर्दनाक सत्य है कि आज के ही दिन निर्भया कांड हुआ था | बरसों से उसकी माँ अपराधियों को दंड दिलालाने के लिए भटक रही है | उसके बलात्कारी  “अपराध से घृणा करो, अपराधी से नहीं’  जैसे प्रवचन देते हुए  यह सिद्ध कर देते हैं कि उनमें आज भी अपराध बोध नहीं है | हाल ही का प्रियंका कांड हो या उन्नाव का, बिहार का या कठुआ का  किसी भी अपराधी को  इस बर्बरता के लिए छोड़ा  नहीं जाना चाहिए | देवी बना के ना पूजो, इंसान बन कर तो जीने दो |स्त्री सुरक्षा के लिए जरूरी हैं कठोर कानून और उनका तुरंत क्रियान्वन | पढ़िए निर्भय काण्ड की बरसी पर ये आक्रोश से भरी कविता … बलात्कार के खिलाफ हुँकार  नारी सर्वत्र पूज्यते कीअब बात खोखली लगती हैनित-नित चीर हरण होताहर बात दोगली लगती हैचारों ओर प्रवृत्ति आसुरीबढ़ता जाता है व्यभिचारपूजा तो अति दूर,निरन्तरबलात्कार हो बारम्बारहवस पूर्ति करके औरत कोअग्नि हवाले यह करतेकलियुग के पापाचारीहैं दुराचार के घट भरतेजिन कोखों से जन्म लिया हैउन्हे लजाते शर्म नहींबहन , बेटियों की मर्यादाकरें भ॔ंग ; कोई धर्म नहींजहाँ जानकी ,राधा,काली ,दुर्गा हैं पूजी जातीराम,कृष्ण के देश भलाक्योंकर जन्मे ये कुलघाती?इन्सानों का भेषजानवर से बद्तर इनकी करनीखोद रहे अपनी ही कब्रेंकुटिल , निकम्में , दुष्कर्मी उषा अवस्थी  यह भी पढ़ें …. मर्द के आँसू वो पहला क्रश रिश्ते तो कपड़े हैं सखी देखो वसंत आया नींव आपको  कविता   “बलात्कार के खिलाफ हुंकार “   लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |      filed under-poem, hindi poem, rape, crime against women, rape victim,   

मर्द के आँसू

मर्द के आंसुओं पर बहुत बात होती है | बचपन से सिखाया जाता है , “अरे लड़के होकर रोते हो | बड़े होते होते भावनाओं पर लगाम लगाना आ जाता है | पर आंसू तो स्वाभाविक हैं | वो किसी ना किसी तरह से अपने निकलने का रास्ता खोज ही लेते हैं | आइये जानते हैं कैसे … मर्द के आँसू  कौन कहता है की मर्द नहीं रोते हैं उनके रोने के अंदाज जुदा होते हैं सामाज ने कह -कह कर उन्हें ऐसा बनाया है आंसुओं को खुद ह्रदय में पत्थर सा जमाया है पिघलते भी हैं तो  ये आँसू रक्त में मिल जाते हैं और सारे शरीर में बस घुमते रह जाते हैं | बाहर निकलने का रास्ता कहाँ मिल पाता है | इसलिए ये खून इनके अंतस को जलाता है दर्द की किसी शय पर जब मन बुझ  जाता है तो दुःख के पलों में इन्हें गुस्सा बहुत आता है  कई बार जब ये गुस्से में चिल्ला रहे होते हैं या खुदा ! दिल ही दिल में आँसू बहा रहे होते हैं | लोग रोने पर औरत के ऊँगली उठाते हैं , उसको नाजुक और कमजोर बताते हैं | पर औरत तो आंसू पोछ कर सामने आती है पूरी हिम्मत से फिर मैदान में जुट जाती है पर मर्द अपने आंसुओं को कहाँ पाच पाता है | वो तो आँसुओं के साथ बस रोता ही रह जाता है | एक औरत जब आँसुओं का साथ लेती है बड़े ही प्रेम से दूजी का दुःख बाँट लेती है | पर आदमी, खून में अपने आँसू छिपाता है इसलिए दूसरा आदमी समझ नहीं पाता है | ताज्जुब है कि इन्हें औरत ही समझ पाती है | अपने आँसुओं से उस पर मलहम लगाती है | हर मर्द की तकलीफ जो उसे दिल ही दिल में सताती है उसकी माँ , बहन , बेटी पत्नी की आँखों से निकल जाती है | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस -परिवार में अपनी भूमिका के प्रति  सम्मान की मांग  या परदे उखड फेंकिये या रिश्ते प्रेम की ओवर डोज खतरनाक है जरूरत से ज्यादा मोबाइल का इस्तेमाल आपको आपको  लेख “मर्द के आँसू“ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  फाइल्ड अंडर – Iternational Man’s Day , aansoon , tear , man’s tear , poem 

भाई -दूज पर मुक्तक

दीपावली के दूसरे दिन भाई दूज का त्यौहार मनाया जाता है | इस दिन बहनें अपने भाई के माथे पर रोली अक्षत का टीका लगा कर उसके लिए दीर्घायु की प्रार्थना करती हैं | कहा जाता है कि इसी दिन मृत्यु के देवता यमराज अपनी बहन यमी के निमंत्रण पर वर्षों बाद उसके घर भोजन करने गए थे | तभी यमी ने संसार की सभी बहनों के लिए ये आशीर्वाद माँगा था कि जो भी भाई आज के दिन अपनी बहन का आतिथ्य स्वीकार कर उसके यहाँ भोजन करने जाए उसे वर्ष भर यमराज बुलाने ना आयें | इसी लिए आज के दिन का विशेष महत्व है | फिर भी बदलते ज़माने के साथ बहनें इंतज़ार करती रह जाती हैं और भाई अपने परिवार में व्यस्त हो जाते हैं | जमाना बदल जाता है पर भावनाएं कहाँ बदलती है | बहनों की उन्हीं भावनाओं को मुक्तक में पिरोने की कोशिश  की है |  भाई -दूज पर मुक्तक  कि अपने भाई को देखो बहन  संदेश लिखती है चले आओ  कि ये आँखें  तिहारी राह तकती हैं सजाये थाल  बैठी हूँ तुम्हारे ही लिए भाई तुम्हारी याद  में आँखें घटाओं सम बरसतीं हैं …………………………………………. तुझे भी याद तो होंगी पुरानी वो सभी दूजे बहन के सात भाई चौक पर जो थे कभी पूजे बताशे हाथ में देकर सुनाई थी कथा माँ ने सुनाई दे रहीं मुझको न जाने क्यों अभी गूँजें ———————————————— वर्ष बीते  मिले  हमको गिना है क्या कभी तुमने पलों को  भी  जरा सोचो    लगाया है   गले      हम ने  खता हुई      बताओ क्या  जरा  सी  बात पर रूठे                        कि आ जाओ मनाउंगी   उठाई   है कसम  हमने  —————————————- बने भैया    बहन आठों       धरा पे  चौक  आटे से  लगे ना चोट पाँवों  में     कभी  राहों के    काँटे  से  चला मूसर कुचल दूँगी     अल्पें तेरी   मैं  राहों की  बटेगा   ना  कभी     बंधन    हमारा  प्रभु    बांटे से  वंदना बाजपेयी मुक्तक –मु –फाई-लुन -1222 x 4 यह भी पढ़ें … प्रेम दीपक आओ मिलकर दिए जलायें धनतेरस -दीपोत्सव का प्रथम दिन दीपावली पर 11 नए शुभकामना सन्देश लम्बी चटाई के पटाखे की तरह हूँ मित्रों , आपको  ‘भाई -दूज पर मुक्तक‘ कैसे लगे   | पसंद आने पर शेयर करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें |  अगर आपको ” अटूट बंधन ” की रचनाएँ पसंद आती हैं तो हमारा फ्री ईमेल सबस्क्रिप्शन लें ताकि सभी  नयी प्रकाशित रचनाएँ आपके ईमेल पर सीधे पहुँच सके |  filed under-bhaiya duj, bhai-bahan, muktak