देश गान

                   स्वतंत्रता दिवस का अर्थ केवल जश्न मनाना नहीं है ये दिन हमें हमारे कर्तव्यों को याद दिलाता है | तो आइये हम भी अपने देश के प्रति अपने कर्तव्यों  को पालन करने का संकल्प लें | जैसा कि इस देश गान में लिया है …. देश गान  तमस के आवरण को चीर रोशनी का डेरा  हैनई किरण से नित उतरता देश में सवेरा हैले ऊर्जा नई – नई नया जहाँ बसाएगेंहम अपने देश की धरा को स्वर्ग सा बनाएगेंबनाएगें , बनाएगें , बनाएगें , बनाएगें   विशाल भाल देश का न झुकने  देगें हम कभीमहर्षियों के ज्ञान को न मिटने देगें हम कभीप्रत्येक ज्योति से नवीन ज्योति हम जलाएगेंहम अपने देश की धरा को स्वर्ग सा बनाएगेंबनाएगें , बनाएगें , बनाएगें , बनाएगे वरण करेगी विजय श्री बढ़ेगें ये कदम जिधरबुरी निगाह गर किसी की उठ गई कभी इधरतो एक काश्मीर क्या जहाँ को जीत लाएगेंहम अपने देश की धरा को स्वर्ग सा बनाएगेंबनाएगें , बनाएगें , बनाएगें बनाएगें ऐ देश के जवानों है तुम्हे नमन , तुम्हे नमनजो बलि हुए तिरंगे पर उन्हे नमन,उन्हे नमनतुम्हारे धैर्य शौर्य को कभी न भूल पाएगेंहम अपने देश की धरा को स्वर्ग सा बनाएगेंबनाएगें , बनाएगें ,बनाएगें बनाएगें उषा अवस्थी फोटो क्रेडिट –indiawish.in यह भी पढ़ें … क्या है स्वतंत्रता का सही अर्थ भारत बनेगा फिर से विश्व गुरु आइये स्वतंत्रता दिवस पर संकल्प ले नए भारत के निर्माण का स्वतंत्रता दिवस पर आधी आबादी जाने अपने अधिकार भावनात्मक गुलामी भी गुलामी ही है स्वतंत्रता दिवस पर विशेष : मैं स्वप्न देखता हूँ एक ऐसे स्वराज्य के मेरा भारत महान ~जय हिन्द  आपको    “देश गान “   कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: India, poetry, hindi poetry, kavita, Bharat mata, Independence day, swatantrta divas

अनकही

क्या आपने कभी सोचा है ….घर में सब ठीक है के पीछे एक स्त्री कितनी बातें , ताने दर्द लील जाती है किसी मीठी गोली की तरह | कितनी बातें रह जाती हैं अनकही | कविता -अनकही  सुबह -सुबह की भाग-दौड़ के बीच मम्मी मेरे मोज़े कहाँ हैं ? मेरी फ़ाइल जाने कहाँ रख देती हो , बहु सुबह गुनगुन पानी में नीबू शहद जल्दी दे दिया करो , नहीं होता पेट साफ और सारा दिन बनी रहती है हाज़त के बीच रोकते हुए आँसूं तय कर लिया था उसने आज कह दूंगी वो सब जो बरसों से दबा है मन में इस दौड़ भाग के बीच कुछ उसकी भी अहमियत है इस घर में जैसे ही खोलने चाहे होंठ ससुर ने मुँह बनाया अब रहने दो बची है है चार दिन की जिंदगी एक समान होते हैं बूढ़े और बच्चे थोडा जल्दी उठ जाया करो बस … सब ठीक रहेगा पति ने कर दिया ईशारा न -ना … आज नहीं बॉस से आया हूँ डांट खाकर आज ही निपटानी हैं ये फाईलें बच्चे भी लगाने लगे गुहार नहीं मम्मी मेरा मैथ टेस्ट प्रोजेक्ट सम्मीशन आज नहीं फिर कभी टपकने को आतुर शब्दों को उसने फिर कर लिया अंदर लार के साथ रह गयी फिर  अनकही ये सोच कर की गटक ही लो इससे  दुरुस्त रहता है इससे परिवार का हाजमा आखिर सब अपने ही तो है … नीलम गुप्ता यह भी पढ़ें …. रूचि भल्ला की कवितायें अनामिका चक्र वर्ती की कवितायें वीरू सोनकर की कवितायें अजय चंद्रवंशी की लघु कवितायें आपको    “ अनकही “    | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: Women, poetry, hindi poetry, kavita

चटाई या मैं

चटाई जमीन पर बिछने के लिए ही बनायीं जाती है | उसका धागा पसंद करने , ताना -बाना बुनने और कर्तव्य निर्धारित करने सब में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि इस्तेमाल करने वाले को आराम मिले …. पर चटाई का ध्यान , उसकी भावनाओं का ध्यान रखने की जरूरत भला किसको है |  गौर से देखेंगे  तो आप को एक स्त्री और चटाई में साम्यता दिखाई देगी और  चटाई में स्त्री का  रुदन सुनाई देगा | तभी तो कवियत्री कह उठती है … चटाई या मैं क्या कहते हो ?  क्या मैं चटाई हूँ ?  कहो ना …?  मुझे मेरा परिचय चाहिए ?  “हाँ” सच चटाई ही तो हूँ मैं !!!! बाउजी ने कुछ धागे पसंद किये  और माँ ने बुन दिया सालों अड्डी पर चढ़ाए रखा कुछ कम करते कुछ बढ़ाते नए नए रंग भरते/ फिर मिटाते  कभी मुझे फूल कहते / कभी कली कभी ज्यादा लडा जाते तो कहते परी  ज्यों ज्यों बुनते जाते देख देख यूँ इतराते की पूरे बाजार में ऐसी चटाई कहीं नहीं ….।। वो मुझे सुलझाते  मुझ पर नए चित्र सजाते और मैं ???? उलझती जाती खुद ही खुद में कितनी रंगीली हूँ मैं !  हाय!!!! कितनी छबीली फिर काहें कोठारिया नसीब में  और ये अड्डी……।। एक पर्दा भी तो  जन्मा था माँ ने हर किसी की आँखों में सजा रहता और मैं ??? पैरों में बिछाई जाती कभी पानी / कभी चाय रसोई में दौड़ाई जाती  माँ डपटती / सीने को ढकती  फिर मैं चलती और झूठा ही लज्जाति जो नहीं थी मैं / उस अभिनय के नित नए स्वांग रचाती ….।। माई बुनती रही मुझे  धोती/ पटकती / रंगती /  बिछाती/ समेटती एक -एक धागा कस -कस के खींचती हाय ! कितनी घुटन होती थी माँ जब कस देती आँखों में मर्द जात का डर पिता से घिग्गी और  टांगों में सामाजिक रीतियाँ  और पर्दा ????? पर्दा मुझे ढके रखता इससे , उससे और सबसे ….।। मेहनत तो रंग लाती है  रंग लाई  दूल्हों के बाज़ार में  मैं सबसे सुंदर चटाई  कईं खरीददार आते/ मुआयना करते  मैं थी सस्ती – टिकाऊ सुंदर चटाई तो हर किसी के मन भाई  परिणामस्वरूप तुम तक पहुंची और घर की रौनक बढ़ाई ….।। आज भी बिछती हूँ घिसटती हूँ / रंगी जाती हूँ नित नए रिश्तों से / कसी जाती हूँ  कभी बिछती हूँ तो  काम क्षुधा बुझाती हूँ कभी सजती हूँ तो मेहमानों का दिल बहलाती हूँ अपनी ही घुटन में  आज भी … कभी उधड़ती हूँ और  बार – बार फट जाती हूँ माँ के दिए पैबंद दिल के छेदों पर चिपकाती हूँ और नई सुबह से  नए रंग में  चरणों में बिछ जाती हूँ .. .. चरणों में बिछ जाती हूँ …..।। संजना तिवारी यह भी पढ़ें. मैं माँ की गुडिया ,दादी की परी नहीं … बस एक खबर थी कच्ची नींद का ख्वाबकिताबें कतरा कतरा पिघल रहा है आपको ”  चटाई या मैं  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- poem in Hindi, Hindi poetry, women ये कविता अटूट बंधन पत्रिका में प्रकाशित है 

फूल गए कुम्हला

किसी का आगमन तो किसी का प्रस्थान ये जीवन का शाश्वत नियम है |  प्रात : सुंदरी सूर्य की रश्मियों के रथ पर बैठ कर जब आती है तो संध्या को खिलने वाले फूल कुम्हला जाते हैं और दीपक धुंधले पड़ जाते हैं | आईये पढ़ें प्रकृति का मनोहारी वर्णन करती हुई कविता … फूल गए कुम्हला   फूल गए कुम्हला , साँझ के दीप गए धुंधला फूल गए कुम्हला   देव भास्कर का सारथि  आरुण रथ ले आया अंधकार डूबा , पूरब में है प्रकाश झाँका फूल- – – – नव किरणें संदेश बिखेरें सुप्रभात आया भानु बढ़ रहे लेकर रथ अब , नव प्रकाश छाया फूल- – – – प्रात कुमुदिनी , सकुचाई खिली कमलिनी पाँत भ्रमर कर रहे मधुमय गुंजन  ज्योति भरे आकाश फूल गए कुम्हला , साँझ के दीप गए धुंथला फूल गए कुम्हला मौलिक एवं स्वरचित उषा अवस्थी विराम खण्ड, गोमती नगर, लखनऊ (उ0 प्र) यह भी पढ़ें … रूचि भल्ला की कवितायें अनामिका चक्र वर्ती की कवितायें वीरू सोनकर की कवितायें अजय चंद्रवंशी की लघु कवितायें आपको    “ फूल गए कुम्हला  “    | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: flower, poetry, hindi poetry, kavita

सावन अट्ठारह साल की लड़की है

कविता के सौदर्य में उपमा से चार -चाँद लग जाते हैं | ऐसे में सावन की चंचलता , अल्हड़ता , शोख नजाकत भरी अदाएं देख कर क्यों न कवि उसे १८ साल की लड़की समझ बैठे | आइये पढ़ें एक रिमझिम फुहारों में भीगी सुन्दर कविता सावन अट्ठारह साल की लड़की है सावन———– सीधे-साधे गाँव की, एक अट्ठारह साल की लड़की है. भाभी की चुहल और शरारत, बाँहों मे भरके कसना-छोड़ना, एक सिहरन से भर उठी——- वे सुर्ख से गाल की लड़की है. सावन——– सीधे-साधे गाँव की, एक अट्ठारह साल की लड़की है. वे उसका धान की खेतों से तर-बतर, बारिश मे भीगते हुये, घर की तरफ लौटना, और उस लौटने मे उसके, पाँव की सकुचाहट, उफ! गाँव मे सावन——– बहुत ही मादक और कमाल की लड़की है. सावन——— सीधे-साधे गाँव की, एक अट्ठारह साल की लड़की है. न शायर,न कवि, न नज़्म, न कविता वे उर्दू और हिन्दी दोनो से कही ऊपर, किसी देवता,फरिश्ते के हाथ से छुटी, इस जमीं पे उनके——– खयाल की लड़की है. सावन———- सीधे-साधे गाँव की, एक अट्ठारह साल की लड़की है. @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी. जज कालोनी, मियाँपुर जिला—जौनपुर–222002 (उत्तर-प्रदेश). atootbandhann.com पर रंगनाथ दुबे की रचनाएँ पढने के लिए क्लिक करें –रंगनाथ दुबे यह भी पढ़ें … सुई बन , कैंची मत बन संबंध गीत -वेग से भ रहा समय नए साल पर पांच कवितायें आपको    “   गीत सम्राट कवि नीरज जी के प्रति श्रद्धांजलि  “  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under: Rainy Season, rain, savan, young girl, poem in Hindi

गीत सम्राट कवि नीरज जी के प्रति श्रद्धांजलि

४ जनवरी १९२५ को इटावा में जन्मे   हर दिल अजीज गीत सम्राट गोपाल दास सक्सेना “नीरज ” …. जिन्हें हम सब कवि  नीरज के नाम से जानते हैं १९ जुलाई २०१८ को हमें  अपने शब्दों की दौलत थमा कर अपना कारवाँ ले कर उस लोक की महफ़िल सजाने चले गए | उनके जाने से  साहित्य जगत शोकाकुल है | हर लब  पर इस समय कविवर “नीरज “के गीत हैं | भले ही आज ‘नीरज ‘जी हमारे बीच नहीं हैं पर अपने शब्दों के माध्यम से वो अमर हैं | गीत सम्राट कवि नीरज जी के प्रति श्रद्धांजलि  हायकू  गीत सम्राट  अनंत ओर चले  विवश मन। गीत रहेंगे  सबके हृदय में  मीत बनेंगे। मृत्यु सत्य है  मत अश्रु बहाना  करना याद। तुम्हारे गीत  साहित्य प्रेमियों को  भेंट अमूल्य। जीवित सदा  साहित्य से अपने  रहोगे तुम। ..सादर नमन। ..डा० भारती वर्मा बौड़ाई —————————- ०२—छोड़ सभी कुछ जाना होगा ——— नियत समय जब भी आयेगा  छोड़ सभी कुछ जाना होगा, पृथ्वी-कर्म सब पूरे कर अपने  स्वर्ग प्रयाण कर जाना होगा  अब यह तो अपने ही वश है  कैसे क्या-क्या कर्म करें हम  सूखे पात से गिर कर बिखरें  या हृदय से बन प्रीत झरें हम! ……….स्मृति शेष नीरज जी की स्मृति को शत-शत नमन। ———————————— डा०भारती वर्मा बौड़ाई चित्र विकिपीडिया से साभार यह भी पढ़ें … सबंध बैसाखियाँ मेखला जोधा -अकबर और पद्मावत क्यूँ है मदर्स डे -माँ को समर्पित कुछ भाव पुष्प आपको    “   गीत सम्राट कवि नीरज जी के प्रति श्रद्धांजलि  “  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: GOPAL DAS NEERAJ

सुई बन , कैंची मत बन……

कहते हैं कि माँ की हर बात में शिक्षा होती है | ये कविता आभा जी ने अपनी माँ की शिक्षा के ऊपर ही लिखी है जिसमें वो परिवार को जोड़े रखने के लिए सुई बनने की शिक्षा देती है | ये शिक्षा हम सब के लिए बहुत उपयोगी है | कविता -सुई बन कैची मत बन  बचपन में जब कभी  हम भाई-बहिन  आपस में झगड़ते थे  किसी भी खिलौने या  मनचाही चीज़ों पर  ये मेरा है , ये तेरा है  कहकर लड़ पड़ते थे  हर छोटी-छोटी बातों में  माँ -माँ कहकर  चिल्लाते थे ……!! तब घर की परेशानियों से लड़ती  पैसों की तंगी से जूझती  हमे बेहतर भविष्य देने की  कोशिश में तत्पर रहती  माँ !!  सब भाई- बहिन में बड़ी होने के नाते  मेरा हाथ पकड़ती  कान खींचती  और वही जाना -पहचाना वाक्य  दोहरा देती …. “सुई बन , कैंची मत बन ” ……!! तब मेरा बालमन  इस वाक्य के अर्थ से अनभिज्ञ  इसे माँ की डांट समझ  सहज ही भूल जाता था  लेकिन आज !!  उम्र के इस दौर में  एक कुशल गृहणी का  कर्तव्य निभाते हुए  संयुक्त परिवार को  एक सूत्र में बांधे हुए  माँ की डांट में छुपे गूढ़ अर्थ को  जान पायी हूँ  कि रिश्तों को जोड़ना सीखो , तोड़ना नहीं  अब जान गयी हूँ कि !  कैसे सुई –दो टुकड़ों को एक करती है  और  कैंची –एक टुकड़े को दो टुकड़ों में बांटती है …..!!!!!!! आभा खरे  यह भी पढ़ें … सबंध बैसाखियाँ मेखला जोधा -अकबर और पद्मावत क्यूँ है मदर्स डे -माँ को समर्पित कुछ भाव पुष्प लेखिका परिचय नाम —- आभा खरे जन्म —- ५ अप्रैल, लखनऊ (उत्तर प्रदेश) शिक्षा —- बी.एस.सी (प्राणी विज्ञान) सम्प्रति —- स्वतंत्र लेखन लखनऊ से प्रकाशित साहित्य व संस्कृति की त्रेमासिक पत्रिका “ रेवान्त “ में सह संपादिका के रूप में कार्यरत प्रकाशित कृतियाँ —- ‘गुलमोहर’, ‘काव्यशाला’, ‘सारांश समय का’, ‘गूँज’                   ‘अनुभूति के इन्द्रधनुष’ ‘काव्या’(सभी साझा संकलन) में                   रचनाएँ सम्मलित वेब पत्रिका : १)अभिव्यक्ति अनुभूति             २)हस्ताक्षर              में नियमित रचनाओं का प्रकशन इसके अतिरिक्त विभिन्न समाचार पत्रों के साहित्यिक परिशिष्ट में रचनाएँ प्रकाशित !! आपको    “    सुई बन , कैंची मत बन……“  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: women, poetry, hindi poetry, kavita, , scissors, nail

सबंध

रिश्ते टूट जाते पर यादे साथ नहीं छोडती | इतना अंतर अवश्य है जो कभी फूल से सुवास देती है वो विछोह के बाद नागफनी के काँटों सी  गड़ती हैं | टूट कर भी नहीं टूटते ये सबंध  सबंध  तुम्हारा मेरा “संबंध”….माना की भूल जाना चाहिए था,मुझे अब तक……! पर लगता है एक शून्य अब भी है,जो बिना कहे सुने पल रहा हैहमारे बीच……! आज वही शून्य मुझसे कह रहा है,कीवह सब यदि मुझे भुला नहीं ,तोभूल जाना चाहिए अवश्यएकदम अभी, आज ही, इसी वक़्त.. पर उन यादों को मिटाना क्या आसान है….???जो नागफनी की तरहमेरे “मन” के हर कमरे मेंफर्श से लेकर दीवारों तक फैले हैं…जिसका दंश रह-रह कर शूल साचुभता रहता है…!! याद है…?तुम हमेशा कहा करते थेनागफनी तो सदाबहार होती है…!————————–शायद इसलिए सदाबहार की तरह छाये रहते हो मेरे मन- मस्तिष्क पर ..। -नंदा पाण्डेयरांची (झारखंड) यह भी पढ़ें … बैसाखियाँ एक दिन मेहनतकशों के नाम अम्बरीश त्रिपाठी की कवितायें रंडी एक वीभत्स भयावाह यथार्थ आपको    “   सबंध   “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita, relation, relationship

मंदिर-मस्जिद और चिड़िया

सारे धर्म भले ही बाँटने की कोशिश करें पर हवा , पानी , खशबू , जीव जंतुओं को कौन बाँट पाया है | ऐसे ही चिड़िया की बात कवि ने कविता में की है जो मंदिर -मस्जिद में भेद भाव न करके इंसानों से कहीं ज्यादा सेकुलर है | कविता –मंदिर-मस्जिद और चिड़िया मै देख रहा था——— अभी जो चिड़िया मंदिर के मुँडेर पे बैठी थी, वही कुछ देर पहले——– मस्जिद के मुँडेर पे बैठी थी. वहाँ भी ये अपने पर फड़फड़ाये उतरी थी, चंद दाने चुगे थे, यहाँ भी अपने पंख फड़फड़ाये उतरी, और चंद दाने चुग, फिर मंदिर की मुँडेर पे बैठ गई. फिर जाने क्यूँ एक शोर उठा, मंदिर और मस्जिद में अचानक से लोग जुटने लगे, और वे चिड़िया सहम गई. शायद चिड़िया को मालूम न था कि वे, जिन मंदिर-मस्जिद के मिनारो पे, अभी चंद दाने चुग, अपने पंख फड़फड़ाये बैठी थी, उसमे हिन्दू और मुसलमान नाम की कौमे आती है, जहा से हर शहर और गाँव के जलने की शुरुआत होती है, और हुआ भी वही, फिर उस चिड़िया ने अपने पर फड़फड़ाये मिनार से उड़ी, और फिर कभी मैने उस चिड़िया को, शहर के दंगो के बाद, दाना चुग पर फड़फड़ा, किसी मंदिर या मस्जिद की मिनार पे बैठे नही पाया , शायद वे चिड़िया एै “रंग “———– हम इंसानो से कही ज्यादा सेकुलर निकली. रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी । जज कालोनी, मियाँपुर जौनपुर—-222002 (उत्तर-प्रदेश) यह भी पढ़ें … बोनसाई काव्यकथा -गहरे काले रंग के परदे शहीद दिवस पर कविता संगीता पाण्डेय की कवितायें आपको    “  मंदिर-मस्जिद और चिड़िया   “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita, mandir, masjid, bird

पुर्नस्थापन

तुलसी मात्र एक पौधा ही नहीं है वो हमारी संस्कृति और भावनाओं का प्रतीक भी है  जिसका पुनर्स्थापन जरूरी है | प्रतीक के माध्यम से संवेदनाओं को संजोने का सन्देश देती कविता  कविता -पुर्नस्थापन क्यों तुलसी को उसके   आँगन से उखाड़ ले जाओगे ? भला वहाँ कैसे पनपेगी रोप कहाँ तुम पाओगे ? इतने दिन की पाली पोसी कैसे यह बच पाएगी अपने गाँव शहर से कटकर यह कैसे रह पाएगी ?  जब अनुकूल नहीं जलवायु नहीं सहन कर पाएगी दे विश्रान्ति उसे , तुम ऐसी खाद कहाँ से लाओगे ?  अन्तराल से जो रीते मन के संवेग जगाओ तुम  फिर आकर उसको , उसके आँगन से लेकर जाओ तुम उषा अवस्थी गोमती नगर , लखनऊ (उ0 प्र0) यह भी पढ़ें …… आखिरी दिन निर्भया को न्याय है सखी देखो वसंत आया लज्जा फिर से रंग लो जीवन वृक्ष की तटस्थता आपको    “  पुर्नस्थापन   “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita,