पुरानी फाँक
पूर्वानुमान या इनट्युशन किसी को क्यों होता है इसके बारे में ठीक से कहा नहीं जा सकता | फिर भी ये सच है कि लोग ऐसे दावे करते आये हैं कि उन्हें घटनाओं के होने का पूर्वानुमान हो जाता है | ऐसी ही है इस कहानी की नायिका बिल्लौरी उर्फ़ उषा | लेकिन बातों के पूर्वानुमान के बाद भी क्या वो अपना भविष्य बदल सकी या भविष्य में होने वाले दर्दों को जिन्हें वो पहले ही महसूस करने में सफल हुई थी वो अतीत की पुरानी फाँक के रूप में उसे हमेशा गड़ते रहे | पढ़िए वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा की कहानी … पुरानी फाँक सुबह मेरी नींद एक नये नज़ारेने तोड़ी है….. कस्बापुर के गोलघर की गोल खिड़की परमैं खड़ी हूँ….. सामने मेरे पिता का घर धुआँ छोड़ रहा है….. धुआँ धुहँ…… काला और घना….. मेरी नज़र सड़क पर उतरती है…… सड़क झाग लरजा रही है….. मुँहामुँह….. नींद टूटने पर यही सोचती हूँ, उस झाग से पहले रही किस हिंस्र आग को बेदम करने कैसे दमकल आए रहे होंगे….. हुँआहुँह….. सोचते समय दूर देश, अपने कस्बापुर का वह दिन मेरे दिमाग़ में कौंध जाता है….. “चलें क्या?” गोलघर के मालिक के बीमार बेटे सुहास का काम निपटाते ही मंजू दीदी मुझे उसके कमरे की गोल खिड़की छोड़ देने का संकेत देती हैं. “चलिए,” झट से मैं मंजू दीदी की बगल में जा खड़ी होती हूँ. वे मेरी नहीं मेरी सौतेली माँ की बहन हैं और मेरी छोटी-सी चूक कभी भी महाविपदा का रूप ग्रहण करसकती है….. हालाँकि उस खिड़की पर खड़े रहना मुझे बहुत भाता है. वहाँ से सड़क पार रहा वह दुमंजिला मकान साफ़ दिखाई दे जाता है जिसकी दूसरी मंजिल के दो कमरे मेरेपिताने किराये पर ले रखे हैं. ऊपर की खुली छत के प्रयोग की आज्ञा समेत. अपनीदूधमुँही बच्ची को अपनी छाती से चिपकाए घर के कामकाज मेंव्यस्त मेरी सौतेली माँ इस खिड़की से बहुत भिन्न लगती हैं- एकदम सामान्य और निरीह. उसके ठीक विपरीत अपनी मृत माँ मुझे जब-जब दिखाई देती हैं, वह हँस रही होती हैं या अपने हाथ नचाकर मेरी सौतेली माँ को कोई आदेश दे रही होती हैं….. “आप बताइए, सिस्टर,” सुहास मंजू दीदी को अपने पास आने का निमन्त्रण देता है, “आपकी यह बिल्लौरी कहती है, मेरी खिड़की से उसे भविष्य भी उतना ही साफ़ दिखाईदेता है जितना कि अतीत. यह सम्भव है क्या?” “मुझे वर्तमान से थोड़ी फुरसत मिले तो मैं भी अतीत या भविष्य की तरफ़ ध्यान दूँ.” मंजू दीदी को सुहास का मुझसे हेलमेल तनिक पसन्द नहीं, “जिन लोगों के पास फुरसत-ही-फुरसत है, वही निराली झाँकियाँ देखें……” “फुरसत की बात मैं नहीं जानता,” सुहास हँस पड़ा है, “लेकिन इतना ज़रूर जानता हूँ, वर्तमान से आगे या पीछे पहुँचना असम्भव है और इसीलिए आपकी बिल्लौरी को अपने वर्त्तमान में पूरी तरह सरक आना चाहिए…..” “बुद्धितो इसी बात में है.” मंजू दीदी मुझे घूरती हैं. “तुम्हें अपने वर्तमान को अनुभवों से भर लेना चाहिए.” सुहास मेरी ओर देखकर मुस्कराता है, “चूँकि तुम्हारे पास नये अनुभवों की कमी है, इसलिए तुम आने वाले अनुभवों का मनगढ़न्त पूर्व धारण करती हो या फिर बीत चुके अनुभवों का पुनर्धारण. तुम्हें केवल अपने वर्तमान को भरना चाहिए.” “वर्तमान?” घबराकर मैं अपनी आँखें मंजू दीदी के चेहरे पर गड़ा लेती हूँ. मेरा वर्तमान? खिड़की के उस तरफ़ एक भीषण रणक्षेत्र? और इस तरफ़ एक तलाकशुदा छब्बीस वर्षीय रईसजादे के साथ एक कच्चा रिश्ता? दोनों तरफ़ एक ढीठ अँधेरा? “चलें?” मंजू दीदी समापक मुद्रा से अपने हाथ का झोला मेरी ओर बढ़ा देती हैं. मैं उसे तत्काल अपनी बाँहों में ला सँभालती हूँ. उनके झोले में लम्बेदस्तानोंऔर ब्लडप्रेशरकफ़ के अतिरिक्त स्टेथोस्कोप भी रहता है. वे सरकारी अस्पताल में सीनियर नर्स हैं और अपने ख़ाली समय में सुहास के पास कई सप्ताह से आ रही हैं. अपनी सहायता के लिए वे मुझे भी अपने साथ रखती हैं. “कलयहबिल्लौरी गोलघर नहीं जाएगी.” मंजू दीदी आते ही बहन के सामने घोषणा करती हैं, “वहाँ मेरा काम बँटाने के बजाय मेरा ध्यान बँटा देती है…..” “कहाँ?” मैं तत्काल प्रतिवाद करती हूँ, “बिस्तर मैं बदलती हूँ. स्पंज मैं तैयार करती हूँ. तौलिए मैं भिगोती हूँ, मैं निचोड़ती हूँ…..” सुहासका काम करना मुझे भाता है. वैसेउसकीपलुयूरिसी अब अपने उतार पर है. उसके फेफड़ों को आड़ देने वाली उसकी पलुअर कैविटी, झिल्लीदार कोटरिका, में जमा हो चुके बहाव को निकालने के लिए जो कैथीटर ट्यूब, नाल-शलाका, उसकी छाती में फिट कर दी गयी थी, उसे अब हटाया जा चुका है. उसकी छाती और गरदन का दर्द भी लगभग लोप हो रहा है. उसकी साँस की तेज़ी और क्रेकल ध्वनि मन्द पड़ रही है और बुखार भी अब नहीं चढ़ रहा. “समझ ले!” मेरी सौतेली माँ मुझसे जब भी कोई बात कहती हैं तो इन्हीं दो शब्दों से शुरू करती हैं, “मंजू का कहा-बेकहा जिस दिन भी करेगी उस दिन तेरा एक टाइम का खाना बन्द…..” “मैंउनका कहा हमेशा सुनती हूँ.” सोलह वर्ष की अपनी इस आयु में मुझे भूख़ बहुत लगती है, “आगे भी सुनती रहूँगी.” “ठीक है.” मंजू दीदी अपनी बहन की गोदी में खेल रही उनकी बच्ची को मेरे कन्धे से ला चिपकाती है, “इसे थोड़ा टहला ला. छत पर ताज़ी हवा खिला ला.” माँ से अलग किए जाने पर आठ माह की बच्ची ज़ोर-ज़ोर से रोने लगती है. “मेरे पास खेलेगी?” मेरी सौतेली माँ उसकी ओर हाथ बढ़ाती हैं. अपनी बेटी को वे बहुत प्यार करती हैं. “अबछोड़िए भी.” मंजू दीदी उन्हें घुड़क देती हैं, “कुछ पल तो चैन की साँस ले लिया करें…..” “समझले,” मेरी सौतेली माँ अपने हाथ लौटा ले जाती हैं, “इसे अपने कन्धे से तूने छिन भर के लिए भी अलग किया तो मुझसे बुरा कोई न होगा.” उनकी आवाज़ में धमकी है. बच्ची और ज़ोर से रोने लगती है. उसके साथ मैं छत पर आ जाती हूँ. उसे चुप कराने के मैंने अपने ही तरीक़े ख़ोज रखे हैं. कभीमैंउसेऊपर उछालती हूँ तो वह अपने से खुली हवा में अपने को अकेली पाकर चुप हो जाती है….. याफिरउसकेसाथ-साथ जब मैं भीअपना गला फाड़कर रोने का नाटककरती हूँ तो वह मेरी ऊँची आवाज़ से डरकर अपना रोना बन्द कर दिया करती है, लेकिन उस दिन मेरे ये दोनों कौशल नाक़ाम रहते हैं…… तभीमेरी निगाह सुहास की … Read more