फेसबुक की दोस्ती

            जिसे देखा नहीं जाना नहीं उससे भी दिल के रिश्ते इतने गहरे जुड़ जाते हैं , इस बात का अहसास फेसबुक से बेहतर और कहाँ हो सकता है| अक्सर फेसबुक की दोस्ती को फेसबुकिया  फ्रेंड्स कह कर हलके में लिया जाता है | इसमें है ही क्या? जब चाहे अनफ्रेंड कर दिया जब चाह अनफॉलो और जब चाह तो ब्लाक, कितना आसान लगता है सब कुछ, पर क्या मन भावनाएं इतनी आसानी से ब्लाक हो पाती  हैं|  कहानी -फेसबुक की दोस्ती                                  समय कब पलट जाता है कोई नहीं जानता | आज निकिता और आरती एक दूसरे की नाम बी नहीं सुनना चाहती , शक्ल देखना तो बहुत दूर की बात है | एक समय था जब दोनों पक्की सहेलियाँ  हुआ करती थीं | ये दोस्ती फेसबुक से ही शुरू हुई थी| निकिता एक संघर्षरत लेखिका थी | वो फेसबुक पर लिखती थी  कवितायें , गीत, लघु कथाएँ, लेख और आरती जी भर -भर के उन पर  लंबे लम्बे कमेंट किया करती | धीरे-धीरे फेसबुक की दोस्ती फोन की दोस्ती में बदल गयी | भावनाओं ने भावनाओं को जब तब पुकार उठतीं | दोनों में अक्सर बातें होती , सुख -दुःख साझा होते | मन हल्का हो जाता |  दोस्ती की मजबूत बुनियाद तैयार होने लगी| एक दूसरे से मीलों दूर होते हुए भी दोनों एक दूसरे के बहुत करीब होती  जा  रहीं थी| बस एक क्लिक की दूरी पर |  निकिता के यहाँ क्या आया है सबसे पहले खबर आरती को मिलती | आरती की रसोई में क्या पक रहा है उसकी खुश्बू निकिता को सबसे पहले मिलती , भले ही  आभासी ही क्यों न हो | दिल का रिश्ता ऐसा होता है जिसमें दूर होते हुए भी पास होने का अहसास होता है | फिर वो दोनों तो एक दूसरे के दिल के करीब थे| कॉमन फ्रेंड्स में भी उनकी मित्रता के चर्चे थे |                                       पता नहीं  उनकी दोस्ती को नज़र लग गयी या  किस्मत के खेल शुरू हो गए| आरती एक बहुत अच्छी पाठक थी वो  कोई लेखिका नहीं थी, न ही उसका लेखिका बनने का इरादा था | पर कभी -कभी  कुछ चंद लाइने लिख कर डाल  दिया करती उसका लिखा भी लोग पसंद ही करते |                    एक दिन आरती ने एक कविता लिखी , वो कविता बहुत ज्यादा पसंद की गयी | एक बड़ी पत्रिका के संपादक ने स्वयं उस कविता को अपनी पत्रिका के लिए माँगा | उसने अपनी ख़ुशी सबसे पहले निकिता से शेयर की | निकिता ने भी बधाई दी | धीरे धीरे आरती की कवितायें नामी पत्रिकाओं में छपने लगीं व् निकिता की छोटी -मोटी  पत्रिकाओं में |  कहते हैं कि दोस्ती तो खरा सोना होती है , फिर न जाने क्यों नाम , शोहरत की दीमक उसे चाटने लगी ? शुरू में जो निकिता आरती की सफलता पर बहुत खुश थी अब उसका छोटी-छोटी बातों पर ध्यान जाने लगा , क्यों आरती ने आज उसकी कविता पर लम्बा कमेंट नहीं किया , क्यों किसी दूसरी लेखिका की पोस्ट पर वाह -वाह कर रही हैं ? अपने को बहुत बड़ा समझने लगी है | कुछ ऐसा ही हाल आरती का भी था, वो लिखने क्या लगी, निकिता का सारा प्रेम ही सूखने लगा  | दोनों लाख एक दिखाने की कोशिश करतीं पर कहीं न कहीं  कुछ कमी हो गयी ऊपर से सब कुछ वैसा ही था पर अन्दर से दूरी बढ़ने लगी | अब दोनों उस तरह खुल कर बात नहीं करतीं , बाते छिपाई जाने लगीं, फोन हर दिन की जगह कई महीने बीत जाने पर होने लगे  | दोनों को लगता दूरी दूसरे की वजह से बढ़ रही है | फिर दोनों ही मन में ये जुमला दोहराते …छोड़ो ,  ये फेसबुक की  दोस्ती  ही तो है | पढ़िए- बाबा का घर भरा रहे                                             कुछ समय बाद  निकिता के काव्य संग्रह को सम्मान की घोषणा हुई |  निकिता बहुत खुश थी | उसको  आरती के शहर जाना था | सम्मान समारोह वहीँ होना था| निकिता ने खुश हो कर आरती को फोन किया | आरती ने फोन नहीं उठाया | दो तीन बार मिलाने पर आरती ने फोन उठाया | सम्मान की बात सुन कर बड़ी दबी जुबान में बधाई कहते हुए कहा आने की पूरी कोशिश करुँगी | निकिता को ऐसे व्यवहार की आशा नहीं थी | फिर भी उसे आरती के मिलने का इंतज़ार था | सम्मान वाले दिन उसने कई फोन मिलाये पर आरती ने फोन नहीं उठाया , न ही वो समारोह में आई |                        कहीं न कहीं निकिता को लगने लगा  कि आरती उसके काव्य संग्रह को सम्मान मिलने के कारण ईर्ष्याग्रस्त  हो गयी है | घर लौट कर निकिता ने फेसबुक पर सम्मान के फोटो डाले पर आरती के लाइक नहीं आये , यहाँ  तक की वो तो फेसबुक पर आई ही नहीं | अब तो निकिता को पक्का यकीन हो गया कि आरती  उसके सम्मान से खफा है | निकिता को अपने ऊपर भी बहुत गुस्सा आया कि क्यों उसने आरती से इतनी गहरी दोस्ती की , उसे छले जाने का अहसास होने लगा | जिसे उसने दिल से मित्र समझा वो तो उसकी शत्रु निकली | ओह … कितना धोखा हुआ उसके साथ |  जैसा की हमेशा होता है उसने प्रतीकात्मक भाषा का प्रयोग कर कई पोस्ट आरती के ऊपर डाले , कुछ लोग समझे कुछ नहीं | पर आरती तो आई ही नहीं | एक दिन आहत मन  निकिता ने उसे अन फॉलो कर दिया | उसने मन कड़ा कर लिया ,आखिर फेसबुक  की दोस्ती ही तो थी | करीब चार महीने बाद  आरती  फेसबुक पर  आई , उसने अपने पति की मृत्यु की ह्रदय विदारक सूचना दी … Read more

आखिर कब तक

रीना और शुचि के बढ़ते कदम अचानक ठिठक से गये थे।  जिस तेजी के साथ सीढ़ियाॅं दर सींिढ़याॅं चढ़ते हुए उन दोनों ने तरक्की की राह पकड़ी थी, उसी राह में कुछ रोढ़े आ गये थे। वह बढ़ना तो चाह रही थीं आगे की ओर, परन्तु उनके कदम उन्हें पीछे  की ओर ढकेल रहे थे, क्योंकि जिस आॅफिस में वे दोनों काम कर रही थीं वहीं के सीनियर बाॅस की घूरती नज़रें और अनर्गल बातों से वे रोज़ाना दो चार हो रही थीं। आज भी उन्हीं की वजह से वे दोनों आॅफिस की तरफ जाने से कतरा रही थीं पर क्या करतीं उन्हें जाना ही पड़ा, आफिस पहॅुचकर वे दोनों सीधे अपने-अपने रूम की ओर बढ़ गई।  तभी आॅफिस बाॅय ने आकर कहा, ‘‘ सर आपको बुला रहे हैं।’’ यह तो रोजाना का ही नियम बन गया था, आफिस में घुसते ही बाॅस का बुलावा आ जाता उनके लिए । रीना ने पर्स मेज पर रखा और उनके कमरे की ओर बढ़ गई। वहाॅं पर बैठे बाॅस किसी काम में तल्लीन थे या फिर काम करने का झूठा दिखाबा कर रहे थे । रीना के आने के कुछ देर बाद, वे नजरें उठाकर उसकी तरफ देखते हुए बोले, ‘‘हाॅं भई रीना जी गुड माॅर्निंग।’’ रीना के गुड माॅर्निंग कहने से पहले ही वे दुबारा बोल पड़े, ‘‘हाॅं, तो रीना जी आज काम करने का इरादा नहीं है जो इतनी देर से पहुॅचंीं।’’ रीना ने घड़ी की तरफ नज़र डाली ग्यारह बजने में सिर्फ 10 मिनट बाकी थे। उसी समय शुचि भी कमरे मे दाखिल हुई, सर ने यही बातें दोबारा से शुचि से भी दोहराईं। वे दोनोें कुछ भी कहने से अचकचा रही थीं इसलिए शान्त खड़ी रही। नज़रें नीचे फर्श की ओर थीं, क्योंकि वे बाॅस की घूरतीं नज़रों का सामना नहीं करना चाहती थीं। तभी सर फिर बोले, ‘‘अच्छा चलो अब तुम दोनों जाओ और अपना काम शुरू करो और हाॅं साइन लंच के बाद करना क्योंकि अब तुम्हारे आधे दिन की छुट्टी हो गई है।’’ बाॅस की बातें सुन, रीना बिना कुछ बोले, व किसी भी बात का जबाव दिये बिना ही बाहर की ओर चल दी और उसने अपने कमरे की ओर न जाकर कैन्टीन की ओर रूख कर लिया। शुचि ने जब यह देखा कि रीना अपने रूम में न जाकर बाहर की तरफ जा रही है तो वह टोंकती हुई बोली, ‘‘रीना क्या हुआ, किधर जा रही हो?’’ परन्तु रीना तो विचार मग्न मुद्रा में चलती जा रही थी। शुचि भी उसके पीछे हो ली, रीना सीधे कैन्टीन में जाकर बैठी गई। शुचि भी सामने की सीट पर आकर बैठ गई थी, शुचि ने दो काॅफी का आॅर्डर दिया और रीना से पूछा, ‘‘क्यों यार, क्या हुआ?’’  रीना बोली ‘‘जब आधे दिन की छुट्टी हो ही गई तो काम क्यों करूॅं, आने में कुछ देर ही तो हुई है, तो आधे दिन की छुट्टी। अब यह नया तरीका निकाला है। उन्होेनें परेशान करने का।’’ शुचि भी सर की इस बात परेशान तो थी किंतु उसने रीना के बारे में सोंचा, कि क्या यह वही रीना है जो हर काम को बड़े मन व जतन से करती थी और अब बाॅस की हर दिन एक नई ज्यादती की बजह से उसका काम से दिल ही हट गया है। हालाॅंकि उसकी भी वही स्थिति थी, फिर भी वह रीना से कुछ कम परेशान थी। रीना ने बहुत ज्यादा मेहनत करके यह मुकाम हासिल किया था, पर अब जब वह अच्छी पोजीशन पर है, तो बाॅस के गलत इरादों के चलते मानसिक रूप से परेशान हो गई है, ऐसे में कोई भी कार्य कैसे संभव हो सकता है। जब तक मन साथ न दे, तो तन भी साथ छोड़ देता है। तभी काॅफी आ गई, वे दोनों काॅफी पीने लगीं। वे दोनो बिल्कुल तटस्थ भाव से शान्त होकर बैठी थीं। आखिर रीना ने ही चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘ शुचि मैं इस जाॅब से इस्तीफा दे रही हूॅं।’’ यह सुन शुचि एकदम से चैंक गई क्योंकि उसे पता था कि रीना को यह जाॅब कितनी मुश्किल से मिली थी और घर में भी सिर्फ रीना ही कमाने वाली थी। भाई की पढ़ाई, हाॅस्टल का खर्चा, माॅं की दवाई व अन्य घरेलू खर्चें उसकी ही कमाई से पूरे होते थे। पापा के ना रहने पर वही अपने परिवार का एक मात्र सहारा थी। पापा की असमय मृत्यु के चलते माॅ हरदम बीमार रहने लगी थीं। पापा की नौकरी भी प्राइवेट थी, अतः इस कारण उनकी जाब का कोई क्लेम भी न मिला था। रिलेटेड –मेरा लड़की होना  शुचि ने कहा ‘‘इस तरह जल्दबाजी में कोई भी फैसला ना कर, अभी अगर हम हार जायेंगें तो कल को कोई दूसरी लड़कियाॅं भी इसी तरह परेशान हो सकती है, और फिर मैं हॅूं न तेरे साथ।’’ रीना को उसकी बात ठीक लगी । वह उठते हुए बोली, ‘‘शुचि चल अब अपना काम शुरू करते हैं।’’ वे दोनों अपने कमरे में आकर कार्य करने लगीं। शुचि  आफिस कार्य निबटा ही रही थी, कि तभी आॅफिस ब्याय फिर से आ गया और उससे कहा, ‘‘सर मीटिंग में जाने को बुला रहे हैं।’’ उसने सोचा आज तो कोई मीटिंग नहीं है, शायद अचानक ही बन गई होगी।  ‘‘सर! किसके साथ मीटिंग है।’’ शुचि ने बाॅस के कमरे में पहुॅच कर कहा। वे उसे ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोले, ‘‘होटल रनवे में लंच के समय मीटिंग रखी है, तुम चलोगी या रीना को ले जाऊॅं?’’ उसने सोचा रीना तो वैसे ही आजकल डिस्टर्ब है और वह जल्दी ही परेशान भी हो जाती है। अतः उसने फौरन कहा ‘‘नहीं सर, उसे आज रहने दें, मैं चल रही हूॅं।’’ बाॅस एक दम से अचम्भित हो गये। आज अचानक से ऐसा क्या हुआ? जो यह स्वयं ही जाने को तैयार हो गई, कोई नानकुर नही। ‘शाबाश शुचि, तुम बहुत आगे जाओगी।’’ सर खुश होकर बोले कार की पिछली सीट पर बाॅस के साथ बैठी वह सांेच रही थी, ना जाने आज यह सर क्या समस्या खड़ी करेंगें। पिछले कुछ दिनों से उन्होंने जिस तरह से उन लोगों को परेशान कर रखा थ्ंाा उससे हमेशा के लिए उनके भीतर एक डर घर कर गया था। … Read more

लुटन की मेहरारु

घर में खुशी की लहर दौड़ चली| लुटन की माँ तो डीजे की धुन पर ठुमके–पर–ठुमके लगाए जा रही थी| एक–से–बढ़कर एक अंदाज में नृत्य भी परोस रही थी| वर्षों बाद जीवन के दायित्व जो निभाने का मौका मिला| घर वालों के काफी जद्दोजहद के बाद लुटन ने शादी के लिए तैयार हुआ था| घर के देवी–देवताओं के साथ–साथ चौधरी जी के दलान पर ब्राह्मणी स्थान में भी कवूलती कर चुकी थी कि “माय, ई लुटना के बियाह होए जाए तो एगारह गो बूढ़ा–पुरान ब्राह्मण जमैयबौ, आर साथ में एगो चबूतरा भी बनाए देबौ….!” तनिक भी शोर–शराबा कानों तक सुनाई पड़ती कि लुटन की माँ रामवती छलाँग लगा वहाँ तक पहुँच जाती थी, ताकि शादी में अड़चन न आवे और सही–सलामत बियाह हो जाए| ऊपर वालों की कृपा से तनी–मनी झिझक के बाद शादी संपन्न हो गया| बीच–बीच में किसी भी बात को लेकर लुटन और नववधू कजरी में ताना–तानी स्वाभाविक हो चला| रामवती मौका देख वधू को समझाती थी– “बेटी, तू ही इस घर को संभाल पाएगी| ससुर जी जो हैं, वे भी ऐसे ही थे| इस घर को सजाने में मैं क्या नहीं भोगी| फिर बाल–बच्चा को संभालना…. ई गाँव–देहात में भी पढ़ाना–लिखाना, बड़ा मुश्किल काम था| लुटना तो कम–से–कम चिट्टी–पतरी भी लिख–पढ़ लेता हSs लेकिन उसका बाप…. पूछना मत! किसी कागज को उठाकर फेंकने भी जाती थी तो झपटा मार छीन लेते थे और किसी से पढ़वाते ….^ कहीं मायके से लैला बनकर तो नहीं आई?* फिर भी संभाल ली और आज…. देख ही रही हो…. तीन–तीन बेटे, दो बेटी से भरा–पूरा बगान है| घर की लक्ष्मी बेटी ही होती है| तुम चाहो तो सब ठीक हो जाएगा| बगिया लहलहाती नजर आएगी|” नई नवेली दुल्हन कजरी माँ की बात सुन गंभीर हो जाती थी| घर की यादें में गुम हो जाती|  आँखों के सामने पड़ोसी डोमन की पत्नी की तस्वीर नाचने लगती थी| डोमन चाचा ने किस तरह चाची को सुबह–सुबह पीटते थे| जबरदस्ती मजदूरी करने के लिए घर से डाँट–डपट कर भेज दिया करते थे और खुद दिनभर ताश खेला करते थे| इतना ही नहीं, शानो–शौकत के साथ कहते भी थे– “देखो, मैं कितना भाग्यशाली हूँ|” सच में भारत देश ही ऐसा है, जहाँ कुत्तों के साथ मनुष्य को भी बिना कुछ किए भी पेट भरता है और सोने की चिड़िया वाली कहावत न होके चरितार्थ करती है| कहानी -काकी का करवाचौथ रामवती समय देख लुटन को भी समझाती थी| कई बार सोचने लगती कि कितना कष्ट उठाई, इसकी शादी के लिए| सिर पर हाथ रख सोचती तो क्षण भर में ही याद आ जाती थी… मछली सिर्फ मारने से नहीं होता… उसे संभाल कररखने से होता है| वरना, फिर वही नदी–तालाब में चली जाती है, जहाँ आजादी हो| फिर सोचती आज के जमाने में वैसा भी नहीं कि गाय को जिस खूटे में बाँध दी जाए और भूखी प्यासी बंधी रहे| अचानक सोमर तांती की बीती कहानी याद आ गई जो पिछले दो वर्ष पहले की ही बात थी| शादी के ठीक पखवाड़ा बाद ही उसकी पुतोहू गायब हो गई थी| काफी खोजबीन भी किया था लेकिन वर्षों बाद पता चला कि उसे टीप–टॉप वाला लड़का चाहिये था| मोटर गाड़ी पर घूमना चाहती थी जो भविष्य में भी यहाँ नहीं देख…. किसी लफुए के साथ भाग गई| यह बात चैन छीन लेता और गंभीर हो लुटन को समझाने लगती– “लुटन, मैं मानती हूँ कि तुम कभी नहीं कहा कि शादी–बियाह हो जाए, लेकिन माता–पिता का भी तो दायित्व है न…. कजरी कितनी सुशील लड़की है| तुम साथ रहते हो, भली–भाँति समझते भी होगे| दूसरे घर की बेटी को सम्मान देना चाहिये…. आखिर ऊ बेचारी किसके सहारे रहेगी? पति–परमेश्वर होता है, बेटा? उसका ख्याल रखना हम घर वालों का ही काम है| उसके लिए तो सब कुछ यही घर–परिवार है न?” लुटन तुनक पड़ा और बोलने लगा– “मैं बोल रहा था न कि पहले छोटका का बियाह कर दो| घर में दुल्हन चाहिये थी न, आ जाती| मेरे ही गले में घंटी क्यों? लफंगा की तरह उसकी आदत थी न…. मेरी तो शिकायत नहीं… मैं यूँ ही जिन्दगी काट लेता|” अचानक लुटन की आवाज बंद हो गई| सामने से कजरी जो आ रही थी| माँ–बेटा की बातें सुन कजरी उल्टे पाँव लौट गई| माँ की अपनत्व वाली बातें सुन, चुप्पी को ताकत मान ली थी और इसी के सहारे महीना वर्षों में बीतता गया| लगभग चार–पाँच वर्षों तक कजरी चुपचाप किनारे की आस में लगी रही| आखिर लज्जा की देवी का उपमा जो जन्मजात हासिल कर चुकी थी| रामवती हमेशा कचोटती रहती थी| उस समय तो और अधिक जब पड़ोसी के यहाँ सालभर के अंदर ही बच्चों की किलकारियाँ सुनने को मिलती| कजरी के कानों तक अपनी आवाज पहुँचाती हुई बोलती थी– “आजकल के नैयका विचार गजबे है, अप्पन शौक के खातिर वंश भी रोके रहल| भला ई कोए शौक भेयल|” कजरी माँ की बात सुन कभी मुस्कुराती हुई तो कभी मायुसी लिए घर अंदर चली जाती थी| धीरे–धीरे चहारदीवारी के अंदर से निकल, पड़ोसी की गलियों से होते हुए सगा–संबंधों तक बातें आग की तरह फैलने लगी कि– “लुटना की मेहरारु बाँझ है|” जहाँ कहीं भी दो–चार औरतों की झुंड होती, वहाँ हरेक घर की कहानी सुनी–सुनाई जाती थी| उन औरतों में उदाहरण भी गजब जो अकाट्य हो|एक महिला बोल रही थी, “वंश के खातिर दोसर बियाह करै में कि दिक्कत? राजा दशरथ जैयसन आदमी तीन–तीन बियाह कैलखीन…. भला ऊ लड़की नैय चाहतैय कि वंश बढ़ैय? लुटना के माय–बाप के भी सोचैय के चाही… वंश बढ़ावो| खाली सिनुर देला से घौर थोड़े बसैय छैय… नाक–मुँह सिकोड़तैय त ऊ जानैय?” इस तरह अनेको मुँह अपनी–अपनी बातों से लोककथाओं को समृद्ध करती रहती थी| पुतोहू को तो कोसना दिनचर्या में शामिल हो चुका था| रामवती भी बीच–बीच में कई रूपों में कजरी को कोसने में तनिक भी नहीं सकुचाती थी| खुलकर तो नहीं बोलती लेकिन ऊपर–झापड़ में बातें बज्र की तरह होती थी| घर से निकली चिनगारी को आस–पड़ोस के लड़कों ने भी अलाव का रूप दे दिया ताकि कभी–कभी गर्माहट महसूस हो| राह चलती कजरी के कानों तक आवाज आती, “अरे! उधार–पैचा भी तो चलता ही है, नाम भी उसी का होगा और मनोकामना भी … Read more

मन का अँधेरा

बस खड़ी थी और उसमें कुछ सवारियाँ बैठी भी हुई थीं, कण्डक्टर उसके पास ही खड़ा होकर लख़नऊ लख़नऊ की आवाज़ लगा रहा था। मैंने किनारे कार खड़ी की और नीचे उतर गया, दूसरी तरफ से मुकुल भी उतर गया था। उसका झोला पिछली सीट पर ही पड़ा था जिसे मैंने उठाने का अभिनय किया, मुझे पता था वो उठाने नहीं देगा। झोला उठाकर वो बस की तरफ चलने को हुआ तभी मैंने उसके कन्धे पर हाथ रखा और उसे धीरे से दबा दिया, मुकुल ने पलटकर देखा और उसकी आँखे भीग गयीं। “कुछ दिन रुके होते तो अच्छा लगता”, मैं अपनी आवाज़ को ही पहचान नहीं पा रहा था। “इच्छा तो मेरी भी थी लेकिन कल कोर्ट में केस है, तुम तो जानते ही हो। पिताजी लड़ते लड़ते भगवान को प्यारे हो गए और मुझे विरासत में थोड़े खेतों के साथ ये बड़ा मुक़दमा भी दे गए। अगली बार जरूर कुछ दिन रुकने के लिए आऊँगा, आखिर तुम कोई गैर तो हो नही।” बस अब तक हिलने लगी थी और मैंने मुकुल का हाथ पकड़ा और बस के दरवाज़े तक ले गया। मुकुल ने एक बार और मेरा हाथ पकड़ा और बस में चढ़ गया। जब तक बस आँखों से ओझल नहीं हो गयी, मुकुल अपना हाथ खिड़की से निकालकर हिलाता रहा। वापस आते समय जैसे एक बोझ उतरा महसूस कर रहा था मैं, हालाँकि कल मुझे भी लख़नऊ जाना था और अपनी सरकारी कार से ही जाना था लेकिन मैंने जाहिर नहीं होने दिया मुकुल को। एक और दिन उसे रोकने की हिम्मत नहीं थी मुझमे, हालाँकि मैंने अपने आप को दिलासा देने लिए पत्नी का कारण ढूँढ लिया था। आज रविवार के दिन सुबह सुबह उसका आना और उसपर पत्नी की प्रतिक्रिया, जिसे सिर्फ मैंने देखा था, के बाद किसी भी हालत में उसे रोकने की हिम्मत नहीं थी मुझमे। “दिन का खाना तो खिला दूँगी मैं लेकिन रात में रोका तो खुद ही बनाकर खिलाना अपने गँवार दोस्त को”, पत्नी ने बिना किसी शिकन के स्थिति स्पष्ट कर दी थी। मैंने भी हाँ में सर हिलाते हुए बस इतना ही कहा था ” थोड़ा धीरे बोलो, सुनाई पड़ता है बाहर”। अपना पैर पटकते हुए और मुझे मेरी स्थिति का एहसास दिलाती हुई वो बाथरूम में घुस गयी। पिछले महीने जब मैं गाँव पिताजी के श्राद्ध के लिए गया था, तब मुकुल ने पूरे पाँच दिन तक दिन रात मेरे हर काम को अपना समझ कर किया था। रोज़ उसके घर से ही नाश्ता और खाना आता था, दिन में कई बार चाय भी। जो संतुष्टि उसे मुझे आराम से रहते हुए देख कर होती थी, शायद वो ख़ुशी मैंने माँ के बाद किसी की भी आँखों में देखी थी। उसकी पत्नी का घूँघट डाल के मेरे सामने आना लेकिन पूरे अधिकार से मुझे खाने इत्यादि के लिए पूछना मुझे अंदर तक सुकून दे जाता था। उसके दोनों बच्चे भी खूब घुल मिल गए थे और चलते समय मैंने उन सब को जौनपुर आने का निमन्त्रण दे दिया था। उस समय मेरे अंदर कोई भी अलग भावना नहीं थी, लेकिन जैसे जैसे मैं जौनपुर पहुँचता गया , वो भावना धीरे धीरे ख़त्म होती गयी। ” ये सब क्या उठा लाये हो गाँव से, हमें भी गँवार समझ रखा है क्या”, और कुछ बोलूँ उससे पहले ही बाई को उठाकर सारी चीजें पकड़ा दी जो मुकुल की बीबी ने बच्चों के लिए बनाकर दी थी। वो आखिरी प्रहार था मेरे दिमाग पर और मैं सब कुछ भूल जाने की दिशा में बढ़ चुका था। लेकिन दिन में पत्नी के द्वारा कहे गए इस वाक़्य ने तो मुझे जैसे हजारों वाट का झटका दे दिया “कितना अच्छा खाना बनाती हैं आपकी पत्नी, बच्चे तो आजतक याद करते हैं आपके द्वारा भेजे गए सारे सामान को”। मुकुल की आँखों से आंसू निकल पड़े थे और उसने बीबी की कुटिल मुस्कान नहीं देखी। अचानक दसवीं की परीक्षा मुझे याद आ गयी, अपने गाँव से तीस किलोमीटर दूर था परीक्षा केंद्र। हम दोनों ही परीक्षा केंद्र से थोड़ी दूर एक और गाँव, जिसमे उसकी बहन थी, में रुके हुए थे। उसकी बहन उससे ज्यादा मेरा ख्याल रखती थी और आखिरी दो परीक्षा देने के लिए तो वो ही मुझे अपनी साइकिल पर बिठा कर ले जाता था। पता नहीं मेरे पैरों में क्या हो गया था कि मुझसे चलते भी नहीं बन रहा था और उसने बिना चेहरे पर शिकन लाये अपनी परीक्षा ख़त्म होने के बाद मुझे भी परीक्षा केंद्र पहुँचाया था। बस एक ही बात कहता था मुकुल, तुमको बहुत आगे तक पढ़ना है और बड़ा अफ़सर बनना है, मैं तो बस इस परीक्षा के बाद खेती बाड़ी में लग जाऊँगा। भावप्रवण कहानी –माँ तुझे दिल से सलाम सचमुच वो खेती बाड़ी में लग गया और मैं पढ़ता गया। कुछ ही साल बाद शहर में आकर धीरे धीरे मैं अपनी अलग दुनियाँ में मशगूल होता गया और वो गाँव में रहकर मेरे लिए दुआएँ माँगता रहा। अपनी शादी में भी उसने मुझे बुलाया था लेकिन मैं परीक्षा के चलते नहीं जा पाया , उसने इस बात का बुरा भी  नहीं माना। नौकरी मिल जाने के बाद मैं गाँव चला गया, पिताजी का आग्रह था कि जब तक ज्वाइन नहीं करना है तब तक गाँव रह लो। कभी कभी तो मुझे ऐसा लगता जैसे नौकरी मेरी नहीं मुकुल की लगी हो, इतना खुश और इतनी सारी कल्पनाएँ करता था वो जैसे सब उसे ही करना हो। मेरी शादी में वो पूरे जोश से शामिल हुआ था और अपनी भाभी के लिए उसने बहुत कीमती तोहफ़ा ख़रीदा था। मुझे आश्चर्य भी हुआ था ख़ुशी के साथ साथ, दरअसल मैंने सोचा भी नहीं था कि मुकुल इतना पैसा खर्च कर सकता है। तोहफ़ा तो मैंने भी दिया था उसकी पत्नी को लेकिन उसकी हैसियत के हिसाब से दिया था , न कि मेरे हैसियत के हिसाब से। शादी के बाद भी एकाध बार वो आया था और तब सब ठीक ही बीता था। लेकिन जैसे जैसे मैं तरक्की की सीढियाँ चढ़ता गया, मुझसे ज्यादा मेरी पत्नी को पुराने लोग खटकने लगे। पिताजी का भी देहान्त हो गया और कोई वज़ह नहीं बची … Read more

माँ तुझे दिल से सलाम

माँ दुनिया का सबसे खूबसूरत शब्द है, माँ की तुलना नहीं हो सकती क्योंकि माँ जिस प्रेम व् त्याग से अपने बच्चों को पालती है वो किसी इंसान के लिए संभव नहीं है, पर माँ भी तो आखिर एक इंसान है अपने बच्चों के लिए सब कुछ नयौछावर करने की चाह रखते हुए भी कभी -कभी परिस्थितियों के आगे विवश हो जाती है| पर जब कोई माँ विपरीत परिस्थियों के आगे झुकती नहीं चट्टान की तरह अटल होकर उनका सामना करती है और अपने बच्चों को भविष्य बनाती है, तो उसके साहस को सजदा करते हुए उसके बच्चे ही नहीं हर कोई कह उठता है-  ऐ माँ तुझे दिल से सलाम   स्कूल में अचानक पड़ोस वाले चाचाजी को देख कर नीला हैरान हो गयी|  वह कक्षा 5 की छात्रा थी| चपरासी स्कूल के ऑफिस में बुला ले गया |  चाचा जी ने कहा ,”चलो घर में मेहमान आये हैं | मैं इसीलिये तुम्हें लेने आया हूँ | जब वो घर पहुंची तो वास्तव में बहुत सारे लोग घर के अन्दर बाहर खड़े थे | छोटी उम्र होने पर भी उसे माजरा समझ में आ गया कि कोई अनहोनी हो गयी है | थोड़ी ही देर में पिताजी आ गए | लेकिन ये क्या? वो तो एम्बुलेंस में लेटे  हुए आये थे |  उनका पार्थिव शरीर घर के ड्राइंग रूम में रखा गया, जितने मुँह उतनी ही बातें,  ” अरे, राय साहब को कभी बीमार नहीं देखा”|  ऑफिस के लोग कहने लगे,  ” हम तो समझे थे राय साहब ने आज सी. एल ली है|                   नन्ही नीला कुछ समझ पाती कि अचानक से माँ को पीछे वाले कमरे से कुछ महिलाएं सहारा देती हुई ले आयीं | माँ का पछाड़  खा कर गिरना , फिर हम तीनों छोटे भाई-बहनों को अपनी बांहों में भर कर चीखना चिल्लाना आज भी नीला के मन को दर्द से भर देता है|                                   चौथा निपटते-निपटते घर के दूसरे कमरे में बच्चों के भविष्य को ले कर मीटिंग शुरू हो गयी| एक 34 साल की जवान विधवा और उसके तीन छोटे बच्चे | भाई उनके बारे में सोंचना समझना परिवार के लोगों का जन्मसिद्ध अधिकार होता है|  बड़े ताऊजी बोले,  ” भाई मैं परिवार की सबसे बड़ी बेटी शिवानी को अपने साथ ले जाऊँगा | माँ को समझ में आ गया कि दीदी, 12-13 साल की है और ताई जी  का हाथ बँटाने लायक है| छोटे चाचा बोले, ” चलो मैं नीला को ले जाऊँगा, छोटी सी, प्यारी सी है, मेरे बच्चों के साथ खेलते कूदते बड़ी हो जायेगी|                  चाचाजी भोले -भाले  होने से क्या?  फिर उनकी वो फैशनपरस्त पत्नी! अरे , बाप रे बाप ! वो तो अकेली ही सौ के बराबर है| वो अपने बच्चों को ही नहीं बख्शती तो मुझे क्या छोडती| माँ चुप ,अवाक् सी खड़ी थी| बाकी बचे माँ और मेरा पांच साल का भाई सोमू, उसका क्या किया जाए| दो बच्चों का तो बँटवारा हो गया, पर सोमू का क्या किया जाए? वो तो छोटा है, इसलिए अपनी माँ के पास ही रहेगा ना | कोई भी चाची, ताई , एक जवान विधवा को  पनाह देने का खतरा मोल नहीं लेना चाहती थीं|                             अचानक बाज़ार से लौटे मझले ताऊजी, जो अभी थोड़े ही दिन पहले विधुर हुए थे ,  ” अरे भाई ऐसी भी क्या बात है, मैं संतानहीन हूँ ,सोमू को मैं गोद ले लेता हूँ और उसके साथ मीना (माँ ) भी कहीं पड़ी रहेगी एक कोने में , इन्हें कोई तकलीफ न होने दूँगा|  हम सब माँ के साथ घर के एक कमरे में स्तबद्ध होकर बैठे थे|  माँ का मायका कमजोर होने के कारण उस ओर से सहयता की कोई गुंजाइश नहीं थी| उन्हें लगा जैसे उनके सामने हम सब की नीलामी हो रही थी, और बोली लग रही थी|                   माँ अचानक से उठी और अपने झर -झर बहते आंसुओं को अपने दोनों हाथों से पोंछते हुए दूसरे कमरे में गयींऔर जोर से चिल्लाई , ” आप सब चुप रहे, जो जी में आया बोले चले जा रहे हैं, कभी मुझ से पूंछा है की मैं क्या चाहती हूँ?” आप सब को इसका अधिकार किसने दिया?एक तो मुसीबत का पहाड़ मुझ पर टूट पड़ा ऊपर से अप मेरे बच्चों का बँटवारा  कर रहे हैं|                 थोडा रुक कर माँ फिर बोलीं , ” याद रखिये, अभी मैं जिन्दा हूँ , मरी नहीं हूँ| आप सब अपने स्वार्थ  के लिए मेरे बच्चों को अपने साथ ले जा रहे हैं| ये लडकियां आप के घर की नौकरानी बनेंगी| अब बहुत हुआ, आप सब अब यहाँ से प्रस्थान करें| मैं संभाल लूँगी, अपने को और अपने बच्चों को |  उस दिन अपनी अपनी गाय जैसी माँ का रौद्र रूप देख कर हम सब सकते में आ गए |  मेरे पिताजी सरकारी मुलाजिम थे| पिताजी के सहयोगी मिस्टर नाथ ने एक दिन घर आ कर माँ से कहा,  ” भाभी जी आप तो पढ़ी -लिखी हैं ,आपको तो मिस्टर राय की जगह नौकरी मिल सकती है | बिलकुल वैसा ही हुआ माँ ने नौकरी की| अपनी जिंदगी के बेहतरीन साल जिंदगी की जद्दोजहद में निकाले, हम सब को पाला-पोसा, उच्च शिक्षा दी | कमर कसकर सब भाई -बहनों की शादियाँ की| आज मैं जिंदगी के जिस मुकाम पर खड़ी हूँ वो सब माँ का दिया हुआ है| उच्च शिक्षित, सभ्रांत  परिवार और सुखी जीवन|                यही सोंचती नीला के आँसूं झर -जहर बहते हुए उसकी जीभ से टकराए| उसे अहसास हुआ कि आँसूं  तो नमकीन होते हैं , चाहे वो ख़ुशी के हों या दुःख के | तो फिर ये कौन से आँसू थे, जिनके प्रसाद के रूपमें मुझे मिला सफल जीवन|   आज माँ नहीं हैं … पर नीला कभी माँ का ऋण चुका ही नहीं पाएगी |उसे माँ की सेवा का मौका ही नहीं मिला| … Read more

अभिशाप

    “कम आन मम्मा!कब तक यूं ही डर के साथ जीती रहोगी। अब साइंस ने बहुत प्रोग्रेस कर ली है ;फिर आप तो एजुकेटेड है।” साक्षी ने मचलते हुए रंजीता से फरमाइश की “अब मुझे वो तीखे वाले पकोड़े खिलाओ और मेरे लिए आचार की सारी वेराइटीज पैक कर दो, आकाश मुझे लेने आता ही होगा।” आदर्श माँ की तरह रंजीता साक्षी की इच्छा पूरी करने के लिए किचन में घुस गई। बेटी उसी शहर में ब्याही हो तो माँ उसके सारे लाड-चाव पहले कि तरह ही कर सकती है, तिस पर अभी -अभी साक्षी ने कन्सीव किया है। तीखा खाने का मन तो होगा ही। पर वो डर अब रंजीता के दिल -दिमाग के साथ -साथ जैसे उसके हर रोयें में आ बसा है ।                                            पचास पार कर चुकी  रंजीता जब पांच वर्ष की थी तब से वो माहौल उसके अस्तित्व के साथ चिपक -सा गया था।  आकाश व साक्षी के जाने के बाद उसने चीनू को पकोड़े खिलाये; मुँह साफ किया और व्हील चेयर पर उसे गार्डन में घुमाने ले गई। डॉक्टर साहब क्लीनिक से देर से ही आते है अतः वह फुर्सत में थी। रोजाना की ही तरह 28 वर्षीय चीनू  गार्डन में बैठा फूल ,पत्ती, तितली का ड्राइंग बनाता और माँ की शाबासी पाने की अपेक्षा से उसे देखता। रंजीता के मुस्कराते ही हो -हो करके हँसता और ताली बजाता। रंजीता उसके मुँह से गिरती लार को बार -बार पोंछती। नाती के आने की ख़ुशी तो उसने अब तक नहीँ मनाई थी उल्टे बार -बार दुश्चिंता के बादलों में घिरती जाती थी कि कहीँ साक्षी भी अपनी माँ और नानी की तरह वो खानदानी अभिशाप झेलेगी। न वो अपने जने को छोड़ पायेगी और न उसको दीर्घायु होने की दुआ दे पायेगी। उसका जीवन भी एक कैद बनकर रह जायेगा।                     अतीत की घटनाओं की परत दर परत खुलने लगी थी। उसने अपने पांचवें वर्ष से शुरू किया। माँ ने बताया कि जब वो दो वर्ष की थी तब गोविन्द का जन्म हुआ। दादी ने चाव से कुँआ पुजवाया, बड़ा भोज किया,बहू को ढेरों आशीर्वाद दिये। पर तीन वर्ष का होने पर भी जब गोविन्द ने न चलना सीखा न ही एक अक्षर बोलना तो दादी ने उस नन्ही जान का बहिष्कार -सा कर दिया। माँ पर तानों की बरसात होने लगी। “अपने मायके के देवताओं का दोष लेकर आई है इसीलिए ऐसा पागल जना है। खबरदार जो इस जड़भरत की तीमारदारी में घर के काम का अनदेखा किया तो। आया सावन पूजा न्हावन ; कोई पहाड़ नहीँ गिरा है और जन लेना बेटे।” गोविन्द पर मक्खियां भिनकती रहती, मल-मूत्र में लिपटा रहता, भूख-प्यास का होश नहीँ। माँ की आत्मा किलकती, आँखे आंसू बहाती पर बीस लोगो के संयुक्त परिवार के काम में  लगी रहती।           रंजीता ने चीनू को जन्म तो 22वें वर्ष में दिया पर गोविन्द की माँ तो वह 5-6 वर्ष की थी तभी बन गई।  माँ चुपचाप उसे गोविन्द के लिए खाना देती,साफ कपड़े देती। नन्ही रंजीता ने भाई को खिलाना -नहलाना, दुलारना- सम्भालना सब सीख लिया। उसके एक मामा का भी यही हाल था पर नानी शायद खुशकिस्मत थी कि वो बच्चा सिर्फ आठ साल ही जिया। पर गोविन्द ने पूरे चालीस वर्ष इस संसार में सांस ली। दादी उसे कोसते- कोसते खुद संसार त्याग गई पर गोविन्द को तो उतना ही जीना था जितनी साँसे भगवान ने गिनकर उसके निमित्त रखी थी। छः भाई -बहनोँ में रंजीता सबसे सुंदर और होनहार थी। भाई की देखभाल करते-करते ही उसने बी एस सी की। 21वर्षीया वो नवयुवती विवाह योग्य हो गई थी। दान-दहेज के लिए ज्यादा पैसा पिताजी के पास नहीँ था अतः वह अपने स्तर का ही वर ढूंढ रहे थे।                                      तभी एक दिन श्रीवास्तव परिवार उनके यहाँ चाय पर आया। श्रीमती श्रीवास्तव तो रंजीता की सुघड़ता, कर्मठता और सौंदर्य पर ऐसी रीझी कि हाथों-हाथ अपने डॉक्टर बेटे यतीश का रिश्ता पक्का कर गई। बाद में उसे पता चला कि उसे कॉलेज आते -जाते देखकर यतीश ने खुद अपने माता-पिता को रिश्ता लेकर भेजा था। माँ तो ये कहते न थकती कि इसने बचपन से भाई की जो निःस्वार्थ सेवा की है उसी का इतना अच्छा फल भगवान ने दिया है।अब तो बेटी राजरानी बनकर रहेगी। विदाई के समय गोविन्द को दुलारकर रंजीता खूब रोई। उसे ससुराल में बहुत प्यार मिला। दो वर्षो के अंदर चीनू गोद में आ गया। डॉ यतीश की नजरों से ये छिपा न रहा कि चीनू भी गोविन्द की तरह मानसिक विकृति का शिकार है। बस उस दिन से आज तक चीनू को कभी उनकी प्यारभरी दृष्टि तक न मिली। रंजीता की सास ने उसकी दादी वाली भूमिका बखूबी निभाई । उसकी कोख में खानदानी विकृति बताई , देवताओँ का दोष बताया , यहाँ तक कि तलाक की धमकी भी दे डाली।  उसके सुख का साम्राज्य दो वर्ष में ही उजड़ गया।  घर के सब नोकरों की छुट्टी कर दी गई। सारा दिन घर का काम करते हुए वो अकेली ही चीनू को सम्भालती। डॉक्टर साहब की बेरुखी उसे तिल-तिल जलाती थी। जब साक्षी गर्भ में आई तो नो महीने तक उसके प्राण नखों में समाये रहे “कहीँ ये बच्चा भी चीनू जैसा…|” पिछले पच्चीस वर्षों से साक्षी ही यतीश की दुनिया है। उसे भरपूर दुलार, उच्च शिक्षा और सारी सुविधाएं दी यतीश ने। रंजीता से एक हद तक पतिधर्म निभा रहे है पर चीनू के लिए उनके जीवन में एक कतरा-भर भी जगह नहीँ है।                          गोविन्द इस दुनिया से जा चुका है।चीनू के हर जन्मदिन पर वह पूजा रखवाती है। उसे ढेरों आशीर्वाद देती है। यतीश की अनुपस्थिति चीनू के लिए कोई महत्व नही रखती। उसकी दुनिया का आदि और अंत माँ ही है पर रंजीता…। क्या विधान है ईश्वर का -एक बेर के आकार का अंश स्त्री के शरीर में कैसे धीरे -धीरे विकसित होता है। नो महीने तक रोज एक नई अनुभूति। कैसे एक पूर्ण शरीर; माँ के शरीर के भीतर से निकलकर सांस लेता है, उसे सृष्टा होने का मान देता है; उसके स्त्रीत्व को परिपूर्ण करता है। क्यों नहीँ उसे डॉ साहब जैसा मजबूत मन मिला  जो अपनी ही सृष्टि को इतनी बेदर्दी … Read more

इंतज़ार

देखो, ” मैं टाइम पर आ गयी” कहते हुए दिपाली ने जोर से हाथ लहराया | “क्या हुआ?” “चुप क्यों हो?” “क्या अभी भी नाराज़ हो?” “आज तो टाइम से पूरे 15 मिनट पहले आ गयी|  देखो, देखो अभी सिर्फ पौने पांच बजे हैं|” दीपाली ने घड़ी दिखाते हुए कहा | “आज तो इंतज़ार नहीं कराया ना?” “जब टाइम से पहले आ गयी, तो फिर बोल क्यों नहीं रहे हो, मेजर शिवांश?” “बोले तो तुम कल भी नहीं थे, बस मैं भी अपने दिल की कह के चली गयी | कल की भी डेट बेकार ही गयी|” सच है, तुम आर्मी वाले भी ना, बड़े कड़क होते हो|    “पर याद रखना तुम्हारा ये गुस्सा मुझ पर… अरेरेरे, नाराज़ क्यों होते हो?” “सॉरी बाबा, देखो कान पकड़ रही हूँ|” “अब बिलकुल समय की पाबंद  रहूँगी, आर्मी वालों की तरह|” “इंतज़ार तो बिलकुल नहीं कराऊंगी|” “मानती हूँ की तुम नाराज़ हो|  होना भी चाहिए, पर मैंने कभी तुम्हें जान कर इंतज़ार नहीं कराया|” “तुम नहीं जानते लड़कियों को घर से निकलते समय कितने प्रश्नों  का सामना करना पड़ता हैं|” “प्यार गुनाह है सबकी नज़रों में, पर ये गुनाह कोई जान -बूझ कर तो नहीं करता| आसमानी हुकुम होते हैं, तभी तो मन खींचता है किसी डोर की तरह| खैर, अब तो खुश हो जाओं|” “नहीं होगे?” “देखो, मानती हूँ, दीपावली पर मैंने बहुत इंतज़ार करवाया था|  क्या करती?  जैसे ही घर से निकलने को हुई, बड़े भैया आ कर दरवाजे पर खड़े हो गए और लगे प्रश्न पर प्रश्न करने:  “कहाँ जा रही हो?  क्यों जा रही हो?  किसके साथ जा रही हो?”  मैं तो एकदम डर ही गयी|  लगता है आज पूरी पोल पट्टी खुल जायेगी|  किस तरह से भैया को बातों में उलझा कर निकली, तुम क्या जानों?” तुम तो बस बैठे-बैठे घड़ी के कांटे गिना करो, हाँ नहीं तो! “और उसके दो दिन बाद अम्मा ने घेर लिया|  अच्छे घर की लडकियाँ यूँ सज-धज के नहीं निकलती|  क्या समझाती उन्हें, कितना दिल करता है कि तुम्हारे सामने सबसे खूबसूरत दिखूँ|  तुम तो कहते हो कि मैं तुम्हें हर रूप में अच्छी लगती हूँ|  फिर क्यों होती है ऐसी ख्वाइश कि मुझे देखने के बाद तुम किसी को न देखो?  घंटे भर जब रसोई में अम्माँ के साथ नमक पारे बनवाये थे, तब आ पाई थी|” “चप्पल पहनने में भी देर न हो जाए ये सोंच कर चप्पल हाथ में ले कर दौड़ी थी|  पसीने से लथपथ|  तुम कितना हँसे थे मुझको देखकर, फिर तुमने अपने हाथ  मेरे सर पर फेरते हुए कहा था, ” तुम आज से ज्यादा सुन्दर मुझे कभी नहीं लगीं”|” “कितने अजीब हो तुम| जिसके लिए मैं दुनिया भर का श्रृंगार करना चाहती हूँ, उसे मैं पसीने में लथपथ अच्छी दिखती हूँ| तुम आर्मी वाले भी ना!” अब तो इतनी सफाई दे दी, अभी भी नाराज़ रहोगे? “याद करिए मेज़र  साहब, अभी कुछ एक रोज पहले ही आपने कहा था कि तुम देर से आती हो, मैं गुस्सा करता हूँ, फिर भी मुझे  तुम्हारा इंतज़ार करना अच्छा लगता है|  कितना भी लम्बा हो ये इन्जार पर उसके बाद तुम जो मिलती हो”| “दिल को छू गयी थी तुम्हारी बात, तभी से फैसला कर लिया था, जो मुझे इतना चाहता है उसे इंतज़ार नहीं करवाउँगी| कभी नहीं…” “तब से रोज़ समय पर आ रहीं हूँ|  बिलकुल भी इंतज़ार नहीं करवाती| पर तुम आर्मी वाले भी ना, नियम के बहुत पाबंद  होते हो|  प्यार हो या युद्ध , तुम्हारे कानून भी अलग होते हैं|” इसीलिए तो…  इसलिए तो, इंतज़ार करवाने की सजा में मुझे दे गए जिंदगी भर का इंतज़ार…   “पर मैं करुँगी ये इंतज़ार, जरूर करुँगी क्योंकि इंतज़ार के बाद मुझे तुम मिलोगे| मिलोगे ना, मेजर साहब?” कहते हुए दीपाली ने समाधी पर फूल चढ़ा दिए जिस पर लिखा था – लेट मेजर शिवांश 22 सितम्बर, 1992 – 25 दिसंबर, 2017                                     पर दीपाली भी डबडबाई आँखों को सिर्फ एक शब्द दिख रहा था… “इंतज़ार”  वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें- मतलब की समझ   चॉकलेट केक   अंतर -आठ अति लघु कथाएँ   लली  आपको  कहानी  “इंतज़ार ( लप्रेक)“  कैसी लगी?  अपनी राय अवश्य व्यक्त करें|  हमारा फेसबुक पेज लाइक करें|  अगर आपको “अटूट बंधन “  की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ-मेल लैटर सबस्क्राइब कराएं ताकि हम “अटूट बंधन” की लेटेस्ट पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें|   

मतलब की समझ

    हम रोज बोलते हैं इससे , उससे, सबसे | न जाने कितने शब्दों वाक्यों का प्रयोग हम एक दिन में करते हैं | यही तो माध्यम हैं अपने मन की बात कहने का , और दूसरों के मन की बात जानने , समझने का | पर क्या हम हर बात का मतलब समझ पाते हैं, जो हमसे कही गयी | या हम वही सुनते हैं, जो सुनना चाहते हैं | और अपने हिसाब से उसका मतलब निकाल लेते हैं | क्या अपने हिसाब से मतलब निकाल लेने के हमारे इस हुनर पर कभी समय गुज़र जाने के बाद अफ़सोस नहीं होता कि हमें इस बात का मतलब तब समझ क्यों नहीं आया |     पढ़िए मार्मिक लप्रेक – मतलब की समझ  ?  अपना गुलाबी पर्स ले कर स्नेहा बड़बड़ाते हुए ऑफिस से निकल गयी | कितना गुस्सा भरा था स्नेहा  के मन में वरुण के लिए | आखिर वरुण ने नमिता को उसके बराबर क्यों बता दिया | नमिता , वरुण और स्नेहा ऑफिस के एक ही प्रोजेक्ट में काम कर रहे थे | ये लव ट्राई एंगल था की नहीं ये तो किसी को पता नहीं था | अलबत्ता वरुण और स्नेहा की करीबी किसी से छुपी नहीं थी | दोनों जल्द ही शादी करने वाले थे | दोनों बहुत खुश थे | इतना साथ तो नसीब वालों को ही मिलता है ऑफिस में भी घर में भी |  भविष्य के द्वार  पर सुन्दर सपनों की बंदनवार  सजने लगी थी |  तभी नमिता ने ऑफिस ज्वाइन किया | नमिता वरुण और स्नेहा तीनों अच्छे दोस्त बन गए | नमिता  जब तब वरुण को अपनी आर्थिक दिक्कते बताती रहती | कई बार कुछ पर्सनल बातें भी शेयर करती | स्नेहा ने शुरू में तो ध्यान नहीं दिया | पर उसे वरुण और नमिता का साथ अखरने लगा | वो वरुण से शिकायती लहजे में कहती तो वरुण “बस अच्छे दोस्त हैं” कहकर टाल देता | वो कहता, “स्नेहा मेरे जीवन में तुम्हारी जगह कोई नहीं ले सकता”| तुम कभी भी इस बात की चिंता मत करना |पर अक्सर दोनों के बीच इस बात को लेकर तनातनी हो जाती | जो बाद में प्यार के तेज  बहाव में बह भी जाती |साफ़ बहती नदी को देखने में कौन ध्यान देता है की किनारों पर रेत जमा हो रही है |उन दोनों ने भी ध्यान नहीं दिया |   मामला तब से बिगड़ने लगा जब बॉस ने ऑफिस में एक प्रतियोगिता रख दी | पूर ऑफिस के चार ग्रुप बनाए | हर ग्रुप में चार लोग थे |सबको एक–एक प्रोजेक्ट दिया गया | जिस ग्रुप का  प्रोजेक्ट सबसे अच्छा होता उसे ग्रुप को बेस्ट ग्रुप का अवार्ड और थाईलैंड की दो दिन तीन रात की ट्रिप इनाम में मिलनी थी | अब इसे नसीब कहे या कुछ और ?स्नेहा  के ग्रुप में वरुण , नमिता और सूर्यांश थे | तभी सूर्यांश को दूसरी कम्पनी से ऑफर मिल गया | वो कंपनी  छोड़ कर चला गया | रह गए ये तीन | स्नेहा चाहती थी की अवार्ड उसके ग्रुप  मिले तो उसे वरुण के साथ थाईलैंड जाने का मौका मिलेगा | स्नेहा पूरी मेहनत से जुट गयी | वरुण ने भी उसका साथ दिया |नमिता कभी साथ काम में आती कभी वरुण को कोई बहाना बता देती | काम चलता रहा | प्रोजेक्ट बहुत अच्छे तरीके से  पूरा हुआ |सभी ग्रुप्स में उन्हीं का प्रोजेक्ट सबसे बेहतर था |  आज  अवार्ड की घोषणा होनी थी |  वरुण बहुत खुश था | उसने स्नेहा से कहा, “देखना हमें ही अवार्ड मिलेगा” | मैंने तो स्टेज के लिए पहले ही स्पीच तैयार कर ली है | उसने स्नेहा को कागज़ का टुकड़ा दिखाया जिस पर स्पीच लिखी थी |  दिखाओं –दिखाओ कह कर स्नेहा ने कागज़ खींच लिया | उसने पढना शुरू किया ,शुरू के धन्यवाद ज्ञापन के बाद वरुण ने लिखा था “इस अवार्ड को पाकर मैं बहुत खुश हूँ | आखिर इसमें मेरी मेरी लाइफ  और मेरी बेस्ट फ्रेंड की मेहनत जो शामिल है”  जब आग अंदर  धधक रही होती है तो छोटी सी चिंगारी ही काफी होती है | इतना  पढ़ते ही स्नेहा का पारा गर्म हो गया | जोर से बोली तो ये स्पीच तुम दोगे | मैं तुम्हारे और नमिता के रिश्ते का मतलब समझ गयी | सबके सामने उसे और मुझे बराबर कहोगे |क्या हम दोनों का काम और स्थान बराबर है | अब  वो बेस्ट फ्रेंड हो गयी | अरे, वाइफ बेस्ट फ्रेंड होती है | मैं वुड बी वाइफ हूँ |मेरे सामने उसको बेस्ट फ्रेंड कहोगे |  बेस्ट फ्रेंड भी मैं ही हूँ | मेरे होते वो बेस्ट फ्रेंड हो गयी | अब मतलब समझ में आया | स्नेहा बिना रुके क्रोध के आवेश में बोले जा रही थी | मैं … मैं जा रही हूँ वरुण , इस ऑफिस से भी और तुम्हारी जिंदगी से भी | अब लौट कर कभी नहीं आउंगी | हाँ ये कागज़ का टुकड़ा लिए जा रही हूँ, इसमें तुम्हारी बेवफाई का सबूत जो है | स्नेहा चली गयी, उसने वरुण से सारे संपर्क काट दिए  समय अपनी गति से चल पड़ा | करीब डेढ़ साल बाद उसे सूर्यांश दिखाई पड़ा | उसे देखते ही उसने हाथ हिलाया | प्रत्युत्तर में उसने भी हाथ हिलाया | सूर्यांश उसके पास आ गया | दो कप कॉफ़ी के साथ बाते शुरू हो  गयीं |बातों ही बातों में उसने वरुण के लिए दुःख प्रकट किया | स्नेहा के आश्चर्य में देखने के कारण वो समझ गया की उसे पता नहीं है | एक गहरी सांस ले कर उसने बताया कि छ : महीने हो गए वरुण को गुज़रे हुए |बहुत शराब पीने लगा था | लिवर सिरोसिस हो गयी |नमिता अंत तक उसके साथ रही | उसने बहुत कोशिश की पर वो उसे बचा न सकी | स्नेहा के आँसू जैसे जम गए |वो वहाँ  ज्यादा देर बैठ न सकी | डेढ़ साल पुराना अतीत आँखों के सामने नाचने लगा |मन रेल हो गया और अतीत वो पटरी , जिस पर अनायास ही दौड़ने लगा, बिना इंजन के बेलगाम |  वो अतीत जिससे वो पीछा छुडाना चाहती थी | जिससे कभी आँख न मिलाने … Read more

जीत भी हार भी

परिमल सिन्हा यूँ ही टेलीविजन का रिमोट पकडकर बैठे थे. कहीं से भी मतलब का कार्यक्रम नहीं आ रहा था. उकताकर वे उठने ही वाले थे कि छोटे पर्दे पर, कोईसुपरिचित सा चेहरा दिखाई पडा. न जाने क्यों इस अनजान युवक की झलक पाकर,उन्होंने फिर से टीवी पर नजर गडा ली. कोई रिएलिटी शो चल रहा था. नाम था – कड़वी सच्चाइयाँ. इस कार्यक्रम के तहत किसी लोकप्रिय हस्ती से वार्ता की जाती थी; उसके जीवन की कड़वी सच्चाइयों से रूबरू होने के लिए. साक्षात्कार, नामी एंकर सिद्धार्थ सलूजा को लेना था. परिमल जी जिज्ञासावश उस टॉक शो को देखने लगे. बातचीत शुरू करते हुए सिद्धार्थ ने कहा, “ रौनी जी, आप छोटे बजट की फिल्मों के उभरते हुए सितारे हैं. कम समय में ही आपने, ढेर सारे फैन बना लिए हैं. इसका राज?” “दिल के रिश्ते कुछ ऐसे ही होते हैं जनाब!” कहकर रौनी हंस दिया. सिन्हा जी को, झुरझुरी सी महसूस हुई. वो हंसी उनके मन के तारों को छेड गयी थी; कुछ इस तरह- मानों बरसों से उसहंसीकोजानते हों वे! सलूजा का अगला प्रश्न था, “फ़िल्मी दुनियां में आप, रौनी के नाम से मशहूर हैं पर आपका असली नाम क्या है?” “जी रोहन सिन्हा” युवक ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया. रोहन का नाम सुनकर परिमल बेतरह चौंक उठे. तो यही चेहरा था, जो इतना अपना सा लग रहा था. उनका अपना अंश, उनका बेटा! इतने सालों के बाद….!! आगे कुछ भी न सूझा. दिमाग की नसों में खून मानों जम सा गया था. जब रोहन उनसे अलग हुआ, सात या आठ साल का रहा होगा. अब तो वे उसे, एक नौजवान के रूप में देख रहे थे. स्मृतियों का चक्र घूमता, इसके पहले ही संचालक महोदय का अगला प्रश्न, उन्हें झकझोर गया, “ रोहन जी, आपके जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना क्या थी?” “जीवन का सबसे दुखद पहलू रहा- मेरे माता पिता का एक दूसरे से सम्बन्ध- विच्छेद. मैं तब बहुत छोटा था……पिता हमारे साथ नहीं रहते. उनसे जुडी कुछ धुंधली यादें जरूर हैं. एक ऐसा इंसान…. जो मां के साथ झगडता ही रहता.” सुनकर परिमल सिन्हा के दिल में शूल सा चुभा. लगा- जैसे कि बीच- बाजार,जूतों की मार पड़ रही हो! लेकिन बेटे के मन में, वे झांकना जरूर चाहते थे. दिलको थामकर, उन्हें आगे का वार्तालाप सुनना ही पड़ा | “हाँ तो रौनी.. कम आयु में हीआप, अपने जन्मदाता से अलग रहने लगे. क्या कभी उन्होंने आपकी खोज खबर लेने की कोशिश की?” “हाँ जी, कोशिश जरूर की थी. बेइंतिहा प्यार करते थेवो मुझे. शुरु शुरू में उनके ढेरों पत्र आते, जिसमें मेरे लिए कवितायेँ भी होतीं.” “और फोन वगैरा?” “एक दो बार कॉल किया था हमें. पर मां उनकी आवाज़ सुनते ही रिसीवर पटक देतीं….मुझसे बात ही न करने देतीं. स्कूल में एक दो बार, वे मुझे चोरी- छिपे मिलने भी आये; लेकिन नानाजी के रसूख के चलते, वह भी बंद हो गया.” “फिर …?” “फिर वे भी क्या करते. हारकर उन्होंने मुझसे संपर्क साधना ही छोड़ दिया…उनकी तो दूसरी शादी भी हो गयी” “ओह…!!” सिद्धार्थ सलूजा जैसा,मंजा हुआ सूत्रधार भी असमंजस में था कि अब क्या कहे, क्या पूछे. अफ़सोस जताते हुए सलूजा ने आगे कुछ प्रश्न किये; जिनसे खुलासा हुआ कि रोहन को अभी भी परिमल सिन्हा से भावनात्मक लगाव था! वह उन्हें आज भी छुपकर देखने जाता है….बस उनके सामने नहीं पड़ता!! बचपन में पापा ही, उसका बस्ता और किताबें जमाते. उसका होमवर्क करवाते. मां तो बड़े घर की बेटी थी. लिहाजा;ठीक वैसे लक्षणभी थेउनके! किटी पार्टी, मेकअप, शॉपिंग वगैरा से,उन्हें फुर्सत नहीं मिलती थी. एक पापा ही थे- जो अपने बच्चे की प्यार की भूख को, जानते –समझते थे. परिमल की आँखें गीली हो चली थीं. रौनी ने तो यहाँ तक कह डाला कि पति- पत्नी के दिल न मिलते हों तो किसी तीसरे को दुनियां में लाना, उनकी भूल बन जाती है. आगे वे नहीं सुन सके और स्विच ऑफ कर दिया. विचलित मनःस्थिति में परिमल, आरामकुर्सी में सर टिकाकर बैठ गए. तभी किसी ने पीछे से आकर गलबहियां डाल दीं. सिन्हा जी चौंक उठे. “डैड!” अरे यह तो नेहा थी! “बिटिया, तुम बोर्डिंग से कब आयीं?” बेटी को अचानक आया देखकर, वे अचम्भित हुए, “स्कूल में छुट्टी हो गयी क्या?” “नहीं डैड…आपको एक सरप्राइज़ देना था; इसलिए.” “क्या है वो सरप्राइज़? आखिर हम भी तो जाने!” परिमल जी अब कुछ हल्का महसूस कर रहे थे. “इतनी जल्दी भी क्या है! मम्मा हैज़ आलमोस्ट फिनिश्ड हर कुकिंग. उन्हें भी आने दीजिए….फिर बताऊंगी” “एज़ यू विश- माई स्वीट लिटिल प्रिंसेस” उन्होंने कहा और हंस दिए. “देट्स लाइक ए गुड डैड”नेहा ने कहा और फ्रेश होनेबाथरूम चली गयी. इधर परिमल विचारों में घिर गए. उनकी पहली पत्नी श्यामा गजब की सुन्दरी थी. दोनों लम्बे समय तक सहपाठी रहे. श्यामा उनकी अभूतपूर्व शैक्षणिक प्रतिभा पर मर मिटी. उसने अपने डैडी को, परिमल के घर भेज दिया; ताकि उन दोनों के रिश्ते की बात चलाई जा सके. श्यामा के डैडी सोमेशचन्द्र, उसकी हर मांग पूरी करते आये थे. उनकी दिवंगत पत्नी की इकलौती निशानी जो थी वह! पर परिमल को श्यामा सरीखी अकडू रईसजादियाँ भाती नहीं थीं. होनी फिर भी होके रही. उसके बाऊजी विश्वेश्वरनाथ, सोमेश जी के करोड़ों के कारोबार को देखकर ललचा गए. तीन तीन कुंवारी लड़कियों की बढती आयु, उनकी प्रतिष्ठा पर प्रश्नचिन्ह लगा रही थी. लड़के की शादी से जो दान दहेज मिलता, उससे तीनों को आराम से ‘निपटाया’ जा सकता था. नतीजा- विश्वेश्वर जी के इस बेटे को, जीवन का वह दांव; खेलना ही पड़ा. जिस सम्बंध की नींव ही खोखली हो, भला कितने दिन चलता! दोनों घरों के सामाजिक स्तर में, जमीन आसमान का अंतर था; पृथ्वी के विपरीत ध्रुवों जैसा! एक तरफ लक्ष्मी की विशेष अनुकम्पा तो दूसरी ओर संयुक्त परिवार की समझौतावादी सोच. तिस पर- खोखली नैतिकता की वकालत करने वाली पाबंदियां और बात बात पर पैसे का रोना. किसी आम मध्यमवर्गीय कुनबे की कहानी! उकताकर श्यामा ने, पति पर दबाव बनाया, “परू मेरा यहाँ दम घुटता है. किसी बात की आज़ादी नहीं! कैदी बनकर रह गयी हूँ. क्यों ना…हम डैडी के पास जाकर रहें. लेकिन परू को घरजंवाई बनना गवारा न हुआ. उसे अपना वजूद कायम रखना था. श्यामा ने भी कभी झुकना … Read more

गली नंबर -दो

“पुत्तर छेत्ती कर, वेख, चा ठंडी होंदी पई ए।”  बीजी की तेज़ आवाज़ से उसकी तन्द्रा भंग हुई। रंग में ब्रश डुबोते हाथ थम गए। पिछले एक घंटे में यह पहला मौका था, जब भूपी ने मूर्ति, रंग और ब्रश के अलावा कहीं नज़र डाली थी। चाय सचमुच ठंडी हो चली थी। उसने एक सांस में चाय गले से नीचे उतारते हुए मूर्तियों पर एक भरपूर नज़र डाली। दीवाली से पहले उसे तीन आर्डर पूरे करने थे। लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों से घिरा भूपी दूर बिजली के तार पर अठखेलियाँ करते पक्षियों को देखने लगा।  हमेशा की तरह आज भी एक आवारा-सा ख्याल सोच के वृक्ष की फुनगी पर पैर जमाने लगा,  आखिरकार ये पक्षी इतनी ऊँचाई पर क्यों बैठे रहते हैं?  ‘ऊंचाई‘, दुनिया का सबसे मनहूस शब्द था और ऊँचाइयाँ उसे हमेशा डर की एक ऐसी परछाई में ला खड़ा करती थीं कि जिसके आगे उसका व्यक्तित्व छोटा, बहुत छोटा हो जाता था!  दूर आसमान में सिंदूरी रंग फैलने लगा था जिसकी रंगत धीरे-धीरे भूपी के रंगीन हाथों सी होती चली गई।  —————————— रंगों का चितेरा भूपी उर्फ भूपिंदर, जस्सो मासी का छोटा बेटा है और हमारी इस कहानी का नायक भी है!  यूं कहने के लिए उसमें नायक जैसे कोई विशेषता नहीं थी जिसे रेखांकित किया जाए!  अगर सिर्फ उसकी दुनिया ही हमारी कहानी का दायरा हो तो इस खामोश कहानी में न कोई आवाज़ होगी और न ही संवादों के लिए कोई गुंजाइश रहेगी!  यहाँ भूपी की इस रंगीन कायनात में इधर-उधर, तमाम रंग जरूर बिखरे हैं पर इंद्रधनुषी रंगों से सजी  ये कहानी इन सब रंगों के सम्मिश्रण से मिलकर बनी है यानि वह रंग जो बेरंग है! तो कहानी भूपी से शुरू होती है, भूपी की उम्र रही होगी लगभग उनतीस साल, साफ रंगत जो हमेशा बेतरतीब दाढ़ी के पीछे छिपी रहती थी,  औसत से कुछ कम, नहीं कुछ और कम लंबाई, इतनी कम कि देखते ही लोगों के चेहरों पर मुस्कान दौड़ जाती थी!  पढ़ने लिखने में न तो मन ही लगा और न ही घर के हालात ऐसे थे कि वह ज्यादा पढ़ पाता!  कुल जमा पाँच जमात की पढ़ाई की थी पर मन तो सदा रंगों में रमता था उसका!  पान, बीड़ी, सिगरेट, तंबाखू, शराब जैसा कोई ऐब उसे छू भी नहीं गया था!  हाँ, अगर कोई व्यसन था तो बस आड़ी-तिरछी लकीरों का साथ और रंगों से बेहिसाब मोहब्बत  जो शायद उसके साथ ही जन्मी थी और साथ ही जन्मी थी एक लंबी खामोशी जो हर सूं उसे घेरे रहती थी!  उसका कोई साथ या मीत था तो उसके सपने, जो दुर्भाग्य से सपने कम दुस्वप्न ज्यादा थे!  भूपी की खामोश दुनिया अक्सर उन दुस्वप्नों की काली, सर्द, अकेली  और भयावह गोद में जीवंत हो जाती!  ये सपने अब उसकी आदत में शुमार हो गए थे और इनका साथ उसे भाने लगा था!   कम ही मौके आए होंगे जब उसे किसी ने बोलते सुना था!  यकीनन मुहल्ले से गाहे-बगाहे गुजरने वालों को यह मुगालता रहता होगा कि वह बोल-सुन नहीं सकता!  कहते हैं जब होंठ चुप रहते हैं तो आँखें जबान के सारे फर्ज़ अदा करने लगती हैं पर भूपी की तो जैसे आँखें बस वही देखना चाहती थीं जिसका संबंध उसके काम से हो और आँखों के बोलने जैसी सारी कहावतें बस कहावतें ही तो रह गयी थीं!  पता नहीं ये दुस्वप्नों के नींद पर अतिक्रमण का असर था या कुछ और कि ये आँखें अक्सर बेजान, शुष्क और थकी हुई रहा करती थीं! यह सहज ही देखा जा सकता था कि  उन तमाम काली रातों की सारी कालिमा, सारा अंधेरा, सारा डर और सारा अकेलापन इन भावहीन आँखों के नीचे अपने गहरे निशान छोड़ गया था, हालांकि इनकी इबारत पढ़ पाना किसी के लिए भी संभव नहीं था, फैक्टरी में दिन भर मेहनत कर रात में गहरी नींद लेने वाली बीजी भी इन निशानों की थाह कब ले पायी थी! ——————————————- जस्सो मासी उर्फ़ बीजी उर्फ़  जसवंत कौर एक नेक, मिलनसार और खुशमिजाज़ औरत थी जो ज्यादा सोचने में यकीन नहीं रखती थी या उन्ही के शब्दों में कह लीजिये “जिंदड़ी ने मौका ही कदो दित्ता”  (जिंदगी ने मौका ही कब दिया) !  गेंहुआ रंग, छोटा कद, स्थूल शरीर, खिचड़ी बाल और कनपटी पर किसी हल्के से रंग की चुन्नी के बाहर, ‘मैं भी हूँ‘ अंदाज़ में झूलती एक सफ़ेद लट,  चौड़े पायंचे वाली सलवार-कमीज़ और चेहरे पर मुस्कान!  मुल्क के बँटवारे ने सब लील लिया था,  बँटवारे के दंश को सीने में छुपाए, काफी अरसा हुआ तरुणाई की उम्र में पति के साथ पंजाब से यहाँ आकर बसी थी!  जाने वो दिल था, जिगर था या जान थी जो वहाँ छूट गया था, लोग कहते हैं वो अब पाकिस्तान था!  बहुत समय लगा ये मानने में कि वो मुल्क अब गैर है, कि अब वो हमारा नहीं रहा, कि उसे अब अपना कहना खामखयाली है!  और देखिये न उनकी उजड़ी गृहस्थी और टूटे दिल को उस दिल्ली में ठिकाना मिला जो खुद भी न जाने कितनी बार उजड़ी और बसी थी!  पर दिल्ली जब हर बार उजड़ कर बस गयी तो जस्सो मासी की नयी-नयी गृहस्थी भला कब तक उजड़ने का दर्द सँजोती रहती!  दिल्ली ने ही उनकी तरुणाई की वे जाग-जाग कर काटी रातें देखीं, तिनके-तिनके जोड़ कर जमाया घौंसला देखा और दिल्ली ही असमय पति के बीमार हो जाने पर 2 बच्चों के साथ हालात की चक्की में पिसती, उस जूझती फिर भी सदा मुस्कुराती माँ के संघर्षों की मौन साक्षी बनी!  इन मुश्किलों ने उन्हे जुझारू तो बना ही दिया था, साथ ही वे छोटी-छोटी बातों को दिल से लगाने को फिज़ूल मानने लगी थी!  यूं भी जिंदगी ने उन्हे सिखाया था जब मुश्किलें कम न हो तो उनसे दोस्ती कर ली जाए, उन्हे गले लगा लिया जाए! यह एक निम्न-मध्यमवर्गीय लोगों का मोहल्ला था, जहां रहते हुये लोगों को न तो बीत गए सालों की संख्या याद थी और न ही एक दूसरे से कब रिश्ता बना यह भी याद रहता था!  अपने छोटे-छोटे सुखों को महसूसते और पहाड़ जैसे दुखों से लड़ने को अपनी आदत में शुमार किए उन लोगों का बड़ा-सा परिवार थी यह गली, जिसे गली नंबर 2 कहा जाता था!  इन लोगों ने … Read more